प्रियकांत / भाग - 25 / प्रताप सहगल

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मुक़दमों से मुक्ति के बाद भी उसके मन को कहीं यह बात सालती रहती कि आख़िर वह चिप गई कहाँ ? उसने ख़ुद अपनी आँखों से देखी थी वह फ़िल्म। क्या उसे दिखाने के बाद नेहा ने उसे नष्ट कर दिया होगा ? क्या वह उसे अपने साथ ही विदेश ले गई होगी ? या फिर किसी चेले ने उसे छिपा लिया, दबा दिया या माधव ने पैसे के बल पर वह चिप ख़रीद ली ? उसने यह बात माधव से पूछी-”माधव! यह कैसे हो सकता है कि कमलनाथ के यहाँ सब कुछ बरामद हुआ और वो चिप नहीं मिली ?”

माधव : अब तू उस चिप को लेकर इतना परेशान क्यों है ?”

प्रियकांत : चाहता हूँ कि मैं बिलकुल क्लीन होकर नए सिरे से शुरू करूँ।

माधव : उसके लिए उस चिप का होना ज़रूरी है ?

प्रियकांत : हाँ, मैं अपनी उस कमज़ोरी को भी किसी से छिपाना नहीं चाहता।

प्रियकांत वस्तुतः अभी इसी दुविधा में था कि अंततः उसे करना क्या है।

माधव : लोग जान भी लेंगे तो उससे क्या होगा...असली पश्चात्ताप तो तुम्हारे अंदर ही होना है न...उसके लिए अब उस चिप का होना न होना निरर्थक है...तुमने नेहा का रेप थोड़े ही किया है...और फिर तुम मुझसे बेहतर जानते हो कि बड़े-बड़े ऋषि, महर्षि और तपस्वी भी काम के बाणों से बच नहीं पाए...यह सब छोड़ो और फिर से जुट जाओ अपने विश्व-कल्याण के अभियान में।

प्रियकांत : खोए हुए विश्वास, टूटी हुई आस्था और खंडित हो चुकी श्रद्धा को फिर से अर्जित करना संभव नहीं है।

माधव : यह तुम कह रहे हो...स्वामी विद्यानंद के शिष्य...तुम पुनः उन्हीं के चरणों में क्यों नहीं जाते ?

प्रियकांत : वे अब स्वीकार नहीं करेंगे मुझे।

माधव : वे गुरु हैं तुम्हारे...तुम्हें अस्वीकार करना तो उनके लिए संभव ही नहीं है...तुम जाओ तो सही!

“ठीक है,” कहकर प्रियकांत ख़ामोश हो गया। वह अंदर ही अंदर स्वामी विद्यानंद के सामने जाने का साहब जुटा रहा था। अमावस्या की रात थी। प्रियकांत अपने आश्रम में ही बाहर चारपाई पर लेटा शुभ्र आकाश में फैले सितारों को निहार रहा था। न जाने कितने सितारे, कितने नक्षत्र, कितनी आकाशगंगाएँ, कितना विशाल वितान, नीला, रहस्यमय...और नीचे विशाल पृथ्वी के एक अंश-भर-सा लेटा हुआ प्रियकांत। क्या अस्तित्व है उसका ? मामूली। मामूलियत ही उसके जीवन का सार है। इसी मामूलियत में ही खोजनी होती है ग़ैर-मामूलियत। यही ग़ैर-मामूलियत ही तो हमें कुछ अलग से करने के लिए तैयार करती रहती है।

प्रियकांत मामूलियत और ग़ैर-मामूलियत के पैमाने गढ़ने लगा। मामूलियत आदमी का बाहरी तत्व है या आंतरिक, ग़ैर-मामूलियत अर्जित की जाती है, ओढ़ी जाती है या ओढ़ा दी जाती है! प्रश्नों के सामने निरंतर प्रश्न।

उसे याद आया, एक बार माधव ने ही उससे कहा था-”तुम बहुत सीधे हो प्रियकांत! और मेरी बात याद रखना, सीधे पेड़ ही सबसे पहले काटे जाते हैं।”

वर्षों पहले किसी संदर्भ में कही गई यह बात अचानक उछलकर प्रियकांत के सामने क्यों आ गई ? सोचने लगा कि सीधा ही तो है वह। सीधे-सीधे ही वह महत्वकांक्षाओं की दुनिया में प्रवेश करता चला गया। बिना यह सोचे-समझे कि धर्म की दुनिया में भी टेढ़े पेड़ों की एक बड़ी जमात पहले से ही मौजूद थी, तो क्या वह भी टेढ़े पेड़ की तरह से ख़ुद को मोड़ ले ? यह सोचते-सोचते वह मन ही मन हँसने लगा कि जैसे सीधा या टेढ़ा होना उसके अपने वश में है। क्या कोई पेड़ जानता है कि उसका विकास किस तरह होगा ? कहाँ से मुड़ेगा ? कहाँ लचकेगा ?

कितनी गाँठें होंगी ? कितनी छाल और कितने पत्ते ? इसी तरह की कई-कई बातें सोचते हुए प्रियकांत की आँख लग गई।

यह एक सर्वमान्य धारणा है कि ख़ूनी ख़ून करने के बाद एक बार उसी जगह पर ज़रूर लौटता है। आज के संदर्भ में देखें तो यह प्रत्यावर्तन की यात्रा वह टी.वी. के माध्यम से कर लेता है।

ठीक इसी तरह से सफलता की मीनारों पर चढ़ने के बाद अगर कहीं गहरी असफलता का सामना करना पड़े तो व्यक्ति पुनः उसी स्थान की ओर लौटता है, जिस स्थान से उसने सफलता की राह पर चलने के लिए पहला क़दम उठाया था।

आज यही स्थिति प्रियकांत उर्फ़ प्रियांशु की हो रही थी। असफलता और लोकापवाद के सामने उसे ‘गुलशन सत्संग सभा’ की याद आई और वह सोचने लगा कि क्या वह एक बार फिर अपनी यात्रा वहीं से शुरू कर सकता है ? अपनी यह सोच उसे कुछ अटपटी तो लगी, लेकिन उस ओर क़दम बढ़ाने से वह ख़ुद को रोक नहीं सका। बिना माधव या किसी और से सलाह किए वह अगली ही सुबह मधु पार्क में जा पहुँचा। देखा, छोटा-सा मंच पहले की तरह ही सजा हुआ था। राम-कृष्ण की मूर्तियों के साथ दुर्गा और शिव की मूर्तियाँ भी स्थापित हो गई थीं। कोई अनाम, अनजान संत प्रवचन दे रहे थे। कुल जमा चालीस-पचास लोग। अधिकतर चेहरे पुराने थे, कुछ नए चेहरे भी दिख रहे थे। उसने देखा कि गुलशन बाऊजी नहीं हैं। हाँ, उसे याद आया कि थोड़े दिन पहले ही तो किसी ने उसे ख़बर दी थी कि गुलशन बाऊजी नहीं रहे। पर उन दिनों प्रियकांत के गुरुत्व का घोड़ा बहुत तेज़ भाग रहा था। यूँ लगता था कि अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े की तरह से ही प्रियकांत के गुरुत्व के घोड़े को भी चुनौती देने वाला कोई नहीं था। उसने देखा कि गुलशन बाऊजी की कुर्सी पर शीशे के फ्रेम में जड़ी उनकी एक फ़ोटो रखी हुई थी। यानी उनकी उपस्थिति अभी भी बनी हुई है। प्रियकांत को यह दृश्य बहुत विचलित कर गया। उसके मन में गुलशन बाऊजी के प्रति आदर का भाव उमड़ आया। उसने दूर से ही उस फ़ोटो को प्रणाम किया और जितनी ख़ामोशी से वह आया था, उससे भी अधिक ख़ामोशी के सागर में डूबता हुआ लौट गया। उदास, हताश, निराश।

किसी ने उसे पहचाना नहीं। उसने कपड़े ही कुछ इस तरीके़ से पहने हुए थे कि कोई भी व्यक्ति दूर से उसे पहचान न सके। लौटते हुए सोचने लगा कि वह वहाँ जाकर भी उन लोगों के बीच क्यों नहीं गया ? क्या उसके मन में अभी भी कोई दंश है, जिससे वह मुक्त नहीं हो सका ? क्या उसे यह डर है कि लोग कुछ बुरा-भला न कह दें ?

वह ऐसे ही कितने-कितने सवालों से उलझता हुआ अपने आश्रम में लौट आया।

दो दिन बाद माधव यह कहकर जर्मनी लौट गया कि अपने बिज़नेस के सिलसिले में उसका वहाँ जाना ज़रूरी है। प्रियकांत निपट अकेला रह गया। बहुत साहस बटोरने के बावजूद वह स्वामी विद्यानंद के पास नहीं जा सका। अपने गुरु के आग्नेय नेत्रों का सामना करने की हिम्मत अभी भी उसमें नहीं आई थी। प्रियकांत ख़ुद को निपट अकेला महसूस कर रहा था। अंदर-बाहर-दोनों नज़रियों से अकेला।

अकेलापन व्यक्ति को तोड़ता है तो अकेलपान व्यक्ति को आत्ममंथन का अवसर भी देता है।

अपने चिंतन-कक्ष में अकेला बैठा प्रियकांत अपने जीवन की अब तक की यात्रा को फिर से जीने की कोशिश कर रहा था। उसे लगा कि उसके जीवन की सबसे बड़ी विफलता यह है कि वह अहम्मन्यता को जीत नहीं सका। उसे शेखर याद आया। उसे गुलशन बाऊजी याद आए। उसे गुप्ता जी का घर याद आया। उसे याद आया आइस्कॉन का वह स्वामी, जिसने उपेक्षा-भरी दृष्टि से उसे अंदर तक आहत कर दिया था। उसी दृष्टि ने उसके अंदर अहम्मन्यता का भाव पैदा किया था। उसे याद आई प्रमिला राही, जिसने ‘ज़रा हटके’ कुछ करने का पाठ अनजाने में ही पढ़ा दिया था और फिर उसकी आँखों के सामने चमक उठा दीवार पर लगा वह पोस्टर, जिस पर उसके नाम के साथ किसी ने ‘कुकुरमुत्ता’ शब्द जोड़ दिया था।

उसे अपने चारों ओर कुकुरमुत्तों का जंगल उगा दिखाई देने लगा। उसके कानों में ‘कुकुरमुत्ता...कुकुरमुत्ता’ की ध्वनियाँ सुनाई देने लगीं। उसकी आँखों के सामने कुकुरमुत्ते तांडव करने लगे...कभी तांडव, कभी लास्य...दोनों आपस में घुल-मिल रहे थे।

प्रियकांत पर थकान तारी होने लगी। उसे लगा, वह हाँफने लगा है। लेट गया।

मन को स्थिर करने की कोशिश की। नहीं हुआ। मन बार-बार उससे पूछ रहा था-‘कौन हो तुम ? प्रियकांत या प्रियांशु ?’

बार-बार यही सवाल।

प्रियकांत के कई-कई मन यही सवाल पूछ रहे थे और उसका सातवाँ मन देख रहा था कि प्रियकांत न प्रियकांत रहा और न ही वह बचाकर रख सका प्रियांशु को।

प्रियकांत उर्फ़ प्रियांशु-दोनों ही एक-दूसरे में डिज़ॉल्व हो रहे थे।

समाप्त।