प्रिसक्रिप्शन के परे जीवन का नुस्खा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 02 फरवरी 2013
जयपुर फिल्म समारोह में शर्मिला टैगोर को जीवनपर्यंत सिनेमा सेवा के लिए पुरस्कृत किया गया। उन्हें सम्मानित करने के लिए मंच पर हेमा मालिनी और प्रेम चोपड़ा मौजूद थे। इसके बाद संगीता दत्ता की फिल्म 'लाइफ गोज ऑन' का प्रदर्शन हुआ। फिल्म का केंद्रीय पात्र शर्मिला टैगोर ने निभाया है, अत: यह अवसर की गरिमा के अनुरूप फिल्म चुनी गई, जिसके लिए आयोजकों को बधाई। फिल्म में शर्मिला टैगोर की पुत्री सोहा की प्रमुख भूमिका है और उन्होंने अच्छे अभिनय द्वारा अपनी मां को आदरांजलि भी दी है। फिल्म में गिरीश कर्नाड और ओमपुरी जैसे निष्णात अभिनेताओं ने इसे एक हृदयस्पर्शी अनुभव बना दिया। सिनेमा का एक चिरंतन मूल्य है सद्व्यवहार एवं सदाशयता। मनुष्य की करुणा और अच्छाई हमेशा दर्शक के हृदय को स्पर्श करती है। फिल्म कला को मूवीज इसलिए नहीं कहते कि उसमें चलती-फिरती तस्वीरें होती हैं या प्रोजेक्शन रूम में रील घूमती है। इन्हें मूवीज इसलिए कहते हैं कि ये अपने प्रभाव से सिनेमाघर में स्थिर बैठे हुए दर्शक के हृदय में भावनाओं को गति देती हैं। अर्थात जो 'स्थिर' है, वह 'गतिमान' है।
बहरहाल, यह फिल्म संदेश देती है कि मृत्यु जीवन का अंत नहीं है। जीवन हर परिस्थिति में चलता रहता है, गोयाकि 'चलना जीवन की कहानी, रुकना मौत की निशानी' है। जीवन के वाक्य में मृत्यु मात्र अद्र्धविराम है, उसे पूर्णविराम नहीं मानना चाहिए। फिल्म के प्रारंभ में ही सफल-समृद्ध डॉ. गिरीश कर्नाड की पत्नी शर्मिला अभिनीत पात्र की मृत्यु हो जाती है। मृत्यु के पहले वह उत्साह से अपने परिवार के लिए भोजन बनाते समय टेलीविजन पर क्रिकेट मैच देख रही है और भारत की विजय पर प्रसन्नता प्रकट करती है, गोयाकि वह जीवनधारा में पूरे आनंद के साथ बहती है। कितनी किफायत से मात्र छोटे-से दृश्य में पात्र के चरित्र की मूल भावना प्रकट की गई है।
रिश्तेदारों के आने तक के लिए दाह संस्कार सप्ताह भर बाद है। इसी सप्ताह में हम देखते हैं कि उसकी तीनों बेटियों के जीवन में संक्रमण-काल है और वे अपनी समस्याओं से जूझ रही हैं तथा मां के साथ बिताए दिनों के अनुभव ही उन्हें समस्याओं का हल देते हैं। डॉक्टर साहब ने सारे जीवन अपने काम में डूबकर बहुत यश और धन कमाया है तथा लंदन में बसे बंगालियों के लिए वे आदर्श और पूजनीय भी हैं। वे स्वभाव से जिद्दी और अपने जीवन मूल्यों पर अडिग रहने वाले व्यक्ति हैं। इस प्रतिभाशाली व्यक्ति ने अपने नहीं बदलने वाले पूर्वग्रह, पसंद और नापसंद जीवन के नियम बना लिए हैं और उसकी अपेक्षा है कि परिवार के अन्य सदस्य भी उसके नियमों पर चलें, गोयाकि उसने जीवन को मरीजों के लिए लिखे अपने 'प्रिसक्रिप्शन' (दवा का पर्चा) की तरह अडिग मान लिया है। क्या मुस्कराहट को सुबह की गोली की तरह या आंसू को शाम के वक्त के लिए रक्तचाप की दवा की तरह ग्रहण किया जाता है? क्या हृदयरोग की जांच के लिए लिया कार्डियोग्राम का चार्ट हृदय में उठते भावनाओं के तूफान का परिचय दे सकता है? बहरहाल, शेक्सपीयर के नाटक 'किंग लियर' की तरह वह अपनी बेटियों में अपने लिए प्रेम और आदर का आकलन करना चाहता है। पूरी फिल्म में किंग लियर न सिर्फ एक रूपक है, वरन सोहा उस नाटक के मंचन में महत्वपूर्ण भूमिका भी कर रही हैं और मां की मृत्यु के बाद भी अनचाहे ही अपने परिवार के आग्रह पर वह नाटक के मंचन में भाग लेती हंै, जो फिल्म के नाम को सार्थक करता है कि जीवन सदैव चलता रहता है।
डॉक्टर साहब के बालसखा की भूमिका ओमपुरी ने निभाई है और यह भूमिका कथा की सरहद पर ही नहीं खड़ी रहती, वरन केंद्र बिंदु को भी प्रभावित करती है। अर्थात वह क्रिकेट के १२वें खिलाड़ी से कहीं अधिक है। क्रिकेट में १२वें खिलाड़ी को सिर्फ क्षेत्ररक्षण का अधिकार होता है, बल्लेबाजी का नहीं; परंतु इस फिल्म में यह पात्र कभी बल्लेबाजी करता है, तो कभी-कभी अंपायर भी बन जाता है। वह सफलता के पीछे सारा जीवन भागने वाले अपने बालसखा से कहता है कि डॉक्टर 'साहब' था, उसकी पत्नी 'बीवी' थी तथाउसकी जीवनकथा में वह मात्र 'गुलाम' था। इस रूपक की 'बीवी' शराब नहीं पीती, परंतु 'गुलाम' की शराब की लत को नियंत्रित करती है और जीवन में आगे बढऩे के लिए प्रेरित करती है। ओमपुरी भावना की गहनता से कहते हैं कि वह महान औरत जिस जमीन पर चली है, उसका वे सजदा करना चाहेंगे। दरअसल फिल्म में शर्मिला अभिनीत पात्र और ओमपुरी अभिनीत पात्र का रिश्ता अपरिभाषेय है। गिरीश कर्नाड अभिनीत पात्र अपनी पत्नी के देहांत के बाद समस्याओं की वर्षा को पत्नी के छाते के बिना बड़ी मुश्किल से झेल पाता है, परंतु यह अलगाव ही उसे जीवन में भावनाओं के साथ व्यावहारिकता के संतुलन को समझाता है। शवदाह तक वह अपने 'प्रिसक्रिप्शन' से बाहर आता है। एक नेक इंसान, सबकी भलाई चाहने वाला इंसान मृत्यु के पश्चात भी जीवन का पथ प्रशस्त करता है। शैलेंद्र याद आते हैं- 'किसी के आंसुओं में मुस्कराएंगे, कि मरके भी किसी को याद आएंगे।'