प्रीतलड़ी: एक पत्रिका से आगे / कमल

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आजादी के पहले से अनवरत निकल रही पंजाबी की सबसे महत्वपूर्ण पत्रिका जो मात्र एक पत्रिका नहीं है। सामाजिक मूल्यों के प्रति असीम प्रतिबद्धता, मनुष्यता की पीड़ा से गहरा जुड़ाव, समाज को उत्कृष्टतम और न्यायसंगत स्थिति में देखने की छटपटाहट, सृजन की सामाजिक भूमिका के लिए पक्षधरता, मुश्किलों के बीच भी अस्तित्व बचाये रखने की जिद, ये सभी ऐसी चीजें हैं जिन्होंने इस पत्रिका को एक आंदोलन के रूप में प्रतिष्ठा दिलायी है, जो प्रगतिशीलता के इतिहास का सूत्रधार रही है, जिसके बिना प्रगतिशीलता के आंदोलन का इतिहास पूरा नहीं होता है।

प्रीतलड़ी, पंजाबी की पत्रिका है किन्तु इसे देश-विदेश स्तर पर इसे वह प्रतिष्ठा मिली है जो दुर्लभ है। इतनी प्रतिष्ठा और पहचान मुश्किल से किसी पत्रिका को मिल पाती है। सच यह है कि प्रगतिशीलता के आंदोलन और उसके इतिहास की जब चर्चा होगी, प्रीतलड़ी चर्चा में आयेगी। भारतीय भाषाओं के परिदृश्य में प्रीतलड़ी के जोड़ की पत्रिकाएं विरले हैं और प्रीतलड़ी उनके बीच अन्यतम है।

जो चीज प्रीतलड़ी को अन्यतम बनाती है, वह है, तीन पीढि़यों द्वारा मुश्किलें झेलते हुए भी इसका अनवरत संपादन, प्रकाशन। इसके संपादक सुमीत सिंह की शहादत इस पत्रिका को विशिष्टतापूर्ण सम्मान के योग्य ठहराती है। आज प्रीतलड़ी न सिर्फ देश के अनेक हिस्सों में, बल्कि दुनियां के अनेक हिस्सों में भी, जहां मनुष्यता और मूल्यों के लिए संघर्ष चल रहे हैं, सम्मान के साथ याद की जाती है। प्रीतलड़ी को याद करना संघर्षों और मूल्यों की विरासत को याद करना है।

सन् 1933 से 2006 तक तिहत्तर वर्षों का लंबा समय। दुनियां भर के पंजाबियों के नाम और दुनियां के सबसे बड़े लोकतंत्र को और भी शक्तिशाली करने के यतन से अपने को जोड़ने की कामना करती, प्रीतनगर से पंजाबी में प्रकाशित होने वाली पत्रिकाए सरदार गुरबख्श सिंह के सपनों का साकार रुप प्रीतलड़ी अगर उनके गुजरने के बाद भी छपती रही तो महज इसलिए नहीं कि उनके परिवार वाले उनका नाम जिन्दा रखना चाहते थे, बल्कि इसलिए कि समाज और समय को इसकी जरुरत थी और परिवार वालों के साथ-साथ कुछ और लोग भी इससे इस कदर जुड़े हुए थे कि प्रीतलड़ी के बिना उन सब को अपना अस्तित्व बेमानी लगता था। उन सबके लिए यह एक मिशन बन चुका था। वैसे साहित्य की अन्य पत्रिकाओं की तरह इसका प्रकाशन भी कबीर के शब्दों में-

“जो घर जारै आपना, चलै हमारे साथ से कभी कम नहीं रहा ।”

जैसे कि कोई श्रद्धालु सिक्ख अमृतसर जाए और स्वर्ण मंदिर में मत्था न टेके, जैसे कि कोई देशभक्त अमृतसर जाए और जालियाँवाला बाग न देखे ठीक ऐसा ही है कि कोई साहित्य प्रेमी अमृतसर जाए और प्रीतलड़ी के कार्यालय को न देखना चाहे या प्रीतलड़ी से जुड़े लोगों से न मिलना चाहे। कुछ-कुछ ऐसा ही मेरे साथ भी हो रहा था, जब से मैं मूरी एक्सप्रेस में बैठा था। मेरे मन में प्रीतलड़ी निकाल रहे लोगों से मिलने की तीव्र इच्छा जगी हुई थी। कौन हैं पूनम सिंह, सुमीत सिंह के बाद प्रीतलड़ी ने कैसे बिताया है अपना समय, कौन हैं रत्ती कांत सिंह, इस पत्रिका की प्रथम परिकल्पना ने किस जगह और किसके दिल में जन्म लिया था, शुरुआत कैसे हुई, पत्रिका ने प्रारंभिक कठिनाइयों का कैसे सामना किया, अदि.... आदि …. ।

और फिर प्रारंभ हुआ अमृतसर पहुंच कर प्रीतलड़ी के दफ्तर को ढूंढने का दौर, यानि कि प्रीतनगर पहुंचना। मेरे सूचना स्त्रोतों द्वारा. दशमेश नगर, गुरनाम नगर, तेज नगर, जसपाल नगर, अमृतसर में कई नगरों का पता चलने लगा।

“प्राहजी, चाहे जित्थों वी पता करो, लेकिन मैंनूं तुसी प्रीतलड़ी दे दफ्तर ले के जाना ए। जे कर तुसी न जा सको तां मैंनू उत्थों दा एड्रेस दस दो (भाई साब चाहे जैसे भी पता कीजिए लेकिन आपने मुझे प्रीतलड़ी के कार्यालय ले कर ही जाना है। अगर आप न जा सकें तो मुझे उनका ठीक, ठीक पता समझा दें)।” मैं ने अपने साले साहब (पत्नी के फुफेरे भाई) से कहा।

“प्रीतलड़ी ते खूब पढ़ी ए पर कदी उस दे दफ्तर नई गया। मगर तुस्सीं बेफिकर रहो जी मैं कल शाम तक प्रीतनगर दा पता कर के दसदां हां (प्रीतलड़ी तो खूब पढ़ी है परन्तु उसके दफ्तर कभी नहीं गया। मगर आप निश्चिंत रहो जी, मैं कल शाम तक पता कर के आप को बताता हूँ )। उनका उत्तर आश्वस्त करने वाला था ।

उसी शाम शंकर जी, सौजन्य संपादक, परिकथा से चलंत-दूरभाष (मोबाइल) पर बात हुई।

“अच्छा ठहरिये, मैं खगेन्द्र जी, (डॉ. खगेन्द्र ठाकुर) से पूछता हूँ। उनके पास कोई संपर्क-सूत्र अवश्य होना चाहिए।” उनका उत्तर था।

फिर शाम होने तक दोनों बातें एक साथ हुई। साले साहब ने सूचित किया कि प्रीतनगर अमृतसर से लगभग बीस-पच्चीस किलोमीटर दूर रामतीर्थ रोड पर स्थित है तथा दूसरी तरफ खगेन्द्र जी से प्राप्त करके शंकर जी ने पूनम सिंह (संपादक, प्रीतलड़ी) का फोन नंबर मुझे नोट करवा दिया। फोन नंबर मिल जाना मेरे लिए ज्यादा उत्साहवर्द्धक था। अब मैं सीधे पूनम सिंह से बात कर सकता था। फिर तो बाकी चीजें जैसे स्वतः ही होती चली गई।

...अमृतसर की माल-रोड जहां खत्म होती है, ठीक वहां से गुरु नानक देव विश्वविद्यालय के पिछले गेट से लगती हुई गांव की ओर एक सड़क चल पड़ती है। सीधी चलती जाती है। यह सड़क कुछ ही मिनटों में देहातों के लहलहाते खेतों के बीच से आपको कोई 15 किलोमीटर दूर राम-तीर्थ तक पहुंचा देती है, जिसके संबंध में यह कथा प्रचलित है कि ऋषि वाल्मीकि के आश्रम में वहां सीता ने अपना काफी समय बिताया था। अब यह स्थल बहुत सुंदर बना लिया गया है। यहां सेना का एक कैंट भी है। आगे जाने पर चोगांवा आता है, यहां से चार किलोमीटर आगे जाने पर सीधी सड़क से दांये मुड़ना पड़ेगा बस और एक-डेढ़ किलोमीटर का सफर आपको प्रीतनगर पहुंचा देता है। अब सड़क के इस अंतिम हिस्से को उस आदमी के प्रति सम्मान प्रकट करते हुए ‘गुरबख्श सिंह’ मार्ग कहा जाता है, जिसने प्रीतनगर की परिकल्पना की थी और प्रीतलड़ी निकालने की परिकल्पना के साथ यह उपनगर बसाने की बात भी सोची थी। सरकारी कागजों के अनुसार यह लोपोकी गांव का हिस्सा है। पहले यहां की जमीन बंजर थी, बिल्कुल सफेद रंग की। इसे जिप्सम से ट्रीट किया गया तब जा कर यह उपजाऊ बनी। अब तो इस इलाके में फसलें लहलहाती है। इसके बारे में कहा जाता है कि बादशाह जहांगीर व उनकी बेगम जब कश्मीर जाने के लिए यहां से गुजरते थे तो ठहर कर यहां रहने वाले एक सूफी शाह बख्तयार के पास जरूर हाजिरी देते थे। शायद इसी कारण यहां बादशाही दौर की इमारतें व तालाब भी हैं। नजदीक ही पुल-कंजरी नाम का एक गांव है, जिसके बारे में कहा जाता है कि लाहौर से महाराजा रणजीत सिंह अपनी गणिका से मिलने यहां आते थे। यहां बहुत कीचड़ हो जाया करता था, जिससे बचने के लिए उन्होंने एक पुल बनवाया था।

गुरबख्श सिंह स्वयं सिविल इंजीनियर थे। दूर से ही उनके द्वारा डिजाइन की गयी इमारतों का पीला रंग दिखायी देने लगता है। प्रीतनगर में इस सड़क पर सबसे पहले सरकारी स्कूल पड़ता है। अब तो उस समय के स्कूल का गेट ही दिखता है, जिसे गुरबख्श सिंह ने बनवाया था। संभवतः वह भारत का पहला को.एड. स्कूल था जहां लड़के, लड़कियां एक साथ पढ़ते थे। लड़के, लड़कियों का एक साथ, एक छत के नीचे पढ़ना तब एक बड़ी हैरानी की बात थी। इसलिए उन दिनों इसे देखने के लिए लाहौर जैसे महानगर से भी लोग आते थे। जवाहरलाल नेहरू भी प्रीतनगर आये थे, बापू ने खत भेजा था। उपेन्द्रनाथ अश्क ने तो प्रीतनगर को केन्द्र में रख कर एक लंबी कहानी भी लिखी थी। सिर्फ प्रीतनगर के ही नहीं, दूर-दूर से विद्यार्थी सायकिलों पर यहां पढ़ने आते थे। प्रीतनगर के बारे में कहा जाता है कि गुरुबख्श सिंह के प्रति लोगों में कुछ ऐसी श्रद्धा थी कि स्थानीय लोग इसके पास से गुजरते हुए अपने मवेशियों को भी गाली नहीं देते थे। हालांकि यह लाहौर का उप-नगर जैसा था, लेकिन पहले बंटवारे ने इसे नष्ट कर दिया और बाद में उग्रवाद ने (इसने भारत-पाक के बीच दो जंगें भी देखीं हैं) ।

आज लाहौर और अमृतसर के बीच भारत और पाकिस्तान को अलग करने के लिए बाघा-बार्डर की सीमा-रेखा है। मगर उन दिनों इस तरह बांटने वाली कोई रेखा न थी, जब इन दोनों शहरों के बीच प्रीतनगर को संस्कृति के एक मुख्य केंद्र के रूप में बसाया गया था। आज भी दोनों तरफ के लोगों की रिश्तेदारियां दोनों तरफ आबाद हैं। रात को जलने वाली लाहौर की रोशनियां प्रीतनगर से बहुत करीब दिखती हैं। वहां के एयरपोर्ट पर चढ़ते-उतरते जहाजों की आवाजें सुनायी देती हैं। कभी उधर से तो कभी इधर से कट कर पतंगें एक दूसरे की ओर आ गिरती हैं। लोक-गीतों की बोलियां, टप्पें आदि की आवाजें भी बगैर किसी खौफ के सीमा रेखा को पार करती जाती हैं। लगभग पाँच सौ एकड़ क्षेत्रफल में कोई एक सौ परिवार बनाते हैं ये प्रीतनगर, जहां से निकलती रही है, ‘प्रीतलड़ी’।

प्रीतलड़ी ने समकालीन रचनाकारों को किस कदर प्रभावित किया इसका एक उदाहरण हैं, पंजाबी के प्रसिद्ध कवि दर्शन सिंह ‘आवारा’। जिन दिनों प्रीतलड़ी का प्रकाशन प्रारंभ हुआ, ‘फूलवाड़ी’ पत्रिका के संपादक तथा कवि ज्ञानी हीरा सिंह ‘दर्द’ ने गुरबख्श सिंह से कहा कि वे कवि ‘आवारा’ को प्रीतलड़ी में कविता लिखने के लिए प्रेरित करें। उनके अनुसार दर्शन सिंह ‘आवारा’ प्रतिभाशाली नवोदित कवि थे। गुरबख्श सिंह ने ‘आवारा’ जी को प्रीतलड़ी भेजी और कविता देने के लिए कहा। ‘आवारा’ जी पर प्रीतलड़ी का कुछ ऐसा असर हुआ कि इसके लिए कविता भेजनी तो दूर उन्होंने कविता लिखनी ही बंद कर दी। वे गुरबख्श सिंह से मिलते और प्रीतलड़ी में छपी रचनाओं पर गंभीरता से बातें करते। लेकिन कविता मांगने पर कहते, “ ज्यों ज्यों मैं प्रीतलड़ी पढ़ता हूं, मेरी कविता खामोश होती जाती है।”

इस बात से गुरबख्श सिंह को बड़ा अफसोस होता कि उनकी पत्रिका ने एक उभरते कवि का असमय अंत कर दिया। फिर कई वर्षों बाद, कविता लिखनी छोड़ देने की अपनी पिछली बातों के उलट, सन् 1939 में ‘आवारा’ ने एक कविता भेजी। कविता प्रीतलड़ी के अगले अंक में छपी और अच्छी होने के कारण काफी चर्चित हुई। बाद में उनकी कविताएं मलाया, बर्मा, अफ्रीका तक पाठकों की प्रशंसा पाने लगीं और वे पंजाबी के ‘लोक-कवि’ के रूप में जाने गये।

कुंए से पानी भर कर ला रही रोमानिया की युवती की खूबसूरत रंगीन तस्वीर वाले जनवरी 1939 के अंक में अमृता कौर (अमृता प्रीतम) की प्रसिद्ध कविता ‘धर्म के नाम पर’, वीणा विनोद की कहानी, चीन के डॉ. लिन यूटांग का लेख ‘ मैं क्यों ला मजहब हूँ’ है।

आज का स्त्री-विमर्श हो या दलित-विमर्श अथवा तब का मुस्लिम-लीग, पंजाब तथा सिंध असेंम्बली, ईरान के शाह, कैनेडा का नया नाम, आगा खाँ की शख्सियत, हिटलर का बाइकाट आदि विषय प्रीतलड़ी में समकालीन मुद्दों पर सदा ही भरपूर चर्चाएं हुई हैं। ब्रेजनेव के भारत दौरे के अवसर पर दिसंबर 1973 के अंक के आकर्षक मुख्य पृष्ठ पर पारंपरिक पोशाक पहने एक सोवियत तथा भारतीय युवती की तस्वीर है और अंदर लिखा है- हिन्द सोवियत मित्रता जिंदाबाद इसमें डॉ. जसवंत गिल, रजिन्दर कौर, जगजीत आदि लेखकों की रचनाएं हैं।

अपने पुत्र नवतेज सिंह के द्वारा संपादन का पूरा काम संभाल लेने के बाद भी गुरुबख्श सिंह अपने अंतिम दिनों तक संपादकीय लिखते रहे। प्रसिद्ध लेखक नानक सिंह, शोभा सिंह आदि ने प्रीतनगर में ही रह कर काफी सृजन कर्म किया।

प्रीतलड़ी में छपने वाले ‘मेरी धरती मेरे लोग’, ‘प्रीत झरोंखे से’, ‘जिंदगी के स्कूल से’ आदि काफी लोकप्रिय स्तंभ रहे।

‘समुन्दरों पार’ (समुद्र पार से) स्तंभ में विश्व की घटनाओं पर साम्यवादी दृष्टिकोण से टिप्पणियां होतीं, वह स्तंभ पाठकों के बीच काफी लोकप्रिय था।

1991 से 1994 तक ‘इक गल ते मन लगे’ स्तंभ के अंतर्गत छपने वाले कृपाल सिंह के लेख पाठकों में काफी गंभीरता से पढ़े जाते रहे।

साहित्य अकादमी के फेलो रहे गुरुबख्श सिंह ने ‘प्रीतलड़ी’ में छपी रचनाओं के माध्यम से लोगों के मन में बड़ी महत्वपूर्ण जगह बना ली थी। इसका एक उदाहरण देखिये, एक बार एक सज्जन उनसे यह पूछने चले आये कि बेटे ने मोटर सायकिल की मांग की है, उसे ले कर दूं या नहीं ! इसी तरह सेना के एक अधिकारी ने बताया कि यदि ‘प्रीतलड़ी’ न पढ़ी होती तो अब तक डंगर (जानवर) चरा रहे होते।

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले, सनफासिस्को से प्रकाशित गदर (साप्ताहिक) और ‘गदर पार्टी’ के संस्थापक इंकलाबी सदस्य शहीद करतार सिंह सराभा पर केंद्रित नवतेज सिंह (पंजाब के भाषा विभाग द्वारा शिरोमणी पत्रकार से सम्मानित) के संपादन में निकला ‘प्रीतलड़ी’ का अंक काफी चर्चित हुआ था। करतार सिंह सराभा और उनके छः साथियों को लाहौर की सैंट्रल जेल में 16,नवंबर 1915 को फांसी दी गई थी। उस समय उनकी उम्र मात्र 19 वर्ष थी।

‘प्रीतलड़ी’ की मौजूदा संपादक पूनम सिंह जो गुरबख्श सिंह, नवतेज सिंह और सुमीत सिंह के बाद ‘प्रीतलड़ी’ की चौथी संपादक हैं, उन दिनों चंडीगढ़ में थीं। मुझे अगले चार-पांच दिनों में चंडीगढ़ होते हुए दिल्ली जाना था। रत्ती कंत सिंह से भी बात हो चुकी थी, “तूस्सीं बेफिक्र रहो जी, मैडम (पूनम) से आपकी मुलाकात कराना मेरी जिम्मेवारी है।” उनका वाक्य मुझे सचमुच बेफिक्र करने वाला साबित हुआ।

...और चंडीगढ़ की पहली तो नहीं, लेकिन आखिरी सुबह वे दोनों मेरे ठिकाने पर आ पहुंचे। हम सब पहली बार मिल रहे थे और मिल कर अच्छा लग रहा था।

“सौ साल, एक लंबा वक्त होता है।” अपनी स्मृतियों के पन्ने पलटते हुए पूनम सिंह कहीं दूर अतीत के सफर पर निकल पड़ती हैं, “ हम लोगों ने 1995 में गुरुबख्श सिंह जी की जन्म-शती मनायी है। गुरबख्श सिंह, ‘प्रीतलड़ी’ के संस्थापक-संपादक, एक सेल्फ मेड मैन थे। उनका विवाह बहुत छोटी उम्र में हो गया था और छोटी उम्र में ही उनके पिता का साया भी उनके सर से उठ गया था।”

उनकी बातें सुनते हुए, धीरे-धीरे एक पात्र मेरे जेहन में सजीव होने लगा। जब उनकी पढ़ाई की राह में गंभीर आर्थिक संकट आ गया था, तब उन्हें कैसा महसूस हो रहा होगा। गहने हर औरत को प्रिय होते हैं, जगजीत कौर (उनकी पत्नी) को भी रहे होंगे। लेकिन जगजीत कौर ने अपने गहने उनके सामने रख कर कहा, “ चाहे जो हो जाए, आपकी पढ़ाई नहीं रुकनी चाहिए।” तब गुरुबख्श सिंह ने क्या कहा होगा ? ... खैर पैसे जुटाए गये और तब गुरुबख्श सिंह मिशिगन यूनिवर्सिटी में सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने अमेरिका गये। लेकिन अभी तो और कुछ भी होना बाकी था। जब वे अपनी पढ़ाई पूरी करके लौटे तो भारत में उन्हें आसानी से नौकरी नहीं मिली। क्योंकि तब यहां अंग्रजों का राज था। उनका अमेरिका से पढ़ाई कर के आना आड़े आ रहा था। उस दौर को गुजारने के क्रम में वे कुछ समय तक पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी से संबद्ध रहे। बाद में उन्हें कांट्रेक्ट पर रेलवे में नौकरी मिली। साइमन (साइमन कमीशन वाले) के साथ उन्हें रेलवे के एक अधिकारी के नाते रहना पड़ता था और उसी दौरान अंग्रेजों की नौकरी से उनका मोह भंग हुआ। जिसके परिणाम स्वरूप अपना कांट्रेक्ट नवीकरण नहीं कराया और नौकरी छोड़ दी। उन दिनों उनका लिखना प्रारंभ हो चुका था। उन्होंने ‘अनोखे ते अकेले’ (सहित दस कथा संग्रह), राजकुमारी लतिका (नाटक), अनब्याही मां (उपन्यास) और ‘खुला दर’ शीर्षक के अंतर्गत लेख आदि कई विधाओं में सृजन किया है।

शुरु में उन्होने गुरू नानक के बारे में लिखा। ऐसे ही एक लेख में उन्होंने गुरू नानक को ‘परम मनुष्य’ कह दिया था। जिसे उनके कुछ विरोधियों ने उनके खिलाफ धर्मिक भावनाएं भड़काने के आरोप लगा कर काफी बवाल किया।

काबुल के दरिया किनारे बसे नौशहरे में अकाली फूला सिंह की समाध से सितंबर,1933 में ‘प्रीतलड़ी’ का प्रकाशन प्रारंभ हुआ था। लेकिन मन में तो और भी कई विचार थे। एक ऐसा ही विचार था, लाहौर और अमृतसर के बीच में ऐसा गांव बसाया जाए, जहां लोग किसी भी तरह का फर्क न करें। सबका खाना एक ही रसोई में बने, पत्रिका, ड्रामा आदि जैसी सांस्कृतिक गतिविधियों के साथ वह गांव पूरी तरह आत्म निर्भर हो। अर्थात् एक अकेला आदमी, अपनी कल्पना का ऐसा अनोखा गांव बसाना चाहता था। कैसी अजीब बात लगती है न! लेकिन जब उन्होंने इसके लिए धन एकत्र करने की अपील जारी की तो देखते ही देखते चालीस हजार रुपये इकट्ठा हो गये। ये सन् 1930-35 के चालीस हजार थे, आज के नहीं। इस प्रकार 1938 तक प्रीतनगर बस चुका था।

‘कुछ उनके परिवार के बारे में भी बताइये।’ मैंने पूनम सिंह को टोका।

‘उनके दो लड़के-नवतेज सिंह, हृदयपाल सिंह और चार लड़कियां- उमा, उर्मिला (नया जमाना के संपादक की पत्नी), प्रोतिमा तथा अनुसुइया थे।’

‘प्रोतिमा या प्रतिमा?’ मैंने पूछा।

‘प्रोतिमा!’

‘प्रोतिमा ! मगर यह तो बांग्ला नाम है, पंजाबी नहीं।’ मै चौंका।

‘उमा, उर्मिला और अनुसुइया क्या पंजाबी नाम हैं ?’ पूनम ने मुस्कराते हुए प्रतिप्रश्न किया, ‘उनकी सब लड़कियों के विवाह अलग-अलग भाषा-भाषियों के साथ हुए थे और सभी मिल-जुल कर ‘प्रीतलड़ी’ में काम करते थे। ऐसे ही थे हमारे गुरबख्श सिंह।’

जैसा कि उन्होंने बतायाए 1947 में यह इलाका मुस्लिम बहुल था। बंटवारे की आग में ‘प्रीतलड़ी’ से जुड़े लोगों ने ‘प्रीत सैनिकों’ का वेश धारण कर कई लोगों को सुरक्षित पाकिस्तान की सीमा में पहुंचाया था। अपनी मानवतावादी और प्रगतिशील प्रतिबद्धता के कारण गुरुद्वारों और सेना में यह पत्रिका एक लंबे समय तक प्रतिबंधित रही। उन दिनों सेना में नौकरी करने वाले ‘प्रीतलड़ी’ के पाठक अपनी पत्नियों के नाम पर इसे मंगवा कर पढ़ते थे। उस समय भी इसका आकार-प्रकार बिल्कुल ऐसा ही था। शुरुआत से अब तक इसके आकार-प्रकार में किसी तरह का कोई बदलाव नहीं किया गया है। ‘प्रीतलड़ी’ को प्रारंभिक समर्थन बड़ा ही उत्साहवर्द्धक था। एक बड़ा मध्यवर्ग इससे आ जुड़ा, सफर शुरु हो चुका था। सामाजिक मुद्दों को मजबूती से उठाने और आम आदमी की पीड़ा को आवाज देने में इस पत्रिका ने हमेशा महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और निभा रही है।

चाहे 1947 का बंटवारा हो या सांप्रदायिकता का जहर, नशा नियंत्रण हो या अशिक्षा, दलित विमर्श हो या स्त्री-उत्पीड़न। साठ के दशक में ‘प्रीतलड़ी’ में छपी नवतेज सिंह की कहानी ‘दिल दे थां जिंदरा’ (दिल की जगह ताला) स्त्री विमर्श की एक महत्वपूर्ण कहानी है। जो शहर के नामी-गिरामी वकील साहब और उनकी पत्नी की कहानी है। वकील साहब जब भी कचहरी जाते, अपने पीछे पत्नी को कई तालों में बंद करके जाते। वे एक के बाद एक कमरे, बरामदे, ग्रिल और गेट आदि में ताले मार कर जाते और जब शाम को लौटते तब सारे ताले स्वयं खोलते। एक शाम जब वह अपनी पत्नी को लेकर डेंटिस्ट के पास जाते हैं, तब भी उन्हें यह भरोसा नहीं रहता कि उनकी पत्नी को सच में दांत दर्द है। इसलिए जब वह डॉक्टर को अपने दर्द के बारे में बताती है, तब उन्हें वह डॉक्टर से रास-लीला रचाती लगती है। वहां सुंदर नर्स वे पहले ही देख चुके थे, जिसके कारण उन्हें डॉक्टर व्याभिचारी नजर आ रहा था। इस प्रकार जब डॉक्टर उनकी पत्नी के मुंह की ओर झुकता हुआ दिखता है तो वे उसे खींच कर एक तरफ फेंक देते हैं और पत्नी को नीचे गिरा कर उस पर लात-जूतों से पिल पड़ते हैं। एक तरफ गिरा डॉक्टर तथा दूसरी तरफ असहाय पिटती पत्नी, पाठकों के मन में वकील साहब के प्रति एक आक्रोश भर देती है।

पाठकों को ‘प्रीतलड़ी’ के अंकों में कई विविधताएं भी मिलती हैं। दिसंबर 1995 के अंक में सुरजीत पातर द्वारा जीन गिरोडोक्स के नाटक ‘द मैड वुमेन ऑफ चाइलेट’ का अनुवाद ‘शहर मेरे दी पागल औरत’ शीर्षक से है। दिसंबर1996 के अंक में ओम प्रकाश का पूरा उपन्यास ‘पनाहगीर’ है। पाकिस्तान से आयी पंजाबी कहानियों के अलावा प्रत्येक अंक में हिन्दी सहित अन्य भारतीय भाषाओं की कहानियों के अनुवाद भी अक्सर छपते हैं।

सितंबर 1981 से दिसंबर 1983 तक ‘प्रीतलड़ी’ के संपादक रहे सुमीत सिंह उल्लेखनीय द्दैर्य, क्षमता और निष्ठा वाले इंसान थे। अमृतसर जैसे उग्रवाद प्रभावित जि़ले में होने के बावजूद उन्होंने भिंडरांवाला के कृत्यों पर कई तरह के सवाल उठाये और बिना किसी भय के सांप्रदायिकता तथा अलगाववाद के खिलाफ निरंतर लिखते रहे थे।

मैंने बातों को सुमीत सिंह की यादों की ओर मोड़ा तो एक पल को पूनम ठहरीं, चेहरे पर कई तरह के भाव आये और गुजर गये। उनकी शादी 1977 में हुई थी। सुमीत बड़े ही खुशमिजाज और सक्रिय रहने वाले इंसान थे। ‘प्रीतलड़ी’ से तो वे काफी पहले से जुड़े हुए थे। 1981 में नवतेज सिंह के इंतकाल के बाद से उन्होंने संपादक के तौर पर पूरी तरह से पत्रिका की जिम्मेवारी संभाल ली थी।ष् बोलते-बोलते वे कहीं खो गईं।

‘सुमीत बड़ा ही प्यारा भाई था।’ रत्ती कंत सिंह (सुमीत सिंह के छोटे भाई और पूनम सिंह के वर्तमान पति) ने बातों का सिरा पकड़ते हुए पूनम सिंह की मदद की, शायद समय पर आगे बढ़ कर पूनम को थाम लेने का यही अहसास उन्हें एक दूसरे के पास ले आया था।

कैसी मनहूस रही होगी वो शामए जब 22फरवरी 1984 को वे दोनों भाई स्कूटर पर पास के गांव लोपोकी गये थे। सुमीत नई-नई चीजों तथा कलात्मकता भरे अच्छे कपड़ों का शौकीन थे। अगले दिन वे अमृता प्रीतम से मिलने दिल्ली जाने वाले थे। उनसे मिलने के लिए उन्होंने खास कुर्ता, जिसमें डिजाइन से तेल-बीज भी कता हुआ था, सिलवाया था। वे कह रहे थे, अमृता जी से मिलने के लिए अच्छे कपड़ों में ही जाना है। अमृता जी उन दिनों ‘प्रीतलड़ी’ के लिए एक ट्रस्ट बनवाने का प्रयास कर रही थीं। उन्होंने इंद्रकुमार गुजराल (पूर्व प्र.म. और फारुक अब्दुल्ला (पूर्व मु.म. जम्मू.कश्मीर) से बात कर रखी थी। वह बात बन न सकी, क्योंकि किसी ने गुजराल साहब से झूठ कह दिया कि ‘प्रीतलड़ी’ को ले कर प्रोपर्टी का झगड़ा चल रहा है। अभी वे दोनों कपड़े ले कर मुड़े ही थे कि आस-पास उग्रवादियों के आने का शोर मच गया। उन्होंने सोचा होगा हम तो सिक्ख हैं, हमें क्या होना है, हम क्यों डरें ? चैराहे पर उग्रवादियों ने उन्हें घेर लिया।

‘मैं तो सिक्ख के वेश में था, लेकिन सुमीत क्लीन-शेव होने के कारण सिक्ख नहीं दिख रहे थे।’ रत्ती कंत की आवाज कुछ-कुछ गीली होने लगी, ‘मैं चीख-चीख कर उनसे बोला था, सिक्खों का बेटा सिक्ख ही होता है। सुमीत सिक्ख है, मेरा भाई है। लेकिन उनमें से एक उग्रवादी ने खींच कर मुझे अलग किया और बोला, अजीत सिंह निहंग बनने की ज्यादा कोशिश मत करो।’

‘अजीत सिंह निहंग बनने की कोशिश, मतलब ?’ मैंने टोका।

‘दरअसल कुछ दिनों पूर्व वैसी ही एक घटना में अजीत सिंह नाम के निहंग ने एक हिन्दु को अपना बेटा बता कर बस में उग्रवादियों की गोली से बचाया था। शायद उस खबर का ही असर था कि वे मुझे भी उस निहंग की तरह ‘हिन्दू-सुमीत’ को बचाने का प्रयास करने वाला सिक्ख समझ रहे थे। तब तक वे तीन हिन्दु दुकानदार मार चुके थे, उनका उस दिन का चौथा शिकार आज भी पैरालिसिस में पड़ा है। सुमीत के रुप में एक और हिन्दु को मार डालना ही उनका एजेंन्डा था। उन्होंने मेरी एक न सुनी और मेरी आंखों के सामने उन्होंने सुमीत को चार गोलियां मारीं। सुमीत के बाद ‘प्रीतलड़ी’ में हर कोई और सारा कुछ बिखर-सा गया था।‘

बातचीत का माहौल एकाएक ही भारी महसूस होने लगा, जिसे पूनम ने सहज किया, रत्ती कंत सिंह गांव में पले-बढ़े एक सीधे-सरल इंसान हैं। पेशे से प्रबंधक-किसान भी हैं और खेल से फुटबाल के कप्तान-खिलाड़ी। जब 1986 में इन्होंने मेरे सामने प्रस्ताव रखा तो मैंने कहा था, अभी तुम छोटे हो। तब जानते हैं, इनका जवाब क्या था ? मैं बड़ा बन जाऊंगा.... । ’

उन्होने कुछ इस तरह कहा था, हम तीनों की हंसी आपस में घुलमिल कर कमरे में फैल गयी।

‘…. सुमीत के जाने के बाद ‘प्रीतलड़ी’ ने काफी कठिन दौर का सामना किया। लोग तो यह भी कहने लगे थे कि अब पत्रिका बंद हो जाएगी। यह भी कहा कि महज चलाने के लिए चलाना क्या जरूरी है ?’ रत्ती कंत ने बोलना जारी रखा, लेकिन वे लोग हमारे धधकते स्वप्नों तथा अलग संदेश के प्रति समर्पण को समझ नहीं रहे थे। लोगों ने जितना ही इसके बंद होने की चर्चाएं कीं, हमारे मन में उतनी ही दृढ़ता बढ़ती चली गई कि चाहे जो हो जाए ‘प्रीतलड़ी’ बंद नहीं होनी चाहिए। हमने नये सिरे से सारे प्रयास शुरु किये। प्रकाशन स्थान प्रीतनगर (अमृतसर) ही रखा, लेकिन दहशतगर्दी का सारा दौर झेलने के कारण चंडीगढ़ को एक ठिकाना बनाना पड़ा।’

मुझे लगा, फिराक गोरखपुरी धीमी आवाज में अपनी दो पंक्तियां मेरे कानों में बोल गये हों.

‘इक गम वो है इंसान को जो रहने दे न इंसान,
इक गम वो है इंसान को जो इंसान बना दे।’

मिश्र के सूर्य देवता के चित्र वाले कलात्मक मुख्य पृष्ठ के साथ प्रीतलड़ी के जून 2006 अंक को मैं ने पलटते हुए देखा, 48 पन्नों की इस पत्रिका में पंजाबी के साथ हिन्दी तथा पाकिस्तानी कहानी (अनुवाद), कविता, लेख, नाटक, स्थायी स्तंभों के साथ बड़ों की इस पत्रिका में बच्चों के लिए अलग से चार पृष्ठों में ‘निकियां दी नुक्कर’ (बच्चों का कोना) है जिसमें बर्फ रानी (हिमालय पहाड़ की लोक कथा) के साथ ‘आद्योगिक क्रांति का ब्रिटेन पर प्रभाव’ जैसा लेख भी है। इधर के अंकों में ‘प्रीतलड़ी’ के पन्नों पर बच्चों की सामग्री ध्यान खींचती है।

पूनम सिंह ने इस पर कहा, ‘दरअसल मेरा मानना है कि बच्चों को बड़ा होने के बाद ‘प्रीतलड़ी’ पढ़ाना तभी आसान रहेगा जब उन्होंने बचपन में भी इसे देखा हो। जैसे-जैसे बच्चे पाठक बड़े होंगे, वे ‘निकियां दी नुक्कर’ से बड़ों के पन्नों की ओर स्वयं ही चल देंगे।’

जैसे-जैसे बातें आगे बढ़ीं, मैंने महसूस किया कि ‘प्रीतलड़ी’ के सामने नयी कठिनाइयां आयीं तो नये साथी भी आये। ऐसे ही एक साथी बने गुजराती भाषी श्री पी.एच.वैष्णव। 1996 में पांच सदस्यों की ‘प्रीतलड़ी ट्रस्ट’ बनायी गई। श्री पी.एच.वैष्णव ट्रस्ट के प्रधान हैं। दूसरे हैं डा. मान सिंह जो बिल्कुल शुरुआत से साथ है (प्रसिद्ध रंगकर्मी नीलम मान सिंह उनकी बेटी हैं)। तीसरी हैं श्रीमती संतोष साहनी, (बलराज साहनी की पत्नी), चौथी हैं श्रीमती महेन्द्र कौर, स्व. नवतेज सिंह की पत्नी और पांचवीं मैं हूं, पूनम सिंह। ‘प्रीतलड़ी’ को संबल प्रदान करने में ट्रस्ट के चेयरमैन श्री पी.एच.वैष्णव जी का योगदान काफी महत्वपूर्ण है।

‘दरअसल वैष्णव जी के समर्पण, प्रेरणा व देश-भक्ति का ही परिणाम है कि हम इसके प्रकाशन की नियमितता बना पा रहे हैं। लेकिन एक पत्रिका के सामने जितनी भी तरह की कठिनाइयां होती हैं, वे सब ‘प्रीतलड़ी’ के सामने भी हमेशा बनी रहती हैं। कागज’ छपाई, डाक-खर्च और अन्य कई तरह की बढ़ी हुई कीमतों ने हमें प्रभावित किया है। मुश्किलें बनी ही रहती हैं।’ रत्ति कंत ने बताया।

‘प्रीतलड़ी’ के बारे में एक और खास बात का पता चला, इन दिनों उन्होंने ‘वर्डस् विद एक्शन’ की अवधारण विकसित की है। वे अपनी आवाज के साथ पाठकों के बीच जाने का प्रयास करते हैं। इस कड़ी में ‘बोलती कहानियां’ नाम से कथा-पाठ की सी.डि. पूनम की आवाज में जारी की गई हैं। पंजाबी की कुछ अन्य साथी पत्रिकाओं का नाम बताने के आग्रह पर उन्होंने ‘लकीर’, ‘कहानी पंजाब’, ‘अक्स’, ‘सृजन’, ‘अक्खर’, ‘शब्द’, ‘हुण’, आदि के नाम बताये।

साहित्य और समाज को समर्पित एक पत्रिका, जिसके एक संपादक को उग्रवाद के खिलाफ बोलने के लिए शहादत देनी पड़ी, लेकिन जिसने अपने मूल्यों से कभी समझौता नहीं किया, ऐसा उदाहरण भारतीय सहित्य क्या, विश्व साहित्य में भी कहीं-कहीं ही है। अपने नौजवान संपादक सुमीत सिंह की याद में जिन्दा ‘प्रीतलड़ी’ के पन्ने खुलते जा रहे थे और एक बड़ी बात, बड़ी अवधारण, बड़े समाज से जुड़ाव का प्रमाण मेरे सामने अपना रुप प्रकट करता जा रहा था। तीन पीढि़यों से साहित्य और समाज से जुड़े ‘प्रीतलड़ी’ परिवार की चौथी पीढ़ी में आ चुके रति कंत और पूनम के बच्चे -समिया (20), रतिका (18), और सहज (12) तथा सुमीत सिंह के बड़े भाई सुदीप और एवलिन (एवलिन जर्मन मूल की हैं, उनकी जर्मन-प्रथा के अनुसार सुमीत सिंह की हत्या के एक माह बाद परिवार में जन्मे बेटे का नाम सुमीत रखा गया) के बच्चे -सुमीत (22), अनुजा (20) और ऋतुराज व नरिन्द्र का लवराज (5) अपना वक्त आने पर ष्प्रीतलड़ीष् को किन ऊंचाइयों की ओर ले जाते हैंए यह तो आने वाला समय ही बतायेगा....।

तभी उधर से गुजर रहे समय ने किसी फिल्मी जेलर की तरह आवाज दी, “आप लोगों की मुलाकात का समय समाप्त हुआ !”

साहित्यिक बातों की यही बात तो निराली होती है, कितनी भी कर लो, कितनी भी देर तक कर लो, सदा ही अधूरी रहती हैं। क्योंकि वे बातें हमारे समय, समाज और जीवन से जुड़ी होती हैं। हमारे भूत, वर्तमान और भविष्य से जुड़ी रहती हैं, हमारे सपनों से जुड़ी रहती हैं।

मेरे साथ आज बहुत कुछ पहली बार हो रहा था। मैं पहली बार सपरिवार चंडीगढ़ आया था, पूनम सिंह और रत्ती कंत सिंह से पहली बार मिल रहा था, पहली बार बांये हाथ से नाश्ता (आलू-पराठे और दही) कर रहा था (दांया हाथ तो उनकी बातों को नोट करने में लगा हुआ था, जिन्हें बाद में तरतीब किया जाना था), पहली बार उन दोनों ने हमें स्टेशन तक छोड़ा था, पहली बार जन-शताब्दी ट्रेन से मैं चंडीगढ़ से दिल्ली जा रहा था....।

तभी मेरे मन ने कहा, पहली बार इसलिए तो होता है कि दूसरी, तीसरी, चौथी बार भी उसे होना होता है।

मैं ने डायरी में कुछ नोट करना चाहा तो कागज का एक टुकड़ा नीचे आ गिरा जिस पर काफी पहले नोट की गयी कीटस् की कविता थी---

“वह नदी भी कभी-कभी बहुत उदास होती है,

उसके थके हुए पानी की शमशीरें कांपती रहती हैं,

अब भी कांपती होंगी !

पर कोई कब तक खड़ा हो सकता है … ?

मेरा जो कुछ छूट गया है, वह जैसे अब भी नहीं है,

मेरी शक्ल अख्तियार किये हुए और एकाएक बहुत-सा वक्त गुजर गया है,

लेकिन इस गुजरने के साथ कुछ ऐसा भी जुड़ा हुआ हैं,

जो हाथ नहीं आता, कहा नहीं जाता

और लिखने से भी बच रहता है।"