प्रेतकामना / मनीषा कुलश्रेष्ठ

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यह वह एक पल था, जिसे यूं तो सभी लोग एक साथ अपने - अपने तरीके से जी रहे थे पर यह वह पल था, जिसे तीन लोगों ने गहनता से महसूस कर जिया, यूं यह वह पल भी था जो बीत रहा था रेंगता हुआ। यही वह पल था तेज रफ्तार गाडियों के बीच बचता - बचाता जिया जा रहा था। कहीं यह पल चौथाई चांद की पीली मटमैली रात में पेड क़ी फुनगी पर अटका बस टपकने को था। यह पल थाजो रेगिस्तान के कैक्टस में पानी की एक लसलसी बूंद बन कर एकत्र हो रहा था आने वाले सूखे मौसमों की प्यास बुझाने को।

दरअसल सलिल के लिये इस अवाक् पल की भूमिका तब बनी, जब वह अपने मल्टीनेशनल कंपनी के दफ्तर से, लिफ्ट से उतर रहा था और उसने लिफ्ट में एक खांसते परेशान अस्थमैटिक बूढे क़ो देखा था। अनायास उसे अपना जनक याद आ गया था। एक बडे फ्लैट में तन्हा।

व्यस्तता की घनेरी परतों और नई जिम्मेदारियों के भुलावों के बीच खोया हुआ, उसका कर्तव्यबोध किसी पुरानी पोस्टकार्ड पर लिखी चिट्ठी सा निकल पडा था और उसे पापा बेतहाशा याद आये थे। हालांकि वे इसी शहर में रहते थे। पर उनसे मिले हुए उसे आधा साल गुजर गया था। पिछली बार जब वह उनसे मिला था, तब तो वे स्वस्थ ही थे पर उदास थे। यूं अभी एक साल ही हुआ है उन्हें रिटायर हुए। अब वे स्वतन्त्र लेखन करते हैं। आज उसे मम्मी भी याद आ रही हैं कि वे होतीं, तो शायद वह आज इतना परेशान नहीं हुआ होता। पर वे तो

उनके रिटायरमेन्ट से करीब चार साल पहले ही नहीं रहीं। बडे चाव से उन्होंने बडा सा फ्लैट लिया था कि दिव्या की शादी इस फ्लैट से होगी, सलिल यहां बहू ब्याह कर लायेगा। दोनों चाव अधूरे छूट गये। दिव्या की शादी हांगकाँग जाकर हुई वह एयरहोस्टेस थी और उसने वहीं अपना दूल्हा ढूंढ लिया था मम्मी पापा बस रिशेप्शन अटैण्ड कर वापस लौट आये थे। सलिल की शादी तो इसी फ्लैट में हुई पर बहू को अपने दफ्तर से दूर मुम्बई के इस पुराने सबर्ब में रहना पसन्द नहीं आया सो वह मम्मी की डेथ से पहले ही उसे लेकर अलग हो गई। तब पापा ने कहा था मम्मी से - जाने दो, कुछ कहने की जरूरत नहीं है। बनाने दो उन्हें अपना नीड। हम दोनों हैं ना, फिर से अपनी प्राईवेसी एन्जॉय करेंगे। उसके चले आने के तीसरे सप्ताह ही, मम्मी की यूं अचानकहुई मृत्यु का अपराधबोध ही सलिल से नहीं छूटता अब बार - बार मन पापा की ओर भागता है।

पिछली बार ही फोन पर कह रहे थे - “ आते जाते रहा करो। पता नहीं कब तक हूं मैं।”

वह कांप ही गया था, अभी कल परसों ही तो एक मैगजीन में पढा था कि एकाकी विधुर पुरुष कम ही जी पातें हैं। उनकी बनिस्पत जो अपने जीवनसाथी के साथ होते हैं या फिर अपने परिवार के साथ।

इतनी लम्बी सोच के ब्रेक भी कार के साथ ही लगे अभी तो बहुत दूर जाना है। वहां से अपने घर भी लौटना है। पैंतीस से ज्यादा किलोमीटर का चक्कर हो जायेगा। फिर कुछ देर तो ठहरेगा ही। क्यों न पापा के लिये और अपने लिये खाना पैक करा ले। विम्मी को सैलफोन पर कह दिया कि इंतजार न करे।

पापा के फ्लैट में लिफ्ट नहीं थी। समुद्र की ओर मुख किये इन चार माले के पुराने फ्लैट्स में किसी में भी शुरु ही से लिफ्ट नहीं थी। पापा तीसरी मंजिल पर रहते हैं। सलिल ने महसूस किया यहां पीछे छूट आये समय के टुकडे क़े साथ भी कुछ खास नहीं बदला। वैसी ही उमस से भरी नमकीन हवा, वही सोया सा मोहल्ला। सीले से मकानउन मकानों की चौडी - चौडी बॉलकनी जिनमें बैठ कर उन मकानों के बूढे मालिकों को अपने स्वर्णिम अतीत की यादों की टीस को सहलाना अच्छा लगता है। पापा भी तो उसे वहीं बैठे मिलते हैं, वह जब भी आता हैदूर से उसकी कार पहचान जाते हैं और बच्चे की तरह उत्साहित हो नीचे उतर आते हैं।

सामने वही खेल का मैदान ह्न जिसमें आजकल कम बच्चे खेला करते हैं। उनका कितना बडा झुण्ड था अब सब खो गये हैं अपने आशियाने छोड उड ग़ये हैं। उसने ऊपर देखा पापा के फ्लैट की बत्तियां कुछ जल रही थीं कुछ बुझी थीं। टेरेस पर लगा झूला हल्के से हिल रहा था जैसे अभी ही कोई उठ कर गया हो।

तेजी से खाने का पैकेट संभाले वह सीढियां चढा। पापा की चिन्ता, पापा की अच्छी बातें जो आज भी उसे कठिनाई में उंगली पकड रास्ता दिखाती हैं, पापा की खामोश मगर बोलती सुन्दर आंखें, पापा की साफगोई, पापा के प्रति एक श्रध्दा व प्यार भरा मोह लिये वह घर के सामने रुका। घर चुप था। न जाने क्यों उसे लगा कि अभी ही एक कोलाहल हो होकर ठहरा है। और बहुत बहुत सारी बातें करके चुका यह घर अचानक तन्द्रिल हो उठा है। उसने घण्टी न बजा कर, अपनी चाभी से दरवाज़ा खोला, पापा सो रहे होंगे उसने खाना किचन में रखा वहां चाय के दो प्याले रखे थे। पापा मम्मी को अब भी बहुत याद करते हैं करके मन भीग गया। पापा अब वह पुराना कोने वाला, समुद्र के सामने लम्बी सी खिडक़ी वाला बेडरूम कम इस्तेमाल करते हैं। वह स्टडी की तरफ बढा जहां पापा पढते लिखते वहीं सो जाया करते हैं। तीसरा बेडरूम दिव्या के लिये है वह जब भी भारत आती है पापा के पास रुकना पसन्द करती है। स्टडी में पापा का ट्रेकसूट कुर्सी पर टंगा था पर पापा नहीं थे। बाथरूम भी बाहर से लैच्ड था। वह पापा मम्मी के पुराने बेडरूम की तरफ बढा, जिसका दरवाजा आधा भिडा था उसने झांका और वह पल अब सामने था जीना ही था, इस पल को उसके लम्बे तने खिंचाव के साथ रबर की तरह खिंचा वह पल टूटने की हद तक पापा!

ह्नपापा की चौडी ग़ोरी पीठ पर लिपटी दो नर्म - नाजुक़ बाँहे! उसने तो कभी मम्मी के साथ भी पापा को यूं नहीं कनपटियां गर्म हो गई थीं। अचानक सारा कमरा आउट ऑफ फोकस हो गया। गहरे सन्नाटे में बेसुध सांसे ही इतना शोर कर रही थीं, कि उन दोंनों में से किसी को उसकी उपस्थिति का भान तक नहीं हुआ। वह पल टूटने को ही था - कि करवटें मुखर हुईं, एक सानुपातिक सांवली अर्धनग्न देह दिखने लगी, जो वल्लरी सी पापा से लिपटी थी दो जोडी पैर आपस में उलझे थे। दो जोडी आंखें एक नशे में अधखुली सी उसको देख कर भी नहीं देख पा रही थीं। पापा के चौडे वक्ष के फैलाव में दो सलेटी मांसल उभार पापा के होंठ जिन्हें घनेरी प्यास के साथ सहला रहे थे। जुगुप्सा से उसका जी मितलाया और पापा के उस उदार महान रूप के भ्रम को तोडक़र ही यह पल टूटा। यह पल क्या टूटा एक बची खुची डोर सी टूट गयी, जो उसे पापा के पास खींच कर लायी थी।वह दस दस मन के भारी पैर लेकर जीना उतर कर सडक़ पर आ गया।

एकाएक इस पल की खिंचावदार टूटन से बुरी तरह आहत हो उसका एकदम से घर जाने का मन जरा भी नहीं था। अंधेरे कोने में कार पार्क कर, वह फ्लैट के बिलकुल सामने वाले पार्क की एक बैंच पर बैठ, अपने घर के सिलहट्स देखने लगा। करीब और दस मिनट बाद उस बेडरूम की लाईट जली। जाली के पर्दों पर उनकी काया उभरी, उनकी देह से एक ढलते पुरुषार्थ के दंभ का स्त्रोत - सा फूटता दिखाई दिया। उसे भान सा हुआ, जैसे वे उसे ही जता रहे हों कि - बूढा व अकेला नहीं हूं मैं, मेरी दुनिया अब भी रस से खाली नहीं। वह चिढ सा गया।उनकी परछांई स ही उलझ गया, “ शोभा देता है यह सब? अब इस उम्र में? “

“तो तो क्या करुं। अकेला दम घुटा कर जान दे दूं? मेरा बाकि का जीवन टूटी दीवार से झरते सीमेन्ट सा बीते? यही चाहते हो न तुम?”

“ “

तीसरी मंजिल के उस फ्लैट में, जिसे वह अपना घर कहते कहते, अब किसी ओर घर को अपना घर कहने लगा है( यह पापा का घर रह गया है अब) अब हलचलें खामोश हो गईं थीं, उजाला तैर रहा था। वही कमरा जहां मम्मी पूजा करती थीं, सिसकारते अपवित्र अंधेरों के बाद अब जगमगा रहा था। दो परछाईयां फिर खडी होकर उलझीं और ढह गयीं नीचे को। वह दिव्या का कमरा। वह पापा की स्टडीदोनों में अंधेरा था पर अब किचन की बत्ती जली पापा घबरा कर बालकनी में आकर अंधेरों में उसे ढूंढ रहे हैं। दूसरी परछांई घबराई - सी बगल में खडी है। उसने देखा, इस घबराई परछांई से पापा जल्दबाजी में अलग हो, पार्क की गई कारों में उसकी कार ढूंढ रहे हैं, ओह! जल्दबाजी में खाने का पैकेट वहीं छोड आया हूं मैं !

वे दोनों नीचे उतर आये हैं अब और वह एक दरख्त के पीछे आ गया। अरे! यह घबराई सी, हताश परछांई तो जानी - पहचानी है। पापा की दिल्ली वाली रिसर्चस्कॉलर अणिमा। जिसकी बडी आंखों और सांवले रंग की लहराती देह में गजब का जादू हुआ करता था जब पापा जे एन यू में, हेड ऑफ द डिपार्टमेन्ट हुआ करते थे, तब वह बारहवीं में पढता था और अपने दोस्तों में उसके सांवले सौंदर्य की सरस चर्चा किया करता था। ये यहां कैसे? इतने दिनों बाद? ये तो अमेरिका में थी सिमोन द बाऊवार का दूसरा संस्करण! ऐसे ही कुछ लेख लिखा करती थी यह, दिव्या हंसी उडाया करती थी इसकी तो। दादी भी इसके बारे में अच्छी राय नहीं रखती थीं। ऐसी खुली छुट्टी लडक़ियों से लल्ला को दूर रखा कर री बहू। मम्मी हंस कर रह जाया करती थीं। मम्मी पूजा करती थीं पापा की। मम्मी के वही विश्वास और आस्था आज उसके सामने न जाने कितने सालों से यह सब चल रहा होगा! फिर उसकी कनपटी जलने लगी। वह निस्पन्द सा बैठा रहा इधर।

उधर पापा थके कदमों से उपर जाकर बॉलकनी में बैठे हैं। वो छूटते पुरुषार्थ का दंभ उनके अन्दर अब दम तोड रहा है। कंधे झुके हैं और वे कांपते हाथों से सिगरेट सुलगा रहे हैं। वह सोच रहा था कि - मेरा अब उनसे यह भी पूछने का मन कतई नहीं करेगा कि कैसे हो आप? अकेले कहां हो आप अब? है न नई दुनिया! जा रहा हूं मैं। वह तेज क़दमों से कार की ओर बढाझटके से स्टार्ट कर बिना आस पास देखे जूऽऽम से कार लेकर निकल गया।

यह वह पहला और आखिरी पल था अणिमा के लिये - मुक्ति का, उस लम्बी प्रेतकामना से मुक्ति का, जो

उसके अवचेतन में अटकी थी। कितना वक्त बीत चला था इस कामना को दफन करके भूल गई थी वो। यह कामना एक स्वस्थ सबल कामना थी, जिसे चुपचाप गला घोंट कर दफना दिया था उसने बरसों पहले। आज वही प्रेतकामना अवचेतन के विस्मृत गलियारों में भटक - भटक कर चेतन की राह पा गई थी। और लपक कर इस एक पल में समा गई थी।

भारत में मनाये जा रहे प्रवासी सप्ताह के दौरान अगर भारत सरकार के द्वारा उसे सम्मानित किये जाने का आमंत्रण न मिला होता तोयह कामना न जाने कब तक यूं ही आत्मा को क्षरित करती हुई, दफन रहती। कितनी ही बार सपनों में उसने सर की एक अस्पष्ट परछांई - सी के पीछे स्वयं को अनजान गलियों में भटकते देखा है। कितनी बार देखा है उसकी वही ट्रेन छूट गयी है, जिसमें चढ क़र वह उनसे मिलने जा पाती। कभी देखा है, उसके कपडे बदलते में अचानक कोई अन्दर बाथरूम में गलती से चला आया है और वह कहती है सरआप? और इन सपनों के मोहनजोदडाे की लिपी से भी कठिन अर्थ खोजने में पसीने पसीने हो हो कर वह रात रात भर जागी है।

जे एन यू के उन अल्हड दिनों में जब उम्र स्वयं के मूल्य और भविष्य के सपने गढा करती थी। सर ही थे जिन्होंने विचारों की धुंध को दूर कर एक आकार दिया था। एक साफ - शफ्फक व्यक्ति। मानवशास्त्र का महान ज्ञाता एक लेखक एक स्कॉलर। जिनकी परछांई भर छू लेना बहुत होता था। बहुत गर्व था उसे कि वह उनकी रिसर्च स्कॉलर है। दस और भी थे, पर उसे पता था कि वह विशिष्ट है। उनके लेखन की उनकी विरासत सिर्फ उसे मिली थी, उनके साथ कई सेमिनार्स के पर्चे उसी ने तैयार किये थे। वह उन कौरवों पाण्डवों में अर्जुन थी। प्रिय शिष्या! भरोसेमंद जिसे वे अपनी विरासत सौंप कर निश्चिन्त हो सकते थे।

उन्हें डर भी था कि वह शादी के बाद इस क्षेत्र के प्रति अपना डिवोशन छोड बैठेगी। और उसने ठान लिया था कि - मैं शादी ही नहीं करुंगी और वही समय था कि मैं अर्जुन से एकलव्य बन गई।

मैं पुरुष होकर अपने लेखन को शादी और इस युनिवर्सिटी की नौकरी के बादज्यादा समय नहीं दे पाता। तुम तो लडक़ी हो शादी के बाद घर - गृहस्थी के झंझट! “

“ शादी करके अपने लक्ष्य से मैं नहीं भटकूंगी सर।”

“ यह संभव नहीं अणिमा, हर इन्सान को जीवन में एक सोलमेट की जरूरत होती है। नारीवादी होने का अर्थ यह नहीं की पुरुष की आवश्यकता को नकार दिया जाये जीवन से ही, नारीवादिता का अर्थ है, औरत की अपने स्वतन्त्र

अस्तित्व के प्रति सजगता! विवाह अवश्य करना और उस दाम्प्त्य की नींव में एक मजबूत कंधा लगाना और दूसरा बचा कर रखना उस पर रखना नींव अपने स्वतन्त्र व्यक्तित्व की और संतुलन साधे चलाना जीवन। शुरु के सालों में दिक्कत होगी फिर सीख जाओगी विवाह और कैरियर का सन्तुलन साधना।”

वह घबरा गई थी। हाय! नहीं होगा उससे यह सब। मानो वह एक औरत न हुई कंधों पर हल का जुआ साधे बैल हो गई। कितने ही प्रस्ताव उसे स्वयं मिले, कितने ही मम्मी पापा के जरिये। बस विवाह के प्रति उसकी आसक्ति हुई ही नहीं। उसके लक्ष्य दूसरे ही थे। पहले उसके सहपाठी फिर सहयोगी बने मिलिन्द ने तो कितनी प्रतीक्षा की थी उसकी फिर खीज कर कह ही दिया था “ अणिमा तुझ पर तो सर की विशाल, भव्य बुध्दिमत्ता, उनके यश और व्यक्तित्व की छाया पड ग़ई है और तू उससे मुक्त होकर ही किसी अन्य के बारे में सोच सकती है। और नहीं मुक्त हुई तो टंगी रहना त्रिशंकु सी। उस खडूस बुङ्ढे ने ही समझाया होगा कि अणिमा तुम विवाह के लिये नहीं बनी हो।”

“ हाय! कसम से मिलिन्द, उन्होंने कभी ऐसा नहीं कहा। पर सच्ची अभी मैं शादी के लिये जरा भी तैयार नहीं।”

उसने कभी मिलिन्द के साथ प्रेम व्रेम का किस्सा नहीं बुना था, वो तो स्वयं मिलिन्द और सहपाठी उनकी जोडी बनाते रहते थे। हां, वो दोनों ही बंगाली थे और दिल्ली में परदेसी थे तो साथ साथ घूमा फिरा करते थे तो एक संभावना साथ जीने की कहीं अंखुआ सकती थी, अगर मिलिन्द ने उस रोज इतना भला बुरा न कहा होता उसे और सर को लेकर तो - “ हाँ, तीस की उमर में कोई लडक़ी शादी के लिये तैयार नहीं इसका क्या मतलब है? कि”

वह जाने क्या क्या कहता रहा उसके और सर के बारे में उनके साथ साथ दूसरे शहर सेमिनार में जाने के बारे में। सर ही चाहते हैं कि अणिमा विवाह न करे और उनकी बनके रहे।

वह आहत सी मिलिन्द को देखती रह गई थी। मिलिन्द को वह एक सुलझा हुआ, स्त्री - पुरुष की समानता और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता में विश्वास करने वाला व्यक्ति मानती थी। उसका भ्रम टूट गया था। फिर मिलिन्द ने मंजरी से शादी कर ली थी।बहुत बाद में उसने मिलिन्द की बातों पर गौर किया था, तो लगा था कि शायद वह सचमुच सर की बुध्दिमत्ता और महानता की कायल ही नहीं, बल्कि उनसे ऑबसेस्ड भी है। प्रेम तो नहीं था एक अंधी श्रध्दा? कितनी बार अकेले पलों में सर के साथ, अब उसका दिल धडक़ जाता था। पर सर को वैसा ही सहज पाकर धडक़नें संयम की डोरी में बंध जातीं।

दस के दस सहपाठी उसके युनिवर्सिटी से चले गये। नये स्टूडेन्ट्स आ गये। वह वहीं एडहॉक लैक्चरर बन गई। सर का साथ तब तक बना रहा जब तक कि वे एक प्रोजेक्ट के लिये युनिवर्सिटी की तरफ से तीन साल के लिये

जर्मनी नहीं चले गये।

उनके जाने से पहले तीन बार ये पल जन्म लेने को अकुलाया था। पहली बार तब, जब एक सेमिनारमें जाने से पहले उन्होंने अपना पर्चा अणिमा को पढवाने की बजाय एक नई रिसर्च स्कॉलर को थमा दिया था। बिफर गई थी वह मिलिन्द के जलते शब्द अंगारे बन गिर रहे थे उस पर, बुङ्ढा रसिक है। हर बैच में से एक सुन्दर सी कन्या छांट लेता है। लेकिन सर के पास जाते ही ऐसा लगा जैसे जलती उंगली बर्फ के पानी में डुबो ली हो।

अणिमा, तुम एनुअल डे की ड्रामा रिहर्सल में व्यस्त थीं। पेपर्स पहले तो तुम्हीं को भेजे थे। अब खुद टायप नहीं कर पाता सो श्रुति ने ही किये थे और उसी ने प्रूफ देखे थे। अब तुम्हारी कीमती राय के लिये तुम्हारी टेबल पर रख आया हूँ। उनकी हल्की भूरी आंखें, और सिगरेट के निशान से गुलाबी से सलेटी लाल हो आये होंठ संयम के साथ एक अर्थमय मुस्कान मुस्कुराये थे। उन्होंने जलन पढ ली थी अणिमा के चेहरे पर ताजा ताजा लिखी।

दूसरी बार वह पल जन्म से पूर्व ही कालग्रस्त हो गया जब सर ने उसकी मेज पर आकर एक पेपर उसकी ओर फेंकते हुए कहा था, “ यह देखो यह पच्चीस साल का प्रोजेक्ट यू एस ए का। एन्थ्रोपोलोजी तो ऐसा वास्ट सबजेक्ट है कि इसमें अवसरों की कमी ही नहीं। आगे रिसर्च करो। और तुम जैसी जहीन लडक़ी। और यहाँ एडहॉक बन कर कैरियर बनाने का क्या मतलब! क्या फायदा हुआ मुझे फिर तुम्हें अपना बेस्ट देने का? अब छोडो यह युनिवर्सिटी बाहर निकलो दुनिया देखो अच्छे संस्थानों में जाओ। विदेश जाओ कितने कितने अवसर हैं।”

“ मैं यहीं ठीक हूँ।” उसने सर झुका कर कहा था।

“ क्या मतलब?”

“ आपकी छत्रछाया में।” सर ठठा कर हंसे थे, फिर दर्प और व्यंग्यभरा कमेन्ट किया था। “ मेरे यश से कुछ टुकडे यश पाने की आकांक्षा व्यर्थ है अणिमायह तो स्वयं ही अर्जित करना होता है। रही बात मेरे प्रभाव का फायदा उठा कर ही किसी को इस युनिवर्सिटी में लगवाना होता तो अपने बच्चों को न लगवाता। मैं वैसा नहीं हूँ सॉरी अणिमा मुझसे सिफारिश की उम्मीद मत करना ह्न।”

वह फफक कर रो दी थी। “ बस इतना ही समझे न, आप? “

वह कहते रहे थे -” ऐसी नारीवादिता का क्या जो पुरुष में अपना सहारा ढूंढे।” वे कुछ कोमल हो आये थे।

जानती थी खूब जानती थी कि अब उनसे छिपा नहीं रह गया था अणिमा की अंधी श्रध्दा का प्रेम में बदलता स्वरूप इसीलिये थी ये कडवी गोलियां। ये दवा में लिपटे तीर!

तीसरी बार तब - जब सर की फेयरवेल पार्टी थी जर्मनी जाने से पहले। उस बडे आयोजन से, पहले वह उनके साथ थी, उनके ऑफिस मेंदेर तक खामोश।

“ अणिमामैं खुश नहीं होऊंगातीन साल बाद लौट कर भी तुम्हें यहां एडहॉक लैक्चरर पाऊं तो! ये प्राध्यापिकी बेकार की निकृष्ट चीज है। आपकी क्रियाशीलता को क्षरित करती है । यह आलसी लोगों के लिये है। जो बैठ कर मोटी तनख्वाह लेकर खुश रहते हैं। तुम उनमें से नहीं तुममें तो कुछ कर दिखाने का जज्बा था न!”

“ जी सर!”

“ मुझे नहीं पता तुम्हैं क्या रोके हुए है यहाँ? हर महीने मिलने वाले दस हजार रूपए तो नहीं कम से कम। यू डिजर्व मोर! फिर क्या? न यहाँ कोई प्रोफेशनल सेटिस्फेक्शन है। मैं यह भी जानता हूँ तुम निस्वार्थ हो तुम मुझसे भी कुछ फायदा नहीं उठा रहीं फिर फिर क्या?”

““

“ सच कहो अणिमा मैं कई बार डर जाता हूँ! क्यामैं? “

““

“ मुझसे क्या पा सकोगी? कुछ नहीं। मैं चला जाऊंगा परसों।”

“ कुछ मांगा क्या आपसे? कहा था न एकलव्य हूँ ,एक बार ।”

“ नहीं यह एकलव्य होना नहीं है यह तो मीराअहिल्या या ऐसा ही कुछ होने जैसा है अणिमा। यह स्वस्थ मानसिकता नहीं है तुम जैसी स्वतन्त्र स्त्री के लिये।”

“ मेरा बस नहीं है।”

एक क्षीण से आलिंगन के साथ यह पल जन्म लेते लेते ही वहीं मूर्च्छित हो गया था। किन्तु इस पल की प्रेतकामना जिन्दा रही बरसों। आज इस पल में प्रविष्ट होकर जन्म ले बैठी!

अमेरिका से ही कितने कितने फोन करके - कितने दोस्तों को ढूंढ ढांढ कर सर का पता पूछा था, उनका दिल्ली छोड क़र बम्बई आना तो पता चला था। लेकिन उसे नहीं पता था कि अब वे इस दस साल पुराने पते पर वे होंगे भी कि नहीं। एक खत, एक तार डाला। उत्तर नहीं मिला था। पर वह बम्बई चली ही आई। अपनी छोटी बहन कणिका से भी तो मिलना था। वहाँ से टेलीफोन डायरेक्ट्री में सर का नाम मिल ही गया, महेश्वर पन्त । नाम ही के साथ मुखर हो गयी उनकी आकृति - गोरी, पहाडी मजबूत काठी, औसत कद, चेहरे पर कुमाऊंनी पन्तों का वही तेज, क्लीन शेव्ड चेहरा, तीखी नाक, हल्की शहद के रंग की बडी मगर खामोश स्थिर आंखें, लगातार सिगरेट पीते रहने से गुलाबी से भूरा हो आया निचला होंठ और कामदेव के चाप के आकार का ऊपरी सुर्ख होंठ। काले - सफेद बालों की तरतीब से सधी पंक्तियां। मजाल जो दिन भर में इधर से उधर हो जायें।

“बहुत हैण्डसम हैं ना सर इस उम्र में भी। तू बता? “ मंजरी कहा करती थी। वह कुछ नहीं कहती थी। क्या कह सकती थी, उन आंखों का वीतराग भाव उसे पता था, उन होंठों से झरे शब्दों से ज्ञान, आदेश, उपदेश के अलावा कब कुछ सुना था उसने? पर सुनना चाहती थी! यही वीतराग भाव था, जो एक प्यास जगाता था उसमें। जितना दुर्लभ और रहस्यमय था वह व्यक्तित्व, उतना ही अणिमा को उसका मोह छलता था। उसे बस इतना पता था कि उनके ज्ञान की विरासत उनके सैकडों स्टूडेन्ट्स में से सिर्फ उसे मिली है जितनी निकटता उसे मिली हैसर के सहयोगियों और जूनियर्स को भी नहीं मिली थी। इसी को पाथेय बना उसने एकाकी सा रास्ता चुन लिया था।

सर के जर्मनी से लौट आने से बहुत पहले वह अमेरिका चली गई एक बडे प्राेजेक्ट के तहत, फिर लेखन, रिसर्च और फिर मानवाधिकार की एक विश्वप्रसिध्द संस्था एमेनेस्टी इन्टरनेशनल से जुड कर उसने अपने जीवन की सार्थकता पा ली थी।वहां कई बार उसे सर का पत्र मिलता था, उसकी उपलब्धियों पर बधाई के साथ। कई बार उसने सर को सेमिनार्स में पेपर पढने के लिये आमंत्रित किया पर उनका जवाब नकारात्मक ही मिला। उनकी पत्नी के देहान्त की खबर दोस्तों से मिली थी। धीरे - धीरे उनका लेखन भी कम पढने को मिलता था, जरनल्स में। अन्तत: सम्पर्क टूट ही सा गया था। उसका भी फिर कभी भारत आना अगर हुआ भी तो जल्दबाजी में। उनसे कभी मिलने का संयोग ही नहीं हो सका।

इस बार एक बडे सम्मान के लिये भारत आने के नाम पर उसे सर से मिलने की बहुत इच्छा हुई थी। आखिर यह सम्मान उन्हीं की बदौलत मिला था, उन्होंने ही उसे वह दृष्टि दी थी कि - वह महज लैक्चरर बनने के लिये नहीं बनी है। उसे इस विषय का, इस विषय में उनके दिये ज्ञान का सही उपयोग करना है।

फोन करते हुए उसका दिल जोर से धडक़ गया था। उसे कुछ नहीं पता था कि उसे कौन उठायेगा, उसे क्या उत्तर मिलेगा, रह रह कर आशंकित हो रही थी वह! अब तक तो रिटायर होने वाले होंगे।

सर ही ने उठाया था फोन, “ आवाज वही थी धीर गंभीर - सी, पर कहीं आहत, क्लान्त भी “ हलो, एमपन्त हियर”

“ सर”

“ कौन? अणिमा!”

“ पहचाना कैसे आपने?”

“ मुझे उम्मीद थी, अखबार में पढा था तुम्हारा नाम, टी वी पर भी देखा था तुम्हें। और खत और तार मिल गये थे।

“ पर आपने जवाब नहीं दिया न फोन न ई मेल। सब कुछ तो लिखा था आपको। “

“ अणिमा, तबियत ठीक नहीं थी। फिर मुझे पता था कि यह प्रवासी सप्ताह बीत जाये तो तुम स्वयं खोज कर चली आओगी।”

“ क्या हुआ सर?”

“ होगा क्या? बुढापा और उससे ज्यादा खा रहा है यह अकेलापन!”

उसका मन दुख गया था सरजो कभी व्यक्तिगत स्तर पर बात करने से कतराते थे सर जो कभी अकेले होते नहीं थे बल्कि अकेलापन जुटाते थेजब बहुत लोगों से घिरे होते थे तो वे निस्संकोच कह देते थे “ आप जायें, मैं अब एकान्त चाहता हूँ।” या “ अणिमा, जाओ अब मुझे यह पुस्तक खत्म करनी है।” इसी एकान्त को अक्षुण्ण रखने के लिये उन्होंने आर्ट्स फैकल्टी की डीनशिप के लिये मना कर दिया था।

“ सर, आप कब फ्री हैं मैं आना चाह रही थीआपका आर्शिवाद।”

“ मैं तो खाली ही हूँ अबकहीं नहीं जाताकभी भी आ जाओमुझे अच्छा लगेगा।”

बस वह तुरन्त टैक्सी पकड क़र, कणिका के साथ शाम की शॉपिंग का प्लान कैन्सल कर, भरी दुपहर में भागी थी।

देह ढल गई थीतेज वही था! आंखों की खामोश चमक वैसे ही थी। सफेद कुर्ते पायजामे में सर को देख आत्मीयता से भर गई थी।उन्होंने जल्दी - जल्दी कुछ ही देर में कितनी - कितनी बातें पूछ लीं - उसकी उपलब्धियों की, पीछे छूट गये सूत्रों की, मानवशास्त्र के नये आयामों पर संभावनाओं की। इतने बातूनी तो सर कभी नहीं थे।लंच कर चुकी थी पर सर के साथ फिर लंच किया था। तुअर की दाल, कच्चे आम की लौंजी, सूखे आलू, चावल और रोटी।

“ आपने बनाया।”

“ हाँ।”

“ कोई सर्वेन्ट।”

“ मुझसे यहां की मराठी बाईयों के हाथ का खाना नहीं खाया जाता। फिर खाना बनाने में सुबह शाम एक घण्टा तो कट जाता है।” अणिमा का मन फिर दुखा।

“ कैसा बना है?”

“ बहुत स्वाद है सर आपके हाथों में।”

“ जया भी यही कह - कह कर सण्डे का खाना मुझसे बनवा लेती थी।” पहली बार सर के मुंह से उनके सुखद दाम्पत्य का एक अंतरंग प्रसंग सुना। बहुत याद आता होगा स्वर्णिम अतीत! उस पर ढलती उम्र, जिसमें अतीत जितना याद आता है, उतना सालता है। पर उस मीठे दर्द के हिस्से को बार - बार कुरेदना अच्छा लगता है, इस पचास पार कीउमर में।

उस दुपहर सर ने बहुत सी बातें की अतीत की। जे एन यू के दिनों की। न जाने कहां से पिछली आत्मीयता दोनों के बीच प्रश्न बन कर उभर आई।

“ आप कब रिटायर हुए?”

“ अब भी हुआ नहीं होता जया के जाने के बाद काफी बीमार रहा तो दो साल पहले ही रिटायरमेन्ट ले लिया।”

“ अब?”

“ अब ठीक हूँ। अपनी कहो। शादी वादी”

“ ना! नहीं की”

“ फिर जिद्दी निकली ना अणिमा तूतुमशादी नहीं की तो नहीं ही की ना।”

“ वक्त ही नहीं मिला।”

हंसे थे सरअपनी गूढ हंसी।

शाम टंगी थीसमुद्र के इस पार ही अभीनारियल के पेडों परउस पार जाने की लम्बी दूरी को देख ठिठकती सीवह पल करवटें ले रहा था वक्त के गर्भ में

“मैं जाऊं।”

““

बोझिल एकान्त की परछांई उन्हें फिर हताश करती, उससे पहले ही उसने जाना स्थगित कर पूछ लिया,

सर चाय पियेंगे? मैं बना कर लाती हूँ।

चाय लेकर वह बालकनी में आ गई थी सर ने कन्धों से उसे थाम कर झूले पर बिठा दिया था” बैठो।” स्वयं आराम कुर्सी पर बैठ गये थे। चाय के घूंट भरते हुए वे दोनों कुछ नहीं बोले सर बस उसे ही बहुत ध्यान से देखते रहे जब तक कि उसकी प्रकाशवान परछांई सिल्हट न बन गई। पर कुछ नहीं कहा कि बहुत बदल गई हो जैसा। चाय खत्म होने पर वह फिर जाने को कसमसाई।

“ जाओगी।”

“ हां शाम ढल गई है न।”

“ मैं छोड आऊंगा कार है न! तुम अपनी बहन के घर फोन कर दो।”

“ आप रात में ड्राईव करेंगे?”

“ हां, साथ खाना खायेंगे कहीं, फिर तुम्हें छोड दूंगा। बहुत दिनों से इस घर से बाहर नहीं निकला। आज खाना बनाने का भी मन नहीं है। तुम्हारे आने से पहले ही मैकेनिक को देकर सविसिंग करवाई थी कार की भी।”

एक एक पल किसी आदमजात के साथ बिताने की, उनकी लम्बे एकान्त के बाद की लालसा को वह समझ रही थी। एक उम्र बाद किसी अपने का साथ कितना जरूरी हो जाता है। यह स्वयं के बारे में महसूस कर वह अपने भविष्य को लेकर कांप गई। कितना दूर है उसके लिये भी ऐसा निर्जन सा वक्त? दो दशक बसज्यादा से ज्यादा!

अब वे दोनों उनकी स्टडी में आ गये। किताबें देखते देखते उन्होंने उसे एक डायरी दिखाई जिसमें अणिमा के लिखे लेखों की कतरनें थीं।

“ तुम्हारे जाने के बाद युनिवर्सिटी में मन नहीं लगा अणिमा।”

““

“ बम्बई आ तो गया, पर यहां की रैट रेस से भी घबरा गया था मैं। रास ही नहीं आया कुछ भीजया बहुत बीमार रही। तुमसे लगातार सम्पर्क न रख सकने की यही वजह थी, तुम्हारे सेमिनार्स के आमन्त्रण कितने सारे प्रोजेक्ट्स सब से कट कर, जया की तीमारदारी में लग गया और वही चार साल पहले धोखा देकर चली गई।” सर की आंखें छलकने को थी। उसने स्नेह से सर का हाथ पकड लिया। प्रतिक्रिया में सर ने दूसरे हाथ से अणिमा के दोनों हाथ पकड लिये और अपने जलते नेत्रों से लगा लिये। फिर उन्हें छोड वहीं दीवान पर बैठ गये, वह भी करीब बैठ गई।

“ अब फिर जुड ज़ाइए न आप! कितना सारा ज्ञान लिखना शुरु कीजिये नाफिर से मैं हूं ना आप साथ चलिये मेरे।”

“ अब कोई मोटिवेशन ही नहीं न पैसा न यश । सब पा लियासब पाकर चुक भी गया।अब तो याद भी नहीं आती उन दिनों की “

“ यह सच नहीं है। मैं इस ज्ञान के अथाह सागर को व्यर्थ नहीं जाने दूंगी। आप लिखेंगे।”

“ मेरा साथ दोगी?”

“ हाँ।”

अपने गुरु की एक महान आकृति को टूटा देखकर, एकलव्य अणिमा, उस पल सर्वस्व देने को उद्यत थी।

“ जीवन से ही छिटक गया हूं अब वहीं से छूट गया है मेरा सिरा एक निरा प्रेत बन कर रह गया हूँ मैं।” शहदीली आंखों को धुंधला करते आंसूं धरती पर चू पडे थे।

अणिमा ने बिना कुछ कहे, बाँहें फैला दीं थी। एक सिसकता सा अकेला छूटा निष्पाप शिशु वक्ष से लगा था पर अणिमा के लिये, वे गर्म सांसे उस पुरुष की थीं, जो कभी उसे बहुत दुर्लभ लगा था जिसकी छाया से भी छुल जाने की फैन्टसी उसे अतीत में रातों जगा चुकी थी।

स्वयं को शीघ्र ही सहज कर सर उठ कर अपने बेडरूम में चले आये थे। वह ही पीछे चली आई थी। वे वार्डरोब से अपनी शर्ट पेन्ट लेकर फिर स्टडी में लौट गये -

“अभी आया कपडे बदल कर फिर चलते हैं।”

पर वह ठिठक गई इस कमरे में आकर जहां सामने की लम्बी खिडक़ी से दिखताढलती शाम में ठाठें मारता समुद्र एक डर पैदा कर रहाथा न जाने किन निर्मोही घनेरे अंधियारों से बाहर आ सलेटी लहरें तट की चट्टानों पर सर पटक रही थीं। एक उदास सा हाहाकार उसने घबरा कर परदा डाल दिया था। सौंदर्य के प्रतिमानों पर खरी उतरती एक जवान स्त्री का मुस्काता, श्वेत श्याम, बडा सा फोटो सामने की दीवार पर लगा था।

“ क्या देख रही हो?”

“ यही कि कितनी सुन्दर थीं मिसिज पन्त।”

“ हाँतुम मिलीं तो थींकई बार।

“ पर न जाने क्यों वे मुझसे कतराती थीं”

“ अणिमा तुम्हारा मेरे प्रति वह अन्धा अराध्यभाव उसे डराता था। उसे लगने लगा था मैं भी तुमसे प्रभावित हूँ और उसके साथ जब होता हूँ अंतरंग पलों में, तो तुम्हें फैन्टेसाइज क़रता हूँ।”

प्रेतकामना से ग्रसित वह पल छटपटाता रहा वह वहीं बैठ गई बिस्तर पर। कण कण बिखरती रेत सी।

“ और अणिमा बाद में उसका थोपा गया वह आरोप कभी कभी सच होने लगा था। “ एक सांस में बाकि बचा वाक्य खत्म कर, वे सामने आ खडे हुए।

वह बंध गई उन शहद भरी आंखों और चौडे ललाट पर बिखरे भव्य व्यक्तित्व के अवशेषों की गरिमा से। अपनी बांहें उनकी कमर के गिर्द डाल दीं। स्वयं को छुडा कर वे पास बैठे उसका सर सहलाते रहे। वह जन्म लेने को छटपटाता आवेशित पल उन्हें कब तक न ग्रसता उनकी लम्बी भुजाएं अणिमा को लपेट कर वक्ष से लगा चुकीं थीं दोनों लेट गये आज उनके गोरे पीले रंग पर उत्तेजना का रक्ताभ छांह थीउस लम्बी चौडी देह ने जब समेटा था, उसे बिखरी हुई सुनहरी रेत सा! तभी बस तभी फिसल कर उस प्रेतकामना से ग्रस्त पल ने जन्म ले लिया था उसने सिहर कर एक सिसकार के साथ अपनी बांहें उनके गले में डाल दी थी।

अब वह पल जन्म लेने की कुछ घडियों बाद अणिमा को छोड वैताल सा सर के कन्धे पर चढ ग़या था। जब वे उसे क्लान्त छोड रसोई में पानी लेने गये थे। घबरा कर लौटे और उसके कपडे ज़ल्दी जल्दी उसे पकडा कर बोले थे -

“ अणिमा लगता है, इसी बीच सलिल आया था। देखो ये खाने के पैकेट! अब तुम जाओ! “

“ सर।” वह समझ ही न सकी थी। हतप्रभ थी।

वे कपडे पहन बॉलकनी में जा जा कर झांक रहे थे। उसे समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा क्या तूफान आ गया? जिस बेटे ने सुध लेना छोड दिया पिता की उसके आने का क्या फर्क पड ग़या? शायद एक पिता का दृष्टिकोण वह समझ नहीं पा रही थी।

वह रुआंसू हो कर एक कुर्सी पर सर पकड क़र धंस गई। जब सर सलिल की कार पार्किंग में न पाकर लौटे तब उन्होंने आकर अणिमा से कहा।

“ चलो, तुम्हें छोड दूँ।”

“ मैं चली जाऊंगी।”

“ ।” कितना नीरीह लग रहा था यही पुरुष अब जिसके वर्षों के सहेजे अक्षय पौरुष का तृप्ति भरा साथ अभी अभी जी कर चुकी थी जिसे बार बार जीने की मीठी कामना अभी खुमार ही से भरी थी।

“ मैं अभी एक सप्ताह यहीं हूँ।”

“ मैं तुम्हें फोन करुंगा।”

वह विदा देने नीचे तक आये थे।

यह कैसा पल था जो अणिमा की प्रेतकामना के साथ आया और उन पर वैताल की तरह चढ बैठा। उनके एकान्त में साल साल भर कोई नहीं झांका था तब कहां मर गया था यह पल? आज आया भी तो कितना भीषण अपमान लेकर।

क्या सोचता होगा सलिल? उसका बाप अब यही सब किया करता है यहाँ अकेले में? कैसे कहे कि बेटे - वह एक विधुर की त्रस्त वासना का पल नहीं था वह

वह पल था एक बरसों संजोये प्रेम का! एक बीज था एक दुर्लभ पौधे का बीज! जिसके उगने के लिये कभी अनुकूल परिस्थितियां न बन सकीं थीं। समाज, परिवार, प्रतिष्ठा सब कुछ यथावत बने रहें, इसी संयम के तहत। उन्होंने उस बीज को कभी एक नरम निगाह की नमी तक नहीं दी थी। बस उसे दूर कर सूखे पात्र में रख छोडा था। आज जब कुछ भी शेष न था इर्द गिर्द - न समाज, न परिवार, न प्रतिष्ठा कुछ भी नहीं तो बहुत दिनौं बाद इस बीज की याद आ गई थी उसे निकाल कर प्रेम से सींच भर दिया था हाय! सच नहीं पता था यह बीज नमी के एक अणु मात्र सेअपने तन्तु इतने फैला लेगा कि उन पर उगे चमकीले चिकने हरे हरे पत्ते उसे पूरा ढंक लेंगे। वह वल्लरी उनसे लिपट जायेगी और उसकी शाखाएं दूर दूर तक फैल जायेंगी। यहां तक कि उसके भूले हुए अपनों तक भी - कि वे बरदाश्त नहीं कर सकेंगे और उसे अमर बेल समझ बैठेंगे वह कैसे समझायेंगे कि - ना! यह परजीवी अमरबेल नहीं, आर्किड हैअपनी आजाद जडों को अपने आप पोषित करता सुन्दर फूलों में खिलता औरों को मोहता हुआ!

कैसे समझायेंगे वे सलिल को? उफ! ग्लानि से पिघल गया था वह आत्मसम्मान, जो बच्चों के आगे कभी न झुक कर आज तक बटोरा था उनके समक्ष एक आदर्श पिता का रोल निभाते निभाते आज ये चूक कैसे हो गयी?

फोन की तरफ हाथ बढाया फिर उसके मोबाइल का नम्बर डायल भी किया लेकिन आवाज सुनकर रख दिया सफाई? किस बात की? कहाँ गलत हूँ मैं? गलत तो हूँ, एक आर्दशवादी पिता के रूप में मैं ने कब उन्हें दिखाया एक अकेला कमजोर व्यक्ति होकर? एक विधुर की बेबसी कब उनके सामने उजागर की? हमेशा अपनी कमजोरियां ढांप कर दृढ दिखते रहे। अपने आत्मसम्मान में सजग - कमजोर नहीं होने दी अपनी छवि। कितना कहा था, जया ने -

“ मना कर दो जी, सलिल से आप बहू की बातों में न आए इसी शहर में होकर अलग घर में ना रहे। आप रोक लो तो रुक जायेगा। बहू को दवाओं की गन्ध बुरी लगती है तो, मुझे अस्पताल में एडंमिट करा दो थोडे दिन। काम के लिये एक आया, एक नर्स रख लो ना। नियम धर्म बहू बेटे से ज्यादा नहीं अब क्या इतनी कडवी दवाएं खालीं नौकरानी के हाथ का खाना भी खा लेंगे।”

“ जाने दो जया अपना नीड बना लेने दो। हम भी तो बाबूजी इजा को छोड आये थे। “ दृढता से कह स्वयं सलिल को नये घर में शिफ्ट करवा आये थे। अपने जुडवां पोतों को मुडक़र भी नहीं देखा भरी हुई आंखों से।

जया के चले बाद सलिल उन्हें ले जाने को आया था अपने घर तब भी उन्होंने अपने पोतों की किलकारियों के बीच चुभते तानों की जगह अपना आत्मसम्मान चुना। दिव्या के पास जाने की तो कोई समस्या ही नहीं थी। वहां तो स्नेह ही स्नेह था। पर वही नहीं गया। बेटी के घर जाकर रहे इतने भी बुरे दिन नहीं आये हैं। पचपन भी कोई उम्र है, किसी के सहारे पड ज़ाने की?

यह पल तब टूटा कहर बन के , जब वे एक आदर्श पिता की तस्वीर में बंधे बंधे वे थक गये थे। एक आवेशित पल में वे बाहर निकल आये इस फ्रेम से तो! क्या अब वह छवि बिखर जायेगी पूरी की पूरी जिन्दगी की तपस्या से बनी तस्वीर में बाल आ जायेगा? कभी वह कुछ नहीं कह सकेंगे अपनी सफाई में चुपचाप बेटे की नजर में गिरना देखते रहेंगे?

वे सलिल की गाडी क़ो मोड से सर्र से गुजरते देख चुके थे। आधी पी हुई सिगरेट फेंक दी। पूरा दृश्य मानो इस एक पल की निर्लज्जता से स्तब्ध था। हवा रुक गई थी, नारियल के पेड दम साधे खडे थे, समुद्र भी मानो चीख चीख कर रोने के बाद अब कहीं धीमी धीमी लहरों में हिचकियां सी ले रहा था बादल घिर आये थे बॉलकनी में बढती तेज उमस और अन्दर की अकुलाहट से घबरा कर वे अन्दर आकर बिस्तर पर जा गिरे। उनका अकेलापन और गहरा हो गया था।अणिमा तक को वे कुछ समझा न सके, उसने क्या सोचा होगा। उस पल वह शायद नहीं समझ पा रही थी - एक एकाकी पिता को सिहराती, स्वयं को एक स्त्री के साथ सहवासरत होते हुए अपने ही बेटे के द्वारा देख लिये जाने की भीषण ग्लानि कैसी होती है!

बिस्तर पर अणिमा की देह के आकार की सलवटें बनी थीं। एक नई गन्ध बहुत दिनों से अनछुए बिस्तर में आ बसी थी। थकान, रुला देने वाले तनाव, ग्लानि, खुमारी, दुखके मिलेजुले भाव से त्रस्त, वे उस गन्ध को खोजते हुए बिस्तर पर गाल रगडते रहे। दो चार आंसू उन सलवटों पर जा गिरे कुछ देर पहले बीत कर चुके पलों ने फिर जकड लिया वे तो चैन से उस खुमार को भी न पी सके थे जो इतने दिन बाद के देह सुख से निथरा था। देह सुख से ज्यादा सत था उन आत्मीय दिनों की बातों में उनकी आत्मीया अणिमा के नेहभरे सान्निध्य में। उन्हें फिर चाह हो आई अणिमा की रोक ही लेते उसे! हमेशा के लिये! एक विद्रोह जगा इस नई जन्मी परिस्थिति से लडक़र उनमें -

क्या कर लेगें साले! कभी आये पूछने कि, पापा कैसे हो? कभी आया भी तो अकेला, न पोते न बहू। एक 

कर्तव्यपूर्ति कर चलता बना। कितने कितने कठिन पल अकेले पल में बिता डाले, कोई नहीं आया। एक सुख अणिमा के साथ लौटा तो, चले आये उस पर पर अधिकार जताते। अरे बस कर्तव्य निभाकर चुक गया एक पिता भर हूं मैं? पिता! जिसे अब एक प्रेत की तरह आदर्श पिता के फ्रेम में बन्द रहना लाजमी है? अब वह एक आदमी एक व्यक्ति नहीं? मेरे अकेलेपन को किसी की जरूरत नहीं क्या? इस बार अणिमा को रोक लूंगा।

' सठिया ही गया हूं मैं। वह क्यों रुकेगी? क्या दे सकूंगा उसे? और वहसलिल! उन्हें बार बार याद आ जाता वह पल कि उफ! कितना भीषण होगा वह पल स्वयं सलिल के लिये भी ?

तभी फोन बजा, - सलिल, का तो नहीं?

“ सर मैं अणिमा पहुंच गई थी ठीक से। सोचा आपको बता दूं।”

“ अच्छा किया।”

“ आप ठीक हैं?”

“ हाँ।”

“ सर, सोये नहीं अभी तक आप एक ही रिंग में उठा लिया, आप परेशान हैं।”

“ नहीं ठीक हूं।”

“ सर! आप कहीं गलत नहीं है। ग्लानि की कोई वजह नहीं है। आपने किसी को हानि नहीं पहुंचाई है। अपना छोटा सा सुख खोजा था।”

“ बहुत उलझ रहा हूं। सोचा सलिल से बात कर लूं।”

“ नहीं, आप अपनी तरफ से फोन नहीं करेंगे। देखियेगा वह खुद फोन करेगा। जब वह कहे “ मैं आया था।” अपना स्वतन्त्र स्वाभिमान बनाये रखियेगा। कोई सफाई नहीं कोई बहाना नहीं न तफसील बस अच्छा मुझे पता नहीं चला। इतना कहकर अपनी वही गरिमामयी मुद्रा बनाये रखियेगा। आप वही हैं डॉ महेश्वर पन्त!”

“।”

“ सर!”

“ हाँ सुन रहा हूँ।”

“ मैं कल आऊं?”

“ ।”

“ अच्छा आप ही इधर आ जायें। याद है आपने बाहर डिनर पर ले जाने का वादा किया था। मेरा पता है - “ अणिमा की खुमार भरी खनकती हंसी ने उसकी उदासी धो डाली। एक कामना फिर जगी थी।

सच ही फिर सुबह सलिल का फोन आया था,

“ पापा, मैं आया थाआपआप शायद।

“ अच्छा।” बात वहीं काट एक निर्लिप्तता ओढने में थोडा कष्ट तो हुआ था।पर शायद यही ठीक था।

“ पापाविम्मी कह रही थी आप थोडे दिन यहां आ जायें परसों साहिल का बर्थडे है।”

“ नहींबेटा ऐसा तो शायद संभव न हो! मैं व्यस्त हूँ , एक प्रोजेक्ट के लिये कुछ मैटीरियल तैयार कर रहा हूँ शायद अगले महीने यू एस ए जाना पडे।”

“ अच्छा पापा! लेकिन आप मेरा मतलब आपकी तबियत” उसकी आवाज में क्या था हताशा, चिढ या व्यंग्य या सहजता? ये पता नहीं। पर एक कुतुहल जरूर था पर उन्होंने उसे तूल नहीं दिया। एक पिता और पुत्र के बीच एक रेखा जो सलिल ने खींची थी, अपनी निजता कीउन्होने एक समानान्तर रेखा अपने आगे खींच ली, अपनी निजता की, तो क्या गलत है?

“ ठीक ही है अस्थमा इस बार नहीं उखडा, शायद इन्हेलर और रोज सुबह शाम की सैर का असर है।”

“अच्छी बात है! तो फिर मैं ही आऊंगा बताइये कब आऊं?” एक व्यंग्य था स्वर में।

“ रहने देना बीच में समय मिला तो मैं ही कुछ देर के लिये के लिये उधर आ जाऊंगा, साहिल के बर्थडे पर।”

“ जी। रखता हूं, गुड डे पापा।”

वह पल अब जगमगा रहा था। अपनी प्रेतबाधा से मुक्त नया जन्म लेकर हंसता खिलखिलाता! वह पल बह रहा था निर्बाध होकर, वक्त की लहरों के समानान्तर।