प्रेतछाया / हरीश पाठक
अस्थानाजी, आप कल नहीं आए थे और मैं कई बार आपकी टेबल के नजदीक आया था, पर आप थे ही नहीं। दरअसल, मै कल हैरान था कि आप दफ्तर में नहीं है नहीं और दफ्तर की सीट पर आपकी चर्चा है। यहाँ तक कि अँधेरे के उतरते-उतरते जब सारा दफ्तर खामोश था और मैं सीढ़ियाँ उतर रहा था तब मैंने पाया कि नीचे लिफ्ट के पासवाली लंबी बेंच पर भी आपकी चर्चा है। ये चहरे मैंने कई वर्षों से देखे भी है और नहीं भी पर ये आवाजें जब-जब उठती हैं न जाने क्यों सीधे मुझ पर हमला करती है। आपने कभी अनुभव किया होगा कि रास्ते चलते यदि अचानक हवा में विस्फोट हो जाए तो बढ़ते कदम सहसा थम जाते हैं या फिर जब आप अपनी मस्ती में सड़क के बाई ओर चले जा रहे हों और कोई ऐन कानों के पास आकर जोर से चीख दें, यह चीख कान से होती हुई तलवों तक आ जाती हैं आपने महसूसा है कभी? बिलकुल ऐसा ही मेरे साथ होता है। जब-जब मैं आसपास होता हूँ आपके बारे में सुनता हूँ, धक्क से रह जाता हूँ। अवाक्, भौंचक्का। पर आप हैं जो इस नकली चेहरे को कसते हुए हर रोज, हर पल, हर क्षण, हर साल आ जाते है। मैं हैरत में हूँ कि आप आखिर किस रेशे से बुने हैं जो इतने घोर अपमानों, सार्वजनिक तिरस्कारों और हर स्तर की बदनामी सहने के बाद इस खूबसूरत भ्रम में जी रहे है कि सबकुछ कोई नहीं जानता। यह नकली खाल तुम्हें बहुत भीतर तक लहुलूहान किए है। तुम जख्मी हो ओर मैं यहाँ तक जानता हूँ कि तुम्हारे शरीर की नस-नस दोगली है। मैं, मैं हूँ। यदि तुम यह जानना चाहते हो कि मैं इस तरह तुम पर क्यों हमला कर रहा हूँ तो यह तुम्हारा वह घटिया विचार है जिसे तुम पिछले बत्तीस सालों से सोच रहे हो। मैं तुम्हारा पीछा ठीक इतने सालों से कर रहा हूं। मैं तुम्हारी हर उस खाल से वाकिफ हूँ जो तुम अपनी सुविधा से ओढ़ लेते हो। फिर भी तुम मान लो कि मैं तिवारी हूँ सिर्फ तिवारी। आगे-पीछे मत सोचों। अस्थाना ने माना था कि एक परछाई हर रात उसका पीछा कर रही है और यह रहस्य वह उस रात जान पाया जब रिंग रोड से उतरकर वह घर जाने वाली लाल मिट्टी से भरी गली में उतरा था। गली में उतरते ही उसने पाया कि एक बारीक तार उसके पैरों में फंस गया है जिसने अचानक उसकी चाल को हलका कर दिया है। वह बार-बार मुड़कर देखता था और वह गली उस रात उसे पूरा पर्वत लगी थी जिसे उसने हाँफते हुए पार किया था। यह डर जो गली में उतरते ही उस पर हावी हो गया था कमरे में आकर भी उससे नहीं छूट पाया था। वह दनदनाते दरवाजे तक आया और धड़ाम से उसने दरवाजा बंद कर दिया। लोहे की बारीक जालियों से बुना वह चौकोर दरवाजा इतनी जोर से गरजा कि गली में देर तक उसकी आवाज गश्त लगाती रही थी। यह 1 जनवरी, 1981 के रात 11 बजकरकर, 10 मिनट पर हुआ हादसा था। कमरे का लाल बल्ब जल रहा था पर उसके भीतर हजार-हजार वाट के बल्वों का डर सा था और वह बनैला डर इतना भारी था कि उसके शरीर के रोएँ-रोएँ थर्रा रहे थे। अस्थाना ने कपड़े नहीं उतारे थे और वह चप्पलों सहित पलंग पर ढेर था। उसका चश्मा तकिए के नीचे आ गया था और दोनों हाथ एक-दूसरे से गुँथे हुए उसके पेट पर थे। जिस रात अस्थाना की समझ में यह आया कि कोई लगातार उसका पीछा कर रहा है उसी रात दो घटनाएँ एक साथ हुई थीं। उस रात उसे अचानक न जाने क्यों कमरे में अन्नी खड़ा हुआ दिखाई दिया था जो बगैर कुछ बोले अपने जबड़े को कसे हुए उसकी तरफ हिकारत से देख रहा था। अन्नी के हाथों में न जाने क्या था जो अस्थाना साफ नहीं देख पाया पर इतना पैना और नुकीला हथियार शायद उसने पहली बार देखा था। नुकीलापन उसकी खाल को भेदकर माँस में उतर रहा था। अन्नी के कमरे से जाने के बाद एक आतंक देर तक रात तक कमरे में टहलता रहा था और फिर जब चटाक की आवाज हुई तो वह जागा था। शीशा कमरे के बीचोबीच टूटा पड़ा था। वह फिर सोना चाहता था कि उसने पाया कि अब उसके सिरहाने कोई बैठा बहुत धीरे-धीरे उसके बालों को सहला रहा है। उसके हाथ अस्थाना के हाथों से लिपटे हैं। लंबे काले बाल अस्थाना के होंठों पर है और चहरे पर सिर्फ एक चमकदार आँखे। बाकी चेहरा गायब था। अस्थाना उठकर बैठ गया था। वह गंध नीलू की गंध थी जिसे वह बहुत पीछे छोड़ आया था। इतने सालों बाद यह दिल्ली कैसे आ पहुँची? गंध का तेज झोंका कमरे में देर तक क्यों रुका रहा? गंध, बेड़ि़यों को कैसे झटक आईं। यह जवान होती रात फिर पूरी-की पूरी अस्थाना ने आँखों में ही काटी थी। सुबह उग आई थी पर अस्थाना की आँखों का भारीपन नहीं गया था। जैसे पिछली यादों का लंबा बोझ किन्हीं अनदेखे हाथों ने उसके सर पर जड़ दिया है। यह नामालूम-सा दर्द अरसे तक अस्थाना झेलता रहा। जो हर रोज उसके साथ उठता था, हँसता था, बाजार जाता था, दफ्तर जाता था यानी उसकी परछाई बन गया था और इस परछाई से अस्थाना डर रहा था। पीछे दौड़ते-दौड़ते अपमानों और दोहरी जिंदगी के तमाम खाके थे जिनमें अस्थाना टुकड़ों-टुकड़ों में कैद था। झूठ के रंग-बिरंगे कपड़े और प्रपंचों के बदरंग चेहरे जो उसने खुद को बचाने में हर बार लगाए थे एक निर्लज्ज सच्चाई बनकर उसकी आत्मा बनकर उसकी आत्मा से बुद्ध कर रहे थे और इस युद्ध में गले-गले डूबा था अस्थाना। मेरा विचार है तुम मेरा पीछा करना छोड़ दो। छोड़ दो- मेरे भाई, मेरे बहुत अच्छे दोस्त, मेरे सखा, मेरे भावुक मनवाले साथी। क्यों? क्यों तुम्हारा पीछा छोडूँ? फिर कौन तुम्हें सरेआम बेइज्जत करेगा? कौन तुम्हारे कपड़े उतारेगा? तुम इस तरह अब मुझसे मुक्ति नहीं पा सकते। तुम्हारे पाखंडों का परदा मुझे उठाने दो ताकि सब देख सकें तुम्हारे टूटते-बिखरते तिलिस्म को। अस्थाना धीरे-धीरे कमजोर पड़ गया। बुझती हुई आग की तर। उसकी खुरदुरी हथेलियाँ उसकी आँखों पर आ गई थीं। परछाई जीत रही थी, अस्थाना बाजी हार रहा था। यह घर अन्नी का ही नहीं है मेरी माँ, इस घर में मेरा भी कहीं बिस्तर है। मेरी माँ। तुम हर रात मेरी जगह क्यों बदल देती हो? मुझे एक बिस्तर चाहिए। मुझे घर में एक ठिकाना चाहिए। माँ का चेहरा सख्त हो उठा था। वे बूढ़ी, थकी आँखे जिनमें ढेर-सा लाड़ लरजता था, आज उनमें नफरत और घृणा की लौ थी। उनके रूखे बाल और कत्थई रंग की छापेदार साड़ी देर तक उसकी आँखों में कौंधती रही। ‘‘तुमने अपने हक खुद खो दिए है, मैं भी जानती हूँ, मुझे भी मालूम है कि इस घर में तुम्हारा एक स्थायी बिस्तर होना चाहिए। पर वह...’’ माँ ने आवाज खुद-ब-खुद बीच में तोड़ दी थी। वह नहीं समझ पाया कि माँ को किसने आवाज तोड़ने पर विवश किया था। फिर हर दिन माँ का चेहरा उस रात की तरह सख्त हो गया जैसे हर पल अस्थाना के चेहरे को तमाम नकाबों ने ढक लिया। इन नकाबों ने अस्थाना के खास चेहरे को भुला दिया था। सच तो यह था कि वह खुद अपने आपको भूल गया था। अन्नी एक कमरे से दूसरे कमरे में अपना असर रखने लगा था। सात साल का फासला था अस्थाना और अन्नी में। पर घर की ईंट का हिसाब अन्नी की आँखों में दर्ज था और अस्थाना के हर झूठ का हिसाब नीलू के पास। ये चढ़ती उमर के वे दिन थे जिन्हें अस्थाना फुटकर तौर पर खर्च कर रहा था। उसने अपने चारों ओर एक ऐसा मायावी संसार रच लिया था जिसमें वह खुद-ब-खुद भटक रहा था, रास्ते को जानने के बाद। यह संसार उसे बेवजह के भरम पाल रहा था। कच्ची शराब के ठेकों से लेकर कॉलेज की सड़कों और शहर के चौराहों तक वह फिजूल की बहसों और झूठे पाखंडों में डूबा था। जब-जब घर और जिन्दगी की सच्चाई अपने पर फैलाती, वह चटाख से दूर हो लेता था और अपने ऊपर झूठी मुसकाने चस्पां कर लेता। घर से उसके रिश्ते टूटते जा रहे थे और उसने पाया था कि एक रात उसका विस्तर दरवाजे के ठीक बाहर है। नशा उसकी आंँखों में था और इतना तेज कि वह नहीं देख पाया था कि घर की चौखट पर जलती आँखे लिए अन्नी खड़ा है। कहाँ थे तीन दिनांे से? केवल रात सोने-भर के रिश्ते रह गए है? घर-घर होता है दादा? तुम्हें मैंने पागलों की तरह शहर की हर गली में छान मारा। दादा तुम क्या हो? कहाँ बसी है तुम्हारी आत्मा? कौन-सी है तुम्हारी दुनिया? किस आग से नष्ट होगा तुम्हारे झूठे सपनों का जाल? इन तीन दिनों में मेरी दुनिया दरकी है। और तुम, तुम-अन्नी लंबी चीख मारकर जोर-जोर रोने लगा और नशे में आकंठ डूबा अस्थाना तिरछी नजरों से उसे पी रहा था। अम्मा की लाश पूरे एक दिन तुम्हारा इंतजार करती रही और तुम बस सबसे बेखबर दारु के अड्डों पर भटकते रहे। लाश! लाश! वह अनजाने इतनी जोर से चीखा कि गली जाग गई थी। जागती गली के खिड़कियाँ एक साथ खुल गई थीं और कई जोड़ा आँखें उनमें से उभर आई थी। हाँ, हाँ अम्मा की लाश। तुम्हारी और मेरी माँ की लाश। वे हाथ राख हो गए जिन्होंने तुम्हें और मुझे पाला था। वे सपने डूब मरे जो तुम पर टिके थे। वे-अन्नी की डूबती-उतरती हिचकियाँ भर अस्थाना सुन सकता था। एक काला वजनी पत्थर जैसे अचानक उसके सर से ठकराया था। वह कुछ बोल पाता कि अन्नी फिर सिसकियों के बीच बोल रहा था- ‘‘रात साँकल के खटकने की आवाज आई थी, और अम्मा रोज की तरह ‘आए’ बोलती दरवाजे तक आयी थीं। इस सपने को लिये कि दरवाजे के बाहर तुम होगे। और जैसे ही उनका हाथ साँकल तक बढ़ा कि वे चीख उठी थीं। लंबी और दर्दनाक चीख उनके गले से निकली थी और उनका पूरा बदन धीरे-धीरे ऐंठने लगा था। काला नाग अम्मा पर झपटा था और उनका जहर अम्मा के हाथ में उतर आया था। फिर घुटी-घुटी सी आवाजें उनके गले से निकली थी और अस्पताल जाते-जाते अम्मा जा चुकी थीं।’’ अन्नी की बात कहाँ खत्म हुई और कब, कैसे वह वहाँ से उठा उसे कुछ नहीं मालूम। उसके बाद अन्नी का क्या हुआ वह नहीं जानता। घर की दीवारें अगली बरसात में ढह गई या वैसी ही हैं उसने सोचा तक नहीं। अम्मा की रंगीन धोतियों का जंग खाया बक्सा कहाँ गया, कहाँ गई अम्मा की इकलौती तसवीर? उसे दीमक चाट गई या फिर बरसात के थपेड़ों ने उसे गली के बाहर फेंक दिया। अन्नी दर-व-दर कहाँ-कहाँ भटका होगा। कितने दिनों तक उसने भूख सही होगी और जब उसकी अति बुरी तरह ऐंठी होगी तो कैसे उसने बंद करमें में खुद को जलाया होगा, कि मरते वक्त उसने किसको याद किया होगा, कि भीतर से उठती हुई चीख को अन्नी ने कैसे होंठों पर आकर रोका होगा, कि धुआँ गली में फैला होगा। कैसे टूटी होगी बंद कमरे की साँकल, कि धुएँ के उठते गुबार को देखकर मोहल्ला इकट्ठा हुआ होगा, नीलू छत को फलाँगते उस भुतहा घर में उतरी होगी, कि अन्नी की जली हुई लाश को देखकर वह कब तक चीखी होगी, देर रात तक पुलिस आई होगी, कई दिनों तक तहकीकात चली होगी- कि फिर उसे लोगों ने धिक्कारा होगा और हर जुबान पर कैसे उसके काले कारनामें उजागर हुए होंगे। अस्थाना को कुछ भी नहीं मालूम। वह कुछ नहीं जानना चाहता था। उसने अपने चेहरे के चारों ओर झूठी मुसकानों का नकाब कस लिया था जिसके भीतर उसका धब्बों भरा चेहरा ढका था। वह खुद को उन सबसे अलग मान रहा था। यह उन अपराधों को याद भर नहीं करना चाहता था जो उसके भीतर जहरीले नाग की तरह उग रहे थे और उसका पीछा भी नहीं छोड़ रहे थे। सुना अस्थाना तुमने। अस्थानाजी, आपने सुना। मेरी बात आपने गौर से सुनी। मुझे बताएँ कि यह सच क्या है? ये दफ्तर, ये टेबलें, ये दरवान और वे खाली-खाली कुरसियाँ क्या आपके पीछे है? दरअसल, अस्थानाजी एक इंच-भर जगह ऐसी नहीं है कि जहाँ आप बैठ सके। यह शहर दिल्ली है। झूठी मुसकानों और दोगले होते लोगों का शहर बिलकुल तुम्हारी तरह भागे और पटरी से उतरे लोगों का शहर। ... और तुम पिछला सबसकुछ जलता हुआ छोड़ भागे थे। आज तुम एक चमकदार चादर पर सोते हो, तुमने जगह-जगह लोगों को भरमाकर अपने हित साधे हैं। तुम हर साल जगह बदलते रहे। तुमने कई नौकरियाँ बदली। तुमने कई-कई घर बदले। कल रात जब तुम पटवर्धन को उसकी माँ की मौत पर दिलासा दे रहे थे, उस वक्त याद है मैंने ही तुम्हारी गरदन पर नाखून मारे थे। मैं ही था जो तुम्हें दिसंबर, 68 की वह रात याद दिलाना चाहता था जिस रात तुम्हारी बूढ़ी माँ, अपनी पत्थर होती आँखों से तुम्हारे बदबूदार शरीर के घर लौटने की बाट जोह रही थी। वह हर आवाज पर चौंकती थी। उस रात भी वह चौकन्नी थी पर तुम नहीं आए थे और उसे काले नाग ने डसा था। उम्र भर तुम उसे डसते रहे। भीतर तक झूठ में डूबे हो तुम। तुम्हारे नशीले संसार ने उसे छोटे भाई को भी डुबो दिया जिसने अपने भविष्य के सपने तुम्हारी आँखों से देखे थे। तुमने ही उसे उस झुलसती आग में धकेला जिससे वह बचपन में ही दूर भागता था। तुमने कभी चाहा कि पीछे मुड़कर देखूँ। टूट रहे उस घर की याद ने तुम्हे क्यों नहीं सताया? क्यों तुम नागदा की उन गलियों से कतराते रहे? तुम्हारे पैर दलदल में फँसे है अस्थाना। नीलू कांबले को तुमने ही मायावी दुनिया के सपने दिखाए थे। तुमने ही उसे दिल्ली की सड़कों और अपनी बड़ी नौकरी का सपना दिखाया था। उसे रचे-रचाये घर की तस्वीर थमाई थी। हर रोज तुम उसे सपनों की खाली गुलदस्ता दे आते थे। और नीलांबर पुरूषोत्तम कांबले की वह साँवले रंगवाली लड़की, अपनी झलक सफेद आँखों से, पत्थरोंवाली गली के उस आखिरी मकान की जंग खाई खिड़की के पास बैठी, कई-कई दिनों तक तुम्हारा इंतजार करती रही। उसकी सपनों से लदी-फंदी आँखे पथरा गई। तुम्हें न आना था, न तुम आए। अन्नी की मौत के बाद उसने तुम्हारी छाया तक से नफरत की। वह उस गली के ईंट-ईंट से जुदा हो गई न जाने कितने हाथों में उसे खेलना पड़ा, न जाने कहाँ-कहाँ वह टूटी। तुम आज भी कई मुखौटों में हो अस्थाना। अस्थाना हड़बड़ाकर जाग उठा था। उसके आसपास रेत-ही-रेत थी। जलती हुई रेत। उसकी आँखों में जलन और उसकी साफ-सुथरी चादर पर जगह-जगह दाग-ही-दाग थे। उस शाम तुम देर तक दफ्तर में बैठे थे। तुम पिछले कई दिनों से अपनी नौकरी को लेकर परेशान हो और तुम्हें हर वक्त सरवटे से न जाने क्यों नफरत होती है। शाम जब तुम्हारी ऊँट-सी गरदन जिसें तीन जले के निशान है, काँच के चेंबर में घुसी थी तब आशंकित नजरों से तुमने हॉल में देखा था। तुम्हारे हाथ में मुड़े-तुड़े कागज और तुम्हारे चेहरे पर धूर्तता थी। काँचघर से लौटते वक्त तुम कुछ गुनगुना रहे थे। वे मुड़े-तुड़े कागज तुम काँचघर में बैठे उसशख्स को दे आए थे जो सरवटे पर गिर सकता था। मैं आज सरवटे के घर से लौटा हूँ। सीमापुरी के एक कच्चे घर में एक जंग खाए स्टोव के आसपास सरवटे का पूरा परिवार बैठा था। पूरे 90 दिन हो गए हैं, सरवटे को कंपनी से निकाले। हड्डियों से जकड़े शरीर पर बार-बार जनेऊ को रगड़ते सरवटें की आँखें भड़भड़ करते दरवाजे पर टिकी रहती है। वह पगला-सा गया हैं उसकी जवान लड़कियाँ बसों की तलाश में दिल्ली की सड़कों पर हैं, उन्हें रोशनी लील रही है और तुम झूठ के संसार में उजली चादर पर लेटे हो। अस्थानाजी, उठो। चादर से उठो और खुद अपने जाल को कुतर डालो। देखो काँटों की जंगल अब आपके विस्तर के नीचे पनप आया है और यह जंगल तुम्हें धीरे-धीरे डस लेगा। तुम्हारे लिए यह जंगल, अन्नी, नीलू और सरवटे की उन जवान लड़कियों ने बुना है जो तुम्हारे मुखौटों को नोचने के लिए धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे हैं। अस्थानाजी, आज मैं जा रहा हूँ, क्योंकि तुमने चाहा है कि मैं खत्म हो जाऊँ। वह सच डूब जाए जो तुम्हारी आँखों में अपनी ऊँगलियाँ गड़ा रहा है, लेकिन तुम अब अपनी खाल से निकल लो...।