प्रेमगीत / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल

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एक कवि ने एक बार एक प्रेमगीत लिखा। यह बड़ा सुन्दर था। उसने उसकी कई प्रतियाँ तैयार कीं और अपने मित्रों व प्रशंसकों को भेज दिया। एक प्रति उसने पर्वत के पीछे रहने वाली उस युवती को भी भेजी जिससे वह सिर्फ एक बार ही मिला था।

एक या दो दिन के बाद उस युवती का पत्र लेकर एक आदमी उसके पास आया। पत्र में उसने लिखा था - "मैं आपको यकीन दिला दूँ कि मुझे लिखे आपके प्रेमगीत ने मुझे विभोर कर डाला है। आओ, मेरे माता-पिता से मिलो। हम सगाई की तैयारियाँ करेंगे।"

कवि ने पत्र का उत्तर लिखा - "दोस्त! यह कवि के हृदय से निकला गीत था। इसे कोई भी पुरुष किसी भी स्त्री के लिए गा सकता है।"

युवती ने जवाब भेजा - "झूठ और पाखंड से भरी बातें लिखने वाले! आज से लेकर कब्रिस्तान जाने के दिन तक मैं कभी भी किसी कवि पर यकीन नहीं करूँगी, तुम्हारी कसम।"