प्रेमचंद का मार्क्सवादी दृष्टिकोण / संगीता नाग

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मार्क्सवाद एक वैज्ञानिक विचारधारा है जिसके प्रणेता कार्ल मार्क्स थे और बाद में जिसे सैद्धांतिक धरातल पर और मजबूती प्रदान करने का कार्य फ्रेडरिख एंगेल्स, ब्लादिमीर लेनिन और ऐसे ही कई अन्य बुद्धिजीवियों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने किया। इस विचारधारा को एक राजनीतिक-सामाजिक यथार्थ में तब्दील करने का कार्य सबसे पहले लेनिन ने किया जब सोवियत रूस में मजदूरों-किसानों की पहली जनवादी सरकार की स्थापना हुई। मार्क्सवाद समाज को दो वर्गों में विभाजित करके देखता है। इस वर्गीय विभाजन में प्रमुख हैं- शोषक और शोषित वर्ग। शोषक वर्ग साधन संपन्न वर्ग होता है, जो उत्पन्न संसाधनों पर अपना अधिकार जमाता है और शोषित वर्ग उनके द्वारा दबाया गया, लूटा गया और छला गया तबका होता है। शोषित वर्ग वह है जिसके श्रम का पूरा लाभ शोषक वर्ग उठाता है और श्रमिकों द्वारा किए गए उत्पादन और अतिरिक्त पूँजी पर नियंत्रण स्थापित कर लेता है। मार्क्सवादी विचारधारा का लक्ष्य इसी वर्ग विभाजन को समाप्त कर वर्गहीन समाज की स्थापना करना है। इसी वर्गहीन समाज को स्थापित करने के लिए मार्क्सवादी वर्ग संघर्ष को अनिवार्य मानते हैं। मार्क्स के अनुसार, ‘‘मजदूर वर्ग की पार्टी का उद्देश्य क्रांति के लिए, अर्थात पूंजीपतियों के शासक वर्ग को उलटने के लिए तैयार करना और क्रांति का संगठन करना, तथा उत्पादन की एक नयी व्यवस्था, अर्थात समाजवाद की रचना करना होता है।” इस विचारधारा ने विश्व के लगभग सभी देशों में अपना प्रभाव छोड़ा है। भारत में गाँधीजी की विचारधारा के पश्चात् हाशिए के समाजों को चिन्ता के केंद्र में रखकर चलने वाली विचारधारा के रूप में मार्क्सवादी विचारधारा का आगमन हुआ था। रूस की क्रांति के पश्चात और आजादी से पहले ही भारत के कई राज्यों में साम्यवादी विचारों का प्रसार शुरू हो गया था और संगठित रूप में किसान-मजदूर पार्टियों की स्थापना भी हो गई थी। 1905 की रूसी मजदूरों की क्रांति ने विश्व में एक नए युग की शुरूआत की थी। इस क्रांति की सफलता के बाद ही भारतीय जनमानस में साम्यवाद और अपनी सरकार बनाने का सपना फलने-फूलने लगा था। 1908 में तिलक की गिरफ़्तारी के बाद बम्बई के सूती मिल मजदूरों द्वारा व्यापक रूप में एक हड़ताल किया गया जिसका लेनिन ने खुले मन से स्वागत किया था। उनका मानना था कि इस हड़ताल ने हिन्दुस्तान में सर्वहारा वर्ग के प्रतिनिधित्व के लिए पृष्ठभूमि तैयार कर दी है। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद पूरे देश में मजदूरों के संगठित होने की प्रक्रिया का आरंभ हो गयी, मजदूर श्रमिक संघों के रूप में संगठित भी होने लगे और अपने अधिकारों के लिए हड़तालों का सहारा भी लेने लगे। यह मार्क्सवादी विचारधारा के प्रभावस्वरूप देश में प्रसारित एक नई चेतना का परिचायक है।

कहना न होगा की रूसी क्रांति ने देश के मजदूरों के साथ-साथ अनेक बुद्धिजीवियों को भी प्रभावित किया। इसी रूसी क्रांति ने प्रेमचंद और उनकी तरह के अन्य रचनाकारों को आंदोलित किया और साहित्य में किसानों-मजदूरों की वेदना के लिए अवकाश दिखाई देने लगा। प्रेमचंद ने खुद को स्पष्ट तौर पर बोल्शेविक विचारधारा का पक्षधर कहा। रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘प्रेमचंद और उनका युग’ में उद्घाटित किया है कि “इन्हीं दिनों उन्होंने ‘ज़माना’ के संपादक को सूचित किया था कि “मैं अब करीब-करीब बोल्शेविस्ट उसूलों का कायल हो गया हूँ।” गाँधीवादी विचारधारा और कांग्रेस की राजनीतिक दृष्टि के प्रति जैसे-जैसे प्रेमचंद में उदासीनता पैदा हो रही थी, वैसे-वैसे ही उन्हें एक अधिक क्रांतिकारी विचारधारा की जरूरत भी महसूस हो रही थी। इस अपेक्षा को पूरा करने की क्षमता अगर किसी विचारधारा में थी तो वह थी साम्यवादी विचारधारा। इसी कारण उन्होंने 1923 में दयानारायण निगम को लिखा था, ‘‘मैं तो उस आनेवाली पार्टी का मेम्बर हूँ जो कोतहुन्नास (छोटे लोगों) की सियासी तालीम को अपना दस्तूर-उल-अमल बनाएl” प्रेमचंद का गाँधीवादी विचारधारा से आगे बढ़कर मार्क्सवादी विचारधारा की ओर जाना स्वाभाविक ही था क्योंकि गाँधीवादी विचारधारा के कुछ पहलुओं से वे अंतिम दौर में सहमत नहीं हो पा रहे थे। ब्रजेशजी ने यही ध्यान में रखकर लिखा है कि “इस युग के जद्दोजहद से वह (प्रेमचंद) स्वयं प्रभावित होते हैं और युगीन सोच को प्रभावित भी करते हैं। उनके विश्वास से लेकर रचना कर्म तक में गांधीवाद और साम्यवाद का द्वन्द्वात्मक रिश्ता विद्यमान है। वह मूलतया गाँधीवादी हैं किन्तु जिन मुद्दों पर गांधीवाद से सहमति-असहमति कायम करते हुए आगे बढ़ जाते हैं, वह साम्यवाद की ही जमीन होती है।” प्रेमचंद ने इस वैज्ञानिक विचारधारा का खुले मन से स्वागत किया और इसके विभिन्न पहलुओं को समझ-बूझ कर अपने साहित्य में शामिल किया। 1935 में डॉ. मुल्कराज आनंद और सज्जाद जहीर के इंग्लैंड में प्रगतिशील लेखकों का एक संगठन बनाने के लिए बैठक की और अगले ही वर्ष भारत में इसकी विधिवत शाखा स्थापित की गई। इसका पहला अधिवेशन प्रेमचंद की अध्यक्षता में लखनऊ में हुआ और यह अधिवेशन एक तरह से भारत में ‘प्रगतिशील साहित्य’ के व्यापक प्रसार की आधारशिला साबित हुआ। प्रगतिशील साहित्यकार यथार्थ के धरातल पर रहकर साहित्य सृजन करते हैं। इस साहित्य में समाज के यथार्थ रूप का अंकन किया जाता है। इसी अधिवेशन में प्रेमचंद ने अपने भाषण के द्वारा अपने साहित्यिक जीवन के अनुभवों का निचोड़ देकर साहित्यिक परिदृश्य को एक नया आयाम दिया। इसी विचारधारा को आत्मसात कर उन्होंने अपने अंतिम दौर की लगभग सभी रचनाओं में सामाजिक यथार्थ को बड़े सजीव रूप से दिखाया है। टी.टिकेकर से मुलाकात में उन्होंने कम्यूनिस्ट विचारों से प्रभावित होने की बात लिखी ही थी, इसके साथ ही उन्होंने अपने परवर्ती जीवन में यह भी स्पष्ट कर दिया था कि मैं गाँधीवादी नहीं हूँ, केवल गाँधीजी के change of heart में विश्वास करता हूँ।...इसलिए जमींदार मिटेगी यह मानता हूँ। जमीन किसान की होगी...। इस कथन से उनके बारे में यह प्रमाणित होता है कि उन्होंने खुले मन से सभी विचारों का स्वागत तो किया लेकिन उन विचारों में से भी उन्होंने उतना ही आत्मसात किया जो उनके तर्क की कसौटी पर खरा उतरा और जो उन्हें व्यापक जनसमुदाय के हित में लगा। किसी भी विचारधारा का कट्टर समर्थक होकर उन्होंने कभी कोई रचना नहीं की। उनके लिए साहित्य हमेशा राजनीति के आगे चलने वाली मशाल थी। हमेशा उन्होंने यही प्रयास किया कि जहाँ तक किसी विचारधारा से समाज का भला होता हो, वहीं तक उन विचारों का साथ लिया जाए।

मार्क्सवाद से प्रेमचंद का विस्तृत संपर्क कुछ समय बाद हुआ इसलिए उनके प्रारंभिक साहित्य में इस विचारधारा का उतना प्रभाव नहीं दिखाई देता। जीवन के अंतिम पड़ाव में ही उन पर इस विचारधारा का ज्यादा प्रभाव पड़ा इसलिए परवर्ती साहित्य में इस विचारधारा के अनुरूप साहित्यिक प्रवृत्तियों का विकास उनमें अधिक दिखाई देता है। प्रगतिशील लेखक संघ और उसकी साहित्यिक गतिविधियों और रुचियों की ओर उनका झुकाव इसे प्रमाणित करता है। इस स्पष्ट झुकाव से पहले भी प्रेमचंद इतनी राजनीतिक सामाजिक सचेतनता जरूर रखते थे कि सामाजिक रूढ़ियों और शोषण की प्रक्रिया का पर्दाफाश कर सकें। यह प्रवृत्ति उनके परवर्ती साहित्य में और निखर कर सामने आती है। समाज को जागृत करने की और प्रगतिशील चेतना से उसे संपन्न करने की लालसा उनके साहित्य में बढ़ती ही जाती है। स्पष्ट है कि प्रेमचंद का साहित्य उन व्यापक राजनीतिक वैचारिक मूल्यों की पहचान कराता है जो समाज को एक सार्थक दिशा दे सकते हैं। अमृत राय ने सही कहा है कि “साहित्य राजनीति का पैम्फलेट नहीं, लोगों की जिंदगी का आईना है जिसमें और बहुत-सी चीजों की तरह राजनीति का भी अक्स पड़ रहा है क्योंकि जीवन को संचालित करने वाले सभी सूत्र सम्प्रति राजनीति ने अपने हाथों में ले रखे हैं, जैसा कभी-कभी किसी विशेष युग में होता है।” मार्क्सवादी विचारधार भारत में बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक तक दस्तक दे चुकी थी और तीसरे दशक तक देश के कई चिन्तनशील व्यक्तित्व इसे अपना चुके थे। तीसरे दशक में आकर ही प्रेमचंद भी गाँधीवादी विचारधारा से आगे बढ़कर वामपंथी विचारधारा की ओर अग्रसर होते हुए दिखाई देते हैं। तद्युगीन राजनीतिक पृष्ठभूमि के धरातल पर ही वे ‘कर्मभूमि’ उपन्यास की रचना कर रहे थे। इस उपन्यास में प्रेमचंद ने गाँधीवादी विचारधार और प्रगतिशील समाजवादी विचारधारा का मिला-जुला रूप प्रस्तुत किया हैं। इस उपन्यास में तद्युगीन गाँधीवादी आन्दोलन का विराट रूप हमें देखने को मिलता है, परन्तु साथ ही इस उपन्यास में उन्होंने जन-क्रांति को व्यापक शकल देकर भी प्रस्तुत किया है। इस उपन्यास में उन्होंने मजदूरों द्वारा विशाल क्रांति का शंखनाद करवाया है और गाँधीवादी विचारधारा की समझौते वाली प्रवृति को त्याग देने की भी चेष्टा की है। मैनेजर पाण्डेय लिखते हैं कि “1930 के आस-पास (प्रेमचंद) गाँधी, उनके वाद और आन्दोलन की पद्धति से निराश होते दिखाई देते हैं। वे स्वाधीनता आन्दोलन के सन्दर्भ में गाँधी की समझौतावादी प्रवृति की आलोचना करते हैं, वह चाहे सरकार से समझौतों में प्रकट होती हो या जमींदारों और पूँजीपतियों से। ‘कर्मभूमि’ में व्यापक जन आन्दोलन, उसके खूंखार दमन और जनता के प्रतिरोध के बावजूद अमरकांत जो समझौता करता है, उसकी आलोचना करते हुए सलीम कहता है, ‘नतीजा यह होगा कि यहीं पड़े रहेंगे और रिआया तबाह होगी। तुम्हें तो कोई खास तकलीफ नहीं है, लेकिन गरीबों पर क्या बीत रही होगी, यह सोचो।’ अगर अमरकांत का समझौता गाँधी-इरविन पैक्ट की ओर संकेत करता है तो सलीम की आलोचना में प्रेमचंद की आवाज सुनाई देती है। सलीम ने अमरकांत के समझौते की जैसी आलोचना की है, वैसी ही गाँधी-इरविन पैक्ट की आलोचना भगत सिंह ने 2 फरवरी, 1931 के अपने क्रांतिकारी कार्यक्रम के मसौदे में की थी।” इस उपन्यास में प्रेमचंद ने आने वाली क्रांति की रूपरेखा खींचकर एक नए युग और नई विचारधारा के आगमन की सूचना दी है। अमरकांत अपने भाषण से यह संदेश देता है कि अब देश का उद्धार केवल क्रांति के द्वारा ही हो सकता है- “वह अब क्रांति ही में देश का उद्धार समझता था- ऐसी क्रांति में, जो सर्वव्यापक हो, जो जीवन के मिथ्या आदर्शों का, झूठे सिद्धांतों का, परिपाटियों का अंत कर दे, जो एक नए युग की प्रवर्तक हो, एक नई सृष्टि खड़ी कर दे, जो मिट्टी के असंख्य देवताओं को तोड़-फोड़कर चकनाचूर कर दे, जो मनुष्य को धन और धर्म के आधार पर टिकने वाले राज्य के पंजे से मुक्त कर दे! उसके एक-एक अणु से ‘क्रांति! क्रांति!’ की सदा निकलती रहती थी ...।”

यह उपन्यास प्रेमचंद द्वारा अर्जित विचारों का निचोड़ है और निःसंदेह इसे हिंदी साहित्य के क्षेत्र में यथार्थवादी परंपरा के प्रवर्तन के रूप में देखा जा सकता है। इस उपन्यास में जहाँ उन्होंने मार्क्सवादी साहित्य-शैली के अनुसार यथार्थ के धरातल पर रचना की है वहीं उन्होंने मातादीन और मालती का हृदय परिवर्तन कर गाँधीवादी विचारधारा को भी समाविष्ट किया है। बच्चन सिंह कहते हैं कि “‘गोदान’ उनका अकेला उपन्यास है जिसे प्रगतिवादी आन्दोलन की भूमिका कहा जा सकता है, यद्यपि इसमें भी सुधार और आदर्श की कमी नहीं है।” प्रेमचंद को यह साफ दिखाई दे रहा था कि कांग्रेस के भीतर एक ऐसे समझौतावादी स्वार्थी वर्ग का उद्भव हो रहा था जिसमें कई नेता ऐसे थे जो केवल अपने मान-सम्मान और स्वार्थ के लिए गाँधीवादी विचारधारा या मार्क्सवादी विचारधारा का छद्म आवरण ओढ़े हुए थे। राजनीतिक विचारधारा के परिवर्तन के साथ-साथ स्वयं को ढाल लेने में वे सिद्धहस्त हो चुके थे। गोदान का एक प्रमुख पात्र ‘मेहता’ ‘राय साहब’ के इसी ढकोसले को उद्घाटित करते हुए कहता है कि “मुझे उन लोगों से ज़रा भी हमदर्दी नहीं है जो बातें तो करते हैं कम्युनिस्टों की-सी मगर जीवन है रईसों का-सा, उतना ही विलासमय, उतना ही स्वार्थ से भरा हुआ।” आगे वह और भी कहता है कि “मैं तो केवल इतना जानता हूँ, हम या तो साम्यवादी हैं या नहीं हैं। हैं तो उसका व्यवहार करें, नहीं हैं, तो बकना छोड़ दें। मैं नकली जिन्दगी का विरोधी हूँ। अगर मांस खाना अच्छा समझते हो तो खुलकर खाओ। बुरा समझते हो, तो मत खाओ, यह तो मेरी समझ में आता है; लेकिन अच्छा समझना और छिपकर खाना, यह मेरी समझ में नहीं आता। मैं तो इसे कायरता भी कहता हूँ और धूर्त्तता भी, जो वास्तव में एक है।” प्रेमचंद ने इस उपन्यास के दौरान सामज को स्पष्टतः वर्गों में विभाजित करके देखा है। जहाँ शोषित वर्ग में किसान-मजदूर एवं दलितों को दिखाया गया है, वहीं शोषक वर्ग में जमींदार, बैंक के एजेंटों, साहूकार-महाजन, पुलिस और धार्मिक ठेकेदारों का चित्रण किया गया है। प्रेमचंद ने यहाँ एक किसान को शोषण के दलदल में डूबकर एक मजदूर बनने की त्रासदी को दिखाया है। होरी, जो किसान वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रहा है, उसके द्वारा प्रेमचंद ने तत्कालीन किसान की स्थिति को दिखाया है, यह दिखाया है कि किस तरह वह शोषक वर्ग के अत्याचारों को चुप-चाप सहने के लिए विवश है। उपन्यास के अंत में होरी अपनी ज़मीन से हाथ धो कर एक मजदूर बनने के लिए मजबूर हो जाता है। परन्तु मजदूर बनके भी वह इन वर्गों से शोषित होता रहता है। वहीं गोबर के द्वारा प्रेमचंद ने किसान-मजदूर के संभावित प्रतिरोधी रूप को भी दर्शाया है। गोबर के पास विधिवत प्राप्त राजनीतिक चेतना नहीं है लेकिन अनुभव ने उसे वह साधारण किसान नहीं रहने दिया जो कि उसका पिता था। प्रेमचंद की इस परिवर्तनकामी चेतना को हम आगे और प्रखर रूप में देख सकते थे। परन्तु उनकी अकस्मात मृत्यु के कारण हमें उनकी प्रगतिशील विचारधारा का और विस्तृत रूप देखने को नहीं मिल पाता।

अपने अंतिम उपन्यास ‘मंगलसूत्र’ (अपूर्ण) में उन्होंने इस विचारधार और किसानों की क्रांति के प्रति अपने रूझान को और भी साफ तौर पर रखा है। जहाँ ‘गोदान’ में गोबर के भीतर अन्याय के प्रतिकार की चिंगारी को दिखाकर प्रेमचंद रुक गए थे, वही मंगलसूत्र में उन्होंने किसानों की क्रांति को भीषण ज्वाला के रूप में प्रस्तुत किया है। इंद्रनाथ मदान लिखते हैं कि “अंतिम उपन्यास में रामसेवक किसानों को संगठित करने के लिए एक सूत्र में बाँधने में सफल हो जाता है। वह कहता है कि उन्हें शोषण के विरुद्ध खड़ा होना चाहिए अन्यथा वे हर एक आदमी द्वारा कुचले जायेंगे।” ऐसा लगता है कि इस उपन्यास में प्रेमचंद ने किसानों को व्यापक स्तर पर क्रांति करते हुए दिखाने की कोशिश की होती, लेकिन इसके बारे में स्पष्टतः कुछ नहीं कहा जा सकता। उपन्यास में चित्रित कुछ घटनाओं के द्वारा यह जरूर ज्ञात होता है कि प्रेमचंद वर्ग-भेद को समाप्त करने के लिए वर्ग-संघर्ष की चेतावनी देने को लेकर जागरूक हो चुके थे। अमृतराय लिखते हैं कि “‘गोदान’ में जहाँ वर्ग-साहचर्य के सिद्धांत से मोह-भंग हो चुका है, चाहे जिस कारण भी, वहाँ ‘मंगलसूत्र’ में लेखक और आगे बढ़कर, वर्ग-साहचर्य को पीछे छोड़कर, वर्ग-संघर्ष तक का संकेत देने लगता है, जब वह कहता है-‘दरिंदों से लड़ने के लिए हमको हथियार बांधना पड़ेगा।’ इसी से आप समझ सकते हैं कि उनके लेखन का अगला वैचारिक मोड़ क्या होता।”

मार्क्सवादी विचारधारा का आगमन पूर्ण रूप से तीसरे दशक में ही हुआ जिस कारणवश प्रेमचंद को इस विचारधारा के सान्निध्य का अधिक समय नहीं मिला। उनके जीवन के अंतिम कुछ वर्षों में ही इस प्रगतिशील विचारधारा का प्रसार भारत में हुआ। प्रेमचंद के संपूर्ण साहित्य को देखने पर यह महसूस होता है कि इस प्रगतिशील विचारधारा के प्रभाव का चित्रण उतनी मात्रा में नहीं है जितना की पहले के वैचारिक सिद्धान्तों का। प्रगतिशील विचारधारा पुरानी रूढ़ियों को तोड़ने की क्षमता रखता है और समाज में नई दिशाओं और स्वस्थ परम्पराओं को विकसित करने की ताक़त रखता है। प्रेमचंद ने अपने साहित्य के द्वारा राजनीतिक विचारों और इस प्रगतिशील चेतना को सजीव रूप में प्रस्तुत करके लोगों को जागरूक करने का कार्य किया और किसान-मजदूरों को क्रांति की चेतना के लिए रास्ता दिखाया। प्रेमचंद ने इस प्रगतिशील चेतना द्वारा मुख्य रूप से किसान-मजदूरों को सजग करने और उनमें शोषण के प्रति अस्वीकार की भावना को जगाने का काम किया। उनके वैचारिक विकास की दिशा को देखकर मैं यहाँ तक कह सकती हूँ कि हो न हो ‘मंगलसूत्र’ में उन्होंने इस विचारधारा का जीवंत रूप दिखाने की पूरी कोशिश की होती। यह अंदाजा इस उपन्यास के अधूरे भागों को पढ़कर सहज ही लगाया जा सकता है। अकस्मात मृत्यु के कारण हम उनके इस अवदान से वंचित रह गए। अमृतराय लिखते हैं कि “प्रगतिशील साहित्य का आन्दोलन हिंदुस्तान के पिछले सभी साहित्यिक आन्दोलन से भिन्न था; वह पुरानी साहित्यिक परंपरा की अगली कड़ी ही न थी बल्कि एक नए स्तर पर उस परंपरा का नया विकास था। इसका कारण यह था कि आन्दोलन एक नई वैज्ञानिक विचारधारा से प्रभावित था। यह विचारधारा मार्क्सवाद की थी। प्रगतिशील साहित्य की शक्ति का यह एक बड़ा कारण था। प्रेमचंद के विचारों पर जहाँ-तहाँ इस वैज्ञानिक विचारधार की छाप दिखाई देता है।” प्रेमचंद ने अपने साहित्य से इस वैज्ञानिक विचारधारा के द्वार आगामी रचनाकारों के लिए खोल दिए।