प्रेमचंद की उपस्थिति / निर्मल वर्मा

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प्रेमचंद की मृत्यु को चार दशक से अधिक बीत चुके हैं। हर दशक के कथाकारों ने उन्हें अपनी-अपनी कसौटी पर परखा है, स्वीकारा है या अस्वीकारा है। ऐसे समकालीन लेखक भी हैं, जिन्हें शायद प्रेमचंद का नाम ही निरर्थक जान पड़े - क्योंकि उनकी सृजन-यात्रा में वह उन्हें किसी भी रूप में प्रासंगिक नहीं जान पड़ते; किंतु ऐसे कथाकारों की रचनाओं में भी हमें प्रेमचंद की अदृश्य छाया मिल जाती है। एक क्लासिक लेखक की यह अद्भुत विशेषता है कि हम उसके आविष्कारों को बिना उसके प्रति आभारी महसूस हुए भी अपना लेते हैं - शायद सबसे गहरा प्रभाव वह होता है, जब हम यह तक भूल जाएँ कि इस प्रभाव को हमने कहाँ से, किस स्रोत से प्राप्त किया है। हम अपनी स्वतंत्रता में एक ऐसी परंपरा का अनुकरण करते हैं, जो हर जगह है और किसी जगह दिखाई नहीं देती। क्या आज भी प्रेमचंद हमारे बीच अदृश्य-रूप से उपस्थित हैं?

मैं आपका ध्यान इस प्रश्न की ओर आकर्षित करना चाहूँगा और यह भी कि एक लेखक की उपस्थिति से हमारा क्या अभिप्राय है? यहाँ सबसे पहले मैं उस भ्रांति की ओर संकेत करना चाहूँगा, जिसे एक अर्से से हमारे आलोचकों ने पोषित किया है - वह है किसी लेखक की उपस्थिति या प्रभाव को उसके विचारों या विश्वासों में खोजना, जबकि सत्य यह है कि साहित्य में किसी लेखक के विश्वास उसकी रचनाओं से अलग कोई हैसियत नहीं रखते। मैंने जानबूझ कर 'साहित्य' में कहा है, क्योंकि उसके बाहर उसके विश्वासों का अवश्य महत्व होता है, लेकिन बाहर भी अलग से उनके बारे में हमारी जिज्ञासा नहीं जाग पाती, यदि पहले से ही हम उसकी रचनाओं में एक विशिष्ट यथार्थ से साक्षात्कार नहीं कर पाते।

शायद मैं अपनी बात को उलझा कर कह रहा हूँ, वास्तव में बात बहुत सरल है - यदि आज हम अपने बीच प्रेमचंद की उपस्थिति महसूस करते हैं - तो उनके प्रगतिशील विचारों या यथार्थवादी आदर्शों (या आदर्शवादी यथार्थ - आप जो भी कहना चाहें) के कारण नहीं -बल्कि उनकी रचनाओं में निहित मनुष्य, एक भारतीय मनुष्य की मानसिक बनावट के कारण, जिसे पगने, फूलने में सैकड़ों वर्ष लगे थे - एक स्थिर व्यक्तित्व का चेहरा, जिसका दर्शन हमें पहली बार उनकी कहानियों-उपन्यासों में हुआ था। एक चेहरे का सत्य नहीं, बल्कि ऐसे सत्य का चेहरा, जिसे उन्होंने शहरी, ग्रामीण, कस्बाती चेहरों के बीच गढ़ा था - औपनिवेशिक स्थिति में रहनेवाले एक हिंदुस्तानी की आर्कीटाइप छवि जो उनसे हमारे साहित्य में नहीं थी।

किंतु इससे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रेमचंद के बाद के कहानीकारों के लिए भी वह छवि अपनी उड़ानों के लिए एक स्थायी आधार-बिंदु, एक जमीन, एक तरह की 'बेस-कैंप' बन गई थी। इस कैंप से ऊपर जाते हुए अनेक लेखक-पर्वतारोही अपने भीतर प्रेमचंदीय संसार की तस्वीरें अपने साथ ले गए थे; यात्रा के दौरान इन तस्वीरों में अनेक मोड़-सलवटें, विकार और विकृतियाँ दिखाई दी थीं - बड़े घर की बेटियाँ अकेली पड़ती गईं, पंच-परमेश्वर की जगह नकली 'जूडास' आ विराजे, बेकारी और बेरोजगारी के दिनों में बड़े भाई साहब का उत्साह इतना मंद पड़ गया कि अपने छोटे भाई के साथ गुल्ली-डंडा खेल सकें; प्रेमचंद का विश्वास कि एक भारतीय मनुष्य - वह किसान हो या एक निम्न मध्यवर्गीय कस्बाई अर्धशिक्षित क्लर्क या कर्मचारी - अपनी पुरानी खोई हुई खुशी को खोज सकता है - वह बाद के वर्षों में धीरे-धीरे एक मरीचिका-सा बनता गया। यह एक भारतीय लिबरल बुद्धिजीवी की मरीचिका थी, जिसकी झलक पहली बार बीसवीं शती के शुरू में दिखाई दी थी। हमें हैरानी होगी कि प्रेमचंद ही नहीं, भारत के अनेक शहरी बुद्धिजीवी - जिनमें स्वयं गांधी जी शामिल थे - (उनके 'हिंद स्वराज' के बावजूद) एक समय में भारतीय समाज की मुक्ति बाहर के दुश्मनों से छुटकारा पाने में खोजते थे - वह चाहे गांधी जी की आँखों में विदेशी सत्ता हो, या प्रेमचंद की आँखों में समाज की कुरीतियाँ और अंधविश्वास हों; आशा यह थी, कि एक बार इनसे छुटकारा पाने के बाद हम दैन्य और दरिद्रता के आँसू भारतीय चेहरे से पोंछ सकेंगे। यह कुछ वैसा ही भ्रम था, जैसे कोई बीमार आदमी यह सोचे कि उसके रोग का कारण उसके मैले-कुचैले कपड़ों से जुड़ा है - एक बार हिम्मत जुटा कर वह अपने चीथड़ों को उतार फेंके और तब अचानक पहली बार देखे, कि समूची देह कोढ़ के जख्मों से अटी है; रोग कपड़ों में नहीं था, उलटे उन्होंने ही रोग को अपने भीतर छिपा रखा था। वे सिर्फ बाहर से ही 'दुश्मन' प्रतीत होते थे, भीतर का दुश्मन कहीं और बैठा था।

भीतर का दुश्मन? आपमें से कुछ लोग सोचेंगे कि मैं आपको किसी टेढ़े-मेढ़े रास्ते से अस्तित्ववादी दर्शन की ओर ले जा रहा हूँ; कुछ दूसरे प्रबुद्ध, आधुनिक लोगों को शायद लगेगा कि मैं किसी भीतरी 'पाप' की ओर संकेत कर रहा हूँ, जिसका उल्लेख अक्सर हमें पश्चिम के अस्तित्ववादी कैथलिक लेखकों में मिलता है, किंतु यदि आपको मेरी बात से कर्म की जिम्मेदारी और पाप की जवाबदेही का हल्का-सा अहसास हो जाता है, तो मेरे लिए यह काफी है। आपको शायद यह भी महसूस होगा, कि इन मुहावरों में कुछ शब्द आपके जाने-पहचाने हैं, कर्म, पाप, आदि; हम चाहे इनका दार्शनिक अर्थ ठीक-ठीक न समझें, तो भी एक भारतीय किसान से ले कर एक करोड़पति भी इन शब्दों में कहीं-न-कहीं अपने संस्कारों की झलक पाता है; लेकिन जिम्मेदारी? जवाबदेही? इन शब्दों को पढ़ कर हम तुरंत भड़क भी न जाएँ, तो भी कुछ परेशानी में पड़ जाते हैं; क्या इनसे 'विदेशी दर्शनों' की बू नहीं आती? यदि अपने कर्मों के कारण कोई गरीब भूखा रहता है, तो उसके प्रति हमारी जवाबदेही का क्या मतलब? कहने की जरूरत नहीं, मैं इन विश्वासों को कुछ ज्यादा ही सरलीकृत ढंग से - एक पैरोडी-की तरह प्रस्तुत कर रहा हूँ; लेकिन इससे शायद कोई इंकार नहीं करेगा, कि जाने-अनजाने हम भारतीय अक्सर इन तर्कों की आड़ में अपने कर्मों की जिम्मेदारी से हाथ धो लेते हैं, लेकिन यदि हमारी जीवन प्रणाली में 'जिम्मेदारी' का स्थान नहीं, या बहुत नगण्य है, तो फिर स्वाभाविक प्रश्न उठता है - उसमें नैतिकता का स्थान कहाँ है? दूसरे शब्दों में-क्या बिना 'दायित्व बोध' के नैतिकता की चर्चा करना अपने में एक गहरा विरोधाभास नहीं है, जिसके रहते भारतीय-मनीषा में शताब्दियों से ऊपर से नीचे तक एक काली दरार आ पड़ी है। क्या प्रेमचंद ने भारतीय आत्मा के बीच खिंची इसी खाई, खाई के अँधेरे और, इस अँधेरे में पनपनेवाले अंतर्विरोधों को देखा था? अब आप पाएँगे, कि यह प्रश्न एक तरफ 'अस्तित्व' का प्रश्न है, दूसरी तरफ संस्कृति का। यह सही है कि हम अपनी सांस्कृतिक अस्मिता के प्रश्न को केवल अपने समय के तकाजों के संदर्भ में ही परिभाषित कर सकते हैं - लेकिन खुद समय के तकाजों के झूठ-सच को समझने के लिए हमारे पास केवल अपने अस्तित्व के अलावा कोई दूसरी कसौटी नहीं है।

मुझे इस प्रश्न में ज्यादा दिलचस्पी नहीं है कि प्रेमचंद कितने 'आधुनिक' थे, किंतु यदि आधुनिकता का मतलब अपने समय में अपने को परिभाषित करना है, तो अनिवार्यत: हमें इतिहास द्वारा खींची उस दरार या खाई का सामना करना पड़ेगा जो भारतीय चरित्र और मनीषा में पिछले दो सौ वर्षों से गहरी होती गई है। अंतत: क्या आधुनिक संदर्भ में प्रेमचंद की प्रासंगिकता-अप्रासंगिकता की समस्या इसी प्रश्न के साथ नहीं जुड़ी है? प्रेमचंद मनुष्य की बुनियादी अच्छाई में विश्वास करते थे - एक सुशिक्षित भारतीय लिबरल का आशावादी दृष्टिकोण उन्होंने अपने जीवन में सहज रूप से अपनाया था। लेकिन यह दृष्टिकोण एक उच्चवर्गीय यूरोपीय शिक्षित हिंदुस्तानी से काफी अलग था - भारतीय किसान के सहज जीवन की अंतरंग समझ और सहानुभूति के बल पर 'अच्छाई' की एक परिभाषा बनी थी, जो सीधे-सीधे एक भारतीय मनुष्य के 'धर्म' से जुड़ी थी। यहाँ मैं धर्म शब्द का प्रयोग ठेठ भारतीय संस्कारों के संदर्भ में कर रहा हूँ, आध्यात्मिक आस्था के अर्थ में नहीं बल्कि दायित्वबोध के अर्थ में - जहाँ हर व्यक्ति अपने सामाजिक, पारिवारिक रिश्तों के परिवेश में अपनी जगह पहचानता है और उसमें रह कर ही अपनी सुविधा, सुरक्षा और अस्मिता महसूस करता है, जिसे हम शुद्ध रूप में -आत्म-स्वाभिमान (sense of honour) मान सकते हैं।

एक जमींदार का ऑनर किसानों के प्रति उसके दायित्व में उतना ही निहित है जितना एक ऋणी किसान का ऑनर इसमें है, कि वह भूखे रह कर भी अपनी सात पीढ़ियों तक महाजन का ऋण चुकाने में जुटा रहे। पंच की गद्दी के प्रति वफादार रह कर जिस तरह एक साधारण मनुष्य परमेश्वर बन जाता है, उसी तरह जीवन के हर क्षेत्र में अपनी जगह-चाहे वह 'जगह' वर्ण-व्यवस्था में ही निहित क्यों न हो, के प्रति निष्ठा रखने में ही मनुष्य का देवत्व छिपा रहता है। मनुष्य की जवाबदेही यहाँ भी है - किंतु वह व्यक्ति के स्वतंत्र संकल्प से उत्पन्न नहीं हुई - वह एक 'दी हुई' पूर्व-निर्धारित, जिम्मेदारी है, समाज के प्रति, जाति के प्रति, परिवार के प्रति - इसलिए मनुष्य की पीड़ा उन विवशताओं से उत्पन्न होती है, जो उसे अपनी बुनियादी 'अच्छाई' से स्खलित करती है - उसे अपनी परंपरागत जगह से उन्मूलित करती है। प्रेमचंद अपने अधिकांश लेखन में कभी इस अच्छाई पर शंका नहीं प्रकट करते, क्योंकि उस पर शंका करने का मतलब होगा, एक हिंदुस्तानी के व्यावहारिक धर्म और दायित्वों पर शंका प्रकट करना। वह यदि अपनी आरंभिक कहानियों और उपन्यासों में समाज सुधार की बात करते हैं, तो इसलिए नहीं कि उन सुधारों के कारण मनुष्य सामंतवादी रिश्तों के भीतर एक स्वतंत्र, गरिमापूर्ण सत्ता उपलब्ध करेगा - बल्कि इसलिए कि वह इन रिश्तों के भीतर पुन: अपने धर्म और दायित्व को निर्विघ्न संपन्न करने की सुविधा पा सकेगा। उन्हें मनुष्य के सामाजिक रिश्तों में अदम्य विश्वास था -व्यक्ति उन्हीं के भीतर अपना धर्म निभा सकता है; किंतु वह 'धर्म' स्वयं मनुष्य की निजी, वैयक्तिक आकांक्षाओं, इच्छाओं, अभिलाषाओं के रास्ते में बाधा बन सकता है -इसकी पीड़ा और विवशता को वह अपनी आरंभिक रचनाओं में अधिक नहीं देख पाते थे।

इसलिए उनमें एक सरलीकृत किस्म के सुधार का आदर्श छिपा था, जिसका रिश्ता समूचे भारतीय-समाज की बीहड़ आत्म-उन्मूलन की व्यथा से नहीं बैठ पाता था। यदि ये आरंभिक उपन्यास कमजोर हैं, तो इसलिए नहीं कि उनके आदर्श में कोई खोट है, बल्कि असली कमजोरी इसमें है कि उन लिबरल, सुधारवादी आदर्शों का भारतीय यथार्थ की कटु विभीषिका से कोई लेना-देना नहीं था। यह विभीषिका क्या थी? यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि पिछड़े डेढ़ सौ वर्षों के अंग्रेजी राज ने युग-युग से चली आती किसानों की आत्म-निर्धारित मर्यादाओं, रिश्तों, खुद सामंतवादी समाज के भीतर इन रिश्तों को जोड़नेवाली धार्मिक कड़ियों को छिन्न-भिन्न कर डाला था। यदि एक व्यवस्था किसान और उसकी जमीन के बीच शाश्वत, पवित्र रिश्ते को भंग कर देती है (जैसी कि अंग्रेजों की भूमि संबंधी व्यवस्था - जमींदारी व्यवस्था ने किया था) तो किसान के तमाम दूसरे रिश्ते भी एक सिरे से दूसरे सिरे तक विकृत हो जाते हैं। प्रेमचंद इस विकृति को देख पाते हैं - किंतु स्वयं यह 'सामाजिक विकृति' एक भारतीय किसान की आत्मा के भीतर अँधेरी दरार खींच सकती है... इस ओर यदि उनका ध्यान और अंतर्दृष्टि जा पाती, तो वह भारतीय किसान का चित्रण उतनी ही संपूर्णता और संवेदना के साथ कर पाते, जैसा उन्नीसवीं शती में टॉलस्टाय ने रूसी 'मुजिश्क' (गरीब किसान) की अभिशप्त आत्मा को अपने लेखन में दर्शाया था।

टॉलस्टाय के बारे में कहा जाता है कि पहली बार उनके उपन्यासों में रूसी किसान के दर्शन होते हैं, प्रेमचंद के उपन्यास में भी पहली बार किसान के दर्शन होते हैं - किंतु वह 'औपनिवेशिक किसान' था, उसके नीचे दबे भारतीय किसान का मूल चरित्र संस्कृति, धार्मिक आस्था (जो 'व्यावहारिक धर्म' से अलग है), मनुष्य, प्रकृति और ईश्वर के बारे में उसके परंपरागत विश्वास - उनके सृजन की रोशनी में ऊपर नहीं आते। प्रेमचंद ने भारतीय किसानों की 'ऐतिहासिक विकृति' को देखा था - किंतु उस चीज का मूल सांस्कृतिक टेक्सचर अपने गैर-ऐतिहासिक रूप में क्या था - जो विकृत हुआ था, उसकी अंतर्दृष्टि प्रेमचंद में नहीं मिलती। प्रेमचंद अक्सर उस पक्ष को अनदेखा कर देते हैं, जिसमें भारतीय किसान की सांस्कृतिक विरासत छिपी थी -यह विरासत उसके व्यावहारिक, सामाजिक 'धर्म' से कहीं ज्यादा गहरी और महत्वपूर्ण थी - एक शब्द में कहें - तो उसकी आध्यात्मिक विरासत। अंग्रेजी राज ने इस विरासत को जिस तरह आहत किया था, उसकी पीड़ा का आयाम प्रेमचंद के उपन्यासों में नहीं दिखाई देता - इसलिए उनके लेखन में उन्नीसवीं शती के रूसी उपन्यासकारों का 'आध्यात्मिक अंतर्द्वंद्व' नहीं मिलता, जो सामाजिक यथार्थ से उत्पन्न हो कर भी महज 'सामाजिकता' में नहीं चुक जाता। इस दृष्टि से प्रेमचंद सच्चे और बुरे अर्थों में 'तीसरी दुनिया' के लेखक थे, यह उनकी 'ऐतिहासिक उपलब्धि' और कलात्मक सीमा थी, सीमा इसलिए, क्योंकि कला में हर लेखक की दुनिया पहली दुनिया होती है - खासकर एक भारतीय लेखक के लिए - जिसका अतीत, परंपरा और जीवनदृष्टि - बाकी दुनियाओं से मूलत: भिन्न रहे हैं।

इतिहास का यह धर्म है कि वह हर देश को किसी-न-किसी दुनिया के कटघरे में खड़ा कर सके; कलाकार का धर्म है कि वह हर कटघरे से मुक्ति पा कर अपनी प्राथमिक और मौलिक दुनिया में प्रवेश करने का साहस जुटा सके। यह साहस - कहना न होगा - उन्नीसवीं शती के अंतिम चरण में विवेकानंद ने जुटाया था; स्वयं प्रेमचंद के समकालीन गांधी ने बड़ी सतर्कता से औपनिवेशिक दबावों और विकृतियों को भारतीय जीवन की मूलधारा और विकृति के संदर्भ में विश्लेषित करने का प्रयत्न किया था। ये लोग - खासकर गांधी जी - चूँकि पश्चिमी संस्कृति के आलोचक थे, उन मार्क्सवादियों से बहुत अलग थे, जो एक तरफ औपनिवेशिकता की निंदा करते थे, दूसरी तरफ पश्चिम के विज्ञान और औद्योगिक शक्तियों को भारत - जैसे पिछड़े समाज में प्रगति का सूचक भी मानते थे।

मैं आपका ध्यान 1930 के आसपास के जमाने की ओर आकृष्ट करना चाहूँगा, जब उन्नीसवीं शती के बंगाल रेनेसेन्स के बाद पहली बार भारतीय बौद्धिक-संसार में एक बार नए सिरे से सिद्धांतों, आदर्शों और मतों में मुठभेड़ हुई थी - यह वह समय था, जब भारतीय राजनीति में वामपंथी रेडिकलिज्म ने पहली बार -कमजोर ढंग से भले ही लेकिन स्पष्ट रूप से हस्तक्षेप करना शुरू किया था। यह वह समय भी था, जब प्रेमचंद अपनी सृजनात्मक-शक्ति के चरम-शिखर पर थे और उन्होंने अपने अंतिम उपन्यास और कहानियाँ लिखी थीं। प्रेमचंद के अंतिम उपन्यास और कहानियों में जहाँ हम उनके समस्त पुराने गुणों से परिचित होते हैं - वहाँ दूसरी तरफ सहसा एक आश्चर्यजनक बोध भी होता है, यह वही प्रेमचंद हैं, जिन्होंने गबन, निर्मला और रंगभूमि जैसे रोचक, सीधे-सादे, मार्मिक उपन्यास लिखे थे - किंतु उसके परे एक दूसरे प्रेमचंद की भी झलक दिखाई देती है, जिसे हमने पहले कभी नहीं देखा था। हल्की-सी नाराजी, कुछ दबा हुआ-सा आक्रोश, एक बेचैन-सी हताशा, जो पिछली कहानियों की पस्त और पराजित निराशा से अलग थी - और अनुभव के इन खंडित टुकड़ों के पीछे सत्य का एक अखंडित बोध परिलक्षित होता है, जो शायद स्वयं प्रेमचंद की जीवन-यात्रा में एक आश्चर्यजनक खोज थी। वह कौन-सा सत्य था, जो इतने बरसों बाद भी उनकी अंतिम रचनाओं में इतने जीवंत और ज्वलंत रूप से विद्यमान है और जिसकी प्रतिध्वनि को प्रेमचंद की आनेवाली हर नई पीढ़ी ने बहुत विस्मय, ध्यान और चिंता से सुना है? शायद इसका उत्तर हमें जैनेंद्र के एक संस्मरण से मिलता है, जो उन्होंने प्रेमचंद की याद में लिखा था। एक जगह वह अपने और प्रेमचंद के बीच अंतर को स्पष्ट करते हुए कहते हैं, 'मैं अपने को बुद्धि का दुश्मन मानता हूँ, जबकि प्रेमचंद के संबंध में कह सकता हूँ, कि वह धन के दुश्मन थे।' (मैं स्मरण से उन्हें उद्धृत कर रहा हूँ, शब्द शायद भिन्न हों, आशय यही था) दरअसल हम जिस व्यवस्था में रहते हैं, वहाँ देर-सबेर धन से दुश्मनी अनिवार्यत: 'बुद्धि' से दुश्मनी की ओर अग्रसर होती है - क्योंकि 'बुद्धि' स्वयं धन अर्जित करने के लिए एक हथियार और औजार की तरह इस्तेमाल की जाती है। हमारे युग में 'बुद्धि का राक्षसी रोल' धन की आसुरी शक्तियों से अलग नहीं किया जा सकता।

पैसा यदि मनुष्य को उसके मनुष्यत्व से ही वंचित करता है, तो बुद्धि, जिसकी अभिव्यक्ति हमारे युग में अनेक मतवादी विचारधाराओं में हुई, मनुष्य को अपने विवेक और ज्ञान से ही वंचित कर देती है, जिससे वह अपने 'खोखलेपन' को भी नहीं देख पाता। मनुष्य के आत्म उन्मूलन में बुद्धि की आक्रामकता ने उतना ही भयावह रोल अदा किया है, जितना धन की पिपासा ने, जो मनुष्य को मात्र 'वस्तु' में परिणत कर देती है। शायद आप भाँप गए होंगे, मैं आपको किस बिंदु की ओर ले जा रहा हूँ - प्रेमचंद के अंतिम सत्य की ओर - जो 'धन' के साक्षात्कार से जाग्रत हुआ था। यह सत्य भी प्रेमचंद को औपनिवेशिक संदर्भ में ही उपलब्ध हुआ था - खुद अपनी आँखों से उन्होंने भारतीय समाज में उन सब मूल्यों को विषाक्त होते देखा था, जिनके प्रति अपने आरंभिक उपन्यासों में उन्होंने इतना गहरा लगाव और निष्ठा प्रगट की थी - मनुष्य का व्यावहारिक धर्म, ईमानदारी, दायित्व की भावना जो सामंती ढाँचे के भीतर भी मनुष्य के आपसी रिश्तों में मानवीयता सँभाल कर रखते थे। अक्सर औपनिवेशिक व्यवस्था के विरोध में कहा जाता है कि वह 'तीसरी दुनिया' की सामंती शक्तियों से गठजोड़ करती है - लेकिन यह अर्धसत्य है।

वह यदि सामंती सत्ता से गठजोड़ करती है, तो दूसरी तरफ उसी व्यवस्था में पलनेवाले परंपरागत मानवीय रिश्तों को भ्रष्ट भी करती है - और नष्ट करने की यह प्रक्रिया पैसे के रिश्तों से आरंभ होती है - और यह पूरा सत्य है। महाजनी सभ्यता का भयानक और विषैला सत्य, जिसे एक बार देख लेने के बाद प्रेमचंद की दुनिया पहले जैसी नहीं रही; न्याय, धर्म, संस्कार और जातीय दायित्व में उनके भोले विश्वासों पर एक काली, लंबी छाया-सी आ पड़ी; यही छाया मनुष्य की आत्मा के बीचों-बीच खिंची हुई अँधेरी खाई, जिसकी क्रूर किंतु अत्यंत शक्तिशाली अभिव्यक्ति हमें गोदान और उससे भी अधिक कफन-जैसी कहानियों में दिखाई देती है। पहली बार उन्होंने भ्रम के परदे के पीछे हिंदुस्तानी यथार्थ का घिनौना और वीभत्स चेहरा देखा था। एक छलाँग में वह न केवल सामंती आदर्शों को लाँघ गए थे, किंतु - और यह तथ्य महत्वपूर्ण है -उन्होंने महाजनी संस्कृति की भौतिक विडंबनाओं को भी भेद डाला था। यह छलाँग आदर्शवाद से यथार्थवाद की तरफ नहीं थी, जैसा कि हमारे हिंदी विभागों के प्रोफेसर और आलोचक मानते हैं - कोई भी सच्चा यथार्थ आदर्श से शून्य नहीं होता जैसे कोई भी आदर्श बिना यथार्थ की ठोस-अंतर्दृष्टि के अर्थहीन और बौना हो जाता है; प्रेमचंद के आदर्श नहीं बदले, सिर्फ यथार्थ से उनका संबंध बदल गया। वह अब भी मनुष्य की अच्छाई में विश्वास करते थे - लेकिन इस अच्छाई के सामने उन्होंने पहली बार बुराई या पाप से भी साक्षात्कार किया - जिसे हम 'ईविल' कह सकते हैं। पैसा अपने में पाप है। यह बोध सहसा प्रेमचंद को एक ऐसे मोड़ पर ला कर खड़ा कर देता है, जिस मोड़ पर बिलकुल दूसरे रास्ते से गांधी आए थे।

मैंने शुरू में गांधी और विवेकानंद को आधुनिक सभ्यता का आलोचक माना था -उन्होंने भारतीय समाज में औपनिवेशिक दूषण को अपनी संस्कृति और अतीत के संदर्भ में आँका था और उसी को कसौटी मान कर आधुनिक सभ्यता की अमानवीय और भौतिक बीमारियों को परखने की कोशिश की थी, जरा देखिए, प्रेमचंद भी अपने अंतिम उपन्यासों, कहानियों में महाजनी सभ्यता के घोर आलोचक बने थे - लेकिन भारतीय-संस्कृति के आधार पर नहीं - प्रेमचंद ने गांधी की तरह कभी गीता से कर्म की प्रेरणा प्राप्त नहीं की - बल्कि उनका रास्ता बिलकुल दूसरा था, जिसे अगर आप नाम देना चाहें तो कह सकते हैं, एक हिंदुस्तानी की गरीबी और यातना का रास्ता; प्रेमचंद ने औपनिवेशिक तंत्र के भीतर पलती हुई एक हिंदुस्तानी की यातना और मजबूरी में आधुनिक भौतिक संस्कृति का खोखलापन देखा था; सत्य वही था, जिसे टाल्स्टाय और गांधी ने देखा था - लेकिन उसका सामाजिक स्रोत और अनुभव-यात्रा बिलकुल अलग थी। जिस औपनिवेशिक दृष्टि की सीमाओं ने प्रेमचंद की आरंभिक कहानियों और उपन्यासों को सतही और भावुक बनाया था, उसी औपनिवेशिक तंत्र के भीतर हिंदुस्तानी यातना ने उन्हें एक विशिष्ट दृष्टि दी थी।

मुझे नहीं लगता प्रेमचंद से पहले या बाद के किसी कहानीकार में गरीबी, खास हिंदुस्तानी गरीबी का इतना ठंडा, तटस्थ और तीखा वर्णन मिलता है, जो अगली पीढ़ी के प्रगतिशील लेखकों के शहरी, दिखाऊ बनावटी रोमांटिसिज्म से बिलकुल अलग था। एक शहरी प्रगतिशील लेखक स्वयं धन की सुविधाओं से जुड़ा रहता है, उसके मन में गरीबी सिर्फ दया जगाती है, जो क्रांतिकारी रोमांटिसिज्म का दूसरा पहलू है - प्रेमचंद चूँकि स्वयं धन को संदेह की दृष्टि से देखते थे, गरीबी के प्रति उनका रुख दया, नफरत और विरोध जैसी भावुक प्रतिक्रियाओं से बिलकुल अलग था। धन का अभाव अपने में वरदान हो सकता है, अगर वह ऐसी गरीबी को जन्म न दे, जिसमें मनुष्य स्वयं अपने धर्म और दायित्वबोध से ही वंचित हो जाता है। इस स्तर पर प्रेमचंद का महाजनी-व्यवस्था के विरुद्ध आक्रोश एक गहरी नैतिक पीड़ा लिए है - एक ठेठ परंपरावादी हिंदुस्तानी की पीड़ा - जिसकी जरा-सी झलक भी हमें उनके बाद आनेवाले पश्चिमी शिक्षा से लैस प्रगतिवादियों में नहीं दिखाई देती। विडंबना यह है कि यही पश्चिमी संस्कृति में पले लोग जिनका एक औसत हिंदुस्तानी की औपनिवेशिक पीड़ा से दूर का रिश्ता भी नहीं था, अपने को 'प्रेमचंद की परंपरा' का सबसे वफादार अनुयायी मानते हैं। प्रेमचंद के अंतिम उपन्यासों, कहानियों की एक बड़ी उपलब्धि है - अब यह हिंदुस्तानी किसान को सिर्फ औपनिवेशिक चौखटों में ही नहीं देखते - बल्कि वह उसे सीधे-सीधे आधुनिक स्थिति की विडंबनाओं में ले आते हैं - स्थिति अब भी औपनिवेशिक जड़ता और उत्पीड़न में डूबी है - लेकिन प्रेमचंद उसे अब एक ऐसे संकट के संदर्भ में देखते हैं, जो महज 'तीसरी दुनिया' के बाहरी उपादानों द्वारा अनुशासित नहीं है; बल्कि अब वह व्यक्ति और समाज के बीच रिश्तों में घुन की तरह चिपका है - स्वयं मनुष्य की आत्मा में साँप की तरह विराजमान है।

लेकिन इस साँप से डरने की जरूरत नहीं; कफन तक आते-आते अचानक प्रेमचंद के पात्रों को अहसास होता है, जिसे वह सर्वग्रासी साँप समझे बैठे थे, वह महज रस्सी है, सामाजिक मर्यादाओं और कर्तव्यों की कच्ची, जर्जरित, तार-तार होती हुई रस्सी - जिसे एक झटके से तोड़ कर मुक्त हुआ जा सकता है। प्रेमचंद ने जैसे इस कहानी में अंतिम रूप से फैसला ले लिया हो, कि वह उन सब मूल्यों को एक-एक करके 'कलंकित' करेंगे, जिन्हें वह धर्म और पवित्रता का प्रतीक मानते थे। एक सामंतवादी समाज में एक संस्कारग्रस्त धर्मशील व्यक्ति का विद्रोह केवल दूषण (blasphamy) के रूप में हो सकता है - उन समस्त मर्यादाओं को दूषित और हास्यास्पद बना देता है, जिन्हें हम पुरातनकाल से पुनीत और पवित्र मानते आए हैं। इस अर्थ में हिंदी साहित्य में 'कफन' शायद पहली 'ब्लासफेमस' कहानी है। जिस क्षण बाप-बेटे ने घर की औरत के कफन के पैसों से शराब का कुल्हड़ मुँह से लगाया था, उस क्षण पहली बार हिंदी साहित्य में व्यक्ति ने अपनी स्वतंत्रता का स्वाद भी चखा था। यह क्षण वह था, जब प्रेमचंद के समाज में 'व्यक्ति' का जन्म हुआ था। यह जन्म मृत्यु और शमशान की छाया में हुआ था - दो पियक्कड़ हिंदुस्तानियों का मुक्ति समारोह। अपनी अंतिम कहानी में प्रेमचंद पूरा एक दायरा पूरा कर गए थे। जिस समाज के लिए उनके पात्र आज तक अपने को होम करते आए थे, उसके एवज में वह समाज - गोदान के लिए न सही - कफन के एक चीथड़े के लिए चार पैसे नहीं जुटा सकता? जरूर जुटाएगा, औरत की मुरदा देह के लिए नहीं - तो अपनी मुर्दा मर्यादाओं को ढँकने के लिए ही सही! कहते हैं, उन्नीसवीं शताब्दी का रूसी साहित्य गोगोल के 'ओवरकोट' से बाहर आया था, पता नहीं इसमें कितना सत्य है, किंतु हिंदी का आधुनिक कथा साहित्य का बड़ा अंश प्रेमचंद के 'कफन' से बाहर आया है, यह मुझे जरूर सत्य जान पड़ता है।

पूरा साहित्य नहीं - ऐसे लेखक हैं, जैनेंद्र, अज्ञेय और अनेक नए लेखक - जो शायद बिना प्रेमचंद के भी अपनी लीक बना सकते - मैं स्वयं शायद ऐसी श्रेणी में आता हूँ जिस पर प्रेमचंद का कोई सीधा और प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं दिखाई देता। यहाँ तक कि वे लेखक जो अपने को प्रेमचंद की 'परंपरा का उत्तराधिकारी' मानते हैं,अपनी उत्कृष्ट रचनाओं में (जहाँ वे सिर्फ प्रेमचंद की नकल नहीं कर रहे) प्रेमचंद के कथा-विधान में काफी महत्वपूर्ण परिवर्तन करते रहे हैं। इसका कारण है। प्रेमचंद की अधिकांश रचनाएँ यूरोप के उन्नीसवीं शती में विकसित यथार्थवादी ढाँचे में लिखी गई थीं - यह ढाँचा, कथ्यात्मक फॉर्म एक तरह से अन्य विश्वव्यापी आधुनिक उपकरणों की तरह हर लेखक के लिए सुलभ था - जब कभी लेखक के जातीय अनुभव इस ढाँचे में फिट नहीं हो पाते थे, तो लेखक अक्सर ढाँचे को छोड़ने के बजाय अपने अनुभवों को छोड़ देना ज्यादा सुविधाजनक मान लेता था। मैंने इस द्वंद्व का उल्लेख अन्यत्रा किया है, यहाँ विस्तार में जाने के बजाय मैं सिर्फ इतना कहना चाहूँगा कि प्रेमचंदोत्तर पीढ़ी के कुछ महत्वपूर्ण लेखकों ने अपने अनुभवों को व्यापक औपन्यासिक स्पेस देने के लिए प्रेमचंद के 'यथार्थवादी' फॉर्म से अपने को मुक्त किया है - रेणु के उपन्यास इसका सजीव उदाहरण हैं।

प्रश्न यथार्थ से विदा लेने का नहीं था, स्वयं बदलते हुए यथार्थ को अभिव्यक्त करने के लिए 'यथार्थवादी' ढाँचे की सीमाओं से मुक्ति पाना था। किंतु किसी परंपरा को तोड़ना उसकी अवज्ञा करना नहीं है; रेणु, अज्ञेय या जैनेंद्र यदि बिलकुल अलग किस्म कि उपन्यास लिख पाए तो इसलिए क्योंकि उनके पास पहले से ही प्रेमचंद मौजूद थे। यदि हम अपने पुरखों की अपेक्षा कुछ ज्यादा, कुछ अधिक, कुछ महत्वपूर्ण सत्य उपलब्ध करते हैं तो इसका सीधा-सा कारण है कि हमारी दृष्टि के साथ पुरखों की दृष्टि जुड़ी है - आज जब कुछ समीक्षक और लेखक प्रेमचंद की परंपरा की बात डंके की चोट के साथ दुहराते हैं - उसे कसौटी मान कर आधुनिक-लेखन को प्रगतिशील या प्रतिक्रियावादी घोषित करते हैं - तो मुझे काफी हैरानी होती है। मुझसे ज्यादा हैरानी और क्षोभ शायद प्रेमचंद को होता, यदि वह जीवित होते। वह शायद हँसी में उनसे कहते 'भई, आप तो मेरी परंपरा में आते हैं, लेकिन मैं? मैं कौन-सी परंपरा में आता हूँ - सेवासदन की परंपरा में या कफन की परंपरा में?' और तब हमें अचानक पता चलेगा कि स्वयं प्रेमचंद को 'प्रेमचंद की परंपरा' से मुक्त करना जरूरी है - क्योंकि वह स्वयं अपने को पीछे छोड़ कर हमेशा नया बनते गए, जिसमें समूचा 'छोड़ा हुआ अंश' भी शामिल था। यह - मेरे विचार में - उनकी सबसे गौरवपूर्ण उपलब्धि थी जो इतने वर्षों बाद भी हमारे बीच उपस्थित है।