प्रेमचंद के कथासाहित्य का समाजशास्त्र / रवि रंजन
“उनकी आशा उथली नहीं है। उसके नीचे परिस्थिति की भयंकरता का पूरा ज्ञान है। उन्होंने यथार्थ की निष्ठुरता को तिल-भर भी घटाकर चित्रित नहीं किया। बीसवीं शताब्दी की अमानुषिकता की कठोर कहानी उन्होंने पूरी-पूरी कह दी है।” ---डॉ.रामविलास शर्मा: प्रेमचन्द और उनका युग
यह विदित है कि उन्नीसवीं शताब्दी में एक स्वतंत्र अनुशासन के तौर पर साहित्य के समाजशास्त्रीय अध्ययन की शुरुआत हुई और उन्नीसवीं सदी के मध्य तक आते-आते इपोलित अडोल्फ तेन (1828-93) के माध्यम से उसको वैज्ञानिकता प्राप्त हुई। तेन से बहुत पहले फ्रांस में साहित्य के समाजशास्त्रीय अध्ययन का बीज-वपन मादाम स्तेल (1766-1817) ने अपनी पुस्तक 'सामाजिक संस्थाओं से साहित्य के संबंध पर विचार' (1800) के द्वारा कर दिया था, जिसका इस्तेमाल तेन ने अपने तर्इं किया। उन्होंने साहित्य के समाजशास्त्रीय अध्ययन के लिए प्रजाति, परिवेश एवं क्षण या युग के बीच क्रिया-प्रतिक्रिया से निष्पन्न उस विशिष्ट मानसिक संरचना के विश्लेषण पर बल दिया था, जिससे किसी युग-विशेष का एक केन्द्रीय बौद्धिक ढाँचा निर्मित होता है और तदयुगीन श्रेष्ठ कलाकृतियों के द्वारा अभिव्यक्ति प्राप्त करता है। दूसरे शब्दों में तेन ने प्रजाति, परिवेश एवं युग के अपने त्रिक सिद्धांत के द्वारा विधेयवादी पद्धति से साहित्य के सामाजिक मूलाधार की खोज करने का प्रयास किया। रवीन्द्रनाथ ने लिखा है कि साहित्य मंदिर की भित्ति पृथ्वी के गहन अन्तर्देश में गड़ी होती है और उसका शिखर मेघों को भेदकर आकाश में उठता है। तात्पर्य यह कि साहित्यकार सामाजिक तथ्यों के आधार पर ही अपनी कल्पना के झरोखे एवं मेहराब निर्मित करता है।
ग़ौरतलब है कि मार्क्सवाद से साहित्य के समाजशास्त्र का सम्बन्ध अत्यन्त जटिल रह है। कुछ मार्क्सवादियों ने तो साहित्य को समाजशास्त्र से यह कहकर बचाने पर बल दिया है कि समाजशास्त्र उस तंत्र की सेवा करता है, जो कला और साहित्य के विकास की संभावना को खत्म करता है। इसलिए ऐसे अनुशासन की पद्धति का साहित्य के विश्लेषण में इस्तेमाल करना घातक होगा। प्रसंगात् टेरी इग्लटन लिखते हैं कि “मार्क्सवादी आलोचना 'साहित्य का समाजशास्त्र'-भर नहीं है। उसका उद्देश्य साहित्यिक कृति की अधिक पूर्णता के साथ व्याख्या करना है, जिसमें उसके रूप, शैली और अर्थ के प्रति अधिक संवेदनशील सावधानी होती है। वह कृति की कालबद्धता ही नहीं, उसकी कालातीतता की भी व्याख्या करती है। उसकी मौलिकता साहित्य की ऐतिहासिक समझ में नहीं, बल्कि क्रांतिकारी समझ में है।” किन्तु, मार्क्सवादी आलोचकों में विद्वानों का एक बड़ा तबका मार्क्सवाद एवं साहित्य के समाजशास्त्र में सामंजस्य स्थापित करने का पक्षधर भी रहा है। स्तेल एवं तेन आदि के द्वारा निर्मित व विकसित विधेयवादी समाजशास्त्र की मूल्यनिरपेक्षता एवं कलाकृतियों के सौंदर्यबोधात्मक पहलू को नज़रअंदाज कर देने की प्रवृत्ति का खण्डन करते हुए जेने उल्फ ने अपनी पुस्तक 'सौंदर्यशास्त्र और कला का समाजशास्त्र' (1983) में मार्क्स एवं तमाम मार्क्सवादी आलोचकों के अवदान को समाजशास्त्रीय अध्ययन की परिधि में ही शुमार किया है। उन्होंने लिखा है, “मैं नहीं मानती कि हमें समाजशास्त्र का उपयोग करते हुए किसी तरह का संकोच करने, क्षमा माँगने या अपराध महसूस करने की ज़रूरत है। उसका उपयोग करने मात्र से हम उनके साथ नहीं हो जाते, जो सतही, सीमित और भ्रामक समाजशास्त्र के समर्थक हैं। ऐतिहासिक भौतिकवाद समाज के अनुशीलन का सिद्धांत है और मैं उसकी अर्थ में समाजशास्त्र को स्वीकार करती हूँ।” ऐतिहासिक भैतिकवाद और मार्क्सवादी साहित्यालोचन से सम्बद्ध विविध धारणाओं का कला के समाजशास्त्र के संदर्भ में इस्तेमाल करने का एक हद तक सफल प्रयास करते हुए जेने उल्फ ने प्रकारान्तर से एक ऐसे समाजशास्त्रीय सौन्दर्यशास्त्र के निर्माण की संभावना पर विचार किया है, जिसके तहत बुर्जुआ सौन्दर्यशास्त्र की भाववादी सीमाओं के साथ-साथ समाजशास्त्रीयता के अतिरिक्त आग्रह के चलते पैदा होने वाले सरलीकरणों से बचना भी संभव हो सके। कहना न होगा कि मार्क्स-एंगेल्स के बीज विचारों के मद्देनज़र आगे चलकर जार्ज लुकाच, गोल्डमान, रेमण्ड विलियम्स, लियो लावेंथल आदि के द्वारा मार्क्सवादी आलोचना का जो स्वरुप निर्मित एवं विकसित हुआ, उसमें वर्ग चेतना एवं वर्ग संघर्ष के साथ-साथ साहित्य के सौन्दर्यबोधात्मक वैशिष्ट¬ के विवेचन-विश्लेषण की भी पूरी गुंजाइश है। सन् 1848 में प्रकाशित 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' में मार्क्स ने लिखा था कि मनुष्य जाति का सारा इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है। स्पष्ट ही वर्ण के साथ-साथ वर्ग चेतना को नज़रअंदाज करके साहित्य के सामाजिक मूलाधारों की तलाश असंभव है।
उपर्युक्त विमर्श के आलोक में प्रेमचन्द के कथा-साहित्य के समाजशास्त्र पर विचार करने के दरम्यान ध्यान रखना ज़रूरी है कि यह काम विधेयवादी समाजशास्त्रीय दृष्टि या पद्धति के बजाय भारतीय समाज के विभिन्न संस्तरों में मौजूद वर्ग चेतना के मद्देनज़र ही किया जा सकता है। इस दृष्टि से कथाकार प्रेमचन्द का अध्ययन करने पर उनमें विकास के कई सोपान दिखाई देते हैं। कहने की ज़रूरत नहीं कि किसी साहित्यकार के विकास का अध्ययन पाठक से एक खास तरह के संवेदनशील चौकन्नापन की माँग करता है। कथाकार प्रेमचन्द पर यदि हम वर्ग चेतना की दृष्टि से विचार करें, तो एक-एक कर सारे वर्गों के चरित्र का खुलासा उनकी प्रतिभा के विकास के क्रम में वहाँ होता दिखाई देगा। अपनी रचनाशीलता के आरंभिक चरण में जहाँ सामंत वर्ग को उन्होंने केन्द्र में रखा था, वहीं आगे चलकर उनके कथा साहित्य के केन्र्द में मध्य वर्ग आ जाता है। स्पष्ट ही उनकी अंतिम चरण की रचनाओं के केन्र्द में समाज के सर्वाधिक दबे-कुचले तबके के लोग हैं।
'बड़े घर की बेटी' संभवत: प्रेमचंद की हिन्दी में रचित पहली प्रकाशित कहानी है। इसमें एक सामंती संयुक्त परिवार व्यवस्था में उत्पन्न होने वाले विक्षोभ को उजागर करने के बावज़ूद कहानीकार की मुख्य चिंता इस व्यवस्था को बचाये रखने की है। वस्तुत: यह कहानी सामंती जीवन से निष्पन्न एक ऐसे श्रेष्ठ मूल्य का प्रतिपादन करती है, जिसके तहत सामंती समाज में संयुक्त परिवार की रसमयता सामने आती है। कहानी में वर्णित श्रीकंठ सिंह एवं लालबिहारी सिंह के बीच पारिवारिक कलह के चलते उत्पन्न बँटवारे की नौबत को श्रीकंठ सिंह की पत्नी आनंदी अपनी सहिष्णुता एवं सदाशयता से टाल देती है और कहानी का सुखद अंत संयुक्त परिवार व्यवस्था के पक्ष में होता है।
इससे लगता है कि प्रेमचन्द आरंभ में सामंती जीवन-मूल्य के उज्ज्वल पक्ष को लेकर चले थे। इस प्रसंग में महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उनके अंतिम चरण में लिखित 'महाजनी सभ्यता' निबंध में भी सामंती जीवन के सकारात्मक पहलुओं का उल्लेख मिलता है: “जागीरदारी सभ्यता में बलवान् भुजाएँ और मज़बूत कलेजा जीवन की आवश्यकता में परिगणित थे...मनुष्य के अच्छे भाव लुप्त नहीं हो गये थे। जागीरदार अगर दुश्मन के खून से अपनी प्यास बुझाता था, तो अकसर अपने किसी मित्र या उपकारक के लिए जान की बाज़ी भी लगा देता था। बादशाह अगर अपने हुक़्म को कानून समझता था, और उसकी अवज्ञा को कदापी सहन न कर सकता था, तो प्रजा पालन भी करता था, न्यायशील भी होता था। दूसरे के देश पर चढ़ाई वह या तो किसी अपमान-अपकार का बदला फेरने के लिए करता था या अपनी आन-बान, रोब-दाब कायम रखने के लिए या फिर देश-विजय और राज्य-विस्तार की वीरोचित महत्त्वाकांक्षा से प्रेरित होता था। उसकी विजय का उद्देश्य प्रजा का खून चूसना कदापि न होता था। कारण यह कि राजा और सम्राट जनसाधारण को अपने स्वार्थसाधन और धन शोषण की भट्टी का र्इंधन न समझते थे, किन्तु उनके दु:ख-सुख में शरीक होते थे और उनके गुण की क़द्र करते थे।”
प्रेमचंद ने आरंभिक चरण में ऐसी अनेक कहानियाँ लिखीं, जिनका सम्बन्ध सामंती समाज के सकारात्मक जीवन-मूल्यों से है, पर थोड़े ही दिनों में उन्हें सामंत वर्ग के पतनशील वर्गीय चरित्र का एहसास हो गया। उन्हें लगने लगा कि चूँकि तदयुगीन भारतीय सामंत वर्ग के श्रेष्ठ जीवन-मूल्यों का क्षय हो गया है, इसलिए वह देश में अवाँगार्द के अग्रिम दस्ते के रूप में कोई सकारात्मक रोल अदा करने में असमर्थ है। इसी वजह से आगे चलकर उन्होंने भारतीय सामंत वर्ग के पतन की कहानी लिखनी शुरु की। 'शतरंज के खिलाड़ी' इसी वर्ग के पतन की कहानी है। यह विचित्र बात है कि व्यापार के बहाने छोटी संख्या में हिन्दुस्तान में आकर अँग्रेज़ धीरे-धीरे कलकत्ते से लेकर पेशावर तक पर अपना अधिकार जमा लेते हैं और जो लोग हिन्दुस्तान के इतिहास का सामान्य ज्ञान भी रखते हैं, उन्हें बताने की ज़रुरत नहीं है कि यहाँ टीपू सुल्तान को छोड़कर और किसी ने क़ायदे से अँग्रेजों के विरुद्ध जंग नहीं लड़ी। 'शतरंज के खिलाड़ी' कहानी में भारत में अँग्रेजी राज की स्थापना के सामाजिक आधार की तलाश यहाँ के पतनशील सामंतवाद में की गयी है। इसमें कहानीकार ने तदयुगीन सामंतों की विलासिता के परिवेश का नग्न चित्रण करते हुए दिखाया है कि किस प्रकार लखनऊ ऐय्याशी के रंग में आकंठ डूबा हुआ था। अवध के छोटे-बड़े सभी सामंत इस रंग में सराबोर थे और ज़िन्दगी के तमाम पहलुओं में नैतिक चेतना व संघर्ष के बजाय केवल आमोद-प्रमोद का प्राधान्य था। शासन में, साहित्य-क्षेत्र में, सामाजिक अवस्था में, कला-कौशल में, उद्योग-धंधे में, आहार-व्यवहार में - सर्वत्र विलासिता व्याप्त हो रही थी। राज कर्मचारी विषय-वासना में, कविगण प्रेम और विरह के वर्णन में, कारीगर कलाबत्तू और चिकन बनाने में तथा व्यवसायी इत्र, मिस्सी और उबटन का रोज़गार करने में व्यस्त थे। इसी विलासिता के परिवेश में भारत में अँग्रेजी राज की स्थापना हुई। तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर स्पष्ट होता है कि रीतिकालीन कवि पद्माकर के 'गुलगुली गिलमे गलीचा है गुनीजन हैं/चाँदनी है, चिक है चिरागन की माला है' जैसे छंद में भारतीय सामंतों की जिस विलासिता का चित्रण है, वह 'शतरंज के खिलाड़ी' कहानी में वर्णित परिवेश से काफी हद तक मेल खाता है। पद्माकर का निधन सन् 1833 में हुआ था और तब तक भारत में अँग्रेज़ी राज की नींव पड़ चुकी थी। ग़ौरतलब है कि जब लार्ड क्लाइव और डलहौजी के बीच भारत की प्रभुसत्ता के लिए संघर्ष चल रहा था, तब बिहारीलाल नायिकाओं की विविध अदाओं को अपने दोहों में पिरो रहे थे और जब पलासी के युद्ध में देश की प्रभुसत्ता को धक्का लग रहा था, तब मतिराम अपने रसिक छंद लिख रहे थे। प्रेमचन्द ने 'शतरंज के खिलाड़ी' कहानी में तदयुगीन भारतीय सामंत वर्ग की क्षयिष्णुता को पूरी तरह बेनक़ाब किया है और यहीं से उनका कथाकार एक दूसरा मोड़ लेता है।
प्रेमचन्द उस समय लिख रहे थे, जब भारत में अँग्रेजी राज की स्थापना के बाद कुछ कल-कारखाने खड़े किये जा रहे थे, जिसके चलते एक मज़दूर वर्ग का उदय हो गया था। किन्तु, उन्होंने इस वर्ग के बजाय अँग्रेजी शिक्षा प्राप्त कर निकलने वाले तदयुगीन मध्यवर्ग को अपनी रचनाओं में ज्यादा तरजीह दी। संभवत: उन्हें ऐसा लग रहा था कि यह शिक्षित वर्ग भारतीय समाज के विकास में कुछ महत्त्वपूर्ण योगदान कर सकता है। उन्नीसवीं सदी के मध्य में अपने यहाँ उत्पन्न इस मध्यवर्ग का बात-व्यवहार एक ऐसे नये आदर्शवाद से परिचालित था, जो विवेकानंद के व्याख्यानों में, रवीन्द्रनाथ की कविताओं में तथा तिलक के गीता-भाष्य में प्रकट हुआ था। एक पौराणिक आख्यान के सहारे भारतेन्दु ने इसी वर्ग के आदर्श को अपने 'सत्य हरिश्चन्द्र' नाटक में अभिव्यक्ति दी है, जिसमें मनुष्य की सत्यनिष्ठा एवं श्रेष्ठ मूल्यों को आचरित यथार्थ बनाने पर बल दिया गया है। ग़ौरतलब है कि भारतेन्दु का सत्य हरिश्चन्द्र ही प्रेमचन्द की 'नमक का दारोगा' कहानी में मुंशी बंसीधर के रूप में पुनर्जन्म लेता है, जो बहुत सारे प्रलोभन दिये जाने के बावजूद किंचित भी डिगता नहीं। मध्यवर्ग के इसी आदर्शवाद से प्रभावित होकर प्रेमचन्द ने 'सेवासदन' एवं 'निर्मला' जैसे उपन्यासों की रचना की। किन्तु, भारतीय मध्यवर्ग छिन्नमूल तो था ही, वह अँग्रेजी राज की परजीवी प्रवृत्ति से पैदा हुआ था। चूंकि इस वर्ग के एक बड़े तबके का विकास ख़ुद की मेहनत के बजाय दूसरों की कीमत पर हुआ था, इसलिए इसका भीतरी रूप मानवीय सार से रहित था। इसका ख़ुलासा 'नमक का दारोगा' कहानी के नायक बंसीधर के पिता के चरित्र से होता है। बेटे को व्यावहारिकता के नाम पर बेईमानी का पाठ पढ़ाते हुए वह कहता है कि मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है, जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है, जबकि ऊपरी आमदनी बहता हुआ रुाोत है, जिससे सदा प्यास बुझती है। वेतन मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृद्धि नहीं होती। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी से उसमें बरकत होती है। मध्यवर्ग के इस असली रुप का जैसे-जैसे विकास होता गया, तदयुगीन रचनाकारों ने उसकी पहचान करनी शुरु की और उस युग की तमाम साहित्यिक कृतियों में मध्यवर्ग की इस राक्षसी वृत्ति की शिनाख़्त मिलती है। कवि धूमिल के शब्दों में यह वर्ग केवल रोटी से खेलता है। चूँकि प्रेमचन्द का कथा साहित्य अपने समय के सर्वाधिक प्रामाणिक दस्तावेजों में से एक है, इसलिए वहाँ हम इस मध्यवर्ग को भी बेनक़ाब हुआ देख सकते हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि 'प्रेमचन्द के साथ मेड़ों पर गाते हुए किसान को, अन्त:पुर में मान किये प्रियतमा को, कोठे पर बैठी हुई वार-वनिता को, रोटी के लिए ललकते हुए भिखमंगे को, कूट परामर्श में लीन गोयन्दों को, ईर्ष्यालु अफ़सरों को, दुर्बल ह्यदय बैंकरों को, साहस परायणा चमारिन को, ढोंगी पंडितों को, फरेबी पटवारी को देखा जा सकता है। उससे अधिक सफ़ाई के साथ दिखा सकने वाले परिदर्शक को हिन्दी-उर्दू की दुनिया अब तक नहीं जानती।' स्पष्ट ही उस समय के सामाजिक-आर्थिक परिवेश को जितने जितने साफ़ ढंग से प्रेमचन्द की कहानियों एवं उपन्यासों के माध्यम से देखा और समझा जा सकता है, उतने साफ़ ढंग से उसे न तो किसी इतिहासकार के वर्णन के और न ही किसी समाजशास्त्री के विश्लेषण से समझा जा सकता है। इसलिए यह कहना ज़्यादती न होगी कि यदि समाजशास्त्रीय दृष्टि से साहित्य अपने समय का एक दस्तावेज़ है, तो प्रेमचन्द के कथा साहित्य से बढ़कर उसका कोई प्रमाणिक रूप कम से कम सन् 1937 तक की हिन्दी साहित्य की परम्परा में नहीं दिखलाई पड़ता है।
कहना न होगा कि मध्यवर्ग के चरित्र को प्रेमचंद धीरे-धीरे समझते हैं और इससे उनकी कथा-दृष्टि का भी विकास होता है। आरंभ में उन्होंने मध्यवर्ग के सत्य हरिश्चन्द्रीय आदर्शवाद को देखा। पर आगे चलकर जब वे इस वर्ग के दोहरे चरित्र को बेनक़ाब करने के लिए क़लम उठाते हैं, तो 'सेवासदन', 'निर्मला' एवं 'गबन' जैसे उपन्यासों तथा 'नशा', 'मंत्र' एवं 'बेटों वाली विधवा' जैसी कहानियों की रचना करते हैं। 'सेवासदन' की सुमन को वेश्या बनना पड़ता है। 'नरक का मार्ग' कहानी में वृद्ध पुरुष से विवाहित तथा बाद में विधवा हो जाने पर वेश्या बन जाने वाली स्त्री की पीड़ा का वर्णन है। 'निर्मला' में दहेज की समस्या के चलते युवती निर्मला का विवाह एक ऐसे वृद्ध से कर दिया जाता है, जिसके बेटे की उम्र निर्मला के लिए अपेक्षित वर की उम्र से ज़्यादा या उसके बराबर हो सकती थी। वस्तुत: निर्मला की सारी त्रासदी के मूल में मध्यवर्गीय परजीविता मौज़ूद है। उस ज़माने में इस उपन्यास को जो अपार लोकप्रियता मिली, उसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि प्रेमचंद हिन्दी के पहले कलाकार थे, जिन्होंने वर्ग चरित्र के गहरे विश्लेषण के माध्यम से मध्यवर्ग की अमानुषिकता को इतने साफ़ तौर पर प्रस्तुत किया था। असल में प्रेमचंद की रचनाशीलता के इस दौर में अँग्रेजी शिक्षा इस मुल्क में जड़ जमा चुकी थी और इस शिक्षा को प्राप्तकर जो लोग निकल रहे थे, उनमें से ज़्यादातर व्यक्तिवादी थे। स्पष्ट ही हमारे साहित्य में व्यक्तिवाद का अविर्भाव इसी मध्यवर्ग के अभ्युदय के साथ होता है, क्योंकि अँग्रेजी शिक्षा ने संयुक्त परिवार को विघटित कर दिया। सन् 1929 में अँग्रेजों ने जब 'लर्निंग एक्ट' पारित किया, तो इसके तहत शिक्षित व्यक्ति के उपार्जन पर पूरे परिवार का कोई अधिकार न रहा। सम्पत्ति विषयक इस क़ानूनी बदलाव के चलते बहुत ज़ोर-शोर से भारतीय समाज में व्यक्तिवाद पनपा। प्रेमचंद के कथा-साहित्य में जगह-जगह इस व्यक्तिवाद को रेखांकित किया गया है। उन्नीसवीं सदी में फ्रांस में जिस प्रकार बालजक ने अपने उपन्यासों तदयुगीन मध्यवर्गीय चरित्र की निकृष्टता का बेलाग चित्रण प्रस्तुत किया, उसी प्रकार भारतीय मध्यवर्ग के चरित्र को बेलौसपन के साथ प्रेमचंद अपने आख्यानों में वर्णित करते हैं। 'सेवासदन' में कुँवर अनिरुद्ध का कथन है- “हमारे शिक्षित भाइयों की ही बदौलत दालमंडी आबाद है, चौक में चहल-पहल है, चकलों में रौनक है।”
'नशा' कहानी का नायक जब अपने ज़मींदार दोस्त के घर आकर कुछ दिनों तक रहता है, तो बहुत जल्दी ही उस पर ज़मींदारी का नशा सवार हो जाता है और अन्तत: वह बद्तमीज़ी की हद पार कर जाता है। इसी तरह 'मंत्र' कहानी में डॉ.चड्ढा को मानवीय संवेदना से शून्य दिखाया गया है। वह मृत्य के मुख में जाते हुए सर्पदंश से बेहोश रोगी को देखने व उसका उपचार करने के बजाय अपनी दिनचर्या के अनुसार गोल्फ खेलने चला जाता है और परिणामत: किसान का पुत्र मर जाता है। इसके ठीक विपरीत उसी किसान की ‘भगतई’ के प्रयास से डॉक्टर का मृतप्राय: बेटा जी उठता है। 'बेटों वाली विधवा' कहानी में पिता के निधन के बाद सगी बहन के विवाह को लेकर चारों शिक्षित भाईयों का जो नज़रिया है और अन्तत: अपनी माँ के साथ जो उनका व्यवहार है, वह अमानुषिकता की पराकाष्ठा है। कालान्तर में प्रेमचंद को इस सुविधाभोगी वर्ग की अमानुषिकता के साथ-साथ उसकी कायरता का भी अंदाज़ा हुआ। 'गोदान' के आरंभ में जिस धनुष यज्ञ प्रसंग का ज़िक्र आया है, उसमें पठान वेशधारी मेहता के आक्रामक रवैये का मुक़बला करने का नैतिक साहस केवल होरी के पास है। इससे प्रेमचंद की अँग्रेज़ी राज में उत्पन्न तथाकथित भद्रजनों के बारे में उस धारणा का खुलासा होता है, जिसके तहत भद्रजन का प्रेम जितना निर्जीव होता है, उतना ही दुर्बल भी, क्योंकि उसमें कोई सामथ्र्य ही नहीं है।
ऐसी स्थिति में प्रेमचंद के सामने सवाल यह था कि किस वर्ग को समाज के अग्रिम दस्ते के तौर पर पेश किया जाय। 'पशु से मनुष्य' कहानी में उन्होंने मध्यवर्ग के बारे में लिखा कि “इन महान पुरुषों में से प्रत्येक व्यक्ति सैकड़ों नहीं, हज़ारों-लाखों की जीविका हड़प जाते हैं और फिर भी उन्हें जाति के भक्त बनने का दावा है। पैदा दूसरे करें, पसीना दूसरे बहायें-खाना और मूँछो पर ताव देना इनका काम है। मैं समस्त शिक्षित समुदाय को निकम्मा ही नहीं, अनर्थकारी भी समझता हूँ।” प्रेमचंद के इस जीवन दर्शन पर टिप्पणी करते हुए हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं कि “जो संस्कृतियों और सम्पदाओं से लद नहीं गये हैं, जो अशिक्षित और निर्धन हैं, जो गँवार और जाहिल हैं, वे उन लोगों की अपेक्षा अधिक आत्मबल रखते हैं और अधिक न्याय के प्रति सम्मान दिखाते हैं, जो शिक्षित हैं, जो सुसंस्कृत हैं, जो सम्पन्न हैं, जो चतुर हैं, जो दुनियादार हैं।” कहने का तात्पर्य यह कि जो पढ़ा-लिखा नहीं हैं, वह अपेक्षाकृत बेहतर मनुष्य है और जो लोग बहुत पढ़-लिख जाते हैं, उनकी मनुष्यता चुक जाती है। इसलिए संभवत: प्रेमचंद भारतीय समाज में परिवर्तन के लिए पहल कर सकने की उम्मीद किसान वर्ग से करते हैं। इस दौर में उन्हें लगता है कि इस वर्ग का सम्बन्ध अपनी माटी की सोंधी गंध से है और यह बुनियादी तौर पर ईमानदार है। भारतीय जीवन के मूल्य व मर्यादा के केन्द्र में यही वर्ग है। उसका जीवन प्रकृति से सम्बद्ध है। सूर्योदय से सूर्यास्त तक वह श्रम करता है, पसीना बहाता है। बावजूद इसके, किसान भारतीय समाज का सर्वाधिक असंगठित एवं विपन्न वर्ग है। इस वर्ग की विपन्नता एवं निर्धनता का जो आख्यान हिन्दी-उर्दू में प्रेमचंद ने लिखा है, वह मार्मिकता की दृष्टि से अप्रतिम है। किस प्रकार अँग्रेज़ी राज ने भारतीय सामंतों के साथ साँठ-गाँठ करके किसानों का सब कुछ चूस लिया था, पर उस विपन्नता के बीच भी किसान कैसे जी रहा था, इसकी बेमिसाल तस्वीर प्रेमचंद ने अपने कथा साहित्य में पेश की है। 'कर्मभूमि' का अमरकांत जब एक दिन गोधूलि की वेला में सकीना से मिलने उसके घर आता है, तब वह कमरे के भीतर से ही उससे एक घंटा इंतज़ार करने को कहती है। असलियत यह थी कि सकीना ने पेबन्दों लगी अपनी एकमात्र फटी-पुरानी साड़ी धोकर सूखने के लिए डाल दी थी और वह घर के अन्दर निर्वसन थी। कहने की ज़रुरत नहीं कि डिकेन्स या गोर्की तक के साहित्य में निर्धनता का यह रूप हमें नहीं मिलता। गोर्की के सुप्रसिद्ध 'माँ' उपन्यास में जारशाही के शिकार मज़दूरों की निर्धनता का वर्णन ज़रूर मिलता है, पर वहाँ ऐसा कोई घर नहीं है, जिसमें चाय का प्याला न खनकता हो। ब्रिाटिश उपनिवेशवाद वाले दौर में भारत के ग़रीब किसानों की दुर्दशा की तुलना रूसी किसानों-मज़दूरों से नहीं हो सकती। इसी प्रकार 'गोदान' में महाजनों के कर्ज़ से दबा होरी का परिवार कई दिनों से फाके पर है। जब वह गन्ना के एवज में मिल से पैसे लेकर बाहर निकलता है, तो झिंगुरी सिंह, नोखेराम आदि महाजन उससे वहीं पाई-पाई धरवा लेते हैं। होरी जब घर लौटता है, तो सब उसे आशान्वित होकर देखते हैं। जब वह धनिया से असलियत बयान करता है, तब उसके बाद प्रेमचंद ने धनिया के ओठों पर आई हुई करुण मुस्कान का जो वर्णन किया है, उसे शब्दों में बाँधना मुश्किल है, “होरी घर पहुँचा, तो रूपा पानी लेकर दौड़ी, सोना चिलम भर लायी, धनिया ने चबेना और नमक लाकर रख दिया और सभी आशा-भरी आँखों से उसकी ओर ताकने लगीं। झुनिया भी चौखट पर आ खड़ी हुई थी। होरी उदास बैठा था। कैसे मुँह-हाथ धोये, कैसे चबेना खाये। ऐसा लज्जित और ग्लानित था, मानों हत्या करके आया हो। धनिया ने पूछा- कितने की तौल हुई? 'एक सौ बीस मिले, पर सब वहीं लुट गये, धेला भी न बचा।' धनिया सिर से पाँव तक भस्म हो उठी। मन में ऐसी उद्वेग उठा कि अपना मुँह नोंच ले। बोली- तुम जैसा घामड़ आदमी भगवान ने क्यों रचा, कहीं मिलते तो उनसे पूछती। तुम्हारे साथ सारी ज़िन्दगी तलख हो गयी, भगवान मौत भी नहीं देते कि जंजाल से जान छूटे। उठाकर सारे रुपये बहनोइयों को दे दिये।....हल में क्या मुझे जोतोगे या आप जुतोगे? पूस की यह ठण्ड और किसी की देह पर लत्ता नहीं। ले जाओ सबको नदी में डुबा दो। सिसक-सिसककर मरने से तो एक दिन मर जाना फिर भी अच्छा है। कब तक पुआल में घुसकर रात काटेंगे और पुआल में घुस भी लें, तो पुआल खाकर रहा तो न जायेगा। यह कहते-कहते वह मुस्करा पड़ी। इतनी देर में उसकी समझ में यह बात आने लगी कि महाजन जब सिर पर सवार हो जाय और अपने हाथ में रुपये हों और महाजन जानता हो कि इसके पास रुपये हैं, तो आसामी कैसे अपनी जान बचा सकता है।”
सामंती एवं उभरते हुए पूँजीवादी शोषण के विविध रुपों से त्रस्त किसान की उस ज़माने में कोई खास अहमियत नहीं हुआ करती थी। औपनिवेशिक किसान की दुर्दशा को प्रेमचंद ने होरी के माध्यम से चित्रित किया है। होरी एक छोटा किसान है। आरंभ में जबकि वह बिल्कुल दरिद्र नहीं हो गया था, उसकी पाँच बीघे की जोत थी। एक दिन खेत की ओर जाते हुए वह जो दिवास्वप्न देखता है, उसकी लालसा का वर्णन गोदान के आरंभ में प्रेमचंद ने इस प्रकार किया है, “होरी क़दम बढ़ाये जाता था। पगडण्डी के दोनों ओर ऊख के पौधों की लहराती हुई हरियाली देखकर उसने मन में कहा- भगवान कहीं से गौं से बरखा कर दें और डाँड़ी भी सुभीते से रहे, तो एक गाय ज़रूर लेगा। देशी गायें तो न दूध दें, न उनके बछवे ही किसी काम के हों। बहुत हुआ तो तेली के कोल्हू में चलें। नहीं, वह पछार्इं गाय लेगा। उसकी ख़ूब सेवा करेगा। कुछ नहीं तो चार-पाँच सेर दूध होगा। गोबर दूध के लिए तरस-तरसकर रह जाता है। इस उमिर में न खाया-पिया, तो फिर कब खयेगा? साल-भर भी दूध पी ले, तो देखने लायक हो जाय, बछवे भी अच्छे बैल निकलेंगे। दो सौ से कम की गोंई न होगी। फिर, गऊ से ही तो द्वारा की सोभा है। सबेरे-सबेरे गऊ के दर्शन हो जायें, तो कहना क्या कहना? न जाने कब यह साध पूरी होगी, कब वह शुभ दिन आयेगा।” इस प्रसंग के द्वारा प्रेमचंद बतलाते हैं कि कितनी छोटी-छोटी इच्छाएँ औपनिवेशिक भारतीय किसान का सबसे बड़ा सपना था। उनके ही शब्दों में ‘बैंक-सूद से चैन करने या ज़मीन खरीदने या महल बनवाने की विशाल आकांक्षाएँ उसके नन्हें-से ह्यदय में कैसे समातीं।’ 'गोदान' के अंत में जब लू से झुलसकर होरी प्राण त्याग रहा है, तो यह सारी स्मृतियाँ फिर से जग जाती हैं, “उसकी आँखे बन्द हो गयीं और जीवन की सारी स्मृतियाँ सजीव हो-होकर ह्यदय पट पर आने लगीं, लेकिन ब्रोकम, आगे की पिछे, पीछे की आगे स्वप्न-चित्रों की भाँति बेमेल, विकृत और असम्बद्ध। वह सुखद बालपन आया, जब वह गुल्लियाँ खेलता था और माँ की गोद मे सोता था। फिर देखा, जैसे गोबर आया है और उसके पैरों पर गिर रहा है। फिर दृश्य बदला, धनिया दुलहिन बनी हुई है, लाल चुँदरी पहने उसको भोजन करा रही थी। फिर एक गाय का चित्र सामने आया, बिलकुल कामधेनु-सी। उसने उसका दूध दुहा और मंगल को पिला रहा था कि गाय एक देवी बन गयी और....।”
औपनिवेशिक भारत में लगातार निस्तेज होते जा रहे गाँवो का वर्णन प्रेमचंद ने इस क़दर किया है कि उसे देखकर डर लगता है। 'वरदान' की नायिका बिरजन मझगवां से जो पत्र लिखती है उससे मालूम पड़ता है कि तदयुगीन भारत के गाँव किस हद तक दरिद्रता, भुखमरी और जहालत के शिकार थे : “टूटे-फूटे फूस के झोंपड़े, मिट्टी की दीवीरें, घरों के सामने कूड़े-करकट के बड़े ढेर, कीचड़ में लिपटी हुई भैंसें, दुर्बल गायें- जी चाहता है कि कहीं चली जाऊँ। आदमियों को देखे तो उनकी शोचनीय दशा है। हड्डियाँ निकली हुई हैं।....किसी के शरीर पर एक बेफटा वस्त्र नहीं है और कैसे भाग्यहीन कि रात-दिन पसीना बहाने पर भी कभी भरपेट रोटियाँ नहीं मिलतीं।” 'गोदान' में गोबर जब लखनऊ से लौटकर गाँव आता है, तो उस प्रसंग में उन्होंने विस्तार के साथ गाँव की डरावनी दशा का वर्णन किया है। गाँव में “ऐसा एक आदमी भी नहीं, जिसकी रोनी सूरत न हो...जीवन में न कोई आशा है, न कोई उमंग, जैसे उनके जीवन के सोते सूख गये हों और सारी हरियाली मुरझा गयी हो। जेठ के दिन हैं, अभी तक खलिहानों में अनाज मौज़ूद हैं, मगर किसी के चेहरे पर खुशी नहीं है। बहुत कुछ तो खलिहान में ही तुलकर महाजनों और कारिन्दों की भेंट हो चुका है और जो कुछ है, वह भी दूसरों का है। भविष्य अन्धकार की भाँति उनके सामने है।...द्वार पर मनों कूड़ा जमा है, दुर्गन्ध उड़ रही है, मगर उनकी नाक में न गन्ध है, न आँखों में ज्योति। सरेशाम द्वार पर गीदड़ रोने लगते हैं, मगर किसी को ग़म नहीं।...उनकी रसना मर चुकी है। उनके जीवन में स्वाद का लोप हो गया है। उनसे धेले-धेले के लिए बेईमानी करवा लो, मुट्ठी-भर अनाज के लिए लाठियाँ चलवा लो। पतन की वह इन्तहा है, जब आदमी शर्म और इज़्जत को भी भूल जाता है।” एक अन्य प्रसंग में 'गोदान' में ही किसानों की दुर्दशा के मद्देनज़र रामसेवक कहता है कि “थाना-पुलिस, कचहरी-अदालत सब है हमारी रक्षा के लिए, लेकिन रक्षा कोई नहीं करता। चारों तरफ लूट है। जो ग़रीब है, बेकस है, उसकी गर्दन काटने के लिए सभी तैयार है।...यहाँ तो जो किसान है, वह सबका नर्म चारा है। पटवारी को नज़राना और दस्तूरी न दें, तो गाँव में रहना मुश्किल है। जमींदार के चपराशी और कारिंदा का पेट न भरे, तो निर्वाह न हो। थानेदार और कान्स्टेबिल तो जैसे उसके दामाद हो। जब कभी गाँव में उनका दौरा हो जाय, तो किसानों का धर्म है उनका आदर सत्कार करना।” कहना न होगा कि अँग्रेजी राज़ के इस चतुर्दिक शोषण तंत्र ने भारतीय गाँव को तबाह कर दिया था और इसी तबाही के चलते किसान धीरे-धीरे बेदखल होकर मजदूर बन जाने के लिए बाध्य होता जा रहा था। 'गोदान' का होरी पाँच बीघे का जोतदार था, पर अपने जीवन के अंतिम चरण में वह सर्वहारा बनने के लिए अभिशप्त हो जाता है। 'कफन' इसी सर्वहारा वर्ग के अमानवीकरण की कहानी है। 'गोदान' के होरी और 'कफन' के घीसू-माधव में गहरा संबंध है। होरी में श्रम के प्रति जहाँ गहरा लगाव दिखाई देता है, वहाँ घीसू-माधव में श्रम के प्रति अलगाव की भावना है, जिसकी वजह बयान करते हुए कहा गया है कि जिस समाज में हाड़-तोड़ मेहनत करने वालों की हालत घीसू-माधव से बेहतर न हो, उसमें ऐसी मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इस मनोवृत्ति के पैदा होने के मूल में निहित मनोसामाजिक एवं आर्थिक पहलुओं को परत-दर-परत खोलते हुए '1844 की आर्थिक एवं दार्शनिक पांडुलिपि में मार्क्स लिखते हैं कि “मनुष्य का अपने श्रम से अलगाव क्यों होता है? सबसे पहले तो इसलिए कि वह श्रम मजदूरों के लिए एक बिलकुल ही बाहरी चीज है, अर्थात वह उसके सारभूत, निसर्ग-सिद्ध अस्तित्व का अंग नहीं है, इसलिए अपने काम में वह अपने को पाता नहीं खोता है, इसलिए उसको उसमें आंतरिक सुख का नहीं, दु:ख का ही अनुभव होता है, वह काम उसके शारीरिक और मानसिक शक्तियों को विकसित नहीं करता, उल्टे उसके शरीर को कष्ट पहुँचाता है और उसके मानस को नष्ट कर देता है। इसलिए मजदूर को अपने होने की अनुभूति तभी होती है, जब वह काम नहीं कर रहा होता, जब काम कर रहा होता है, तब उसे अपने होने का एहसास नहीं होता, एक बेगानापन या अजनबीपन-सा मालूम होता है। जी, बहुत खुश-खुश-सा रहता है, जब वह काम नहीं कर रहा होता और उखड़ा-उखड़ा जब कि वह काम कर रहा होता है। इसलिए यही कहना ठीक होगा कि उसका श्रम स्वेच्छा से किया गया श्रम नहीं, विवशता से किया गया श्रम है। परिणामत: उसको लगता है कि वह अपने सामान्य जैविक या पशुवत आचरण-खाने-पीने, बच्चा पैदा करने में ही स्वतंत्र है...और अपने मानवीय आचरण में किसी जानवर से ज्यादा कुछ नहीं। यह ठीक है कि खान, पीना, बच्चे पैदा करना आदि भी नितांत मानवीय क्रियाएँ हैं , लेकिन जब उन्हें मानव क्रियाशीलता के दूसरे रूपों से अलग करके अंतिम और एक मात्र लक्ष्य बना दिया जाता है, तब वो निरी पशुवत क्रियाएँ रह जाती है।” स्मरणीय है कि 'गोदान' के होरी के भीतर श्रम से अलगाव नहीं है। वह कहता है कि “मजदूरी करना कोई पाप नहीं है। मजूर बन जाय, तो किसान हो जाता है। किसान बिगड़ जाय तो मजूर हो जाता है।” उसकी कामना है कि “भगवान उसे कुकर्म से बचाये रखें और वह कुछ नहीं चाहता।” जैसे ही उसे पता चलता है कि एक ठेकेदार ने सड़क के लिए गाँव के ऊसर में कंकड़ की खुदाई शुरु की है, वह चट-पट वहाँ जा पहुँचता है और आठ आने रोज पर खुदाई का काम करने लगता है। प्रेमचंद लिखते हैं कि, “दिनभर लू और धूप में काम करने के बाद वह घर आता है, तो बिलकुल मरा हुआ, उत्साह का नाम नहीं। उसी उत्साह से दूसरे दिन काम करने जाता। रात को भी खाना खाकर डिब्बी के सामने बैठ जाता और सुतली कातता। कहीं बारह एक बजे सोने जाता"।” किन्तु इस हाड़-तोड़ परिश्रम की परिणति होरी के लिए अंतत: जानलेवा साबित हुई : “होरी कंकड़ के झौवे उठा-उठाकर खदान से सड़क तक लाता था और गाड़ी पर लादता था। जब दोपहर की छुट्टी हुई, तो वह बेदम हो गया था। ऐसी थकान उसे कभी नहीं हुई थी। उसके पाँव तक न उठते थे। देह भीतर से झुलसी जा ही थी।...प्यास के मारे कंठ सूख जाता है।.... होरी ने उठकर एक लोटा पानी खींचकर पिया... उसे कै हो गयी और चेहरे पर मुर्दनी-सी छा गई।... उसे फिर कै हुई और हाथ-पाँव ठण्डे होने लगे। उसी मज़दूर ने फिर पुकारा-दोपहरी ढल गयी होरी, चलो झौवा उठाओ। होरी कुछ न बोला। उसके प्राण तो न जाने किस-किस लोक में उड़ रहे थे। उसकी देह जल रही थी, हाथ पाँव ठण्डे हो रहे थे। लू लग गयी थी।...मुख कान्तिहीन हो गया था।” इस प्रकार अंतत: वह गाय की लालसा मन में लिये हुए मृत्यु के मुख में समा जाता है। यह ठीक ही कहा गया है कि इस उपन्यास में धनिया द्वारा सुतली बेचकर जमा किये गये बीस आने पैसे से जो 'गो-दान' कराया गया है, वह वस्तुत: सुधारवाद के प्रति प्रेमचंद की बची-खुची आस्था का भी गो-दान है।
कथाकार प्रेमचंद के इसी बदलते हुए रचनात्मक मानस की सृष्टि घीसू और माधव हैं, जिनके मन में मेहनत, सामाजिक मर्यादा आदि के प्रति ज़रा-सा भी लगाव नहीं है। उस ज़माने में प्रेमचंद के मन में अँग्रेजी राज़ के साथ-साथ सामंती-पुरोहिती समाजार्थिक व्यवस्था के प्रति जो घोर घृणा का भाव था, उसकी अभिव्यक्ति उनकी तदयुगीन रचनाओं में हुई है। अपने समय में महाजनी सभ्यता की धीमी पदचाप को वे बख़ूबी सुन रहे थे और इसके चलते तदयुगीन मनुष्य के शील व चेतना में जो स्खलन पैदा हो रहा था, उसका निरुपण करते हुए वे लिखते हैं कि “महाजनी सभ्यता में सारे कामों की गरज़ महज़ पैसा होती है। किसी देश पर राज किया जाता है, तो इसलिए कि महाजनों, पूँजीपतियों को ज़्यादा से ज़्यादा नफ़ा हो। इस दृष्टि से मानो आज दुनिया में महाजनों का ही राज्य है। मनुष्य समाज दो भागों में बँट गया है। बड़ा हिस्सा तो मरने और खपने वालों का है... उसका अस्तित्व केवल इसलिए है कि अपने मालिकों के लिए पसीना बहाये, ख़ून गिराये और एक दिन चुपचाप इस दुनिया से विदा हो जाये। अधिक दु:ख की बात तो यह है कि शासक वर्ग के विचार और सिद्धान्त शासित वर्ग के भीतर भी समा गये हैं, जिसका फल यह हुआ है कि हर आदमी अपने को शिकारी समझता है और उसका शिकार है समाज।...धन-लोभ ने मानव भावों को पूर्ण रुप से अपने अधीन कर लिया है। कुलीनता और शराफ़त, गुण और कमाल की कसौटी पैसा और केवल पैसा है। जिसके पास पैसा है, वह देवता स्वरूप है, उसका अन्त:करण कितना ही काला क्यों न हो। साहित्य, संगीत और कला सभी धन की देहली पर माथा टेकने वालों में है। यह हवा इतनी ज़हरीली हो गयी है कि इसमें जीवित रहना कठिन होता जा हा है।” याद आ सकते हैं फ्रांसीसी कथाकार बाल्जाक जिनका कहना था कि कोई भी संपत्ति साम्राज्य बिना लूट, शोषण, भ्रष्टाचार, अपराध व तीन-तिकड़म के खड़ा ही नहीं हो सकता। आज जबकि अपने देश में ही नहीं, बल्कि कमोबेश पूरी दुनिया में एक नयी महाजनी सभ्यता का अभ्युदय हो चुका है, जिसका आधार औद्योगिक पूँजी के बजाए वित्तीय पूँजी है, तो ऐसे में ज़हरीलेपन के अनुपात में जो इजाफ़ा हुआ है, उसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है। प्रेमचंद अपने समय में शिद्दत के साथ यह महसूस कर रहे थे कि “इस पैसे ने आदमी के दिलोदिमाग पर इतना कब्ज़ा जमा लिया है कि... वह दया और स्नेह, सच्चाई और सौजन्य का पुतला मनुष्य दया-ममताशून्य जड़यंत्र बनकर रह गया है।” कहना न होगा कि तब से लेकर अब तक कुछेक अपवादों को छोड़कर भारतीय समाज की हालत बद से बदतर हुई है।
यह सही है कि प्रेमचंद गोबर में क्रांति की चिनगारी फूटती दिखलाते हैं। 'गोदान' का गोबर एक सीमा तक 'प्रेमाश्रम' के बलराज की तरह है। किन्तु बलराज से भिन्न वह अन्तत: किसान ही बना नहीं रहता। सच तो यह है कि बलराज की तुलना में उसका चरित्र कई मायने में बहुत जटिल है। भले ही लखनऊ में रहते हुए 'उसने राजनैतिक जलसों के पीछे खड़े होकर भाषण सुने हैं और उनसे अंग-अंग में बिंधा है। उसने सुना है और समझा है कि अपना भाग्य खुद बनाना होगा, अपनी बुद्धि और साहस से इन आफ़तो पर विजय पाना होगा। कोई देवता, कोई गुप्त शक्ति उनकी मदद करने न आयेगी।...वह नम्र और उद्दोगशील हो गया है' तथा स्वार्थ और लोभ के वश में होने से वह बचना चाहता है, पर साथ ही उपन्यासकार ने उसके व्यक्तित्व में निहित उस अन्तर्विरोध को भी उजागर किया है, जिसके तहत शहर में छोट-मोटा धन्धा करके कुछ पैसे जमा कर लेने के बाद सूदखोरी का विरोधी-गोबर खुद सूद पर पैसा लगाता है। 'बूढ़ी काकी' कहानी में प्रेमचंद ने लिखा है कि “सन्तोष-सेतु जब टूट जाता है, तब इच्छा का बहाव अपरिमित हो जाता है।” कहने का तात्पर्य यह कि गोबर की क्रांतिकारिता के बावज़ूद हम एक हद तक उसके व्यक्तित्व में 'सन्तोष-सेतु' को जब-तब टूटता हुआ देखते हैं। बावजूद इसके ऐसा लगता है कि प्रेमचंद को किसानों में विद्रोह करने की क्षमता पर थोड़ा विश्वास ज़रूर था।
'दो बैलों की कथा' प्रेमचंद की रचनाशीलता के अंतिम चरण की कहानी है, जो वस्तुत: एक रूपक कथा है। इसमें वे बतलाते हैं कि बैल कभी-कभी मारता भी है और अन्य कई तरह से अपना असंतोष प्रकट करता है। हिन्दी में पहली बार किसी पशु को लेकर रचित इस जीवंत कहानी पर टिप्पणी करते हुए राजेन्द्र यादव ने लिखा है कि हिन्दी कथा साहित्य में बकरी, तेंदुए, ऊँट, कुत्ते, चूहे, छिपकिली, सूँस, तिलचट्टे, हाथा, घोड़े, गैडे, रीछ, भेड़िए आदि सब आये और प्रेमचंद के बाद हिन्दी का चिड़ियाखाना काफी समृद्ध हुआ, पर प्रेमचंद के हीरा और मोती जैसे दो बैलों का कोई जवाब नहीं है। ज़ाहिर है कि बैल का सीधा सम्बन्ध किसान जीवन से है और कहानीकार ने उनमें क्रांति की चिंगारी को रेखांकित किया है, जिसका सम्बन्ध कहीं न कहीं किसानों के ह्यदय में पनप रही विद्रोह-भावना से है। बैलों की तुलना में यदि इस कहानी में आये गधे को देखें, तो प्रेमचंद की उस टिप्पणी की व्यंजना स्पष्ट हो जाती है, जिसमें कहा गया है कि ऋषिमुनियों के सारे गुण गधे में मिल जाते हैं। इस प्रकार यह कहना अयुक्तियुक्त न होगा कि कालान्तर में प्रेमचंद अपने कथा साहित्य में वर्गीय आधार का विकास करते हैं। वे सामंत वर्ग से मध्यवर्ग और मध्यवर्ग से किसान वर्ग तक को केन्द्र में रखकर रचना करते हुए चुक नहीं जाते। दूसरे शब्दों में उनकी अपनी विकास-यात्रा का अंतिम पड़ाव किसान वर्ग नहीं है। चीन की सर्वहारा सांस्कृतिक क्राति के दौरान एक लोकप्रिय नारे में कहा गया था कि “चीज़ों को बदलने के लिए चीज़ों को जानो, चीज़ों को बदलने की प्रक्रिया से ख़ुद को बदल डालो।” बीसवीं सदी में कवि जयशंकर प्रसाद एवं निराला के समानान्तर कथा साहित्य के क्षेत्र में रचनारत प्रेमचंद हिन्दी के ऐसे लेखक हैं, जो अपनी रचना-यात्रा के अंतिम चरण तक विकसनशील रहे। अपने रचनात्मक उपक्रम के अंतिम चरण में किसान वर्ग से भी उनका मोहभंग होता है। 'गोदान' में प्रो. मेहता किसानों के बारे में कहते हैं कि देश में कुछ भी हो, क्रांति ही क्यों न आ जाय, इनसे कोई मतलब नहीं। उनकी आत्मा जैसे चारों ओर से निराश होकर अपने अंदर टाँगें तोड़कर बैठ गयी है। इतना ही नहीं, 'गोदान' के होरी का भी मानना है कि “जब दूसरे के पाँवोंतले अपनी गर्दन दबी हुई है, तो उन पाँवों को सहलाने में ही कुशल है।”
वस्तुत: प्रेमचंद के समग्र कथा साहित्य में 'प्रेमाश्रम' के मनोहर एवं बलराज सदृश दो किसानों में वास्तविक विद्रोह की चिनगारियाँ दिखलाई पड़ती हैं। इस उपन्यास में गौसखाँ द्वारा बेदख़ली की धमकी दिये जाने पर मनोहर का जवाब है कि “बेदख़ली की धमकी दूसरों को दें, यहाँ हमारे खेतों के मेड़ पर कोई आया, तो उसके बाल-बच्चे उसके नाम को रोएँगे।” इसी प्रकार गाँव में हाकिम के आने पर जब देर से पहुँचे बलराज को दो सिपाही पकड़कर बाँधने की कोशिश करते हैं, तो उसका पिता मनोहर, “बाज की तरह टूटकर बलराज के पास पहुँचा और दोनों कांस्टेबिलों को धक्का देकर बोला छोड़ दो, नहीं तो अच्छा न होगा। इतना कहते-कहते उसकी ज़बान बंद हो गई और आँखों से आँसू निकल पड़े।” मनोहर का पुत्र बलराज भी पिता के समान ही विद्रोही है। पुरानी पीढ़ी के दूसरे किसानों द्वारा धीरज से सब कुछ बर्दाश्त करने की सलाह को ठुकराता हुआ वह कहता है कि “तुम तो दो-चार दिन के मेहमान हो, जो कुछ पड़ेगी वह तो हमारे ही सिर पड़ेगी। (यानी नौजवानों के सर) ज़मींदार कोई बादशाह नहीं है कि चाहे जितनी ज़बर्दस्ती करें और हम मुँह न खोले। इस ज़माने में तो बादशाहों को भी इतना अख़्तियार नहीं, ज़मींदार किस गिनती में हैं।” किंतु इन विद्रोही किसानों की मौज़ूदगी के बावज़ूद इस सच से मुँह मोड़ना असंभव है कि प्रेमचंद के ज़्यादातर किसान पात्र भीरु हैं। वे अपनी तक़दीर का रोना रोते हैं। भारतीय किसानों के वर्ग चरित्र का विश्लेषण करने पर प्रतीत होता है कि तदयुगीन किसान सामंती-पुरोहिती व्यवस्था से नाभिनालबद्ध था। एक ओर जहाँ वह सामंत वर्ग को तरज़ीह देता था, वहीं दूसरी ओर धर्म के क्षेत्र में वह पुरोहिती व्यवस्था का भी पोषक था तथा कुल मिलाकर वह धार्मिक एवं पौराणिक संस्कारों का वाहक था। 'सवा सेर गेहूं' कहानी का नायक अपने महाजन के खिलाफ केवल इस वजह से आवाज़ नहीं उठा पाता है, क्योंकि महाजन ब्रााहृण है, जो उसे शाप दे सकता है। 'गोदान' में भी ब्रााहृण महाजन पंडित दातादीन से होरी अपने संस्कारों के चलते भयभीत दिखाया गया है। प्रेमचंद ने लिखा है कि होरी के पेट में धर्म की क्रांति मची हुई थी। भोला के बैल खोलने पर होरी धर्म की बात करता है और ध्यान सिंह के यहाँ आरती में रखने के लिए पैसा न होने पर उसे बुरा लगता है। यह और कुछ नहीं, बल्कि किसान वर्ग में अन्तर्निहित संस्कारगत दुर्बलता है, जिसके चलते उसका क्रातिकारी होना एक हद तक असंभव है। किसान अपने पेशे के कारण स्वभावत: डरपोक होता है। मनोविज्ञान जैसे जटिल विषय को रोचक शैली में आसानी से समझाने में माहिर भारतीय लेखक एवं विचारक सुधीर कक्कड़ ने लिखा है कि, “अधिकांश भारतीयों के लिए समाज का मतलब अपने परिवार या समुदाय के जीवित सदस्यों से ही नहीं होता, बल्कि उसमें 'पितर' और 'पुरखे' भी शामिल हैं।” कहने की ज़रूरत नहीं कि किसान वर्ग में यह धारणा ज़्यादा बद्धमूल रूप में विद्यमान होती है। 'मुक्तिमार्ग' कहानी में एक किसान एवं गड़ेरिया के बीच झगड़े का वर्णन करते हुए किसान की बुनियादी स्वभावगत दुर्बलता की मीमांसा प्रेमचंद इन शब्दों में करते हैं : “केले को काटना भी उतना आसान नहीं, जितना किसान से बदला लेना आसान है। उसकी सारी कमाई खेतों या खलिहानों में रहती है। कितनी ही दैविक और भौतिक आपदाओं के बाद कहीं अनाज घर में आता है और जो कहीं इन आपदाओं के साथ विद्रोह ने भी संधि कर ली, तो बेचारा किसान कहीं का नहीं रहता।” 'कर्मभूमि' का पात्र प्रयाग कहता है, “खेती की झंझट में न पड़ना भैया! चाहे खेत में कुछ हो या न हो, लगान ज़रूर दो। कभी ओला-पाला, कभी सूखा बुरा। उस पर अगर खलिहान में आग लग गई या बैल मर गया, तो सब कुछ स्वाहा...।” वस्तुत: यह किसान के वर्ग चरित्र का विश्लेषण है, जो व्यावहारिकता की भूमि पर आधारित है। सच तो यह है कि किसान में निम्नपूँजीवादी रुझान बद्धमूल होता है। 'कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र' में मार्क्स ने भी किसानों को 'पेट्टीबुर्जुआ' वर्ग के अंतर्गत ही रखा है : “निम्न मध्यम वर्ग के लोग-छोटे कारखानेदार, दुकानदार, दस्तकार और किसान ये सब मध्यम वर्ग के अंश के रुप में अपने अस्तित्व को नष्ट होने से बचाने के लिए पूँजीपति वर्ग से लोहा लेते हैं। इसलिए वे क्रातिकारी नहीं, रुढ़ीवादी हैं। इतना ही नहीं, चूँकि वे इतिहास के चक्र को पीछे की ओर घुमाने की कोशिश करते हैं, इसलिए वे प्रतिगामी है।” अपने इसी घोषणा-पत्र में एक अन्य संदर्भ में मार्क्स-एंगेल्स ने लिखा है कि “पादरी और ज़मींदार का चोली-दामन का साथ रहा है।” भारत के संदर्भ में हम इसे पुरोहिती-सामंती गठजोड़ के रुप में देखते हैं, जो छोटे किसानों के जीवन मूल्यों को भी प्रभावित करता रहा हैं। स्मरणीय है कि “हर युग के प्रभुत्वशील विचार सदा उसके शासन वर्ग के ही विचार रहे हैं।” इसलिए छोटे किसानों के जीवन मूल्य भी प्राय: उन्हीं विश्वासों एवं रुढ़ियों से आक्रांत होते हैं, जिन्हें हम जमींदारों के यहाँ पाते हैं। यह सही है कि लेनिन ने 'जनतांत्रिक क्रांति के दो पैतरे' निबंध में किसानों को बुर्जुआ मानने के बावजूद रणनीति के दृष्टि से उन्हें क्रांति के लिए चलाये जा रहे विभिन्न अभियानों में साथ लेकर चलने की पेशकश की थी और माओ ने भी पूँजीवाद के विरुद्ध अपने संघर्ष में किसानो को सहयोगी बनाया था। पर यह भी आपदधर्म के रुप में लिया गया रणनीतिक निर्णय था। इन क्रातिकारी पुरोधाओं को यह भी भली-भाँति विदित था कि किसान और उजरती मजदूर में वर्ग-विरोघ का संबन्ध होता है तथा किसान की भूमिका प्राय: प्रतिक्रियावाद से परिचालित होती है। बावजूद इसके किसानों की प्रक्रिया से जोड़ना तदयुगीन रूस व चीन की सामाजार्थिक स्थिति के मद्देनज़र एक प्रकार की बाध्यता थी। यह बात जिस हद तक क्रांतिकारियों की दृष्टि में थी उसी हद तक शब्दकर्मियों के सामने भी। 'कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र' में उल्लेख किया गया है कि “फ्रांस जैसे देशों में, जहाँ आधी से कहीं अधिक आबादी किसानों की है , यह स्वाभाविक था कि जो लेखक पूँजीपति वर्ग के खिलाफ़ सर्वहारा वर्ग का साथ देते थे, वे पूँजीवादी शासन व्यवस्था की अपनी आलोचना में किसानों और निम्न पूँजीपतियों के मानदण्ड़ का प्रयोग करते और मजदूर वर्ग के समर्थन में इन्हीं मध्यम वर्गों के दृष्टिकोण से आवाज़ उठाते।” प्रकारान्तर से तदयुगीन भारतीय समाज में कथाकार प्रेमचंद भी यही रोल अदा कर रहे थे, पर उन्हें अच्छी तरह पता चल गया था कि किसानों से क्रांति की आशा नहीं की जा सकती। किसानों के बारे में माओत्से तुंग ने सही लिखा है कि “उनका रवैया ढुलमुल होता है। वे सोचते है कि क्रांति से उन्हें बहुत लाभ नहीं होगा।” इसलिए यदि प्रेमचन्द का मध्य-किसान होरी ज़मींदार के तलवे के नीचे धर्म और मर्यादा को बोझ ढोते हुए मर जाता है, तो यह अस्वाभाविक नहीं है। यही प्रेमचंद के वस्तुविन्यास का अन्तर्विरोध भी है। कथाकार जिसके पक्ष में खड़ा है, उसकी जड़ ही कमज़ोर है। इसलिए 'गोदान' की त्रासदी घटित होती है। प्रेमचंद की महानता इस बात में है कि उन्हों ने तदयुगीन भारतीय किसानों की विपन्नता की पीड़ा को अपनी कथाकृतियों में पिरो दिया। सच तो यह है कि कथाकार प्रेमचंद के वस्तुविन्यास का अन्तर्विरोध प्रकारान्तर से भारतीय समाजार्थिक संरचना का अन्तर्विरोध है।
दीगर बात यह कि प्रेमचंद के कथा साहित्य में आये ज़्यादातर किसान सवर्ण संस्कार से आक्रांत हैं। इस पुरोहिती संस्कार के विरुद्ध कथाकार प्रेमचंद के यहाँ पहली अभिव्यक्ति 'कर्मभूमि' में मिलती है। अमरकांत जब समाज में अस्पृश्य मानी जाने वाली जाति के एक सदस्य गूदड़ के साथ किसानों की लगान से मुक्ति का प्रस्ताव लेकर महंत जी से मिलने जाता है, तो “संध्या का समय था। महंत जी एक सोने की कुर्सी पर बैठे हुए थे, जिस पर मखमली गद्दा था। उनके इर्द-गिर्द भीड़ लगी हुई थी, जिसमें महिलाओं की संख्या ही अधिक थी। पुरुष दूसरी ओर बैठे थे। महंत जी पूरे छह फीट के विशालकाय, सौम्य पुरुष थे।...भक्त लोग जाकर उनके चरणों को आँखों से लगाते थे ...कहीं बड़ी-बड़ी कड़ाहियों में पूरियाँ-कचौड़ियाँ बन रही हैं, कहीं भाँति-भाँति की शाक-भाजी चढ़ी है, कहीं दूध उबल रहा है, कहीं मलाई निकाली जा रही है।” वहाँ अमरकांत एवं गूदड़ से कहा जाता है कि वे तीन घंटे बाद आयें, क्योंकि यह आरती का समय है। जब ठीक आरती के समय अन्दर दर्शन के लिए भीड़ उमड़ती है, तो गूदड़ कहता है : “अब देखो भगवान की आरती हो रही है और हम भीतर नहीं जा सकते। यहाँ के पंडों-पुजारियों के चरित्र सुनो, तो दाँतों तले उँगली दबा लो पर वे यहाँ के मालिक हैं और हम भीतर कदम नहीं रख सकते।” इस उपन्यास में विस्तार के साथ किसानों के भयानक दमन का जिक्र है, जिसके बाद शहर में सत्याग्रह होता है और अन्तत: उन दिनों अस्पृश्य माने जाने वाले लोगों का मंदिर में प्रवेश संभव होता है।
किन्तु, 'सवा सेर गेहूँ' कहानी का नायक शंकर या 'गोदान' का होरी पुरोहिती व्यवस्था के धर्म का अतिक्रमण नहीं कर पाता। इस व्यवस्था से आक्रांत होने के चलते शंकर जीवन-भर ऋण नहीं चुका पाता और अन्तत: बंधुआ मज़दूर बनकर रह जाता है तथा होरी तीस रुपये का कर्ज़ की व्याज सहित रक़म दो सौ रुपये चुकाते-चुकाते सर्वहारा हो जाता है। ये पात्र समाज के जिस तबके से आते हैं, उसके मद्देनज़र उनके विद्रोही होने की कल्पना असंभव है।
भारतीय समाज व्यवस्था और खास तौर से हिन्दू समाज का मूलाधार वर्ण व्यवस्था रही है, जो आज भी कमोबेश सत्य है। दूसरे शब्दों में हमारे समाज में पहले स्थान पर वर्ण है, फिर वर्ग। वर्ण की रचना में धन के बजाय धर्म का आधार ज्यादा महत्त्वपूर्ण होता है। डॉ. अम्बेडकर ने ठीक ही हिन्दू वर्ण -व्यवस्था की तुलना एक ऐसी बहुमंजिली गगनचुम्बी इमारत से की है, जिसमें नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे आवाजाही के लिए सीढ़ियाँ नदारद हैं। किन्तु, स्मरणीय है कि दलितों में जो अस्पृश्य तबका है, वह चातुवण्र्य व्यवस्था के बाहर है और वह पुरोहिती व्यवस्था का सर्वाधिक दंश झेलने के बावज़ूद उसकी रुढ़ियों, परम्पराओं एवं विश्वासों से आक्रांत नहीं है। भारतीय संदर्भ में यही तबका असली सर्वहारा है, जिसके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है। जिन मानसिक व भौतिक तापों को इस तबके के लोग सहस्त्राब्दियों से झेलते रहे, उसके मद्देनज़र क्रांति की वास्तविक ऊर्जा की संभावना केवल इन्हीं में हो सकती है। भारत के इस अस्पृश्य सर्वहारा के पास धन, धर्म, रुढ़ियों, विश्वासों आदि का अभाव है, इसलिए यह प्रदत्त सामाजिक व्यवस्था को झकझोर सकता है। प्रेमचंद के साहित्य में आये अस्पृश्य पात्र बड़े जोरदार एवं धारदार हैं। स्मरणीय है कि 'कर्मभूमि' के सारे किसान-पात्र रैदासी हैं। उनमें बूढ़ी सलोनी भी है, जिसे हाकिम जब लगान वसूल करने के दरम्यान हंटर से मारता है, तो वह सरेआम उसके मुँह पर थूक देती है। 'गोदान' में भी पंडित मातादीन के मुँह में हड्डी ठूँसने वाले पात्र अस्पृश्य कही जाने वाली जाति के ही हैं। प्रेमचंद के शब्दों में मातादीन “सिलिया का तन और मन दोनों लेकर भी बदले में कुछ न देना चाहता था।....उसे वह दिन याद आये-और अभी दो साल भी तो नहीं हुए -जब यही मातादीन उसके तलवे सहलाता था, जब उसने जनऊ हाथ में लेकर कहा था-सिलिया जब तक दम में दम है, तुझे ब्याहता की तरह रखूँगा ....।” मातादीन ने जब सेर-भर अनाज सहुआइन को गुलाबी रंग के एवज में दे देने पर सिलिया को अपमानित किया, तो “उसी वक़्त उसकी माँ, बाप, दोनों भाई और कई अन्य चमारों ने न जाने किधर से आकर मातादीन को घेर लिया।” सिलिया की माँ उससे कहती है कि “जब ब्रााहृण के साथ रहती है, तो ब्रााहृण की तरह रह। सारी बिरादरी की नाक कटवाकर भी चमारिन ही बनना था, तो यहाँ क्या घी का लोंदा लेने आयी थी।” सिलिया का साठ वर्षीय पिता हरखू झिंगुरी सिंह से कहता है कि “झगड़ा कुछ नहीं है ठाकुर हम आज या तो मातादीन को चमार बनाके छोड़ेंगे या उनका और अपना रकत एक कर देंगे।...तुम हमें ब्रााहृण नहीं बना सकते, मुदा हम तुम्हें चमार बना सकते हैं।” प्रेमचंद लिखते हैं कि कैसे हरखू के ललकारने पर “दो चमारों ने लपककर मातादीन के हाथ पकड़ लिये, तीसरे ने झपटकर उसका जनेऊ तोड़ डाला और इसके पहले कि मातादीन और झिंगुरी सिंह अपनी-अपनी लाठी संभाल सके, दो चमारों ने मातादीन के मुँह में एक बड़ी-सी हड्डी का टुकड़ा डाल दिया। मातादीन ने दाँत जकड़ लिये, फिर भी वह घिनौनी वस्तु उनके ओठों में तो लग ही गयी। उन्हें मतली हुई और मुँह आप-से-आप खुल गया और हड्डी कण्ठ तक जा पहुँची। इतने में खलिहान के सारे आदमी जमा हो गये, पर आश्चर्य यह कि कोई धर्म के लुटेरों से मुजाहिम न हुआ।”
स्मरणीय है कि सज्जाद ज़हीर उर्फ बन्ने भाई को लिखे अपने एक पत्र में प्रेमचंद ने बनारस को 'रूढ़िवाद की राजधानी' करार दिया था और जीवन-भर वे भारतीय समाज में व्याप्त रूढ़िवाद के विरुद्ध खड्गहस्त रहे।
'कफन' कहानी के नायक भी अस्पृश्य तबके के हैं और वे जिस धर्म का मखौल उड़ाते हैं, वह ब्रााहृण धर्म है। स्पष्ट ही इस कहानी का नायक कोई किसान कदापि नहीं हो सकता था। इस प्रकार अस्पृश्य की स्वाधीन चेतना का वर्गीय आधार उनके व्यावसायिक वैशिष्ट¬ के चलते किसानों की तुलना में सामंती जीवन मूल्यों से हटकर है। दलित समुदाय के लोग अपने पेशे की वजह से किसानों की अपेक्षा स्वतंत्र होते हैं। वे कभी भूख से नहीं मरते और समाज के ऊपरी तबके को हरदम इनकी ज़रुरत तो होती है। इसलिए अनेक संदर्भों में सामंत वर्ग के लोग इन पर निर्भर रहते हैं। मध्यकाल के संदर्भ में इतिहासकार कुँवर मुहम्म्द अशरफ ने लिखा है कि कुछ मायने में चमार और घरेलू नौकर-बढ़ई, सुनार, लोहार, कुम्हार, धोबी और भंगी इत्यादि अपेक्षाकृत सम्पन्न रहते थे, क्योंकि उन पर पशुओं और अनेक पुरोहितों का बोझ नहीं रहता था। उनका तिरस्कृत एकाकीपन उन्हें बाहरी हस्तक्षेप से एक प्रकार से सुरक्षा प्रदान करता था। संभवत: इसी कारण मध्यकाल में दलित समुदाय के बीच से कबीर, रैदास आदि विद्रोही कवि पैदा हो सके, जो हमारे ज़माने में दलित साहित्य के प्रेरणारुाोत माने जाते हैं।
कथाकार प्रेमचंद को अपने समय के भारतीय समाज की वर्णीय एवं वर्गीय संरचना की गहरी समझ थी। वे जानते थे कि सवर्ण एक हद तक अवर्णों पर निर्भर हैं। 'दूध का दाम' कहानी में उन्होंने लिखा है कि 'अब बड़े-बड़े शहरों में दाइयाँ, नर्सें और महिला डॉक्टर सभी हैं, पर देहातों में जच्चेखाने पर भंगियों का ही प्रभुत्व होता है।' यह अकस्मिक नहीं कि प्रेमचंद के कथा साहित्य का सर्वाधिक विद्रोही नायक 'रंगभूमि' का सूरदास भी दलित ही है, जो एक ताक़तवर पूँजीपति जान सेवक के छक्के छुड़ा देता है। वह बड़े जीवट का आदमी है। प्रेमचंद के शब्दों में उसके सबसे बड़ी खासियत यह है कि “अन्याय देखकर उससे न रहा जाता था, अनीति उसके लिए असह्र थी।” सन् 1923 में एक चिट्ठी में प्रेमचंद ने लिखा था कि “खेल के मैदान में वही शक्स तारीफ़ का मुस्तहक़ होता है, जो जीत से फूलता नहीं, हार से रोता नहीं, जीते तब भी खेलता है, हारे तब भी खेलता है।...हमारा काम तो सिर्फ़ खेलना है, ख़ूब दिल लगाकर खेलना, ख़ूब जी तोड़कर खेलना, अपने को हार से इस तरह बचाना, गोया हम कोनैन (इहलोक-परलोक) की दौलत ख़ो बैठेंगे, लेकिन हारने के बाद, पटख़नी खाने के बाद, गर्द झाड़कर खड़े हो जाना चाहिए और फिर ख़म ठोककर हरीफ़ से कहना चाहिए कि एक बार और।”
प्रेमचंद का यही जीवन दर्शन 'रंगभूमि' के सूरदास के चरित्र में पैबस्त है। जॉन सेवक उसकी पुश्तैनी ज़मीन खरीदकर या ज़बर्दस्ती हड़पकर वहाँ सिगरेट का कारखाना खड़ा करना चाहता है। वह सूरदास से धमकी भरे लहज़े में कहता है कि “अब व्यापार का राज्य है, और जो इस राज्य को स्वीकार न करे, उसको तारों का निशाना मारने वाली तोपें हैं।” किन्तु सूरदास उसकी एक नहीं सुनता। इलाके के लोगों में उसका बड़ा आदर है, जिन्हें साथ लेकर वह अंत-अंत तक जॉन सेवक से जूझता है। अंग्रेज़ी राज की पुलिस की गोली से घायल सूरदास कहता है- “हम हारे तो क्या, मैदान से भागे तो नहीं, रोये तो नहीं, धाँधली तो नहीं की। फिर खेलेंगे, ज़रा दम ले लेने दो, हार-हारकर तुम्हीं से खेलना सीखेंगे और एक-न-एक दिन हमारी जीत होगी, अवश्य होगी।” इतना ही नहीं, इस अंधे भिखारी नायक को अपनी हार की वजह का भी पूरा अंदाजा है। उसको एहसास है कि 'खिलाड़ियों को मिलाकर नहीं खेलने' के चलते ही अंग्रेज़ी राज के प्रतिनिधि क्लार्क एवं पूँजीपति जॉन सेवक से जनता हार गयी है।
झोपड़ी उजाड़ और जला दिये जाने के बाद मिठुआ से सूरदास की जो बातचीत होती है, उससे उसके जीवट का सही पता चलता है:
“मठुआ-दादा, अब हम रहेंगे कहाँ?
सूरदा-दूसरा घर बनायेंगे।
मिठुआ-और जो कोई फिर आग लगा दे?
सूरदास-तो फिर बनायेंगे।
मिठुआ-और फिर लगा दे?
सूरदास-तो हम फिर बनायेंगे।
मिठुआ-और जो कोई हज़ार बार लगा दे?
सूरदास-तो हम हज़ार बार बनायेंगे।
........................................
मिठुआ-और जो कोई सौ लाख बार लगा दे?
सूरदास-तो हम भी सौ लाख बार बनायेंगे।”
कहना न होगा कि यह एक दलित की जीवनी शक्ति का प्रकटीकरण है, जिसके माध्यम से भारत का सारा इतिहास बोल रहा है। इस देश को नजाने कितनी बार उजाड़ने, लूटने की कोशिशें हुर्इं, फिर भी यह देश बार-बार उठकर खड़ा होता रहा है।
'रंगभूमि' के सूरदास की जिजीविषा 'गोदान' के होरी में नहीं है। प्रेमचंद ने दिखाया है कि किसान तरह-तरह की यंत्रणा झेलने के बावज़ूद उस क़दर लड़ नहीं सकता जैसे कि एक दलित लड़ता है, विद्रोह करता है। असलियत तो यह है कि होरी जाने-अनजाने उसी व्यवस्था का समर्थक या हिस्सा है, जो उसे चबा जाने के लिए आतुर रहती है। इसके विपरीत घीसू-माधव कहते हैं कि जो धर्म जीवितों को भूखा मारे और मरे हुए को नया कफ़न दे, वह अमानवीय और परित्याज्य है। दलित वर्ग की इसी क्रांतिकारी भूमिका के मद्देनज़र प्रेमचंद उनसे रोटी और बेटी का सम्बन्ध क़ायम करने की पहल करते हैं, क्योंकि इसके बग़ैर वर्ण-व्यवस्था नष्ट नहीं हो सकती है। 'दूध का दाम' कहानी एवं 'कर्मभूमि' उपन्यास इस दृष्टि से उनकी उल्लेखनीय रचनाएँ हैं। 'सौभाग्य के कोड़े' कहानी का अस्पृश्य नायक संगीतज्ञ बन जाने के बाद एक ब्रााहृण कन्या से विवाह करता है। वस्तुत: प्रेमचंद का कथा साहित्य दलित और शोषित वर्ग का पहला दिवास्वप्न है, जिसमें सवर्णों के धर्म के पाखंड को बेनक़ाब किया गया है। उनकी कृतियों में ब्रााहृणवाद के प्रति तीव्र घृणा को कलात्मक अभिव्यक्ति मिली है। 'सद्गति' ऐसी ही कलात्मक कहानी है, जिस पर सत्यजीत रे ने प्रसिद्ध फ़िल्म बनाई है। दूसरे शब्दों में कहे, तो अपने संस्कार एवं अनुभव के बीच संभावित द्वंद्व के बावजूद कथाकार प्रेमचंद का मुख्य निशाना वह पुरोहिती-सामंती गठजोड़ है, जिसे ध्वस्त किये बग़ैर हमारे देश व समाज का कायाकल्प असंभव है और इस दिशा में कोई भी ठोस व सार्थक पहलक़दमी किसान के बजाय केवल वही वर्ग कर सकता है, जो वर्णेतर है, दलित है।
विचित्र बात है कि ‘वर्णव्यवस्था, ऊँच-नीच के बीच भेदभाव और धार्मिक पाखण्ड की जड़ खोदने’ को ‘राष्ट्रीयता के पहली शर्त’ मानने वाले प्रेमचंद की एक सौ पच्चीसवीं जयंती के मौक़े पर उनके कथा साहित्य और ख़ास तौर से 'रंगभूमि' को लेकर 'दलित साहित्य अकादमी' के झंडे तले विरोध प्रदर्शन हुए और यह कहते हुए गहरी आपत्तियाँ दर्ज करायी गई हैं कि “प्रेमचंद इन शूद्रों के जातीय नाम लेकर इनकी ज़ुबान भी गंदी बताते हैं और गंदगी में लिप्त मानते हैं। वे मानते हैं कि शूद्र में गंदी आदतें होती हैं, वे गंदा काम करते हैं, यानी शूद्र गंदा काम अपनी आदत के कारण करता है।” प्रेमचंद के कथा साहित्य के पुनर्पाठ की माँग करते हुए मुद्राराक्षस ने सवाल उठाया कि “क्या स्थिति बनती, अगर कफ़न के पैसे से दारू और पूड़ी खाने-पीने वाले शूद्र नहीं ब्रााहृण बाप-बेटे होते? यह स्थिति प्रेमचंद को स्वीकार्य नहीं हो सकती थी। बहू के कफ़न की दारू वे ब्रााहृण बाप को नहीं पिला सकते थे, क्योकि प्रेमचंद की मानसिकता के अनुसार हिन्दू दो तरह के रहे हैं- शुद्ध पवित्र सवर्ण और अशुद्ध गंदे शूद्र।” कहना न होगा कि आलोचना के समाजशास्त्र पर पुस्तक लिखने वाले लेखक की कथाकार प्रेमचंद को लेकर यह टिप्पणी साहित्य के बारे में यांत्रिक ही नहीं, बल्कि एक नकारात्मक, सतही एवं फूहड़ समाजशास्त्रीय समझ का परिचायक है, जिसकी ओर इशारा करते हुए कमला प्रसाद ने सही लिखा है कि 'रंगभूमि' की प्रतियाँ जलाने, राष्ट्रपति से पुस्तक पर प्रतिबंध लगाने और प्रकाशकों को गिरफ़्तार करने की माँग से आक्रोश की अभिव्यक्ति के बजाय आक्रोश की राजनीति प्रकट हुई है। राजनीति के सूत्र स्वयं दलितों के हाथ में नहीं हैं।’
अब मुद्राराक्षस को कौन समझाए कि 'कफ़न' एक लिहाज से दुनिया की एक ऐसी अनन्य कहानी है जिसमें प्रेमचंद ने अमानवीयता की हदों की ओर धकेले जा रहे सर्वहारा वर्ग की तीन पीढ़ियों की नियति को दर्शाया है। घीसू पहली पीढ़ी का नुमाइंदा है, जिसने किसी ठाकुर की बारात में अपनी जिंदगी में एक बार भरपेट सुस्वादु भोजन पाया था। दूसरी पीढ़ी का प्रतिनिधि है माधव, जो ऐसे भोजन की केवल कल्पना ही कर सकता था और उसे पहली बार भरपेट भोजन पत्नी के कफन के पैसे से ही मिल पाता है। बुधिया के गर्भ में पल रही संतान सर्वहारा वर्ग की तीसरी पीढ़ी है, जो बग़ैर दुनिया देखे अकाल कवलित हो जाती है। वस्तुत: प्रेमचंद अपनी कृतियों में जातिसूचक शब्दों के प्रयोग से उन जातियों का अपमान नहीं करते, वरन् यथार्थ का चित्र दिखाकर पुरोहिती-सामंती अमानुषिक गठजोड़ के प्रति पाठक के भीतर घृणा उपजाते हैं। इतना ही नहीं, वे यथासमय सामाजिक परिवर्तन के लिए हथियार उठाना भी नाजायज़ नहीं मानते। उनके अंतिम और अधूरे उपन्यास 'मंगलसूत्र' का देवकुमार इसी रचना-दृष्टि से निर्मित चरित्र है। 'मंगलसूत्र' में उनका स्पष्ट कथन है: “इन पूँजीपतियों और ठेकेदारों से ग़रीबों के हितों की रक्षा की बात सोचना वैसा ही है जैसे कुत्तों से मांस की रखवाली करवाना। एक न एक दिन हमें उनके विरुद्ध सशस्त्र गोलबंद होना ही पड़ेगा।”
पूरनचन्द्र जोशी ने सही लिखा है कि “प्रेमचंद के उपन्यास और उनकी कहानियों का महत्त्व केवल औपनिवेशिक और अद्र्ध-सामन्ती हिन्दुस्तान के सामाजिक यथार्थ को प्रतिबिम्बित-भर कर देने पर ही नहीं टिका हुआ है, बल्कि यह महत्त्व प्रेमचंद के उपन्यासों के क्रातिकारी चरित्र के कारण है, जिसे उन्होंने आलोचनात्मक यथार्थवाद के परिपक्व दौर से गुज़रकर अपनी साहित्यिक रचनाओं में हासिल किया था। इसी महत्तव के कारण उन्हें हिन्दुस्तान में सामाजिक आलोचना के रूप में कथा और उपन्यास-साहित्य के जन्मदाता का दर्जा मिला है। औपनिवेशिक और अद्र्ध-सामन्ती समाज-व्यवस्था के प्रति उपन्यास के माध्यम से उभरने वाली प्रेमचंद की प्रखर आलोचना-दृष्टि ने ही उन्हें सिर्फ़ हिन्दी साहित्य का ही नहीं, बल्कि समूचे भारतीय साहित्य का, और साहित्य का ही नहीं, बल्कि भारतीय इतिहास का एक युगनिर्माता व्यक्तित्व बनाया।”