प्रेमचंद के पत्र: तिथि निर्धारण की समस्या / प्रदीप जैन

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पत्र किसी भी व्यक्ति के जीवन-संघर्ष, मानसिक उथल-पुथल, मानसिकता, वैचारिक प्रतिबद्धता आदि उन सभी तत्त्वों के जीवन्त दस्तावेज होते हैं जो उसकी मानसिक संरचना को समझने तथा उसकी जीवन-गाथा को लिपिबद्ध करने में सहायक होते हैं। किसी लेखक के सम्बन्ध में तो पत्र और भी महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं क्योंकि अपनी साहित्यिक रचनाओं में तो वह शब्दों का जादूगर होने के कारण अपनी मानसिकता की परतें नहीं उघड़ने देता, परन्तु अनौपचारिक अथवा दूसरे शब्दों में कहें तो उन्मुक्त भाव से लिखे जाने के कारण उसके लिखे हुए पत्रों में उसकी मानसिक संरचना का नग्न यथार्थ प्रत्यक्ष होकर उभरता है। और, प्रेमचंद जैसे अत्यन्त अव्यवस्थित जीवन जीने वाले महान लेखक के सन्दर्भों में बात की जाय तो उनके पत्र इसलिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं कि उनके जीवन की उलझी-बिखरी कड़ियों को शृंखलाबद्ध रूप देकर उनकी जीवनी लिखने के साथ-साथ उनकी विचार-यात्रा को यथार्थ रूप में प्रस्तुत करने के लिए जो आधार-सामग्री सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, वह उनके लिखे हुए पत्र ही हैं।

प्रेमचंद ने अपने जीवन-काल में हजारों पत्र लिखे होंगे, लेकिन उनके जो पत्र काल का ग्रास बनने से बचे रह गए और जो सम्प्रति उपलब्ध हैं, उनमें सर्वाधिक पत्र वे हैं जो उन्होंने अपने काल की लोकप्रिय उर्दू मासिक पत्रिका ‘जमाना’ के यशस्वी सम्पादक मुंशी दयानारायण निगम को लिखे थे। यों तो मुंशी दयानारायण निगम प्रेमचंद से दो वर्ष छोटे थे लेकिन प्रेमचंद उनको सदा बड़े भाई जैसा सम्मान देते रहे। इन दोनों विभूतियों के पारस्परिक सम्बन्धों को परिभाषित करना तो अत्यन्त दुरूह कार्य है, लेकिन प्रेमचंद के इस आदर भाव का कारण यह प्रतीत होता है कि प्रेमचंद को साहित्यिक संसार में पहचान दिलाने का महनीय कार्य निगम साहब ने उनको ‘जमाना’ में निरन्तर प्रकाशित करके ही सम्पादित किया था, और उस काल की पत्रिकाओं में तो यहाँ तक प्रकाशित हुआ कि प्रेमचंद को प्रेमचंद बनाने का श्रेय यदि किसी को है तो मुंशी दयानारायण निगम को ही है। ध्यातव्य यह भी है कि नवाबराय के लेखकीय नाम से लिखने वाले धनपतराय श्रीवास्तव ने प्रेमचंद का वह लेखकीय नाम भी मुंशी दयानारायण निगम के सुझाव से ही अंगीकृत किया था जिसकी छाया में उनका वास्तविक तथा अन्य लेखकीय नाम गुमनामी के अंधेरों में खोकर रह गए। मुंशी प्रेमचंद और मुंशी दयानारायण निगम के घनिष्ठ आत्मीय सम्बन्ध ही निगम साहब को सम्बोधित प्रेमचंद के पत्रों को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण बना देते हैं क्योंकि इन पत्रों में प्रेमचंद ने जहाँ सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं पर चर्चा की है वहीं अपनी घरेलू तथा आर्थिक समस्याओं की चर्चा करने में भी संकोच नहीं किया।

प्रेमचंद के मानस को समझने के लिए निगम साहब के नाम लिखे उनके पत्रों के महत्त्व का अनुमान इस तथ्य से लगा पाना सम्भव है कि जब 8 अक्तूबर 1936 को उनके देहावसान के उपरान्त ‘जमाना’ का प्रेमचंद विशेषांक दिसम्बर 1937 में प्रकाशित होकर साहित्य-संसार के हाथ में आया तो उसमें जमाना-सम्पादक मुंशी दयानारायण निगम के कई लेख प्रकाशित हुए, जिनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण लेख है - ‘प्रेमचंद के खयालात’। इस सुदीर्घ लेख में निगम साहब ने प्रेमचंद की विचार-यात्रा का तथ्यपरक दिग्दर्शन कराया था। उल्लेखनीय है कि इस लेख में प्रेमचंद की विचार-यात्रा को स्पष्ट करने के लिए निगम साहब ने प्रेमचंद के उन पत्रों में से 50 से अधिक पत्रों का सार्थक प्रयोग किया जो उन्होंने समय-समय पर निगम साहब को लिखे थे और जो उन्होंने बड़े जतन से संभालकर रख छोड़े थे। प्रेमचंद के देहावसान के अनन्तर मुंशी दयानारायण निगम ने प्रेमचंद के वे सभी पत्र जिनका उपयोग वे अपने उपर्युक्त लेख में कर चुके थे, मदन गोपाल को सौंप दिए और शेष पत्र निगम साहब के देहावसान (1942) के अनन्तर किस प्रकार प्रेमचंद के छोटे बेटे अमृत राय को निगम साहब के टूटे हुए मकान के मलबे में से हस्तगत हुए, इसकी सम्पूर्ण कथा अमृत राय ने ‘चिट्ठी पत्री’ (1962) की भूमिका में प्रस्तुत कर दी थी। ध्यातव्य है कि ‘चिट्ठी पत्री’ में अमृत राय और मदन गोपाल - दोनों के संग्रह में उपलब्ध पत्र प्रकाशित किए गए थे, जबकि मदन गोपाल के सम्पादन में उर्दू में प्रकाशित ‘प्रेमचंद के खुतूत’ (1968) में केवल मदन गोपाल के संग्रह के पत्र ही प्रकाशित हुए थे। सम्भवतः निगम साहब के उपर्युक्त उल्लिखित लेख से प्रेरित होकर ही मदन गोपाल प्रेमचंद के पत्रों के संग्रह की दिशा में प्रवृत्त ही नहीं हुए, वरन उन्होंने भी प्रेमचंद के पत्रों का सार्थक उपयोग करके ही अंग्रेजी में प्रेमचंद की संक्षिप्त जीवनी लिखकर 1949 में प्रकाशित कराई थी। इसके अनन्तर उन्होंने अंग्रेजी में ‘प्रेमचंद : लिटरेरी बायोग्राफी’ (1964), ‘कलम का मजदूर प्रेमचंद’ (1965) और उर्दू में ‘कलम का मजदूर प्रेमचंद’ (1966) शीर्षर्कों से प्रेमचंद की जीवनियाँ प्रकाशित कराईं, जिनमें उन्होंने प्रेमचंद के पत्रों का व्यापक उपयोग किया।

प्रेमचंद के छोटे बेटे अमृत राय ने 1962 में ‘प्रेमचंद : कलम का सिपाही’ शीर्षक से प्रेमचंद की जीवनी प्रकाशित कराई थी, जिसके सम्बन्ध में डॉ. वीर भारत तलवार लिखते हैं -

"1962 में जब यह किताब पहली बार छपी थी, तब यह हिन्दी साहित्य में लिखी गई पहली महत्त्वपूर्ण जीवनी थी। इससे पहले हिन्दी साहित्य में इतने व्यवस्थित ढंग से कोई जीवनी नहीं लिखी गई। यूरोपीय साहित्य में जीवनी विधा का विकास काफी हो चुका था। हिन्दी में इसकी कोई महत्त्वपूर्ण परम्परा न थी। अमृत राय ने प्रेमचंद की जीवनी लिखकर एक नए ढंग की परम्परा की नींव डाली। अच्छी और मजबूत नींव।" (प्रेमचंद की जीवनी का सवाल; पृ. 200)

स्पष्ट है कि आज हिन्दी साहित्य में डॉ. रामविलास शर्मा की ‘निराला की साहित्य साधना’, भाग-1 और विष्णु प्रभाकर की ‘आवारा मसीहा’ जैसी उत्कृष्ट जीवनियों का जो भव्य भवन दृष्टिगोचर होता है, उसकी ‘अच्छी और मजबूत नींव’ अमृत राय-कृत ‘प्रेमचंद : कलम का सिपाही’ ही है। और इस मजबूत नींव में अमृत राय ने जिस-जिस सामग्री का उपयोग किया, वह उन्हीं के शब्दों में -

"बहुत बार लेखक की अपनी डायरियों और जर्नलों से जीवनीकार को बहुत मदद मिल जाया करती है। प्रेमचंद को डायरी या जर्नल लिखने की आदत न थी। इस तरह जीवनी की सामग्री का एक बड़ा कोष एक सिरे से खत्म हो गया।

दूसरा कोष पत्रों का होता है। वह भी बहुत कुछ नष्ट हो गया, क्योंकि पत्रों को संभालकर रखने की आदत न इधर मुंशीजी को थी न उधर दूसरों को। तो भी जो कुछ चिट्ठियाँ भाग्यवश बची रह गयीं, जिनमें सबसे बड़ा खजाना ‘जमाना’ के सम्पादक मुंशी दयानारायण निगम को लिखी हुई चिट्ठियों का है, उनका मैंने पूरा-पूरा इस्तेमाल किया है।

चिट्ठियों के अलावा, मुझे सबसे ज्यादा मदद लोगों के संस्मरणों से मिली है - संस्मरण जो पुस्तक रूप में प्रकाशित हैं या पत्र-पत्रिकाओं में बिखरे हुए हैं या आकाशवाणी से जब-तब प्रसारित किये गये।" (भूमिका; प्रेमचंद ; कलम का सिपाही, पृ. 12)

और इस जीवनी-लेखन में प्रेमचंद द्वारा निगम साहब के नाम लिखे गए पत्र अमृत राय के लिए, या यूँ कहें कि इस जीवनी-पुस्तक के लिए कितने महत्त्वपूर्ण हैं, यह भी अमृत राय के ही शब्दों में -

"जीवनी लिखने में इन चिट्ठियों से मैंने कितनी मदद ली है, यह मेरे कहने की चीज नहीं है, पढ़नेवाले खुद देखेंगे। मैं इतना ही कह सकता हूँ कि इस खजाने के बगैर अब मैं जीवनी की कल्पना भी नहीं कर सकता। लिखी वह शायद तब भी जाती लेकिन लँगड़ी होती, बेजान होती।" (भूमिका; प्रेमचंद ; कलम का सिपाही, पृ. 4-5)

स्पष्ट है कि प्रेमचंद के जीवन सम्बन्धी सर्वाधिक तथ्य अमृत राय ने उनके पत्रों से ही संगृहीत किये थे। लेकिन साथ ही अमृत राय प्रेमचंद के पत्र-लेखन के सम्बन्ध में एक विचित्र तथ्य को अनावृत्त करते हुए और उनके पत्रों की सम्पादन प्रक्रिया पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं -

"अकसर चिट्ठियों पर पूरी-पूरी तारीख न डालने की मुंशीजी की आदत हमारे लिए काफी उलझन का कारण बनी - महीना है तो तारीख नहीं, तारीख है तो महीना नहीं, महीना और तारीख हैं तो सन् नहीं, और उन चिट्ठियों का तो खैर जिक्र ही फिजूल है जिनमें यह तीनों ही गायब हैं।

कार्डों में तो यह मुश्किल डाक की मुहर से आसान हो गयी। कोशिश करने पर लगभग सभी डाक की मुहरें पढ़ने में आ गयीं और जहाँ से चिट्ठी चली वहाँ की डाक-मुहर को मैंने चिट्ठी की तारीख मान लिया। लेकिन लिफाफे की चिट्ठियों में यह सहारा भी न रहा। वहाँ मेरे सामने एक ही रास्ता था; उन चिट्ठियों को वैसे का वैसा, बिल्कुल बिना तारीख का जाने देता। लेकिन वह शायद पढ़नेवाले की नजर से और भी बुरा होता, इसलिए मैंने बड़ी-बड़ी मुश्किलों, चिट्ठी में कही गयी बातों का आगा-पीछा, ताल-मेल मिलाकर अनुमान से उनकी तिथि का संकेत देने का निश्चय किया। इसमें मैंने अपनी ओर से पूरी सावधानी बरतने की कोशिश की है, लेकिन उसमें गलती की संभावना बराबर रहती है।" (भूमिका; चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 5-6)

अमृत राय के उपर्युक्त शब्दों से स्पष्ट है कि प्रेमचंद पत्रों पर सामान्यतः पूरी तिथि नहीं लिखते थे और ‘चिट्ठी पत्री’ में प्रेमचंद के पत्रों पर जो तिथियाँ प्रकाशित की गई हैं, अधिकांशतः अनुमानतः ही प्रकाशित की गई हैं। परन्तु आश्चर्य की बात है कि इस संकलन में मात्र कुछ पत्रों पर ही तिथियाँ स्पष्ट रूप से ‘अनुमानतः’ उल्लिखित हैं, जिससे यह भ्रम होता है कि ऐसे पत्रों के अतिरिक्त शेष पत्रों पर जो तिथियाँ प्रकाशित हैं, वे प्रामाणिक तिथियाँ हैं। खेद का विषय है कि प्रेमचंद के किसी परवर्ती अध्येता अथवा स्वनामधन्य ‘प्रेमचंद विशेषज्ञ’ ने अमृत राय के उपर्युक्त शब्दों का संज्ञान लेने का तनिक भी कष्ट नहीं किया और प्रेमचंद के पत्रों की तिथियों को ‘चिट्ठी में कही गयी बातों का आगा-पीछा, ताल-मेल मिलाकर’ उनकी तिथि प्रामाणिक रूप से निर्धारित करने का किंचित मात्र भी प्रयास नहीं किया और तिथियों की मात्र पुनरावृत्ति तक ही सीमित बने रहे। यहाँ तक होता तो भी गनीमत थी, इन स्वनामधन्य प्रेमंचद विशेषज्ञों ने इससे आगे बढ़कर यह अनोखा कार्य भी कर दिखाया कि एक ही पत्र को मात्र तिथि परिवर्तन करके प्रेमचंद के ‘अप्राप्य’ पत्र के रूप में प्रस्तुत कर दिया और पीछे चलकर एक ही पत्र को दो भिन्न-भिन्न तिथियों में लिखे दो पत्रों के रूप में संकलित करके भ्रामक वातावरण की सृष्टि में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान भी कर दिया। प्रेमचंद के लिखे पत्रों को इस ‘विशेषज्ञता’ के साथ प्रकाशित करके उनके जीवन के सम्बन्ध में जो तथ्य संगृहीत होंगे, उनके आधार पर लिखी गई उनकी जीवनी को प्रामाणिक कैसे कहा जा सकेगा?

जीवनी-लेखक के लिए तथ्यों के औचित्य-अनौचित्य के सम्बन्ध में डॉ. वीर भारत तलवार का निम्नांकित कथन भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है -

"सभी तथ्यों का महत्त्व एक जैसा नहीं होता और न सभी तथ्य किसी की जीवनी लिखने के लिए हमेशा सार्थक होते हैं।... लेकिन जीवनी किसी के जीवन का कोश नहीं होती, वह एक कलात्मक रचना होती है। यह सही है कि दूसरी विधाओं के मुकाबले जीवनी में तथ्यों की भूमिका कहीं अधिक होती है। जीवनीकार उन तथ्यों से बँधा हुआ होता है। इसके बावजूद जैसे इतिहासकार के लिए हर तथ्य समान रूप से महत्त्वपूर्ण नहीं होता, उसी तरह जीवनीकार के लिए भी नहीं होता। प्रश्न सिर्फ तथ्यों के होने का नहीं, उनकी सार्थकता का भी है। यह जरा भी जरूरी नहीं कि किसी की जीवनी में उसके जीवन से संबंधित हर एक तथ्य दर्ज हो। जीवनीकार अपनी आलोचनात्मक दृष्टि, विषय के संदर्भ और रचना के प्रयोजन के अनुसार उन तथ्यों में से चुनाव करेगा।... इतिहासकार या जीवनीकार के लिए भी कभी-कभी यह बात कही जाती है कि कोई तथ्य, चाहे जितना भी छोटा या मामूली क्यों न हो, वह महत्त्वपूर्ण है। यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि वह छोटा या मामूली तथ्य अपने आप में महत्त्वपूर्ण नहीं होता। उसे महत्त्व तब मिलता है जब उसे एक खास संदर्भ में रख दिया जाता है।" (प्रेमचंद की जीवनी का सवाल; सामना, पृ. 203)

डॉ. वीर भारत तलवार का यह कथन तो किसी सीमा तक उचित है कि तथ्यों की ससन्दर्भ प्रस्तुति ही किसी जीवनी को जीवनी बनाती है। लेकिन क्या यह समझकर तथ्य-संग्रह की उपेक्षा कर दी जानी चाहिए? क्या नवीन तथ्यों के उद्घाटन के लिए शोध को विराम दे देना चाहिए? यदि ऐसा होता तो शरत चन्द्र चटर्जी की जीवनी ‘आवारा मसीहा’ लिखने के लिए तथ्य-संग्रह हेतु विष्णु प्रभाकर को 14 वर्ष तक इधर-उधर भटकने की क्या आवश्यकता होती और अमृत राय को ‘प्रेमचंद : कलम का सिपाही’ लिखने में पाँच वर्ष क्यों लगते?

यहाँ मूल प्रश्न यही है कि जिन तथ्यों के आधार पर प्रेमचंद की व्यवस्थित जीवनी लिखी गई, जिनके आधार पर उनकी वैचारिकता को परिभाषित किया गया, जिनके आधार पर उनकी मानसिक संरचना की काल-सापेक्ष समीक्षा की गई, क्या उन तथ्यों को प्रामाणिक आधार देने का कुछ प्रयास भी किया गया है अथवा नहीं?

प्रेमचंद की जीवनी हो अथवा विचार-यात्रा, इनका मूलाधार प्रमुखतः प्रेमचंद के पत्र ही हैं और अमृत राय के पूर्व उद्धृत उल्लेख से स्पष्ट है कि प्रेमचंद के पत्रों पर जो तिथियाँ प्रकाशित हैं, वे अनुमानतः ही प्रकाशित हैं। यही नहीं, इस बात का कोई संकेत प्राप्त नहीं होता कि अनुमानित तिथि का संकेत करने का आधार क्या है। स्वयं अमृत राय भी इन अनुमानित तिथियों की प्रामाणिकता के सम्बन्ध में आश्वस्त नहीं थे अन्यथा उन्हें यह लिखने की क्या आवश्यकता थी - ‘इसमें मैंने अपनी ओर से पूरी सावधानी बरतने की कोशिश की है, लेकिन उसमें गलती की संभावना बराबर रहती है।’ प्रेमंचद के पत्रों के तिथि निर्धारण में उपस्थित त्रुटियों से अनेकानेक विसंगतियाँ उभरती हैं, न केवल उनके जीवन की घटनाओं के सम्बन्ध में वरन् उनकी रचनाओं के काल-निर्धारण में भी। मात्र एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा - गाल्सवर्दी के अंग्रेजी नाटक ‘जस्टिस’ का प्रेमचंद-कृत हिन्दी अनुवाद ‘न्याय’ शीर्षक से हिन्दुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद ने प्रकाशित किया था। हिन्दुस्तानी एकेडेमी ने इस नाटक के उर्दू अनुवाद का कार्य मुंशी दयानारायण निगम को सौंपा था, जो प्रेमचंद के देहावसान के उपरान्त अनुवादक के रूप में मुंशी दयानारायण निगम के नामोल्लेख सहित प्रकाशित हुआ। इस नाटक के हिन्दी और उर्दू अनुवादों के सम्बन्ध में जो उल्लेख प्रेमचंद के पत्रों में प्राप्त होते हैं, वे पत्रों की तिथियाँ गड़बड़ा जाने के कारण इतने भ्रामक वातावरण की सृष्टि करते हैं कि विद्वानों ने इस नाटक के उर्दू अनुवाद को भी प्रेमचंद-कृत मानकर प्रेमचंद साहित्य में सम्मिलित कर दिया है। इस प्रकार की भ्रान्तियाँ प्रेमचंद साहित्य को शुद्ध बनाए रखने में बाधक होने के साथ ही शोधकर्ता एवं जीवनीकार को भ्रामक परिणामों तक पहुँचा देती हैं।

पत्र एवं पत्र-लेखक के पारस्परिक सम्बन्धों पर प्रकाश डालते हुए मौ. असलम परवेज लिखते हैं -

"शख्सियत को अगर इन्सान की जहनी सरगुजश्त (मानसिक घटनाओं) का सबसे बड़ा मजहर (प्रकट होने का स्थान) माना जाय तो खुतूत (पत्र का बहुवचन) किसी भी फनकार की शख्सियत की तामीर व तशकील (निर्माण) को समझने का सबसे बेहतर और मोतबर (विश्वसनीय) वसीला (माध्यम) ही नहीं, बजाए खुद शख्सियत का बल्यूप्रिन्ट कहे जा सकते हैं क्योंकि कोई भी फनकार अपनी सीरत (प्रकृति, स्वभाव) व सवानेह (जीवन-चरित) को इस तरह बेकमोकास्त (यथावत्) कहीं और पेश नहीं करता जैसा वह अपने दोस्तों और अजीजों (आत्मीयों) को लिखे गए खुतूत में करता है और इसीलिए खुतूत के हवाले से किसी भी फनकार की शख्सियत, उसके जहनी वुकूओं (घटनाओं) व जहनी आवेजिशों (संघर्षों) को समझना निहायत अहम, दिलचस्प और निस्बतन (तुलनात्मक रूप से) कम गुमराहकुन (भ्रामक) होता है।" (मौ. असलम परवेज : मुज्तरब रूह का तन्हा सफर; आजकल (उर्दू), मासिक, नई दिल्ली, दिसम्बर 2010, पृ. 3)

स्पष्ट है कि किसी भी रचनाकार के व्यक्तित्व, उसकी मानसिक हलचल और मानसिक संघर्ष को उसके लिखे पत्रों के सन्दर्भों से समझना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यदि प्रेमचंद के विशेष सन्दर्भ में देखें तो जब उनके पत्रों की तिथियाँ ही प्रामाणिक नहीं हैं, तब ऐसे त्रुटिपूर्ण पत्रों के सन्दर्भ से उनके व्यक्तित्व, उनकी मानसिक हलचल और उनके मानसिक संघर्ष को यथार्थ रूप में कैसे समझ पाना सम्भव होगा? अतः आगामी पंक्तियों में प्रेमचंद के कुछ पत्रों के प्रामाणिक तिथि निर्धारण का प्रयास प्रस्तुत है। उल्लेखनीय है कि प्रेमचंद के सम्प्रति प्राप्त पत्रों में मुंशी दयानारायण निगम के नाम लिखे गए पत्र न केवल संख्या में सर्वाधिक हैं वरन् कथ्य की दृष्टि से भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। अतः विस्तार मय से प्रस्तुत अध्ययन को मुंशी दयानारायण निगम के नाम लिखे गए पत्रों की परिधि तक ही सीमित रखा जा रहा है।

प्रेमचंद के पत्रों को पहली बार अमृत राय ने 1962 में ‘चिट्ठी पत्री’ शीर्षक से दो भागों में प्रकाशित कराया था। इस संकलन के प्रथम भाग में केवल मुंशी दयानारायण निगम के नाम लिखे गए पत्र संकलित थे और द्वितीय भाग में अन्य अनेक महानुभावों के नाम लिखे गए पत्र संकलित थे। इस संकलन के सम्बन्ध में रोचक तथ्य यह भी है है कि इसे लेकर मदन गोपाल ने अमृत राय के विरुद्ध अदालती कार्यवाही की थी जिसके परिणामस्वरूप अमृत राय ने मदनगोपाल से समझौता करके इस संकलन की अनबिकी प्रतियों पर सह सम्पादक के रूप में मदन गोपाल का नाम भी छपवाया था। इसके उपरान्त 1968 में मदन गोपाल ने उर्दू में ‘प्रेमचंद के खुतूत’ शीर्षक संकलन प्रकाशित कराया, जिसमें प्रेमचंद के कुछ ऐसे पत्र तो प्रकाशित थे जो ‘चिट्ठी पत्री’ में संकलित नहीं हुए थे लेकिन ‘चिट्ठी पत्री’ में प्रकाशित अनेक पत्र इस संकलन में सम्मिलित नहीं थे। इसके अनन्तर 1988 में डॉ. कमल किशोर गोयनका के सम्पादन में दो भागों में प्रकाशित ‘प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य’ शीर्षक संकलन के द्वितीय भाग में भी प्रेमचंद के कुछ अप्राप्य पत्र प्रकाशित हुए थे, लेकिन इस संकलन में कुछ ऐसे पत्र भी सम्मिलित हैं जो इससे इतर तिथि-उल्लेख के साथ ‘चिट्ठी पत्री’ में पूर्व प्रकाशित हैं। इसके पश्चात् 2001 में मदन गोपाल ने पूर्व प्रकाशित तीनों संकलनों में प्रकाशित पत्रों को उर्दू में प्रकाशित ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’ के भाग-17 में प्रकाशित कराया। तत्पश्चात् प्रेमचंद के पत्रों के दो और संकलन प्रकाश में आए - एक तो डॉ. जाबिर हुसैन के प्रधान संपादकत्व में प्रकाशित ‘प्रेमचंद रचनावली’ के भाग-19 के रूप में (द्वितीय संस्करण 2006) और द्वितीय डॉ. कमल किशोर गोयनका के सम्पादन में प्रकाशित ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (2007)। लेकिन ये दोनों ही संकलन पूर्व प्रकाशित संकलनों में प्रकाशित किए गए पत्रों की अनुकृति मात्र हैं और इनमें भी स्वाभाविक रूप से पूर्व संकलनों में आगत त्रुटियाँ विद्यमान हैं। ध्यातव्य है कि आगामी पंक्तियों में मुंशी दयानारायण निगम को लिखे गए प्रेमचंद के जिन पत्रों पर विचार किया जा रहा है, उनके मूल उल्लेख ‘चिट्ठी पत्री’ भाग-1 एवं ‘प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य’, भाग-2 से ही उद्धृत किए गए हैं।

1. पत्रांक-3 : कथित रूप से जून 1905 में लिखा गया (पृ. 3-5)

मदन गोपाल ने ‘प्रेमचंद के खुतूत’ (पृ. 32-35) और ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 3-5) में इस पत्र पर मई 1906 की तिथि प्रकाशित कराई है, जबकि डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 12-13) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 129-30) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए जून 1905 में लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है।

मुम्बई के प्रसिद्ध प्रेमचंद विशेषज्ञ गोपाल कृष्ण माणकटाला ने अपनी उर्दू पुस्तक ‘तौकीते प्रेमचंद’ (2002) में पृ. 41-42 पर इस पत्र के सम्बन्ध में विचार करते हुए इसको मई अथवा जून 1906 में लिखा गया प्रमाणित किया था। उनकी इस पुस्तक का हिन्दी रूप जब 2003 में ‘प्रेमचंद दर्पण’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ तो इस पत्र के सम्बन्ध में विस्तार से विचार करते हुए उन्होंने लिखा -

"मई/जून 1906 की छुट्टियों की झुलसती गर्मियाँ प्रेमचंद ने लमही में काटीं। निगम साहब को अपने एक पत्र में लिखते हैं :

‘बिरादरम (मेरे भाई) आप बीती किससे कहूँ। जब्त (सहन) किये-किये कोफ्त (मनस्ताप) हो रही है। ज्यों-त्यों करके एक अशरा (पखवाड़ा) काटा था कि खानती तरद्दुद (गृह-कलह) का ताँता बँधा। औरतों ने एक-दूसरे को जली कटी सुनाईं। हमारी मखदूमा (धर्म पत्नी) ने जल भुनकर गले में फाँसी लगाई। माँ ने आधी रात को भाँपा। दौड़ीं, उसको रिहा किया (छुड़ाया) सुबह हुई, मैंने खबर पाई, झल्लाया, लानत-मलामत (लांछन) की। बीवी साहिबा ने अब जिद पकड़ी कि यहाँ न रहूँगी, मेके जाऊँगी। मेरे पास रुपया न था, नाचार (विवश होकर) खेत का मुनाफा (लाभ) वसूल किया, उनकी रुखसती की तैयारी की। वह रो-धोकर चली गईं। मैंने पहुँचाना भी पसन्द न किया। आज उनको गए आठ रोज हुए। न खत है न पत्र। मैं उनसे पहले ही खुश न था। अब तो सूरत से बेजार (विमुख) हूँ। गालेबन (संभवतया) अब की जुदाई दाइमी (सदैव की) साबित (सिद्ध) हो। खुदा करे ऐसा ही हो...’

प्रेमचंद के इस पत्र से यह भी पता चलता है कि उन्होंने ‘जमाना’ का खरीदार बनाने के प्रयत्न भी किये थे। पत्र में आगे चलकर वह लिखते हैं :

‘... जून का पर्चा (अंक) निकलते ही दस जिल्दें (प्रतियाँ) मए चार पाँच अप्रैल की कापी रवाना कीजिये। इसके पहुँचते ही ईं जानिब (इधर से) रवाना होंगे। फहरिस्त आपके पास पहुँची होगी। शायद इत्मिनान के काबिल भी हो। जी तो चाहता था कि पचास खरीदारों के नाम यकबारगी (एक ही बार में) लिखता मगर फिलहाल सोल्हा पर ही कनाअत (संतोष) की, उनके नाम पर्चे भेज दीजिये... सफर गाजीपुर, आजमगढ़, बलिया, गोरखपुर और बनारस का करूँगा। बनारस में पन्द्रह बीस खरीदार हो जावेंगे...’

निगम साहब ने भी उपर्युक्त पत्र से धोखा खाया है और इसे 1905 ही का पत्र माना है। ‘जमाना’ के प्रेमचंद विशेषांक (फरवरी 1938) में ‘प्रेमचंद के खयालात’ शीर्षक से (पृ. 94) लिखते हैं :

‘उनकी बीवी बहुत बद-सलीका (फूहड़) थीं जिसकी वजह से उनकी जिन्दगी तल्ख (कडुवी) हो गई थी... इत्तिफाक से इस बारे में एक खत महफूज (सुरक्षित) रह गया है जिस पर कोई तारीख नहीं है लेकिन यकीनन (विश्वास के साथ) यह 1905 का लिखा हुआ मालूम होता है।’

निगम साहब के घोषित इस वर्ष से भ्रम में पड़कर, अमृत राय ने प्रेमचंद का दूसरा विवाह फाल्गुन 1906 में करा दिया :

‘आखिर 1906 इसवी के फाल्गुन (फरवरी/मार्च) में शिवरात्रि के रोज शादी हो गई। नवाब के साथ बरात में उनके भाई महताब को छोड़कर कोई रिश्तेदार न था। दो-चार दोस्त और हमजोली जिनमें दयानारायण निगम खास थे।’ (कलम का सिपाही, हिन्दी, पृष्ठ 75)।

प्रेमचंद के इस पत्र के अंतिम निम्नांकित भाग की निगम साहब और अमृत राय दोनों ही अनदेखी कर गए :

‘अधबीच में छोड़ने वाले और होंगे। यहाँ तो जब एक बार बाँह पकड़ ली तो जिन्दगी पार लगा दी। नोबत राय (नजर) न आएँ - क्या जहाँ मुर्गा न होगा वहाँ सुबह न होगी। एडिटोरियल मैं कर लूँगा... जान गाढ़े में न डालो, हिम्मते मर्दां मददे-खुदा। हिम्मते एडिटराँ मददे-दोस्ताँ। हाँ यह एलान करना जरूरी होगा कि नवाब राय स्टाफ में दाखिल हो गए हैं...’

अतएव जून 1906 के ‘जमाना’ के आवरण के पीछे एक बड़ा एलान ‘आइन्दा दो माह से’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था जिसमें ‘जमाना’ में नए रोचक कालम बनाने के विवरण के साथ अंत में यह भी लिखा है :

‘एडिटोरियल स्टाफ में अलावा दीगर (अन्य) काबिल अफराद (योग्य व्यक्तियों) के मकबूल मजमूननिगार (लेखक) नवाबराय मुस्तकिल तौर पर शामिल कर लिए गए हैं।’

उपर्युक्त तथ्यों को देखते हुए यह बात सिद्ध हो जाती है कि यह पत्र मई (अथवा जून) 1906 का ही हो सकता है।

गोपाल कृष्ण माणकटाला की उपर्युक्त विवेचना से यह पत्र मई/जून 1906 में लिखा जाना प्रमाणित हो जाता है और 7 7. प्रेमचंद दर्पण, पृ. 36-37 इस पत्र पर मदन गोपाल द्वारा प्रकाशित कराई गई तिथि शुद्ध प्रमाणित होती है।

आश्चर्य की बात है कि जिस पत्र को उर्दू में सन् 2002 में और हिन्दी में सन् 2003 में मई/जून 1906 का लिखा हुआ प्रमाणित कर दिया गया था, उसे 2006 और 2007 में भी जून 1905 में लिखा गया उल्लिखित करके प्रकाशित कराया गया!

2. पत्रांक-6 : कथित रूप से अनुमानतः सन् में लिखा गया (पृ. 5-6)

मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 7), डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 15) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 131) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए अनुमानतः 1908 में लिखा गया बताकर ही प्रकाशित कराया है।

इस पत्र में प्रेमचंद ने निगम साहब को लिखा था -

"आज बाहर से आया हूँ। और यह कापियाँ देखकर रवाना करता हूँ।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 5)

प्रेमचंद ने अपने 4 मार्च 1914 के पत्र में मुंशी दयानारायण निगम को लिखा था -

"मुझे कापियाँ 24 तारीख को मिलीं और मैंने उन्हें देखकर 25 को रवाना कर दिया। मालूम नहीं पहुँची या नहीं।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 28)

उपर्युक्त दोनों पत्रांशों में ‘कापियों’ का उल्लेख इनके समकालीन होने की ओर इंगित करता है। प्रेमचंद के उर्दू कहानी संकलन ‘प्रेम पचीसी’, भाग-1 का प्रकाशन निगम साहब के जमाना प्रेस से नवम्बर 1914 में हुआ था। उस काल की मुद्रण प्रक्रिया में उर्दू पुस्तकों की किताबत हाथ से हुआ करती थी, जो कि छपाई से पर्याप्त समय पूर्व ही आरम्भ हो जाया करती थी। अतः स्पष्ट है कि प्रेमचंद इन पत्रों में जिन ‘कापियों’ की चर्चा कर रहे हैं, वे ‘प्रेम पचीसी’, भाग-1 के किताबत किए हुए प्रूफ की ‘कापियाँ’ ही होंगी, जो निगम साहब समय-समय पर प्रेमचंद को संशोधनार्थ प्रेषित करते रहते थे और प्रेमचंद जिनका प्रूफ संशोधन करके लौटाते रहते थे। इस आधार पर यह अनुमान करना कुछ असंगत नहीं होगा कि यह विवेच्य पत्र 1914 में ही लिखा गया था।

इसी पत्र में प्रेमचंद ने निगम साहब को एक पुस्तक की प्राप्ति सूचना देते हुए लिखा था -

"शायर का अंजाम मिला! शुक्रिया।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 5-6)

प्रेमचंद ने निगम साहब से दो पुस्तकें भेज देने का अनुरोध करते हुए अपने 4 मार्च 1914 के पत्र में लिखा था -

"मैंने आपसे ‘एक शायर का अंजाम’ और बेगम साहिबा भोपाल की नयी तसनीफ माँगी है। इन दोनों किताबों को जरूर भेजिये। इश्तियाक है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 29)

प्रेमचंद ने बेगम साहिबा भोपाल की लिखी हुई कौन-सी पुस्तक भेज देने का अनुरोध निगम साहब से किया था, यह तो कुछ ज्ञात नहीं होता, लेकिन निगम साहब ने ‘शायर का अंजाम’ शीर्षक जो पुस्तक प्रेमचंद को प्रेषित की थी और जिसकी प्राप्ति सूचना प्रेमचंद ने अपने इस विवेच्य पत्र द्वारा निगम साहब को दी थी, उसके सम्बन्ध में बी.एस. केशवन ने निम्नांकित विवरण उपलब्ध कराया है –

"Niyaz Fatehpuri (pseud.) (Niyaz Muhammad Khan) 1887-1966 : Shair Ka Anjam, Hyderabad (Dn.), Abdul Haq Academy, As. 12; 1913, 88p. 18 cm."

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि नियाज फतेहपुरी की लिखी हुई पुस्तक ‘शायर का अंजाम’ पहली बार 1913 में प्रकाशित हुई थी। अतः 1913 में प्रकाशित हुई पुस्तक की प्राप्ति सूचना 1908 में देने का कोई औचित्य नहीं है। साथ ही यह भी स्पष्ट हो जाता है कि प्रेमचंद ने अपने 4 मार्च 1914 के पत्र द्वारा निगम साहब से जिस पुस्तक को भेज देने का अनुरोध किया था, वह उन्होंने तत्काल ही प्रेषित कर दी थी और उसकी प्राप्ति सूचना देते हुए प्रेमचंद ने यह विवेच्य पत्र लिखा था।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र मार्च 1914 में लिखा जाना प्रमाणित होता है।

इस पत्र के सम्बन्ध में एक रोचक तथ्य यह है कि डॉ. कमल किशोर गोयनका ने इसके पाठ में कतिपय परिवर्तन करने के अनन्तर इसको ‘तिथि मुद्रित नहीं’ के तिथि-उल्लेख के साथ अन्य व्यक्तियों द्वारा प्रेमचंद को लिखे गए पत्रों में सम्मिलित करके ‘प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य’, भाग-2 में पृष्ठ संख्या 215 पर प्रकाशित करा दिया है। आश्चर्य की बात यह है कि इस संकलन में प्रकाशित पत्र पर पत्र लेखक के रूप में स्पष्टतः धनपतराय का नाम प्रकाशित है, फिर भी यह प्रेमचंद के नाम लिखे गए पत्रों में सम्मिलित है! यह भी कुछ बुद्धिगम्य नहीं है कि इस पर तिथि के ‘मुद्रित’ न होने का उल्लेख क्यों किया गया, जबकि पत्रों पर तिथि लिखी जाती है, मुद्रित नहीं की जाती। मदन गोपाल ने भी इस पत्र को ‘तारीख नामालूम’ के उल्लेख के साथ ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 में पृष्ठ संख्या 67 पर पत्रांक 59 के रूप में मुंशी दयानारायण निगम के नाम लिखे गए प्रेमचंद के एक भिन्न पत्र के रूप में भी प्रकाशित करा दिया है। स्पष्ट हो जाना चाहिए कि ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 में पत्रांक 8 (पृ. 7) और पत्रांक 59 (पृ. 67) दो भिन्न-भिन्न पत्र न होकर एक ही पत्र के दो किंचित भिन्न पाठ हैं, जिनके पाठ को मूल पत्र से मिलाकर शुद्ध रूप दिया जाना आवश्यक है।

3. पत्रांक-7 : कथित रूप से 20 नवम्बर 1909 को लिखा गया (पृ. 6)

मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 8), डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 15-16) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 132) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए 20 नवम्बर 1909 को लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है।

इस पत्र में प्रेमचंद ने लिखा था -

"रंजीत सिंह की भी जरूरत है। जल्द भेज दीजिए।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 6)

प्रेमचंद का एक लेख ‘रणजीत सिंह’ शीर्षक से ‘जमाना’ के मई 1911 के अंक में प्रकाशित हुआ था। उपर्युक्त शब्दों से स्पष्ट है कि प्रेमचंद अपने इसी लेख की मुद्रित प्रति भेज देने का अनुरोध निगम साहब से कर रहे हैं। अतः यह पत्र मई 1911 के पश्चात् ही लिखा गया था, इसमें सन्देह नहीं।

इस पत्र में ही प्रेमचंद ने निगम साहब से अनुरोध करते हुए लिखा था -

"अगर आप लैला और मजनूं की मसनवी मुझे दे दें तो लैला पर एक अच्छा मजमून लिखूँ।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 6)

प्रेमचंद का यह पत्र पाकर निगम साहब ने उनको लैला-मजनूं की मसनवी प्रेषित कर दी होगी। फारसी भाषा में लिखी हुई लैला मजनूं की मसनवी पर आधारित प्रेमचंद का एक समीक्षात्मक लेख ‘जमाना’ के फरवरी 1913 के अंक में ‘कैस’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। अतः यह विवेच्य पत्र फरवरी 1913 से ही पूर्व लिखा गया था।

इसी पत्र में प्रेमचंद ने आगे चलकर लिखा -

"वीकली के मुताल्लिक मेरा खयाल अब भी है, मगर मेरा खयाल है कि मैं मआश की फिक्र से आजाद होकर ज्यादा काम कर सकता हूँ। मेरे अखराजात रोज ब रोज बढ़ते ही जाते हैं। अब कानपुर और महोबा, दो जगह का खर्च संभालना पड़ता है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 6)

कानपुर से हमीरपुर स्थानान्तरण होने पर प्रेमचंद ने 24 जून 1909 को नये स्थान पर कार्यभार ग्रहण किया था, अतः यह पत्र इस तिथि के उपरान्त ही लिखा गया। लेकिन उपर्युक्त शब्दों में प्रेमचंद जिस ‘वीकली’ में सहयोग की चर्चा कर रहे हैं, वह मुंशी दयानारायण निगम के सम्पादन में कानपुर से प्रकाशित होने वाला उर्दू साप्ताहिक ‘आजाद’ ही था। निगम साहब के इस नये साप्ताहिक पत्र की प्रथम प्रकाशन-पूर्व सूचना ‘जमाना’ के अगस्त 1911 के अंक में प्रकाशित हो गई थी लेकिन इसका प्रवेशांक 12 दिसम्बर 1912 को दिल्ली दरबार की प्रथम वर्षगांठ के दिन ही प्रकाशित हो पाया था। ध्यातव्य है कि ‘आजाद’ की प्रथम प्रकाशन-पूर्व सूचना में निगम साहब ने स्पष्ट रूप से लिखा था -

"जमाना के मशहूर मजमूननिगार और यगाना रोजगार इंशापर्दाज प्रेमचंद साहब ने भी, जिनकी दिलआवेज फसानानिगारी की तमाम मुल्क में धूम मची हुई है, इसके स्टाफ में मुस्तकिल तौर पर शामिल होने का वादा किया है। वे ज्वाइन्ट असिस्टैंट एडीटर होंगे।" (आजाद (हफ्तरोजा) कानपुर; दयानारायण निगम और रिसाला जमाना व अखबार आजाद, पृ. 281 पर अनुकृति प्रकाशित)

उपर्युक्त कथन की प्रेमचंद के उपर्युक्त उद्धृत शब्दों के आलोक में समीक्षा करने से स्पष्ट है कि इस विवेच्य पत्र में प्रेमचंद इस नये साप्ताहिक पत्र के सम्पादन में सहयोग न कर पाने के कारणों की चर्चा कर रहे हैं। अतः इस आधार पर यह विवेच्य पत्र 12 दिसम्बर 1912 से पूर्व ही लिखा गया था।

इसी पत्र में प्रेमचंद ने ‘जमाना’ के दो अंकों की चर्चा करते हुए लिखा -

"आपके लिखने से मालूम होता है कि नवम्बर और दिसम्बर दोनों नंबर अलकत कर दिये।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 6)

मुंशी दयानारायण निगम ने ‘जमाना’ के नवम्बर और दिसम्बर 1912 के दो अंकों को एक संयुक्त अंक के रूप में प्रकाशित किया था। प्रेमचंद के उपर्युक्त शब्दों से स्पष्ट है कि यह लिखने तक उनके हाथ में ‘जमाना’ का वह संयुक्तांक नहीं आया था जो दिसम्बर 1912 में प्रकाशित हुआ था। अतः यह पत्र निश्चित रूप से नवम्बर 1912 में उस समय लिखा गया जब निगम साहब के पत्र से प्रेमचंद को इस संयुक्तांक के प्रकाशित किए जाने का संकेत प्राप्त हुआ।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र 20 नवम्बर 1912 को लिखा जाना प्रमाणित होता है।

4. पत्रांक-10 : कथित रूप से अनुमानतः सन् 11-12 में महोबा से लिखा गया (पृ. 9-11)

मदन गोपाल ने ‘प्रेमंचद के खुतूत’ (पृ. 190-92) और ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 344-46) में इस पत्र पर दिसम्बर 1929 की तिथि प्रकाशित कराई है। आश्चर्यजनक रूप से मदन गोपाल ने यही पत्र ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 18-19, पत्रांक 15) में ‘गालिबन सन् 1911-12 (महोबा में लिखा गया)’ के उल्लेख के साथ भी प्रकाशित कराया है। एक ही पत्र को पत्रांक 15 और पत्रांक 391 दो भिन्न-भिन्न पत्रों के रूप में प्रकाशित कराकर मदन गोपाल ने इस पत्र के सम्बन्ध में भ्रम व्याप्त कर दिया है। डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 19-21) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 136-38) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए अनुमानतः सन् 11-12 में महोबे से लिखा गया बताकर ही प्रकाशित कराया है।

खेद का विषय है कि प्रेमचंद के पत्रों को प्रकाशित कराते समय अमृत राय का अनुकरण करने के फेर में ये सभी विद्वान् ‘चिट्ठी पत्री’, भाग-1 की भूमिका भी नहीं पढ़ सके, जिसमें अमृत राय ने स्पष्ट रूप से इस पत्र की तिथि संशोधित करते हुए लिखा था -

"मैंने बड़ी-बड़ी मुशकिलों से, चिट्ठी में कही गई बातों का आगा-पीछा, ताल-मेल मिलाकर अनुमान से उनकी तिथि का संकेत देने का निश्चय किया।... लेकिन उसमें गलती की संभावना बराबर रहती है, जैसे कि इस संग्रह की दसवीं चिट्ठी में। उसको मैंने अनुमान से सन् 11-12 का बतलाया है, पर वह अप्रैल सन् 29 के आसपास की होनी चाहिए क्योंकि ‘जमाना’ का वह आतिश नम्बर जिसको लेकर चिट्ठी लिखी गई है अप्रैल 1929 में निकला था, जिसकी जानकारी मुझे बाद को हुई।" (भूमिका; चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 6)

परन्तु इस पत्र का तिथि निर्धारण करने में अमृत राय भी गच्चा खा गए और इसमें लिखे गए प्रेमचंद के निम्नांकित शब्दों पर ध्यान नहीं दे सके -

"रिसाला ‘जमाना’ का माह नवम्बर का पर्चा देखकर मेरे दिल में चन्द खयालात पैदा हुए जिन्हें अर्ज कर देना मैं अपना फर्ज समझता हूँ।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 9)

उपर्युक्त शब्दों से स्पष्ट है कि ‘जमाना’ के नवम्बर माह के अंक पर टिप्पणी करते हुए ही प्रेमचंद ने यह विवेच्य पत्र लिखा था। अमृत राय ने इसकी पुष्टि किए बिना ही कि क्या ‘जमाना’ का अप्रैल 1929 का अंक वास्तव में ‘आतिश नम्बर’ था, उपर्युक्त उद्धृत उल्लेख कर दिया है। वास्तविकता यह है कि ‘जमाना’ का अप्रैल 1929 का अंक उस समय के प्रसिद्ध शायर आतिश लखनवी पर केन्द्रित नहीं था, जैसा कि इस अंक की निम्नांकित अनुक्रमणिका से स्पष्ट है -

"फहरिस्त मजामीन

तसावीर -1. नक्शा जंगे सोम पानीपत, 2. नक्शा मैदान पानीपत

1. पानीपत का खूनी मैदान

अज सैयद जालिब देहलवी, एडीटर ‘हिम्मत’, लखनऊ...177

2. नोट और रायें...248"

स्पष्ट है कि ‘जमाना’ का अप्रैल 1929 का अंक आतिश लखनवी पर केन्द्रित न होकर पानीपत के तृतीय युद्ध पर ही केन्द्रित था। इसके प्रतिकूल ‘जमाना’ के नवम्बर 1929 के अंक में मिर्जा जाफर अली खान असर लखनवी का एक लम्बा लेख ‘आतिश के कलाम पर तबसिरा’ शीर्षक से पृष्ठ संख्या 241 से 291 तक प्रकाशित हुआ था। और, इसी सुदीर्घ लेख को देखकर प्रतिक्रिया करते हुए प्रेमचंद ने इस विवेच्य पत्र में निगम साहब को लिखा था -

"मुझे यह देखकर अफसोस हुआ कि रिसाला ‘जमाना’ का करीब-करीब एक पूरा नम्बर महज आतिश के कलाम के तबसरे की नजर हो गया।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 9-10)

ध्यातव्य है कि ‘जमाना’ के इस ‘आतिश नम्बर’ का ठीक-ठीक प्रकाशन-काल बताने के साथ ही इस विवेच्य पत्र का सटीक तिथि निर्धारण करते हुए अमृत राय लिखते हैं -

"जब ‘जमाना’ ने... नवंबर 1929 में अपना ‘आतिश’ नम्बर निकाला तो मुंशी जी से नहीं रहा गया... और उन्होंने एक बहुत तेज शिकायती खत अपने दोस्त मुंशी दयानरायन निगम को लिखा।" (प्रेमचंद : कलम का सिपाही, पृ. 58)

यह आश्चर्यजनक है कि 1962 में प्रकाशित दोनों पुस्तकों ‘चिट्ठी पत्री’ और ‘प्रेमचंद : कलम का सिपाही’ में अमृत राय ‘जमाना’ के इस अंक के प्रकाशन के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न उल्लेख करते हैं। लेकिन यह अत्यन्त खेदजनक है कि जब अमृत राय ने उपर्युक्त उद्धृत शब्दों में इस पत्र का ठीक-ठीक तिथि निर्धारण कर दिया था, तब भी परवर्ती विद्वानों ने इसका संज्ञान लेने की कुछ आवश्यकता अनुभव नहीं की और इस पत्र को सन् 11-12 में लिखा गया बताकर ही प्रकाशित कराते रहे।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र नवम्बर 1929 में लिखा जाना प्रमाणित होता है। क्योंकि सन् 1929 में प्रेमचंद लखनऊ में नवलकिशोर प्रेस के ‘माधुरी’ कार्यालय में सेवारत थे, अतः यह पत्र महोबा से नहीं, वरन् लखनऊ से ही लिखा गया था।

5 . पत्रांक-11 : कथित रूप से अनुमानतः सन् 11-12 में महोबे से लिखा गया (पृ. 11-14)

मदन गोपाल ने ‘प्रेमचंद के खुतूत’ (पृ. 42-46) और ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 14-16) में इस पत्र पर अगस्त 1912 की तिथि प्रकाशित कराई है। डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 21-23) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 138-40) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए अनुमानतः सन् 11-12 में लिखा गया बताकर ही प्रकाशित कराया है।

इस पत्र में प्रेमचंद ने ‘जमाना’ के जुलाई अंक के सम्बन्ध में निगम साहब को लिखा था -

"जमाना’ जुलाई मिला। तबीयत खुश हुई। अबकी अच्छा नम्बर है।... जौक पर आधा पर्चा भरना मैं अच्छा नहीं समझता। हमें जौक का रोना रोने से क्या मिला जाता है। जौक के नाम पर रोने वाले बहुत हैं।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 11-12)

ध्यातव्य है कि ‘जमाना’ के जुलाई 1911 के अंक में पृष्ठ संख्या 1 से 11 तक अलिफ.जे. (एडीटर जमाना के उर्दू के आद्याक्षर) लखनवी’ के लेखकीय नामोल्लेख के साथ मुंशी दयानारायण निगम का एक लेख ‘जौक देहलवी’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। इस तथ्य के आलोक में यह अनुमान करना कुछ असंगत नहीं होगा कि यह विवेच्य पत्र जुलाई 1911 में लिखा गया था।

इसी पत्र में प्रेमचंद ने आगे चलकर लिखा -

"हफ्तेवार का नोटिस आपने निकाल ही दिया। जरा तबीयत तो अच्छी होने देते। देखिये क्या कामयाबी होती है। आपका हफ्तावार कामरेड के नमूने का होना चाहिये।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 12)

उपर्युक्त पत्रांश में जिस ‘हफ्तेवार’ की चर्चा प्रेमचंद कर रहे हैं, वह कानपुर से मुंशी दयानारायण निगम के सम्पादन में प्रकाशित होने वाला उर्दू साप्ताहिक ‘आजाद’ था, जिसका प्रथम प्रकाशन-पूर्व ‘नोटिस’ ‘जमाना’ के अगस्त 1911 के अंक में प्रकाशित हुआ था। इस प्रथम प्रकाशन-पूर्व सूचना में निगम साहब लिखते हैं -

"जमाना के मशहूर मजमूननिगार और यगाना रोजगार इंशापर्दाज प्रेमचंद साहब ने भी, जिनकी दिलआवेज फसानानिगारी की तमाम मुल्क में धूम मची हुई है, इसके स्टाफ में मुस्तकिल तौर पर शामिल होने का वादा किया है। वे ज्वाइन्ट असिस्टैंट एडीटर होंगे।" (आजाद (हफ्तरोजा) कानपुर; दयानारायण निगम और रिसाला जमाना व अखबार आजाद, पृ. 281 पर अनुकृति प्रकाशित)

उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि मुंशी दयानारायण निगम ने ‘जमाना’ के अगस्त 1911 के अंक में सूचना प्रकाशित करके अपने प्रस्तावित उर्दू साप्ताहिक ‘आजाद’ के सम्पादक मण्डल में प्रेमचंद को भी सम्मिलित कर लिया था। अतः इसमें कुछ सन्देह नहीं रहता कि ‘जमाना’ के अगस्त 1911 के अंक में प्रकाशित यह सूचना पढ़ते ही प्रेमचंद ने अपना यह विवेच्य पत्र निगम साहब को लिख भेजा था।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र अगस्त 1911 में लिखा जाना प्रामाणित होता है।

6. पत्रांक-12 : कथित रूप से अनुमानतः सन् 11-12 में महोबे से लिखा गया (पृ. 14-15)

मदन गोपाल ने ‘प्रेमचंद के खुतूत’ (पृ. 46-47) और ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 16-17) में इस पत्र पर 30 अक्तूबर 1912 की तिथि प्रकाशित कराई है, जबकि डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 23-24) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 140-41) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए अनुमानतः सन् 11-12 में लिखा गया बताकर ही प्रकाशित कराया है।

इस पत्र में प्रेमचंद ने प्रसिद्ध उर्दू विद्वान् मौलाना शिबली नोमानी के एक लेख की प्रशंसा करते हुए लिखा -

"मुसलिम गजट’ में शिबली का मजमून ‘मुसलमानों की पोलिटिकल करवट’ काबिले दाद है। मैं दसहरे की तातील में यहीं रहा। कहीं न गया।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 15)

मौलाना शिबली नोमानी का लेख ‘मुसलमानों की पोलिटिकल करवट’ मौलाना वहीदुद्दीन सलीम के सम्पादन में लखनऊ से प्रकाशित होने वाले उर्दू साप्ताहिक ‘मुसलिम गजट’ में 1 फरवरी 1912, 4 मार्च 1912 और 9 अक्तूबर 1912 के अंकों में तीन किस्तों में प्रकाशित हुआ था। (यह सूचना उपलब्ध कराने के लिए मैं आजमगढ़ के डॉ. इलियास आजमी का आभारी हूँ।) लेकिन इन तीनों किस्तों में से प्रेमचंद किस किस्त के सन्दर्भ में बात कर रहे हैं, यह उनके शब्दों ‘मैं दसहरे की तातील में यहीं रहा’ से स्पष्ट होता है कि वे इस लेख की 9 अक्तूबर 1912 के अंक में प्रकाशित अन्तिम किस्त की ही चर्चा कर रहे हैं। इस आधार पर अनुमान होता है कि प्रेमचंद ने यह पत्र अक्तूबर 1912 में लिखा होगा। परन्तु इसी पत्र में प्रेमचंद आगे लिखते हैं -

"अदीब’ में आज तीर्थराम का ‘आजमाइश’ देखा। मुझे तो तर्जुमा-सा मालूम होता है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 15)

तीर्थराम की एक कहानी ‘आजमाईश’ शीर्षक से इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाले उर्दू मासिक ‘अदीब’ के मार्च 1913 (जिल्द 4 अंक 6) के अंक में प्रकाशित हुई थी। (अदीब इलाहाबाद तार्रुफ व इन्तखाब; तार्रुफ पृ. उन्नीस) इस तथ्य से स्पष्ट हो जाता है कि ‘अदीब’ का मार्च 1913 का अंक हस्तगत होते ही प्रेमचंद ने तत्काल यह विवेच्य पत्र मुंशी दयानारायण निगम को लिख भेजा था।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र मार्च 1913 में लिखा जाना प्रमाणित होता है।

7. पत्रांक-19 : कथित रूप से 2 जून 1913 को लिखा गया (पृ. 22)

मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 27), डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19, (पृ. 29) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 147) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए 2 जून 1913 को लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है। ध्यातव्य है कि सभी संकलनों में यह पत्र ‘गोरखपुर : लक्ष्मी भवन’ के पते से लिखा जाना ही उल्लिखित है।

प्रेमचंद सन् 1913 में महोबा में सब डिप्टी इंस्पेक्टर आफ स्कूल्स के पद पर कार्यरत थे, अतः उस समय गोरखपुर से पत्र लिखने का कोई औचित्य नहीं है। फिर रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी के मकान का नाम ‘लक्ष्मी भवन’ था, इससे भी यही संकेत प्राप्त होता है कि जब यह पत्र लिखा गया उस समय प्रेमचंद अल्पकाल के लिए ही गोरखपुर गए थे और उस अवधि में अपने पुरातन मित्र रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी के यहाँ निवास कर रहे थे। इस पत्र में प्रेमचंद ने लिखा था -

"बाबू रघुपत सहाय की तबीयत किसी कदर नासाज है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 22)

प्रेमचंद के उपुर्यक्त शब्दों से अनुमान होता है कि फिराक साहब के अस्वस्थ हो जाने का समाचार पाकर ही वे गोरखपुर जाकर उनके यहाँ निवास कर रहे थे।

इस पत्र में प्रेमचंद ने निगम साहब से क्षमायाचना करते हुए लिखा था -

"मुझे अफसोस है कि मैं अपने वादे के मुताबिक 4 को बनारस न जा सकूँगा। अभी यहाँ मुझे तीन दिन और रहना पड़ेगा। ऐसी ही जरूरत दरपेश हो गयी है। इसलिए वालिदा साहिबा जिस दिन बनारस आयें उससे बाबू महताब राय, ज्ञानमण्डल, बनारस को मुत्तिला कर दीजिएगा। वह बुलानाला के धर्मशाले में मुनासिब इंतजाम कर देंगे। मैंने उन्हें ताकीद कर दी है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 22)

प्रेमचंद के उपर्युक्त शब्दों में ‘बाबू महताब राय, ज्ञानमण्डल, बनारस’ शब्द विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हैं, जो इस पत्र की तिथि के अशुद्ध होने का संकेत देते हैं। सन् 1913 में प्रेमचंद के छोटे भाई महताब राय कहाँ थे, इसकी सूचना देते हुए उनके पुत्र कृष्ण कुमार राय लिखते हैं -

"सन् 1894 में जन्मे महताब राय उम्र में धनपत राय से 14 वर्ष छोटे थे और प्रेमचंद ही नहीं, गाँव-घर के सभी उन्हें ‘छोटक’ कहकर पुकारते थे।... प्रेमचंद की जहाँ भी नियुक्ति होती उनकी विमाता, अनुज महताब राय और दूसरी पत्नी शिवरानी देवी साथ-साथ रहती थीं।... महताब राय पढ़ने में तो मेधावी न थे, किन्तु हाकी और फुटबाल के बहुत अच्छे खिलाड़ी थे।... मैट्रिकुलेशन के बाद 19 वर्ष की आयु में ही उन्हें सरकारी बन्दोबस्त विभाग में नौकरी मिल गयी थी।" (बीसवीं सदी के सर्वश्रेष्ठ कथाकार प्रेमचंद, पृ. 16-21)

उपर्युक्त उल्लेख से स्पष्ट है कि सन् 1913 में बाबू महताब राय सरकारी बन्दोबस्त विभाग में कार्यरत थे। और, उस समय वे कहाँ नियुक्त थे, यह निगम साहब के नाम लिखे गए प्रेमचंद के 6 जुलाई 1918 के पत्र से स्पष्ट है, जिसमें उन्होंने बन्दोबस्त विभाग के टूटने से उत्पन्न हुई विषम परिस्थिति की चर्चा करते हुए लिखा था -

"छोटक हफ्ते अशरे या ज्यादा से ज्यादा एक माह में तखफीफ में आ जायेंगे। बन्दोबस्त का काम फिलहाल बंद किया जा रहा है। मुझे उनकी फ्रिक्र लगी हुई है।... बस्ती में टाइपिस्ट थे, पैंतीस रुपये पाते थे। कानपुर के किसी कारखाने में अगर आपकी सिफारिश कारगर हो सके तो इन्हें बाद तखफीफ वहाँ भेज दूँ।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 70-71)

स्पष्ट है कि 1913 से 1918 तक महताब राय बस्ती में कार्यरत थे, अतः 1913 में ज्ञानमण्डल, बनारस के पते पर उनको पत्र लिखे जाने का निर्देश देने का कोई औचित्य नहीं है। महताब राय ने ज्ञानमण्डल, बनारस में कार्य करना कब और कैसे आरम्भ किया था, इस सम्बन्ध में कृष्ण कुमार राय का निम्नांकित उल्लेख दृष्टव्य है -

"वर्ष 1920 में बाबू शिव प्रसाद गुप्त ने काशी से ‘आज’ हिन्दी दैनिक का प्रकाशन आरम्भ किया... पाण्डेय जी बाबू शिव प्रसाद गुप्त तथा श्री श्री प्रकाश (भारतरत्न डॉ. भगवान दास के सुपुत्र) का यह प्रस्ताव भी लेकर गये थे कि महताब राय कलकत्ता छोड़कर काशी आ जायें और ‘आज’ प्रेस की व्यवस्था में पाण्डेय जी के सहयोगी के रूप में कार्यभार ग्रहण कर लें।... इसी बीच बाबू शिव प्रसाद गुप्त ने अपना प्रस्ताव स्वीकार करने के लिए महताब राय पर उनके बड़े भाई प्रेमचंद से भी दबाव डलवाया।... फलस्वरूप वह सन् 1921 ई. में राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक ‘आज’ के मुद्रण विभाग (ज्ञानमण्डल यन्त्रालय) के व्यवस्थापक बनकर पुनः काशी आ गये।" (बीसवीं सदी के सर्वश्रेष्ठ कथाकार प्रेमचंद, पृ. 21-22)

उपर्युक्त उल्लेख से भ्रम होता है कि कलकत्ता में महावीर प्रसाद पोद्दार के वणिक् प्रेस की नौकरी छोड़कर महताब राय सन् 1921 में ज्ञानमण्डल, बनारस से सम्बद्ध हुए थे। लेकिन प्रेमचंद ने 20 अक्तूबर 1920 के पत्र द्वारा निगम साहब को सूचना देते हुए लिखा था -

"छोटक यहाँ आ गए हैं और अब गालिबन कलकत्ते न जायें। बनारस में उन्हें 70) की पोस्ट ज्ञानमंडलवालों ने आफर की है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 105)

10 दिन पश्चात् प्रेमचंद ने गोरखपुर से लिखे 30 अक्तूबर 1920 के पत्र में पुनः इसी सम्बन्ध में निगम साहब को लिखा -

"बरादरे अजीज छोटक ने ज्ञानमण्डल में सत्तर रुपये की नौकरी कर ली। कलकत्ते से इस्तीफा दिया। परसों यहाँ से जायेंगे।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 106)

स्पष्ट है कि महताब राय ज्ञानमण्डल, बनारस में कार्यभार ग्रहण करने के लिए 1 नवम्बर 1920 को गोरखपुर से चले थे। इस आधार पर ज्ञानमण्डल, बनारस से महताब राय 1920 में ही सम्बद्ध हुए थे और स्वाभाविक रूप से इससे पूर्व ज्ञानमण्डल, बनारस के पते पर उन्हें पत्र लिखने का कोई औचित्य नहीं है। इस आधार पर यह पत्र नवम्बर 1920 के पश्चात् ही लिखा गया था।

प्रेमचंद के सरस्वती प्रेस में बाबू महताब राय भी साझेदार थे और उसका उद्घाटन 20 जुलाई 1923 को हुआ था। ज्ञानमण्डल, बनारस से महताब राय कब तक सम्बद्ध रहे, इसका संकेत 18 जून 1923 को निगम साहब के नाम लिखे गए प्रेमचंद के पत्र से प्राप्त होता है, जिसमें उन्होंने लिखा था -

"बाबू महताब राय की ज्ञानमण्डल से गुलूखलासी का इंतजार है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 135)

स्पष्ट है कि 18 जून 1923 तक महताब राय ज्ञानमण्डल, बनारस में कार्यरत थे, अतः यह विवेच्य पत्र इस तिथि से पूर्व ही लिखा गया था।

इस विवेच्य पत्र के उपर्युक्त उद्धृत अंश से यह भी स्पष्ट है कि मुंशी दयानारायण निगम की माता जी का 4 जून को बनारस पहुँचने का कार्यक्रम निर्धारित था, और प्रेमचंद ने उनके बनारस में निवास के लिए समुचित प्रबन्ध करने का वचन निगम साहब को दिया था। लेकिन प्रेमचंद का 4 जून को बनारस में उपलब्ध न रहने का क्या कारण था और निगम साहब की माता जी बनारस की यात्रा पर क्यों आने वाली थीं, यह प्रेमचंद के 29 मई 1923 को निगम साहब के नाम लिखे गए पत्र के निम्नांकित शब्दों से स्पष्ट है -

"मैं आज रात की गाड़ी से बहुत जरूरी काम से गोरखपुर जा रहा हूँ। 31 को या 1 जून को लौटूँगा। वालिदा साहिबा जिस दिन यहाँ आनेवाली हों उससे मुझे 1 जून तक ऊपर के पते से मुत्तिला फरमाइए।... यहाँ के एक अच्छे धर्मशाला में इंतजाम कर दूँगा। किसी बात की तकलीफ न होगी।... अभी तो मलमास 15 दिन बाकी है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 134-35)

स्पष्ट है कि प्रेमचंद एक आवश्यक कार्य, सम्भवतः रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी से सरस्वती प्रेस के साझे की धनराशि लेने के लिए 29 मई 1923 की रात्रि में बनारस से गोरखपुर के लिए चले। लेकिन गोरखपुर पहुँचने पर उन्होंने देखा कि फिराक साहब अस्वस्थ हैं, और इसलिए ही वे अपनी भूमि बेचने में सफल नहीं हो सकेंगे। (प्रेमचंद ने 18 जुलाई 1923 के पत्र में निगम साहब को लिखा था - "एक महीने में गालिबन कुछ आमदनी हो ही जायगी। शायद उस वक्त तक बाबू रघुपति सहाय का मौजा फरोख्त हो जाय। इसके बाद ही वह मुझे रुपये अदा करनेवाले हैं।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 137) प्रेमचंद के इन शब्दों से यह अनुमान करना कुछ असंगत न होगा कि मई-जून 1923 की गोरखपुर यात्रा के समय ही फिराक साहब ने उन्हें अपनी भूमि बिक जाने के उपरान्त ही अपने भाग की धनराशि देने का वचन दिया था) लेकिन फिराक साहब के अस्वस्थ होने के कारण प्रेमचंद को गोरखपुर में ही रुकना पड़ा और उन्होंने अपने छोटे भाई महताब राय को निगम साहब की माता जी के लिए अनुकूल व्यवस्था कर देने के लिए सहेज दिया, जैसा कि इस विवेच्य पत्र के उपर्युक्त उद्धृत अंश से स्पष्ट है। जहाँ तक निगम साहब की माता जी की बनारस यात्रा के कारण का सम्बन्ध है, उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि वे मलमास में काशी निवास करने की इच्छा से ही बनारस जाने वाली थीं, जिसकी चर्चा इस विवेच्य पत्र में भी प्राप्त है। अतः इस आधार पर यह विवेच्य पत्र निश्चित रूप से 29 मई 1923 के पश्चात् ही लिखा गया था।

निगम साहब की माताजी के बनारस से कानपुर लौट जाने के पश्चात् प्रेमचंद ने 18 जून 1923 के पत्र में लिखा -

"मेरा प्रेस का मकान इतना वसीह, शहर से मुलहिक और फिर इतना दूर और ऐसे मौके से है कि उससे बेहतर जगह बनारस में नहीं है। बिलकुल टाउन हाल और पार्क के मुत्तसिल। कमरे के दरवाजे खोल दीजिए और पार्क का लुत्फ घर बैठे उठाइए। उसे छोड़कर इन्हें मणिकर्णिका घाट पर रहना पड़ा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 135)

स्पष्ट है कि प्रेमचंद ने बनारस के बुलानाला मुहल्ले में समवस्थित जिस धर्मशाला में निगम साहब की माताजी के लिए व्यवस्था करने के लिए महताब राय को इस विवेच्य पत्र के उपर्युक्त उद्धृत शब्दों द्वारा निर्देशित किया था, वहाँ उनकी व्यवस्था नहीं हो सकी थी। इस आधार पर यह विवेच्य पत्र निश्चित रूप से 18 जून 1923 से पूर्व का लिखा हुआ है।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र 2 जून 1923 को लिखा जाना प्रमाणित होता है।

8. पत्रांक-21 : कथित रूप से अनुमानतः सितम्बर सन् 13 में लिखा गया (पृ. 23-26)

मदन गोपाल ने ‘प्रेमचंद के खुतूत’ (पृ. 48-51) और ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 29-31) में इस पत्र को अक्तूबर 1913 में लिखा गया बताया है, जबकि डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 30-31) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 148-50) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए अनुमानतः सितम्बर सन् 13 में लिखा गया बताकर ही प्रकाशित कराया है।

‘जमाना’ में प्रकाशित अपनी रचनाओं के पारिश्रमिक का हिसाब लिखने के साथ-साथ अपने उर्दू कहानी संकलन ‘प्रेम पचीसी’, भाग-1 के मुद्रण के सम्बन्ध में प्रेमचंद ने इस पत्र में लिखा था -

"मैं आपसे अर्ज कर चुका हूँ कि मेरे ‘आजाद’ और ‘जमाना’ के मजामीन के मुताल्लिक कुल 72) आते हैं। 56) पहले थे, इन दो ताजा किस्सों की उजरत शामिल करके 72) हो जाते हैं।

‘आपने फरमाया था कि ‘प्रेम पच्चीसी’ 41/2 जुज्व छप चुकी है और इसके अखराजात मय किताबत, कागज वगैरह 72) हुए हैं। गेया हमारा और आपका हिसाब यहाँ तक साफ है।... सबसे सहल नुसखा बस छपे हुए जुज्व को भेज देना है। इसमें आपको सिर्फ हुक्म देने की देर है। दफ्तरी ने गट्ठर बनाया और रेल पर रख आये। आपको कोई तकलीफ न हुई।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 25)

यह पत्र पाकर निगम साहब ने ‘प्रेम पचीसी’, भाग-1 के छपे हुए साढ़े चार फार्म प्रेमचंद को भिजवा दिए, जिनकी प्राप्ति सूचना देते हुए प्रेमचंद ने 10 दिसम्बर 1913 के पत्र में निगम साहब को लिखा था -

"प्रेम पचीसी के साढ़े चार जुज्व मिले। मशकूर हूँ।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 26)

स्पष्ट है कि यह विवेच्य पत्र निश्चित रूप से 10 दिसम्बर 1913 से पूर्व ही लिखा गया था। इसी पत्र में प्रेमचंद ने निगम साहब को लिखा था -

"हमीरपुर में मैं ऐसे वक्त पहुँचा जब मेरी रुखसत तमाम होने वाली थी। मैं 13 की शाम को चला और इतवार का दिन।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 24)

लेकिन मदन गोपाल ने उपर्युक्त पत्रांश का जो पाठ प्रकाशित कराया है, वह निम्नवत् है -

"हमीरपुर में मैं ऐसे वक्त पहुँचा, जब मेरी रुखसत खत्म होने में सिर्फ 24 घंटे की देर थी। 14 सितम्बर की शाम को तमाम होने वाली थी। मैं 13 की शाम को चला और इतवार का दिन।" (प्रेमचंद के खुतूत, पृ. 49; कुल्लियाते प्रेमचंद, भाग-17, पृ. 30)

उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि यह विवेच्य पत्र निश्चित रूप से 14 सितम्बर 1913 के पश्चात् ही लिखा गया था।

इसी पत्र में मुंशी दयानारायण निगम के सम्पादन में प्रकाशित होने वाले उर्दू दैनिक ‘आजाद’ (जो साप्ताहिक के रूप में प्रारम्भ हुआ था लेकिन पीछे चलकर दैनिक पत्र के रूप में प्रकाशित होता था) के सम्पादन के सम्बन्ध में प्रेमचंद ने लिखा था -

"मालूम नहीं आपने रोजाना आजाद का क्या इन्तजाम किया।... लेकिन यकीनन हस्ब-दिलख्वाह कोई न कोई इन्तजाम जरूर हो गया होगा। और 18 अक्तूबर से तो उसकी दिलचस्पी के लिए किसी मजीद मसाले की जरूरत ही बाकी न रहेगी।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 24)

उपर्युक्त पत्रांश से सुस्पष्ट है कि यह विवेच्य पत्र 18 अक्तूबर से कुछ दिन पूर्व ही लिखा गया था।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र अक्तूबर 1913 में लिखा जाना प्रमाणित होता है।

9. पत्रांक-27 : कथित रूप से 3 मई 1914 को लिखा गया (पृ. 30)

मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 39), डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 35) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 154) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए 3 मई 1914 को लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है।

इस पत्र में प्रेमचंद ने निगम साहब को आश्वस्त करते हुए लिखा था -

"‘हँसी’ का बकिया जल्द लिखूँगा। नागरी प्रचारिणी पत्रिका में वह सिलसिला अभी खत्म नहीं हुआ। मगर अब हरेक नम्बर में दो तीन सफों से ज्यादा नहीं निकलते। पूरा निकल आये तो जमाना के पाँच छ सफों का मसाला हो जाये।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 30)

नागरी प्रचारिणी पत्रिका में प्रकाशित एक हास्य लेख का अनुवाद ‘जमाना’ में प्रकाशित करने के सम्बन्ध में जिज्ञासा करते हुए प्रेमचंद ने अपने 16 दिसम्बर 1915 के पत्र में निगम साहब को लिखा था - "नागरी प्रचारिणी में जराफत पर एक बहुत आलिमाना मजमून छपा है। तर्जुमा है। कहिए तो जमाना के लिए कुछ नये उनवान से इसी पर लिख दूँ।... जवाब से बहुत जल्द मुत्तिला कीजिए। क्योंकि मजमून लंबा है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 51)

प्रेमचंद का यह पत्र प्राप्त होते ही निगम साहब ने अपना स्वीकृति पत्र तत्काल प्रेषित कर दिया होगा। परिणामतः प्रेमचंद ने सम्बन्धित लेख भेजते हुए अपने जनवरी 1916 के पत्र 47 47. (इस पत्र पर ‘चिट्ठी पत्री’ में अनुमानतः जनवरी 1915 की अशुद्ध तिथि प्रकाशित है, जिस पर यथास्थान विचार प्रस्तुत है।) में लिखा -

"हंसी’ पर एक मजमून हस्ब वायदा रवानये खिदमत है। मजमून नामुकम्मल है। अभी असल मजमून ही पूरा नहीं शाया हुआ। जब वह पूरा हो जाये तो उसका दूसरा हिस्सा भेज दूँगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 53)

उपर्युक्त पत्र के साथ प्रेमचंद ने जो लेख निगम साहब को प्रेषित किया था, वह ‘जमाना’ के जनवरी 1916 के अंक में ‘हँसी’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था जिसके अन्त में ‘बाकी आइन्दा’ शब्द भी प्रकाशित हुए थे जिनसे स्पष्ट है कि इस लेख का शेष अंश भविष्य में प्रकाशित किया जायगा। उपर्युक्त पत्रांश से स्पष्ट है कि प्रेमचंद ने जो लेख भेजा इसका शेषांश प्राप्त न होने पर निगम साहब ने जब प्रेमचंद को स्मरण कराया तब प्रेमचंद ने अपना यह विवेच्य पत्र लिखा, जो कि इसके उपर्युक्त उद्धृत अंश से स्पष्ट है। अतः यह विवेच्य पत्र निश्चित रूप से फरवरी 1916 के पश्चात् ही लिखा गया था।

इस विवेच्य पत्र में ही प्रेमचंद अपनी एक उर्दू कहानी के सम्बन्ध में लिखते हैं -

"‘सरे पुरगुरूर’ नाम का एक किस्सा लिखा हुआ है। सिर्फ कुछ तरमीम बाकी है। उसे साफ करना पड़ेगा। दो तीन दिन में उसे भी हाजिर करूँगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 30)

उपर्युक्त शब्द लिखने के कुछ दिन उपरान्त ही प्रेमचंद ने अपनी ‘सरे पुरगुरूर’ शीर्षक उर्दू कहानी की संशोधित प्रति निगम साहब को अपने 22 मई 1916 के पत्र50 50. (इस पत्र पर ‘चिट्ठी पत्री’ में 22 मई 1914 की अशुद्ध तिथि प्रकाशित है, जिस पर यथास्थान विचार प्रस्तुत है।) के साथ भेजते हुए लिखा था -

"सरे पुरगुरूर’ जाता है। एक और किस्सा भी भेजता हूँ। यह कुछ अर्सा हुआ बंगला से तर्जुमा होकर मर्यादा में निकला था।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 30)

प्रेमचंद की ‘सरे पुरगुरूर’ कहानी तो ‘जमाना’ के अगस्त 1916 के अंक में प्रकाशित हो गई थी, लेकिन इसी पत्र के साथ प्रेमचंद ने ‘मर्यादा’ में प्रकाशित किसी बंगला कहानी के हिन्दी अनुवाद का जो उर्दू अनुवाद निगम साहब को प्रेषित किया था, वह ‘जमाना’ के सितम्बर 1916 के अंक में ‘अपने फन का उस्ताद’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था।

इस तथ्य के आलोक में यह विवेच्य पत्र निश्चित रूप से 22 मई 1916 से पूर्व ही लिखा गया था। इसी पत्र के साथ अपना एक लेख प्रेषित करते हुए प्रेमचंद ने लिखा -

"लीजिए राना जंगबहादुर हाजिर है। मैंने साफ नहीं किया। कई दिन और लग जाते।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 30)

प्रेमचंद ने 10 फरवरी 1916 के पत्र में नेपाल के जंगबहादुर पर एक जीवनीपरक लेख लिखने का संकल्प व्यक्त करते हुए लिखा था -

"राना जंगबहादुर आफ नैपाल की सवाने उमरी लिखने का इरादा है। मसाला जमा कर लिया है। बहुत जल्द लिखकर रवाना करूँगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 54)

अपने संकल्प के अनुसार प्रेमचंद ने राणा जंगबहादुर के जीवनीपरक लेख के समाप्तप्राय होने की सूचना देते हुए निगम साहब को मार्च 1916 के पत्र (इस पत्र पर ‘चिट्ठी पत्री’ में अनुमानतः मार्च 1918 की अशुद्ध तिथि प्रकाशित है, जिस पर यथास्थान विचार प्रस्तुत है।) में लिखा -

"राणा जंग बहादुर की सवानेह उम्री लिखी है। कल परसों तक पूरी हो जायगी। साफ न करूँगा क्योंकि कई दिन की देर हो जायगी।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 67)

यह लिखने के अनन्तर प्रेमचंद ने यह लेख पूर्ण करके अपने इस विवेच्य पत्र के साथ निगम साहब को प्रेषित किया, जो ‘जमाना’ के जुलाई 1916 के अंक में ‘राणा जंगबहादुर’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। इस आधार पर यह विवेच्य पत्र निश्चित रूप से जुलाई 1916 से पूर्व ही लिखा गया था। इसी पत्र में प्रेमचंद ने अपने एक अन्य लेख का सन्दर्भ देते हुए लिखा -

"भरत पर एक हिन्दी मजमून का तर्जुमा किया था। वह अल नाजिर में पहले ही भेज दिया था, हालाँकि वह जमाना में ज्यादा मौजूँ होता।... आपकी खमोशी ने मुझे उधर रुजू होने पर मजबूर किया था।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 30)

प्रेमचंद के उपर्युक्त शब्दों से प्रतीत होता है कि मुंशी दयानारायण निगम ने लखनऊ से प्रकाशित होने वाले उर्दू मासिक ‘अल नाजिर’ में प्रेमचंद द्वारा लेख भेजे जाने की सूचना पाकर उनसे शिकायत की होगी कि ‘जमाना’ के लिए कुछ प्रकाशनार्थ नहीं भेज रहे हैं और अन्य पत्रिकाओं को भेज रहे हैं, और इसके उत्तर में प्रेमचंद ने यह विवेच्य पत्र लिखा होगा। प्रेमचंद के शब्द ‘आपकी खमोशी ने मुझे उधर रुजू होने पर मजबूर किया था’ भी विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। ध्यातव्य है कि मार्च एवं अप्रैल 1916 के ‘जमाना’ के अंकों में प्रेमचंद की कोई रचना प्रकाशित नहीं हुई थी और सम्भवतः इसीलिए प्रेमचंद ने ‘अल नाजिर’ में प्रकाशनार्थ लेख भेज दिया था, जो उसके जून 1916 के अंक में ‘भरत’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। इस आधार पर यह विवेच्य पत्र निश्चित रूप से मई 1916 में ही लिखा गया था।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र 3 मई 1916 को लिखा जाना प्रमाणित होता है।

10. पत्रांक-28 : कथित रूप से 22 मई 1914 को लिखा गया (पृ. 30-31)

मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 39-40), डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 35-36) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 155) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए 22 मई 1914 को महोबे से लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है।

इस पत्र के साथ प्रेमचंद ने निगम साहब को दो कहानियाँ भेजते हुए लिखा था -

"सरे पुरगुरूर जाता है। एक और किस्सा भी भेजता हूँ। यह कुछ अर्सा हुआ बंगला से तर्जुमा होकर मर्यादा में निकला था।... यह जखीरे के लिए लिखा था।... जी चाहे तो रख लीजिए वर्ना जहाँ का तहाँ भेज दूँगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 30)

इन दो कहानियों में से पहली कहानी ‘सरे पुरगुरूर’ का लेखन पूर्ण हो जाने की सूचना देते हुए प्रेमचंद ने 3 मई 1916 के पत्र 58 58.(इस पत्र पर ‘चिट्ठी पत्री’ में 3 मई 1914 की अशुद्ध तिथि प्रकाशित है, जिस पर यथास्थान विचार प्रस्तुत है।) में निगम साहब को लिखा था -

"सरे पुरगुरूर’ नाम का एक किस्सा लिखा हुआ है। सिर्फ कुछ तरमीम बाकी है। उसे साफ करना पड़ेगा। दो तीन दिन में उसे भी हाजिर करूँगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 30)

ध्यातव्य है कि प्रेमचंद ने ‘सरे पुरगुरूर’ शीर्षक जो कहानी इस विवेच्य पत्र के साथ निगम साहब को प्रेषित की थी, वह ‘जमाना’ के अगस्त 1916 के अंक में प्रकाशित हुई थी।

जहाँ तक उपर्युक्त उद्धरण में उल्लिखित कहानी ‘एक और किस्सा’ का सम्बन्ध है, हिन्दी मासिक ‘मर्यादा’ में प्रकाशित किसी बंगला कहानी के हिन्दी अनुवाद का जो उर्दू अनुवाद प्रेमचंद ने ‘जखीरा’ के लिए करने पर भी निगम साहब को अपने इस विवेच्य पत्र के साथ प्रेषित किया था, वह ‘जमाना’ के सितम्बर 1916 के अंक में ‘अपने फन का उस्ताद’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था।

अतः यह विवेच्य पत्र निश्चित रूप से अगस्त 1916 से पूर्व ही लिखा गया था।

इसी पत्र में प्रेमचंद कानपुर न जा पाने के कारणों पर प्रकाश डालते हुए निगम साहब को लिखते हैं -

"मैं तो आज ही रवाना हो जाता मगर 27 मई को फैजाबाद से एक लाला साहब छोटक की शादी के मुताल्लिक कुछ तजकिरा करने के लिए आयेंगे। फिर मुझे धर्मपत्नी जी के साथ ससुराल जाना है। गालिबन 4 या 5 जून को जाऊँगा। अगर यह झमेले न होते तो बराहे रास्त कानपुर आता।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 31)

पत्नी के साथ ससुराल जाने का कारण क्या था, यह प्रेमचंद के 13 मई 1916 को निगम साहब के नाम बस्ती से लिखे पत्र से स्पष्ट है, जिसमें उन्होंने लिखा था -

"आज बनारस जाता हूँ। मेरे एक साले साहब की शादी 8 जून को है।... मजामीन बनारस पहुँचकर हाजिर करूँगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 55)

उपर्युक्त शब्दों से स्पष्ट है कि प्रेमचंद ने निगम साहब को जो लेख बनारस पहुँचकर भेज देने का आश्वासन दिया था, वे उन्होंने अपने इस विवेच्य पत्र के साथ ही प्रेषित किए थे और इस आधार पर यह विवेच्य पत्र निश्चित रूप से बनारस से ही लिखा गया था, महोबा से नहीं। इसके साथ ही यह भी प्रमाणित हो जाता है कि यह विवेच्य पत्र 13 मई 1916 के उपरान्त ही लिखा गया था।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र 22 मई 1916 को बनारस से लिखा जाना प्रमाणित होता है।

11. पत्रांक-29 : कथित रूप से 3 जून 1914 को लिखा गया (पृ. 31-32)

मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 41-42), डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 36-37) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 156) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए 3 जून 1914 को लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है।

इस पत्र में प्रेमचंद ने मौलाना मौहम्मद अली के सम्पादन में प्रकाशित होने वाले उर्दू दैनिक ‘हमदर्द’ में अपनी दो कहानियाँ प्रकाशित होने के सम्बन्ध में लिखा था -

"तब तक हमदर्द में भी दोनों किस्से छपे जाते हैं।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 32)

प्रेमचंद के उपर्युक्त शब्दों से स्पष्ट है कि यह पत्र लिखने के समय ‘हमदर्द’ में उनकी दो कहानियाँ प्रकाशनाधीन थीं। सम्प्रति प्राप्त प्रमाणों के अनुसार सन् 1914 के अगस्त माह के किसी अंक में प्रेमचंद की मात्र एक कहानी ‘सौदा-ए-खाम’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। अतः यह पत्र 1914 का लिखा हुआ नहीं हो सकता। सन् 1913 में ‘हमदर्द’ में प्रेमचंद की जो कहानियाँ प्रकाशित हुईं, उनका विवरण निम्नांकित है -

1. आबे हयात - 3 जून 1913

2. बांगे सहर - 11-13 जून 1913

3. दारू-ए-तल्ख - 17-19 जुलाई 1913

4. नमक का दारोगा - 11 अक्तूबर 1913

उपर्युक्त विवरण के आलोक में यह विवेच्य पत्र 1913 में ही लिखा गया था। इस पत्र में प्रेमचंद ने अपनी अस्वस्थता का विवरण देते हुए लिखा था -

"सेहत की हालत मुझे मजबूर कर रही है। आप मुझे देखें तो गालिबन पहचान न सकेंगे। हाजमे में फितूर आ गया है। जोफ दिन-दिन बढ़ता जाता है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 31)

स्पष्ट है कि यह पत्र लिखने के समय अपच होने के कारण प्रेमचंद का स्वास्थ्य किसी सीमा तक बिगड़ गया था। अपने स्वास्थ्य के सम्बन्ध में ठीक यही बातें प्रेमचंद ने अपने 7 जून 1913 के पत्र में भी निम्नांकित शब्दों में लिखी थीं -

"मैं अपनी हालत खराब होने के बाइस आजकल बिलकुल अपाहिज हो गया हूँ।... मेदा जरा सही हो जाये तो फिर कुछ काम करूँ।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 22)

इस विवेच्य पत्र में प्रेमचंद ने कानपुर जाने की इच्छा व्यक्त करते हुए लिखा था -

"आपके यहाँ आने का इरादा है। देखूँ कब तक पूरा होता है। मरीज बहुत वेलकम मेहमान नहीं होता। यह खयाल माने है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 32)

कानपुर जाने के कार्यक्रम के सम्बन्ध में प्रेमचंद ने 7 जून 1913 के पत्र में भी लिखा था -

"कानपुर मेरे प्रोग्राम में शामिल है। और गालिबन बनारस जाने से कब्ल अगर आप मेरी रिहाइश का कोई इंतजाम कर सकें तो मैं कानपुर ही में अपना मुआलिजा कराऊँ।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 22-23)

इस विवेच्य पत्र में उर्दू साप्ताहिक ‘आजाद’ में प्रकाशित रचनाओं के पारिश्रमिक की चर्चा करते हुए एक घड़ी भेज देने का आग्रह करते हुए प्रेमचंद ने निगम साहब को लिखा -

"मई के महीने में मैंने आजाद के लिए 17 कालम लिखे। और गालिबन जून के पहले नंबर में भी चार कालम से कम न होगा। कुल 21 कालम होते हैं। अगर आप हिसाबे दोस्तां के तौर पर मुझे एक वाच इनायत कर सकें तो आजाद की यादगार रहेगी।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 32)

प्रेमचंद ने 7 जून 1913 के पत्र में ठीक इसी बात का स्मरण दिलाते हुए निगम साहब को लिखा था -

"मैंने अपने परसों वाले खत में कुछ अतियाए ‘आजाद’ का जिक्र किया है। मई और जून में कुल चौबीस कालम हुए।... अगर आप बगैर बहुत ज्यादा तरद्दुद के एक तीन चार रुपये की वाच और चार साढ़े चार रुपये का जूता भिजवा सकें तो आपका बहुत ममनून होऊँगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 23)

उपर्युक्त विवरण के आधार पर यह विवेच्य पत्र 1913 में ही लिखा गया था। इसी पत्र में प्रेमचंद ने अपने अनुज महताब राय का वैवाहिक सम्बन्ध निश्चित न हो पाने की सूचना देते हुए निगम साहब को लिखा था -

"छोटक की शादी डिसमिस हो गयी। बहुत अच्छा हुआ। अभी दो तीन साल तक यह काम कब्ल-अज-वक्त था। आइन्दा दीदा ख्वाह शुद।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 32)

महताब राय के विवाह के लिए बातचीत होने की सूचना प्रेमचंद ने निगम साहब को 4 मई 1913 के पत्र द्वारा निम्नांकित शब्दों में दी थी -

"छोटक ने टाइपिंग का इम्तहान दिया है। उनकी शादी की बातचीत मिर्जापूर के जिले में हो रही है।... आज छोटक के कद्रदां मिर्जापूर से आने वाले हैं।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 21-220)

लेकिन जब महताब राय का यह सम्बन्ध निश्चित न हो सका और बात टूट गई, तब प्रेमचंद ने यह विवेच्य पत्र लिखा। इसके पश्चात् निगम साहब को पत्रोत्तर देते हुए प्रेमचंद ने 7 जून 1913 के पत्र में महताब राय का विवाह न होने को अपना उपचार कराने के लिए निश्चिन्त होने का कारण बताते हुए लिखा -

"... मैं कानपुर ही में अपना मुआलिजा कराऊँ। क्यों बनारस जाऊँ। क्योंकि अब शादी तो होनी नहीं, खामखाह की दर्दसरी है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 23)

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र 3 जून 1913 को लिखा जाना प्रमाणित होता है।

12. पत्रांक-30 : कथित रूप से जून 1914 में लिखा गया (पृ. 32-33)

मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 42) में इस पत्र पर 25 जून 1914 की तिथि प्रकाशित कराई है, जबकि डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 37) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 156-57) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए जून 1914 में महोबे से लिखा हुआ बताकर प्रकाशित कराया है।

इस पत्र में प्रेमचंद ने पं. ब्रजनारायण चकबस्त लखनवी के नाटक ‘कमला’ की समीक्षा कर देने का अनुरोध करते हुए निगम साहब को लिखा -

"चकबस्त की कमला पर एक रिव्यू करें। बहुत मामूली है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 33)

‘कमला’ के सम्बन्ध में विवरण प्रस्तुत करते हुए बी.एस. केशवन लिखते हैं -

“Brij Narain (Chskbast, pseud.) 1882-1926 : Kamla, Lucknow, B.P. Verma Brothers, Re. 1: 1915.122. p. 23.5cm

स्पष्ट है कि चकबस्त लखनवी का नाटक ‘कमला’ पुस्तकाकार रूप में 1915 में प्रकाशित हुआ था। इस तथ्य के आलोक में इस पुस्तक की चर्चा 1914 के पत्र में प्राप्त होना हास्यापस्द प्रतीत होता है। अतः यह विवेच्य पत्र 1915 में ही लिखा गया था।

इस पत्र में प्रेमचंद लिखते हैं -

"इश्तहार के खो जाने से बड़ा हर्ज हुआ। खैर, यह दूसरा इश्तहार लिख लिया है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 32)

प्रेमचंद इस पत्र में जिस इश्तहार के खो जाने की चर्चा कर रहे हैं, वह उनके उर्दू कहानी संकलन ‘प्रेम पचीसी’, भाग-1 की बिक्री संतोषजनक न होने के कारण छपवाया जाना प्रस्तावित था, जैसा कि उनके जून 1915 में लिखे गए पत्र से स्पष्ट है, जिसमें प्रेमचंद ने लिखा था -

"जिन हजरात के पास किताब तोहफतन इजहारे राय के लिए भेजी गयी थी उन हजरात में से किसी ने जवाब दिया या नहीं। अगर कुछ खुतूत आये हों तो वह मेरे पास रवाना फरमाइएगा। इश्तहार का काम देंगे। आपके यहाँ प्रेम पचीसी की बिक्री कैसी हो रही है। वही रफ्तार कायम है या बिलकुल सुस्त पड़ गयी।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 40)

इसके उपरान्त प्रेमचंद ने प्रस्तावित विज्ञापन का पाठ निगम साहब को मुद्रण के लिए प्रेषित कर दिया होगा, लेकिन उसके मुद्रण की कोई सूचना प्राप्त न होने पर अपने 17 जून 1915 के पत्र द्वारा पूछा -

"इश्तहार मालूम नहीं अभी तक छपा या नहीं। मैं उसका इन्तजार कर रहा हूँ। कई दिन हुए मैंने एक लिफाफे में डाक्टर इकबाल के खत की नक्ल भेजी थी ताकि वह भी उसमें शामिल कर दी जाये।... बराहे करम उसे जल्द छपवाइए ताकि जून में इधर-उधर भेज दूँ।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 41)

इसके उपरान्त निगम साहब से यह सूचना पाकर कि उन्हें विज्ञापन का पाठ प्राप्त नहीं हुआ, प्रेमचंद ने विज्ञापन का पाठ पुनः लिखकर अपने इस विवेच्य पत्र के साथ प्रेषित किया और पुनः प्रेषित विज्ञापन के सम्बन्ध में प्रेमचंद ने अपने 26 जून 1915 के पत्र में लिखा -

"इश्तहार कई दिन हुए रवाना-ए-खिदमत कर चुका हूँ। डॉ. इकबाल के खत का इक्तबास भी जो आपके पास मौजूद है उसमें शामिल करवा दीजिएगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 42)

इसी सम्बन्ध में प्रेमचंद ने 6 जुलाई 1915 के पत्र में पुनः लिखा -

"इश्तहार दूसरी बार भेज चुका। एक हफ्ते से ज्यादा गुजरा। मेरे ख्याल में करीब दो हफ्ते के हुए। मगर अभी तक प्रूफ का पता नहीं।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 42-43)

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र 17 जून 1915 और 26 जून 1915 के मध्य किसी दिन लिखा जाना प्रमाणित होता है।

जहाँ तक इस पत्र पर महोबा से लिखे जाने के उल्लेख का सम्बन्ध है, यह भी अशुद्ध है। प्रेमचंद ने बस्ती से लिखे गए 9 मार्च 1915 के पत्र में निगम साहब को अपनी छुट्टी स्वीकृत होने और बनारस जाकर रहने की सूचना देते हुए लिखा था -

"आज रुखसत मंजूर होने के लिए कलक्टर साहब की सिफारिश के साथ डाइरेक्टर के पास चली गयी। कल से मैं आजाद हो गया मगर असबाब वगैरह यहाँ पड़ा हुआ है। उसे लेकर मजबूरन बनारस जाना पड़ता है।... इरादा मुस्तकिल तौर पर बनारस में रहने का है।... मुमकिन है मुझे बनारस में कुछ अर्सा लग जाय। कल तीन बजे की गाड़ी से बनारस जाऊँगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 38)

इस विवेच्य पत्र में प्रेमचंद ने छपे हुए विज्ञापन भेजने के सम्बन्ध में लिखा था -

"जब बस्ती चला जाऊँगा तो वहाँ भेजना पड़ेगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 32)

ध्यातव्य है कि 20 मार्च 1915 से 6 जुलाई 1915 तक निगम साहब के नाम लिखे हुए प्रेमचंद के जो पत्र ‘चिट्ठी पत्री’ में प्रकाशित हैं, वे सब बनारस से ही लिखे गए हैं और बनारस से वापस बस्ती जाने के सम्बन्ध में प्रेमचंद ने 6 जुलाई 1915 के पत्र में निगम साहब को लिखा था -

"कल बस्ती जा रहा हूँ।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 42)

अतः यह विवेच्य पत्र निश्चित रूप से बनारस से ही लिखा गया था, बस्ती से नहीं।

13. पत्रांक-31 : कथित रूप से 16 जुलाई 1914 को लिखा गया (पृ. 33)

मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 42-43), डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 37-38) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 157) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए 16 जुलाई 1914 को लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है।

इस पत्र में प्रूफ प्राप्त होने की सूचना देते हुए प्रेमचंद लिखते हैं -

"प्रूफ के लिए शुक्रिया। मेरे खयाल में दोनों ही नमूने रखे जायँ, सादा और मुरस्सा।... मगर जल्द छप जाये। अभी तक उन्नाव वाले एजेण्ट ने कोई खबर नहीं ली। खैर। इश्तहार छप जाने पर शायद कुछ बिक्री हो सके।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 33)

जिस ‘इश्तहार’ का प्रूफ मिलने पर प्रेमचंद ने उपर्युक्त पत्र लिखा था, उसका प्रूफ न मिलने की शिकायत करते हुए उन्होंने 6 जुलाई 1915 के पत्र में निगम साहब को लिखा था -

"इश्तहार दूसरी बार भेज चुका।... मगर अभी तक प्रूफ तक का पता नहीं। अगर आपके यहाँ न छप सके तो बराहे करम बस्ती के पते से मुत्तिला फरमायें ताकि कहीं और छपवा लूँ। इश्तहार के न छपने से इस एक महीने में मैं बुकसेलरों से खतो किताबत कुछ न कर सका।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 42-43)

इस पत्र के उपरान्त प्रेमचंद ने अपने इस विवेच्य पत्र द्वारा प्रूफ मिलने की सूचना निगम साहब को दी थी और सम्भवतः उसके साथ ही प्रूफ लौटा भी दिए थे। लेकिन जब उन्हें इश्तहार छपने की सूचना नहीं मिली तो उन्होंने 26 जुलाई 1915 के पत्र में पुनः निगम साहब को लिखा -

"अगर इश्तहार छप गया है और आप उसे जमाना के साथ तकसीम करना चाहते हों तो दो माह के लिए दो हजार या जितनी जरूरत हो अपने पास रख लें, बाकी मेरे पास भेज दें। हाँ अगर आपका मुहर्रिर 100 परत उन्नाव के एजेण्ट के पास और 50 परत रायबरेली के एजेण्ट के पास भेज दे तो बहुत अच्छी बात हो।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 43)

अन्ततः यह इश्तहार छप ही गया और प्रेमचंद ने इस इतिश्हार की प्राप्ति सूचना देते हुए 10 अगस्त 1915 के पत्र में निगम साहब लिखा -

"बिल्टी मिली। आज किसी वक्त इश्तिहार भी आ जायगा। इसके लिए मशकूर हूँ।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 44)

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र 16 जुलाई 1915 को लिखा जाना प्रमाणित होता है।

14. पत्रांक-32 : कथित रूप से अनुमानतः 3 सितम्बर 1914 को लिखा गया (पृ. 33-34)

मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 43-44), डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 38) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 158) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए अनुमानतः 3 सितम्बर 1914 को लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है।

निगम साहब के माँगने पर अपना हिसाब का विवरण देते हुए प्रेमचंद इस पत्र में लिखते हैं -

"आपने मेरा हिसाब माँगा है।

जून में 10) जुलाई में 5) अगस्त भी चल रहा है

25) कालम 14) कालम

किस्सों के मुआवजे के मद में मेरे जैल के रकूम हैं :

बेकस लड़की सफेद खून शिकारी राजकुमार

8) 8) 5)

मेरे खयाल में मैंने कोई जायद मतालबा नहीं किया है। शिकारी राजकुमार मुख्तसर किस्सा है इसलिए उसका मुआवजा कम रखा है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 34)

उपर्युक्त उद्धरण में प्रेमचंद के शब्दों ‘अगस्त अभी चल रहा है’ से स्पष्ट है कि यह पत्र अगस्त माह के आरम्भ में ही लिखा गया था। इसमें जिन तीन कहानियों के पारिश्रमिक के सम्बन्ध में उल्लेख प्राप्त है, उनके ‘जमाना’ में प्रकाशित होने का विवरण निम्नांकित है -

बेकस लड़की (अनाथ लड़की शीर्षक से) - जून 1914

सफेद खून (खूने सफेद शीर्षक से) - जुलाई 1914

शिकारी राजकुमार (शिकारी और राजकुमार शीर्षक से) - अगस्त 1914

उपर्युक्त विवरण से यह भी स्पष्ट है कि यह विवेच्य पत्र 1914 में ही लिखा गया था।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र 3 अगस्त 1914 को लिखा जाना प्रमाणित होता है।

15. पत्रांक-35 : कथित रूप से अनुमानतः आरम्भ 1915 में लिखा गया (पृ. 37-38)

मदन गोपाल ने ‘प्रेमचंद के खुतूत’ (पृ. 54-55) और ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 48-49) में इस पत्र को नवम्बर 1914 में लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है, जबकि डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 50-51) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 161) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए अनुमानतः आरम्भ 1915 में लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है।

अपने उर्दू कहानी संकलन ‘प्रेम पचीसी’, भाग-1 के प्रकाशन के सम्बन्ध में जिज्ञासा करते हुए प्रेमचंद ने इस पत्र में लिखा था –

"‘प्रेम पचीसी’ कब तक तैयार होगी।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 38)

‘प्रेम पचीसी’, भाग-1 अक्तूबर 1914 में प्रकाशित हो गया था और इसकी समीक्षा ‘जमाना’ के नवम्बर 1914 के अंक में प्रकाशित भी हो गई थी। अतः पुस्तक के प्रकाशनोपरान्त उसके ‘तैयार होने’ के सम्बन्ध में जिज्ञासा करने का कोई भी औचित्य नहीं है। अतः यह पत्र निश्चित रूप से अक्तूबर 1914 से पूर्व ही लिखा गया था।

इसी पत्र में प्रेमचंद ने बस्ती जाने और सब डिप्टी इंस्पेक्टर आफ स्कूल्स के पद को छोड़कर अध्यापक के रूप में कार्य करने के सम्बन्ध में लिखा -

"कल बस्ती जा रहा हूँ। देखूँ डाइरेक्टर साहब कब तक मास्टरी पर वापस भेजते हैं। बहरहाल इस दवा-दविश से अब तंग आ गया हूँ और मास्टरी को इस जिंदगी पर तरजीह देता हूँ। सिर्फ तनख्वाह की कमी की शिकायत अलबत्ता है। अगर मुझे पचास रुपये देगा तो बखुशी चला जाऊँगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 37)

डॉ. कमल किशोर गोयनका ने प्रेमचंद की सर्विस बुक का जो विवरण प्रकाशित कराया है, उसके अनुसार प्रेमचंद का हमीरपुर से बस्ती के लिए स्थानान्तरण 1 जुलाई 1914 को हुआ था और उन्होंने 2 जुलाई से 10 जुलाई 1914 तक ज्वाइनिंग टाइम लेने के अनन्तर 11 जुलाई 1914 को बस्ती में सब डिप्टी इंस्पेक्टर आफ स्कूल्स का ही पदभार ग्रहण किया था। अपनी इच्छानुसार प्रेमचंद ने गवर्नमेंट हाई स्कूल, बस्ती में सहायक अध्यापक के पद पर 12 मई 1915 को कार्यभार ग्रहण किया और उनका वेतन 60 रुपये मासिक से घटकर 50 रुपये मासिक हो गया था।89 89. (प्रेमचंद विश्वकोश, भाग-1, पृ. 269 पर प्रकाशित विवरण के आधार पर) यदि डॉ. गोयनका द्वारा प्रकाशित कराया गया विवरण प्रामाणिक है तो प्रेमचंद 9 जुलाई 1914 को हमीरपुर से बस्ती के लिए रवाना हुए होंगे और इससे एक दिन पूर्व यह विवेच्य पत्र उन्होंने हमीरपुर से लिखा होगा।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र 8 जुलाई 1914 को हमीरपुर से लिखा जाना प्रमाणित होता है।

16. पत्रांक-37 : कथित रूप से 20 मार्च 1915 को लिखा गया (पृ. 39)

मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 50), डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 41) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 162) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए 20 मार्च 1915 को लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है।

पांडेपुर, बनारस से लिखे गए इस पत्र में प्रेमचंद ने निगम साहब को बनारस पहुँचने की सूचना निम्नांकित शब्दों द्वारा दी थी -

"मैं कल यहाँ पहुँच गया और हस्बे दस्तूर जैसे था वैसे हूँ।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 39)

9 मार्च 1915 को बस्ती से लिखे पत्र में प्रेमचंद ने बनारस के लिए प्रस्थान करने के साथ-साथ वहाँ के डाक के पते की सूचना देते हुए निगम साहब को लिखा था -

"कल तीन बजे की गाड़ी से बनारस जाऊँगा। पता : धनपतराय, मार्फत बाबू द्वारका प्रसाद, ब्रांच पोस्टमास्टर, डाकखाना - पांडेपुर, बनारस" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 38)

इसका सीधा सा अर्थ यही है कि प्रेमचंद ने बस्ती से बनारस के लिए 10 मार्च 1915 को दिन में 3 बजे की गाड़ी से प्रस्थान किया। बस्ती से चलकर बनारस पहुँचने के पश्चात् प्रेमचंद का क्या कार्यक्रम था, इसकी सूचना देते हुए उन्होंने इसी पत्र में निगम साहब को लिखा था -

"गालिबन दो या तीन दिन बनारस में लगेंगे। इसके बाद कानपुर आ जाऊँगा। मगर इरादा मुस्तकिल तौर पर बनारस में रहने का है। तावक्ते कि जमाना का इंतजाम ठीक नहीं हो जाता, कानपुर रहूँगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 38)

स्पष्ट है कि बनारस पहुँचने के दो-तीन दिन पश्चात् ही प्रेमचंद कानपुर चले गए और वहाँ ‘जमाना’ के सम्पादन में सहयोग करने लगे। प्रेमचंद 30 अप्रैल 1915 से पहले ही कानपुर से वापस बनारस लौट आए थे, जैसा कि इसी तिथि के पत्र में उनके लिखे निम्नांकित शब्दों से अनुमान होता है -

"अगर कन्ट्रैक्ट की सूरत निकल आये तो मैं फौरन साल भर की रुखसत बेतनख्वाह की दरख्वास्त भेजकर साल भर तकदीर आजमाई करना चाहता हूँ। जिस वक्त मैं वहाँ पर था कन्ट्रैक्ट का खयाल न आपको आया और न मुझे।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 39-40)

कानपुर से बनारस लौटने के ही सम्बन्ध में प्रेमचंद ने अपने 2-3 मई 1915 के पत्र94 94. (इस पत्र पर ‘चिट्ठी पत्री’ में अनुमानतः जून 1915 की अशुद्ध तिथि प्रकाशित है, जिस पर यथास्थान विचार प्रस्तुत है।) में निगम साहब को लिखा था -

"मुझे यहाँ आये करीबन दो हफ्ते हुए।... आप मेरे यहाँ चले आने से कुछ तरद्दुद में तो नहीं पड़े।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 40)

स्पष्ट है कि यह पत्र लिखने के लगभग दो सप्ताह पूर्व ही प्रेमचंद कानपुर से बनारस लौटे थे और लौटने के अगले ही दिन यह विवेच्य पत्र लिखा था।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र 20 अप्रैल 1915 को लिखा जाना प्रमाणित होता है।

17. पत्रांक-39 : कथित रूप से अनुमानतः जून 1915 में लिखा गया (पृ. 40-41)

मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 51-52), डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 51) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 163-64) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए अनुमानतः जून 1915 में लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है।

इस पत्र में प्रेमचंद ने ‘जमाना’ के फरवरी एवं मार्च के अंकों के सम्बन्ध में पूछते हुए लिखा था -

"जमाना फरवरी... अब तक तैयार नहीं हुआ।... मार्च की किताबत हो रही है या नहीं।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 40)

इसी सम्बन्ध में प्रेमचंद ने 20 अप्रैल 1915 के पत्र 97 97. (इस पत्र पर ‘चिट्ठी पत्री’ में 20 मार्च 1915 की अशुद्ध तिथि प्रकाशित है, जिस पर यथास्थान विचार प्रस्तुत है।) में निगम साहब को लिखा था -

"गालिबन आपने मार्च का पर्चा कातिब के पास भेज दिया होगा।... फरवरी के साथ जनवरी का एक पर्चा भी भिजवा दीजिएगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 39)

पांडेपुर, बनारस से लिखे गए इस विवेच्य पत्र में प्रेमचंद ने कानपुर से बनारस लौटने के सम्बन्ध में लिखा था -

"मुझे यहाँ आये करीबन दो हफ्ते हुए।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 40)

जबकि अपने 20 अप्रैल 1915 के पत्र में प्रेमचंद ने बनारस पहुँचने की सूचना देते हुए निगम साहब को लिखा था -

"मैं कल यहाँ पहुँच गया और हस्बे दस्तूर जैसे था वैसे हूँ।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 39)

स्पष्ट है कि प्रेमचंद कानपुर से लौटकर 19 अप्रैल 1915 को बनारस पहुँचे थे, जिसके लगभग दो सप्ताह पश्चात् यह विवेच्य पत्र लिखा गया था।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र 2-3 मई 1915 को लिखा जाना प्रमाणित होता है।

18. पत्रांक-49 : कथित रूप से 24 नवम्बर 1915 को लिखा गया (पृ. 50-51)

मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 64), डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 48-49) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 172) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए 24 नवम्बर 1915 को लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है।

निगम साहब के लखनऊ आने की सूचना पाकर प्रेमचंद ने भी लखनऊ जाने का कार्यक्रम बना लिया था, जिसके सम्बन्ध में उन्होंने इस पत्र में लिखा था -

"आप लखनऊ यकीनन आयेंगे। मैं भी जानेवाला हूँ। मगर अभी तक मालूम नहीं ठहरना कहाँ होगा। आप कहाँ ठहरेंगे। वहीं मेरे लिए भी गुंजाइश रखिएगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 50)

प्रेमचंद ने अपनी लखनऊ यात्रा के सम्बन्ध में 11 दिसम्बर 1916 के पत्र में निगम साहब को लिखा था -

"दिसंबर में लखनऊ जाने का इरादा तो करता हूँ। देखूँ, गैब से मदद मिलती है या नहीं।... हो सकेगा जाऊँगा, नहीं तो न सही।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 56)

स्पष्ट है कि वह विवेच्य पत्र 1916 में ही लिखा गया था। अपने उर्दू कहानी संकलन ‘प्रेम पचीसी’, भाग-2 के प्रकाशन में कागज के मूल्य में वृद्धि हो जाने के कारण होने वाली देर से चिन्तित प्रेमचंद इसी पत्र में समस्या का समाधान सुझाते हुए लिखते हैं -

"प्रेम पचीसी हिस्सा दोम को अब छापने की कोशिश की जावे। कागज की गरानी का खयाल अब करना फिजूल है। इसके इंतजार में मुमकिन है दस पाँच बरस लग जायें। पतला कागज लगाइए मगर ताखीर फिजूल है। इस बारे में आपका जो खयाल हो उससे मुत्तिला फरमाइएगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 51)

प्रेमचंद का यह पत्र पाकर निगम साहब ने इस कहानी संकलन के प्रकाशन के सम्बन्ध में जो कुछ लिखा होगा, उसके उत्तर में प्रेमचंद ने अपने 2 जनवरी 1917 के पत्र में निगम साहब को पुनः लिखा -

"हिस्सा दोम प्रेम पचीसी को निकालिए। हल्के कागज पर सही। जिस कागज पर आजाद छपता है उसी पर हो तो क्या नुकसान। जल्द करना चाहिए क्योंकि प्रेम बत्तीसी भी पूरी हुआ चाहती है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 56)

‘प्रेम पचीसी’, भाग-2 के मुद्रण के लिए हल्के कागज का प्रयोग कर लेने के सम्बन्ध में इस पत्रांश का विवेच्य पत्र के उपर्युक्त उद्धृत अंश से साम्य यही प्रमाणित करता है कि यह विवेच्य पत्र निश्चित रूप से उपर्युक्त पत्र से पहले ही लिखा गया था।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र 24 नवम्बर 1916 को लिखा जाना प्रमाणित होता है।

19. पत्रांक-51 : कथित रूप से अनुमानतः अन्त 1915 में लिखा गया (पृ. 53)

मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 में इस पत्र को अनुमानतः अक्तूबर 1915 में लिखा गया (पत्रांक-54, पृ. 61-62) बताने के साथ कपितय परिवर्तनों के साथ अनुमानतः जुलाई 1935 में लिखा गया (पत्रांक-611, पृ. 564-65) बताकर दो भिन्न-भिन्न पत्रों के रूप में प्रकाशित कराया है। डॉ. जाबिर हुसैन ने भी ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 में इस पत्र को अनुमानतः अन्त 1915 में लिखा गया (पृ. 52) बताने के साथ कतिपय परिवर्तनों के साथ अनुमानतः जुलाई 1935 में लिखा गया (पृ. 485) बताकर प्रकाशित कराया है। इसी प्रकार डॉ. कमल किशोर गोयनका ने भी ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ में इस पत्र को अनुमानतः अन्त 1915 में लिखा गया (पृ. 174) बताने के साथ कतिपय परिवर्तनों के साथ अनुमानतः जुलाई 1935 में लिखा गया (पृ. 315) बताकर दो भिन्न-भिन्न पत्रों के रूप में ही प्रकाशित कराया है। आश्चर्यजनक तथ्य यह भी है कि इस पत्र का जो किंचित भिन्न पाठ इन तीनों विद्वानों ने अनुमानतः जुलाई 1935 में लिखा गया बताकर प्रेमचंद के एक भिन्न पत्र के रूप में प्रकाशित कराया है, ठीक वही पाठ स्वयं डॉ. कमल किशोर गोयनका ने सन् 1988 में ‘प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य’, भाग-2 में पृष्ठ संख्या 36 पर प्रेमचंद के एक ‘अप्राप्य पत्र’ के रूप में प्रकाशित कराया था। इसका अर्थ यही है कि प्रेमचंद के एक ही पत्र को किंचित भिन्न पाठ एवं भिन्न अनुमानित तिथि का लिखा हुआ बताकर एक पृथक् एवं भिन्न पत्र के रूप में प्रकाशित करा देने के भ्रम के प्रवर्तक डॉ. कमल किशोर गोयनका ही हैं। डॉ. गोयनका के इस नितान्त अनुत्तरदायित्वपूर्ण कार्य की पृष्ठभूमि क्या है यह कह पाना तो कुछ सम्भव नहीं है, लेकिन इतना अवश्य है कि इस प्रकार भ्रामक वातावरण की सर्जना करने से प्रेमचंद के अत्यन्त अव्यवस्थित जीवन की उलझी-बिखरी कड़ियाँ और भी उलझ-बिखर जाती हैं। अतः यह भ्रम तत्काल दूर हो जाना चाहिए कि प्रेमचंद का जो पत्र अनुमानतः जुलाई 1935 में लिखा गया बताकर एक पृथक् पत्र के रूप में संकलित/प्रकाशित किया गया है, वह प्रेमचंद का कोई भिन्न पत्र है। इसीलिए जुलाई 1935 की अनुमानित तिथि के पत्र पर विचार न करके इसके प्रथम प्रकाशित पाठ एवं ‘चिट्ठी पत्री’ में प्रकाशित पत्र को ही प्रस्तुत विवेचना का आधार बनाया गया है।

प्रेमचंद ने अपने एक लेख के साथ प्रेषित किए गए इस पत्र में निगम साहब को लिखा था -

"‘हँसी’ पर एक मजमून हस्ब वायदा रवानये खिदमत है। मजमून नामुकम्मल है। अभी असल मजमून ही पूरा नहीं शाया हुआ। जब वह पूरा हो जाये तो उसका दूसरा हिस्सा भेज दूँगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 53)

प्रेमचंद ने अपने 16 दिसम्बर 1915 के पत्र द्वारा निगम साहब से नागरी प्रचारिणी पत्रिका में हँसी (जराफत) पर प्रकाशित हुए एक हिन्दी में अनूदित लेख का उर्दू अनुवाद करके भेज देने की अनुमति माँगते हुए लिखा था -

"नागरी प्रचारिणी में जराफत पर एक बहुत आलिमाना मजमून छपा है। तर्जुमा है। कहिए तो जमाना के लिए कुछ नये उनवान से इसी पर लिख दूँ।... जवाब से बहुत जल्द मुत्तिला कीजिए। क्योंकि मजमून लंबा है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 51)

प्रेमचंद का यह पत्र पाकर निगम साहब ने तत्काल प्रेमचंद को सहमति पत्र लिखकर भेज दिया होगा, जिसके उपरान्त प्रेमचंद ने इस हिन्दी में अनूदित लेख का उर्दू अनुवाद करके अपने इस विवेच्य पत्र के साथ निगम साहब को भेज दिया होगा, जो उन्होंने ‘जमाना’ के फरवरी 1916 के अंक में ‘हँसी’ शीर्षक से प्रकाशित कर दिया था। ध्यातव्य है कि ‘जमाना’ के फरवरी 1916 के अंक में प्रकाशित इस लेख के अन्त में एक कोष्ठक में ‘बाकी आइन्दा’ शब्द भी प्रकाशित हुए थे, जिनसे इस विवेच्य पत्र के उपर्युक्त उद्धृत शब्दों की पुष्टि होती है।

इस विवेच्य पत्र के उपर्युक्त उद्धृत अंश से यह भी स्पष्ट है कि प्रेमचंद का जो लेख ‘जमाना’ में ‘हँसी’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था, वह अपूर्ण था और प्रेमचंद ने इसका शेषांश भी उर्दू में अनुवाद करके भेज देने का आश्वासन निगम साहब को दिया था। लेकिन जब निगम साहब को इसका शेषांश नहीं मिला तो उन्होंने प्रेमचंद को स्मरण पत्र लिखा, जिसके उत्तर में प्रेमचंद ने 3 मई 1916 के पत्र107 107. (इस पत्र पर ‘चिट्ठी पत्री’ में 3 मई 1914 की अशुद्ध तिथि प्रकाशित है, जिस पर यथास्थान विचार प्रस्तुत है।) द्वारा निगम साहब को सूचना देते हुए लिखा -

"हँसी’ का बकिया जल्द लिखूँगा। नागरी प्रचारिणी पत्रिका में वह सिलसिला अभी खत्म नहीं हुआ। मगर अब हरेक नम्बर में दो तीन सफों से ज्यादा नहीं निकलते। पूरा निकल आये तो जमाना के पाँच - छ सफों का मसाला हो जाये।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 30)

प्रेमचंद ने इस लेख का शेषांश निगम साहब को भेजा या नहीं, यह तो कुछ ज्ञात नहीं होता, लेकिन यह अवश्य है कि ‘जमाना’ में इसका शेष अंश कभी प्रकाशित नहीं हुआ।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र जनवरी 1916 में लिखा जाना प्रमाणित होता है।

20. पत्रांक-70 : कथित रूप से 11 सितम्बर 1917 को लिखा गया (पृ. 65)

मदन गोपाल ने ‘प्रेमचंद के खुतूत’ (पृ. 72-73) में इस पत्र को 11 सितम्बर 1918 को लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है, जबकि डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 63) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 185) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए 11 सितम्बर 1917 को लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है। आश्चर्यजनक रूप से मदन गोपाल ने इसी पत्र को ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 में पृष्ठ संख्या 82-83 पर पत्रांक 80 के रूप में प्रकाशित कराते समय तो इस पर 11 सितम्बर 1917 की तिथि प्रकाशित कराई है और साथ ही इसी संकलन में पृष्ठ संख्या 98-99 पर पत्रांक 101 पर एक भिन्न पत्र के रूप में प्रकाशित कराते हुए इस पर 11 सितम्बर 1918 की तिथि प्रकाशित कराई है। प्रतीत होता है कि ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’ के सम्बन्धित खण्ड का सम्पादन करते समय मदन गोपाल स्वयं अपने सम्पादन में प्रकाशित संकलन ‘प्रेमचंद के खुतूत’ से भ्रमित हो गए और इस एक ही पत्र को दो भिन्न-भिन्न पत्रों के रूप में संकलित कर देने की भूल कर बैठे।

इस पत्र में प्रेमचंद ने शिकायत करते हुए निगम साहब को लिखा था -

"आपकी खमोशी गजब ढाती है। मजमून भेजा, ‘सप्त-सरोज’ भेजा। लेकिन आपने एक रसीद की तकलीफ भी गवारा न की।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 65)

स्पष्ट है कि यह पत्र लिखने से पूर्व ही प्रेमचंद अपना प्रथम हिन्दी कहानी संकलन ‘सप्त सरोज’ निगम साहब को प्रेषित कर चुके थे। ‘सप्त सरोज’ के प्रथम प्रकाशन के सम्बन्ध में डॉ. माता प्रसाद गुप्त लिखते हैं -

"सप्त सरोज : प्रकाशक - महावीर प्रसाद पोद्दार, हिन्दी-पुस्तक एजेन्सी, गोरखपुर, 1-8-17, प्रथम संस्करण (उत्तर प्रदेशीय पुस्तक सूची, तृतीय पर्व, 1917)" (प्रेमचंद की कृतियों का प्रकाशन-तिथियाँ; साहित्य, मासिक, पटना, अप्रैल 1960, पृ. 72

इस तथ्य के आलोक में यह पत्र जुलाई 1917 के पश्चात् ही लिखा गया था।

इसी पत्र में प्रेमचंद अपने उर्दू कहानी संकलन ‘प्रेम पचीसी’, भाग-1 के मुद्रण के सम्बन्ध में लिखते हैं -

"प्रेम-पचीसी’ के मुताल्लिक आपने क्या कार्रवाई की। लखनऊ आ गयी या कानपुर ही में कोई दूसरा इन्तजाम हुआ।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 65)

‘प्रेम पचीसी’, भाग-1 का मुद्रण कार्य कानपुर के स्थान पर लखनऊ में करा लेने का सुझाव देते हुए प्रेमचंद ने 22 अगस्त 1917 के पत्र112 112. (इस पत्र पर ‘चिट्ठी पत्री’ में 22 अगस्त 1918 की अशुद्ध तिथि प्रकाशित है, जिस पर यथास्थान विचार प्रस्तुत है।) में निगम साहब को लिखा था -

"प्रेम पचीसी’ बेहतर है लखनऊ ही में छपवा लीजिये। शायद वहाँ छपाई का निर्ख भी कुछ कम हो।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 73)

स्पष्ट है कि यह पत्र लिखने के उपरान्त ही प्रेमचंद ने निगम साहब को दिए गए सुझाव का प्रभाव जानने के लिए इस विवेच्य पत्र में उपर्युक्त उद्धृत शब्द लिखे थे।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र 11 सितम्बर 1917 को लिखा जाना प्रमाणित होता है और मदन गोपाल द्वारा प्रकाशित कराई गई 11 सितम्बर 1918 की तिथि अशुद्ध सिद्ध होती है।

21. पत्रांक-75 : कथित रूप से अनुमानतः मार्च 1918 में लिखा गया (पृ. 67-68)

मदन गोपाल ने ‘प्रेमचंद के खुतूत’ (पृ. 51-52) और ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 37-38) में इस पत्र को मार्च 1914 में लिखा गया गया बताकर प्रकाशित कराया है, जबकि डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 73-74) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 188-89) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए अनुमानतः मार्च 1918 में लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है।

इस पत्र में अपना एक जीवनीपरक लेख पूर्ण हो जाने की सूचना देते हुए प्रेमचंद लिखते हैं -

"राणा जंगबहादुर की सवानेहउम्री लिखी है। कल परसों तक पूरी हो जायगी। साफ न करूँगा क्योंकि कई दिन की देर हो जायगी।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 67)

प्रेमचंद ने 10 फरवरी 1916 के पत्र में एक लेख लिखने का संकल्प व्यक्त करते हुए निगम साहब को लिखा था -

"राना जंगबहादुर आफ नैपाल की सवाने उमरी लिखने का इरादा है। मसाला जमा कर लिया है। बहुत जल्द लिखकर भेजूँगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 54)

स्पष्ट है कि उपर्युक्त शब्दों में प्रेमचंद वही लेख लिखने का संकल्प व्यक्त कर रहे हैं जिसके पूर्ण होने की चर्चा उन्होंने इस विवेच्य पत्र के उपर्युक्त उद्धृत अंश में की है। और, इस विवेच्य पत्र के लिखने के उपरान्त प्रेमचंद ने अपने 3 मई 1916 के पत्र116 116. (इस पत्र पर ‘चिट्ठी पत्री’ में 3 मई 1914 की अशुद्ध तिथि प्रकाशित है, जिस पर यथास्थान विचार प्रस्तुत है।) के साथ यह लेख भेजते हुए निगम साहब को लिखा था -

"लीजिए राना जंगबहादुर हाजिर है। मैंने साफ नहीं किया। कई दिन और लग जाते।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 30)

उपर्युक्त पत्रांश से स्पष्ट है कि प्रेमचंद ने इस लेख की पाण्डुलिपि में संशोधन नहीं किया था और यह पत्रांश विवेच्य पत्र के पूर्व उद्धृत शब्दों - ‘साफ न करूँगा क्योंकि कई दिन की देर हो जायगी’ से पूर्णरूपेण साम्य रखता है। प्रेमचंद का प्रेषित किया हुआ यह लेख ‘जमाना’ के जुलाई 1916 के अंक में ‘राणा जंग बहादुर’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था, इस तथ्य के आलोक में यह अनुमान करना कुछ असंगत न होगा कि यह विवेच्य पत्र 10 फरवरी 1916 से 3 मई 1916 के मध्य ही लिखा गया था।

इसी पत्र में ‘जमाना’ में ‘प्रेम पचीसी’ का विज्ञापन प्रकाशित न होने पर प्रेमचंद निगम साहब से पूछते हैं -

"प्रेम पचीसी’ का इश्तहार फर्वरी के ‘जमाना’ में भी नहीं है। क्यों?" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 68)

ध्यातव्य है कि ‘जमाना’ के जनवरी 1916 के अंक में ‘प्रेम पचीसी’ का विज्ञापन प्रकाशित न होने पर आगामी अंक में इसके प्रकाशन का अनुरोध करते हुए प्रेमचंद ने 10 फरवरी 1916 के पत्र में निगम साहब को लिखा था-

"जमाना में पचीसी का इश्तहार न देखकर ताज्जुब हुआ। अगर भूलकर रह गया हो तो बराहे करम फरवरी से जरूर दर्ज करा दें।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 54)

इस आधार पर यह विवेच्य पत्र फरवरी 1916 के पश्चात् ही लिखा गया था।

इसी पत्र में प्रेमचंद अपनी रचनाओं के कतिपय अंशों की चोरी से खीझकर लिखते हैं -

"मेरे मजमून के आजकल बहुत चोर हो रहे हैं।... मुझे शिवशम्भू देखने का मौका मिला। उसे गौरी शंकर लाल अख्तर निकालते हैं। हजरत ने मेरी इबारत के पूरे-पूरे पैराग्राफ नकल कर लिए हैं। जनवरी, फर्वरी, मार्च, तीनों नम्बरों में यही हाल है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 67)

स्पष्ट है कि लाहौर से गौरीशंकर लाल अख्तर के सम्पादन में प्रकाशित होने वाले उर्दू मासिक ‘शिवशम्भू’ के मार्च 1916 के अंक को देखने के उपरान्त ही प्रेमचंद ने निगम साहब को यह विवेच्य पत्र लिखा था।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र मार्च 1916 में लिखा जाना प्रमाणित होता है।

22. पत्रांक-80 : कथित रूप से 29 जुलाई 1918 को लिखा गया (पृ. 72)

मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 95), डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 69) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 191-92) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए 29 जुलाई 1918 को लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है।

इस पत्र में प्रेमचंद ने कलकत्ते के महावीर प्रसाद पोद्दार द्वारा कागज खरीदकर न भेजने का कारण बताते हुए निगम साहब को लिखा -

"कलकत्ते से पोद्दार महाशय का खत आया है। वह कहते हैं कागज रोज कुछ न कुछ गिर रहा है। इसी वजह से वह खरीदने में तअम्मुल कर रहे हैं। इसी वजह से मैंने भी उजलत नहीं की कि शायद दस पाँच रुपये की बचत हो जाये। मगर मैं आज लिख देता हूँ कि जिस भाव मिले फौरन भेज दो।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 72)

जुलाई 1918 में प्रेमचंद की कोई पुस्तक मुंशी दयानारायण निगम के जमाना प्रेस में मुद्रणाधीन नहीं थी, लेकिन मध्य 1919 में उनका उर्दू कहानी संकलन ‘प्रेम बतीसी’, भाग-1 अवश्य ही मुद्रणाधीन था, जो दिसम्बर 1920 में प्रकाशित हुआ था। इस कहानी संकलन की किताबत होने और महावीर प्रसाद पोद्दार के माध्यम से कागज का नमूना मँगाने के सम्बन्ध में प्रेमचंद ने 16 जुलाई 1919 के पत्र में निगम साहब को लिखा था -

"मालूम नहीं कलकत्ते से महावीर प्रसाद पोद्दार ने कागज का नमूना भेजा या नहीं। मुझे भी उन्हें याद दिलाने का खयाल न रहा। आज याददिहानी कर रहा हूँ। किताबत तब तक जारी रहे।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 84)

इस पत्र के साथ ही प्रेमचंद ने महावीर प्रसाद पोद्दार को भी स्मरण पत्र लिखा होगा, जिसके उत्तर में प्राप्त उनके पत्र का सन्दर्भ इसी विवेच्य पत्र के उपर्युक्त उद्धृत अंश में प्राप्त होता है। और, जैसा कि प्रेमचंद ने इस विवेच्य पत्र के उपर्युक्त उद्धृत अंश में लिखा है, उन्होंने इसके साथ ही पोद्दारजी को तत्काल कागज खरीदकर भेज देने के लिए लिख दिया होगा, जिसके उत्तर में उन्होंने कागज खरीदकर भेज देने की सूचना देते हुए प्रेमचंद को पत्र लिखा होगा। इस सम्बन्ध में सूचना देते हुए प्रेमचंद ने 5 अगस्त 1919 के पत्र में निगम साहब को लिखा था -

"आज महावीर प्रसाद पोद्दार का खत आया है कि उन्होंने एक गांठ कागज कानपुर भिजवा दिया। कागज चिकना है। शायद 10) रीम पड़ेगा।... शायद 20 या 22 रीम होगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 85)

इस आधार पर यह विवेच्य पत्र 16 जुलाई 1919 से 5 अगस्त 1919 के मध्य ही लिखा गया था।

इसी विवेच्य पत्र में प्रेमचंद ने मारिस माटरलिंक के एक नाटक का उर्दू अनुवाद पूर्ण होने की सूचना देने के साथ इसकी भूमिका लेखनाधीन होने के सम्बन्ध में निगम साहब को लिखा था -

"जमाना के लिए मैंने माटरलिंक का एक ड्रामा जो तकरीबन जमाना के तीस सुफहात होगा तर्जुमा किया है। अनकरीब इरसाल करूँगा। आजकल माटरलिंक पर एक मुख्तसर-सा दीबाचा लिख रहा हूँ।"1 (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 72)

इस अनूदित नाटक के भूमिका सहित पूर्ण हो जाने की सूचना प्रेमचंद ने 5 अगस्त 1919 के पत्र द्वारा देते हुए निगम साहब को लिखा था -

"माटरलिंक का ड्रामा तैयार है। तमहीद भी मुख्तसर-सी लिखी। ज्यादा मसाला न मिल सका। साफ करते ही भेजूँगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 85)

यह लिखने के कुछ दिन पश्चात् ही प्रेमचंद ने इस अनूदित नाटक का एक अंश और अपनी लिखी हुई संक्षिप्त भूमिका निगम साहब को भेज दी होगी, जो ‘जमाना’ के सितम्बर 1919 के अंक में प्रकाशित हो गया। इसके पश्चात् इस नाटक का शेष अंश भेजते हुए प्रेमचंद ने निगम साहब को 5 सितम्बर 1919 के पत्र में लिखा -

"शबे तार का बकिया हिस्सा रवाना करता हूँ।... अगर तकलीफ न हो तो शबे तार की मजदूरी इसी माह में भिजवा दीजिएगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 86)

लेकिन इस अनुवाद के शेषांश की प्राप्ति सूचना न मिलने पर प्रेमचंद ने 20 सितम्बर 1919 के पत्र में निगम साहब को लिखा -

"शबे तार का बकिया हिस्सा अर्सा हुआ रवाना खिदमत कर चुका मगर अभी तक उसकी रसीद से महरूम हूँ।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 87)

निगम साहब ने प्रेमचंद को इसकी प्राप्ति सूचना दी अथवा नहीं, यह तो कुछ ज्ञात नहीं होता लेकिन इस अनूदित नाटक का शेषांश ‘जमाना’ के अक्तूबर 1919 के अंक में प्रकाशित अवश्य कर दिया था।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र 29 जुलाई 1919 को लिखा जाना प्रमाणित होता है।

23. पत्रांक-81 : कथित रूप से 22 अगस्त 1918 को लिखा गया (पृ. 72-73)

मदन गोपाल ने ‘प्रेमचंद के खुतूत’ (पृ. 64-65) में इस पत्र को 22 अगस्त 1917 को लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है, जबकि डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 69-70) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 192) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए 22 अगस्त 1918 को लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है। आश्चर्यजनक रूप से मदन गोपाल ने इसी पत्र को ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 में पृष्ठ संख्या 82 पर पत्रांक 79 के रूप में प्रकाशित कराते समय इस पर 22 अगस्त 1917 की तिथि प्रकाशित कराई है और साथ ही इसी संकलन में पृष्ठ संख्या 95-96 पर पत्रांक 98 पर एक भिन्न पत्र के रूप में प्रकाशित कराते हुए इस पर 22 अगस्त 1918 की तिथि प्रकाशित कराई है। प्रतीत होता है कि ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’ के सम्बन्धित खण्ड का सम्पादन करते समय मदन गोपाल स्वयं अपने सम्पादन में प्रकाशित संकलन ‘प्रेमचंद के खुतूत’ से भ्रमित हो गए और इस एक ही पत्र को दो भिन्न-भिन्न पत्रों के रूप में संकलित कर देने की भूल कर बैठे।

इस पत्र में प्रेमचंद अपने हिसाब का विवरण निगम साहब को निम्नांकित शब्दों में लिखते हैं -

"बहुत अरसा हुआ मैंने हिसाबों की तफसील लिखी थी और आपसे इलतिजा की कि उसे नोट फर्मा लीजियेगा। गालिबन आपने नोट नहीं किया। उस वक्त 63) होते थे। इसके बाद मुझे 30) वसूल हुए। लेकिन 5) का और इजाफा हुआ। इस तरह 38) रह गये। 5) मुझे गर्मियों की तातील में बमद पार्चेजात मिले। इसे वजा करने के बाद 33 रह गये। अब यह मजमून जाता है 5 इसके भी महसूब फरमाइये। तो फिर 38) के 38) रह जायेंगे।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 72-73)

स्पष्ट है कि इस पत्र से पूर्व प्रेमचंद निगम साहब को हिसाब लिखकर भेज चुके थे और इस पत्र में हिसाब पुनः लिखा था। प्रेमचंद ने 23 मार्च 1917 के पत्र में निगम साहब को हिसाब निम्नानुसार लिखकर भेजा था -

"मुझे 43) में से 10) मिले, 33) और रहे। इसमें इस मजमून को और इजाफा फरमाइये तो 38) होते हैं।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 61)

इस पत्र में प्रेमचंद ने निगम साहब के नाम 38 रुपये बकाया लिखे हैं, जो विवेच्य पत्र के उपर्युक्त पत्रांश से साम्य रखते हैं। अतः स्पष्ट है कि यह विवेच्य पत्र 23 मार्च 1917 के पश्चात् ही लिखा गया था।

इस विवेच्य पत्र में ‘प्रेम पचीसी’, भाग-1 के मुद्रण कार्य के सम्बन्ध में प्रेमचंद लिखते हैं -

"‘प्रेम पचीसी’ बेहतर है लखनऊ ही में छपवा लीजिये। शायद वहाँ छपाई का निर्ख भी कुछ कम हो।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 73)

11 सितम्बर 1917 को निगम साहब के नाम लिखे गए पत्र में प्रेमचंद ने इस सम्बन्ध में लिखा था-

"‘प्रेम पचीसी’ के मुताल्लिक आपने क्या कार्रवाई की। लखनऊ आ गयी या कानपुर ही में कोई दूसरा इन्तजाम हुआ।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 65)

स्पष्ट है कि प्रेमचंद ने अपने विवेच्य पत्र में ‘प्रेम पचीसी’ का मुद्रण कार्य लखनऊ में करा लेने का जो सुझाव निगम साहब को दिया था, उपर्युक्त पत्र में वे उस पर उनके निर्णय के सम्बन्ध में ही जिज्ञासा कर रहे हैं। इस आधार पर यह विवेच्य पत्र निश्चित रूप से 11 सितम्बर 1917 से पूर्व ही लिखा गया था।

इसी पत्र के साथ प्रेमचंद ने निगम साहब को एक कहानी भी ‘जमाना’ में प्रकाशनार्थ प्रेषित की थी, जिसके सम्बन्ध में वे लिखते हैं -

"किस्सा इरसाले खिदमत है।... यह मजमून मैंने साफ नहीं किया । बहुत तूल है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 72-73)

प्रेमचंद के शब्द ‘बहुत तूल है’ विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हैं, जो कहानी के सुदीर्घ होने की स्पष्ट घोषणा करते हैं। प्रेमचंद की एक लम्बी कहानी ‘ईमान का फैसला’ शीर्षक से ‘जमाना’ के अक्तूबर तथा नवम्बर 1917 के दो अंकों में क्रमशः प्रकाशित हुई थी। अतः प्रेमचंद के उपर्युक्त शब्द इसी कहानी की ओर इंगित करते हैं, इसमें सन्देह नहीं। जब प्रेमचंद को निगम साहब की ओर से इस कहानी की प्राप्ति सूचना प्राप्त नहीं हुई तो उन्होंने 11 सितम्बर 1917 के पत्र में निगम साहब से शिकायत करते हुए लिखा था -

"आपकी खमोशी गजब ढाती है। मजमून भेजा, ‘सप्त-सरोज’ भेजा। लेकिन आपने एक रसीद की तकलीफ भी गवारा न की।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 65)

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र 22 अगस्त 1917 को लिखा जाना प्रमाणित होता है।

24. पत्रांक-99 : कथित रूप से 15 मई 1919 को लिखा गया (पृ. 84)

मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 113) में इस पत्र पर 12 मई 1919 की तिथि प्रकाशित कराई है, जबकि डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 80) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 202) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए 15 मई 1919 को लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है।

इस पत्र को सभी विद्वानों ने रामपुर से लिखा गया बताकर ही प्रकाशित कराया है। प्रेमचंद ने 20 अप्रैल 1920 को गोरखपुर से लिखे पत्र में निगम साहब को सूचना देते हुए लिखा था -

"मेरा मदरसा 1 मई को बंद होगा।... मैं 1 को यहाँ से चला जाऊँगा। अगर जवाबे खत में देर हो तो मेरा पता नोट फरमा लें :

डाकखाना रामपुर

गाँव रामपुर

जिला आजमगढ़

मैं 10 मई तक इस मौजे में रहूँगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 100)

स्पष्ट है कि विद्यालय के ग्रीष्मावकाश के कारण प्रेमचंद 1 मई 1920 को गोरखपुर से चलकर रामपुर, जनपद आजमगढ़ में जाकर रहने वाले थे और वहाँ मूल रूप से उनका विचार 10 मई तक रहने का था। अतः यह विवेच्य पत्र 1920 में लिखा गया प्रतीत होता है। लेकिन इस पत्र पर उपलब्ध दोनों तिथियाँ 15 मई और 12 मई उपर्युक्त उल्लेख के आलोक में संदेहास्पद प्रतीत होती हैं। परन्तु 1 मई को गोरखपुर से चलकर प्रेमचंद रामपुर क्यों गए और वहाँ कब तक रहे, यह इसी विवेच्य पत्र में लिखे निम्नांकित विवरण से स्पष्ट है -

"मैंने गोरखपुर से एक खत लिखा था। 3 मई को लाला तेजनरायन लाल की शादी में यहाँ चला आया। 18 को यहाँ से चलने का कस्द है। इस दरमियान में मुझ पर कई सानिहे गुजरे। मेरी हमशीरा साहबा का 4 मई को इंतकाल हो गया। मेरे एक नौजवान साले का 5 मई को।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 84)

स्पष्ट है कि परिवार में दैवी आपदाओं के कारण प्रेमचंद रामपुर में 10 मई तक रुकने के स्थान पर लगभग 18 मई तक रुके रहे, और इस तथ्य के आलोक में रामपुर से 12 मई अथवा 15 मई को पत्र लिखने में कुछ असंगति नहीं रहती।

अब प्रश्न यह है कि क्या गोरखपुर से 20 अप्रैल को लिखा गया उपर्युक्त सन्दर्भित पत्र 1920 में ही लिखा गया था? इस पत्र में प्रेमचंद लिखते हैं -

"इसके कब्ल दो चिट्ठियाँ लिख चुका हूँ। मसनविए ‘हुस्ने फितरत’ के मुताल्लिक आपने क्या फैसला किया है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 100)

स्पष्ट है कि यह पत्र लिखने से पूर्व प्रेमचंद निगम साहब को मुंशी गोरख प्रसाद इबरत की मसनवी ‘हुस्ने फितरत’ के प्रकाशन के सम्बन्ध में दो पत्र लिख चुके थे। इन दो पत्रों में से 4 अप्रैल 1920 को लिखे पहले पत्र में प्रेमचंद ने इस सम्बन्ध में लिखा था -

"मैंने यहाँ से इबरत मरहूम की मसनवी ‘हुस्ने फितरत’ रवाना की थी। वह जमाना में अभी तक नहीं निकली।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 99)

और 14 अप्रैल 1920 को लिखे गए दूसरे पत्र में प्रेमचंद ने इसी सम्बन्ध में पुनः लिखा था -

"मुंशी गोरखप्रसाद साहब मरहूम की मसनवी ‘हुस्ने फितरत’ के मुताल्लिक आपने क्या फैसला फरमाया है। जल्द मुत्तिला फरमाइए।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 100)

यही नहीं, अपने इसी 20 अप्रैल के पत्र द्वारा प्रेमचंद ने निगम साहब को सूचना दी थी -

"इरादा करता हूँ कि कानपुर में आकर नियाज हासिल करूँ लेकिन इसके कब्ल एक माह तक ऋषीकेश रहने का कस्द है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 100)

और अपने संकल्प के अनुसार प्रेमचंद ऋषिकेश आदि स्थानों की यात्रा करते हुए 6 जून 1920 को देहरादून पहुँचे, जहाँ से उसी दिन लिखे पत्र में उन्होंने निगम साहब को लिखा -

"मैं हरद्वार, कनखल, ऋषीकेश वगैरह होता हुआ आज देहरादून आ गया और बहुत जल्द यहाँ से भागने का कस्द रखता हूँ।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 101)

6 जून 1920 को ही प्रेमचंद ने ‘रेस्ट हाउस, नीयर रेलवे स्टेशन, देहरादून’ के पते से सैयद इम्तियाज अली ताज को भी एक पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने लिखा था -

"मैं आजकल कनखल, ऋषिकेश वगैरा का सफर करता हुआ देहरादून आ पहुँचा। मैंने कनखल से एक खत आपकी खिदमत में रवाना किया था। मालूम नहीं पहुँचा या नहीं। मुझे उसका जवाब नहीं मिला।... मैं बहुत जल्द यहाँ से चला जाऊँगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 113-114))

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि ‘चिट्ठी पत्री’ में पत्रांक 121 के रूप में प्रकाशित पत्र की 20 अप्रैल 1920 की तिथि प्रामाणिक है। और, इसके आलोक में यह विवेच्य पत्र 1920 में ही लिखा जाना प्रमाणित होता है।

उपर्युक्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र 12 अथवा 15 मई 1920 को लिखा जाना प्रमाणित होता है। इन दोनों तिथियों में से कौन सी तिथि प्रामाणिक है, इसके निर्धारण के लिए मूल पत्र का सन्दर्भ ग्रहण करना आवश्यक है।

25. पत्रांक-108 : कथित रूप से 28 नवम्बर 1919 को लिखा गया (पृ. 90-91)

मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 132-33), डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 92) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 207-8) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए 28 नवम्बर 1919 को लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है। अनुकरण में किस प्रमाद का परिचय दिया गया है, यह इस तथ्य से स्पष्ट हो जाता है कि ‘चिट्ठी पत्री’, भाग-1 में अमृत राय ने पत्रांक 108 को 28 नवम्बर 1919 का लिखा प्रकाशित कराने के अनन्तर व्यतिक्रम से पत्रांक 109 प्रकाशित कराया है जिस पर 20 नवम्बर 1919 की तिथि प्रकाशित है, और यही क्रम डॉ. कमल किशोर गोयनका के कुशल सम्पादन में प्रकाशित ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ में भी दृष्टिगोचर होता है जहाँ निगम साहब के नाम लिखा 28 नवम्बर 1919 का पत्र पत्रांक 112 पर प्रकाशित है और पत्रांक 113 पर 20 नवम्बर 1919 का लिखा हुआ पत्र प्रकाशित है।

इस पत्र में प्रेमचंद ने अपने उर्दू कहानी संकलन ‘प्रेम बतीसी’, भाग-1 में सम्मिलित होने वाली कहानियों का क्रम भेजने के साथ ही इसकी किताबत आरम्भ करा देने का अनुरोध करते हुए लिखा था -

"प्रेम बत्तीसी के मजामीन की तरतीब भेजता हूँ। किताबत142 142. (सभी संकलनों में यह शब्द सम्भवतः अशुद्ध रूप से किताब’ छपा है, शुद्ध रूप किताबत होना चाहिए)शुरू करवा दीजिए।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 91)

दिसम्बर 1920 में प्रकाशित होने वाले संकलन ‘प्रेम बत्तीसी’, भाग-1 के लिए कहानियों का चयन कर लेने की सूचना देते हुए प्रेमचंद ने 27 अक्तूबर 1918 के पत्र में निगम साहब को लिखा था -

"आपने प्रेम बत्तीसी की इशाअत के मुताल्लिक क्या तजवीज सोची थी वह न मालूम हुई। हिस्सा अव्वल के लिए मैंने किस्सों का इंतखाब कर लिया है। लेकिन इशाअत की क्या सूरत होगी। मुफस्सल लिखिएगा तो मैं यहाँ से वह मुसव्वदे भेज दूँ जो जमाना में नहीं छपे हैं।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 75)

यह पत्र लिखने पर भी जब निगम साहब ने ‘प्रेम बतीसी’ के प्रकाशन के सम्बन्ध में अपना प्रस्ताव नहीं लिखा तो प्रेमचंद ने इस सम्बन्ध में पुनः पूछते हुए 13 नवम्बर 1918 के पत्र में लिखा -

"प्रेम बत्तीसी के मुताल्लिक आपने न जाने क्या तजवीज की थी। उससे भी इत्तला न दी।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 76)

इसके उत्तर में निगम साहब का प्रस्ताव प्राप्त हो जाने के उपरान्त ही प्रेमचंद ने यह विवेच्य पत्र लिखा होगा जिसके साथ उन्होंने ‘प्रेम बतीसी’ के लिए कहानियों का क्रम भेजने (यह क्रम प्रेमचंद ने पृथक् से लिख भेजा होगा, जो सम्प्रति उपलब्ध नहीं है) के साथ ही इसकी किताबत आरम्भ कराने का भी अनुरोध किया है। और, इस विवेच्य पत्र के उपरान्त ही प्रेमचंद ने ‘प्रेम बत्तीसी’ की किताबत आरम्भ होने के सम्बन्ध में जिज्ञासा करते हुए 20 दिसम्बर 1918 के पत्र में निगम साहब को लिखा था -

"प्रेम बत्तीसी की किताबत शुरू हुई या नहीं।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 77)

इस आधार पर यह विवेच्य पत्र निश्चित रूप से 1918 में ही लिखा गया था।

इसी पत्र में प्रेमचंद ने अपने उर्दू उपन्यास ‘बाजारे हुस्न’ का हिन्दी रूप प्रकाशित हो जाने की सूचना देते हुए लिखा था -

"बाजारे हुस्न का हिन्दी एडीशन 550 सुफहात पर खत्म हुआ। छपकर तैयार हो गया। ज्यों ही यहाँ आया उसकी एक कापी नज्र करूँगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 91)

ध्यातव्य है कि ‘बाजारे हुस्न’ का हिन्दी रूप ‘सेवासदन’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। प्रेमचंद के उपर्युक्त शब्दों से स्पष्ट है कि यह पत्र लिखने तक ‘सेवासदन’ प्रकाशित अवश्य हो गया था, लेकिन उसकी कोई प्रति उन्हें हस्तगत नहीं हुई थी। प्रेमचंद के इस हिन्दी उपन्यास के प्रकाशन-काल की सूचना देते हुए डॉ. माता प्रसाद गुप्त लिखते हैं -

"सेवासदन : प्रकाशक महावीरप्रसाद पोद्दार, हिन्दी-पुस्तक एजेन्सी, 126, हैरिसन रोड, कलकत्ता, 15-12-18, प्रथम संस्करण (बंगाल, प्रथम, 1919)" (प्रेमचंद की कृतियों की प्रकाशन-तिथियाँ; साहित्य, मासिक, पटना, अप्रैल 1960, पृ. 72)

डॉ. माता प्रसाद गुप्त द्वारा उपलब्ध कराई गई सूचना बंगाल प्रान्तीय गजट में प्रकाशित होने वाली सूचनाओं पर आधारित है। ध्यातव्य है कि प्रकाशित पुस्तकों की जो त्रैमासिक सूचियाँ गजट में प्रकाशित हुआ करती थीं वे सामान्य रूप से सम्बन्धित कार्यालय में पुस्तक प्राप्ति की तिथियाँ ही हुआ करती थीं। अतः उपर्युक्त सूचना के आधार पर ‘सेवासदन’ उपन्यास 15 दिसम्बर 1918 से पूर्व ही छपकर तैयार हो गया था, इसमें कोई सन्देह नहीं रह जाता। अतः जो पुस्तक 1918 में ही प्रकाशित हो गई हो, उसके ‘छपकर तैयार’ हो जाने की सूचना 1919 में देने का कोई औचित्य नहीं है।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र 28 नवम्बर 1918 को लिखा जाना प्रमाणित होता है।

26. पत्रांक-115 : कथित रूप से 3 फरवरी 1920 को लिखा गया (पृ. 96-97)

मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 140) में इस पत्र पर 4 फरवरी 1920 की तिथि प्रकाशित कराई है जबकि डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 97) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 213) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए 3 फरवरी 1920 को लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है।

इस पत्र में प्रेमचंद लिखते हैं -

"कल एक अरीजा इरसाल कर चुका हूँ।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 96)

स्पष्ट है कि यह पत्र लिखने से ठीक एक दिन पूर्व भी प्रेमचंद ने मुंशी दयानारायण निगम को एक पत्र लिखा था। ‘चिट्ठी पत्री’ में पृष्ठ संख्या 96 पर पत्रांक 114 के रूप में प्रकाशित पत्र पर 3 फरवरी 1920 की तिथि प्रकाशित है, जिससे यह सन्देह उत्पन्न होता है कि इस संकलन के पत्रांक 114 और यह विवेच्य पत्रांक 115, दोनों 3 फरवरी 1920 को ही लिखे गए थे। तब इस विवेच्य पत्र में एक दिन पूर्व पत्र लिखने के उल्लेख का क्या औचित्य है? ‘चिट्ठी पत्री’ में प्रकाशित पत्रांक 114 को ही मदन गोपाल ने ‘प्रेमचंद के खुतूत’ (पृ. 96) और ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 139-40), डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 97) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 212-13) में 3 फरवरी 1920 को लिखे गए पत्र के रूप में ही प्रकाशित कराया है। ध्यातव्य है कि मदन गोपाल ने ‘प्रेमचंद के खुतूत’ में मुंशी दयानारायण निगम को लिखे गए प्रेमचंद के वे ही पत्र प्रकाशित कराए थे जो स्वयं निगम साहब ने उन्हें सौंप दिए थे और अमृत राय ने ‘चिट्ठी पत्री’ का सम्पादन करने समय मदन गोपाल के संग्रह के पत्रों का भी उपयोग किया था। जहाँ तक डॉ. जाबिर हुसैन और डॉ. गोयनका का सम्बन्ध है, उन्होंने अमृत राय का मात्र अनुकरण ही किया है। जिस समय मदन गोपाल ने ‘प्रेमचंद के खुतूत’ का सम्पादन किया था उस समय उन्होंने सम्भवतः ‘चिट्ठी पत्री’ को दृष्टिपथ में नहीं रखा था और इस आधार पर अमृत राय द्वारा ‘चिट्ठी पत्री’ में प्रकाशित पत्रांक 114 की तिथि को प्रामाणिक मानने में कोई संकोच नहीं होता। इस आधार पर यह विवेच्य पत्र निश्चित रूप से 3 फरवरी 1920 से अगले ही दिन अर्थात् 4 फरवरी 1920 को लिखा जाना स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं है।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र 4 फरवरी 1920 को लिखा जाना प्रमाणित होता है, लेकिन इस तिथि निर्धारण को मूल पत्र के सन्दर्भ से पुष्ट किया जाना आवश्यक है।

27. पत्रांक-136 : कथित रूप से अनुमानतः जनवरी 1921 में लिखा गया (पृ. 110-11)

मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 185), डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 132) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 225) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए अनुमानतः जनवरी 1921 में लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है।

अपने उर्दू कहानी संकलन ‘प्रेम बत्तीसी’, भाग-1 के प्रकाशित होकर न पहुँचने पर उसकी प्रतियाँ आवरण पृष्ठ के बिना ही भेज देने का अनुरोध करते हुए प्रेमचंद ने इस पत्र में लिखा था -

"प्रेम बत्तीसी अभी तक तैयार होकर नहीं आयी। टाइटिल पेज में अगर बहुत ज्यादा तरद्दुद हो और जल्द उसके तैयार होने की उम्मीद न हो तो आप उसकी सात सौ जिल्दें बगैर टाइटिल ही के लाहौर दफ्तर कहकशाँ को रवाना फरमा दें। वह अपना टाइटिल छपवाकर लगवा लेंगे।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 110)

स्पष्ट है कि यह पत्र लिखे जाने तक ‘प्रेम बतीसी’, भाग-1 प्रकाशित नहीं हुई थी। इस कहानी संकलन का प्रकाशन दिसम्बर 1920 में हुआ था, अतः यह विवेच्य पत्र निश्चित रूप से दिसम्बर 1920 से पूर्व का ही लिखा हुआ है।

इस कहानी संकलन का मुद्रण कार्य समाप्त होने पर भी आवरण पृष्ठ न छप पाने की सूचना से चिन्तित प्रेमचंद ने 12 नवम्बर 1920 के पत्र में निगम साहब को लिखा था -

"प्रेम बत्तीसी छप गयी, बड़ी खुशी की बात है। अब टाइटिल छप जाये और किताब मेरे सामने आ जाये तो दूनी खुशी हो।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 106)

लेकिन ‘प्रेम बत्तीसी’, भाग-1 के आवरण पृष्ठ की छपाई में विलम्ब होता ही जाता था। इससे झुँझलाकर प्रेमचंद ने 1 दिसम्बर 1920 के पत्र में निगम साहब को लिखा -

"प्रेम बत्तीसी का टाइटिल अभी लगाया नहीं। अब तो लिल्लाह देर न कीजिए। जैसा कागज दस्तयाब हो लेकर किताब निकाल दीजिए।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 107)

यह लिखने पर भी जब आवरण पृष्ठ नहीं छप सका तो प्रेमचंद ने झल्लाकर 11 दिसम्बर 1920 के पत्र में निगम साहब को लिखा-

"रहा टाइटिल। आपको बाजार में जैसा कागज मिले, अच्छा बुरा बढ़िया घटिया ब्राउन काला पीला नीला सब्ज सुर्ख नारंजी लेकिन टाइटिल पेज छपवा दीजिए और किताब की छः सौ जिल्दें (किस्म अव्वल 500 किस्म दोम 100) लाहौर भिजवा दीजिए।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 108)

इसके पश्चात् ही प्रेमचंद ने यह विवेच्य पत्र लिखा, जिसके प्राप्त होने पर निगम साहब ने तत्काल आवरण पृष्ठ छपवाकर इस संकलन की प्रतियाँ प्रेषित करने के अतिरिक्त उन्हें एक पत्र भी लिखा। प्रेमचंद को पुस्तक से पहले पत्र प्राप्त हुआ और उन्होंने तत्काल निगम साहब को प्रसन्नता के साथ 29 दिसम्बर 1920 के पत्र में लिखा -

"प्रेम बत्तीसी निकल गयी। निहायत खुश हुआ।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 108)

प्रकाशित पुस्तकों का पैकेट जब प्रेमचंद को प्राप्त हुआ तो इस पुस्तक का आवरण पृष्ठ देखकर उन्हें जो घोर निराशा हुई वह 18 जनवरी 1921 को निगम साहब के नाम लिखे पत्र से प्रकट होती है, जिसमें वे लिखते हैं -

"बत्तीसी का पैकेट मिला। टाइटिल देखकर रो दिया। बस और क्या लिखूँ। किताब की मिट्टी खराब हो गयी। आपने बेहतर कागज न पाकर यह कागज इस्तेमाल कराया होगा। गालिबन किताब की तकदीर में इस तरह बिगड़ना लिखा था। खैर, फिलहाल चलने दीजिए।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 110)

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र 11 दिसम्बर 1920 से 29 दिसम्बर 1920 के मध्य किसी दिन लिखा जाना प्रमाणित होता है।

28. पत्रांक-147 : कथित रूप से 28 दिसम्बर 1921 को लिखा गया (पृ. 118)

मदन गोपाल ने ‘प्रेमचंद के खुतूत’ (पृ. 143) और ‘कुल्लियाते प्रेमंचद’, भाग-17 (पृ. 201-2) में इस पत्र पर 28 नवम्बर 1921 की तिथि प्रकाशित कराई है जबकि डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 131) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 232) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए 28 दिसम्बर 1921 को लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है।

लाहौर के सैयद इम्तियाज अली ताज के आग्रह से ‘प्रेम पचीसी’, भाग-2 का मूल्य संशोधित कर देने का अनुरोध करते हुए इस पत्र में प्रेमचंद लिखते हैं -

"लाहौर से सैयद इम्तियाज अली ताज का एक खत आया है। वह प्रेम पचीसी हिस्सा दोम १।।।) में फरोख्त कर रहे हैं और कहते हैं इन दामों वहाँ इसके खरीदार हैं। ख्वाजा साहब से ताकीद फरमा दें कि वह नवम्बर के जमाना और अगले आजाद में हिस्सा दोयम की कीमत १।।) के बजाय १।।।) बनवा दें वर्ना लाहौर वालों को शिकायत होगी।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 118)

उपर्युक्त पत्रांश में ‘नवम्बर के जमाना’ शब्दों से यह सन्देह होता है कि यह पत्र अक्तूबर 1921 में लिखा गया होगा, लेकिन प्रेमचंद ने अपने 29 दिसम्बर 1921 के पत्र में सैयद इम्तियाज अली ताज के आग्रह पर जमाना कार्यालय को दिए गए निर्देशों का उल्लेख करते हुए उन्हें लिखा था -

"दफ्तरे ‘जमाना’ में ‘प्रेम बत्तीसी’, हिस्सा दोम की कीमत में तरमीम करने के लिए कह दिया।" (चिट्ठी पत्री, भाग-2, पृ. 133)

ध्यातव्य है कि इस पत्रांश में ‘प्रेम पचीसी’ के स्थान पर ‘प्रेम बत्तीसी’ का उल्लेख प्राप्त होता है। इस असंगति के निवारण के लिए उपर्युक्त सन्दर्भित दोनों पत्रों के मूल पाठ का अवलोकन किया जाना आवश्यक है। लेकिन उपर्युक्त पत्रांश से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह विवेच्य पत्र अक्तूबर 1921 में नहीं लिखा गया था, वरन् दिसम्बर 1921 में ही लिखा गया था। जहाँ तक विवेच्य पत्र में ‘नवम्बर के जमाना’ का उल्लेख प्राप्त होने का प्रश्न है, इसके समाधान के लिए भी पत्र के मूल पाठ का सन्दर्भ ग्रहण किया जाना आवश्यक है।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र 28 दिसम्बर 1921 को लिखा जाना प्रमाणित होता है और इस पर मदन गोपाल द्वारा अंकित की गई तिथि अशुद्ध है।

29. पत्रांक-150 : कथित रूप से 11 मई 1922 को लिखा गया (पृ. 120)

मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 206), डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 134) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 233) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए 11 मई 1922 को लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है।

इस पत्र में प्रेमचंद ने अपने प्रेषित किए हुए एक लेख के प्रकाशन का महत्त्व बताते हुए निगम साहब को लिखा था -

"कई दिन हुए एक मजमून और खत इरसाले खिदमत कर चुका हूँ। जवाब का इंतजार है। अगर मजमून इस माह में न निकला तो बेकार हो जायेगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 120)

आर्य समाज ने मलकाना राजपूत मुसलमानों को शुद्धि के उपरान्त पुनः हिन्दू धर्म में दीक्षित करने का आन्दोलन छेड़ा था। प्रेमचंद इस शुद्धि आन्दोलन के विरुद्ध थे और उन्होंने इस विषय पर एक लेख लिखकर शीघ्र भेज देने की सूचना देते हुए 22 अप्रैल 1923 के पत्र में निगम साहब को लिखा था -

"मलकाना शुद्धि पर एक मुख्तसर मजमून लिख रहा हूँ। मुझे इस तहरीक से सख्त इख्तिलाफ है। तीन चार दिन में भेज सकूँगा। आर्यसमाजवाले भिन्नायेंगे लेकिन मुझे उम्मीद है कि आप जमाना में इस मजमून को जगह देंगे।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 132)

यह पत्र लिखने के तीन-चार दिन उपरान्त प्रेमचंद ने अपना लेख निगम साहब को भेज दिया था और इसकी प्राप्ति सूचना न मिलने पर उन्होंने यह विवेच्य पत्र लिखा, जिसमें यह भी कहा था कि इसका मई माह में ही प्रकाशित होना आवश्यक है। प्रेमचंद के आग्रह की रक्षा करते हुए निगम साहब ने यह लेख ‘जमाना’ के मई 1923 के अंक में ‘मलकाना राजपूत मुसलमानों की शुद्धि’ शीर्षक से प्रकाशित भी करा दिया था। इस आधार पर यह विवेच्य पत्र 11 मई 1923 को ही लिखा गया था।

यह विवेच्य पत्र प्रेमचंद ने ‘46/30 मध्यमेश्वर, बनारस’ के पते से लिखा था। इस पते के सम्बन्ध में इसी पत्र में प्रेमचंद लिखते हैं -

"मशीन फिट हो रही है। ऊपर मकान का पता है। इसी पते से खत का जवाब देने की इनायत कीजिए।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 120)

प्रेमचंद की सरस्वती प्रेस का उद्घाटन 20 जुलाई 1923 को हुआ था। इससे पूर्व उन्होंने मार्च 1922 से जून 1922 तक ज्ञानमण्डल, बनारस की पत्रिका ‘मर्यादा’ के सम्पादन विभाग में कार्य किया और इस अवधि में मुंशी दयानारायण निगम के नाम लिखे गए सभी पत्र (विवेच्य पत्र के अतिरिक्त) ज्ञानमण्डल, बनारस से ही लिखे गए थे। ज्ञानमण्डल की सेवा से पृथक् हो जाने का उल्लेख करते हुए प्रेमचंद ने 7 जुलाई 1922 के पत्र में निगम साहब को लिखा था -

"इस तरफ बहुत परीशान रहा। यहाँ ज्ञानमण्डल से अलहदा हो गया। बाबू साहब ने स्टाफ कम कर दिया है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 124)

इसके उपरान्त प्रेमचंद ने सितम्बर 1922 से प्रेस लगाने के लिए उपक्रम करना आरम्भ किया, जैसा कि निगम साहब को लिखे उनके 1 अक्तूबर 1922 के पत्र162 162. (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 127) से ज्ञात होता है। मशीन मँगाने के लिए सितम्बर 1922 में ही इंगलैड की वुडराफ एण्ड कम्पनी के पास अग्रिम धन भेज दिया गया था, लेकिन मशीन आई अप्रैल 1923 में। मशीन के आ जाने और इसके लिए मकान किराए पर ले लेने की सूचना देते हुए प्रेमचंद ने कबीर चौरा बनारस वाले मकान से सम्भवतः अन्तिम पत्र भेजते हुए 22 अप्रैल 1923 के पत्र में निगम साहब को लिखा था -

"शायद इस मकान से यह आखरी खत आपके पास भेज रहा हूँ। आज प्रेस के लिए मकान तै हो गया, मशीन आ गयी, टाइप, ब्लाक, लकड़ी के केस वगैरह पहुँच गये।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 131)

लेकिन यह पत्र कबीर चौरा वाले मकान से लिखा गया अन्तिम पत्र न हो सका, क्योंकि अगले ही दिन प्रेमचंद को निगम साहब के बच्चे की मृत्यु की सूचना मिली और इसी मकान से उन्होंने अपना अन्तिम पत्र 23 अप्रैल 1923 को लिखा था। उपर्युक्त पत्रांश से स्पष्ट है कि प्रेमचंद ने 22 अप्रैल 1923 को अपने प्रेस के लिए मकान निश्चित कर लिया था। विवेच्य पत्र के उपर्युक्त उद्धृत अंश से यह भी स्पष्ट है कि प्रेमचंद ने अपने प्रेस के लिए 46/30 (अथवा 31), मध्यमेश्वर, बनारस के पते वाला मकान ही निर्धारित किया था और उसी में मशीन की फिटिंग भी हो रही थी। ध्यातव्य है कि 23 अप्रैल 1923 के पश्चात् लम्बे समय तक प्रेमचंद अपने प्रेस वाले इसी मध्यमेश्वर, बनारस के पते से ही पत्र लिखते रहे। (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 133-34)

उपर्युक्त तथ्यों के आलोक में यह नितान्त असम्भव प्रतीत होता है कि कोई मकान किराये पर लेने और प्रेस की मशीन आ जाने से लगभग एक वर्ष पूर्व ही उस मकान के पते से पत्र व्यवहार होने लगे और मशीन की फिटिंग भी आरम्भ हो जाय।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र 11 मई 1923 को लिखा गया प्रमाणित होता है।

30. पत्रांक-157 : कथित रूप से सितम्बर 1922 को लिखा गया (पृ. 126)

मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 217), डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 139) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 238-39) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए 19 सितम्बर 1922 को बनारस से लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है। आश्चर्य की बात है कि डॉ. कमल किशोर गोयनका ने इसी पत्र को 21 सितम्बर 1917 की तिथि के उल्लेख के साथ प्रेमचंद के एक अन्य ‘अप्राप्य’ पत्र के रूप में ‘प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य’, भाग-2 में पृष्ठ संख्या 34-35 पर भी भ्रामक रूप से प्रकाशित करा दिया है। इसके परिणामस्वरूप मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 84, पत्रांक 83) में और डॉ. जाबिर हुसैन ने भी ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 63-64) में इसी पत्र को भ्रमित होकर 21 सितम्बर 1917 को लिखा गया बताकर एक भिन्न पत्र के रूप में प्रकाशित करा दिया है। यही नहीं, अपने द्वारा निर्मित भ्रामक वातावरण से स्वयं डॉ. कमल किशोर गोयनका भी न बच सके और उन्होंने भी इसी पत्र को ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ में पृष्ठ संख्या 186-87 पर निगम साहब के नाम लिखे प्रेमचंद के एक भिन्न पत्र के रूप में ही प्रकाशित कराकर भ्रम का और विस्तार कर दिया है। इस प्रकार के अनुत्तरदायित्वपूर्ण कार्य को क्या कहा जाय?

इस पत्र में प्रेमचंद कानपुर से प्रकाशित होने वाले हिन्दी मासिक ‘प्रताप’ के विशेषांक के लिए एक लेख लिख देने की सूचना देते हुए निगम साहब को लिखते हैं -

"प्रताप’ के खास नम्बर के लिए भी एक मजमून लिखा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 126)

ध्यातव्य है कि ‘प्रताप’ के विजयदशमी विशेषांक, वि. सं. 1974, तदनुसार सितम्बर 1917 के अंक में प्रेमचंद की एक कहानी ‘वियोग और मिलाप’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। उपर्युक्त शब्दों में प्रेमचंद इसी कहानी की ओर इंगित कर रहे हैं, अतः यह पत्र सितम्बर 1917 में ही लिखा गया था।

इसी पत्र में प्रेमचंद अपने लेन-देन के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण देते हुए लिखते हैं -

"मैंने जो हिसाब लिखे हैं उसमें ‘प्रेम पचीसी’ या ‘जमाना’ के दफ्तर से आई हुई किताबों का हिसाब शामिल नहीं है। दफ्तर के जिम्मे मेरी 94 जिल्दें ‘प्रेम पचीसी’ की हैं, मेरे जिम्मे दफ्तर की मुरसला कुतुब।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 126)

जमाना कार्यालय को ‘प्रेम पचीसी’ भाग-1 की प्रतियाँ भेज देने की सूचना देते हुए प्रेमचंद ने 12 मार्च 1917 के पत्र में निगम साहब को लिखा था -

"प्रेम पचीसी की 44 जिल्दें भेज दी गयी हैं, पहुँची होंगी।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 60)

उपर्युक्त शब्दों में प्रेमचंद अपने कहानी संकलन ‘प्रेम पचीसी’ की 44 प्रतियाँ भेज देने की सूचना दे रहे हैं, लेकिन इस विवेच्य पत्र के उपर्युक्त उद्धृत पत्रांश में ‘प्रेम पचीसी’ की 94 प्रतियों की चर्चा है। लेकिन डॉ. कमल किशोर गोयनका द्वारा उपलब्ध कराए गए पत्र के पाठ में यह अंश निम्नानुसार प्रकाशित है -

"दफ्तर के जिम्मे मेरी चौवालीस जिल्दें ‘प्रेम-पचीसी’ की हैं।" (प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य, भाग-2, पृ. 35)

इस संकलन की प्रतियों की समान संख्या को दृष्टिपथ में रखने पर प्रतीत होता है कि ‘चिट्ठी पत्री’ में प्रकाशित पत्र में त्रुटि हुई है। इसके अतिरिक्त हिसाब में प्रेमचंद अपने जिम्मे जमाना कार्यालय द्वारा प्रेषित जिन पुस्तकों के मूल्य का उल्लेख करते हैं, वे उन्होंने अपने 23 मार्च 1917 के पत्र द्वारा मँगवाई थीं। इस पत्र में पुस्तकें भेज देने का अनुरोध करते हुए प्रेमचंद ने लिखा था -

"आप जैल की किताबें रवाना करा दें। हिसाब, मय कमीशन के, लिख भेजें। चाहे मेरे हिसाब में मुजरा हो जायगी, चाहे कीमत रवाना हो जायेगी। मेरा जिम्मा है। फेहरिस्त हस्बे जैल है..." (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 61)

उपर्युक्त शब्दों के पश्चात् इस पत्र में प्रेमचंद ने वांछित पुस्तकों की सूची दी है, जिसके अनुसार उन्होंने 10 विभिन्न पुस्तकों की कुल 69 प्रतियाँ निगम साहब से मँगवाई थीं, जिनका मूल्य देने का उत्तरदायित्व प्रेमचंद का था, और जिसकी चर्चा उन्होंने इस विवेच्य पत्र के उपर्युक्त उद्धृत अंश में की है।

इस आधार पर यह विवेच्य पत्र निश्चित रूप से 1917 में ही लिखा गया था।

इस विवेच्य पत्र के साथ ही प्रेमचंद ने प्रूफ भी निगम साहब को लौटाए थे, जो निम्नांकित शब्दों से स्पष्ट है -

"कार्ड मिला। प्रूफ वापस है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 126)

प्रेमचंद का उर्दू कहानी संकलन ‘प्रेम पचीसी’, भाग-2, मुंशी दयानारायण निगम के जमाना प्रेस, कानपुर से मार्च 1918 में प्रकाशित हुआ था। इसकी किताबत आरम्भ होने की सूचना पाकर प्रेमचंद ने 25 जुलाई 1917 के पत्र में निगम साहब को लिखा था -

"‘प्रेम पचीसी’ प्रेस में चली गयी, बहुत अच्छा हुआ। प्रूफ अगर बहुत खराब हों तो यहाँ भिजवा दीजिये और अगर गलतियाँ कम नजर आयें, तो वहीं दिखवा लीजिये। आने जाने में देर होगी।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 64)

उत्तर में निगम साहब ने प्रूफ खराब होने के कारण संशोधनार्थ भेजे जाने की सूचना प्रेमचंद को दी होगी। परन्तु यह सूचना पाने पर भी प्रूफ न मिलने पर प्रेमचंद ने 8 अगस्त 1917 के पत्र में निगम साहब को लिखा -

"अभी तक प्रेम पचीसी के प्रूफ नहीं आये। प्रेस में क्या देर हो रही है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 64)

इसके पश्चात् भी प्रूफ न आने पर प्रेमचंद ने 16 सितम्बर 1917 के पत्र में स्मरण कराते हुए निगम साहब को पुनः लिखा -

"आपने काउण्ट टाल्सटाय का सवानही मजमून जो फाइल से निकालकर अलग रख दिया है उसकी मुझे सख्त जरूरत है।... एक हफ्ते में वापस हो जायेंगे। इसी के साथ प्रूफ भी आ जायें तो बेहतर है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 65)

इस पर भी प्रूफ न मिलने पर प्रेमचंद ने 17 सितम्बर 1917 के पत्र में पुनः स्मरण दिलाते हुए लिखा -

"बाकी सब खैरियत है। अभी तक प्रूफ नहीं आया।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 66)

इसके पश्चात् कहीं जाकर प्रेमचंद को ‘प्रेम पचीसी’, भाग-2 का प्रूफ मिला, जिसका संशोधन करके उन्होंने अपने इस विवेच्य पत्र के साथ निगम साहब को लौटाया था, जैसा कि इसके उपर्युक्त उद्धृत अंश से स्पष्ट है। ध्यातव्य यह भी है कि यह प्रूफ पूरी पुस्तक का न होकर इसके मात्र एक ही फार्म का प्रूफ था, जो 2 अक्तूबर 1917 को प्रेमचंद द्वारा निगम साहब को लिखे पत्र के निम्नांकित शब्दों से स्पष्ट है -

"फिर कोई प्रूफ नहीं आया। क्या एक एक फर्मे में दो हफ्ते का वक्फा होगा?" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 66)

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह पत्र 19 अथवा 21 सितम्बर 1917 को लिखा जाना प्रमाणित होता है। इन दोनों तिथियों 19 और 21 सितम्बर में से कौन-सी तिथि प्रामाणिक है, यह इस पत्र की मूल प्रति से ही निर्धारित किया जा पाना सम्भव है। साथ ही साथ यह भी स्पष्ट हो जाना चाहिए कि यह पत्र बनारस से नहीं वरन् गोरखपुर से ही लिखा गया था, क्योंकि उस समय प्रेमचंद गोरखपुर में ही कार्यरत थे।

31. पत्रांक-170 : कथित रूप से 26 दिसम्बर 1923 को लिखा गया (पृ. 139-40)

मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 233), डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 158) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 250) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए 26 दिसम्बर 1923 को लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है।

इस पत्र में निगम साहब के स्वास्थ्य के सम्बन्ध में जिज्ञासा करते हुए प्रेमचंद लिखते हैं -

"उम्मीद है अब आपको फोड़े से नजात हो गयी होगी। बहुत तकलीफ दी।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 139-40)

मुंशी दयानारायण निगम को फोड़े की तकलीफ दिसम्बर 1922 से पूर्व हुई थी, जैसा कि प्रेमचंद के 2 दिसम्बर 1922 के पत्र में निगम साहब को लिखे गए निम्नांकित शब्दों से स्पष्ट है -

"फोड़ों ने आपका पीछा पकड़ लिया है। अभी सेन बाबू को निकला, अब वही शिकायत आपको पैदा हुई। खैर यह सुनकर इत्मीनान हुआ कि अब जख्म मुन्दमिल हो रहा है। परमात्मा करे आपको जल्द सेहत हो।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 128-29)

इस आधार पर यह विवेच्य पत्र 2 दिसम्बर 1922 के पश्चात् ही लिखा गया था।

अपने प्रेस के सम्बन्ध में सूचना देते हुए प्रेमचंद इस विवेच्य पत्र में लिखते हैं -

"प्रेस अभी तक नहीं आया।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 140)

प्रेमचंद ने अपना प्रेस स्थापित करने के लिए पहले तो कुछ पुरानी मशीनें देखीं लेकिन उनसे संतुष्ट न हो पाने पर अन्ततः नयी मशीन खरीदने का विचार निश्चित किया। यह मशीन इंगलैण्ड से मँगाई जानी थी, जिसके सम्बन्ध में प्रेमचंद ने 1 अक्तूबर 1922 के पत्र में निगम साहब को सूचना देते हुए लिखा -

"प्रेस का कुछ सामान कलकत्ते से मँगवाया। टाइप का आर्डर दे दिया है मगर मशीन अभी तक नहीं मिली। Woodroff & Co. से खत-किताबत कर रहा हूँ। गालिबन वहीं से मिलेगी। इसमें एक दो माह का अर्सा जरूर लगेगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 127)

इंगलैण्ड से मशीन रवाना होने की सूचना के साथ ही उसके बनारस पहुँचने की सम्भावित तिथि का अनुमान व्यक्त करते हुए प्रेमचंद ने 2 अक्तूबर 1922 के पत्र में निगम साहब को लिखा -

"प्रेस इंगलैण्ड से रवाना हुआ है। शायद दिसंबर के आखीर तक यहाँ आवे।"1 (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 129)

यह पत्र प्राप्त होने के कुछ दिन उपरान्त निगम साहब ने प्रेमचंद से प्रेस की मशीन आने के सम्बन्ध में पत्र लिखकर पूछा होगा, जिसके उत्तर में इस विवेच्य पत्र द्वारा प्रेमचंद ने निगम साहब को मशीन न आने की सूचना दी। इस विवेच्य पत्र के लिखने तक ही नहीं, मशीन फरवरी 1923 के मध्य तक भी बनारस नहीं पहुँच सकी थी, जैसा कि 17 फरवरी 1923 के पत्र में लिखे गए प्रेमचंद के निम्नांकित शब्दों से स्पष्ट है -

"आज तक प्रेस नहीं आया। सितंबर के महीने में वुडराफ के पास रुपये रवाना किये गये थे। 4 अक्तूबर को जवाब और रसीद आ ही गयी थीं। मालूम हुआ था उसने दो मशीनें रवाना की हैं। दोनों इन्श्योर्ड थीं। लेकिन तब से अब तक कोई खबर नहीं। 1 फरवरी को मायूस होकर फिर याददिहानी की गयी है। देखूँ कब तक पहुँचती हैं।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 130)

प्रतीक्षा अन्ततः समाप्त हुई और प्रेमचंद ने प्रेस की मशीन के पहुँच जाने की सूचना देते हुए 22 अप्रैल 1923 के पत्र में निगम साहब को लिखा -

"आज प्रेस के लिए मकान तै हो गया, मशीन आ गयी।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 131)

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र 26 दिसम्बर 1922 को लिखा जाना प्रमाणित होता है।

32. पत्रांक-179 : कथित रूप से 2 अगस्त 1924 को लिखा गया (पृ. 148-50)

मदन गोपाल ने ‘प्रेमचंद के खुतूत’ (पृ. 165-68) और ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 246-49), डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 165-67) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 258-59) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए 2 अगस्त 1924 को लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है।

इस पत्र में प्रेमचंद ने अपने सरस्वती प्रेस से प्रकाशित होने वाली दो पुस्तकों की चर्चा करते हुए निगम साहब को लिखा था -

"मैंने सोचा था सितम्बर अक्तूबर तक दोनों किताबें तैयार हो जायँगी। बकाया वसूल हो जायगा। किताबें बिक जायँगी।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 148)

परन्तु 8 जुलाई 1924 के पत्र में प्रेमचंद ने चार पुस्तकों की चर्चा करते हुए लिखा था -

"मेरे रुपये जो ऊपर थे वह कर्बला, मनमोदक, सुघड़ बेटी, और सुशील कुमारी इन चार किताबों की तबाअत और तैयारी में फँसे हुए हैं। उम्मीद थी कि मई के आखिर तक किताबें तैयार हो जायेंगी मगर चंद दर चंद वुजूह से देर होती गयी और अभी चारों की तैयारी में एक माह की और देर है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 145)

उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि अगस्त 1924 में सरस्वती प्रेस से दो नहीं बल्कि चार पुस्तकें प्रकाशित होने की सम्भावना थी। इस विवेच्य पत्र के उपर्युक्त उद्धृत अंश का इस तथ्य के आलोक में परीक्षण करने से यह पत्र 1924 में लिखा हुआ नहीं जान पड़ता।

इसी पत्र में प्रेमचंद ने अपने हिन्दी नाटक ‘कर्बला’ के सम्बन्ध में लिखा -

"मेरे अहबाब ने हिन्दी में यह ड्रामा पढ़ा है और उसकी तारीफ की है। रघुपति सहाय तो इस पर एक तबसरा लिखनेवाले हैं।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 150)

उपर्युक्त शब्दों से स्पष्ट है कि यह लिखने से पूर्व ही प्रेमचंद का हिन्दी नाटक ‘कर्बला’ प्रकाशित होकर साहित्य संसार में प्रसिद्ध हो गया था। इस नाटक के प्रकाशन-काल के सम्बन्ध में डॉ. कमल किशोर गोयनका ने निम्नांकित विवरण उपलब्ध कराया हैं -

"कर्बला : नाटक/प्रकाशक-दुलारे लाल भार्गव, गंगा पुस्तक माला कार्यालय, लखनऊ; प्रथम संस्करण नवम्बर 1924" (प्रेमचंद विश्वकोश, भाग-2, पृ. 79)

स्पष्ट है कि नवम्बर 1924 में प्रकाशित होने वाली पुस्तक को प्रेमचंद के मित्र अगस्त 1924 से पूर्व पढ़कर पसन्द नहीं कर सकते थे और न ही अगस्त 1924 में रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी इसकी समीक्षा लिख सकते थे। इस आधार पर यह विवेच्य पत्र नवम्बर 1924 के पश्चात् का ही लिखा हुआ है।

इस पत्र में ही प्रेमचंद ने उर्दू दैनिक ‘हमदर्द’ का उल्लेख करते हुए लिखा -

"अब प्रेस को बकाया से आजाद करने और बाजारी काम से मुस्तगनी होने के लिए इस फिक्र में हूँ कि रोजाना ‘हमदर्द’ की एक हिन्दी हफ्तावार नकल ‘हिन्दी हमदर्द’ के नाम से शाया करूँ।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 149)

मौलाना मौ. अली के सम्पादन में दिल्ली से प्रकाशित होने वाले उर्दू दैनिक ‘हमदर्द’ के प्रकाशन-काल का विस्तृत विवरण उपलब्ध कराते हुए डॉ. जहीर अली सिद्दीकी लिखते हैं -

"दौरे इब्तिदाई :

23 फरवरी 1913 से यक वर्क पर 11 मई 1913 तक सिलसिला खास 67 शुमारे शाया हुए। (जो गलतफहमी की वजह से नकीब हमदर्द कहलाया)

13 मई 1913 से दो औराक पर सिलसिला-ए-खास शाया होना शुरू हुआ। नम्बर शुमार 68 की जगह प्रूफ की गलती से 67 छपा। 31 मई 1913 तक कुल 85 शुमारे निकले। सिलसिला खास के ये शुमारे हमदर्द का दौरे इब्तिदाई कहलाता है।

दौरे अव्वल : यकुम जून 1913 से आठ सफहात पर हमदर्द शाया हुआ और इस पर जिल्द नम्बर 1 शुमारा नम्बर 1 लिखा गया। 10 अगस्त 1915 को हमदर्द बन्द हो गया। इस दौर को दौरे अव्वल कहा जाता है।

दौरे सानी : 9 नवम्बर 1924 से हमदर्द का दोबारा इजरा हुआ और इस पर जिल्द नम्बर 1 शुमारा नम्बर 1 लिखा गया। 20 मई 1928 के बाद बहैसियत एडीटर पर मौहम्मद अली का नाम शाया नहीं हुआ। 21 मई 1928 से सैयद मौहम्मद जाफरी का नाम एडीटर की हैसियत से, मौलाना अब्दुल माजिद साहब का नाम निगराँ की हैसियत से और मौलाना मौहम्मद अली का नाम बानी अखबार की हैसियत से शाया होता रहा। यह दौर हमदर्द का दौरे सानी कहलाता है। 12 अप्रैल 1929 को हमदर्द हमेशा के लिए बन्द हो गया।" (इक्तिबासात रोजाना हमदर्द, पृ. 19-20)

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि कि दैनिक ‘हमदर्द’ का पुनः प्रकाशन 9 नवम्बर 1924 से आरम्भ हुआ था। अतः यह विवेच्य पत्र 9 नवम्बर 1924 के पश्चात् ही लिखा गया था।

इसी पत्र में इलाहाबाद जाने पर भी निगम साहब के पुत्र सेन बाबू से न मिल पाने का कारण बताते हुए प्रेमचंद लिखते हैं -

"मैं इलाहाबाद गया, हिन्दू होस्टल में भी गया, रात भर वहाँ रहा भी, पर सेन बाबू को न देखा। मुझे याद ही न रहा कि वह यहाँ हैं, वर्ना जरूर मिलता।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 149)

प्रेमचंद ने अगस्त 1925 के प्रथम सप्ताह में लिखे गए पत्र में निगम साहब से पूछा था -

"लड़के तो इलाहाबाद चले गए होंगे।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 156)

इसके उत्तर में निगम साहब ने प्रेमचंद को अपने पुत्रों के इलाहाबाद चले जाने की सूचना दे दी होगी। साथ ही इससे यह भी स्पष्ट है कि प्रेमचंद के संज्ञान में तो था कि निगम साहब के पुत्र इलाहाबाद में रहकर शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं, लेकिन इस विवेच्य पत्र के उपर्युक्त उद्धृत शब्दों से स्पष्ट है कि जिस समय प्रेमचंद इलाहाबाद में थे उस समय उन्हें यह बात याद नहीं आ पाई और इसके पश्चात् ही उन्होंने उपर्युक्त पत्र लिखा था। अतः यह विवेच्य पत्र निश्चित रूप से 1925 में ही लिखा गया था।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र 2 अगस्त 1925 को लिखा जाना प्रमाणित होता है।

33. पत्रांक-183 : कथित रूप से अनुमानतः मई-जून 1925 में लिखा गया (पृ. 152-53)

मदन गोपाल ने ‘प्रेमचंद के खुतूत’ (पृ. 168-69) और ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 269-70) में इस पत्र को 1925 में लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है, जबकि डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 181) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 261-62) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए अनुमानतः मई-जून 1925 में लिखा गया बताकर ही प्रकाशित कराया है।

मुंशी दयानारायण निगम ने प्रेमचंद को ऐसे दो लेखों की पाण्डुलिपि प्रेषित की थी जो प्रेमचंद की आलोचना में लिखे गए थे। इनमें से एक लेख के लेखक कौन हैं, इसका कोई स्पष्ट संकेत इस विवेच्य पत्र में प्राप्त नहीं है, लेकिन इससे इतर लेख के लेखक का स्पष्ट नामोल्लेख करते हुए प्रेमचंद लिखते हैं -

"पंडित माधोराम साहब को शिकायत है कि मैंने इसलाही कहानियाँ नहीं लिखीं और अक्सर दीगर अहबाब को शिकायत है कि इसलाही मकासिद किस्सों को खराब करते हैं। ‘बाजारे हुस्न’ ‘प्रेमाश्रम’ ‘रंगभूमि’ कोई भी इसलाह से खाली नहीं। मगर आप मजमून शाया कर सकते हैं।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 152)

उपर्युक्त उद्धरण में पंडित माधोराम के जिस लेख को प्रकाशित कर देने के लिए प्रेमचंद ने सहमति दी है, वह ‘जमाना’ के अगस्त 1925 के अंक में ‘मुंशी माधोराम वकील अम्बाला बी.ए.’ के लेखकीय नामोल्लेख से ‘लिटरेचर और कौमी खिदमत’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। अतः यह विवेच्य पत्र अगस्त 1925 से पूर्व लिखा गया था, इसमें सन्देह नहीं।

इस पत्र में प्रेमचंद यह भी लिखते हैं -

"खस का एक पर्दा और दो तीन पैसे का रोजाना बर्फ मौसम की तकलीफ के लिए काफी है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 153)

उपर्युक्त शब्दों से स्पष्ट है कि यह पत्र प्रचण्ड गर्मी के मौसम में लिखा गया था, अतः यह पत्र निश्चित रूप से जुलाई 1925 से पूर्व ही लिखा गया था।

गंगा पुस्तकमाला कार्यालय के स्वामी दुलारे लाल भार्गव के लखनऊ से आगरा जाने और नियत तिथि पर न लौटने की चर्चा करते हुए इस पत्र में प्रेमचंद ने लिखा -

"दुलारे लाल आज दो हफ्ते से आगरे गया हुआ है। 4 को गया था। उसी दिन शायद मैंने आपको खत भी लिख दिया था। लेकिन अब तक, उम्मीद के खिलाफ, वापिस नहीं आया। मुझे कामिल उम्मीद है कि तीन चार रोज के अन्दर वह आ जायगा और मैं अपने वायदे को पूरा कर सकूँगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 152))

लेकिन जब यह पत्र लिखने के चार दिन उपरान्त भी दुलारे लाल वापस नहीं आए तो प्रेमचंद ने विवश होकर अपना वायदा पूरा न करने पर लज्जित होते हुए 20 अप्रैल 1925 के पत्र में निगम साहब को लिखा -

"अफसोस है बाबू दुलारे लाल जी अभी तक नहीं आये। मुझे बेहद नदामत हो रही है। मुझे उम्मीद नहीं थी कि वह इतने दिन के लिए जा रहे हैं। सिर्फ चार दिन में लौट आने का वादा था। पर आज गये हुए सोलह दिन हो गये। शायद दो एक दिन में आ जायें।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 151-52)

उपर्युक्त उद्धरण में प्रेमचंद अपने उसी वादे पर लज्जित होते दिखाई देते) हैं, जो उन्होंने निगम साहब से किया होगा और जिसका उल्लेख विवेच्य पत्र के उपर्युक्त उद्धरण में उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त इस पत्रांश में प्रेमचंद के लिखे हुए ‘आज गये हुए सोलह दिन हो गये’ शब्द अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं। इनसे स्पष्ट है कि क्योंकि पत्र 20 अप्रैल 1925 का लिखा हुआ है इसलिए इससे सोलह दिन पूर्व, अर्थात् 4 अप्रैल 1925 को दुलारे लाल भार्गव लखनऊ से गए थे और 4 ही तिथि को जाने का स्पष्ट उल्लेख विवेच्य पत्र के उपर्युक्त उद्धृत अंश में प्राप्त है। इसी उद्धरण में दुलारे लाल को गए हुए दो सप्ताह हो जाने का भी उल्लेख प्राप्त है। दो सफ्ताह का समय प्रेमचंद ने अनुमानतः ही लिखा होगा और इस पत्र में लगभग 4 दिन और प्रतीक्षा करने का भी उल्लेख प्राप्त है। अतः यह पत्र 16 अप्रैल 1925 को ही लिखा गया था, इसमें सन्देह नहीं।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र 16 अप्रैल 1925 को लिखा जाना प्रमाणित होता है।

34. पत्रांक-188 : कथित रूप से अनुमानतः अगस्त 1925 में लिखा गया (पृ. 155)

मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 270-71), डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 179) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 264) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए अनुमानतः अगस्त 1925 में लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है। आश्चर्यजनक रूप से डॉ. कमल किशोर गोयनका ने इसी पत्र को ‘सम्भवतः जून 1924’ में लिखा गया बताकर और प्रेमचंद का एक ‘अप्राप्य’ पत्र बताकर भ्रामक रूप से ‘प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य’, भाग-2 में पृष्ठ संख्या 36 पर भी प्रकाशित कराने में संकोच नहीं किया। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 238, पत्रांक 256) और डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 168) में इसी पत्र को भ्रामक रूप से जून 1924 में लिखा गया अनुमानित करते हुए प्रेमचंद के एक भिन्न पत्र के रूप में भी प्रकाशित करा दिया। यही नहीं, अपने द्वारा निर्मित इस भ्रमजाल से स्वयं डॉ. कमल किशोर गोयनका भी बचने में सफल न हो सके और उन्होंने भी ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 254, पत्रांक 183) में इस पत्र को जून 1924 की सम्भावित तिथि को लिखा गया बताकर प्रेमचंद के एक भिन्न पत्र के रूप में भी प्रकाशित करा दिया।

इस पत्र में प्रेमचंद ने ‘जमाना’ में क्रमशः प्रकाशित हो रहे अपने नाटक ‘कर्बला’ के सम्बन्ध में लिखा -

"कर्बला खत्म है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 155

‘कर्बला’ की पहली किस्त ‘जमाना’ के जुलाई 1926 के अंक में और अन्तिम किस्त अप्रैल 1928 के अंक में प्रकाशित हुई थी। अतः इस पत्र को जून 1924 अथवा अगस्त 1925 में लिखा गया अनुमानित करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं होगा। फिर प्रेमचंद के उपुर्यक्त शब्द इस नाटक के पूर्ण होने का संकेत देते हैं। इसकी अन्तिम किस्त ‘जमाना’ के अप्रैल 1928 के अंक में प्रकाशित हुई थी और उससे ठीक पहले की किस्त जनवरी 1928 के अंक में प्रकाशित हुई थी। अतः यह पत्र जनवरी 1928 के आसपास लिखा जाना प्रतीत होता है।

इस पत्र में प्रेमचंद एक कहानी का लेखन कार्य प्रगति पर होने की सूचना देते हुए लिखते हैं -

"किस्सा भी लिख रहा हूँ।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 155)

‘जमाना’ के रजत जयन्ती विशेषांक, फरवरी 1928 के अंक में प्रेमचंद की कहानी ‘मंत्र’ प्रकाशित हुई थी। इस तथ्य के आलोक में उपर्युक्त उद्धरण में प्रेमचंद सम्भवतः इसी कहानी का संकेत कर रहे हैं।

इस पत्र में प्रेमचंद अपना फोटो खिंचवाने का आश्वासन देते हुए निगम साहब को लिखते हैं -

"फोटो भी खिंचवाऊँगा। ब्लाक बनने में देर लगेगी।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 155)

प्रेमचंद ने फोटो के सम्बन्ध में 18 दिसम्बर 1927 के पत्र में निगम साहब को लिखा था-

"फोटो के लिए मैंने सोचा था, बनारस से मुहइया करूँगा क्योंकि वहाँ कई तस्वीरें पड़ी हुई हैं; पर देखता हूँ इधर दो चार दिन बनारस जाने का इत्तफाक न होगा। इसलिए इंशा अल्लाह कल तसवीर खिंचवाकर भेजूँगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 166)

यह लिखने के उपरान्त भी प्रेमचंद फोटो न खिंचवा सके होंगे और उन्होंने इसका आश्वासन देते हुए निगम साहब को यह विवेच्य पत्र लिखा होगा। इसके उपरान्त ही प्रेमचंद ने अपना फोटो खिंचवाया होगा, जिसकी सूचना देते हुए उन्होंने 12 जनवरी 1928 के पत्र में निगम साहब को लिखा -

"फोटो तो खिंचवा चुका हूँ लेकिन अभी फोटोग्राफर ने दिया नहीं है। कल शायद मिल जाये। मिलते ही भेजूँगा।... फोटो का तो ब्लाक कानपुर ही में बनता होगा। 24 घण्टे में बन सकता है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 166-67)

इस आधार पर यह विवेच्य पत्र निश्चित रूप से 18 दिसम्बर 1927 से 12 जनवरी 1928 के मध्य ही लिखा गया था। इसी पत्र में प्रेमचंद ने अपने प्रस्थान की तिथि की सूचना देते हुए लिखा था -

"16 की रात की गाड़ी से जाने का इरादा है। अगर आप उस दिन जाते हों तो क्यों न मैं भी कानपुर आ जाऊँ। साथ ही साथ चलें।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 155)

इस उद्धरण से यह तो स्पष्ट नहीं है कि प्रेमचंद और मुंशी दयानारायण निगम को साथ-साथ कहाँ जाना था, लेकिन इस पत्र के उत्तर में निगम साहब ने प्रेमचंद को कानपुर आने से वर्जित करते हुए स्वयं ही लखनऊ चले आने और वहाँ से 17 को साथ-साथ प्रस्थान करने की सूचना दी होगी। इस सम्बन्ध में 12 जनवरी 1928 के पत्र में लिखे प्रेमचंद के निम्नांकित शब्द महत्त्वपूर्ण हैं -

"आप 17 को आ रहे हैं। इंतजार कर रहा हूँ।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 167)

अतः यह विवेच्य पत्र निश्चित रूप से जनवरी 1928 के आरम्भ में ही लिखा गया था।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र आरम्भ जनवरी 1928 में लिखा जाना प्रमाणित होता है।

35. पत्रांक-193 : कथित रूप से 25 अगस्त 1925 को लिखा गया (पृ. 158)

मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 268), डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 177-78) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 266) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए 25 अगस्त 1925 को लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है।

इस पत्र में प्रेमचंद अपने हिन्दी कहानी संकलन ‘प्रेम प्रसून’ के प्रकाशन तथा इसमें सम्मिलित की जाने वाली कहानियों के सम्बन्ध में निगम साहब को लिखते हैं -

"सैरे दरवेश का तर्जुमा अनकरीब खत्म होने वाला है। तब इसे वापस कर दूँगा। अब सोजे वतन की जरूरत है। उसमें से दो तीन कहानियाँ ले लूँगा। बराहे करम सोजे वतन की एक कापी भिजवा दीजिए। जितनी जल्द हो जाये उतना ही अच्छा है। दिसंबर से पहले यह मजमूआ अपने प्रेस से निकाल दूँगा। इसका नाम होगा ‘प्रेम प्रसून’ (प्रेम का फूल)।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 158)

उपर्युक्त शब्दों से स्पष्ट है कि प्रेमचंद ने मुंशी दयानारायण निगम से उर्दू कहानी पुस्तिका ‘सैरे दरवेश’ मँगाई थी और अपने प्रस्तावित हिन्दी कहानी संकलन ‘प्रेम प्रसून’ में सम्मिलित करने के लिए उसका हिन्दी अनुवाद कर रहे थे। यह पत्र लिखने के समय यह अनुवाद कार्य समाप्तप्राय था और इसी पत्र के माध्यम से प्रेमचंद ने निगम साहब से यह भी अनुरोध किया था कि उनके प्रथम उर्दू कहानी संकलन ‘सोजे वतन’ की एक प्रति शीघ्र भेज दें ताकि उसमें से भी दो तीन कहानियों का हिन्दी अनुवाद करके ‘प्रेम प्रसून’ में सम्मिलित कर सकें। ‘प्रेम प्रसून’ के प्रकाशन-काल के सम्बन्ध में डॉ. माता प्रसाद गुप्त ने निम्नांकित सूचना उपलब्ध कराई है -

"प्रेम-प्रसून : प्रकाशक छोटेलाल भार्गव, गंगा-पुस्तकमाला, लखनऊ, 20-3-24, प्रथम संस्करण (उ. प्र., द्वितीय, 1924)" (प्रेमचंद की कृतियों की प्रकाशन-तिथियाँ; साहित्य, मासिक, पटना, अप्रैल 1960, पृ. 73)

अतः यह पत्र निश्चित रूप से फरवरी 1924 से पूर्व ही लिखा गया था। लेकिन उपर्युक्त उद्धृत पत्रांश में प्रेमचंद के शब्द ‘दिसंबर से पहले यह मजमूआ अपने प्रेस से निकाल दूँगा’ इस तथ्य को प्रकट करते हैं कि यह संकलन मूल रूप से दिसम्बर 1923 तक प्रकाशित कर दिया जाना प्रस्तावित था। अतः यह पत्र निश्चित रूप से दिसम्बर 1923 से पूर्व ही लिखा गया था। यहाँ यह उल्लेख करना भी कुछ अप्रासंगिक न होगा कि ‘प्रेम प्रसून’ में ‘सैरे दरवेश’ की पाँच कहानियों में से दो-तीन कहानियाँ नहीं, वरन् मात्र एक कहानी ‘यही मेरा वतन है’ का हिन्दी रूप ‘यही मेरी मातृभूमि है’ शीर्षक से सम्मिलित किया गया था।

इसी पत्र में प्रेमचंद ने अनातोले फ्रांस के एक उपन्यास का अनुवाद किए जाने के साथ-साथ मुद्रणाधीन होने की सूचना देते हुए लिखा था -

"आजकल Anatole France का एक किस्सा हिन्दी में तर्जुमा कर रहा हूँ। और मेरे ही प्रेस में छप भी रहा है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 158)

अनातोले फ्रांस के उपन्यास के प्रेमचंद-कृत अनुवाद के प्रकाशन-काल की सूचना देते हुए डॉ. कमल किशोर गोयनका लिखते हैं -

"अहंकार : अनुवाद/लेखक-अनातोले फ्रांस की कृति ‘थायस’ का अनुवाद/अनुवादक-प्रेमचंद/प्रकाशक-राधाकृष्णन नेवटिया, कलकत्ता पुस्तक भंडार, 171 ए, हरीसन रोड, कलकत्ता/मुद्रक- महताब राय, सरस्वती प्रेस, बनारस/प्रथम संस्करण-आश्विन, 1980 वि. सं.; ‘सरस्वती’, नवम्बर 1923 में समीक्षा प्रकाशित।" (प्रेमचंद विश्वकोश, भाग-2, पृ. 41)

इस आधार पर यह विवेच्य पत्र निश्चित रूप से अक्तूबर 1923 से पूर्व ही लिखा गया था।

इसी पत्र में प्रेमचंद अपने हिन्दी कहानी संकलन ‘प्रेम पचीसी’ के प्रकाशनाधीन होने की सूचना देते हुए निगम साहब को लिखते हैं -

"पच्चीस कहानियों का एक अलहदा मजमूआ कलकत्ते से भी निकल रहा है, जो हिन्दी की प्रेम पचीसी होगी।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 158)

‘प्रेम-पचीसी’ के प्रकाशनकाल की सूचना उपलब्ध कराते हुए डॉ. माता प्रसाद गुप्त लिखते हैं -

"प्रेमपचीसी : प्रकाशक महावीर प्रसाद पोद्दार, हिन्दी-पुस्तक एजेन्सी, 126, हैरिसन रोड, कलकत्ता, 19-9-23, प्रथम संस्करण (बंगाल, तृतीय, 1923)" प्रेमचंद की कृतियों की प्रकाशन-तिथियाँ; साहित्य, मासिक, पटना, अप्रैल 1960, पृ. 73

हिन्दी ‘प्रेम पचीसी’ का प्रथम संस्करण अगस्त 1923 में प्रकाशित हुआ था। इस तथ्य के आलोक में प्रेमचंद के उपर्युक्त शब्दों का परीक्षण करने से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि यह विवेच्य पत्र लिखते समय ‘प्रेम पचीसी’ प्रकाशित तो हो चुकी थी, लेकिन उसकी कोई प्रति प्रेमचंद को नहीं मिल पाई थी। अतः यह पत्र निश्चित रूप से अगस्त 1923 में ही लिखा गया था, इसमें किसी सन्देह को स्थान नहीं रहता।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र 25 अगस्त 1923 को लिखा जाना प्रमाणित होता है।

36. पत्रांक-195 : कथित रूप से 5 सितम्बर 1925 को लिखा गया (पृ. 159)

मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 269) में इस पत्र पर 5 दिसम्बर 1925 की तिथि प्रकाशित कराई है, जबकि डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 178) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 267) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए 5 सितम्बर 1925 को लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है।

इस पत्र में प्रेमचंद ने एक अनुक्रमणिका प्राप्त होने की सूचना देते हुए निगम साहब को लिखा था -

"आपका खत और मजामीन की फेहरिस्त मुझे लखनऊ में मिल गयी थी।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 159)

ध्यातव्य है कि प्रेमचंद ने अपने उर्दू कहानी संकलन ‘प्रेम बतीसी’, भाग-2 की अनुक्रमणिका की प्रति भेज देने का अनुरोध करते हुए और इसका कारण बताते हुए निगम साहब को 22 अगस्त 1925 के पत्र में लिखा था -

"यहाँ प्रेम बत्तीसी हिस्सा दोम रखी हुई थी। कोई उठा ले गया। अगर आप इतनी इनायत करें कि हिस्सा दोम के मजामीन की फेहरिस्त नक्ल करवाके भेज दें तो ऐन एहसान हो। मैं कुछ हिन्दी कहानियों का तर्जुमा करके पंजाब के एक पबलिशर पिण्डी दास को भेजना चाहता हूँ। डरता हूँ कि कहीं वही मजामीन न आ जायें जो हिस्सा दोम में निकल चुके हैं। हिस्सा अव्वल मेरे पास मौजूद है। सिर्फ जिल्द दोम के मजामीन की फेहरिस्त की जरूरत है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 157-58)

स्पष्ट है कि ‘प्रेम बत्तीसी’ भाग-2 की प्रति गुम हो जाने के कारण प्रेमचंद ने इसकी अनुक्रमणिका भेज देने का अनुरोध निगम साहब से किया था। निगम साहब ने प्रेमचंद को वांछित अनुक्रमणिका की प्रति तत्काल भेज दी होगी, लेकिन प्रेमचंद ने अपने 30 अगस्त 1925 को लिखे पत्र210 210. (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 159) में इसकी प्राप्ति सूचना नहीं दी तो निगम साहब ने इस सम्बन्ध में जिज्ञासा की होगी, जिसके उत्तर में प्रेमचंद ने इस विवेच्य पत्र में पूर्व उद्धृत शब्द लिखे थे। इस आधार पर यह पत्र 30 अगस्त 1925 के पश्चात् लिखा गया था।

बनारस से लिखे इसी पत्र में प्रेमचंद ने लखनऊ से बनारस पहुँचने की तिथि बताते हुए निगम साहब को लिखा -

"मैं 1 को लखनऊ से बखैरियत पहुँच गया।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 159)

प्रेमचंद ने लखनऊ से रवाना होने की तिथि का निर्देश करते हुए 30 अगस्त 1925 के पत्र में लिखा था -

"अब तो मैं कल रवाना हुआ जाता हूँ। ईश्वर ने चाहा तो दिसम्बर में इतमीनान से मुलाकात होगी।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 159)

स्पष्ट है कि प्रेमचंद लखनऊ से काशी के लिए 31 अगस्त 1925 को रवाना हुए और उसी दिन देर रात में काशी पहुँच गये। अतः यह विवेच्य पत्र निश्चित रूप से सितम्बर 1925 में ही लिखा गया था।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह पत्र 5 सितम्बर 1925 को लिखा जाना प्रमाणित होता है और इस पर मदन गोपाल द्वारा प्रकाशित कराई गई तिथि अशुद्ध सिद्ध होती है।

37. पत्रांक-196 : कथित रूप से 2 फरवरी 1926 को लिखा गया (पृ. 160)

मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 273), डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 181) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 267-68) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए 2 फरवरी 1926 को लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है। आश्चर्यजनक रूप से डॉ. कमल किशोर गोयनका ने भ्रामक रूप से इसी पत्र को 22-23 फरवरी 1924 को लिखा हुआ अनुमानित करके ‘प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य’, भाग-2 में पृष्ठ संख्या 35 पर प्रेमचंद के एक ‘अप्राप्य’ तथा नितान्त भिन्न पत्र के रूप में भी प्रकाशित करा दिया है। इस प्रकार भ्रामक वातावरण की सृष्टि करने की क्या पृष्ठभूमि है, यह तो कुछ ज्ञात नहीं होता, लेकिन इससे भ्रमित होकर मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 में पृष्ठ संख्या 234-35 पर पत्रांक 252 के रूप में और डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 में पृष्ठ संख्या 168 पर इसी पत्र को 22-23 फरवरी 1924 के अनुमानित तिथि उल्लेख के साथ प्रेमचंद के एक भिन्न पत्र के रूप में भी प्रकाशित करा दिया। स्वयं डॉ. गोयनका भी अपने द्वारा निर्मित भ्रमजाल में फँस गये और वे भी ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ में पृष्ठ संख्या 252 पर पत्रांक 178 के रूप में 22-23 फरवरी 1924 की तिथि का अनुमानित करके इसी पत्र को प्रेमचंद के एक भिन्न पत्र के रूप में प्रकाशित करा देने की भयंकर भूल कर बैठे।

इस पत्र के साथ प्रेमचंद अपने उर्दू नाटक ‘कर्बला’ का एक दृश्य लिखकर भेजने की चर्चा करने के अतिरिक्त एक-दो दृश्य और लिखकर शीघ्र ही भेज देने का आश्वासन देते हुए निगम साहब को लिखते हैं -

"कार्ड मिला। ‘कर्बला’ का एक सीन फौरन लिख भेजता हूँ। उजलत के खयाल से और ज्यादा न लिखा। दो-चार रोज में और एक-दो भेज दूँगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 160)

प्रेमचंद का उर्दू नाटक ‘कर्बला’ मुंशी दयानारायण निगम के सम्पादन में प्रकाशित होने वाले उर्दू मासिक ‘जमाना’ में जुलाई 1926 से अप्रैल 1928 तक क्रमशः प्रकाशित हुआ था। इस सम्पूर्ण अवधि में मात्र जनवरी 1927, जुलाई 1927, फरवरी 1928 और मार्च 1928 के चार अंकों में ही इस नाटक का कोई अंश प्रकाशित नहीं हुआ था। अतः स्वाभाविक रूप से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इस नाटक का कोई अंश समय पर निगम साहब को न मिल पाने के कारण इन चार अंकों में प्रकाशित नहीं हो पाया होगा और ऐसी दशा में स्वभावतः निगम साहब ने प्रेमचंद को नाटक का अंश शीघ्र लिख भेजने का अनुरोध अवश्य ही किया होगा। इस आधार पर यह पत्र जनवरी-फरवरी 1927 का लिखा होना अनुमान किया जा सकता है। साथ ही क्योंकि इस नाटक का क्रमशः प्रकाशन ‘जमाना’ में जुलाई 1926 के अंक से आरम्भ हुआ था, इसलिए यह पत्र किसी भी दशा में इससे पूर्व का लिखा हुआ नहीं हो सकता।

प्रेमचंद ने जनवरी 1927 के आरम्भ में इस नाटक का जो अंश निगम साहब को भेजा था, जब उसके वहाँ न पहुँचने का समाचार उन्हें मिला तो उन्होंने 27 जनवरी 1927 के पत्र में लिखा -

"आपका कार्ड कई दिन हुए आया।... मुझे कार्ड पढ़कर हैरत और अफसोस हुआ क्योंकि मैंने दो हफ्ते से जायद हुए कर्बला का एक 20 सुफहे का टुकड़ा भेज दिया था। क्यों नहीं पहुँचा, मुझे इसका ताज्जुब है। दो शबाना रोज की मेहनत अकारथ गयी। खैर अब फिर मौका निकालकर जल्द ही लिखता हूँ।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 163)

स्पष्ट है कि यह पत्र लिखने के उपरान्त प्रेमचंद ने कुछ दिनों के पश्चात् ही शीघ्रता में इस नाटक का मात्र एक ही दृश्य लिखकर तत्काल निगम साहब को अपने इस विवेच्य पत्र के साथ भेज दिया था। लेकिन प्रेमचंद द्वारा प्रेषित इस नाटक का वह अंश पत्रिका का फरवरी 1927 का अंक मुद्रित होने के समय तक निगम साहब के पास नहीं पहुँच पाया होगा और इस कारण पत्रिका के सम्बन्धित अंक में इस नाटक का कोई अंश प्रकाशित नहीं हो पाया होगा।

इस आधार पर यह पत्र फरवरी 1927 में लिखा गया था।

इसी पत्र में प्रेमचंद ने लिखा था -

"अभी तो कुछ मालूम नहीं हुआ कि इलाहाबाद में कब तलबी होगी। नाम तो बड़े बड़े हैं। गैर-सरकारी आदमियों में तो शायद चार-पाँच आदमियों से ज्यादा नहीं। और लोग किसी न किसी तरह सरकार से वाबिस्ता हैं।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 160)

तत्कालीन संयुक्त प्रान्त (अब उत्तर प्रदेश) की सरकार ने हिन्दी-उर्दू की समस्या सुलझाने और एक साझी भाषा, जिसे हिन्दुस्तानी का नाम दिया था, के व्यापक प्रचार-प्रसार हेतु इलाहाबाद में ‘हिन्दुस्तानी एकेडेमी’ नाम की संस्था स्थापित की थी जिसके आदि अध्यक्ष संयुक्त प्रान्त के गवर्नर सर विलियम मॉरिस और सचिव डॉ. ताराचन्द नियुक्त किए गए थे। इस संस्था का अधिष्ठापन समारोह 29 मार्च 1927 को लखनऊ में सर विलयम मॉरिस की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ था और इसकी प्रथम कार्यकारिणी में जो ‘गैर सरकारी’ महानुभाव सम्मिलित थे, उनके नाम इस प्रकार हैं - 1. मुंशी प्रेमचंद, 2. सज्जाद हैदर यलदरम, 3. मुंशी दयानारायण निगम, 4. पं. मनोहर लाल जुत्शी, 5. अब्दुल माजिद दरियाबादी और 6. नियाज फतेहपुरी। (जामा उर्दू एन्साइक्लोपीडिया, भाग-1, पृ. 589-90 पर उपलब्ध विवरण के आधार पर) इस विवेच्य पत्र के उपर्युक्त उद्धृत शब्दों में प्रेमचंद हिन्दुस्तानी एकेडेमी के अधिष्ठापन समारोह की चर्चा करते हुए दिखाई देते हैं, जो उनके विचार में सम्भवतः इलाहाबाद में ही आयोजित किया जाने वाला था, लेकिन वास्तव में हुआ था लखनऊ में ही। प्रेमचंद ने इस पत्र से पूर्व 27 जनवरी 1927 के पत्र में भी इस संस्था की स्थापना के सम्बन्ध में तथा इसके अधिष्ठापन समारोह के सम्बन्ध में निगम साहब को लिखा था -

"एकेडेमी से आप बेनियाज हुए, इसका मुझे और भी ताज्जुब है।... आप शायद इस धोखे में थे कि आपको सेक्रेटरीशिप के लिए मदऊ किया जायेगा। इस नजउल-बका के जमाने में दावत कहाँ? जिसने सबकत की वह बाजी ले गया।... देखिए कब जल्सा होता है। मुलाकात होगी।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 163)

स्पष्ट है कि निगम साहब को हिन्दुस्तानी एकेडेमी के सचिव पद हेतु आमन्त्रित न किए जाने से प्रेमचंद को भी निराशा हुई थी। साथ ही यह भी स्पष्ट हो जाता है कि यह विवेच्य पत्र 27 जनवरी 1927 के पश्चात् ही लिखा गया था।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र 2 फरवरी 1927 को लिखा जाना प्रमाणित होता है।

38. पत्रांक-216 : कथित रूप से 28 फरवरी 1929 को लिखा गया (पृ. 170-71)

मदन गोपाल ने ‘प्रेमचंद के खुतूत’ (पृ. 184) और ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 334-35), डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 243) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 277) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए 28 फरवरी 1929 को लिखा गया बताकर ही प्रकाशित कराया है।

इस पत्र में प्रेमचंद ने गाल्सवर्दी के नाटक ‘जस्टिस’ के अनुवाद के सम्बन्ध में लिखा -

"हाँ, जस्टिस मैंने शुरू कर दिया। 16-17 सफहात कर भी डाले। लेकिन अभी उसका हिन्दी का तर्जुमा तो आया नहीं। इसलिए वह सब मुश्किलात जो पहले डिक्शनरियों या मशवरों से हल की थीं फिर आ रही हैं। इसलिए जब तक हिन्दी तर्जुमा न आ जावे उस वक्त तक के लिए मुलतवी करता हूँ।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 171)

गाल्सवर्दी के नाटक ‘जस्टिस’ का प्रेमचंद-कृत हिन्दी अनुवाद ‘न्याय’ शीर्षक से हिन्दुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद ने 1930 के अन्त में प्रकाशित किया था। एकेडेमी ने इसी नाटक को उर्दू में अनूदित कर देने का कार्य मुंशी दयानारायण निगम को सौंपा था जो एकेडेमी से ही प्रेमचंद के देहावसान के पश्चात् 1939 में प्रकाशित हुआ था। इस उर्दू अनुवाद के लिए उन्होंने प्रेमचंद की सहायता ली थी। उपर्युक्त उद्धरण में प्रेमचंद के शब्दों - ‘वह सब मुश्किलात जो पहले डिक्शनरियों या मशवरों से हल की थीं फिर आ रही हैं’ से स्पष्ट है कि यह पत्र लिखने से प्रेमचंद पूर्व इस नाटक का शब्दकोश तथा अन्य विद्वानों से सलाह लेकर हिन्दी में अनुवाद कर चुके थे और अब इसका उर्दू में अनुवाद करने के लिए प्रेमचंद इसके हिन्दी अनुवाद की सहायता लेना उचित समझते थे लेकिन इसी पत्रांश से यह भी स्पष्ट है कि यह पत्र लिखने के समय तक इसका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित होकर उनके हाथ में नहीं आया था, और इसका प्राप्त हो जाने तक उन्होंने इसका उर्दू अनुवाद कार्य स्थगित कर दिया था।

यह पत्र लिखने के पश्चात् प्रेमचंद ने 24 मार्च 1931 के पत्र में इस अनुवाद कार्य की प्रगति सूचना देते हुए निगम साहब को लिखा -

"मैं इंसाफ का तर्जुमा कर रहा हूँ, कोई पचास सुफहात हो गये हैं।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 184)

स्पष्ट है कि यह विवेच्य पत्र 24 मार्च 1931 से पूर्व ही लिखा गया था। इसी पत्र में प्रेमचंद इस अनुवाद कार्य से अपने दो उपन्यासों के लेखन कार्य में बाधा उपस्थित होने का उल्लेख करते हुए लिखते हैं -

"अगर इसे करता हूँ तो मेरा ‘पर्द-ए मजाज’ रहा जाता है। सुबह को करता हूँ तो ‘कर्मभूमि’ में हर्ज होता है। और दूसरा कौन सा वक्त है?" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 171)

प्रेमचंद का उर्दू उपन्यास ‘पर्दा-ए-मजाज’ 1931 के अन्त तक प्रकाशित हुआ था, अतः यह अनुमान किया जा सकता है कि इसका लेखन कार्य मध्य 1931 में कभी समाप्त हुआ होगा। जहाँ तक उनके हिन्दी उपन्यास ‘कर्मभूमि’ का सम्बन्ध है, इसका लेखन कार्य आरम्भ होने के सम्बन्ध में अमृत राय ने निम्नांकित सूचना उपलब्ध कराई है -

"कर्मभूमि (मैदाने अमल) : पाण्डुलिपि के उपलब्ध अंश के आधार पर इसका लेखन 16 अप्रैल 1931 को आरंभ हुआ।" (प्रेमचंद : कलम का सिपाही, पृ. 656)

स्पष्ट है कि जिस उपन्यास का लेखन कार्य ही 16 अप्रैल 1931 को आरम्भ हुआ हो, उसके लिखने में बाधा उपस्थित होने का उल्लेख 28 फरवरी 1929 को कर देने का कोई औचित्य नहीं है। लेकिन साथ ही ध्यातव्य यह भी है कि अमृत राय ने ‘कर्मभूमि’ का लेखन आरम्भ होने की जो तिथि दी है, वह इस उपन्यास की ‘पाण्डुलिपि के उपलब्ध अंश के आधार पर’ ही दी है। इस उपन्यास की पाण्डुलिपि पर अंकित तिथि के सम्बन्ध में डॉ. जाफर रजा लिखते हैं -

"कर्मभूमि’ की पाण्डुलिपि उपलब्ध रह गई है, जो वाराणसी के रामरतन भवन में संगृहीत है। इसके मुख्य पृष्ठ पर ‘कर्मभूमि 16वीं अप्रैल 1931’ अंकित है, जो सम्भवतः इसके लेखन काल की समापन तिथि है।" (प्रेमचंद : उर्दू-हिन्दी कथाकार, पृ. 254)

डॉ. जाफर रजा के उल्लेख के प्रतिकूल यह तिथि पाण्डुलिपि के मुखपृष्ठ पर अंकित न होने की सूचना देते हुए मदन गोपाल लिखते हैं -

"कर्मभूमि के मसव्विदे के एक सफहे पर 16 अप्रैल 1931 तारीख दर्ज है।" (कुल्लियाते प्रेमचंद, भाग-7, पृ. V)

और मदन गोपाल का उपर्युक्त कथन गोपाल कृष्ण माणकटाला के निम्नांकित उल्लेख से पुष्ट होता है -

"यह बात बिल्कुल अयाँ है कि 16 अप्रैल 1931 की तारीख नावेल के पहले सफहे पर मौजूद नहीं है बल्कि मसव्विदे के किसी एक हिस्से या किसी सफहे पर यह तारीख दर्ज थी।" प्रेमचंद : हयाते नौ, पृ. 319)

ध्यातव्य है कि 12 जनवरी 1931 को जैनेन्द्र कुमार के नाम लिखे गए पत्र में प्रेमचंद ने अपने नये उपन्यास का लेखन कार्य पूर्णता की ओर अग्रसर होने की सूचना निम्नांकित शब्दों में दी थी -

"हाँ, ‘गबन’ के बाद ‘मैग्डलीन’ छपेगी। तब तक मेरा दूसरा उपन्यास भी लिखा जा चुकेगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-2, पृ. 18)

स्पष्ट है कि जनवरी 1931 में प्रेमचंद ‘कर्मभूमि’ के लेखन कार्य में व्यस्त थे। उपर्र्युक्त शब्दों से डॉ. जाफर रजा के द्वारा उपर्युक्त उद्धरण में व्यक्त अनुमान की पुष्टि हो जाती है कि 16 अप्रैल 1931 की तिथि ‘कर्मभूमि’ का लेखन समाप्त होने की तिथि है, और इस आलोक में अमृत राय का उपर्युक्त कथन अशुद्ध प्रमाणित हो जाता है। साथ ही यह भी स्पष्ट हो जाता है कि जिस समय यह विवेच्य पत्र लिखा गया था, उस समय ‘कर्मभूमि’ का लेखन कार्य प्रगति पर था।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र 28 फरवरी 1931 को लिखा जाना प्रमाणित होता है।

39. पत्रांक-219 : कथित रूप से अनुमानतः अप्रैल 1929 में लिखा गया (पृ. 172-73)

मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 336, पत्रांक 379) में इस पत्र को 17-4-1929 को लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है जबकि डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’ भाग-19 (पृ. 265) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 278) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए अनुमानतः अप्रैल 1929 में लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है। आश्चर्यजनक रूप से डॉ. कमल किशोर गोयनका ने इसी पत्र को अज्ञात तिथि का लिखा हुआ बताकर प्रेमचंद के एक भिन्न तथा ‘अप्राप्य’ पत्र के रूप में ‘प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य’, भाग-2 में पृष्ठ संख्या 36-37 पर भी प्रकाशित करा दिया है। डॉ. गोयनका इस उल्लेख से भ्रमित होकर मदन गोपाल ने भी इसी पत्र को प्रेमचंद के एक भिन्न पत्र के रूप में अज्ञात तिथि का लिखा हुआ बताकर ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 238, पत्रांक 257) में भी प्रकाशित करा दिया है। ध्यातव्य है कि मदन गोपाल ने इससे पूर्व का पत्र पत्रांक 256 पर अनुमानतः जून 1924 का लिखा हुआ और इसके पश्चात् का पत्र पत्रांक 259 पर 11 जून 1924 को लिखा हुआ प्रकाशित कराया है, जिससे यह भ्रम होता है कि उनके अनुसार यह पत्र सम्भवतः जून 1924 में लिखा गया था। अपने प्रचारित भ्रम से स्वयं डॉ. कमल किशोर गोयनका भी नहीं बच सके और उन्होंने भी इसी पत्र को ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ में पृष्ठ संख्या 254 पर अज्ञात तिथि के पत्र के रूप में भी प्रकाशित करा दिया है। आश्चर्य का विषय है कि प्रेमचंद के जिस कथित ‘अप्राप्य’ पत्र को डॉ. गोयनका ने ‘प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य’ में अज्ञात तिथि का बताया था और जिस पर ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ में भी ‘तिथि अज्ञात’ का ही उल्लेख प्रकाशित है, उस पत्र को जून 1924 तथा 8 जुलाई 1924 के पत्रों के मध्य प्रकाशित कराकर उन्होंने जून 1924 में लिखा हुआ क्यों और कैसे मान लिया!

इस पत्र में प्रेमचंद ने अपनी कानपुर यात्रा के सम्बन्ध में लिखा था -

"बिला इत्तिला आया और करीबन दो घंटे के इंतजार के बाद अब जा रहा हूँ। यह किस्सा जमाना के लिए लिखा है। पसंद आये तो दे दीजिएगा। इसमें कहीं अल्फाज नदकमतसपदमक नजर आयेंगे। वह हिन्दी मुतर्जिम ने बनाये हैं।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 172-73)

उपर्युक्त शब्दों से स्पष्ट है कि कानपुर जाने पर भी प्रेमचंद की भेंट निगम साहब से नहीं हो सकी थी और लगभग दो घंटे प्रतीक्षा करने के उपरान्त वे उनके कार्यालय में अपनी एक कहानी छोड़ आए थे और यह कहानी भी ऐसी थी जिसका हिन्दी अनुवाद हो चुका था। ध्यातव्य है कि प्रेमचंद की ही एक कहानी ‘अफ्व’ शीर्षक से ‘जमाना’ के मई 1929 के अंक में प्रकाशित हुई थी, जिसका हिन्दी रूप ‘क्षमा’ शीर्षक से ‘माधुरी’ के जून 1924 के अंक में प्रकाशित हुआ था। लेकिन प्रेमचंद के उपर्युक्त उद्धृत शब्दों में कहानी का शीर्षक प्राप्त न होने से ‘अफ्व’ कहानी के सम्बन्ध में निश्चयात्मक रूप से कुछ कह पाना सम्भव नहीं है।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र किसी अज्ञात तिथि को ही लिखा गया प्रतीत होता है।

40. पत्रांक-220 : कथित रूप से 17 अप्रैल 1929 को लिखा गया (पृ. 173)

मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 336-37), डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 248) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 279) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए 17 अप्रैल 1929 को लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है।

ध्यातव्य है कि अमृत राय ने ‘चिट्ठी पत्री’, भाग-1 में इस पत्र से पूर्व पत्रांक 218 पर प्रेमचंद का निगम साहब के नाम लिखा गया जो पत्र प्रकाशित कराया है, उस पर 16 अप्रैल 1929 की तिथि प्रकाशित है। यदि यह विवेच्य पत्र 17 अप्रैल 1929 को लिखा गया होता तो प्रेमचंद इसमें अवश्य ही पहले दिन लिखे गए पत्र का संकेत कर देते, जैसा कि वे सामान्य रूप से करते थे। कतिपय उदाहरण प्रस्तुत हैं -

"कल एक नोट लिख चुका हूँ। आज मुफस्सल खत लिखना चाहता हूँ।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 34)

"कल एक अरीजा इरसाल कर चुका हूँ।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 96)

"कल सुबह एक खत लिखा, शाम को आपका कार्ड मिला।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 133)

अतः स्पष्ट है कि यह विवेच्य पत्र 17 अप्रैल 1929 का लिखा हुआ नहीं है।

इस पत्र में कानपुर जाने पर भी निगम साहब से भेंट न हो पाने की चर्चा करते हुए प्रेमचंद लिखते हैं -

"अबकी कानपुर गया पर आपसे मुलाकात न हो सकी। उजलत थी, ठहर न सका।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 173)

यही उल्लेख करते हुए प्रेमचंद ने 11 मई 1931 के पत्र में निगम साहब को लिखा था -

"कानपुर गया था, मुलाकात भी नहीं हुई।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 185)

इस आधार पर यह विवेच्य पत्र 1931 में लिखा गया था। इसी पत्र में लाहौर से प्रकाशित होने वाले उर्दू मासिक ‘शाहकार’ से अपनी पूर्व प्रेषित कहानी लेकर ‘जमाना’ में प्रकाशित कर देने का अनुरोध करते हुए प्रेमचंद ने लिखा -

"शाहकार’ तो अब गालिबन न निकलेगा। आप उनसे मेरा किस्सा ले लें और जमाना में निकाल दें।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 173)

शाहकार कार्यालय को भेजी हुई कहानी जमाना कार्यालय में भेज देने के सम्बन्ध में पत्र लिख देने की सूचना देते हुए प्रेमचंद ने 24 मार्च 1931 के पत्र में लिखा था -

"शाहकार को मैं आज लिखूँगा कि किस्सा आपके पास भेज दें।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 184)

इसके पश्चात् प्रेमचंद ने यह विवेच्य पत्र लिखा, जिसके उपरान्त उन्होंने 4 जुलाई 1931 के पत्र द्वारा निगम साहब को सूचना देने के साथ ही निर्देश देते हुए लिखा -

"शाहकार के पास मेरा एक किस्सा पड़ा हुआ है। सेन बाबू से कहें अपने दोस्त वहशी के बरादरे खुर्द से ये लतायफुल हील माँग लें। शाहकार का इस हुर्रियत के जमाने में गुजर ही कहाँ।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 186)

और इसके पश्चात् प्रेमचंद ने 23 जुलाई 1931 के पत्र में शिकायत करते हुए निगम साहब को लिखा -

"शाहकार से मेरा अफसाना आपने शायद नहीं लिया।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 187)

प्रेमचंद पुनः 11 अगस्त 1931 के पत्र236 236. (इस पत्र पर ‘चिट्ठी पत्री’ में 11 अगस्त 1930 की अशुद्ध तिथि प्रकाशित है, जिस पर यथास्थान विचार प्रस्तुत है।) में लिखते हैं -

"शाहकार से आपने मेरा किस्सा न लिया।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 181)

प्रेमचंद के पुनः पुनः लिखने पर भी ‘शाहकार’ को भेजी गई प्रेमचंद की कहानी निगम साहब नहीं ले पाए, क्योंकि ‘जमाना’ में 1931 में प्रेमचंद की कोई भी कहानी प्रकाशित नहीं हुई।

इस आधार पर भी यह पत्र 1931 में ही लिखा गया था।

इसी पत्र में प्रेमचंद ने गाल्सवर्दी के नाटक ‘जस्टिस’ के अनुवाद के सम्बन्ध में लिखा -

"इन्साफ’ भी निस्फ से ज्यादा हो गया है। वस्त मई तक खत्म हो जायेगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 173)

उपर्युक्त उद्धरण में ‘इन्साफ’ शब्द का प्रयोग विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है। इससे स्पष्ट है कि प्रेमचंद गाल्सवर्दी के नाटक के उर्दू अनुवाद के सम्बन्ध में ही चर्चा कर रहे हैं। इस अनुवाद की प्रगति की सूचना देते हुए प्रेमचंद ने 24 मार्च 1931 के पत्र में निगम साहब को लिखा था -

"मैं ‘इंसाफ’ का तर्जुमा कर रहा हूँ, कोई पचास सुफहात हो गये हैं।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 184)

यह लिखने के पश्चात् प्रेमचंद ने विवेच्य पत्र के उपर्युक्त उद्धृत शब्दों के माध्यम से इस नाटक का आधे से अधिक अनुवाद पूर्ण हो जाने के साथ अनुवाद कार्य के मध्य मई तक समाप्त हो जाने की सम्भावना व्यक्त करते हुए यह विवेच्य पत्र लिखा, परन्तु जब मई का मध्य निकट आ गया और अनुवाद पूर्ण होता नहीं जान पड़ा तो 11 मई 1931 के पत्र द्वारा निगम साहब को सूचना देते हुए प्रेमचंद ने लिखा -

"आज एक माह के लिए बनारस जा रहा हूँ। वहाँ मैं ‘इंसाफ’ खत्म करके भेजूँगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 185)

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र 17 अप्रैल 1931 को लिखा जाना प्रमाणित होता है।

41. पत्रांक-233 : कथित रूप से 11 अगस्त 1930 को लिखा गया (पृ. 181)

मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 367-68), डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 284) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 286) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए 11 अगस्त 1930 को लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है।

इस पत्र में प्रेमचंद ने मुंशी दयानारायण निगम से उनके पुत्र मुन्नू बाबू के आगमन के विषय में जिज्ञासा करते हुए लिखा -

"मुन्नू बाबू कब तक आ रहे हैं। शायद इसी माह, या सितंबर में तो आयेंगे।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 181)

प्रेमचंद को जब निगम साहब से उनके पुत्र मुन्नू बाबू के इंगलैण्ड के लिए रवाना होने की सूचना प्राप्त हुई तो उन्होंने उनको विदा करने के लिए कानपुर पहुँचने की सम्भावना व्यक्त करते हुए 16 अगस्त 1929 के पत्र में लिखा था -

"उम्मीद है कि मुन्नू बाबू को Send off कहने के लिए मैं भी कानपुर पहुँचूँ।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 174)

लेकिन दुर्योग कुछ ऐसा हुआ कि प्रेमचंद के घर में बीमारियों ने डेरा डाल लिया और इच्छा होने पर भी वे इस अवसर पर कानपुर न पहुँच सके। अतः अपनी विवशता का वर्णन करने के साथ उन्होंने मुन्नू बाबू को शुभकामनाएँ प्रेषित करते हुए 2 सितम्बर 1929 के पत्र में निगम साहब को लिखा -

"मैं सनीचर को आने वाला था मगर उसके एक रोज कब्ल ही से घर में तीन मरीज हो गये। धुन्नू की वालिदा के दाँतों में दर्द और बुखार, बेटी की उंगली में फुंसी जो बिसहरी कहलाती है और निहायत दर्द पैदा करने वाली होती है। और धुन्नू की मामी को बुखार और पेचिश। कल बेटी की उंगली चिरवा दी।... इन वजूह से न आ सका और जिस दिन आपका कार्ड मिला था उसी दिन तक मुझे उम्मीद थी कि आऊँगा। मगर शाम को यहाँ से गया तो मालूम हुआ कि अब नहीं जा सकता। खत लिखने का मौका न था। अजीज मुन्नू के साथ मेरी दुआएँ हैं।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 175)

उपर्युक्त पत्रांश में प्रेमचंद के शब्द ‘सनीचर को आने वाला था’ विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। 2 सितम्बर 1929 सोमवार का दिन था। अतः स्पष्ट है कि प्रेमचंद 31 अगस्त 1929 को कानपुर जाना चाहते थे। लेकिन इसी दिन जब सायंकाल घर लौटे तो वहाँ एक साथ तीन रोगियों की सुश्रुषा में लगना पड़ा, अतः ‘खत लिखने का मौका न था।’ इसके अगले ही दिन उन्होंने 1 सितम्बर 1929 को बेटी कमला की उँगली की शल्य चिकित्सा कराई और तब कहीं जाकर अपनी परेशानियों का विवरण देते हुए 2 सितम्बर 1929 को उपर्युक्त पत्र लिखा।

जब लगभग दो वर्ष पश्चात् मुन्नू बाबू के इंगलैण्ड से भारत लौटने का संयोग हुआ तो प्रेमचंद ने 23 जुलाई 1931 के पत्र द्वारा निगम साहब से पूछा -

"मुन्नू बाबू तो शायद इंगलैण्ड से अगस्त में आने वाले हैं।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 187)

इस पत्र के पश्चात् प्रेमचंद ने यह विवेच्य पत्र लिखा और इसके अनन्तर मुन्नू बाबू के लौट आने की प्रत्याशा में निगम साहब को 12 नवम्बर 1931 के पत्र में लिखा -

"आप तो गालिबन हैदराबाद और बंबई से वापस आ गये होंगे। मुन्नू बाबू आपके साथ आये होंगे।... मुन्नू बाबू को मेरी तरफ से दुआ और मुबारकबाद कहिएगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 190)

अतः स्पष्ट है कि यह विवेच्य पत्र 11 अगस्त 1931 को लिखा गया था।

इसी विवेच्य पत्र में प्रेमचंद ने नवलकिशोर प्रेस की हिन्दी मासिक पत्रिका ‘माधुरी’ के संस्थापक-संचालक मुंशी बिशन नारायण भार्गव के सम्बन्ध में लिखा था -

"मुंशी बिशन नरायन मरहूम की रियासत गालिबन कोर्ट ऑफ वार्ड्स के इक्तदार से निकल गयी। दो चार रोज में अहकाम आ जायेंगे। मगर आइन्दा इंतजाम के मुताल्लिक कुछ खबर नहीं क्या होगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 181)

मुंशी बिशन नारायण के नाम के साथ ‘मरहूम’ शब्द के प्रयोग से सुस्पष्ट है कि यह पत्र लिखने से पूर्व ही उनका देहावसान हो चुका था। ध्यातव्य है कि मुंशी बिशन नारायण भार्गव का देहान्त जनवरी 1931 में हुआ था, जैसा कि 12 जनवरी 1931 को जैनेन्द्र कुमार के नाम लिखे प्रेमचंद के पत्र के निम्नांकित अंश से स्पष्ट है -

"हमारे प्रोप्राइटर बाबू विष्णुनारायण भार्गव का मद्रास में स्वर्गवास हो गया। घुड़दौड़ में गए, प्राणों की बाजी हार गए। अब देखना है कि यहाँ कैसे काम होता है, ‘माधुरी’ बंद होती है या चलती है, मुझे तो इसके चलने की आशा नहीं है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-2, पृ. 17)

इसके पश्चात् प्रेमचंद ने 26 जनवरी 1931 के पत्र में बिशन नारायण भार्गव को सारस्वत श्रद्धान्जलि देने के लिए एक लेख लिखकर ‘जमाना’ में प्रकाशनार्थ भेज देने की इच्छा व्यक्त करते हुए निगम साहब को लिखा था -

"जमाना के लिए मुंशी बिशन नरायन पर एक स्केच लिखने की फिक्र में हूँ। ब्लाक भी मिल जायगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 183)

और इसके उपरान्त प्रेमचंद ने मुंशी बिशन नारायण भार्गव पर जो लेख लिखकर निगम साहब को भेजा था, वह ‘जमाना’ के फरवरी 1931 के अंक में ‘मुंशी बिशन नारायण मरहूम’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था।

बिशन नारायण भार्गव की सम्पत्ति कोर्ट ऑफ वार्ड्स के प्रबन्धन में चले जाने और प्रेस के तत्कालीन प्रबन्धन के सम्बन्ध में प्रेमचंद ने 23 जुलाई 1931 के पत्र में निगम साहब को लिखा -

"यहाँ कोर्ट आफ वार्ड का इंतजाम है, मगर अभी कोई तबदीली नहीं हुई है। स्पेशल मैनेजर आ गये हैं। इंतजाम साबिक दस्तूर है। शायद तखफीफ होने वाली है। मगर तहकीक मालूम नहीं। मेरी तो मैनेजर साहब से मुलाकात ही नहीं हुई। न उन्होंने बुलाया न मैं गया।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 186)

इसके उपरान्त प्रेमचंद ने यह विवेच्य पत्र लिखा जिसके पूर्व उद्धृत शब्दों से स्पष्ट है कि पत्र लिखने के समय उनको आशा थी कि मुंशी बिशन नारायण की सम्पत्ति कोर्ट आफ वार्ड्स के प्रबन्धन से निकलने के आदेश दो-चार दिन में ही प्राप्त होने वाले हैं। लेकिन जब माह के अन्त तक भी इस सम्बन्ध में आदेश प्राप्त नहीं हुए तो प्रेमचंद ने 30 अगस्त 1931 के पत्र द्वारा निगम साहब को सूचना देते हुए लिखा -

"यहाँ का हाल साबिक दस्तूर है। खबर है कि रियासत कोर्ट आफ वार्ड्स से निकल गयी। लेकिन खबर ही खबर है। नफाज नहीं। सरकारी कारखाने हैं। मुमकिन है महीनों लग जायें।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 187)

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र 11 अगस्त 1931 को लिखा जाना प्रमाणित होता है।

42. पत्रांक-235 : कथित रूप से 12 नवम्बर 1930 को लिखा गया (पृ. 182)

मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 370-71), डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 288) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 286-87) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए 12 नवम्बर 1930 को लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है।

इस पत्र में अपनी पत्नी शिवरानी देवी के गिरफ्तार हो जाने की सूचना देते हुए प्रेमचंद लिखते हैं -

"आपने शायद अखबार में देखा हो परसों मिसेज धनपतराय पिकेटिंग करने के जुर्म में गिरफ्तार हो गयीं।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 182)

प्रेमचंद के उपर्युक्त शब्दों ‘परसों मिसेज धनपतराय... गिरफ्तार हो गयीं’ से शिवरानी देवी की गिरफ्तारी की तिथि 10 नवम्बर 1930 स्पष्ट होती है। लेकिन स्वयं शिवरानी देवी इसके सम्बन्ध में लिखती हैं -

"सन् 1931 नवम्बर का महीना था, 11वीं तारीख।... हमने पिकेटिंग करना शुरू किया और कोई 15, 20 मिनट के बाद पुलिस इन्सपेक्टर आया। मुझसे बोला - आपको हम गिरफ्तार कर रहे हैं। मैं बोली - पहले वारन्ट दिखाओ। इन्सपेक्टर - वारन्ट की कोई जरूरत नहीं, नये कानून के अनुसार। मैं अपनी छओं बहिनों से बोली - महात्मा गान्धी की जय के नारे लगाओ। हम लोग गिरफ्तार हो गई हैं। चलिए।" (प्रेमचंद घर में, पृ. 171-72)

यहाँ शिवरानी देवी को स्मृति विभ्रम हुआ है और उन्होंने इस गिरफ्तारी का सन् 1930 के स्थान पर भ्रामक रूप से 1931 उल्लिखित किया है। अतः यह भी सम्भव है कि उन्हें गिरफ्तारी की तिथि के सम्बन्ध में भी स्मृति विभ्रम हो गया हो।

उपर्युक्त उद्धरण और इस विवेच्य पत्र के उल्लेख से शिवरानी देवी की गिरफ्तारी की तिथि में एक दिन का अन्तर आ जाता है। परन्तु स्वयं प्रेमचंद इन दोनों तिथियों से भिन्न तिथि को शिवरानी देवी के गिरफ्तार हो जाने की सूचना देते हुए 11 नवम्बर 1930 के पत्र में राजेश्वर बाबू (कान्ह जी) को लिखते हैं -

"तुम्हारी मौसी 9 तारीख का एक विदेशी कपड़े की दूकान पर पिकेटिंग करते हुए पकड़ ली गयीं। मैं कल उनसे जेल में मिला और हमेशा की तरह प्रसन्न पाया।" (प्रेमचंद : कलम का सिपाही, पृ. 463 पर अमृत राय द्वारा उद्धृत)

इस प्रकार शिवरानी देवी की गिरफ्तारी की तिथि के सम्बन्ध में ही विरोधाभास उत्पन्न हो जाता है, परन्तु स्वयं प्रेमचंद के राजेश्वर बाबू (कान्ह जी) के नाम लिखे गए उपर्युक्त सन्दर्भित पत्र पर अविश्वास करने का कोई कारण उपस्थित नहीं है। ध्यातव्य है कि इस पत्र का अमृत राय द्वारा प्रस्तुत पाठ डॉ. कमल किशोर गोयनका द्वारा ‘प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य’, भाग-2 में पृष्ठ संख्या 105 पर प्रकाशित कराए गए अंग्रेजीपाठ से पुष्ट हो जाता है, अतः शिवरानी देवी की गिरफ्तारी की तिथि 9 नवम्बर 1930 स्वीकार करना सर्वथा सुसंगत है। और इस आधार पर यह विवेच्य पत्र इस तिथि के तीसरे दिन अर्थात् 11 नवम्बर 1930 को ही लिखा गया था।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र 11 नवम्बर 1930 को लिखा जाना प्रमाणित होता है।

43. पत्रांक-237 : कथित रूप से 18 दिसम्बर 1930 को लिखा गया (पृ. 183)

मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 375), डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 294) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 287) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए 18 दिसम्बर 1930 को लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है।

इस पत्र में प्रेमचंद ने निगम साहब से पूछा था -

"आपने गालिबन फोटो भारत के दफ्तर में भेज दिया होगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 183)

स्पष्ट है कि यह पत्र लिखने से पूर्व प्रेमचंद निगम साहब से अपना फोटो हिन्दी साप्ताहिक ‘भारत’ के कार्यालय में भेज देने का अनुरोध कर चुके थे और उसी का परिणाम जानने की इच्छा से उन्होंने उपर्युक्त शब्द लिखे थे।

प्रेमचंद ने 14 दिसम्बर 1929 के पत्र में निगम साहब पर लेख लिखकर ‘भारत’ में प्रकाशनार्थ भेज देने की सूचना देते हुए मुंशी दयानारायण निगम से अपना फोटो ‘भारत’ को भेज देने का अनुरोध करते हुए लिखा था -

"मैंने आपका मुख्तसर-सा स्केच भारत में भेज दिया है। अब वह मुझसे आपका ब्लाक माँग रहे हैं। कोई फोटो या ब्लाक या तो भारत को भेजिए या मेरे पास। मैं भेज दूँ। मगर जल्द।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 175-76)

स्पष्ट है कि यह विवेच्य पत्र उपर्युक्त पत्र लिखने के कुछ दिन पश्चात् ही लिखा गया था। अपने इस विवेच्य पत्र में प्रेमचंद ने निगम साहब से मुंशी इकबाल बहादुर वर्मा सेहर हतगामी को रुपये भेज देने का अनुरोध करते हुए लिखा था -

"मुंशी इकबाल वर्मा साहब अब कानपुर न जायेंगे। आप उन्हें रुपया भेज दें तो बड़ा एहसान करें। मैं तो माजूर हूँ वर्ना आपको तकलीफ न देता।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 183)

ध्यातव्य है कि प्रेमचंद ने अपने दो हिन्दी उपन्यासों - ‘रंगभूमि’ और ‘प्रेमाश्रम’ का उर्दू अनुवाद मुंशी इकबाल वर्मा सेहर हतगामी से कराया था और ये दोनों उपन्यास उर्दू में क्रमशः ‘चौगाने हस्ती’ और ‘गोशा-ए-आफियत’ शीर्षकों से 1928 में प्रकाशित हुए थे। इस अनुवाद कार्य के पारिश्रमिक के रूप में प्रेमचंद ने सेहर साहब को ‘चौगाने हस्ती’ के लिए 200 रुपये और ‘गोशा-ए-आफियत’ के लिए 100 रुपये, कुल 300 रुपये देने पर समझौता किया था। इधर तो ये दोनों उर्दू उपन्यास अन्यान्य कारणों से प्रकाशित नहीं हो पा रहे थे और उधर सेहर साहब प्रेमचंद से अपने पारिश्रमिक की धनराशि का तकाजा कर रहे थे, जो कि निगम साहब के नाम 31 मार्च 1926 को लिखे गए प्रेमचंद के पत्र के निम्नांकित शब्दों से ज्ञात होता है -

"अपने दो नाविलों के तर्जुमे दारुल इशाअत पंजाब को दिये। अभी कुछ तय नहीं हुआ। और मुंशी इकबाल वर्मा साहब मारे तकाजों के नाक में दम किये हुए हैं हालाँकि एक सौ पचास दे चुका हूँ लेकिन अभी उन्हें इतना ही और देना है। इन दोनों किताबों की इशाअत पर ही खर्चा वसूल होगा।"257

257. चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 161

लेकिन 1928 में इन दोनों उपन्यासों के प्रकाशित हो जाने के पश्चात् भी जब प्रेमचंद सेहर साहब के पारिश्रमिक का भुगतान नहीं कर सके तो स्वाभाविक रूप से उन्होंने प्रेमचंद पर सख्त तकाजा किया होगा। प्रेमचंद ने सेहर साहब को कानपुर जाकर निगम साहब से धनराशि ले आने पर सहमत भी कर लिया था, लेकिन किसी कारण से जब उनका कानपुर जाने का कार्यक्रम स्थगित हो गया तो प्रेमचंद ने यह विवेच्य पत्र लिखकर निगम साहब से अनुरोध किया कि उनकी ओर से सेहर साहब को धनराशि भिजवा देने की व्यवस्था करा दें। यह पत्र पाने के कुछ दिन उपरान्त निगम साहब ने मुंशी इकबाल वर्मा सेहर को धनराशि भिजवा दी थी, जिसके लिए धन्यवाद ज्ञापित करते हुए प्रेमचंद ने 12 फरवरी 1930 के पत्र में लिखा -

"आपने पिछले महीने इकबाल वर्मा साहब की मदद की। मेरी जानिब से की थी। अभी उनके कर्ज से मैं सुबुकदोश नहीं हुआ हूँ।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 176)

स्पष्ट है कि जनवरी 1930 में प्रेमचंद की ओर से उनके 18 दिसम्बर 1929 के इस विवेच्य पत्र के उत्तर में मुंशी दयानारायण निगम ने सेहर हतगामी को जो धनराशि प्रेषित की थी, वह 150 रुपये से कम ही थी।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र 18 दिसम्बर 1929 को लिखा जाना प्रमाणित होता है।

44. पत्रांक-249 : कथित रूप से 13 जनवरी 1932 को लिखा गया (पृ. 191)

मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 408-9), डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 336) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 294) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए 13 जनवरी 1932 को लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है।

अपने तयेरे बड़े भाई बाबू बलदेव लाल के देहावसान एवं और्ध्वदैहिक कृत्यों की सूचना देते हुए प्रेमचंद इस पत्र में निगम साहब को लिखते हैं -

"9 मार्च को मेरे बड़े भाई साहब बाबू बलदेव लाल का कुलंज से इंतकाल हो गया।... अठारह को दसवाँ है। मैं 16 या 17 को जा रहा हूँ। वहाँ से 21-22 को वापस आऊँगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 191)

इस पत्र पर प्रकाशित तिथि के आलोक में प्रेमचंद के उपुर्यक्त शब्दों का परीक्षण करने से यह हास्यापद सी स्थिति उभरती है कि क्या प्रेमचंद 9 मार्च को होने वाली मृत्यु की सूचना 13 जनवरी को ही देने की चमत्कारिक क्षमता से सम्पन्न थे! इस पृष्ठभूमि में यह विवेच्य पत्र 13 मार्च 1932 को लिखा हुआ प्रतीत होता है। लेकिन प्रेमचंद ने अपने भाई के निधन की सूचना 12 जनवरी 1932 के पत्र द्वारा श्रीराम शर्मा को निम्नांकित शब्दों में दी थी -

"मेरे रिश्ते के एक भाई 9 तारीख को चल बसे और उनका कुनबा बेसहारा छूट गया। उनकी उम्र 67 साल थी।" (चिट्ठी पत्री, भाग-2, पृ. 215)

उपर्युक्त उद्धरण के आधार पर तो यह विवेच्य पत्र 13 जनवरी 1932 को ही लिखा गया प्रतीत होता है, लेकिन इसके पूर्व उद्धृत अंश में उपलब्ध शब्द ‘9 मार्च’ इस पत्र की तिथि को संदिग्ध बना देते हैं।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर इस विवेच्य पत्र की तिथि संदिग्ध प्रतीत होती है, जिसका प्रामाणिक तिथि निर्धारण इस पत्र की मूल प्रति प्राप्त होने पर ही किया जाना सम्भव है।

45. पत्रांक-254 : कथित रूप से 7 जून 1932 को लिखा गया (पृ. 195)

मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 417-18), डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 343-44) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 297-98) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए 7 जून 1932 को लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है। आश्चर्यजनक रूप से मदन गोपाल ने इसी पत्र को ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 में पृष्ठ संख्या 451-52 पर पत्रांक 508 पर प्रेमचंद के 7 जून 1933 को लिखे गए एक भिन्न पत्र के रूप में भी प्रकाशित करा दिया है। इसका कारण क्या है, यह कह पाना तो कुछ सम्भव नहीं है, लेकिन इस एक ही पत्र पर दो भिन्न-भिन्न तिथियों के उल्लेख प्राप्त होने से इसका तिथि निर्धारण आवश्यक हो जाता है।

इस पत्र में प्रेमचंद ने लिखा था -

"हाँ मैं लखनऊ में था। लेकिन कानपुर न आ सका। परेशानियों में था।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 195)

9 अक्तूबर 1931 को प्रेमचंद नवलकिशोर प्रेस, लखनऊ की सेवा से मुक्त हो गए तो कुछ समय लखनऊ में व्यतीत करने के उपरान्त स्थायी रूप से बनारस के लिए प्रस्थान करने की सूचना उन्होंने निगम साहब को 13 मई 1932 के पत्र द्वारा देते हुए लिखा -

"मैं आज बनारस जा रहा हूँ। अब से मेरे पास खुतूत सरस्वती प्रेस काशी के पते ही से लिखियेगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 194)

यह पत्र पाने पर जब निगम साहब ने प्रेमचंद से शिकायत की कि कानपुर होते हुए बनारस क्यों न गये, तब उन्होंने यह विवेच्य पत्र लिखा था। इस आधार पर इस विवेच्य पत्र की 7 जून 1932 की तिथि ही शुद्ध है।

इस पत्र में प्रेमचंद ने अपने सद्यः प्रकाशित उर्दू उपन्यास ‘बेवा’ के सम्बन्ध में लिखा -

"बेवा’ बेशक बहुत खराब छपी। कई प्रेसों में छपी, कई पत्थर टूटे, कई कातिबों ने लिखा। फँस गया था। मजबूरन खत्म करना पड़ा। गलती रह गई कि प्रिन्ट लाइन न दी जा सकी। अब इसकी चिटें भेज रहा हूँ। तकलीफ तो होगी मगर दफ्तरी से चिपकवा लें।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 195)

स्पष्ट है कि ‘बेवा’ की मुद्रित प्रति प्राप्त होने पर निगम साहब की जो प्रतिक्रिया प्राप्त हुई, उसके ही स्पष्टीकरण में प्रेमचंद ने उपर्र्युक्त शब्द लिखे थे। इस उपन्यास के प्रकाशित होने की सूचना देने के साथ ही इसकी प्रतियाँ भेज देने की सूचना देते हुए प्रेमचंद ने 13 मई 1932 के पत्र में निगम साहब को लिखा था -

"मेरा नाविल ‘बेवा’ तैयार हो गया है। इसके लिए मुझे यहाँ आठ-दस रोज ठहरना पड़ा। इसकी दो सौ जिल्दें मालगाड़ी से भेज रहा हूँ।... किताब बहुत खराब छपी है मेरी हिमाकतों के बाइस, लेकिन मैंने कीमत बहुत कम रखी है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 194)

स्पष्ट है कि प्रेमचंद ने इस उपन्यास की दो सौ प्रतियाँ भेजने की सूचना निगम साहब को दी थी, लेकिन जब उन्हें मात्र 134 प्रतियाँ ही प्राप्त हुईं तो उन्होंने इसकी सूचना प्रेमचंद को दी, जिसके उत्तर में उन्होंने अपने इस विवेच्य पत्र में इसका कारण बताते हुए लिखा -

"134 जिल्दें ही गईं। दफ्तरी ने लाहौर का ‘जमाना’ और ‘जमाना’ का लाहौर भेज दिया।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 195)

स्पष्ट है कि त्रुटिवश ‘जमाना’ कार्यालय को भेजी जाने वाली पुस्तकें लाहौर और लाहौर भेजी जाने वाली पुस्तकें कानपुर भेज दी गई थीं। इस आधार पर भी इस विवेच्य पत्र की 7 जून 1932 की तिथि ही शुद्ध है।

‘बेवा’ और इससे पूर्व प्रकाशित हुए उर्दू उपन्यास ‘पर्दा-ए मजाज’ की समीक्षा ‘जमाना’ में प्रकाशित करा देने का अनुरोध करते हुए प्रेमचंद ने इस पत्र में लिखा था -

"दोनों किताबों ‘पर्दए मजाज’ और ‘बेवा’ का रिव्यू निकलवा दें। बहुत अर्से से मेरी किसी किताब की तनकीद ‘जमाना’ में नहीं निकली।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 195)

लेकिन जब यह लिखने पर भी इन दोनों उपन्यासों की समीक्षा ‘जमाना’ में प्रकाशित नहीं हुई तो प्रेमचंद ने 27 जून 1932 के पत्र267 267.(इस पत्र पर मदन गोपाल ने ‘प्रेमचंद के खुतूत’ और ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 में 27 जून 1933 की अशुद्ध तिथि प्रकाशित कराई है, जिस पर यथास्थान विचार प्रस्तुत है।) में निगम साहब को लिखा -

"कार्ड मिला। पहले इन दोनों किताबों ‘पर्दए मजाज’ और ‘बेवा’ का रिव्यू तो करा दीजिए।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 196)

और इसी सम्बन्ध में प्रेमचंद ने 25 अक्तूबर 1932 के पत्र में पुनः निगम साहब को उलाहना देते हुए लिखा -

"बेवा’ का कोई रिव्यू ‘जमाना’ में न छपा। ‘पर्दए मजाज’ का भी यही हाल हुआ। आपका मुझमें इतना कम इन्ट्रेस्ट क्यों हो गया है?... जब ‘जमाना’ जैसा रिसाला इस कदर बेएतनाई करे तो दूसरों पर मेरा क्या हक है और क्या दावा है?" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 199)

इस आधार पर भी इस विवेच्य पत्र की 7 जून 1932 की ही तिथि शुद्ध है।

इसी पत्र में प्रेमचंद ने गाल्सवर्दी के नाटक ‘जस्टिस’ के वास्तविक उर्दू अनुवादक बाबू हर प्रसाद सक्सेना के जेल से छूटकर आने और उन्हें सौ रुपये अग्रिम पारिश्रमिक के रूप में भेज दिए जाने का अनुरोध करते हुए लिखा -

"बाबू हर प्रसाद सक्सेना जेल से छूट आए और बहुत तंग-हाल हैं। मेरे पास दर्दनाक खत लिखा है। क्या जवाब दूँ।... एकेडेमी में क्या पेशगी का सवाल नहीं पेश हो सकता? और न सही सौ रुपये पेशगी लेकर उनके पास भिजवा दीजिए। बेचारे बड़ी तकलीफ में हैं।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 195)

10 अप्रैल 1932 के पत्र में प्रेमचंद ने बाबू हर प्रसाद सक्सैना के जेल में होने और उन्हें सौ रुपये अग्रिम भेजे जाने का अनुरोध करते हुए निगम साहब को लिखा था -

"इस काम में मैं और बाबू हर प्रसाद सक्सेना दोनों ही शरीक थे। वह बेचारे जेल में हैं।... आज फैजाबाद जेल से उनका दर्दनाक खत आया है।... अगर आप इस वक्त एक सौ रुपये भी पेशगी वसूल कर सकें तो मैं उनकी बीवी को दे दूँ। वह अभी-अभी यहाँ आयी थीं।... मई में वह रिहा होकर आ जायेंगे।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 193-94)

उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि यह लिखने के पश्चात् ही मई माह में बाबू हर प्रसाद सक्सैना जेल से छूटकर आए और फिर प्रेमचंद ने अपने इस विवेच्य पत्र में पूर्व उद्धृत शब्द लिखे। इस आधार पर भी यह विवेच्य पत्र 7 जून 1932 को ही लिखा गया था।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र 7 जून 1932 को लिखा जाना प्रमाणित होता है और मदन गोपाल द्वारा दी गई इस पत्र की 7 जून 1933 की तिथि अशुद्ध सिद्ध होती है।

46. पत्रांक-256 : कथित रूप से 27 जून 1932 को लिखा गया (पृ. 196-98)

मदन गोपाल ने ‘प्रेमचंद के खुतूत’ (पृ. 261-63) और ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 453-55) में इस पत्र को 27 जून 1933 को लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है, जबकि डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 344-46) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 298-300) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए 27 जून 1932 को लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है।

इस पत्र में प्रेमचंद ने अपने दो उपन्यासों की समीक्षा ‘जमाना’ में प्रकाशित करा देने का अनुरोध करते हुए निगम साहब को में लिखा था -

"कार्ड मिला। पहले इन दोनों किताबों, ‘पर्दए मजाज’ और ‘बेवा’ का रिव्यू तो करा दीजिए।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 196)

इन्हीं दोनों उपन्यासों की समीक्षा ‘जमाना’ में प्रकाशित कराने का अनुरोध करते हुए प्रेमचंद ने 7 जून 1932 के पत्र273 273.(इस पत्र पर ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 में पत्रांक 467 पर 7 जून 1932 और पत्रांक 508 पर 7 जून 1933 की तिथियाँ प्रकाशित हैं, जिन पर यथास्थान विचार प्रस्तुत है) में निगम साहब को लिखा था -

"दोनों किताबों ‘पर्द ए मजाज’ और ‘बेवा’ का रिव्य निकलवा दें। बहुत अर्से से मेरी किसी किताब की तनकीद ‘जमाना’ में नहीं निकली।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 195)

यह लिखने के पश्चात् प्रेमचंद ने यह विवेच्य पत्र लिखा और यह लिखने पर भी जब इन दोनों उपन्यासों की समीक्षा ‘जमाना’ में कई महीनों तक प्रकाशित नहीं हुई तो अन्ततः प्रेमचंद ने 25 अक्तूबर 1932 के पत्र में निगम साहब को लिखा -

"बेवा’ का कोई रिव्य ‘जमाना’ में न छपा। ‘पर्द-ए मजाज’ का भी यही हाल हुआ। आपका मुझमें इतना कम इन्ट्रेस्ट क्यों हो गया है?" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 199)

इस आधार पर भी इस विवेच्य पत्र की तिथि 27 जून 1932 ही शुद्ध है।

इसी पत्र में प्रेमचंद ने ‘बेवा’ से पूर्व प्रकाशित हुए उर्दू उपन्यास ‘पर्दा-ए-मजाज’ पर मुंशी दयानारायण निगम की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करते हुए लिखा -

"पर्दए मजाज’ पर तो मैं आपकी राय का मुश्ताक हूँ। इसे मैंने बहुत मेहनत से लिखा था। आप इसे एक बार सरसरी तौर पर पढ़ तो जाएँ। मगर शायद आपको फुर्सत न मिलेगी।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 196)

परन्तु जब महीनों बीत जाने पर भी प्रेमचंद को निगम साहब की कोई प्रतिक्रिया प्राप्त न हो सकी तो उन्होंने 25 अक्तूबर 1932 के पत्र में उन्हें लिखा -

"क्या पर्दए मजाज’ आपने पढ़ा? आपके किसी दोस्त ने पढ़ा? या इस कदर लग्व है कि आपने पढ़ने की तकलीफ गवारा नहीं की? लिटरेरी काम में सिवाय अहबाब की कद्रदानी के और क्या रखा है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 199)

इस आधार पर भी इस विवेच्य पत्र की तिथि 27 जून 1932 ही शुद्ध है।

इसी पत्र में प्रेमचंद ने निगम साहब से प्राइमरी कक्षाओं के लिए सम्पादित की जा रही रीडरों के सम्बन्ध में पूछते हुए लिखा था -

"आप किन जमाअतों के लिए उर्दू रीडरें लिख रहे हैं। पाँचवीं, छठवीं, सातवीं के लिए या आठवीं, नवीं, दसवीं के लिए।... अगर यह सोचिए कि मुस्तनद लोगों के मजामीन ही लिए जाएँ तो करीकुलम में जो शर्तें इन्तखाब के मुताल्लिक आयद की गई हैं उनकी पाबन्दी नहीं हो पाती।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 196-97)

उपर्युक्त शब्दों से स्पष्ट है कि उस समय मुंशी दयानारायण निगम उर्दू रीडरों के लिए लेखों का चयन कर रहे थे। प्रेमचंद भी यही कार्य कर रहे थे, यह उनके 17 जून 1932 को निगम साहब के नाम लिखे पत्र से स्पष्ट है जिसमें उन्होंने लिखा था -

"इसी रीडरवाली कुत्तेखसी में मैं भी मुबतिला हूँ हालाँकि जी बिलकुल नहीं चाहता मगर राय साहब से वादा कर चुका हूँ, उसका ईफा करना जरूरी है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 196)

स्पष्ट है कि इच्छा न होने पर भी दरियाबाद, जिला बाराबंकी के राय उमानाथ बाली को वचन दे देने के कारण प्रेमचंद भी रीडरों के लिए लेखों का चयन करने में व्यस्त थे। अभी प्रेमचंद का कार्य समाप्त नहीं हुआ था कि निगम साहब का कार्य पूर्ण हो गया, जो 28 जुलाई 1932 को निगम साहब के नाम लिखे गए पत्र में प्रेमचंद के निम्नांकित शब्दों से स्पष्ट है -

"शुक्र है आपको इस इंतखाब से फुर्सत तो मिली। देखिए कितने सेट होते हैं।... ताल्लुकदार प्रेस किताबों की छपाई का इंतजाम न कर सका।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 198)

प्रेमचंद जिस ‘ताल्लुकदार प्रेस’ की चर्चा उपर्युक्त पत्रांश में कर रहे हैं, वह राय उमानाथ बाली का ही था, और इसी प्रेस की चर्चा करते हुए प्रेमचंद ने इस विवेच्य पत्र में लिखा था -

"मेरा मुआमला शायद अड़ा जा रहा है। ताल्लुकेदार प्रेस फाकामस्त प्रेस है। उमानाथ बाली साहब नाम के ताल्लुकेदार हैं।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 197)

इस आधार पर भी इस विवेच्य पत्र की तिथि 27 जून 1932 ही शुद्ध है।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र 27 जून 1932 को लिखा जाना प्रमाणित होता है और इस पर मदन गोपाल द्वारा प्रकाशित कराई गई 27 जून 1933 की तिथि अशुद्ध सिद्ध होती है।

47. पत्रांक-269 : कथित रूप से 30 सितम्बर 1933 को लिखा गया (पृ. 205-06)

मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 472-73), डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 391) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 306) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए 30 सितम्बर 1933 को अमीनुद्दौला पार्क, लखनऊ से लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है।

प्रेमचंद 9 अक्तूबर 1931 को नवलकिशोर प्रेस, लखनऊ की सेवा से पृथक् हो गए थे और 13 मई 1932 को लखनऊ से बनारस चले आए थे, अतः 1933 में लखनऊ के पते से पत्र लिखे जाने का न तो कोई औचित्य है न ही कोई कारण। अतः इस पत्र की तिथि निश्चित रूप से अशुद्ध है।

प्रेमचंद ने इस पत्र में अपनी पुस्तक ‘बाकमालों के दर्शन’ के पाठ्यक्रम में स्वीकृत हो जाने के परिणाम का संकेत करते हुए और इसके लिए गठित समिति के निर्णय की प्रतीक्षा करते हुए निगम साहब को लिखा था -

"अगर बाकमालों के दर्शन मंजूर हो जाये तो अपना फायदा है क्योंकि उस पर मेरी रायल्टी है। देखिए कमेटी क्या करती है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 205)

अपने जीवनी संग्रह ‘बाकमालों के दर्शन’ के प्रकाशित हो जाने की सूचना देने के साथ ही इसे पाठ्यक्रम में सम्मिलित कराने हेतु सम्बन्धित समिति के पास भेज देने का अनुरोध करते हुए प्रेमचंद ने 16 अगस्त 1929 के पत्र में निगम साहब को लिखा था -

"रामनरायन लाल ने बाकमालों के दर्शन भी छाप दिया। आऊँगा तो एक जिल्द नजर करूँगा।... बाकमालों के दर्शन नवीं दसवीं के लिए मौजूं होगी। कुछ न हो तो इलहाकी कुतुब में तो आ ही जाना चाहिए। कुछ उम्मीद है? किताबें जरूर भिजवा दें।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 174)

स्पष्ट है कि ‘बाकमालों के दर्शन’ अगस्त 1929 में रामनारायण लाल, इलाहाबाद ने प्रकाशित की थी। निगम साहब ने प्रेमचंद का अनुरोध स्वीकार करके इसकी प्रतियाँ पाठ्यक्रम में स्वीकृत कराने के उद्देश्य से सम्बन्धित समिति को प्रेषित कर दी थीं, जिसकी सूचना प्राप्त होने पर प्रेमचंद ने यह विवेच्य पत्र लिखा था। लेकिन यह पुस्तक पाठ्यक्रम में स्वीकृत न हो सकी। इस संग्रह में कतिपय परिवर्द्धन करते हुए प्रेमचंद ने इसका द्वितीय संस्करण अक्तूबर 1932 में प्रकाशित कराया और तत्काल इसके प्रथम संस्करण के स्वीकृत न हो पाने के कारणों का उल्लेख करते हुए 25 अक्तूबर 1932 के पत्र में निगम साहब को लिखा -

"‘बकमालों के दर्शन’ यहाँ लाला राम नारायण लाल बुकसेलर ने शाया किया है।... पहले इस मजमूए में मुसलमान मशाहीर न थे। शायद इसी बिना पर कमेटी ने इस पर इल्तफात न किया था। अब वह कमी पूरी कर दी गई है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 199)

इस आधार पर यह विवेच्य पत्र 30 सितम्बर 1929 को लिखा गया था।

पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है कि यह विवेच्य पत्र प्रेमचंद ने अमीनुद्दौला पार्क, लखनऊ से लिखा था। आगामी पंक्तियों में इस दृष्टि से भी विचार प्रस्तुत है।

लखनऊ में अपने निवासस्थान की सूचना देते हुए प्रेमचंद ने 2 सितम्बर 1929 के पत्र में निगम साहब को लिखा था -

"अब मैं अमीनुद्दौला पार्क में रहता हूँ। मकान का नंबर कहीं नहीं मिलता। हाँ, यहया की दूकान पर पूछने से पता चल सकता है।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 174-75)

लखनऊ में निवासस्थान परिवर्तित कर लेने पर अपने नवीन निवास की सूचना देते हुए प्रेमचंद ने 25 जुलाई 1930 के पत्र में निगम साहब को लिखा -

"मैं आजकल मुहल्ला गनेशगंज नंबर 20 में रहता हूँ।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 180)

स्पष्ट है कि 2 सितम्बर 1929 से 25 जुलाई 1930 के मध्य की कालावधि में प्रेमचंद लखनऊ के अमीनुद्दौला पार्क वाले मकान में ही रहते रहे। यह विवेच्य पत्र इसी पते से लिखा जाना भी यही प्रमाणित करता है कि यह पत्र इसी कालावधि में ही लिखा गया था।

इसी पत्र की तिथि पर विचार करते हुए वि.वा. वेदप्रकाश गर्ग लिखते हैं -

"30 सितम्बर 1933 को निगम निगम साहब के नाम लिखा पत्र तो और भी उलझन में डालता है। मुंशी जी लिखते हैं - ‘मैंने दो ड्रामों के तर्जुमे भेज दिए थे, ‘सिल्वर बॉक्स’ और ‘जस्टिस’।... अभी ‘स्ट्राइक’ मेरे पास ही है। खत्म कर चुका हूँ। नजरसानी कर रहा हूँ।’ इसे पढ़कर तो ऐसा लगता है कि इस तिथि तक तो उक्त रूपान्तर तैयार भी नहीं हुए थे। उक्त दोनों पत्रों की विरोधात्मक स्थिति पर यही सोचना पड़ता है कि या तो इस पत्र की तिथि गलत है या फिर 26 अक्तूबर 1932 वाले पत्र का उल्लेख ठीक नहीं है, किन्तु निगम साहब के पत्रों में इस सम्बन्ध में सभी उल्लेखों को देखते हुए मेरे विचार से इस पत्र की तिथि 30 सितम्बर 1933 गलत है। कारण यह है कि उन्होंने 13 मई 1932 के लखनऊ से लिखे पत्र में स्वयं लिखा है - "मैं आज बनारस जा रहा हूँ। अब मेरे पास खतूत सरस्वती प्रेस काशी के पते से ही लिखिएगा।’ और आगे 9 जनवरी 1934 तक के लिखे सभी पत्र बनारस से ही लिखे हुए हैं। अतः इसकी सही तिथि 30 सितम्बर 1929 जान पड़ती है, क्योंकि यह पत्र ‘लखनऊ’ से लिखा गया था और उस समय वे लखनऊ में थे। सितम्बर 1933 में तो वे बनारस में थे और अपने सरस्वती प्रेस का संचालन कर रहे थे। 26 अक्तूबर 1932 का पत्र भी सरस्वती प्रेस, बनारस से ही लिखा गया था।" (प्रेमचंद : जीवन और साहित्य, पृ. 211)

वि. वा. वेदप्रकाश गर्ग ने यद्यपि अपनी मान्यता के आधार पर स्पष्ट नहीं किए हैं लेकिन इस पत्र के तिथि निर्धारण में वे शुद्धता का परिचय देते हैं।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र 30 सितम्बर 1929 को लिखा जाना प्रमाणित होता है।

48. पत्रांक-275 : कथित रूप से 30 जून 1935 को लिखा गया (पृ. 212-14)

मदन गोपाल ने ‘प्रेमचंद के खुतूत’ (पृ. 353-55) और ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 563-64) में इस पत्र को 15 जून 1935 को लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है, जबकि डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 475-76) और डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 312-13) में इस पत्र को अमृत राय का अनुकरण करते हुए 30 जून 1935 को लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है।

इस पत्र में प्रेमचंद ने बनारस से बम्बई जाने के सम्बन्ध में निगम साहब को लिखा -

"कल बम्बई जा रहा हूँ। एक महीने में लौटूँगा।" (चिट्ठी पत्री, भाग-1, पृ. 214)

स्पष्ट है कि यह पत्र लिखने के अगले ही दिन प्रेमचंद बम्बई जा रहे थे, जहाँ उनका विचार एक मास तक रहने का था। प्रेमचंद 4 अप्रैल 1935 को बम्बई की मायानगरी छोड़कर बनारस लौट आए थे, फिर कुछ समय उपरान्त ही बम्बई जाने का क्या कारण था, यह 16 मई 1935 को कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी द्वारा प्रेमचंद को लिखे गए पत्र से अनुमान किया जा सकता है, जिसमें उन्होंने लिखा था -

“I will be able to do it in the middle of June when I go to Bombay. If in the meantime you come to Bombay please make it a point to come over to Panchgani and spend a few days with us.” (प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य, भाग-2, पृ. 150)

कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ‘हंस’ को भारतीय साहित्य परिषद् का मुखपत्र बनाने के लिए सहमl करने के लिए प्रयत्नशील थे और इसके लिए प्रेमचंद से वार्तालाप करने के लिए उन्हें अपने पास बुलाना चाहते थे। इसके लिए मुंशी जी निरन्तर महात्मा गांधी के भी सम्पर्क में थे। प्रेमचंद से इस सम्बन्ध में विस्तृत सूचनाएँ प्राप्त करने के लिए उन्होंने 28 मई 1935 को एक लम्बा पत्र भी लिखा था290, 290. (प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य, भाग-2, पृ. 153-54) जिसके उत्तर में प्रेमचंद का पत्र पाने पर कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने 22 जून 1935 के पत्र में बम्बई से प्रेमचंद को लिखा -

“Your letter to hand. I could not write to you earlier because of my inability to come to any decision.” (प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य, भाग-2, पृ. 154)

ध्यातव्य है कि इसी पत्र में मुंशी जी ने ‘हंस’ के सम्बन्ध में अपने सुझाव भी विस्तार से लिख भेजे थे।

इस पत्र से स्पष्ट है कि 22 जून 1935 तक प्रेमचंद बम्बई नहीं पहुँचे थे, जबकि कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी बम्बई पहुँच चुके थे, जैसा कि उनके 16 मई 1935 के पूर्व उद्धृत पत्रांश में भी उल्लेख प्राप्त होता है। इस आधार पर यह विवेच्य पत्र 15 जून 1935 का लिखा हुआ नहीं हो सकता।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र 30 जून 1935 को लिखा जाना प्रमाणित होता है और मदन गोपाल द्वारा दी गई इसकी 15 जून 1935 की तिथि अशुद्ध सिद्ध होती है।

49. कथित रूप से सम्भवतः 1913 में लिखा गया (प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य, भाग-2, पृ. 33)

मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 28-29, पत्रांक 24) में और डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 32-33) में इस पत्र को डॉ. कमल किशोर गोयनका का अनुकरण करते हुए सम्भवतः 1913 में लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है। आश्चर्यजनक रूप से मदन गोपाल ने इसी पत्र को ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 46-47, पत्रांक-40) में अनुमानतः सितम्बर 1914 में लिखा गया बताकर कतिपय परिवर्तनों के साथ प्रेमचंद के एक भिन्न पत्र के रूप में भी प्रकाशित करा दिया है।

इस पत्र के पाठ से स्पष्ट है कि यह पत्र मुंशी दुर्गा सहाय सुरूर जहानाबादी और मुंशी प्यारे लाल शाकिर मेरठी के सम्बन्ध में चल रहे विवाद को लेकर ही लिखा गया था। ध्यातव्य है कि महाकवि कालिदास के महाकाव्य ‘ऋतुसंहार’ का उर्दू पद्यानुवाद ‘अक्सीरे सुखन’ शीर्षक से सन् 1913 में नवलकिशोर प्रेस, लखनऊ ने प्रकाशित किया था, जिस पर अनुवादक के रूप में मुंशी प्यारे लाल शाकिर मेरठी का नाम मुद्रित हुआ था। इस पद्यानुवाद की भूमिका प्रेमचंद ने लिखी थी, जो पुस्तक में ‘मुकद्दमा’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। प्रेमचंद की लिखी हुई यह भूमिका मुंशी प्यारे लाल शाकिर मेरठी ने अपने सम्पादन में प्रकाशित होने वाले उर्दू मासिक ‘अल अस्र’ के फरवरी 1914 के अंक (जिल्द-3 नम्बर-1) में ‘महाकवि कालिदास’ के शीर्षक से प्रकाशित करा दी थी। इसके उपरान्त मुंशी दयानारायण निगम ने जब प्रेमचंद की लिखी हुई इस भूमिका को ‘जमाना’ के अगस्त 1914 के अंक में ‘कालिदास की शायरी’ शीर्षक से प्रकाशित कराया तो इसमें किए गए परिवर्तनों के सम्बन्ध में अपनी निम्नांकित सम्पादकीय टिप्पणी भी प्रकाशित कराई -

"मिस्टर शाकिर ने इन नज्मों के मजमूए को ‘अक्सीरे सुखन’ के नाम से अपने नाम से शाया किया है। ‘जमाना’ में इशाअत के लिए ये नज्में हमको उन्हीं से मिली थीं और उनके आखिर में उन्हीं का नाम सब्त था। मगर बाद में हमको तहकीकी तौर पर साबित हुआ कि नज्मों का नस्र तर्जुमा मिस्टर शाकिर ने किया है और उनको नज्म का जामा ‘सुरूर’ मरहूम ने पहनाया है। हमारे पास इसका तहरीरी सबूत है इसलिए मुंशी प्रेमचंद ने इस मजमून में ‘ऋतुसंहार’ के मुतर्जिम के मुताल्लिक जो कुछ लिखा है उसमें हमने महज अपने जिम्मेदारी पर तरमीम कर दी है। यह मजमून ‘अक्सीरे सुखन’ के दीबाचे से माखूज है। ‘जमाना’ बाबत सन् 1910 ई. में तीन नज्में शाया हो चुकी हैं एक मौसमे गर्मा पर, दूसरी मौसमे बरसात पर और तीसरी बसन्त रुत पर।" (जमाना, उर्दू मासिक, कानपुर, अगस्त 1914, पृ. 124)

उपर्युक्त सम्पादकीय टिप्पणी के साथ जब यह संशोधित भूमिका ‘जमाना’ में प्रकाशित हुई तो साहित्य संसार में हलचल हुई और विद्वानों ने इस पर आपत्ति भी की। इस पर मुंशी दयानारायण निगम ने जब इस सम्बन्ध में अपने साक्ष्य प्रेमचंद को प्रेषित किए तो उसके उत्तर में प्रेमचंद ने जो पत्र निगम साहब को लिखा था, वही यह विवेच्य पत्र है। इस पत्र को ‘जमाना’ के जनवरी 1915 के अंक में प्रकाशित करते हुए निगम साहब ने इस पर निम्नांकित टिप्पणी भी प्रकाशित कराई थी -

"हमने ‘जमाना’ अगस्त में ‘अक्सीरे सुखन’ के दीबाचे को नक्ल करते हुए जो नोट अपनी जिम्मेदारी पर दर्ज कर दिया था, उसे बाज हजरात ने हमारी तंगदिली पर महमूल किया। दिसम्बर के ‘अलनाजिर’ में अबुल रशाद साहब ने ‘मै-ए-दो आतिशा’ के उनवान से ‘अक्सीरे सुखन’ की तनकीद करते हुए हमारे नोट पर भी रायजनी फरमाई है। इसमें मिनजुमला और ऐतराजात के यह ऐतराज भी किया गया है कि मुंशी प्रेमचंद के मजमून में किसी किस्म के तसर्रुफ करने का हमको मिजाज न था। चूँकि मुंशी प्रेमचंद को असल वाकिआत का इल्म न था इसलिए हमने अपना फर्ज समझा कि वाकिआत की बिना पर नाजरीने ‘जमाना’ के लिए मजमून में जरूरी तरमीम कर दी जाये। मजीद इत्मीनान के लिए हमने अपनी शहादतों को उनके खिदमत में रवाना किया और उनका मुलाहिजा करने के बाद मुंशी साहब ने हमारे पास जैल का खत लिखा है।" (दुर्गा सहाय सुरूर जहानाबादी (उर्दू), पृ. 151 पर उद्धृत)

निगम साहब की उपर्युक्त टिप्पणी के अनन्तर ‘जमाना’ के इसी पृष्ठ पर प्रेमचंद का यह विवेच्य पत्र भी ‘जमाना’ के जनवरी 1915 के अंक में प्रकाशित हुआ था। इस टिप्पणी से स्पष्ट है कि लखनऊ के उर्दू मासिक ‘अलनाजिर’ के दिसम्बर 1914 के अंक में ‘मै-ए-दो आतिशा’ के शीर्षक से प्रकाशित अबुल रशाद की लिखी ‘अक्सीरे सुखन’ की समीक्षा पढ़ने के उपरान्त ही निगम साहब ने अपनी उपर्युक्त उद्धृत टिप्पणी के सम्बन्ध में साक्ष्य प्रेमचंद को प्रेषित किए थे। इन साक्ष्यों को देखकर प्रेमचंद ने तत्काल ही निगम साहब को अपना अभिमत जिस पत्र के रूप में प्रेषित किया था, वह ‘जमाना’ के जनवरी 1915 के अंक में निगम साहब की उपर्युक्त टिप्पणी के साथ प्रकाशित हो गया।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र दिसम्बर 1914 में लिखा जाना प्रमाणित होता है।

यहाँ यह उल्लेख करना भी कुछ असंगत न होगा कि इस पत्र का जो पाठ डॉ. गोयनका ने ‘प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य’, भाग-2 एवं ‘प्रेमचंद पत्र कोश’, डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 और मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 में पत्रांक-24 के रूप में प्रकाशित कराया है, वह इस पत्र का विकृत पाठ है, और इसका जो पाठ मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 में पत्रांक 40 के रूप में प्रकाशित कराया है, वह वही शुद्ध पाठ है जो ‘जमाना’ के जनवरी 1915 के अंक में प्रकाशित हुआ था।

50. कथित रूप से जनवरी 1916 में लिखा गया (प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य, भाग-2, पृ 33-34)

मदन गोपाल ने ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 67-68, पत्रांक 60) और डॉ. जाबिर हुसैन ने ‘प्रेमचंद रचनावली’, भाग-19 (पृ. 55-56) में इस पत्र को डॉ. कमल किशोर गोयनका का अनुकरण करते हुए जनवरी 1916 में लिखा गया बताकर प्रकाशित कराया है। डॉ. गोयनका ने इसी पत्र को इसी तिथि के साथ ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ (पृ. 175) पर भी प्रकाशित कराया है। आश्चर्यजनक रूप से मदन गोपाल ने इसी पत्र को ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’, भाग-17 (पृ. 35-36, पत्रांक 29) में अनुमानतः मार्च 1914 में लिखा हुआ बताकर प्रेमचंद के एक भिन्न पत्र के रूप में भी प्रकाशित करा दिया है।

इस पत्र के पाठ से स्पष्ट है कि ‘जमाना’ में प्रकाशित प्रेमचंद की कहानी ‘दो भाई’ के सम्बन्ध में निगम साहब के पास प्रतिक्रिया-स्वरूप जो पत्र आए थे, उनको उन्होंने प्रेमचंद के पास भेज दिया था और पाठकों ने इन पत्रों में जो आपत्तियाँ इस कहानी पर की थीं, उनका उत्तर देते हुए प्रेमचंद ने यह विवेच्य पत्र निगम साहब को लिख भेजा था।

प्रेमचंद की कहानी ‘दो भाई’ ‘जमाना’ के जनवरी 1916 के अंक में पृष्ठ संख्या 39 से 44 तक प्रकाशित हुई थी। इस तथ्य के आलोक में यह विवेच्य पत्र जनवरी 1916 से पूर्व का लिखा हुआ होना असम्भव है। अतः इस पर मदन गोपाल द्वारा प्रकाशित कराई गई मार्च 1914 की अनुमानित तिथि अशुद्ध प्रमाणित होती है।

प्रेमचंद का लिखा हुआ यह विवेच्य पत्र मुंशी दयानारायण निगम ने ‘जमाना’ के फरवरी 1916 के अंक में ‘खतो किताबत’ शीर्षक के अन्तर्गत पृष्ठ संख्या 131 पर प्रकाशित करा दिया था। इस तथ्य के आलोक में निश्चयात्मक रूप से कहा जा सकता है कि पाठकीय आलोचनाओं के पत्र मिलने पर प्रेमचंद ने जनवरी 1916 में ही निगम साहब को यह पत्र लिख दिया था, जिसे निगम साहब ने तत्परता के साथ ‘जमाना’ के फरवरी 1916 के अंक में प्रकाशित भी करा दिया था।

उपर्युक्त समस्त विवेचना के आधार पर यह विवेच्य पत्र जनवरी 1916 में लिखा जाना प्रमाणित होता है।

मुंशी दयानारायण निगम के नाम लिखे गए प्रेमचंद के सम्प्रति उपलब्ध पत्रों में कुछ पत्र ऐसे भी हैं जिन पर विभिन्न संकलनों में भिन्न-भिन्न तिथियाँ प्रकाशित हैं। ऐसे कतिपय पत्रों का संक्षिप्त विवरण निम्नांकित है -

क्रमांक ‘चिट्ठी पत्री’ में पत्रांक/तिथि ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’ में पत्रांक/तिथि ‘प्रेमचंद पत्र कोश’ में पत्रांक/तिथि

1. 23/16-1-1914 27/19-1-1914 25/16-1-1914

2. 104/20-9-1919 133/27-9-1919 108/20-9-1919

3. 200/27-1-1927 302/27-1-1926 208/27-1-1927

4. 234/21-9-1930 416/25-9-1930 242/21-9-1930

5. 280/15-4-1936 670/15-8-1936 289/15-4-1936

इस अध्ययन में इन पत्रों पर विचार न करने का कारण मात्र यही है कि या तो इनकी तिथियों में इतना निकट का अन्तर है जिसे केवल पत्रों के अन्तर्साक्ष्यों के आधार पर प्रामाणिक रूप से निर्धारित नहीं किया जा सकता, अथवा ऐसा अन्तर प्रत्यक्षतः प्रूफ संशोधन में त्रुटि के कारण उपस्थित होता है।

उपर्युक्त समस्त अध्ययन से स्पष्ट है कि प्रेमचंद के पत्रों पर प्रकाशित तिथियों में अनेक विसंगतियाँ विद्यमान हैं। यही नहीं, अमृत राय ने 1962 में ‘चिट्ठी पत्री’ की भूमिका में लिखे एवं पूर्व उद्धृत शब्दों में प्रेमचंद के पत्रों पर तिथियाँ अनुमानतः प्रकाशित करने और इस कार्य में गलती की सम्भावना बराबर बनी रहने की जो आशंका व्यक्त की थी, वह भी निराधार नहीं है। लेकिन खेद का विषय है कि परवर्ती समस्त विद्वानों ने अमृत राय की इस भूमिका का संज्ञान लेने का लेशमात्र भी कष्ट नहीं किया और यथाउपलब्ध तिथियों के साथ पत्रों की मात्र अनुकृति प्रकाशित कर देने को ही ‘प्रेमचंद विशेषज्ञता’ मानते रहे। यही नहीं, प्रेमचंद के एक पत्र को दो भिन्न-भिन्न तिथियाँ अंकित करके दो भिन्न-भिन्न पत्रों के रूप में मात्र प्रकाशित ही नहीं किया, वरन् मात्र तिथि परिवर्तन के साथ पत्र पुनः प्रकाशित कराकर उसे प्रेमचंद का ‘अप्राप्य पत्र’ बताने में भी संकोच नहीं किया, भले ही इस अनुचित तथा असंगत कार्य के लिए उन्हें पत्र के पाठ में ही परिवर्तन क्यों न करना पड़ा हो। यहाँ यह उल्लेख करना भी कुछ अप्रासंगिक न होगा कि सन् 1962 में प्रकाशित हुआ संकलन ‘चिट्ठी पत्री’ अभी तक हंस प्रकाशन, इलाहाबाद के यहाँ उपलब्ध है। इस तथ्य के आलोक में यह समझ पाना कुछ कठिन नहीं है कि विद्वानों ने प्रेमचंद के पत्रों को कितना महत्त्व दिया है और ‘चिट्ठी पत्री’ के उपरान्त प्रकाशित होते चले आते प्रेमचंद के पत्र संकलनों का क्या औचित्य है।

संदिग्ध अथवा अनुमानित तिथियों से संयुक्त प्रेमचंद के पत्रों को आधार बनाकर लिखी गई उनकी जीवनी कितनी प्रामाणिक होगी, यह सहज ही अनुमान किया जा सकता है, भले ही वह अमृत राय की लिखी ‘प्रेमचंद : कलम का सिपाही’ हो, मदन गोपाल की लिखी ‘कलम का मजदूर प्रेमचंद’ हो अथवा डॉ. कमल किशोर गोयनका की तिथिक्रमानुसार लिखी ‘प्रेमचंद विश्वकोश, भाग-1’ हो। डॉ. वीर भारत तलवार के पूर्व उद्धृत कथन को दृष्टिपथ में रखें तो तथ्यों की प्रामाणिकता नहीं वरन् उनके सन्दर्भ विशेष का ही विशेष महत्त्व जीवनी लेखन में होता है। लेकिन प्रस्तुत अध्ययन से जब यह प्रमाणित हो जाता है कि प्रेमचंद के पत्रों की तिथियाँ सर्वथा प्रामाणिक नहीं हैं, तब क्या इसका अर्थ यह नहीं है कि इन पत्रों में प्राप्त तथ्य भी काल के सापेक्ष प्रामाणिक नहीं रहते। और, इस प्रकार जो तथ्य काल के सापेक्ष प्रामाणिक नहीं हैं, उनकी किसी सन्दर्भ विशेष में जो भी व्याख्या की जायगी, वह किसी भी दशा में यथार्थ पर आधारित नहीं हो सकती। और, इस दृष्टि से देखा जाय तो इस सन्दर्भ विशेष में डॉ. वीर भारत तलवार को भी अपने उपर्युक्त उद्धृत कथन की पुनः समीक्षा करना क्या उचित नहीं होगा?

यहाँ यह कहना भी आवश्यक है कि शोध आलेख की अपनी सीमाएँ होती हैं और एक आलेख में प्रेमचंद के सम्प्रति प्राप्त समस्त पत्रों पर विचार करना असम्भव है। प्रेमचंद के समस्त पत्रों की तिथियों पर पुष्ट प्रमाणों के साथ ही पत्रों के अन्तर्साक्ष्यों तथा वाह्य साक्ष्यों के आधार पर विचार किया जाना आवश्यक है। यही नहीं कि जिन पत्रों की तिथियाँ संदिग्ध प्रतीत हों मात्र उन्हीं पर विचार किया जाय, वरन् यह कार्य समग्रता में सम्पादित किया जाय। इसके अतिरिक्त प्रेमचंद के पत्रों की मूल प्रतियों का भी सन्दर्भ ग्रहण किया जाना आवश्यक है ताकि उनसे तिथि निर्धारण में सहायता प्राप्त हो सके। संक्षेपतः प्रेमचंद के पत्रों के सम्बन्ध में निम्नांकित कार्य यथाशीघ्र सम्पादित किए जाने आवश्यक हैं -

1. प्रेमचंद ने पत्र जिन महानुभावों को सम्बोधित किए हैं, उनका भी प्रामाणिकता के साथ निर्धारण किया जाना आवश्यक है। डॉ. जाबिर हुसैन के प्रधान सम्पादकत्व में प्रकाशित ‘प्रेमचंद रचनावली’ में संकलित प्रेमचंद के पत्रों का अवलोकन करने से यह कुछ ज्ञात ही नहीं होता कि पत्र किसे सम्बोधित किया गया है। यही नहीं, अमृत राय से भी इस दिशा में त्रुटियाँ हुई प्रतीत होती हैं। एक उदाहरण ही पर्याप्त है -

‘चिट्ठी पत्री’, भाग-1 में, जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है, प्रेमचंद के मात्र वही पत्र संकलित हैं जो कि मुंशी दयानारायण निगम को सम्बोधित हैं, लेकिन इसी संकलन में पत्रांक-4 पर 15 फरवरी 1908 को लिखा गया एक ऐसा पत्र भी प्रकाशित है जो वास्तव में मुंशी दुर्गासहाय सुरूर जहानाबादी को सम्बोधित है और जिसे डॉ. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य’, भाग-2 में पृष्ठ संख्या 41 पर मुंशी दुर्गासहाय सुरूर के नाम लिखे गए प्रेमचंद के एक ‘अप्राप्य’ पत्र के रूप में प्रकाशित भी करा देने का महनीय कार्य सम्पादित कर दिखाया है।

2. प्रेमचंद के समस्त उपलब्ध पत्रों का पाठ उनकी मूल प्रति के आधार पर संशोधित करके प्रस्तुत किया जाना भी आवश्यक है क्योंकि भिन्न-भिन्न प्रस्तुतियों में प्रायः पत्रों के भिन्न-भिन्न पाठ दृष्टिगोचर होते हैं। उदाहरण के लिए उपेन्द्र नाथ अश्क के नाम लिखे गए प्रेमचंद के पत्र ‘चिट्ठी पत्री’, भाग-2 में प्रकाशित हैं, लेकिन जब यही पत्र गोरखपुर से डॉ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के सम्पादन में प्रकाशित हिन्दी त्रैमासिक ‘दस्तावेज’ के अप्रैल-जून 1994 के अंक (पत्र विशेषांक) में प्रकाशित हुए तो वहाँ इनका किंचित मात्र भिन्न पाठ ही प्रकाशित हुआ।

3. प्रेमचंद के जो पत्र अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद करके प्रकाशित किए गए हैं, उनका यथासम्भव मूल अंग्रेजी पाठ भी सामने आना आवश्यक है ताकि जहाँ एक ओर प्रेमचंद के अंग्रेजी भाषा ज्ञान से सम्यक् परिचय प्राप्त हो सके, वहीं उनके अनुवाद को ही उनकी मूल भाषा समझ लेने का भी भ्रम विस्तारित न हो सके। इस प्रकार के अनूदित पत्रों के अनुवाद में भी भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। उदाहरण के लिए डॉ. इन्द्रनाथ मदान के नाम प्रेमचंद के पत्र मूलतः अंग्रेजी में ही लिखे गए थे लेकिन उनके हिन्दी अनुवाद में डॉ. मदान की प्रस्तुति में और अमृत राय की प्रस्तुति में पर्याप्त अन्तर दृष्टिपथ में आता है।

प्रेमचंद के पत्रों को प्रामाणिक तिथि निर्धारण और शुद्ध पाठ सहित प्रकाशित कर पाने पर ही हम भारतीय साहित्य के शिखर पुरुष प्रेमचंद की प्रामाणिक जीवनी लिखने और उनके वैचारिक काल सापेक्ष विकास का सम्यक् अनुशीलन करने की दिशा में प्रवृत्त हो सकते हैं और यही उनको भारतीय साहित्य संसार की सच्ची श्रद्धांजलि होगी।