प्रेमचंद के साहित्य में आम आदमी / राजेन्द्र वर्मा

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हिंदी कथा-साहित्य को तिलस्म, ऐयारी और जासूसी से मुक्तकर उसे जीवन का दस्तावेज़ बनाने वाले प्रेमचंद (31.07.1880–08.10.1936) आज भी सर्वाधिक पढ़े जाने वाले लेखक हैं। उनके साहित्य के केंद्र में भले-ही आम आदमी हो, लेकिन उनके पाठकों में आम आदमी ही नहीं, ख़ास आदमी भी है।

साहित्य यद्यपि समाज के वर्ग विशेष की बात नहीं करता, वह तो देवता, मनुष्य और दानव—सभी की बात करता है और उनके व्यक्तित्वों की विवेचना करता है, तथापि साहित्यकार की प्रतिबद्धता सदैव समाज के शोषित वर्ग की ओर ही रहती है। जहाँ तक प्रेमचंद की बात है, वे अपनी रचनाओं में प्रायः आदर्शोन्मुख यथार्थ चित्रित करते हैं जिसका एक मात्र उद्देश्य है—प्रत्येक व्यक्ति को संवेदनशील, विचारशील तथा संघर्षशील बनाना, ताकि वह ऐसे समाज का निर्माण कर सके जिसमें न कोई शोषक हो और न कोई शोषित। पूँजीवादी साम्राज्य के बदले लोकतांत्रिक राष्ट्र का निर्माण उनका सपना था। वे जानते थे कि स्वाधीनता, स्वतंत्रता, स्वावलंबन और शिक्षा के बिना उनके राष्ट्र-निर्माण का स्वप्न अधूरा था, इसलिए वे अपनी रचनाओं में ऐसी व्यवस्था का ढाँचा खड़ा करते हैं जहाँ, न कोई छोटा है और न बड़ा; न कोई आम है और न कोई ख़ास—सभी बराबर हैं और वे मनुष्यता से अनुशासित होते हैं और आत्मचेतना से प्रेरित होकर जीवन-मूल्यों की रक्षा करते हैं। स्पष्ट है, ऐसी व्यवस्था में शोषण का कोई स्थान नहीं है।

प्रेमचंद अपनी रचनाओं से पाठकों की ज़िंदगी को बहुत नज़दीक से जानने-बूझने का अवसर प्रदान करते हैं। शोषक की भूमिका में पड़े चरित्रों को वे आइना दिखाते हैं और शोषित को संघर्ष का पथ दिखाते हैं, इस प्रक्रिया में वे प्रायः वर्ग-संघर्ष से बचते हैं। कुत्सित मनोवृत्ति को त्याग और अनुराग में बदलना उनके लेखन की विशिष्ट पहचान है। आम आदमी उनके साहित्य में सभ्य समाज का प्रतिनिधि है। मेहनतकश मजदूर, किसान, छोटे कर्मचारी आदि उनके साहित्यिक सिपाही हैं जो अपने उच्चादर्शों, लोक-व्यवहार, पारस्परिक सहयोग-सहानुभूति जैसे हथियारों से ज़िन्दगी की जंग जीतते हैं, जबकि सम्पन्न वर्ग के पात्र अपनी समृद्धि और सुख-सुविधा के बावजूद उनके सम्मुख जीवन-रस से वंचित हैं। लेखक की दृष्टि में सम्पन्न वर्ग छल-प्रपंच में भले ही आगे हो, पर जीवन के उद्देश्य की प्राप्ति में बहुत पीछे है; तरस खाने योग्य है। इसलिए प्रेमचंद ऐसे लोगों की सीधे-सीधे भर्त्सना नहीं करते, उन्हें अपने गिरेबान में झाँकने पर मजबूर करते हैं; उनको हृदय-परिवर्तन का अवसर देते हैं और अंततः उन्हें मनुष्यता का पैरोकार बनाकर छोड़ते हैं। प्रेमचंद समाज के सभी वर्गों के स्त्री-पुरुषों के सम्बंधों में स्वाभिमान की रक्षा करते हुए त्याग-बलिदान को प्रेम की आत्मा के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं। विलासिता को त्यागकर श्रम-परिश्रम से जीवन को सरल, सहज और सरस बनाने का उद्योग उनकी रचनाओं में भरा पड़ा है।

उनकी रचनाओं में आम आदमी भले-ही अपनी दुर्बलता और दीनता के साथ उपस्थित है, पर वे अपनी संघर्षशील जिजीविषा नहीं छोड़ता। उसकी आँखों में सुंदर भविष्य का सपना है। उनका आम आदमी विपन्न भले हो, पर वह ईमानदार है, रिश्वत लेकर या बेईमानी कर भोग-विलास के साधन नहीं जुटाता, निर्बल अथवा जाल में फँसे सबल को वह अभावों में रहते हुए पूरी ईमानदारी के साथ रूखी-सूखी खाकर, टूटी चारपाई पर मज़े की नींद लेकर अगले दिन के लिए ऊर्जा संचित कर जीवन का आदर्श निभाता है। वह अपने बच्चों के लिए जान तो देता है, पर उस सीमा तक जहाँ किसी का नुक़सान न होता हो। वह धर्मभीरु है, ईश्वरभीरु है और अपने पूर्वजों के मान-समान अथवा लोकलाज की रक्षा के लिए आत्मोत्सर्ग करने वाला है; पर इसका अर्थ यह नहीं कि वह अन्याय सहने वाला है। वह अन्याय का विरोध करता है—खुलकर या अप्रत्यक्ष रूप से। 'गोदान' की धनिया, 'सद्गति' का गोड़, 'पूस की रात' की मुन्नी, 'दो बैलों की कथा' का मोती, 'कफ़न' के घीसू-माधो, 'ठाकुर का कुआँ' की गंगी आदि अनेक पात्रों में प्रेमचंद संघर्षशीलता का बीज बोते हैं। ज़मींदारी, महाजनी, धर्मिक पाखंड आदि से जूझते उनके पात्र सामाजिक और राजनीतिक तंत्र में केवल अपना निर्वाह ढूँढ़ते हैं, क्योंकि वे अशिक्षित हैं, ग़रीब हैं और सब्र कर जाने वाले जीव हैं। इसके विपरीत ख़ास आदमी अधिकतर शोषक के रूप में उपस्थित हैं। आर्थिक रूप से सुदृढ़ वे अपनी चालाकियों से राजसत्ता और सामाजिक सत्ता, दोनों से लाभान्वित और सुरक्षित हैं। प्रेमचंद ऐसे व्यक्तियों की अंतस चेतना जागृत कर उनकी मनोवृत्ति में परिवर्तन लाना चाहते हैं। एक जगह वे कहते हैं, "चिड़िया ऊँचे आसमान में उड़ती है, पर दाना पाने के लिए धरती पर उतर आती है।" मंतव्य स्पष्ट है—आम आदमी का साथ लिये बिना ख़ास आदमी सम्पन्नता की उड़ान नहीं भर सकता। शोषक की आत्मा झकझोर कर उससे शोषित की मुक्ति का आह्वान प्रेमचंद अपनी रचनाओं में प्रायः करते हैं। आम आदमी और ख़ास आदमी को समझे बिना हम इनके बीच की दूरी नहीं समाप्त कर सकते, क्योंकि इसमें सांस्कृतिक बीज छिपे हैं। भारत की आर्थिक दशा या दुर्दशा का कारण यहाँ की बरसों पुरानी वह संस्कृति है जहाँ सहअस्तित्त्व का सुविधाजीवी सूत्र फलीभूत होता आया है।

इसके बावज़ूद प्रेमचंद के आम आदमी निरीह नहीं हैं। मौक़ा पड़े तो वे तेवर बदलना भी जानते हैं। स्वाधीनता को लक्षित उनके उपन्यास, 'कर्मभूमि' (1932) की नायिका, सुखदा व्यवस्था के कर्णधारों से कहती है, "जिन ग़रीबों को तुम अब तक कुचलते आये हो, वही अब साँप बनकर तुम्हारे पैरों से लिपट जायेंगे। अब तक ये लोग रियायत चाहते थे, अब अपना हक़ माँगेंगे। रियायत न करने का तुम्हें अख्तियार है, पर हमारे हक़ से हमें कौन वंचित रख सकता है। रियायत के लिए कोई जान नहीं देता, पर हक़ के लिए जान देना सभी जानते हैं।"

बहुचर्चित उपन्यास, 'गोदान' (1936) में ऐसे अनेक प्रसंग हैं जहाँ प्रेमचंद ने शोषण के विभिन्न आयामों पर अपने चरित्रों के माध्यम से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रहार किया है। प्रमुख पात्र-होरी, जो छोटा किसान है और उसका परिवार त्रिस्तरीय शोषण का शिकार है—ज़मींदार, पटवारी तथा महाजन। उसके ऊपर लगान भी बक़ाया है और महाजन का क़र्ज़ भी। राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक-सभी स्तरों पर वह बेहाल है। बिरादरी में रहने देने के लिए पंचायत उस पर आर्थिक दंड लगाती है। होरी जाति-बिरादरी की रक्षा तथा लोक-मर्यादा के लिए अन्यायी नीति-धर्म का भी पालन करने वाला व्यक्ति है, पर उसकी पत्नी-धनिया और पुत्र-गोबर, यथास्थितिवाद के विरोधी हैं। वे दोनों अन्याय के विरुद्ध मोर्चा लेने को तैयार हैं, लेकिन होरी की आदर्शवादिता के आगे दबे रहते हैं और शोषण के चक्र चलता रहता है। कभी-कभी होरी का आदर्शवाद अतिरंजित लगता है, पर प्रेमचंद जागृति और तर्कशीलता से शोषकों का आत्मोत्थान चाहते हैं।

प्रेमचंद जानते हैं कि सदियों पुराने शोषण के यंत्र एकदम से निष्क्रिय नहीं हो जायेंगे। चेतना गतिशील होगी, तभी बदलाव होगा। गोबर की पत्नी अन्य जाति की है। यह जाति के ठेकेदारों को बर्दाश्त नहीं। जाति-बिरादरी में रहने के लिए पंचायत होरी पर सौ रुपये और तीस मन अनाज का डाँड़ (दंड) लगाती है, पर होरी इसका विरोध न कर अपनी ज़मीन रेहन रखकर क़र्ज़ लेता है और खलिहान ही से अधिकतर अनाज दे देता है। तब धनिया तिलमिलाकर कहती है, " यह पञ्च नहीं हैं, राच्छस हैं, पक्के राच्छस। यह सब हमारी जगह-जमीन छीनकर माल मारना चाहते हैं। डाँड़ तो बहाना है। समझाती जाती हूँ, पर तुम्हारी आँखें नहीं खुलतीं। तुम इन पिसाचों से दया की आशा रखते हो, सोचते हो, दस-पाँच मन निकालकर तुम्हें दे देंगे। मुँह धो रखो।

"लेकिन होरी नहीं माना और टोकरी (अनाज भरी) सिर पर रखने लगा तो धनिया ने दोनों हाथों से पूरी शक्ति के साथ टोकरी पकड़ ली और बोली-इसे तो मैं न ले जाने दूँगी, चाहे तुम मेरी जान ही ले लो। मर-मरकर हमने कमाया, पहर रात-रात को सींचा, अगोरा, इसलिए कि पञ्च लोग मूंछों पर ताव देकर भोग लगायें और हमारे बच्चे दाने-दाने को तरसें? तुमने अकेले ही सब कुछ नहीं कर लिया है। मैं भी बच्चियों के साथ सती हुई हूँ। सीधे टोकरी रख दो, नहीं तो आज सदा के लिए नाता टूट जाएगा, कहे देती हूँ।"

इतनी मार्मिकता कि होरी परास्त हो गया। प्रेमचंद अन्याय के विरुद्ध युवाओं में मोर्चा लेने के बीज डालते हैं। गोबर जब यह प्रकरण जान पाता है तो कहता है, "पंचों को उस पर डाँड़ लगाने का क्या अधिकार है? कौन होता है उसके बीच में बोलने वाला? उसने एक औरत रख ली तो पंचों के बाप का क्या बिगाड़ा? अगर इसी बात पर वह फौजदारी में दावा कर दे तो लोगों के हाथ में हथकड़ियाँ पड़ जाएँ। साड़ी गृहस्थी तहस-नहस हो गयी। क्या समझ लिया है उसे इन लोगों ने?"

गोदान के पात्रों में जो द्वंद्व है वह अकारण हैं है। शोषण का चक्र इतना पुराना और मज़बूत है कि वह आसानी से टूटने वाला नहीं। धनिया की मार्मिक प्रतिक्रिया के आगे होरी की आदर्शवादी नीति, वचन-पालन की प्रतिबद्धता और पुरुष सत्तात्मक पारिवारिक अगुवाई धरी-की-धरी रह जाती है। गोबर का आक्रोश शोषण के विरुद्ध वांछित वातावरण निर्मित करता है। यह जागरण ही प्रेमचंद का अभीष्ट है। शोषण की पहचान, उससे मुठभेड़ और उससे निपटने के हथियार प्रेमचंद के लेखन की आधारशिलाएँ हैं।

ज़मींदारी, महाजनी और सामाजिक दुष्चक्र सदियों से चला आ रहा है जिसकी पहचान कराना और उससे अहिंसात्मक ढंग से निपटना लेखक का उद्देश्य है। 'गोदान' के अनेक प्रसंगों में यह चित्रित है। प्रेमचंद के पास लड़ाई लड़ने के अचूक हथियार हैं। उपन्यास में एक प्रसंग आता है—नक़ल उतारने का। गोबर शहर कमाने जाता है और जब वह गाँव आकर शोषण-चक्र से अवगत होता है, विशेषतः महाजनी के, तो वह अपने दोस्तों को प्रहन खेलने को तैयार करता है। तमाशा शुरू होता है, नक़लें उतारी जाने लगती हैं जिसमेन समस्या को हास्य-व्यंग्य के माध्यम से निपटने की तरक़ीब है। एक नक़ल होती है जिसमें ठाकुर क़र्ज़दार से दस रुपये का दस्तावेज़ लिखवाकर उसे पाँच रुपये देते हैं, शेष नज़राने, तहरीर, दस्तूरी और ब्याज में काट लेते हैं। चित्र देखिए—

"यह तो पाँच हैं मालिक!"

"पाँच नहीं, दस हैं। घर जाकर गिनना।"

"नहीं सरकार, पाँच हैं!"

"एक रुपया नज़राने का हुआ कि नहीं?"

"हाँ, सरकार!"

"एक तहरीर का?"

"हाँ, सरकार!"

"एक कागद का?"

"हाँ, सरकार!"

"एक दस्तूरी का?"

"हाँ, सरकार!"

"एक सूद का?"

"हाँ, सरकार!"

"पाँच नगद हुए कि नहीं?"

"हाँ, सरकार! अब ये पाँचों भी मेरी ओर से रख लीजिए।"

"कैसा पागल है?"

"नहीं सरकार, एक रुपया छोटी ठकुराइन का नजराना है, एक रुपया बड़ी ठकुराइन का! एक रुपया छोटी ठकुराइन के पान खाने को, एक बड़ी ठकुराइन के पान खाने को। बाक़ी बचा एक, वह आपकी क्रिया-करम के लिए!"

उपन्यास में एक चरित्र है—राय साहब। उनकी चर्चा के बिना बात अधूरी रहेगी, क्योंकि वे ज़मींदार हैं, पर सहृदय और विचारवान हैं। क्रूर ज़मींदारी परिस्थितियों की दासी है। प्रेमचंद उनके मुख से कई महत्त्वपूर्ण बिंदुओं पर विचार करवाते हैं जो शोषण के केंद्र में हैं—ईर्ष्या, वैर, पराधीनता, मुफ़्तखोरी, सम्पत्ति का संचय आदि। इन बिंदुओं पर उनके विचार देखिए—

" सम्पत्ति और सहृदयता में वैर है। हम भी दान देते हैं, धर्म करते हैं, लेकिन जानते हो क्यों? केवल अपने बराबर वालों को नीचा दिखाने के लिए। हमारा दान और धर्म कोरा अहंकार है, विशुद्ध अहंकार। ...

" ग़रीबों में अगर ईर्ष्या या वैर है तो स्वार्थ के लिए, या पेट के लिए। ऐसी ईर्ष्या और वैर को मैं क्षम्य समझता हूँ। हमारे मुँह की रोटी कोई छीन ले तो उसके गले में उँगली डालकर निकालना हमारा धर्म हो जाता है। अगर हम छोड़ दें, तो देवता हैं। बड़े आदमियों की ईर्ष्या और वैर केवल आनंद के लिए हैं। ...


" जिसकी आत्मा में बल नहीं, अभिमान नहीं, वह और चाहे कुछ हो, आदमी नहीं है। जिसे दुश्मन के भय के मारे रात को नींद न आती हो, जिसके दुख पर सब हँसें और रोने वाला कोई न हो, जिसकी चोटी दूसरों के पैरों के नीचे दबी हो, जो भोग-विलास के नशे में अपने को बिल्कुल भूल गया हो, जो हुक्काम के तलवे चाटता हो और अपने अधीनों का ख़ून चूसता हो, उसे मैं सुखी नहीं कहता। वह तो संसार का सबसे अभागा प्राणी है। ...


" मुफ़्तखोरी ने हमें अपंग बना दिया है। हमें अपने पुरुषार्थ पर लेशमात्र भी विश्वास नहीं, केवल अफ़सरों के सामने दुम हिला-हिलाकर किसी तरह उनके कृपापात्र बने रहना और उनकी सहायता से अपनी प्रजा पर आतंक जमाना ही हमारा उद्यम है। पिछलग्गुओं की ख़ुशामद ने हमें इतना अभिमानी और तुनकमिजाज़ बना दिया है कि हममें शील, विनय और सेवा का लोप हो गया है। मैं तो कभी-कभी सोचता हूँ कि अगर सरकार हमारे इलाके छीनकर हमें रोज़ी के लिए मेहनत करना सिखा दे तो हमारे ऊपर महान उपकार करे! ...


"जब तक सम्पत्ति की यह बेड़ी हमारे पैरों से न निकलेगी, तब तक यह अभिशाप हमारे सिर पर मँडराता रहेगा, हम मानवता का वह पद न पा सकेंगे, जिस पर पहुँचना ही जीवन का अंतिम लक्ष्य है।"

आज के उपभोक्तावादी समय में आम आदमी की सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि वह अपनी तृष्णा और वासना को चाहकर भी त्याग नहीं पाता। वह जैसे सदियों से दुखी हो—माम्ला चाहे ऐश्वर्य के प्रदर्शन का हो, अथवा समाज में नाक ऊँची रखने की बात हो। पड़ोसी से ईर्ष्या, धर्म-पाखंड के नाम पर अभिमान-प्रदर्शन, दहेज का लालच, मुफ़्तखोरी, रिश्तेखोरी आदि दुर्गुणों की सेवा आत्मिक अधोगति से ही सम्भव है।

उपन्यास 'ग़बन' (1930) में भोग-विलास की मनोवृत्ति तथा सामाजिक बुराइयों पर कड़ा प्रहार है। साथ-ही, उनके चरित्रों में आदर्श का अभ्युदय इस परकार होता है कि वे क्षुद्रता त्याग महान बन जाते हैं। व्यक्तिगत स्वार्थ राष्ट्र-निर्माण में अपनी आहुतियाँ देते हैं। यह कार्य प्रेमचंद आम आदमी के माध्यम से ही करवाते हैं। पश्चिमी सभ्यता का अनुकरण आम आदमी की ज़िंदगी तबाह करता है। प्रेमचंद आम आदमी के संदर्भ में पश्चिमी सभ्यता के पुजारियों को लताड़ते हैं। 'ग़वन' में वे एक जगह कहते हैं, " वहाँ (योरोप) के लोग धनी हैं, उन्हें लुटाना शोभा देता है, हमें नहीं। हम दरिद्र हैं, हमारी कमाई का एक पैसा भी फ़िजूलखर्च न होना चाहिए।


"जिन्हें सवेरे का जलपान तक मयस्सर नहीं होता, उन पर भी गहनों की सनक सवार है। इस प्रथा से हमारा सर्वनाश होता जा रहा है। मैं तो कहता हूँ कि यह ग़ुलामी पराधीनता से कहीं बढ़कर है। इसके कारण हमारा कितना आत्मिक, नैतिक, दैहिक, आर्थिक और धार्मिक पतन हो रहा है, इसका अनुमान ब्रह्मा भी नहीं कर सकते।"

उपन्यास, 'सेवा-सदन' में प्रेमचंद जहाँ दहेज की समस्या को उठाते हैं, वहीं भोग-विलास में फँसी सुमन की दशा-दुर्दशा तथा कालांतर में उसके आत्मिक विकास की गाथा को भी वे मार्मिकता से चित्रित करते हैं। उपन्यास के सजग पात्र, सदन की भोग-विलासी स्त्रियों पर टिप्पणी है, "हाँ, वे स्त्रियाँ बहुत सुन्दर हैं, बहुत ही कोमल हैं, पर उन्होंने अपने स्वर्गीय गुणों का कैसा दुरुपयोग किया है? उन्होंने अपनी आत्मा को कितना गिरा दिया है? हाँ, केवल इन रेशमी वस्त्रों के लिए, इन जगमगाते हुए आभूषणों के लिए उन्होंने अपनी आत्माओं का विक्रय कर डाला है। वे आँखें जिनसे प्रेम की ज्योति निकालनी चाहिए थी, कपट, कटाक्ष और कुचेष्टाओं से भरी हुई हैं। वे हृदय जिनमें विशुद्ध निर्मल प्रेम का स्रोत बहना चाहिए था, कितनी दुर्गन्ध और विषाक्त मलिनता से ढँके हुए हैं। कितनी अधोगति है!"

प्रेमचंद ने लगभग तीन सौ कहानियाँ लिखीं, यद्यपि ' मानसरोवर (8 खंड) में उनकी दो सौ सात कहानियाँ ही मिलती हैं। इन कहानियों में उनके अधिकांश चरित्र आम आदमी का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। उनके यहाँ आम आदमी केवल मज़दूर, किसान, शोषित, दलित ही नहीं, मध्यवर्गीय भी हैं जो रीति-रिवाज़ों को ढोते हुए झूठी शानोशौक़त के चलते अपना आत्मिक गौरव नष्ट कर लेता है। हाँ, दलितों की मुश्किलें अवश्य अधिक हैं। प्रेमचंद यह बख़ूबी जानते हैं कि आम आदमी के दुख के कारण क्या-क्या हैं? सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक-धार्मिक कुव्यवस्थाओं का अंतहीन सिलसिला है। आदमी जातीय पहचान के संकट से ही दुखी नहीं है, वह अन्य कारणों से भी दुखी है। पति-पत्नी में वैचारिक मतभेद, सजातियों की ईर्ष्या, पारस्परिक विद्वेष, भ्रष्टाचार, पराधीनता, ग़रीबी, अन्याय, पारिवारिक क्लेश आदि अनेक कारण हैं जिनके कारण आदमी दुखी है। प्रेमचंद ने इन पात्रों को ध्यान में रखकर जो मर्मस्पर्शी कहानियाँ रची हैं, वे न केवल आम आदमी के जीवन का दर्पण बनती हैं, बल्कि उन्हें आत्मसुधार का स्वप्न भी दिखाती हैं। उनके समय का सबसे बड़ा लक्ष्य था—देश को स्वाधीन कराना तथा स्वतंत्र राष्ट्र के निर्माण में समाज के छोटे‌-से-‌छोटे आदमी की भागीदारी सुनिश्चित करवाना ताकि नयी समाजवादी व्यवस्था से वह लाभान्वित हो सके।

अन्याय और शोषण के विरुद्ध वे कहानियों में ऐसे पात्रों की रचना करते हैं जिनके चरित्र विडम्बना से भरे हैं। वे विवश हैं, पर चुप नहीं रहते। प्रेमचंद उनसे नैतिकता अथवा संगठित विद्रोह की अपेक्षा नहीं करते, बल्कि वे उनसे अन्याय का विरोध दर्ज़ करवाते हैं। 'पूस की रात' का हल्कू, 'सवा सेर गेहूँ' का शंकर और 'सद्गति' का दुखी जहाँ विडम्बना ढोते हैं, वहीं 'पूस की रात' की मुन्नी, 'सद्गति' का गोड़, 'ठाकुर का कुआँ' की गंगी, 'दो बैलों की कथा' का मोती, 'मैकू' का मैकू, 'क़फ़न' के घीसू-माधो आदि वर्ग-संघर्ष का प्रतिनिधित्व करते हैं।

कहानी 'पूस की रात' में हल्कू के ऊपर लगान बाक़ी है। उपज 'बाक़ी' में ही चुकता हो जाती है। पेट के लिए मजदूरी करनी पड़ती है। उसी मजदूरी से एक-एक पैसा काटकर उसने तीन रुपये कम्बल खरीदने के लिए बचाये हैं, वे भी बाक़ी चुकाने में जा रहे हैं, क्योंकि ज़मींदार का कारिंदा द्वार पर खड़ा है। हल्कू अपनी पत्नी मुन्नी से पैसे माँगता है। वह आँख तरेरती हुई कहती है, "न जाने कितनी बाक़ी है जो किसी तरह चुकाने ही नहीं आती। मैं कहती हूँ तुम क्यों नहीं खेती छोड़ देते? मर-मर काम करो, उपज हो तो बाक़ी दे दो चलो छुट्टी हुई। बाक़ी चुकाने के लिए हि तो हमारा जन्म हुआ है। पेट के लिए मजूरी करो। ऐसी खेती से बाज़ आए। मैं रुपये न दूँगी, न दूँगी।"

" हल्कू उदास होकर बोला-तो क्या गाली खाऊँ?

" मुन्नी ने तड़पकर कहा-गाली क्यों देगा, क्या उसका राज है?

" मगर यह कहने के साथ ही उसकी तनी हुई भौंहें ढीली पड़ गयीं। हल्कू के उस वाक्य में जो कठोर सत्य था, वह मानो एक भीषण जंतु की भाँति उसे घूर रहा था।

"उसने जाकर आले पर से रुपये निकाले और लाकर हल्कू के हाथ पर रख दिये। फिर बोली-तुम छोड़ दो अबकी खेती। मजूरी में सुख से एक रोटी खाने को तो मिलेगी। किसी की धौंस तो न रहेगी। अच्छी खेती है। मजूरी करके लाओ, वह उसी में झोंक दो, उस पर से धौस!"

कहानी, 'सद्गति' में भूखे-प्यासे दुखी का पंडित घासीराम शोषण कर रहे हैं। यह बात दुखी भी समझता है, पर चुप है। वह अपनी बेटी की सगाई की साइत बिचरवाने आया है। उसके मन में आशंका है कि यदि पंडित की बेगार न की तो वे साइत बिचारने में कुछ गड़बड़ कर देंगे, फिर तो सत्यानाश हो जाएगा। दुखी की हालत का मार्मिक चित्रण कर प्रेमचंद एक ओर गहरी संवेदना उत्पन्न करते हैं, तो दूसरी ओर कहानी में गोड़ जैसा चरित्र भी गढ़ते हैं जो शोषक को कठघरे में खड़ा करता है और वर्णव्यवस्था पर ख़ासी चोट करता है। वह दुखी से पूछता है, "कुछ खाने को मिला कि काम कराना ही जानते हैं! जाके माँगते क्यों नहीं?"

" दुखी—कैसी बात करते हो चिखुरी, बाह्मन की रोटी हमको पचेगी?

"गोड़—पचने को तो पच जायेगी, पहले मिले तो। मूंछों पर ताव देकर भोजन किया और आराम से सोये, तुम्हें लकड़ी फाड़ने का हुक्म लगा दिया। जमींदार भी कुछ खाने को देता है। हाकिम भी बेगार लेता है, तो थोड़ी-बहुत मजबूरी देता है। यह उनसे भी बढ़ गये, उस पर धर्मात्मा बनते हैं।"

लकड़ी की गाँठ फाड़ने के प्रयास में दुखी का भूखा-प्यासा और टूटा हुआ शरीर अंततः ठंडा पड़ जाता है। उसकी पंडित के घर के सामने उसकी लाश पड़ी है। गोड़ चमरौने में जाकर कहता है, "ख़बरदार, मुर्दा उठाने मत जाना। अभी पुलिस की तहकीकात होगी। दिल्लगी है कि एक ग़रीब की जान ले ली। पंडितजी होंगे, तो अपने घर के होंगे। लाश उठाओगे, तो तुम भी पकडे जाओगे।"

दीन-दलितों में जागरूकता प्रेमचंद का लक्ष्य है, पर कहीं-कहीं यह जागरूकता भी कारगर नहीं होती। परिस्थितियाँ इतनी दुरूह हैं कि जीवन दुर्वह हो गया है। 'ठाकुर का कुआँ' कहानी में पानी का संकट है। गंगी गाँव से बाहर रहती है। उसका अलग कुआँ है जिसमें कोई जानवर गिरकर मर गया है। वह पानी भरने ठाकुर के कुएँ पर जाती है, पर वहाँ पानी भरना आसान नहीं। छुआछूत का पहरा है—एक शूद्र के पानी भर लेने से कुआँ अपवित्र हो जाएगा। गंगी ने समाज के तथाकथित तीनों उच्च वर्गों की ख़बर ली है "हम नीच हैं और ये लोग क्यों ऊँचे हैं? इसलिए कि ये लोग गले में तागा डाल लेते हैं? यहाँ तो जितने हैं, एक-से-एक छँटे हैं। चोरी ये करें, जाल-फरेब ये करें, झूठे मुकदमें ये करें। अभी इस ठाकुर ने तो उस दिन बेचारे गडरिये की एक भेड़ चुरा ली थी और बाद में मारकर खा गया। इन्हीं पंडित जी के घर में तो बारहोमास जुआ होता है। यही साहू जी तो घी में तेल मिलाकर बेचते हैं? काम करा लेते हैं, मजूरी देते नानी मरती है। किस बात में हैं हमसे ऊँचे? मुँह से ऊँचे हैं। हम गली-गली चिल्लाते नहीं कि हम ऊँचे हैं, हम ऊँचे हैं। कभी गाँव में आ जाती हूँ तो रसभरी आँखों से देखने लगते हैं। जैसे सबकी छाती पर साँप लोटने लगता है, परन्तु घमंड यह कि हम ऊँचे हैं।"

चेतना का यह विद्रोही स्वर और परिस्थिति-सुधार की आशा ही प्रेमचंद के लेखन का उद्देश्य है। यह आम आदमी, विशेषतः दलित, विपन्न और दबे-कुचले आदमी के घाव का मरहम है। उनकी यह प्रतिबद्धता कोरी नारेबाजी नहीं, स्वस्थ समाज के रूपांतरण का ब्लू प्रिंट है।

आम आदमी के चरित्रोत्थान को केंद्र में रखकर प्रेमचंद की तमाम कहानियाँ हैं, लेकिन 'क़फ़न' की विषयवस्तु चौंकानेवाली है। उसके चरित्र, घीसू-माधो जीवन-संघर्ष में इतने पस्त-परास्त हो चुके हैं कि वे सामाजिक और आर्थिक विसंगतियों की भयावहता को नहीं भेद पाते, बल्कि भेदना ही नहीं। प्रेमचंद अप्रत्यक्ष रूप से प्रश्न उठाते हैं कि आख़िर उनकी इस दुरवस्था के लिए ज़िम्मेदार कौन है? एक नज़र में लगता है कि घीसू-माधो घोर स्वार्थी, काइयाँ और संवेदनशून्य होकर अधोगति को प्राप्त वे चरित्र हैं जो समाज के माथे पर दाग़ हैं, तभी तो-तो क़फ़न के पैसों से शराब पीते हैं और भरपेट पूरियाँ खाते हैं और बची हुई पूरियों का पत्तल एक भिखारी को देकर 'देने' का गौरव भी लूटते हैं। पर यदि गहराई से देखा जाए तो प्रेमचंद का मंतव्य स्पष्ट है: अन्य कहानियों के शिल्प की भाँति वे कटु यथार्थ को आदर्शवादी नहीं बनाना चाहते। वे आर्थिक और सामजिक व्यवस्था की यथास्थिति से बदलाव की आशा छोड़ चुके हैं। अब उनका यही तरीक़ा है—लो, देखो आइना और शर्म करो! लो, सँभालो अपने उन चरित्रों को, जिन्हें तुमने जन्म दिया है, पोषित किया है—वीभत्स और काइयाँ कि अब तुम इनकी निरीहता से फ़ायदा नहीं उठा सकते। वे सभ्य दुनिया को अँगूठा दिखाते हैं, "कैसा बुरा रिवाज़ है कि जिसे जीते जी तन ढकने को चीथड़ा भी न मिले, उसे मरने पर नया क़फ़न चाहिए।"

वे मृत देह को ससम्मान ढकने की क्रिया को 'पाखण्ड' का दर्ज़ा देते हैं। पर आख़िर क्यों? विचार करना पड़ेगा कि वे अभी भी 'आदमी' हैं और उनकी विचारशक्ति समाप्त नहीं हुई है।

माधो घीसू से कहता है, " वह (माधो की मृत पत्नी) वैकुण्ठ में जाएगी दादा, वह वैकुण्ठ की रानी बनेगी।

"घीसू खड़ा हो गया और जैसे उल्लास की लहरों में तैरते हुए बोला—हाँ बेटा! बैकुंठ में जायेगी। किसी को सताया नहीं, किसी को दबाया नहीं। मरते-मरते हमारी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी लालसा पूरी कर गयी। वह बैकुंठ न जाएगी, तो क्या ये मोटे-मोटे लोग जायेंगे जो गरीबों को दोनों हाथों से लूटते हैं और अपने पाप धोने के लिए गंगा में नहाते और मंदिरों में जल चढ़ाते हैं।"

प्रेमचंद स्वयं को कृतज्ञ मानते हैं कि उनकी ज़िंदगी ग़रीबों के नज़दीक रहते हुए बीती कि वह उन्हीं के पक्षधर बने। उनका आम आदमी के जीवन से जो लगाव रहा है, यह उसी का नतीज़ा है कि उनके साहित्य में एक स्वाधीन, स्वस्थ समाजवादी राष्ट्र तथा समान आर्थिक बँटवारे का स्वप्न पिरोया हुआ है जिसे वे समाज के दोनों वर्गों—शोषित एवं शोषक की आत्म-चेतना को जागृत कर पूरा करना चाहते हैं। वह स्वप्न कुछ सीमा तक पूरा भी हुआ है। साहित्य का कार्य मनुष्य को मनुष्य बनाए रखने का है तथा उसका प्रभाव बहुत धीमा, अस्पष्ट, पर अमिट होता है। यह समाज-निर्माण की वह प्रक्रिया है जो अपना प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं दिखाती, पर भीतर-ही-भीतर मनुष्यता को पुष्ट करती चलती है। प्रेमचन्द का साहित्य इसी कोटि का है।

प्रेमचंद को इस संसार से विदा लिए आज 70 वर्षों से अधिक हो गये हैं। उन्हें तीन पीढ़ियाँ पढ़ चुकी हैं। सामंतवादी व्यवस्था लोकतंत्र में बदल चुकी है, फिर भी उन्हें पढ़ने की लालसा अभी भी बनी हुई है। कालजयी साहित्य की यही पहचान है। प्रासंगिक है कि हिदी साहित्य के पाठकों ने प्रेम्चंद को जो 'रायबहादुरी' बहुत पहले अता की थी, वह अब भी क़ायम है और आगे भी रहेगी, क्योंकि उनकी रचनाओं में जो उच्च चिंतन है, जागृति का भाव है, सौन्दर्य का सार है, सर्जन की आत्मा है और जीवन के सत्य का प्रकाश है; वह हममें जिजीविषा, संघर्ष और बेचैनी उत्पन्न करता है। यह बेचैनी ही चेतना की संजीवनी है। यही संजीवनी ही तो दुनिया के आम आदमी को संपोषित करती है।

ऐसे क़लम के सिपाही को कौन नमन न करना चाहेगा?