प्रेमचन्दजी / शिवपूजन सहाय
बीसवीं सदी की दूसरी बीसी का श्रीगणेश असहयोग-आन्दोलन के साथ हुआ था। मैं उसे आन्दोलन के वेग में बहकर कलकत्ता पहुंचा। वहाँ हिन्दी-पुस्तक-एजेन्सी की दूकान में, जो उस समय हरिसन रोड और चितरंजन-पथ के संगम के पास थी, प्रेमचन्दजी के सर्वप्रथम दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। मेरे साहित्यिक गुरु पण्डित ईश्वरीप्रसाद शर्मा ने उनके सामने मुझे ‘मारवाड़ी-सुधार’ के सम्पादक के रूप में पेश किया था। उन्होंने अपने प्रथम कहानी-संग्रह ‘सप्तसरोज’ की एक प्रति मुझे आशीर्वाद-स्वरूप् देने की कृपा की।
पहली भेंट एक आकस्मिक घटना थी। दूसरी बार उनके साथ घनिष्ठता बढ़ाने का सुयोग मिला, लखनऊ में। मैं ‘माधुरी’ के सम्पादन-विभाग में काम करता था। कुछ दिनों बाद वे भी ‘माधुरी’ के सम्पादक होकर आये। उसी समय उनका ‘रंगभूमि’ नामक बड़ा उपन्यास वहाँ छपने के लिए आया था। उसकी पूरी पाण्डुलिपि उन्होंने पहले-पहल देवनागरी-लिपि में अपनी ही लेखनी से तैयार की थी। श्रीदुलारेलालजी भार्गव ने गंगा-पुस्तक-माला के नियमानुसार उसकी प्रेस-कॉपी तैयार करने के लिए मुझे सौंपी। प्रेमचन्दजी ने उतना बड़ा पोथा पहले-पहल नागराक्षर में लिखा था, उसका ऐतिहासिक महत्त्व था। वह पाण्डुलिपि (प्रेस-कॉपी) यदि आज कहीं सुरक्षित होती!
उस समय ‘माधुरी’-सम्पादन-विभाग अमीनाबाद-पार्क से उठकर लाटूश रोड पर आ गया था। पण्डित कृष्णबिहारी मिश्रजी भी सम्पादकीय विभाग में थे। वे बड़ी शान्त प्रकृति के गम्भीर साहित्य-सेवी थे। उनके विनोद बड़े सरस और हास्योत्तेजक होते थे। वायुमण्डल को गंुजानेवाला प्रेमचन्दजी का ठहाका और बात-बात में मिठास भरनेवाली मिश्रजी की मुसकान दोनों अतुलनीय।
वह नागरी-लिपि में लिखा पहला उपन्यास दर्शनीय था। शायद ही कहीं लिखावट की भूल हो, तो हो। भाषा तो उनसे कोई बरसों सीखे। लेखनी का वेग ऐसा कि संयोगवश ही कहीं कट-कुट मिले। कथावस्तु की रोचकता लिपि-सुधार में बाधा देती थी। घटनाचक्र में पड़ जाने पर सम्पादन-शैली के निर्धारित नियम भूल जाते थे। ध्यान से भाषा पढ़ने के कारण कितने ही सुन्दर प्रयोग सीखने का सुअवसर मिला।
उर्दू के बहत-से लखनवी लेखक और बाहरी उर्दू-लेखक भी उनसे मिलने और सलाह लेने के लिए प्रायः कार्यालय में आते रहते थे। उर्दू के साहित्य-संसार में उनकी बड़ी धाक और प्रतिष्ठा थी। उर्दू के साप्ताहिक ‘प्रताप’ (लाहौर) में वे प्रायः कहानी भेजा करते थे। कई कहानियों की फारसी-लिपि मैंने देखी थी। वह बहुत साफ-सुथरी लिखावट थी। उनके अक्षर छोटे थे। वे शिकस्त हरुफ लिखने के आदी नहीं थे। भाषा तो उनकी चेरी थी।
उस समय पण्डित शान्तिप्रिय द्विवेदी भी उसी कार्यालय में थे। हम दोनों साथ ही रहते थे। शान्तिप्रियजी उन दिनों खूब हंसा-हंसाया करते थे। पण्डित कृष्णबिहारीजी की चुहलें और प्रेमचन्दजी के चुटकुले दोनों का रंग निराला होता। मिश्रजी कभी-कभी हिन्दी के अनूठे दोहे सुनाते और प्रेमचन्दजी उर्दू के ला-सानी लतीफे। उनका अट्टहास सुनकर कार्यालय के कर्मचारी उन्हें एकटक देखने लग जाते। शान्तिप्रियजी को दोनों ही महारथी बहुत प्यार करते थे और उनसे दिन भी बहलाते थे। छुट्टी के दिन प्रेमचन्दजी से मिलने जाने पर ‘शिरनी’ जरूर मिलती थी। कार्यालय में भी पान उन्हीं का चलता था। घर पर बराबर गुड़गुड़ी पीते रहते थे। चिलम शायद ही कभी ठण्डी होती थी। तम्बाकू खुशबूदार खुद खरीद लाते थे। उनका ‘सखुन-तकिया’ सुनकर मिश्रजी के भी अट्टहास का फव्वारा फूट पड़ता था। उसी तरह काशी में ‘प्रसादजी’ का भी। राय कृष्णदासजी के शब्दों में ‘हिन्दी-संसार के दो अनोखे ठहाकेबाज प्रसाद और प्रेमचन्द!’
काशी में जब प्रसाद और प्रेमचन्द एकत्रा होते, तब मानो ठहाकेबाजी की होड़-सी लग जाती। दोनों दिल खोलकर हंसते। बनारस-कोतवाली के पिछवाड़े नारियल-बाजार में प्रसादजी की लगभग सवा सौ वर्ष पुरानी दूकान है जर्दा-सुरती-सुंघनी की। उसके सामने के तख्त पर प्रसादजी की साहित्यगोष्ठी जमती थी। उस समय हिन्दी-संसार का कौन ऐसा साहित्य-महारथी था, जो उस तख्तपोश पर कुछ देर न बैठा हो। प्रेमचन्दजी ने प्रसादजी के एक ऐतिहासिक नाटक पर अपने ‘हंस’ में लिख दिया था ‘गड़े मुर्दे उखाड़ना’ इत्यादि। पर उसके बाद ही जब दोनों मिले, तब पहले की तरह खुले दिल से ही हंसे-बोले। किसी के दिल में कोई मैल नहीं। बात-बात में खिलखिलाते और उनके जोरदार ठहाके सुनकर बगल की अटारियों से अप्सराओं की मृदु-मन्द-मधुर खिलखिलाहट भी गूंज उठती।
जब काशी में प्रेमचन्दजी ने पहले-पहल सरस्वती प्रेस खोला, तब मैं भी काशी में ही रहता था। काशी-नागरी-प्रचारिणी-सभा के पासवाले मैदागिन-पार्क के पश्चिमोत्तर कोने पर एक छोटे-से मकान में प्रेस खुला। छोटे-से खुले ओसारे में आफिस था। लखनऊ के बाद वहीं उनके दर्शन होते रहे। मैं बराबर उनकी सेवा में पहुंचा करता। शाम को प्रेस में दिन-भर की आमदनी का हिसाब जोड़ा जाता। कर्मचारियों को रोज कुछ-न-कुछ देना ही पड़ता। सबकी मांग रोज नहीं पूरी होती थी। किन्तु प्रेमचन्दजी सबके सामने आमदनी का हिसाब रख देते और कहते, इतने पैसे में तुम्हीं लोग अपने और मेरे लिए ब्योंत कर दो, मुझे पान-तम्बाकू और एक्का-भाड़ा-भर देकर बाकी आपस में बांट लो। उनको हंसते-हंसते ऐसा कहते सुनकर सब कर्मचारी भी हंसने लगते। फिर रुपया चाहनेवाले अठन्नी पर और अठन्नी मांगनेवाले चवन्नी पर ही प्रसन्नता से सन्तोष करते। जिस दिन मजदूरों की मांग पूरी हो जाती, उस दिन प्रेमचन्दजी बहुत प्रसन्न हो जाते थे। अपने कर्मचारियों से उनकी हार्दिक सहानुभूति थी। श्रमिक-वर्ग के लिए अपनी रचनाओं में उन्होंने जो सद्भाव प्रदर्शित किये हैं, वे उनकी बोलचाल और व्यवहारों में भी प्रत्यक्ष दीख पड़ते थे। जरूरतमन्द के सामने वे अपनी जरूरतों को भूल जाते थे।
सब कर्मचारियों को यथायोग्य पैसे दे चुकने के बाद वे बचे-खुचे पैसे लेकर मैदागिन से चौक चले जाते। कई बार मैं भी उनके साथ उधर गया। लखीचौतरा पहुंचकर एक ढोली पान खरीदते। एक तमोली उनका मोदी था। उसकी से रोज ढोली लेते। वह भी अच्छी चुनकर देता। छाते को कन्धे पर सीधा रखकर उसके अगले छोर में रूमाल में बंधी ढोली लटका लेते और पिछले छोर में मुश्की तम्बाकू की पोटली। कभी-कभी पैसे कम पड़ जाते तो अपने गांव का एक्का खोजते हुए कुछ दूर पैदल ही चल पड़ते, या पिसनहरिया तक ही किसी एक्के पर जाकर, आगे फिर गांव तक पैदल चलते थे। इस कठिनाई का वर्णन प्रेस में बैठे-बैठे हंस-हंसकर किया करते थे। किसी दिन कहते कि अरदली-बाजार या बरुना-पुल तक पैदल जाने के बाद गांव का एक्का मिला था। एक बार कपड़ का फीतेदार जूता खरीदा तो उसकी एड़ी दबाकर चप्पलनुमा बना ली, और कहने लगे कि एड़ीदार जूते से पैदल चलने में कष्ट होता था, इसलिए उसे चप्पल कर दिया। प्रेस की आर्थिक दशा से वे चिन्तित तो रहते थे, पर उनके स्वाभाविक अट्टहास में कोई अन्तर नहीं पड़ता था।
कुछ दिनों बाद सरस्वती प्रेस जब मृत्युंजय-महादेव के पास एक बड़े फाटक के अन्दर प्रशस्त भवन में चला गया, तब आर्थिक स्थिति में कुछ सुधार हुआ। मुद्रण-कला-विशेषज्ञ श्रीप्रवासीलाल वर्मा उस समय प्रेस के प्रबन्धक थे। उनकी दिनों मासिक ‘हंस’ और साप्ताहिक ‘जागरण’ का प्रकाशन प्रेमचन्दजी के सम्पादकत्व में चल रहा था। दोनों पत्रों में प्रायः मेरी रचनाएं छपती थीं। मेरे लिखे ‘क्षण-भर’ (व्यंग्य-विनोद) पर खूब हंसा करते थे। मैं कालभैरव के पास रहता था और बहुधा प्रेस में आया करता था। मैंने देखा कि प्रेमचन्दजी अपने आश्रितों पर सदैव कृपालु रहे। इसीलिए प्रेस-मजदूर भी उनका बड़ा लिहाज करते थे। किसी के अपराध पर भी वे क्रोध करने के बदलते हंसते ही थे। बाहुत दिनों तक उनके सम्पर्क का सौभाग्य रहा, अनेक प्रसंगों पर उनकी उदारता और सहृदयता देखने के सुयोग मिले, पर कभी उन्हें क्रोध करते देखा ही नहीं। साधारण बोलचाल में भी वे सूक्तियां कह जाते थे। एक दफा कहा था ‘‘गुस्सा पी जाने पर आबे-हयात (अमृत) बन जाता है।’’ उनके लेखों की तो बात ही क्या थी, उनकी चिट्ठियों में भी सूक्तियां मिल जाती हैं।
उनकी धर्मपत्नी श्रीमती शिवरानी देवीजी का एक गल्प-संग्रह ‘नारी हृदय’ सरस्वती प्रेस से निकला था। उसकी भूमिका उन्होंने मुझसे लिखवाई। उनका सहज स्नेह उत्साहवर्द्धक था। वे स्वयं दूसरों की लिखी कहानियों का संग्रह तैयार करने लगे, तो उसमें मेरी भी एक कहानी रख दी। वे लेख लिखने के लिए विषय भी बतलाते थे। कभी-कभी प्रेस में बैठे-ही-बैठे लेखादि का संशोधन करते, सम्पादकीय टिप्पणियां लिखते और पत्रोत्तर देते। किन्तु अधिकतर ये काम घर से ही करके लाते थे। प्रेस में लिखते समय देखा कि बड़ी तेजी से लेखनी चलती, मगर कहीं काटने या बदलने की नौबत नहीं आती। जान पड़ता था कि लेखनी सजग होकर विचारधारा के साथ बेधड़क चल रही है। साप्ताहिक के लिए अग्रलेख भी एक ही सास में लिख डालते। देश और समाज की सभी समस्याओं पर वे बड़े ठोस और निर्भीक विचार प्रकट करते थे। कोई क्षेत्र उनकी लेखनी से अछूता न बच सका। राजनीति और साहित्य की क्या चर्चा, धर्म का क्षेत्रा भी अछूता न रहा।
प्रेमचन्दजी की लेखनी ने हिन्दी को एक लोकप्रिय शैली दी और जनता के जीवन का कोना-कोना छान डाला। राष्ट्र के हृदय की धड़कन का वे अनुभव करते थे। युग की वाणी को उन्होंने स्वर दिया। उनकी रचनाओं ने हिन्दी और उर्दू की अभिन्नता सिद्ध की। किन्तु उनके जीवनकाल में हिन्दीवालों से अधिक उर्दूवालों ने ही उनका सम्मान किया। प्रसिद्ध मुसलमान नेता मौलाना मुहम्मद अली एक उर्दू-साप्ताहिक ‘हमदर्द’ दिल्ली से निकालते थे। उसमें प्रेमचन्दजी की कहानियां प्रायः छपा करती थीं। उनको पुरस्कार के रूप में प्रति कहानी एक गिनी मिलती थी। वह गिनी मखमली ‘केस’ में पार्सल से आती थी। उन दिनों गिनी का क्या दाम था, मुझे याद नहीं, पर कई बार मैंने गिनी देखी थी। हिन्दी-पत्रों से मिले पुरस्कार पर वे हंसकर चुप रह जाते थे। हाँ, उन्होंने हिन्दी-साहित्य की चिरस्मरणीय सेवा करके जो प्रचुर पुण्य कमाया, उसका सुफल आज उनके उत्तराधिकारी भोग रहे हैं। हिन्दी के प्रकाशकों से ऊबकर वे एक बार सिनेमा की दुनिया में भी गये थे। परन्तु बम्बई से लौटकर वे विचित्रा कहानियां सुनाकर हंसा-हंसाया करते थे। उस दुनिया के उनके अनुभव सुनकर मनोरंजन तो होता था, पर घृणा भी होती थी। वहाँ के रहस्यों और अनुभवों को सुनाकर उन्होंने प्रसादजी को भी खूब हंसाया था। विनाद का सुअवसर वे कभी चूकते नहीं थे। एक बार हनुमानजी की पूजा में अध्यापक रामदास गौड़ के घर गये थे तो गौड़जी से कहने लगे ‘आपका घर सचमुच अजायबघर है जिसमें हनुमानजी तो रहते ही हैं भूतप्रेत भी रहते हैं।’
अन्तिम दिनों में तो प्रसादजी का और उनका लगभग रोज का साथ रहा। वे काशी में बेनिया-बाग के पास रहते थे। प्रतिदिन प्रातः-सन्ध्या दोनों महारथी साथ-साथ बेनिया-पार्क में टहला करते थे। चहलकदमी के साथ साहित्यिक चर्चा भी होती चलती थी। वे प्रसाद जी के सामने ही उनकी भाषा पर अपने विचार स्पष्ट वयक्त कर देते थे और प्रसादजी हंसते-मुस्कुराते सुन भी लेते थे। दोनों साहित्य-सम्राटों के मतभेद कभी आपस में टकराये ही नहीं। दोनों जहाँ मिल बैठते, उनकी बातें सुनने से जी न भरता।
जब मैं ‘मतवाला’-मण्डल से ‘माधुरी’ के सम्पादकीय विभाग में गया, श्रीदुलारेलाल भार्गव ने कृपापूर्वक पत्रिका के अतिरिक्त कुछ पुस्तकों के संशोधन का काम भी दिया। पहले ‘एशिया में प्रभात’ और ‘भवभूति’ की कॉपियां मिलीं। सौभाग्यवश भार्गवजी मेरी सेवा से सन्तुष्ट हुए और मुझे प्रेमचन्दजी के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘रंगभूमि’ की पाण्डुलिपी प्राप्त हुई, जो पहले से भार्गवजी के पास आ चुकी थी।
मैं सहम गया। ‘सप्तसरोज’, ‘सेवा-सदन’ और ‘प्रेमाश्रम’ कलकत्ता में पढ़ चुका था साहित्य-जगत् में उनकी जो स्तुति-चर्चा होती रहती थी, उसकी भी धाक मेरे दिल पर काफी थी। मैं उनकी कृतियों और कीर्ति-कथाओं से तो परिचित था, पर उनके नित्य दर्शनों से वंचित! मैंने यह भी सुना था कि वे पहले उर्दू में कहानी या उपन्यास लिख जाते हैं, फिर किसी हिन्दी के जानकार से नागराक्षरों में लिखवाते हैं। पर जब ‘रंगभूमि’ की कॉपी मिली, मेरे आश्चर्य और आनन्द का ठिकाना न रहा। सारी कॉपी प्रेमचन्दजी की ही लिखी हुई थी। दो मोटी जिल्दों में खासा एक बड़ा पोथा, छोटे-छोटे अक्षर, घनी लिखावट; कहीं काट-छांट नहीं; मानों पूरी पुस्तक एक सांस में लिखी गई हो!
भार्गवजी की गंगा-पुस्तक-माला की पुस्तकों का सम्पादन जिन नियमों के अनुसार होता था, उन नियमों को मैं जान चुका था; क्योंकि भार्गवजी के सम्पादकत्व के कारण ‘माधुरी’ में भी उन्हीं नियमों का पालन करना पड़ता था। जब मैं ‘रंगभूमि’ की कॉपी पढ़ने लगा, नियमों का ध्यान छूट गया, मन रीझकर भाषा की बहार लूटने लगा। पचासों पन्ने उलट जाने के बाद अचानक उत्तरदायित्व का ज्ञान होता, फिर पीछे लौटकर नियमों की पाबन्दी करनी पड़ती। कुछ हिन्दी-शब्दों की लिखावट में भूल मिलती थी और कुछ के उपयुक्त प्रयोग में भी। वाक्यावली और वर्णन-शैली तो गंगा की धारा-सी स्वच्छ और सवेग थी। बंधे नियमों के अनुसार कुछ अक्षर बदलने पड़े। कुछ मात्राएं इधर-उधर हुईं, कुछ प्रसंगानुकूल यथोचित शब्द चस्पां किये गये। प्रेस-कॉपी तैयार हो गई। भार्गवजी ने देखकर पास किया। छपाई के काम में हाथ लगा।
उसी समय प्रेमचन्दजी का शुभागमन हुआ। प्रथम दर्शन में ही मेरे चित्त पर उनके हृदय की महत्ता की सत्ता स्थापित हो गई। खास तौर से उनकी सुविधा के लिए लाटूश रोड में एक नया मकान लिया गया था। उसी में श्री मैथिली शरणजी गुप्त भी लगभग एक-डेढ़ मास ठहरे थे किसी वयोवृद्ध कुटुम्बी की चिकित्सा करा रहे थे। ‘माधुरी’ का सम्पादन-विभाग भी, अमीनाबाद-पार्क के गांगा-पुस्तक-माला-कार्यालय से उठकर, उसी मकान में चला गया। वह अमीनाबाद से थोड़ी ही दूर था। रास्ते में भार्गवजी का मकान पड़ता था और पण्डित बदरीनाथ भट्ट का भी। उन दिनों पण्डित कृष्णबिहारी मिश्रजी भी ‘माधुरी’ के सम्पादकीय विभाग में थे। प्रेमचन्दजी, मिश्रजी और भट्टजी का जब समागम होता था, हंसी के फव्वारे आकाश चूमने लगते थे।
मिश्रजी की रईसी हँसी सामने की मेज पर ही उछलती थी और प्रेमचन्दजी का ठहाका ऊंची छत से टकराकर खिड़कियों की राह सड़क पर निकल जाता था। भट्टजी की हंसी उसे पकड़ न पाती थी। दिल खोलकर तीनों हंसते थे। वह हंसी कितने ही दिमागों में गूंज रही होगी। उनकी स्मितपूर्वाभिभाषिणी मुखमुद्रा और उनका अक्लान्त अट्टहास, जो कभी आंखों और कानों में औत्सुक्य और उल्लास भर देते थे, अविस्मरणीय बन गये।
कितनी ही सन्ध्याएं अमीनाबाद-पार्क में हरी घास पर बैठे बीतीं पार्क के एक कोने में उस कचालू-रसीलेवाले की दूकान पर, जहाँ ताल्लुकेदारों और रईसों की मोटरें भी खड़ी होती हैं, दही-बड़े और मटर की कितनी ही दावतें हुईं ‘रंगभूमि’ में ‘सूरदास’ का स्वांग रचनेवाले प्रकृत व्यक्ति की सच्ची कहानियों पर कितने ही कहकहे उड़े जितने दिन लखनऊ में रहे, बड़े सुखावह दिन बीते।
जब कभी ‘माधुरी’-सम्पादक पण्डित रूपनारायणजी और प्रोफेसर दयाशंकर दुबे जो उन दिनों लखनऊ-विश्वविद्यालय में थे पहुंच जाते, प्रेमचन्दजी की हंसी से खासी टक्कर लेते। और एक बार तो कविवर गुप्तजी के सम्पर्क से मुंशी अजमेरीजी भी पहुंच गये, जिन्होंने तरह-तरह की हंसी हंसकर प्रेमचन्दजी के अट्टहास का दम तोड़ दिया। पण्डित कृष्णबिहारीजी यह पूछे बिना न रह सके ‘‘आज दोनों मुंशी हंसी के दंगल में भिड़े। आखिर कौन चित हुआ?’’ प्रेमचन्दजी नुमाइशी हंसी हंसते हुए पहले ही बोल उठे ‘‘मैं पीठ के बल नहीं, (मूं) मुंह के बल गिरा।’’ इस पर खूब कहकहा मचा।
लखनऊ के दंगे के बाद मैं पुनः ‘मतवाला’-मण्डल में कलकत्ता आ गया था। कभी-कभी चिट्ठी-पत्री होती रही विशेषतः उस समय, जब वणिक् प्रेस और हिन्दी पुस्तक एजेन्सी के मासिक ‘उपन्यास-तरंग’ का मैं सम्पादन करने लगा। चिट्ठियों का तांता उस समय खूब बंधा, जब वे ‘माधुरी’ के सम्पादक थे और बनारस में उनके ‘सरस्वती-प्रेस’ का प्रबन्ध-भार ग्रहण करने के लिए श्रीप्रवासीलाल वर्मा मालवीय के निमित्त मैं पत्र-व्यवहार कर रहा था। उस समय मैं भी काशी में ही रहकर लहेरियासराय के पुस्तक-भण्डार का साहित्यिक कार्य-सम्पादन कर रहा था; और कई पुस्तकें सरस्वती-प्रेस में भी छपती थीं। उन दिनों श्रीगुरुराम विश्वकर्मा ‘विशारद’ जो प्रेमचन्दजी के गांव के पड़ोसी थे, और उनको ‘भैया’ कहा करते थे, प्रेस के प्रबन्धक थे।
लखनऊ चले जाने के पहले प्रेमचन्दजी जब तक घर पर रहे, नित्य इक्के से प्रेस आया करते थे। मैं भी भण्डार की पुस्तकों की देख-रेख के लिए प्रायः नित्य ही प्रेस में जाता था। कम्पनीबाग (मैदागिन पार्क) के पूरबी छोर पर काशी-नागरी-प्रचारिणी-सभा है और पच्छिमी छोर पर सड़क के किनारे सरस्वती-प्रेस था। पुराना मकान, अंधेरा, गन्दा बड़ी रद्दी हालत थी प्रेस की। रोज ही वे प्रेस की फिक्र में परेशान रहते थे। मेरे हाथ में पुस्तक भण्डार का जो काम था, उसमें से जितना उनका प्रेस सहूलियत से कर सकता था, उतना मैं दे ही देता था, और भी परिचितों से काम दिलवाता था। किन्तु प्रेस और हाथी का पेट दोनों बराबर। पोसाता न था। चिन्ता-चक्र चल ही रहा था कि वे लखनऊ चले गये। तब प्रवासीलालजी की बात छिड़ी। मैं भी बीच में पड़ा। लिखा-पढ़ी होते-होते बात तय हो गई।
वर्माजी प्रेस को मध्यमेश्वर से उठाकर मृत्युंजय-महादेव रोड पर ले गये। स्वनामधन्य कलाविद् श्रीरायकृष्णदासजी का एक नया मकान था। वह प्रेस के लिए बड़ा शुभ एवं लाभप्रद सिद्ध हुआ। कम-से-कम प्रेस की ओर से प्रेमचन्दजी निश्चिन्त हो गये। वर्माजी के काम से सन्तुष्ट भी रहे। एक सुयोग्य मनुष्य के साथ सम्बन्ध स्थापित कराने में सहायक होने के कारण वे मुझ पर भी अत्याधिक स्नेह रखते थे। यदि लखनऊ से कभी एक दिन के लिए भी आते, तो तुरन्त प्रेस का आदमी मुझे बुलाने पहुंच जाता। एक बार तो वर्माजी की नियुक्ति के समय लखनऊ से सीधे मेरे मकान पर आ धमके। उस समय मैं कालभैरव की चौमुहानी पर रहता था और वर्माजी भी मेरे पड़ोसी ही थे। प्रेमचन्दजी ने किसी प्रकार का सन्देह या असमंजस नहीं प्रकट किया; खुले दिल से वर्माजी को अपनाया। जाते समय बनारसी पान का चौघड़ा मुंह में लेते हुए कहने लगे ‘‘आज सुख की नींद सोऊंगा, बड़ा भारी बोझ उतर गया, प्रेस बला हो गया था।’’
जब वे लखनऊ में ही थे, तब ‘हंस’ निकालने का आयोजन होने लगा। साहित्य-जगत् के यशोधन कलाकार श्रीजयशंकर प्रसादजी ने ‘हंस’ का नामकरण किया और प्रेमचन्दजी की स्वीकृति लेकर वर्माजी ने उसके प्रकाशन का श्रीगणेश कर दिया। प्रेमचन्दजी लखनऊ से ही कहानियां और टिप्पणियां भेजा करते थे। किन्तु प्रसादजी की योजना के अनुसार ‘हंस’ में केवल दो ही स्तम्भ रह सके ‘मुक्ता-मंजूषा’ और ‘नीर-क्षीर-विवके’। प्रसादजी की स्कीम में कहानियों की प्रधानता नहीं थी। पर प्रेमचन्दजी के सम्पादकत्व में तो कहानियों की ही प्रधानता हो सकती थी; अतएव ‘हंस’ बहुत दिनों तक कथा-साहित्य का ही मुखपत्र रहा।
बीच में एक-डेढ़ साल मैं काशी से बाहर रहा, य़पि आने-जाने का सम्बन्ध बना रहा। उस अवधि में ‘गंगा’ मासिक पत्रिका का सम्पादक रहा। जब कहानी के लिए प्रेमचन्दजी को पत्र लिखा, स्पष्ट उत्तर मिला कि ‘‘आप मेरे ‘हंस’ के लिए मुफ्त लिखा करते हैं, इसलिए मैं राजा की पत्रिका के निमित्त मुफ्त नहीं लिखूंगा, काफी पुरस्कार दिवाइए।’’ मैं परिस्थिति देखकर चुप रह गया; क्योंकि जब मैं ‘माधुरी’ के सम्पादकीय विभा में था, तब प्रेमचन्दजी को फी पेज चार रुपए के हिसाब से पुरस्कार दिया जाता था। उतना पुरस्कार देकर उनकी कहानी लेना ‘गंगा’ ने पसन्द नहीं किया, यद्यपि ‘भारत-भारती’ की समालोचना लिखने पर प्रोफेसर रामदास गौड़ को फी पेज पांच रुपए के हिसाब से पुरस्कार दिया गया था!
‘गंगा’ का सम्पादन-कार्य छोड़कर मै। फिर काशी चला आया। तब तक प्रेमचन्दजी भी ‘माधुरी’ को छोड़कर काशी आ गये थे। इस बार उन्होंने ‘मुक्ता-मंजूषा’ का भा मुझे सौंपा और यथासाध्य पुरस्कार देना भी स्वीकृत किया; क्योंकि मैं बेकार था। बेकारी में उनके प्रेस से बड़ी सहायता मिली पारिश्रमिक के रूप में ही सही। कभी-कभी हंसी में कह भी देते थे ‘‘आप बेकार हैं, मै। निराकार हूं!’
सरस्वती-प्रेस में घण्टों बैठकबाजी होती थी। पान की गिलौरियों का दौर चलता रहता था। लखनऊ के विचित्रा पान की चर्चा करते हुए खूब हंसा करते थे अपने मशहूर ‘सखुन-तकिया’ की बौछारों से लखनवी पान का खूब सम्मान करते थे। खुद कहते भी थे ‘‘मेरा यह ‘तकिया-कलाम’ तो उर्दू-साहित्य-गोष्ठी का प्रसाद है। गनीमत है कि बोलने की तरह लिखने में यह नहीं टपक पड़ता। कहीं किसी के खत में लिख जाय, तो दोनों की मिट्टी खराब हो।’’
अपने प्रेस की पुस्तकों के विज्ञापन के लिए वे बहुत दिनों तक एक साप्ताहिक पत्रा निकालने का इरादा कर रहे थे। पुस्तक-मन्दिर (काशी) द्वारा प्रकाशित शुद्ध साहित्यिक ‘जागरण’ जब मेरे सम्पादकत्व में छह महीने तक पाक्षिक निकलकर बंद हो गया, तब उन्होंने अपने सम्पादकत्व में उसे साप्ताहिक रूप में निकालना शुरू किया। तब मेरे साथ और अधिक घनिष्ठता बढ़ी। प्रेस में काफी देर तक वे भी बैठते थे और मैं भी वहीं बैठकर अखबार पढ़ता या प्रूफ-करेक्शन करता। प्रेस में मेरी कोई नौकरी न थी; पर कुछ-न-कुछ साहित्यिक काम करते रहने का व्यसन तो था ही। सबसे बड़ा लाभ था उनका सत्संग। उनकी बातचीत से कोई-न-कोई नई बात रोज सीखने को मिल जाती थी नया मुहाबरा, नई शैली, कोई नया शब्द, कोई नई युक्ति वा उक्ति। बोलने लगते थे तो जबान लड़खड़ाती न थी और चूकती भी न थी। उर्दू के पण्डित थे, हिन्दी के गढ़ में बचपन से रहते आये। अध्ययन और अनुभव भी कम नहीं। कलम उठाते ही मंजी भाषा की धारा चल पड़ती।
उनकी चिट्ठी भी कहानी का मजा देती थी। कभी-कभी पोस्टकार्ड की दस-बीस लाइनों में ही बड़े-बड़े सिद्धान्त और तत्त्व-महत्त्व की बातें कह जाते थे; बीच में कहीं मधुर विनोद का पुट भी धर देते थे। कमाल की लेखन-शैली थी। पढ़ने लगने पर मालूम होता था कि लेखक की लेखनी कहीं सांस न लेकर सरपट दौड़ी जा रही है और मन अनायास उसके पीछे लगा चला जाता है।
‘जागरण’ के लिए प्रतिमाह अग्रलेख और सम्पादकीय नोट, ‘हंस’ के लिए भी प्रतिमास वही, कभी-कभी एक कहानी भी, अन्य पत्रों की मांग पूरी करने के लिए कम-से-कम महीने में एक-दो कहानी जरूर, उपन्यास लिखने का सिलसिला अलग। इतना अधिक लिखने पर भी अकीर्त्तिकर कुछ भी न लिखा। जिस विषय को लेखनी छू देती, वही मानों सजीव हो उठता था। लेखनी अथ से इति तक एक-सी शान से चलती थी। मस्तिष्क में सोचने की शक्ति जैसी तीव्र, वैसी ही उंगलियों में लिखते रहने की। तो भी पैसे का अभाव दूर न हुआ। ‘हंस’ और ‘जागरण’ में बराबर घाटा ही रहा। पुस्तकें काफी बिकती न थीं। हिन्दी के प्रकाशकों से कुछ मिलता न था। ‘भारत-भारती’ के बराबर उनकी किसी पुस्तक के संस्करण न हुए! बल्कि हिन्दीवालों से उर्दूवाले कहीं अधिक गुणग्राहक निकले, क्योंकि उनकी उर्दू-पुस्तकों का बाजार पंजाब में बहुत अच्छा था, ऐसा वे स्वयं प्रायः कहा करते थे। यह भी कहा करते थे कि मौलाना मुहम्मद अली अपने ‘हमदर्द’ के लेखों पर मुझे जितना पुरस्कार देते थे, उतना हिन्दी-पत्रों के सम्पादक नहीं दे सकते। अकसर मौलाना मनीआर्डर न भेजकर गिनी ही पार्सल में भेजते थे।