प्रेमदंश (कहानी) / मनोज श्रीवास्तव
इंगलिश डिपार्टमेंट में एक रोमांचक घटना की चर्चा हर ज़ुबान है कि प्रोफ़ेसर कपूर की शक़्ल से एकदम मिलते-जुलते चेहरे वाले एक छात्र ने दाखिला लिया है। उस छात्र की सिर्फ़ शक़्ल ही प्रोफ़ेसर से नहीं मिलती, बल्कि उसका डील-डौल, चलने का अंदाज़ और यहाँ तक कि बातचीत करने का लहज़ा और आवाज़ वग़ैरह सभी कुछ उनसे मेल खाता है। जब प्रोफ़ेसर भट्टाचार्य को उस हैरतअंगेज़ लड़के के बारे में बताया गया कि वह अभी प्रोफ़ेसर सिन्हा के क्लासरूम में है तो उनके कौतुहल ने उन्हें चैन से बैठने नहीं दिया। वह क्लासरूम के बाहर चहलकदमी करते हुए उस अज़ीबोगरीब शख्स का बेसब्री से प्रतीक्षा करने लगे। उस डिपार्टमेंट में प्रोफ़ेसर दीप्ति के अलावा प्रोफ़ेसर भट्टाचार्य ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जो प्रोफ़ेसर कपूर के समकालीन थे हालांकि वे कपूर सर से उम्र में काफ़ी छोटे थे। अन्यथा, उनके समय के सभी प्रोफ़ेसर या तो रिटायर्ड हो चुके हैं या.... पीरियड खत्म होने के बाद पहले सिन्हाजी क्लास से बाहर निकले; फिर उनके पीछे छात्रों का एक झुंड निकला। छात्रों की दिलचस्पी भी प्रोफ़ेसर कपूर के उस हमशक़्ल यानी अवनीत रेड्डी में बढ़ती जा रही थी, यद्यपि उन्हें क्या पता था कि कोई पच्चीस-छब्बीस साल पहले प्रोफ़ेसर कपूर का हुलिया क्या था? बस, उन्हें कानाफ़ुसियों से यह मालूम हुआ था कि फलां-फलां स्टूडेंट का चेहरा-मुहरा किसी भूतपूर्व प्रोफ़ेसर से मिलता-जुलता है। प्रोफ़ेसर भट्टाचार्य की दूर-दृष्टि कमजोर होने के बावज़ूद, उनको वह नया लड़का उसी तरह आसानी से नज़र आ गया जैसे कौवों के बीच कोई हंस। उन्होंने उसे अपलक निहारते हुए अपना गंजा सिर इतनी तेजी से खुजलाया कि सिर पर नाखून के निशान पड़ गए और खून की लकीरें छलछलाने लगीं। वे तिलमिला उठे; पर, पुरानी यादों की बरसात ने उस तिलमिलाहट को ज़ल्दी ही ठंडा कर दिया। उन्होंने रुमाल निकालकर सिर पोछा और फिर उस पर निग़ाह गड़ाए हुए उसी तरह चहलकदमी करने लगे। वे बीते वर्षों में लौटते हुए सोच में पड़ गए कि जवानी के दिनों में जबकि प्रोफ़ेसर कपूर डिपार्टमेंट में छाट्र के रूप में आए थे, हू-ब-हू इसी लड़के की तरह दीखते थे। उन्हें लगा कि वे अतीत में खड़े प्रोफ़ेसर कपूर के साथ गुफ़्तगू कर रहे हैं। उन्हें इस अहसास से गशी-सी आने लगी कि जैसेकि किसी अस्पताल के शवगृह में पोस्टमार्टम के लिए रखा कोई मुर्दा अचानक जीवित होकर हरक़त करने लगा हो। वह बार-बार बुदबुदाने लगे, "यह तो प्रोफ़ेसर के पुनर्जन्म जैसी कोई घटना है..." वह भागे-भागे प्रोफ़ेसर दीप्ति के चैंबर में दाखिल हुए और बुरी तरह हाँफ़ भी रहे थे, "दीप्ति, दीप्ति! तुमने शेक्सपीयर के हमशक़्ल पात्रों के बारे में तो खूब पढ़ा-पढ़ाया होगा। आज मैं एक ऐसा ही हमशक़्ल तुम्हें दिखाने आय हूँ..." उनकी इस अप्रत्याशित खबर से प्रोफ़ेसर दीप्ति हड़बड़ाकर हक्का-बक्का रह गईं। वह, दीप्ति को खींचते हुए गैलरी में पहुँचे जहाँ वह अर्थात अवनीत अकेले गुमसुम-सा खड़ा अगले पीरियड के शुरू होने की प्रतीक्षा कर रहा था। वह तो इस बात से एकदम अनजान था कि आज उसकी मौ्ज़ूदगी से पूरा डिपार्टमेंट हैरत के समंदर में गोते लगा रहा है। प्रोफ़ेसर दीप्ति तो उसे देख, लगभग पागल हो उठी, "अरे! प्रोफ़ेसर कपूर रेमेंड आल हिज़ लाइफ़ अनमैरिड! आई ऐम श्योर कि उनका हमशक़्ल तो उनका बेटा ही होना ही चाहिए। लेकिन,..." वह सोच में खफ़्तुलहवास हो गईं। वह कुछ देर तक तो उसे फटॆ नज़रों से बदहवास देखती रहीं। तभी अचानक, उनका सिर घूमने लगा। वह लड़खड़ाते हुए हुए वापस चैंबर में आकर अपनी चेयर पर बैठ गईं। उन्हें लगा कि वे चक्कर खाकर गिर पड़ेंगी। उन्होंने माथे को औंधे मुंह टेबल पर टिकाते हुए काळ बेल की बटन दबा दी। पियन के आने पर उससे पानी मांगा और कहा, "वो जो नया लड़का आया है, उसे फ़ौरन मेरे पास भेजना..." पियन यानी नेगी ने प्रोफ़ेसर दीप्ति का संकेत समझ लिया कि नए स्टूडेंट तो बहुत आए हैं; लेकिन, यह नया लड़का वही होगा जो किसी पूर्व प्रोफ़ेसर का हमशक़्ल होने के कारण पूरे डिपार्टमेंट के लिए एक अज़ूबा बना हुआ है। चंद मिनट बाद, नेगी, अपने पीछे अवनीत को लेकर उपस्थित हुआ। प्रोफ़ेसर नेगी को इशारे से बाहर जाने का निदेश दिया। प्रोफ़ेसर दीप्ति ने उस पर अपनी आँखें गड़ा दीं और अपने आवेश पर काबू रखते हुए पूछा, "आई थिंक कि तुम इसी शहर के होगे।" "यस, मैम!" उसकी आवाज़ में प्रोफ़ेसर कपूर जैसी कशिश थी। "तुम्हारे पिता का क्या नाम है?" "जी, राजीव रेड्डी।" प्रोफ़ेसर दीप्ति को आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा क्योंकि प्रोफ़ेसर कपूर भी इतने ही झटके से बोला करते थे। "ओह! यह नाम कुछ सुना हुआ सा लगता है।" दीप्ति ने कुछ याद करते हुए अपनी कनपटी सहलाई और चश्मा उतारकर मेज पर रख दिया। 'हाँ, मेरे डैड अख़बार-मैगज़ीनों के लिए आर्टिकिल्स वगैरह लिखते रहते हैं..." "अरे, याद आया। उनकी लिखी कुछ किताबें युनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में हैं। ख़ैर, मैं तो तुम्हें सिर्फ़ इसलिए बुलाई हूँ कि अगर तुम्हें पढ़ने-लिखने या एग्ज़ाम के लिए कुछ नोट्स वग़ैरह हासिल करने में कोई दिक्कत हो तो मुझसे बेझिझक मिलना। मैं तुम्हारी मदद ज़रूर करूंगी।" अवनीत को प्रोफ़ेसर दीप्ति द्वारा इस तरह अचानक बुलाकर अलपटप सवालों के जंजाल में डाले जाने और 'जान न पहचान, मैं तेरी मेहमान' की तर्ज़ पर उसे पढ़ाई में मदद देने जैसी बातों पर अचंभा हुआ। दूसरे दिन भी, उसे प्रोफ़ेसर दीप्ति द्वारा बुलाकर उससे ऐसे ही कई-एक सवाल उसकी जाती ज़िंदगी बारे में पूछे गए। फिर, वह सोचने लगा कि शायद, सभी नए छात्रों के साथ ऐसा ही होता होगा। यानी, उन्हें बुलाकर इसी तरह सवाल किए जाते होंगे। लेकिन, जब तीसरे दिन भी दीप्ति ने उसे बुलाकर सवालों से लाद दिया दिया तो उससे उनका वज़न बरदाश्त नहीं हो सका। उसने भी आखिरकार अपना एक सवाल दाग़कर उनके सारे सवालों को एक ही झटके में ढेर कर दिया, "मैडम, क्या बात है कि आप मेरी निजी ज़िंदगी में इतना ताक-झाँक कर रही हैं? कोई दूसरा प्रोफ़ेसर तो मुझमें इतनी दिलचस्पी नहीं दिखाता?" कुछ देर तक वह सोच में पड़ गईं; फिर, एकबैक दराज़ से प्रोफ़ेसर कपूर की एक तस्वीर निकलकर उसके सामने रख दी, "इस फोटो को ग़ौर से देखो। ये प्रोफ़ेसर कपूर हैं और वे जवानी के दिनों में बिल्कुल तुम्हारी तरह दीखते थे।" उसने प्रोफ़ेसर कपूर की तस्वीर को ध्यान से देखा। पल भर के लिए वह भी हैरत में पड़ गया। फिर, उसने खुद को संयत किया। प्रोफ़ेसर दीप्ति उसके अंदाज़ पर ग़ौर फ़रमा रही थीं कि प्रोफ़ेसर कपूर भी किसी ची्ज़ पर इसी तरह ध्यान दिया करते थे। "मैम, ऐसा कभी-कभी देखने-सुनने में आता है कि फलां का चेहरा अमुक आदमी से मिलता है और अगर मेरा हुलिया किसी कपूर सर से मिलता है तो इसमें मेरा क्या दोष?" उसने उसी निर्विकार भाव से प्रोफ़ेसर पर अपनी निग़ाह जमाए रखा जिस तरह प्रोफ़ेसर कपूर आँखों में आँखें डालकर बातें किया करते थे और बातों के मर्म तक जाने की चेष्टा करते थे। प्रोफ़ेसर दीप्ति बिफ़र उठीं, "अरे! तुम्हारा तो सबकुछ प्रोफ़ेसर कपूर से इतना मिलता-जुलता है कि तुम्हें तो उनका पुनर्जन्म कहा जाना चाहिए..." "मेरा तो कपूर सर से दूर-दूर तक का कोई रिश्ता नहीं है। मैं ठहरा रेड्डी, जबकि वो कपूर..." इस सपाट जवाब के बाद अवनीत बिल्कुल संज़ीदा हो गया। "हाँ, यू आर राइट," प्रोफ़ेसर दीप्ति ने मेज पर से चश्मा उठाकर आँखों पर चढ़ाया और होठ चबाते हुए अवनीत का सांगोपांग ज़ायजा लेने लगीं। अवनीत असामान्य-सा हो उठा। "एक बात पूछूँ! आप बुरा तो नहीं मानेंगी?" "हाँ-हाँ, पूछो। जब मैं तुमसे इतने ढेर-सारे सवाल कर सकती हूँ तो तुम्हें भी अधिकार है कि ..." दीप्ति की उत्सकता और बढ़ गई कि अवनीत के सवाल से कोई नई बात खुलकर सामने आएगी। "मुझे पता चला है कि आपने बग़ैर शादी किए अपनी ज़िंदगी का बेशकीमती हिस्सा यूँ ही गुजार दिया है..." उस पल, उसकी बात सुनते ही प्रोफ़ेसर दीप्ति को लगा कि जैसे खुद प्रोफ़ेसर कपूर उसे झिड़क रहे हैं कि अब तक तुमने शादी क्यों नहीं की। "तुम्हारे कहने का मतलब क्या है?" दीप्ति का मुँह अचरज से खुला रह गया। उनके चेहरे पर तिलमिलाहट साफ उभर आई। "कहीं ऐसा तो नहीं कि आप प्रोफ़ेसर कपूर से प्यार करती थी और जब किन्हीं कारणों से आपका उनसे विवाह नहीं हो सका तो आपने आजीवन अविवाहित रहने का निश्चय कर लिया।" उसने एक सांस में अपने मन की भड़ांस निकाल दी। यह भी नहीं सोचा कि प्रोफ़ेसर पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा। "नहीं, नहीं. ये तुमने कैसे सोच लिया?" उन्होंने अपनी बात पर भरपूर बल देने की कोशिश की उन्हें या ह कतई उकीं नहीं हो रह था की बित्ते भर का लौंडा उनकी रामकहानी का लब्बोलुबाब कुछ लफ़्ज़ों में ही कह-सुनाएगा. "लेकिन, मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ की आपका कपूर सर के साथ अफेयर था. तभी तो आप उनके हशाक्ल को देखकर अपना संयम खोटी जा रही हैं." अवनीत ने एकदम बेलगाम शब्दों में उनकी भावनाओं का खुलासा कर दिया. उन्हें लगा की उसने जैसे बीच बाजार में उनका चीर हरण कर लिया हो और वह उनके सामने एकदम नंगी खड़ी हैं और अपने बदन को ढंकने में बिल्कुल निरुपाय हैं. "तुमने ऐसा कहने की जुर्रत कैसे की? गुरु और शिष्य के संबंध पर कीचड़ उछालने की कोशिश क्यों की? बेशर्मी की भी कोई हाड़ होती है." वह थर-थर कांपती हुई आपे से बाहर हुई जा रही थीं. अवनीत बिल्कुल उनके बगल में खड़ा होकर मेज पर उनके आगे झुक गया. "मैं अक्षरश: सच्चाई बयाँ कर रहा हूँ. आपको मेरी बात माननी ही पड़ेगी." उसने मेज पर अपना हाथ इतनी जोर से पटका कि प्रोफ़ेसर दीप्ति एकदम चिहुंक गई. उन्हें लगा कि जैसे खुद प्रोफ़ेसर कपूर उनके पास आकर खड़े हो गए हैं. वह एक झटके से खड़ी हो गईं और अवनीत की घूरती आँखों से कतराते हुए फिर बैठ गईं. उनकी गतिविधियों से अपराध-बोध साफ़ छलक रहा था. वह इस बात से गाफिल रहते हुए कि ओली उनकी बात सुन भी सकता है, लगभग बुदबुदाने लगीं, "तुमने ऐसा कहकर जो घाव भर चला था, उसे न केवल कुरेंदा है बल्कि उस पर नमक-मिर्च भी छिड़क दिया है." अवनीत ने उनकी बुदबुदाहट साफ़ सुनी और फिर व्यंग्यपूर्वक अपने शब्दों को उनके कानों में खौलते तेल की तरह उड़ेल दिया, "मै आपकी सायकोलोजी बखूबी पढ़ रहा हूँ. आप प्रोफ़ेसर कपूर को बेइन्तहा प्यार करती थी." प्रोफ़ेसर दीप्ति यह सोचकर हैरान हो रही थी कि कल का छोकरा उनके मनोविज्ञान की बखिया बखूबी उधेड़ देगा. उनका धीरज ज़वाब दे रहा था. उनका झूठ मोम की तरह पिघलकर बह गया। उन्हें सच को छिपने की कोई तरकीब नहीं सूझी। उन्हें लगा कि इतने वर्षों से उनके ज़ेहन में कुंठा का कचरा कोई उकेर-उकेर कर बाहर निकाल रहा है। वह स्वयं पर से अपना बिल्कुल नियंत्रण उसके सीने से लगकर अनजाने में फ़फ़क उठीं, "हाँँ, अवनीत, तुम बिल्कुल ठीक कह रहे हो। अगर प्रोफ़ेसर कपूर ज़िंदा होते तो आज वो मेरे..." उन्होंने खुद को अवनीत से एकबैक अलग करते हुए उसे सामने चेयर पर बैठने का संकेत किया। फिर, उन्हें लगा कि वे जैसे अपना अपराध स्वीकार कर रही हैं। कोई दो मिनट तक खामोशी पसरी रही। प्रोफ़ेसर दीप्ति को इस तरह भावुकतावश अवनीत के सीने से लगने बेहद अपराधबोध हो रहा था। उन्हें अहसास हो रहा था कि उन्होंने किसी ऐसी मर्यादा का उल्लंघन किया है जिसे उनको नहीं करना चाहिए था। लेकिन, आवेश की आँधी उम्र, ओहदा, रिश्ता जैसी किसी चीज़ का परवाह नहीं करती है। वह सभी मर्यादाओं को धराशायी कर देती है। "अवनी! आज क्या शाम को तुम मेरे क्वार्टर पर आ सकोगे? मैं आज का डिनर तुम्हारे साथ करना चाहती हूँ।" उनकी भर्राती आवाज़ में एक अज़ीब-सी कँपकँपाहट थी जिसमें आत्मीयता और व्यग्रता साथ-साथ घुली हुई थी। अवनीत को लगा कि उसने अपनी सपाट-बयानी से कहीं न कहीं प्रोफ़ेसर के दिल को ठेंस पहुँचाई है। फिर, उसने सोचा कि उन्हें नार्मल बनाने के लिए उस शाम को मिलने में क्या हर्ज़ है। इसलिए, वह "ओ के, मैम" कहते हुए उठकर बाहर निकल गया। घड़ी ने अपने छोटे हाथ आठ पर और बड़े हाथ बारह पर रखे तो प्रोफ़ेसर दीप्ति को उतनी बेचैनी हुई जितनी उन्हें पहले कभी नहीं हुई थी। वह लगातार तीन घंटे से घड़ी पर टकटकी लगाए हुई थकी नहीं थीं। वह हर सेकेंड पर कदम बढ़ाती सुई को अपलक देखते हुए अहसास कर रही थी कि उनकी उम्र प्रौढ़ावस्था से युवावस्था और युवावस्था से किशोरावस्था की और पश्चगमन कर रही है। उन्हें अनुभव हो रहा था कि उनका दिल उसी तेजी से धड़क रहा है, जिस तरह से वह कोई छब्बीस साल पहले धड़का करता था--अपने प्रोफ़ेसर कपूर के सामने... प्रोफ़ेसर कपूर का चँदहला चेहरा उसके मन के आकाश में उगते ही वह चंचल हो उठीं। प्रोफ़ेसर कपूर के ख्याल से उनके साथ हमेशा ऐसा ही होता है। प्रोफ़ेसर कपूर के गौरांग चेहरे पर टँकी नीली-नीली आँखों और किसी अंग्रेज़ की भाँति गुलाबी होठों के दोनों और लटकी हुई भूरी-भूरी मूँछों से निखरे चेहरे ने उन्हें शुष्क वर्तमान की मरुभूमि से उठाकर किसी नखलिस्तान में जा पटका। क्योंकि उनकी आँखों के सामने का धुंध अँधेरा छँट गया और वह उनकी उनकी उजास स्मृतियों में विचरने लगी। उन्हें लगा कि उनका अतीत उनसे कतई दूर नहीं है। वह कल्पनाओं में प्रोफ़ेसर कपूर के साथ वह सब कुछ कर लेती हैं जिसे वह कभी नहीं कर पाईं। वह उनकी बाँहों में जकड़ती जा रही हैं। उनकी गरम साँसों की नमी उनके शुष्क चेहरे को नरम बना रही है। उत्तेजना के उन क्षणों में उन्होंने तेज कदमों से ड्राइंग रूम में गोल-गोल टहलते हुए अपनी आँखे बंद कर लीं। उन्हें विश्वास है कि जब तक उनकी आँखें बंद रहेंगी, प्रोफ़ेसर कपूर को वह अपने आसपास पाएंगी और उनका अतीत गुनगुनाता हुआ सामने खड़ा हो जाएगा, उन्होंने खुद को प्रोफ़ेसर कपूर की कक्षा में आगे बैठा पाया। प्रोफ़ेसर साहब वही रोमांटिक लिटरेचर पढ़ा रहे हैं और जान कीट्स का फ़ैनी ब्राउन के प्रति अंधे प्रेम के बारे में एक लंबा लेक्च्र्र सुना रहे हैं। वह सुन रही है कि प्रोफ़ेसर का गला यह बताते हुए रुँध गया कि आख़िरकार, फ़ैनी ब्राउन ने कीट्स के प्रेम पर अस्वीकृति का ठप्पा उसी तरह लगा दिया, जिस तरह बीसवीं सदी के अंग्रेज़ी कवि विलियम बट्लर यीट्स के लंबे समय से प्रतीक्षित अथाह-अगाध प्रेम-प्रस्ताव पर माड गान ने इनकार की एक अभेद्य दीवार खड़ी कर रखी थी जहाँ से यीट्स की विरह से व्यथित आह का एक टुकड़ा भी उसके बहरेपन को नहीं भेद पाया था। ड्राइंग रूम में टहलते हुए प्रोफ़ेसर दीप्ति सोफ़े के हत्थे से टकराकर गिरते-गिरते बचीं। उनके घुटनों पर हल्की सी चोट आने से वह दिवास्वप्न से जाग उठीं। वह वर्तमान् की खुरदरी, पथरीली जमीन पर फ़िर से आ-गिरीं। लेकिन, आज कुछ ऐसा है कि वह अतीत की जकड़न से रिहा होना नहीं चाहती हैं। वह आज खुली आँखों से अपने अतीत में उन सभी छोटी से छोटी से बातों को अपने सामने घटित होते हुए देखना चाहती हैं, जिन्हें वह कभी दुतकारकर अपने स्मृति पटल से हटा दिया करती थीं। एम.ए. इंगलिश में दाख़िला मिलने के बाद दीप्ति का वह पहला-पहला क्लास था जबकि क्लासरूम में घुसते वक़्त वह सामने से आ रहे प्रोफ़ेसर कपूर से टकरा गई थी। प्रोफ़ेसर के हाथों में सीने से चिपकी दो मोटी-मोटी किताबें नीचे गिर गई थी जिन्हें दीप्ति ने सहमते हुए खुद हटाकर उन्हें वापस सौंपा था; उसके होठ फड़फड़ाकर ज़्यादा कुछ न कह सकेः "आई ऐम सो सारई, सर!" प्रत्युत्त्तर में, प्रोफ़ेसर कपूर मुस्कराकर रह गए थे : "कोई बात नहीं। चलो! पहला इन्ट्रोडकशन तुम्हीं से हो गया। प्लीज़, योर गुड नेम..." दीप्ति तब तक तेज कदमों से चलते हुए क्लास में एक खाली सीट पर बैठती हुई शरमा-सी गई थी : "आई ऐम दीप्ति, सर..." उसे याद है कि प्रोफ़ेसर कपूर के साथ इस अप्रत्याशित मुलाक़ात पर सारे क्लास की नज़र थी। मोना जो बाद में दीप्ति से घुल-मिल गई थी, ने क्लास समाप्त जृहोने के बाद बाहर निकलते हुए दीप्ति से अपना कंधा टकरा दिया था, "प्रोफ़ेसर कपूर की तुम कुछ लगती हो क्या?" "क्लास में तो तुम उन्हें आँखें फ़ाड़-फ़ाड़कर देख् रही थी..." मोना ने सामने से आती हुई किसी सहेली को आँख मारते हुए दीप्ति पर जोर से व्यंग्य कसा। "नहीं, नहीं, तुम्हें बिल्कुल गलतफ़हमी हो गई है। दरअसल..." वह हकलाकर रह गई। "लेकिन, यह तुम्हारे लिए बेहद अच्छी खबर है कि प्रोफ़ेसर कपूर इज़ स्टिल बैचलर..." वह तेजी से आगे बढ़ गई थी। मोना के आशय को दीप्ति अच्छी तरह समझ गई थी। उस वक़्त वह गुस्से में पागल-सी हो रही थी। यह तो अच्छा हुआ कि मोना देज कदमों से चलते हुए बहुत दूर निकल गई; नहीं तो, दीप्ति बेशक, उसके गाल पर खुलेआम एक जोरदार तमाच रसीद कर देती। बहरहाल, उस दिन, उसका मूड खराब होने के कारण वह अन्य सारे क्लास छोड़कर वापस घर चली गई थी। दूसरे दिन, उसने डिपार्टमेंट में मोना के बारे में ढेर सारी जानकारियाँ बटोरी। उसको पता चला कि मोना पिछ्ले साल फेल हुई थी और उससे भी पहले तीन-चार वर्षों से बी.ए. अंग्रेज़ी की छात्रा रह चुकी थी। दीप्ति को यह अंदाज़ा लगाने में ज़्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी कि इतने सालों से युनिवर्सिटी में रहने के कारण उसकी न केवल प्रोफ़ेसर कपूर से काफ़ी नज़दीकियाँ बन चुकी होंगी, अपितु वह उनके प्रति बेहद आसक्त भी हो गई होगी। इस कारण, वह उन सभी लड़कियों से असामान्य रूप से पेश आती होगी जिन्हें वह प्रोफ़ेसर कपूर के करीब पाती होगी। लिहाजा, दीप्ति का दिमाग भी ठिकाने से काम नहीं कर रहा था। प्रोफ़ेसर कपूर से क्लासरूम के बाहर टकराना और फिर मोना का उस पर फ़ितरा कसना, उसके दिमाग में बार-बार कौंध रहा था। कपूर सर का चेहरा बाड़-बार उसके मन में चमक उठता था। 'क्या वह क्लासरूम में सचमुच उन्हें घूर-घूरकर देख रही थी? कुछ भी हो, भले ही वे उससे दोगुनी उम्र के होंगे, वह उनके आकर्षक व्यक्तित्व की और खिंचती चली जा रही है।' अगले दिन, डिपार्टमेंट की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए मोना उसे सामने ऐसे खड़ी मिली जैसेकि वह उसी से मुखातिब होने के लिए काफ़ी देर से वहाँ इंतज़ार कर रही हो। "यू हैव टेकेन माय वर्ड्स बाय हार्ट, सो सीरियसली! दरअसल, जब भी कोई लड़की प्रोफ़ेसर कपूर को प्यार से देखती है तो मुझे उसकी आँखें फोड़ देने का जी करता है..." दीप्ति को लगा कि जैसे मोप्ना उसे चुनौती दे रही हो कि प्रोफ़ेसर के प्रति किसी प्रकार का लगाव रखने का नतीज़ा बहुत बुरा होगा। वह मन ही मन मुस्कराने लगी, "यह मोना की बच्ची आख़िर ख़ुद को समझती क्या है कि मैं अपने डैडी की उम्र के आदमी से...? उफ़्फ़...!" लेकिन, उसे मोना की हालत पर भी तरस आने लगा, "आखिर, वह किन परिस्थितियों में पड़कर एक अधेड़ से इश्क़ फ़रमाने पर आमादा है?" वैसे भी पूरे डिपार्टमेंट में दोनों के बी संबंढों को लेकर चर्चा का बाज़ार हमेशा गर्म रहता था। लेकिन, निर्लज्ज मोना पर इसका कुछ भी प्रभाव पड़ने वाला नहीं था। पर, जैसाकि प्रायः देखने-सुनने में आता है कि जिस व्यक्ति से रार-तकरार होता है, उसी से दोस्ती भी कायम हो जाती है और दीप्ति एवं मोना के बीच भी कुछ ऐसा ही हुआ। दोनों के बीच उठना-बैठना, खाली पीरियड में लान में बैठकर बतरस का मजा लेना, कैंटीन जाकर साथ-साथ चाय-काफ़ी पीना और शाम को लाइब्रेरी का चक्कर लगाना आदि उनके रोजमर्रा की बातें हो गई। पर, दीप्ति के मन में मोना के प्रति जिज्ञासा में कोई कमी नहीं आई थी। वह सीधे-सीधे तो उससे प्रोफ़ेसर कपूर के साथ उसके संबंधों के बारे मॆं इनक्वायरी नहीं कर सकती थी। लिहाजा, ज़्यादातर मोना प्रोफ़ेसर कपूर के चैंबर में ही घुसी रहती। पता नहीं क्यों, दीप्ति भी उसका पीछा करने से बाज नहीं आ रही थी? एक दिन, उसने ठान लिया कि जब मोना प्रोफ़ेसर के चैंबर में होगी तो वह वहाँ घुसकर औचक निरीक्षण करेगी। उस दिन जब मोना काफ़ी देर बाद भी प्रोफ़ेसर के कमरे से नहीं निकली तो दीप्ति खुद को नहीं रोक सकी। वह कपूर सर से कुछ पूछने के बहाने दरवाज़े पर दस्तक दिए बिना, एक झटके से कमरे में दाख़िल हो गई। किंतु, उसने वहाँँ जो कुछ देखा, उससे उसे बड़ी आत्मग्लानि हुई; क्योंकि मोना, प्रोफ़ेसर से कोई दस फीट दूरी पर चेयर पर बैठी उनसे कुच्झ नोट्स ले रही थी। दीप्ति का सोचना तो उल्टा पड़ अगया, जैसाकि वह सोच रही थी कि मोना, प्रोफ़ेसर के आलिंगन में होगी, कुछ अंतरंग बाते हो रही होंगी, दोनों प्रेमालाप में लिप्त होंगे, वग़ैरह, वग़ैरह और वह इन सबका चश्मदीद गवाह बनेगी। प्रोफ़ेसर कपूर बड़ी तन्मयता से मोना को फ़ाइनल परीक्षा के बारे में खासी जानकारी दे रहे थे। उन्होंने दीप्ति को अचानक़ सामने देख, सिर्फ़ इतना कहा, "प्लीज़, यू शुड हैव नाक्ड, बिफ़ोर एन्टरिंग..." दीप्त "सारी सर" कहते हुए उनके इशारे पर मोना के बगल वाली चेयर पर बैठ गई और मोना के जाने का इंतज़ार करने लगी। कोई पाँच-सात मिनट बाद प्रोफ़ेसर ने मोना से कहा, "आई थिंक, यू हैव गाट सफ़ीशिएंट नोट्स। अब, तुम जाओ और एग्ज़ाम की तैयारी में जुट जाओ। आल दि बेस्ट।" उस क्षण, प्रोफ़ेसर के साफ़-सुथरे शब्दों ने दीप्ति के मन में मोना के प्रति जमे शक के मैल को धो डाला। बहरहाल, उसे पता नहीं क्यों, मोना से जो डाह होने लगी थी, उसकी तीक्ष्णता अब काफ़ी कम हो गई थी। मोना ने जाते-जाते पल-भर के लिए दीप्ति की आँखों में अर्थपूर्ण ढंग से झाँककर देखा कि "क्यों तुम मेरा टोह ले रही हो; मेरा प्रोफ़ेसर के साथ कुछ भी ऐसा-वैसा नहीं है" और वह प्रोफ़ेसर कपूर को "थैंक्स" कहते हुए बाहर निकल गई। मोना के जाने के बाद, दीप्ति प्रोफ़ेसर से मुखातिब हुई, "सर, फ़ाइनल्स के लिए मुझे भी कुछ नोट्स-वोट्स मिल जाते तो...तो...।" "हाँ, हाँ, क्यों नहीं? ऐसा करना कि आज शां को मेरे क्वार्टर पर आ जाना। मेरे पास कुछ पुराने नोट्स पड़े हुए हैं, वो तुम्हारे काम आ जाएंगे..." प्रोफ़ेसर बिना किसी लाग-लपेट के कुछ ऐसे बोले जैसेकि उनके पास पहले से ही यह उत्तर तैयार था। दीप्ति ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उसे प्रोफ़ेसर कपूर का ऐसा फ़ेवर मिलेगा। दरअसल, वह तो उनके चैंबर में किसी दूसरे मतलब से गई थी, प्रोफ़ेसर की हमदर्दी बटोरने नहीं, लेकिन, सारी बातें उलटी पड़ गईं। सो, वह बड़े असमंजस में थी कि कि वह शां को प्रोफ़ेसर कपूर के घर जाए या न जाए जबकि उन्होने उसे बड़े निश्चयात्मक लहजे में आने का निमंत्रण दे रखा है। वह सोच रही थी कि अगर वह प्रोफ़ेसर के यहाँ शाम को नहीं गई तो वह बड़ा बुरा मान जाएंगे और हो सकता है कि वह उनका स्नेह-भाव भी न खो दे। वह इतनी आसानी से किसी प्रोफ़ेसत की कृपा-पात्र बन पाई है--यह उसके कैरियर के लिए एक बड़ी उपलब्धि है! डिपार्टमेंट में हर प्रोफ़ेसर की चंपी-मालिश में कोई न कोई स्टूडेंट लगा हुआ है। यदि इस काम कोई छात्रा लगी हो तो उसके पीछे गरमागरम स्कैडल की कहानी भी चलती रहती है। देर तक उसके मन में अंतर्द्वंद्व चलता रहा था। शाम को हास्टल लौटकर करीब घंटे-भर वह उधेड़बुन में खोई रही। कतिपय सवालों का ज्वार-भाटा उसके दिमाग को झँकझोरता रहा--"आख़िर, प्रोफ़ेसर साहब ने अपने क्वार्टर पर ही उसे क्यों बुलाया और अंगर बुलाया भी तो शाम को ही क्यों...वे कल नोट्स तो खुद अपने साथ ला सकते थे...एक लड़की को अपने घर यूँ बुलाना और वह भी जाड़े की निचाट शां को कहाँ तक उचित है...वग़ैरह, वग़ैरह..." आख़िरकार, नकारात्मक सवालों के मकड़जाल को तर्कों ने कुतर डाला। उसने खुद को धिक्कारा, "कितनी बेवकूफ़ हो गई हो तुम? आख़िर प्रोफ़ेसर साहब तुम्हारे पिता की उम्र के हैं! इतना ही नहीं, वे एक सुलझे हुए सोच के बुद्धिजीवी व्यक्ति हैं। उनके बारे में अनापशनाप सोचना बिल्कुल ज़ायज़ नहीं है। दरअसल, मोना की उनके प्रति आसक्त होने की अनुचित धारणा ने ही उसे इस तरह सोचने के लिए विवश किया है। प्रोफ़ेसर कपूर तो मोना के प्रति भी पिता जैसा स्नेह-भाव रखते हैं। अब अगर मोना का ही दिल काला हो तो इसमें उनका क्या दोष? यों भी, उसे उनके घर जाने में किस बात का डर या संकोच है? भले ही वे अविवाहित हैं, वे घर में अकेले तो रहते नहीं होंगे। उनके भाई-बहन, भांजे-भांजियां भी तो उनके साथ रहते होंगे।" कोई नौ बज रहे थे और दीप्ति अभी भी किसी अदॄश्य भय से सहमी हुई थी। उसने घबड़ाहट में प्रोफ़ेसर कपूर के दरवाज़े पर एक नहीं, कई दस्तक दिए। चूँकि वह जाड़े की रात थी, इसलिए उनका घर बगीचे से घिरा हुआ एकदम भाँय-भाँय कर रहा था। घर की खिड़कियों से हल्की रोशनी छनकर आसपास के पेड़ों के झुरमुटों पर लहरा रही थी। घर के अंदर इतना सन्नाटा था कि दीप्ति को लगा कि शायद, प्रोफ़ेसर साहब घर में मौज़ूद नहीं हैं। फिर, उसने सोचा कि "आखिर, वह एक प्रोफ़ेसर के घर के सामने खड़ी है; निःसंदेह, उनके घर के सभी सदस्य शांतिप्रिय होंगे और इस वक़्त किसी न किसी प्रकार के पठन-पाठन, अध्ययन-मनन में व्यस्त होंगे...।" बेहद उबाऊ इंतज़ार के कोई तीन-चार मिनट बाद रोंगटे खड़े करने वाली चरमराहट के साथ दरवाज़ा खुला। प्रोफ़ेसर साहब ठीक दरवाज़े के सामने नज़र आए। चूंकि बिजली की रोशनी उनके पीछे पड़ रही थी इसलिए बरमुडा और टी-शर्ट पहने हुई एक आकृति ही उसे दे रही थी। पर, डील-डौल से वह आकृति बिलाशक प्रोफ़ेसर कपूर साहब की थी। पल-भर के लिए उसके बदन में झुरीझुरी-सी हुई कि तभी प्रोफ़ेसर ने टिप्प से बिजली की स्विच दबाकर प्रवेश-द्वार पर हरी रोशनी बिखेर दी। "आई वाज़ ईगरली वेटिंग फ़ार यू। व्हाय वर सो डिलेड...?" उन्होंने एक रोबोट की भाँति उसे अंदर आने का इशारा किया। दीप्ति अवाक रह गई कि प्रोफ़ेसर इतनी बेचैनी से उसकी प्रतीक्षा क्यों कर रहे थे। लिहाजा, उन्होंने 'फ़िस्स' से मुस्कराते हुए खुद को सहज बनाने की कोशिश की। कोई दस फीट लंबा और पाँच फीट चौड़ा गैलरीनुमा रास्ता तय करते हुए वह उनके पीछे-पीछे ड्राइंग रूम में दाखिल; हुई। उसे हैरत हुआ कि प्रोफ़ेसर का घर इतना सज़ा-संवरा है कि कोई यह नहीं कह सकता कि वे शादी-शुदा नहीं हैं और उनके घर में कोई औरत नहीं रहती। निःसंदेह, उनकी रिश्तेदारी में कोई बुजुर्ग महिला उनकी देख-रेख में लगी रहती होगी। अन्यथा, उनके साथ उनकी कोई छोटी बहन या भतीजी तो उनकी और उनके परिवार की देखभाल के लिए रहती होगी। चलो, इसी बहाने उसकी एक नई दोस्त भी बन जाएगी। वैसे भी, प्रोफ़ेसर साहब की इतनी अच्छी तनख़्वाह है कि वे कोई आया या मेहरी घर की रखवाली और व्यवस्था के लिए रख ही सकते हैं। लेकिन, घर के अंदर घुप्प सन्नाटा भाँपकर दीप्ति के रोएं भय से खड़े हो गए। वह जब तक ड्राइंग रूम में खड़े होकर पूरे घर का जायज़ा ले रही थी कि वह सहम गई; क्योंकि प्रोफ़ेसर वहीं खड़े-खड़े उसे बड़े ग़ौर से देख रहे थे। जब उसने उन पर निग़ाह डाली तो उनके उजले चेहरे पर भूरी-भूरी मूछों के नीचे बेहद गुलाबी होठ मुस्कराने के अंदाज़ में कानों तक खिंच गए। दीप्ति पल भर के लिए जैसे सम्मोहिनी पाश में बिंध गई। उन्होंने अपना अनुरोध जताया, "बैठ जाओ, ना...दीप्ति!" जिस अपनत्व भाव से उन्होंने उससे बैठने का आग्रह किया था, वह उसे बिल्ल्कुल पसंद नहीं आया। वह किसी आशंका से काँप रही थी। "सर, पहले ही बहुत देर हो चुकी है, मुझे वो नोट्स दे दीजिए..." उसने बेझिझक अपने आने का उद्देश्य प्रकट कर दिया। प्रोफ़ेसर की ज़ुबान फिसलती-सी लगी, "अरे, याद ही नहीं रहा, वो नोट्स तो मैंने मोना को दे रखे हैं। कल क्लास में उससे सारे नोट्स वापस लेकर तुम्हें दे दूंगा। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि तुम मेरे नोट्स पढ़कर युनिवर्सिटी टाप करोगी। मैं जानता हूँ कि तुम एक अच्छे कैलीबर की स्टूडेंट हो। तुम्हारे सामने तो मोना ज़ीरो है...।" दीप्ति को लगा जैसेकि प्रोफ़ेसर उससे कोई बहाना बना रहे हैं। लिहाजा, उसे बीच में मोना का ज़िक्र बिल्कुल बेस्वाद-सा लगा। फिर, उसे मोना से ईर्ष्या होने लगी कि कुछ भी हो, कपूर सर की पहली प्राथमिकता तो मोना ही होगी। मोना के सामने उसकी क्या बिसात? वह सोफ़े के किनारे हत्थे पर अपना हाथ टिकाते हुए बैठ गई। वह सोच रही थी कि अभी प्रोफ़ेसर आवाज़ देकर घर के अंदर से किसी को बुलाएंगे और कहेंगे कि 'देखो, मेरी एक स्टूडेंट आई है; इसे पानी पिलाओ, इसके लिए चाय बनाओ।' पर ऐसा नहीं हुआ। वे स्वयं अंदर गए। उसी समय बर्तनों की खनखनाहट से दीप्ति को थोड़ा ढाँढस मिला कि यह खनखनाहट साबित करती है कि घर में कोई महिला मौज़ूद है। इस दौरान, उसने ड्राइंगरूम की दीवारों पर लगी तस्वीरों को बारी-बारी से देखा। सभी तस्वीरों में पतझड़ या मरुस्थल के दृश्य थे और हरेक में कहीं न कहीं या तो किसी सूखे पेड़ के नीचे या सूखे झरने के बीच अथवा किसी खुरदरे चट्टान पर नितांत अकेली कमनीय युवती ज़रूर नज़र आ रही थी। उनका निहिताशय दीप्ति के मर्मस्थल को छू गया। उसने स्वयं से सवाल किया, "जब कपूर सर को औरत की इतनी चाह थी तो उन्होंने...।" फिर, उसकी निगाह एक्वेरियम में कुलांचे मारती एक अदद मछली पर पड़ीं। बेशक! उक्त मछली या तो अकेली होने या उस कैदखाने से मुक्ति पाने के लिए बेहद बेचैन लग रही थी। उसे लगा कि इन सारी चीज़ों के पीछे प्रोफ़ेसर साहब का कोई विशेष इरादा है। उसकी तंद्रा टूट गई क्योंकि तब तक प्रोफ़ेसर गिलास-भर पानी उसके आगे रखते हुए मुस्कराते नज़र आ रहे थे। "सर, इतनी तकलीफ़ क्यों की...?" संकोच दीप्ति के ज़ुबान को नहीं रोक सका। "तुम इस समय मेरी बुलाई हुई मेहमान हो; हाँ, मेहमान हो..." प्रोफ़ेसर ने एक युवक की भाँति अपने कंधे उचकाए। दीप्ति को लगा कि वे कुछ कहना चाह रहे हैं; उनकी शख्सियत यह साबित कर रही थी कि इस उम्र में भी उनके भीतर एक युवक ज़िंदा है जो वास्तव में बीस-पच्चीस साल के लड़के में मौज़ूद रहता है। पल भर के लिए वह उन्हें देखते हुए चाहकर भी अपनी नज़रें न हटा सकी। प्रोफ़ेसर सोफ़े के दूसरे छोर पर बैठ गए। दीप्ति को अहसास हुआ कि जैसे प्रोफ़ेसर ने उसे छूकर संज्ञाशून्य बना दिया हो। उसे लगा कि प्रोफ़ेसर जे कुछ कहना चाह रहे हैं, वह उनकी ज़ुबान से नहीं फूट पा रही है। बेशक! वह बातें करने के मूड में थे। लेकिन, दीप्ति तो चाहती थी कि कब प्रोफ़ेसर उसे जाने की इज़ाज़त दें और कब वह वहाँ से भाग खड़ी हो। उसने भरपूर नज़र से कुलांचे मारती मछली को देखा; फिर, दीवारघड़ी की पर निग़ाह डाली कि अभी उसे आए हुए दस मिनट से ज़्यादा नहीं हुए हैं जबकि उसे यह समय कई घंटों के बराबर लग रहा था। वह असमंजस की लहरों में डूबती-उतरा रही थी। वह सशंकित थी कि अभी प्रोफ़ेसर उसके बगल में आकर बैठ जाएंगे और...पर, वह तो सोफ़े के उस छोर पर बैठे पता नहीं, किस मनःस्थिति में पड़े हुए थे। आख्गिर, वह वहाँ से उठकर कहीं और...उसे ख़ामोशी सामने साँप की तरह रेंगती हुई आतंकित कर रही थी। अचानक, वह उठ खड़ी हुई, "सर, मैं जा रही हूँ। कल डिपार्टमेंट में आपसे मिल लूंगी...।" "अरे चाय बना रहा हूँ, पीकर जाना..." उसके जाने के अचानक फैसले से वह अचकचाकर रह गए। लेकिन, दीप्ति तो उस निचाट बेला में एक ऐसे पुरुष से पिंड छुड़ाने के ज़द्दोज़हद में लगभग भागती हुई-सी बाहर की और लपकी जिसके ड्राइंगरूम में अकेली भटकती युवतियों की तस्वीरें लगी हुई हैं। "नो सर, किसी और दिन, आज नहीं...।" उसने नकारात्मक की एक फौलादी दीवार खड़ी कर दी। इसके पहले कि प्रोफ़ेसर 'क्यों' का सवालिया निशान लगाते, वह गैलरी पारकर, बगीचे की झुरमुटों के बीच से तेजी से गुजरते हुए मुख्य मार्ग पर आ गई। वह सहमी-सी थी कि कहीं प्रोफ़ेसर कहीं उसके आगे कूदकर न आ जाएं और यह न कहने लगें कि 'चाय पीए बग़ैर तुम्हें यहाँँ से टस से मस न होने दूंगा।' तभी उसे अंदेशा हुआ कि कोई उसके पीछे-पीछे आ रहा है। उसने कौतुहलवश पीछे मुड़कर देखा कि उसके साथ-साथ झुरमुटों से निकल कर कोई लड़की उसकी विपरीत दिशा में जा रही है। बेशक! उसका डील-डौल उसे कुछ-कुछ जाना-पहचाना सा लगा। वह अपने दिमाग पर जोर देती रही कि आख़िर, वह लड़की हो कौन सकती है...। अगले दिन, डिपार्टमेंट में दीप्ति के साथ जो कुछ हुआ, उसका उसे पूर्वानुमान नहीं था। भट्टाचार्य सर का क्लास अटेंड करने के बाद दीप्ति के कदम अपने-आप ही प्रोफ़ेसर कपूर के चैंबर की और बढ़ने लगे। नि:संदेह, उसे पिछली रात को प्रोफ़ेसर के क्वार्टर से बिल्कुल अफ़रातफ़री में निकलने पर पछतावा हो रहा था जिसके लिए वह उनसे 'सारी' कहना चाह रही थी। किंतु, उनके चैंबर के पास पहुंचकर उसके पाँव ठिठक गए। उसे बाहर से ही प्रोफ़ेसर की आवाज़ साफ सुनाई दे रही थी, "नो, नो, आइ कांट डू व्हाट यू वांट। आइ कांट ऐक्सेप्ट यू..." तभी चैंबर में से एक झटके से मोना बाहर निकली। उसके बाल अस्त-व्यस्त थे और चेहरा गुस्से से तमतमाया हुआ था। निःसंदेह, प्रोफ़ेसर और उसके बीच कुछ अप्रत्याशित कहा-सुनी हुई थी। जब उसने दीप्ति को बाहर खड़ा देखा तो वह बेकाबू हो गई। इसके पहले कि दीप्ति सम्हलती, उसने दोनों हाथों से उसका कंधा पकड़कर प्रोफ़ेसर के चैंबर में जोर से धकेल दिया। इस बीच अगर प्रोफ़ेसर कपूर सामने न आ जाते तो वह सामने टेबल से टकरा जाती। लेकिन, प्रोफ़ेसर ने बड़ी फुर्ती से उसे अपनी बाँहों में थामते हुए उसे ज़ख्मी होने से बचा लिया। प्रोफ़ेसर कपूर दीप्ति को आहिस्ता-आहिस्ता उठाकर बाजू वाली कुर्सी पर बैठाते हुए सफाई देने लगे, "बस, यह जो मोना है ना, बड़ी ज़िद्दी लड़की है। मैंने उससे सिर्फ़ नोट्स वापस मांगे थे; लेकिन, वह एकदम से नाराज़ हो गई। भला, एक प्रोफ़ेसर से किसी स्टूडेंट से इस तरह बिहेव करना अच्छा लगता है क्या?" दीप्ति को तो यह सब कुछ इतना अज़ीबोग़रीब लग रहा था कि वह उससे कुछ कहते नहीं बना। वह मोना के इस अप्रत्याशित दुर्व्यवहार से बेतहाशा काँप रही थी और सोच रही थी कि मोना उससे इस तरह पेश क्यों आई। उसने मन ही मन कहा, "मुझे इन सब बातों से क्या लेना-देना?" उसे सारी बातें समझ में आ रही थी। उसे इस नतीज़े पर पहुँचने में ज़्यादा माथा-पिच्ची नहीं करनी पड़ी कि प्रोफ़ेसर और मोना के बीच क्या चल रहा है। बहरहाल, उसे यह सोच कर कोफ़्त होने लगा कि वह बिलावज़ह मोना की ईर्ष्या की शिकार होती जा रही है। उसे बार-बार यह पछतावा हो रहा था कि उसने नाहक दोनों के बीच आने की ज़ुर्रत की। उस वक़्त वह अपराध-बोध से भी ग्रस्त थी कि कहीं प्रोफ़ेसर यह न समझ बैठे कि वह जान-बूझकर मोना का स्थान लेना चाह रही है। उसने स्वयं को संयत किया, "सर, मैं तो यहाँँ कल रात की आपकी चाय न पीने के लिए सिर्फ़ 'सारी' कहने आई थी।" जब वह उठकर चलने को हुई तो प्रोफ़ेसर कपूर के शब्दों ने उसके कदमों को थाम लिया, "अरे, ल्कोई बात नहीं,कल की बकाया चाय आज काफ़ी से चुकता कर देते हैं।" उसके बाद जब उन्होंने कालबेल बजाकर पियन को बुलाया और उसे दो कप काफ़ी लाने का निर्देश दिया तो दीप्ति को कुर्सी पर बैठते हुए बड़ा ताज़्ज़ुब हो रहा था कि प्रोफ़ेसर साहब को अपनी स्टूडेंट द्वारा अपना अपमान किए जाने का उतना मलाल नहीं है जितना होना चाहिए था। उस दिन के बाद मोना कई दिनों तक डिपार्टमेंट नहीं आई। दीप्ति सोच रही थी कि मोना और प्रोफ़ेसर के बीच जो शीतयुद्ध चल रहा है, उसकी ज़िम्मेदार वह स्वयं है। पर, इस दरमियान, प्रोफ़ेसर कपूर रोज दीप्ति को अपने चैंबर में बुलाकर उसे फाइनल परीक्षा के बारे में टिप्स देने से बाज नहीं आ रहे थे। इसके समानान्तर, डिपार्टमेंट में यह अफ़वाह भी जोर पकड़ता जा रहा था कि दीप्ति ने मोना का स्थान ले लिया है। एक शाम, डिपार्टमेंट की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए दीप्ति को मोना अपने हाथ में एक बैग लिए हुए बड़ी बेचैन-सी दिखी। यद्यपि दोनों की नज़रेंपल भर के लिए टकराई थीं, फिर भी वह मोना को नज़रअंदाज़ करते हुए उलटी दिशा में बढ़ ही रही थी कि वह एकदम से उसके सामने आ शमकी, "ये लो, इसमें प्रोफ़ेसर कपूर के वे नोट्स हैं जिन्हें उन्होंने मुझे दिए थे। इन्हें खूब तसल्ली से पढ़ना और युनिवर्सिटी टाप करना।" लेकिन, दीप्ति के यह कहने से पहले ही कि "बेहतर होगा कि वह इन नोट्स को प्रोफ़ेसर के हवाले ही करे," वह बैग उसके हाथ में जबरन थमाते हुए तेज कदमों से वापस लौट गई जबकि दीप्ति चिल्लाती रह गई, "सिर्फ़, एक मिनट को रुकना, बस, एक मिनट को, मुझे तुमसे कुछ बड़ी ज़रूरी बातें करनी हैं। इस बैग को तुम प्रोफ़ेसर के ही सिपुर्द करना और..." दीप्ति की ज़ुबान से और लफ़्ज़ नहीं फूट पाए। वह ठग़ी-सी रह गई। वह वापस कपूर सर के चैंबर तक गई। लेकिन, तब तक बहुत देर हो चुकी थी, प्रोफ़ेसर कपूर घर जा चुके थे। उसने माथा पकड़ लिया, "प्रोफ़ेसर की इज़ाज़त के बग़ैर मैं बैग को हास्टल तक ले जाऊं तो कैसे ले जाऊं?" पर, हास्टल लौटकर वह नोट्स देखने की बेताबी पर काबू नहीं रख सकी। उसने नहीं, उसके कौतुहल ने बैग खोला तो उसमें बेहद मोटी एक सज़िल्द नोटबुक मिली। जब उसने उस नोटबुक के पन्ने उलटने शुरू किए तो उसके तो होश हई फ़ाख़्ता हो गए। वह वास्तव में कोई नोटबुक नहीं, बल्कि मोना द्वारा प्रोफ़ेसर कपूर को लिखे गए सैकड़ों प्रेम-पत्रों की फोटो कापियों का पुलिंदा था। दीप्ति सोच में पड़ गई कि उसे प्रेम-पत्रों का पुलिंदा सौंपने के पीछे मोना का इरादा क्या है। वह देर रात तक बारी-बारी से उन पत्रों को पढ़ती रही और अंततोगत्वा इस निष्कर्ष पर पहुँची कि मोना, प्रोफ़ेसर के प्रति इकतरफ़ा प्रेम में दीवानगी की सारी सरहदें लांघ चुकी है। तभी, दीप्ति के हाथ एक ऐसा पत्र भी लगा जिसमें वह प्रोफ़ेसर के साथ जिस्मानी रिश्ता बनाने में फ़तह हासिल कर बेहद इतरा रही थी। लेकिन, उस पुलिंदा का आख़िरी पत्र पढ़कर दीप्ति को तो जैसे साँप सूंघ गया; जैसे उसके ऊपर बिजली गिर गई हो। हाँ, वह आख़िरी पत्र पिछले हफ़्ते प्रोफ़ेसर द्वारा मोना के नां लिखे एकमात्र पत्र की मूल प्रति थी जिसमें उन्होंने मोना को साफ-साफ बता दिया था कि वे उसे सपने में भी चाहने की गलती नहीं कर सकते। लेकिन, अब उनकी अपनी बरसों की तलाश ख़त्म हो चुकी है। उन्हें जिस प्रेम की चाह थी, वह उन्हें दीप्ति में मिल चुकी है और वे उसे पाने के लिए अपनी ज़िंदगी तक दांव पर लगाने में नहीं हिचकेंगे। उस रात दीप्ति की आँखों से नींद नदारद थी। वह बेहद कश्मकश्म में थी कि उसे अब क्या करना चाहिए। वह इस आशंका से सहमी हुई थी कि एक-दो दिन में ही प्रोफ़ेसर कपूर उससे विवाह का प्रस्ताव भी कर देंगे। तब, वह क्या करेगी? जी में तो आ रहा था कि वह अपनी पढ़ाई बीच में ही अधूरी छोड़कर वापस घर चली जाए। निश्चित तौर पर उसकी कैरियर दांव पर लगी हुई थी। लेकिन, मोना के लिए उसके मन में हमदर्दी भी पैदा हो रही थी, जिससे उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। ऐसे में, अब उसकी ज़िम्मेदारी यह बन रही थी कि वह किसी न किसी तरह मोना के प्रति प्रोफ़ेसर कपूर के सख़्त रवैये मं बदलाव लाकर उनका उससे मिलाप करा दे। इसलिए, उसने निश्चय किया कि कल वह डिपार्टमेंट न जाकर सीधे मोना के घर जाएगी और उसकी गलतफ़हमी को दूर कर, कल शाम को ही उसकी मुलाकात प्रोफ़ेसर से उनके क्वार्टर पर करवाएगी। सुबह, हास्टल से निकलते ही आँधी-झंझावात के साथ पहले तो ओले पड़े; फिर, तेज बारिश शुरू हो गई। किंतु, दीप्ति इन सबकी परवाह किए बिना बारिश में भींगते हुए मुश्किल से एक आटोरिक्शा पकड़कर मोना के घर की और निकल पड़ी। लेकिन, वहाँ पहुंचकर उसे घोर निराशा ही हाथ लगी क्योंकि मोना के घर पर ताला पड़ा हुआ था। पड़ोसियों से पूछने पर पता चला कि उसने जाते वक़्त किसी को कुछ भी नहीं बताया कि वह कहाँ जा रही है और कब तक वापस आएगी जबकि वह युनिवर्सिटी भी जाया करती थी तो उनसे मिलकर ही... घर में वह अकेली ही रहा करती थी क्योंकि कोई पाँच साल पहले उसके मम्मी-डैडी की एक भीषण कार दुर्घटना में दर्दनाक मौत हो गई थी। कोई हफ़्ते भर दीप्ति ने अपना सारा समय मोना की तलाश में ही गुजार दिए। उसने डिपार्टमेंट के चक्कर भी इस फिराक में लगाए कि शायद, मोना से उसकी मुलाकात हो ही जाए। पर, उसे आफिस से यह जानकर बड़ा अफ़सोस हुआ कि मोना ने हमेशा के लिए डिपार्टमेंट छोड़ दिया है। इस दौरान, दीप्ति प्रोफ़ेसर कपूर से लगातार कतराती रही और जानबूझकर उनकी कक्षा से ग़ैरहाजिर रहती रही जबकि उसे सिर पर मंडराते फाइनल एग्ज़ाम की तैयारी की चिंता भी खाए जा रही थी। आख़िरकार, उसने एक तरकीब सोची कि क्यों न वह मेडिकल लीव लेकर हास्टल में ही फाइनल की तैयारी में जुट जाए। उसे छुट्टी लिए हुए कोई चार-पाँच दिन ही बीते थे कि सुबह उसके दरवाजे पर दस्तक ने उसका सुकून छीन लिया। उसने दरवाजा खोलते ही अपने सामने प्रोफ़ेसर कपूर को खड़ा पाया। वह विस्मय से उन्हें देखते हुए अवाक रह गई क्योंकि उसे यह कतई यकीन नहीं हो रहा था कि प्रोफ़ेसर कपूर यहाँ तक आ जाएंगे। उसे उनकी हुलिया देखकर भी बड़ी हैरानी हो रही थी क्योंकि उनकी दाढ़ी बेतरतीब बढ़ी हुई थी, बदन पर सिर्फ़ कुर्ता-पायजामा था और पैरों में हवाई चप्पल। वे देखने से एकदम बीमार-से लग रहे थे। प्रोफ़ेसर कपूर ने ठंडी खामोशी को तोड़ते हुए बड़ी निरीह आवाज़ में आग्रह किया, "दीप्ति, क्या मुझे अंदर आने को नहीं कहोगी?" दीप्ति ने रास्ता दिया तो वह सीधे आकर कुर्सी पर बैठ गए। दीप्ति गुमसुम खड़ी कोई प्रतिक्रिया नहीं कर पा रही थी। "मुझे कल मोना की एक चिट्ठी मिली थी। वह इस समय कहाँ है, मुझे यह तो नहीं पता है। पर, उसने उस रहस्य का तुमसे खुलासा कर ही दिया, जो मेरे मन में काफी समय से दफ़्न था और जिसे बताने में मुझे इतने साल लग जाते कि मैं पूरी तरह विवाह के नाकाबिल हो जाता। इस वक्त,मैं सिर्फ़ इतना कहने आया हूँ कि अगर तुम मुझे कबूल कर सको तो मेरा जीवन सार्थक हो जाएगा।" वह सिर झुकाकर भावुक से हो गए। दीप्ति उनके इस अप्रत्याशित अनुरोध को सुनकर घड़ों पानी से नहा गई। उसे लगा कि उसके होठ क्विकफ़िक्स से चिपका दिए गए हैं और वह लाख कोशिश करके भी कुछ भी नहीं कह पाएगी। बाहर से आती हुई कंपकंपाने वाली ठंडी बयार में भी वह पसीने से नहाई जा रही है। "हाँ या नहीं, कुछ भी तो कहो," प्रोफ़ेसर की आवाज भर्रा उठी।
दीप्ति बड़ी मुश्किल से चिपके होठों को अलग कर पाई, "सर, मैं कई दिनों से सिर्फ मोना के बारे में ही सोच-सोच कर पागल हुई जा रही हूँ। भला! उसका हक़ मैं कैसे मारूँ? "मुझे भी मोना के अंधे प्रेम के बारे में सोचकर बड़ा अफ़सोस हो रहा है। काश, वह..." प्रोफ़ेसर के लफ़्ज़ उनके मुंह में ही दुबके ही रह गए। "सर, काश क्या? क्या मोना ने सुसाइड..." दीप्ति लगभग चींख उठी। "नहीं, नहीं, उसने ख़ुदकुशी नहीं की। मुझे पता चला है कि उसने अपने किसी पत्रकार दोस्त से कोर्ट मैरिज कर ली है। उसने यह सब बड़े फ़्रस्ट्रेशन में किया है।" प्रोफ़ेसर की आवाज डूबती-सी लगी। "ओफ़्फ़, यह अच्छा नहीं हुआ। वह तो आपसे बेइन्तेहा..." दीप्ति ने अपने दाएं हाथ से अपनी दोनों आँखें ढंक कर सिसकने लगी। "हाँ, मुझे अब जाकर अहसास हुआ कि वह मुझसे कितना...ख़ैर..." चुप्पी ने फिर संवादहीनता की मोटी चादर फैला दी। दीप्ति दीवान पर औंधे-मुँह घुटनों के बीच सिर छिपाकर बैठ गई। प्रोफ़ेसर ने चुप्पी पर फिर लफ़्ज़ों का प्रहार किया, "मैं तुम्हें लेकर बहुत संजीदा हो गया हूँ। आइ फील शाइ टू से कि यह फ्लर्टेशन नहीं, बल्कि कटु सच है कि मैं उम्र की इस दहलीज़ पर बिल्कुल इन्फैचुएटिड हो गया हूँ..." उनके शब्द सुनकर दीप्ति की सिसकियाँ लगभग रुलाहट में तबदील हो चुकी थी। अगले दिन, फिटनेस सर्टिफिकेट लेकर जब दीप्ति ने देर से डिपार्टमेंट में कदम रखा तो वहाँ छाए सन्नाटे से इसे किसी अनिष्ट का संकेत दिया। किसी ख़ास वज़ह से डिपार्टमेंट में कोई नज़र नहीं आ रहा था। सारे क्लासरूम भाँय-भाँय कर रहे थे। खड़ी दुपहरी में ही आधी रात की डरावनी ख़ामोशी फैली हुई थी। स्टूंडेंट्स का कहीं अता-पता नहीं था। दीप्ति झट हेड साहब के चैंबर में गई और बेतकल्लुफ़ बोल उठी, "आज किस वज़ह से डिपार्टमेंट में चिड़िया तक पंख नहीं मार रही है?" उस वक़्त हेड साहब की नाक पर मक्खी तक बैठने का दुस्साहस नहीं कर सकती थी क्योंकि दीप्ति को देख, पता नहीं क्यों वे दाँत भींच रहे थे। उन्होंने इशारे से कहा, "ग़ेट आउट।" दीप्ति से रहा नहीं गया। पहले वह प्रोफेसर कपूर के चैंबर में जाना चाह रही थी। लेकिन, वह सीधे हेड क्लर्क के कमरे में गई और पूछ बैठी, "गुप्ताजी! आज कोई ख़ास वाक़या हुआ है क्या?" "प्रोफेसर कपूर नहीं रहे," हेड क्लर्क ने रुमाल से अपनी आँखें पोछी। "क्या?" दीप्ति इतनी तेज चींखी कि उसकी गूँज से खिड़की के बाहर मुंडेर पर बैठे सारे कौवे उड़ गए। "हाँ, वह अपने ड्राइंगरूम में कुर्सी पर लुढ़के हुए थे जबकि उनका सिर मेज़ पर टिका हुआ था और सिर के नीचे एक कागज़ दबा हुआ मिला जिस पर उनकी हैंडराइटिंग में तुम्हारा नाम दीप्ति भटनागर लिखा हुआ था।" "तो..." दीप्ति का मुँह ताज्जुब से खुला रह गया। "अब पुलिस यह तफ़्शीश कर रही है कि उनकी मौत से तुम्हारा क्या सरोकार है। अभी उनकी बाडी के पोस्टमार्टम की रिपोर्ट आनी है। तभी, उनकी मौत की गुत्थी सुलझ पाएगी।" हेड क्लर्क ने इसे पुलिसियाना अंदाज़ में बड़े संदेह से घूरकर देखा। दीप्ति को लगा कि उसके शरीर का सारा खून जम गया है। वह डिपार्टमेंट की सीढ़ियों पर बैठकर तब तक प्रोफ़ेसर कपूर की याद में सिर खपाती रही जब तक कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट नहीं आ गई। शाम को वाइस चांसलर को पोस्टमार्टम रिपोर्ट सौंपी गई। प्रोफेसर कपूर की मौत हार्ट अटैक से हुई थी। चूँकि प्रोफ़ेसर के साथ दीप्ति का नाम जुड़ गया था, इसलिए उसे पुलिस के सामने पेश किया गया। उसने मोना के प्रेम-पत्रों का पुलिंदा पेश करते हुए अपना इकबालिया बयान दिया कि 'मोना के इकतरफ़ा प्यार ने उन्हें बड़े तनाव में डाल रखा था क्योंकि वे उसे नहीं चाहते थे। वे वास्तव में मुझसे शादी करना चाहते थे जबकि मैं अपने घरवालों की इजाज़त के बिना अपने पिता की उम्र के व्यक्ति से कैसे विवाह को राज़ी हो सकती थी?' उस घटना के बाद कोई दूसरी छात्रा होती तो वह युनिवर्सिटी छोड़ देती। लेकिन, लांछित दीप्ति ने अफ़वाहों के साए में अपनी पढ़ाई जारी रखी। उसने एम.ए. करने के बाद वहीं से डाक्ट्रेट किया और प्रोफ़ेसर के रूप में चयनित होकर अध्यापन करने लगी। लेकिन, उसने आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प कभी नहीं तोड़ा। दरवाजे पर तेज दस्तक ने प्रोफ़ेसर दीप्ति को यादों की गली-वीथियों से निकालकर चौरस वर्तमान की जमीन पर फिर ला पटका। उन्होंने घुटने सहलाते हुए सिटकनी खोली और सामने अवनीत को देखकर अपना होश खो बैठी। जिन यादों का खुमार अभी भी चढ़ा हुआ था, उनके उन्माद ने उसे ग़ाफ़िल-सा बना दिया। "आइए प्रोफ़ेसर कपूर! कितने बरसों से मैं आपकी राह देखते-देखते थक गई हूँ। इतना लंबा इंतज़ार कराकर आपको क्या मिला? मैं तो उसी दिन से आपसे बेइंतेहा प्यार करने लगी थी, जिस दिन आपसे मैं क्लासरूम के बाहर टकराई थी। उस क्षण आपके स्पर्श से मुझमें जो सिहरन पैदा हुई थी, वह आज भी मुझे लगातार रोमांचित कर रही है। आपने सोचा होगा कि आपकी ग़ैर-हाजिरी में मैं अपनी ज़िंदगी जी लूंगी। लेकिन, आपके बग़ैर तो आज तक मैं ज़िंदा लाश बनी आवारों की तरह भटकती रही हूँ। अब आपकी बाँहों में आकर मैं फिर से जी उठूंगी। हाँँ, अब मुझे खुद से दूर रखने की चूक कभी मत कीजिएगा; वरना मर जाऊंगी..." अवनीत प्रोफेसर दीप्ति के बावलेपन में बोले गए अलपटप शब्दों से बिल्कुल विचलित हुआ जा रहा था। उसकी समझ में आ गया कि प्रोफ़ेसर कपूर क्को याद कर वह स्वयं पर से अपना नियंत्रण खो चुकी हैं और उसमें उन्हें प्रोफ़ेसर कपूर ही नज़र आ रहे हैं। इसके पहले कि वह प्रोफ़ेसर दीप्ति को उस उन्माद के बहके घोड़े से उतारकर शुष्क वर्तमान की जमीन पर खड़ा करने के लिए उन्हें झँकझोरता और यह अहसास दिलाता कि वह प्रोफ़ेसर कपूर नहीं, बल्कि कुदरत का एक करिश्मा है यानी उनका हमशक़्ल--अवनीत रेड्डी है, वे उससे लिपटकर उसके चेहरे को दोनों हाथों से पकड़कर बेतहाशा चूमने लगीं, "आई लव यू तू मच, रियली फ़ैदमलेसली, मिस्टर कपूर...।" अवनीत को आश्चर्य हो रहा था कि उसके लाख कोशिश करने के बावज़ूद, वह प्रोफ़ेसर दीप्ति से खुद को मुक्त नहीं कर पा रहा है। बेबस होकर उसने पीछे दरवाजे पर खड़ी अपनी माँ की और लाचारी से देखा जिन्हें वह प्रोफ़ेसर दीप्ति के बारे में सारी बातें सिलसिलेवार और ब्योरेवार बताकर अपने साथ ले आया था। बल्कि, उसकी माँ ही प्रोफ़ेसर दीप्ति में दिलचस्पी लेते हुए अवनीत के साथ आने को तैयार हो गई थी. अवनीत की माँ अपना पल्लू कमर में कसते हुए प्रोफ़ेसर दीप्ति कॊ और बड़ी चपलता से झपटी और एक झन्नाटेदार तमाचा उनके गाल पर जड़ दिया। प्रोफ़ेसर दीप्ति ने उस अप्रत्याशित तमाचे से तिलमिलाकर अवनीत को अपनी जकड़ से रिहा तो कर दिया; लेकिन, वे अवनीत की माँ को देखते ही चीख उठी, "अरे, मोना! तुम और यहाँ और वह भी इतने मुद्दत बाद?" प्रोफ़ेसर दीप्ति बेशक! स्वएगीय कपूर की यादों के उन्माद से आज़ाद होकर पूरी तरह होश में आ चुकी थीं। "हाँ, मैं वही मोना हूँ, दीप्ति! तुम मेरी गुनहगार हो जिसने मेरे प्रेमी को मुझसे छीन लिया था और जिन्होंने मेरे ग़म में ख़ुदकुशी कर ली थी..." अवनीत की माँ इतनी जोर से बोली कि उसकी गरदन की सारी नसें ही तन गईं। "और यह कौन है?" प्रोफ़ेसर दीप्ति ने गाल पर उभर आए अंगुलियों के निशान को सहलाते हुए अवनीत की और इशारा किया। "यह मेरा बेटा, अवनीत है; प्रोफ़ेसर कपूर नहीं। तुम्हें तो चुल्लू-भर पानी में डूब मरना चाहिए कि तुम अपने बेटे की उम्र के बराबर लड़के से इश्क़ फ़रमाने की गुस्ताखी कर रही हो..." मोना की आँखें नफ़रत का दहकता लावा उगल रही थीं। "पर, इसके प्रोफ़ेसर के हमशक़्ल होने का राज क्या है?" प्रोफ़ेसर दीप्ति के इस सवाल ने मोना के मन में अपराध-बोध का बवंडर चला दिया। "अवनीत सिर्फ़ मेरा बेटा है, मेरा और राजीव रेड्डी का बेटा है। तुम्हारा मतलब क्या है?" उसकी आवाज़ में सीलन-सी आ गई। "मेरे कहने का मतलब तुम अच्छी तरह समझती हो। अवनीत का पिता कौन है, इसका सबूत तुम्हारा पत्र है जिसमें तुमने खुद कबूला है कि तुमने प्रोफ़ेसर कपूर से संबंध बनाया था। वैसे, तुम्हें यह जान लेना चाहिए कि मैं तुम्हारे और प्रोफ़ेसर कपूर के बीच कभी नहीं आना चाहती थी। यक़ीन मानो, जिस दिन तुम अपने प्रेम-पत्रों का पुलिंदा सौंपकर गई थी, उस दिन से मैं लगातार कई दिनों तक तुम्हें कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढती फिरी? जब तुम नहीं मिली तो मैम डिपार्टमेंट से तौबा कर हास्टल में ही फाइनल्स की तैयारी में जुट गई। लेकिन, एक दिन कपीऊर सर ने ख़ुद मेरे कमरे पर आकर मुझसे विवाह का प्रस्ताव कर दिया। सच, मैं ऐसा सोच भी नहीं सकती थी। उस समय उनकी दशा इतनी दयनीय थी कि मुझे उन पर बहुत तरस भी आ रहा था। उस समय तो मैं असमंजस में उनमें उनसे कुछ भी नहीं कह सकी। लेकिन, मैंने उस रात बड़े मानसिक अंतर्द्वंद्व के बाद तय किया कि अगले दिन डिपार्टमेंट जाकर मैं उनके प्रस्ताव पर रज़ामंदी दे दूंगी। लेकिन, अगले दिन तो ग़ज़ब हो गया..." प्रोफ़ेसर की घिग्घी बँध गई और सोफ़े पर औंधे मुँह लुढ़ककर एक बच्चे की तरह बिलखने लगी। लेकिन, उनकी आपबीती सुनने के बाद भी मोना का दिल नहीं पिघला। वह इन सारी बातों का मूक श्रोता बने अवनीत का हाथ पकड़, जबरन उसे खींचते हुए बाहर निकल गई। दूसरे दिन, डिपार्टमेंट में कोई छब्बीस वर्षों बाद फिर एक सनसनीख़ेज़ घटना ने पूरे शहर को चौंका दिया। उस दिन अवनीत को डिपार्टमेंट पहुँचने में कुछ देर हो गई थी। जब वह डिपार्टमेंट की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए प्रोफ़ेसर दीप्ति के चैंबर की और बढ़ रहा था तो उसे लगा कि वहाँँ कोने-कोने में मुर्दनी छाई हुई है। जब उसे उनका चैंबर खाली मिला तो उसने दौड़कर हर क्लास में झाँककर देखा। कहीं एक भी स्टूडेंट नज़र नहीं आ रहा था। वह तुरंत हेड साहब के चैंबर में दाख़िल हुआ। "सर, आज क्या बात है कि डिपार्टमेंट में चिड़िया भी पंख नहीं मार रही है?" उसका मुँह आश्चर्य से खुला रह गया। "गेट आउट, यू स्काउंड्रेल," हेड साहब ने जिस तल्ख लहजे में उसे झिड़का, उसका मतलब उसे कतई समझ में नहीं आया। वह भागकर सीधे हेड क्लर्क के कमरे में पहुँचा और आनन-फानन में पूछ बैठा, "गुप्ताजी! आज किसी ख़ास वज़ह से डिपार्टमेंट बंद है क्या?" हेडक्लर्क ने उसे शक की निग़ाह से देखते हुए एक ख़ुफ़िया के अंदाज़ में सवालिया जवाब दाग दिया, "सब कुछ जानकर भी तुम अंजान बन रहे हो? प्रोफ़ेसर दीप्ति की मौत हो गई है। वे अपने ड्राइंग रूम में कुर्सी पर लुढ़की हुई थीं जबकि उनका सिर मेज पर टिका हुआ था और मुँह से खून बह रहा था। हाँ, उनके सिर के नीचे एक कागज़ दबा हुआ मिला जिस पर उनकी हैंडराइटिंग में तुम्हारा नाम --अवनीत रेड्डी लिखा हुआ था जि यह साबित करता है कि तुम्हीं उनके मर्डरर हो।" अवनीत को हेडक्लर्क के शब्दों ने बर्फ़ बना दिया। वह कुछ देर तक बुत बना खड़ा रहा। उसे दुःख कम, आश्चर्य ज़्यादा हो रहा था। तभी पीछे से आए पुलिस इंस्पेक्टर ने उसकी गरदन दबोच ली। शक की सूई अवनीत पर जा रही थी कि उसने ही प्रोफ़ेसर दीप्ति का... उस शाम, जब तक अवनीत पुलिस की हिरासत में रहा, उसकी आँखें रोते-रोते सूजकर लाल हो गई थीं। वह लगातार बड़बड़ाता जा रहा था, "भले ही प्रोफ़ेसर दीप्ति मुझसे दुगुनी उम्र की थीं, अगर वह ज़िंदा होती तो मैं प्रोफ़ेसर कपूर की अनुप-अस्थिति का अहसास कभी य्न्हें नहीं होने देता। मैं वह सब कुछ करता जो एक पुरुष अपनी पत्नी के लिए करता है..." देर रात पोस्टपार्टम रिपोर्ट आने के बाद अवनीत पुलिस हिरासत से रिहा हुआ। रिपोर्ट में यह साफ-साफ बताया गया था कि प्रोफ़ेसर दीप्ति की मौत हृदय-गति रुक जाने के कारण हुई थी। अवनीत सारी रात प्रोफ़ेसर दीप्ति की लाश के सिरहाने गुमसुम बैठा रहा। अगले दिन सुबह उसने ही उन्हें मुखाग्नि दी। फिर, जब डिपार्टमेंट खुला तो वहाँ से निकली एक सनसनीख़ेज चर्चा पूरे शहर में सूर्खियों में थी कि जब चिता पर प्रोफ़ेसर दीप्ति को रखा गया था तो उनकी मांग में गाढ़ा लाल सिंदूर देखा गया था। लेकिन, ऐसा कैसे हुआ, इस रहस्य का खुलासा कभी नहीं हो पाया। बहरहाल, उस दिन मुखाग्नि देने के बाद अवनीत न तो डिपार्टमेंट में कभी नज़र आया, न ही शहर के किसी इलाके में। (समाप्त)