प्रेमिल पिंकी / निर्देश निधि
उन दिनों मेरा भतीजा गुड्डू, यानी विजय सिंह अपने छोटे बेटे अक्षय के साथ नैनीतात में रहता था। उसका घर सैकड़ों बरस पूर्व कभी अंग्रेजों का अपने ऐश- ओ- आराम के लिए बनवाया हुआ घर है, जो एकबारगी देखने पर घने जंगल या बीहड़ में बना दिखाई देता है, दिखाई क्या देता है, है ही जंगल में। वह न जाने कितने बरसों से बुला रहा था मुझे नैनीताल के सुरम्य वातावरण का आनंद लेने के लिए। पर हर बार कोई न कोई विवशता आ घेरती और मेरा वहाँ जाना रह जाता। उस बार छुट्टियों में उसकी पत्नी उषा भी देहरादून से आई हुई थी उसने भी आग्रह किया मुझे वहाँ जाकर कुछ दिनों रहने का, अतः उस बार मेरा जाना किसी तरह संभव हो गया।
पहाड़ पर जाकर भी सुबह देर तक सोते रहने के कोई मायने नहीं थे। वहाँ के स्थायी निवासियों के लिए तो वहाँ का हर सौन्दर्य रोज़मर्रा की सामान्य सी बात थी अतः सुबह - सुबह उन्हें उठाकर परेशान ही करना था और कुछ नहीं। इसलिए वहाँ पहुँचकर एक दिन का आराम कर मैं सुबह - सुबह उठकर पहाड़ों का सौन्दर्य निहारने अकेली ही चल पड़ी। पर थोड़ी दूर चलने के बाद मुझे आभास हुआ कि मैं अकेली नहीं थी। मेरे साथ हल्के पीले से रंग की एक सारमेयी यानी कुत्ती भी चल रही थी। हालाँकि उससे परिचय नहीं था मेरा पर उसका साथ आना मुझे सुखद लगा। मैं तेज़ चलती, वह भी तेज़ चलती, मैं धीरे चलती वह भी धीरे चलती, मैं रुकती तो वह भी रुक जाती, बार – बार ऐसा करके यह निश्चित कर रही थी कि वह मेरे साथ ही चल रही थी या नहीं। मैं पेड़ - पौधे देखने लगती तो वह खड़ी होकर इधर - उधर देख रही होती जैसे कह रही हो इन्हें आप देखो मेरे तो ये सब देखे हुए हैं। जब मैं पुनः चलती तो वह फिर मेरे साथ - साथ चल पड़ती।
शैशवावस्था लिये सुबह की धूप में उसके हल्के पीले रेशमी रोएँ सोने की तरह चमक उठे। वह मुझे बेहद प्यारी लगी, उसपर बहुत लाड़ आ रहा था पर मेरे पास उसे खाने को देने के लिए कुछ नहीं था , सुबह - सुबह न पैसे ही थे, न कोई दुकान जिससे खरीदकर कोई बिस्किट का पैकेट वगैरह उसे दिया जा सकता। परंतु वह खाने - पीने के इस लालच से दूर मेरे साथ ऐसे चलती आ रही थी, जैसे वह मेरी गंभीर अभिभावक हो। मैं पहाड़ी चिड़ियों का मधुर कलरव सुनने, पहाड़ की चोटी में से फव्वारे सा रंग छिटकाता हुआ सा उगता लाल - लाल सूरज और उसपर पसर आया बदली का झीना सा आँचल देखने, आसमान का अद्भुत रूप निहारने, पहाडों पर उनके विघटन के विरुद्ध, उनकी रक्षा में मुश्तेद खड़े घने पेड़ों पर पड़ती नरमी लिये सूरज की किरणें देखने में देर तक मग्न रही।
इतनी देर वह भी बिना विचलित - बेचैन हुए, चुपचाप मेरे साथ ही खड़ी रही। अपनी दृष्टि भर या क्षमता के अनुसार पहाड़ी सौन्दर्य को खुद में समेटकर जब मैं घर की ओर लौटने लगी तो वह भी मेरे साथ लौट आई। और गुड्डू के घर के आगे खुले वरांडे के दरवाजे पर आकर चुपचाप खड़ी हो गई। जैसे गुड्डू से कह रही हो कि, देखो मालिक मैं तुम्हारी बुआ जी को घुमा - फिरा कर सुरक्षित वापस ले आई हूँ और वह आकर वरांडे में बैठ गई चुपचाप। । तब मुझे पता चला कि यह गुड्डू की परिचिता है। पर उसे सुबह - सुबह भ्रमण पर मेरे साथ जाने की ज़िम्मेदारी का ऐहसास कैसे हुआ यह आश्चर्य की बात थी।
उन दिनों गुड्डू की पत्नी उषा भी नैनीताल में मेहमान की तरह ही आती थी। उनके बड़े बेटे अभय की शिक्षा देहरादून में हो रही थी क्योंकि उसने नैनीताल आने के लिए साफ इंकार कर दिया, और मैं तो थी ही सप्ताह भर की मेहमान । अतः मुझसे और उषा से उस सारमेयी ने कुछ नहीं मांगा। पर गुड्डू बिस्तर से उठा तो वह भी उठकर खड़ी हो गई। और उसने अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए हल्की- सी आवाज़ में ‘कूँ’ की, वह भी बस एक बार। गुड्डू जैसे उसकी उस ‘कूँ’ का अर्थ जानता था। वह उठकर सबसे पहले रसोई में ही गया और एक गिलास में दूध लाकर उसकी बरामदे मे रखी कटोरी में डाल दिया। वह उसे पीकर एक दो बार गुड्डू के चारों तरफ चक्कर लगाकर घूमने चली गई। नाश्ते के समय वह फिर लौटी और आकर चुप चाप बैठ गई।
उषा मेरे लिए स्वादिष्ट व्यंजन बना रही थी, मुझसे भी पहले गुड्डू उसे चखा रहा था। गुड्डू के भीतर यों भी संसार के हर प्राणी के लिए अथाह प्रेम भरा है, फिर वह तो स्वयं भी गुड्डू को बहुत प्रेम करती थी, तो उसका प्रत्युत्तर गुड्डू न देता, यह तो संभव ही न था। नाश्ता करके मैं कुमायूँ विश्वविद्यालय के पुस्तकालय जाने लगी, वह तब भी मेरे साथ गई और तीन घंटे बाद जब मैं वापस लौटी, तब भी मैंने उसे पुस्तकालय के बाहर बैठे पाया। वह फिर घर तक मेरे साथ आई। आकर फिर उसने उषा का दिया खाना खाया और घूमने चली गई। खाने - पीने व मेरे साथ घूमने का यह उपक्रम उसका रोज़ ही चलता रहा। विशेष बात यह थी कि अगर मैं बाकी घरवालों के साथ जाती, तो वह मेरे साथ नहीं आती। अगर मैं अकेली कहीं जा रही होती, तो वह मेरे पीछे - पीछे लग जाती मेरे मार्ग दर्शक की तरह। जैसे उसे पता था कि मैं उसके शहर में एकदम नई थी,और मेरे साथ चलना उसकी ज़िम्मेदारी थी। आखिर मैं उसके मालिक की बुआ जो थी।
गुड्डू उस सारमेयी को प्रेम तो बहुत करता, हर चीज अपने साथ खिलाता- पिलाता भी पर उसे कोई नाम न देकर, पुकारता उसे कुत्ती ही। इस पर मैं और उषा बहुत हँसते। आखिर हमने उसे अकस्मात ही जिह्वा पर आ गया एक नाम दे दिया, ‘पिंकी’। आश्चर्य हुआ कि पहली बार ही पिंकी नाम से पुकारने पर वह ऐसे दौड़ी चली आई, जैसे इस नाम को वह जन्म से सुनती आ रही हो। अब वह मेरे साथ घूमने जाती तो, मैं उसे पिंकी ही पुकारती और वह अपने पुकारे जाने पर प्रत्युत्तर में तुरंत मेरी तरफ देखती और अपनी थोड़ी लंबी- सी, सुनहरी पूँछ हिला देती, और अपने नरम गुलाबी कान भी हिलाती ।
मेरा प्रवास नैनीताल में एक सप्ताह का रहा। मेरा घूमने जाने का क्रम सप्ताह भर लगभग चला ही पर अंतिम दिन पिंकी मेरा साथ देने के लिए नहीं आई, न गुड्डू के लाड़- प्यार से खिलाए गए व्यंजनों को खाने ही वह आई। सुबह जब मैं घूमकर लौटी, तो मैंने गुड्डू से कहा, गुड्डू आज तो पिंकी मेरे साथ घूमने गई ही नहीं। गुड्डू ने लापरवाही से कहा- कहीं चली गई होगी घूमने- घामने। आ जाएगी थोड़ी देर में, पर वह नहीं आई। मेरा पुत्र वरुण और पुत्रवधू शिल्पा मुझे साथ ले जाने आ चुके थे। उसी रात को मेरी वापसी थी। पूरा दिन पिंकी के आने की उत्सुकता- भरी प्रतीक्षा रही।
उस दिन उसके सिवा और कोई बात ही न हुई घर में, ज़ोर - ज़ोर से पुकारा भी, पर वह नहीं आई। घर का काम काज निपटाकर जब मैं और उषा बाहर आए, तो पड़ोसन ने बताया कि रात बाघ आया था। कुत्ते बहुत बुरी तरह भौंके थे और थोड़ी देर बाद शांत हो गए। सब कुत्ते मौजूद थे एक पिंकी को छोड़कर। मैं उस रात ही लौट आई नैनीताल से। पर क्या पिंकी के बिना शर्त वाले अनकहे प्रेम को, उसके जिम्मेदारी भरे सानिध्य को, उसकी भूरी आँखों से छलक़ते अपनेपन को कभी भुला पाऊँगी मैं.......
