प्रेम, विवाह और शारीरिकता के दायरे / जयप्रकाश चौकसे

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प्रेम, विवाह और शारीरिकता के दायरे
प्रकाशन तिथि :16 मार्च 2015


कभी-कभी किसी फिल्म का सतही विवरण व्यावसायिक आलोचक करते हैं, क्योंकि एक ही काम वे लंबे समय से कर रहे होते हैं। बहरहाल, आदित्य चोपड़ा की आयुष्मान खुराना और भूमि पेढनेकर अभिनीत 'जोर लगा के हईशा' के साथ यही मैंने किया। बिना प्रचार के प्रदर्शित यह फिल्म मंथर गति से धन कमा रही है। फिल्म की पृष्ठभूमि हरिद्वार है और उसकी आंकी-बांकी संकरी गलियों में मध्यम वर्ग के परिवार रहते हैं। धन की कमी ने उन्हें कई नियम तोड़ने पर बाध्य किया है जैसे वे अपने दसवीं पास बेटे का विवाह एक पढ़ी-लिखी परंतु मोटी लड़की से कर देते हैं ताकि उसका वेतन परिवार का सम्बल बन सके। उनका बेटा वीडियो और संगीत कैसेट की दुकान चलाता है, जो सी.डी और डी.वी.डी के आगमन के बाद ठप हो जाती है। कन्या का परिवार भी वर की कम शिक्षा का तथ्य जानकर भी 'बेटी के भार' से 'मुक्त' होना चाहता हैं। कन्याओं के प्रति यही हमारा रवैया रहा है। तलाक की कगार से लौटे टूटते से परिवार में पति-पत्नी किस तरह प्रेम को जगाते हैं - इस सरल सीधी-सी बात को बड़े मनोरंजक और स्वाभाविक ढंग से फिल्माया गया है। रिश्तों की राख के नीचे दबी चिंगारी प्रेम का संदूर दहका देती है।

इस फिल्म का एक भी द्दश्य फिल्मी या अस्वाभाविक नहीं है। फिल्मकार परत दर परत जिंदगी ही प्रस्तुत करते हैं और पात्र आपके इतने निकट हैं कि आप उन्हें स्पर्श कर सकते हैं। फिल्म का क्लाईमैक्स उस छोटे शहर में हर वर्ष होने वाली एक प्रतियोगिता है, जिसमें पति को अपनी पीठ पर पत्नी को लादकर दौड़ना है तथा मार्ग में कई रुकावटें भी है, कई उतार-चढ़ाव भी हैं। कुछ जनजातियों में परंपरा है कि विवाह के बाद पति पत्नी को पीठ पर बैठाकर उस तीर तक पंहुचता है, जो उसके साले ने चलाया है और मार्ग में युवा रिश्तेदार प्रयास करते हैं कि दूल्हा, दुल्हन को गिरा दे और यह सब चुहलबाजी के अंदाज में होता है परंतु गिराये जाने पर विवाह भंग हो जाता है। विकसित समाज में भी दूल्हा दुल्हन को गोद में लेकर कुछ दूरी तो तय करता ही है। क्या ये सारी रस्में दुल्हे की शारीरिक क्षमता का आकलन नहीं है? विवाह दो आत्माओं का मिलन शरीर के माध्यम से संभव कराता है, अत: इस पावन संस्कार से भरे रिश्ते से शारीरिकता को खारिज नहीं किया गया है। इसी बात को आर. बाल्की ने अपने अनूठे अंदाज में 'चीनी कम' में प्रस्तुत किया जब पैंतीस वर्षीय तब्वू अपने साठ वर्षीय प्रेमी को बगीचे की दूसरी ओर के वृक्ष को दौड़कर छूने और लौटने को कहती है। यह पूछे जाने पर कि इसका तात्पर्य क्या था, तब्वू मुस्कराकर कहती है वह अपने लिए प्रेम के दम भरने वाले का दम-खम जांचना चाहती थी।

पूरी फिल्म का मध्यम वर्ग का परिवार इस शारीरिकता की ओर इशारा करता है। इस फिल्म के क्लाइमैक्स में दूल्हा अपनी मोटी दुल्हन को पीठ पर लादकर दौड़ता है और बीच में उससे तलाक मांगने वाली दुल्हन कहती है कि उसे मेरठ जाकर नौकरी नहीं करनी है, बस उसे रोक ले। प्रेम का यह इज़हार दूल्हे को जीतने की प्रेरणा देता है। गौरतलब है कि टूटते रिश्ते में इस प्रतियोगिता में भाग लेने की जिद दूल्हे की बुआ करती है, जिसे अभी अपने से बीस वर्ष से दूर रहने वाले पति की मौत की खबर मिली है और वह कहती है कि वह तो सुहागन होते हुए भी इतने वर्षों से विधवा की तरह जी रही थी। कहीं उसका विवाह भी तो शारीरिकता के मुद्‌दे पर नहीं टूटा था? विवाहित जीवन की अनेक कुंठाओं का संबंध शारीरिकता से है।

बहरहाल, फिल्म में दिखाया है कि नायक बचपन से एक अधकचरे ज्ञान के संगठन का सदस्य था जहां विवाह, प्रेम और ब्रह्मचर्य के विषय में गैर-वैज्ञानिक बातें उसके अनचेतन में ठूंसी गई हैं और इसी संगठन में वैचारिक रेजीमेंटेशन के दोषों के संकेत भी हैं। इतना ही नहीं संगठन के मुखिया की समलैंगिकता की ओर सूक्ष्म इशारा इस आधे संवाद में है कि मुखिया जब से एक सदस्य की चड्डी में घुसा है, वह अन्य सदस्यों को भूल गया है। नायक की सारी जहालत इस संगठन के कारण पनपी है। फिल्मकार कही भी उस संगठन की सीधे आलोचना नहीं करता वरन् सारी बात संकेतों में है - सूक्ष्म संकेतों में। प्रतिदिन के जीवन में नैतिक सहुलियत से छुपाए मुद्‌दों को फिल्म उजागर करती है।