प्रेम-विवाह / दीपक मशाल
वो दोनों एक ही शहर से थे, अपने शहर से दूर एक ही विश्वविद्यालय में एक ही कोर्स में अध्ययनरत थे, हालांकि उनकी मुलाक़ात तभी हुई जब दोनों ने उस विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया।
अपनी बोली, अपनी भाषा से दूर पराये शहर में अपने जैसा कुछ मिल जाना स्वतः ही आकर्षण को आविष्कृत कर देता है, दोनों साथ-साथ घूमने-फिरने, खाने-पीने लगे। एक बार साथ-साथ पढ़ते-पढ़ते जब रात ज्यादा हो गई तो वो उसी के रूम पे रुक गई; अब जाने ये बाहर हो रही तेज़ बारिश का नतीजा था या अन्दर भीगे हुए दिलों की तमन्नाएं कि उस रात दोनों मदहोशी में खजुराहो की कलाकृतियों में ढल गए।
जिंदगी में सीमाओं की परिधियाँ एक बार लांघ ली जाएँ तो वापस उनमें नहीं लौटा जा सकता। हाँ इतना जरूर है कि आगे की और हदें ना पार हों ये ध्यान में जरूर रखा जा सकता है। लेकिन जिस उमर में वो थे उसमे ये सब नियंत्रण आसान होते हैं भला!!!
परिधियाँ निरंतर भेदी जाती रहीं और एक दिन 'वही' अवांछित घटित हो गया। बात दोनों के घरों तक पहुँची। लानतें-मलानतें भेजी गयीं। पर दोनों एक ही जाति के होने के कारण उतना बवाल ना हुआ जितना अलग जाति या ऊंची-नीची जाति के होने पर होने की सम्भावना रहती। लोक-लाज, इज्ज़त के नाम पर दोनों की आपस में शादी की बात चलने लगी।
बात पैसों के लेन-देन को लेकर थोड़ा सा फंसी। अब लड़का दहेज़ का समर्थक तो नहीं था पर विरोधी भी नहीं था। इसलिए घरवालों के थोड़े से समझाने पे ही मान गया। लड़की भी अपने घर वालों से अपना हक चाहती थी सो ये मुश्किलें बड़ी ना साबित हुई। कुछ लाख रुपये की एक मुश्त रकम पर सौदा पट गया।
आज दोनों की शादी है।। शहर में चर्चा है कि फ़लाने का लड़का और फ़लाने की लड़की आपस में 'प्रेम-विवाह' कर रहे हैं।