प्रेम आनंद स्वरूप है / साहित्य शास्त्र / रामचन्द्र शुक्ल

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काव्य की उस भूमि में जहाँ आनंद अपनी पूर्णावस्था को प्राप्त दिखाई पड़ता है, प्रवर्तक भाव 'प्रेम' रहता है। इसी भाव के विविधा प्रकार के आलम्बनों और उद्दीपनों का चित्रण इस भूमि के विभाव पक्ष में पाया जाता है। दीप्ति, माधुर्य और कोमलता के नाना रूप यहाँ मिलते हैं। बाहर नयनाभिराम रूपरेखा, विकसित वर्ण वैचित्र्य, विभूति, प्रभूति, चमक दमक, शीतल स्निग्ध छाया; कलकंठ स्वर स्पंदित, सौरभ समन्वित समीर, स्मित आनन, चपल भू विलास, हास परिहास, संगीत सज्जा, वीणा की झंकार इत्यादि हैं तो भीतर सौन्दर्य की मादक अनुभूति, प्रेमोल्लास स्वप्न, स्मृति विस्मृति, व्रीडा क्रीड़ा, दर्शन पिपासा, उत्कंठा, मुग्धता इत्यादि।

इस भूमि के मनस या आभ्यन्तर पक्ष की खाली उलझन हमारे पुराने आचार्य सुलझा गए हैं। यद्यपि प्रेम दशा के भीतर सुखात्मक और दु:खात्मक दोनों प्रकार के भाव पाए जाते हैं; पर कान में 'प्रेमानंद' शब्द ही पड़ता है, 'प्रेमापन्न' नहीं। इससे, प्रेम आनंद स्वरूप है, यह लोकधारणा प्रकट होती है, जो साहित्य मीमांसकों को भी मान्य है। वियोग काल की सारी अश्रुधारा के तल में आनंद की रेखाएँ दिखाई पड़ती रहती हैं। विरह में आनंद नष्ट नहीं हुआ रहता; केवल 'आवृत' रहता है। विरहियों का रोना एक प्रकार हँसना ही है। उनके तीव्र ताप और ज्वाला की जड़ में एक रसमयी शीतलता रहती है। जब तक प्रिय इस जगत् में रहता है, तब तक, कहीं दूर चले जाने पर भी, उसका कहीं पता न रहने पर भी, जो दु:ख और वेदना होती है, वह प्रेम भाव की ही अनुभूति समझी जाती है और साहित्य में विप्रलम्भ ऋंगार के ही अंतर्गत मानी जाती है।

बात यह है कि वियोग काल चाहे कितना ही दारुण हो, उसके बीच बीच में मिलने की लालसा जगती रहती है, संयोग की कल्पना के सुख का अनुभव होता रहता है, प्रिय के रूप आदि का ध्याचन आने पर मन लुब्धा होता रहता है। यह लालसा, यह लुब्धाता आनंद के ढंग की चीज है; दु:ख के ढंग की नहीं। आनंद के रूप में ही प्रेम का उदय होता है और उसका यह रूप भीतर भीतर बराबर बना रहता है। किसी के रूप सौंदर्य और शील सौंदर्य का पहले पहल साक्षात्कार या परिचय होते ही सबसे पहली अनुभूति आनंद की होती है। सबसे पहले हृदय विकसित और लुब्धा होता है। सारांश यह कि प्रेम काल जीवन का आनंद काल ही है। इसी से भक्तगण भक्ति या प्रेम को ही साध्य कहा करते हैं।

प्रेम वास्तव में 'राग' का ही पूर्ण विकसित रूप है। राग और द्वेष दोनों की स्थिति वासना के रूप में प्रत्येक प्राणी में होती है। वासनात्मक अवस्था में इन दोनों के विषय सामान्य रहते हैं। सामान्यत: सुख देनेवाली या चिरकाल से साथ रहनेवाली वस्तुओं के प्रति राग और दु:ख देनेवाली वस्तुओं के प्रति द्वेष का बीज सबके हृदय क्षेत्र में ढँका रहता है। यही राग जब अंकुरित या व्यक्त होकर किसी व्यक्ति विशेष की ओर पहले पहल उन्मुख होता है, तब 'लुभाना' कहलाता है और जब उस विशेष में जाकर स्थिर हो जाता है, तब 'प्रेम' कहा जाता है। सीधी बात यह है कि वासनात्मक अवस्था से भावात्मक अवस्था में हुआ आया राग ही 'अनुराग' या प्रेम है। किसी के रूप गुण आदि का उत्कर्ष सुनकर जो 'पूर्वराग' होता है, वह भी उत्ते।जित 'राग' ही रहता है, प्रेम नहीं। यद्यपि उत्तेपजना व्यक्ति विशेष के ही उत्कर्ष का परिचय पाकर होती है, पर पूर्व राग की दशा में प्रेम की अनन्यता और पूण्र्ा एकनिष्ठता नहीं रहती, वह पीछे प्राप्त होती है। किसी के प्रति पूर्वराग उत्पन्न होने पर यह संभावना रहती है कि अन्य समय उससे अधिक उत्कर्षवाले किसी दूसरे का परिचय पाकर वह उस पर हो जाय।

राग मिलानेवाली वासना है और द्वेष अलग करनेवाली। रासायनिक मूल द्रव्यों के राग से ही पिंड सृष्टि का विकास होता है। राग की अभिव्यक्ति विशेष दाम्पत्य और वात्सल्यभाव में ही होती है जिससे प्राणियों की परंपरा चिरकाल से चलती आ रही है। अत: प्रेम में पालन और रंजन दोनों की प्रवृत्ति प्रत्यक्ष है।

('प्रेमा', अप्रैल मई 1932)