प्रेम कहानी / गौरव सोलंकी
एक बहुत पुरानी बात है और बहुत नई भी। एक काले रंग का शहर था, जो रात को जल्दी सो जाता था और सुबह मुँह-अंधेरे उठ जाता था। उसमें एक लड़का रहता था और एक लड़की भी।
लड़की साँवली-सी थी और चंचल भी। बचपन में अक्सर सभी चंचल होते हैं, मगर लड़का नहीं था। लड़का बहुत सोचता था, बहुत गम्भीर रहता था। उसे पता नहीं चला कि उसके स्कूल में पढ़ने वाली उसकी हमउम्र एक लड़की उसे देखने के लिए दिन-भर बहाने ढूँढ़ती है और उसी के बारे में सोचती रहती है। लड़का पढ़ने में बहुत होशियार था और बोलने में भी। लड़की चंचल थी, लेकिन बोलती कम थी।
लड़के के मन में स्त्री जाति के प्रति दुराग्रह-सा था। और भी कम उम्र में दो-तीन बार लड़कियों के साथ खेल-खेल में हुए झगड़े ही इसके लिए उत्तरदायी थे या कोई जन्मजात भावना इसके पीछे थी, यह कोई नहीं जानता था। दुराग्रह कम न होने का एक कारण यह भी था कि उसने होश संभालते ही स्वयं को लड़कियों से दूर रखना शुरू कर दिया था। तो लड़की को उसका दुराग्रह, कटा-कटा रहना और गंभीर रहना ही अच्छा लगने लगा। लड़का तो अनभिज्ञ था, सो एक दिन लड़की ने ही बात का आरंभ करना चाहा। वह लड़के की तरह बोलने में चतुर नहीं थी, इसलिए कई दिन तक तय नहीं कर पाई कि क्या बोले? उसने दूसरा रास्ता चुना।
वे दोनों छठी कक्षा में पढ़ते थे। स्कूल की छुट्टी के बाद लड़का जब अपने दोस्त के साथ घर के लिए निकलता था तो लड़की उसके पीछे रहती थी। दो-तीन सौ बच्चों की भीड़ में लड़की का काम और भी आसान हो जाता था। लड़की का घर पहले आता था- स्कूल से करीब सौ मीटर दूर। उस बीच में लड़की, लड़के की पीठ पर टँगे बस्ते पर चॉक से टेढ़ी-मेढ़ी आकृतियाँ बना दिया करती थी और फिर मुस्कुराकर अपनी गली की ओर मुड़ जाती थी।
लड़का रोज शाम को घर पहुँचकर अपने बस्ते पर बनी सफेद रेखाएँ देखता और उन्हें साफ करते हुए अपराधी का अनुमान लगाने का प्रयास करता। उसके शक की उंगली कई लड़कों पर जाती, लेकिन किसी लड़की पर कभी नहीं।
एक सप्ताह तक लड़की भीड़ का फायदा उठाती रही और लड़का अपराधी को नहीं पहचान सका। सोमवार को उसे एक तरीका सूझा। उसने अपने दोस्त को पीछे कुछ दूरी पर रहने और अपनी तरफ देखते रहने को कहा। लड़की चंचल थी, मगर चतुर नहीं। उसके दोस्त ने उसे पहचान लिया।
पता चलते ही लड़के के मन का दुराग्रह और मजबूत हो गया और उसने बदला लेने की ठानी। अब छुट्टी के समय वह और उसका दोस्त सबसे अंत में स्कूल से निकलते और लड़की के पीछे रहते। मौका देखकर लड़का, लड़की के बस्ते पर आड़ी-तिरछी रेखाएँ खींच देता।
लड़की द्वारा बनाई गई रेखाएँ और आकृतियाँ मधुरता लिए होती थीं, जबकि लड़के द्वारा खींची रेखाएँ बहुत कठोर थीं।
लेकिन लड़का प्रतिशोध नहीं ले पाया। अब लड़की जानबूझकर उससे आगे रहती थी और अपनी गली आने पर मुस्कुराकर मुड़ जाती थी। अगली सुबह जब वह कक्षा में आती तो बस्ते पर वे आड़ी-तिरछी रेखाएँ बनी रहती थीं। उसने उन्हें एक दिन भी साफ नहीं किया। घर जाकर सबसे पहले अपना बस्ता उतारती और उसे दौड़कर छत पर ले जाती। वहाँ कोई नहीं होता था। फिर बस्ते को सामने रखती और उसे तब तक देखती रहती, जब तक कि कोई उसे बुलाने न आ जाता।
पाँच दिन तक जब लड़की के बस्ते पर बनी रेखाएँ और गली में मुड़ते समय की उसकी मुस्कुराहट बढ़ती ही गई तो लड़के ने रेखाएँ खींचना बन्द कर दिया। उसका प्रतिशोध का भाव खो गया था और अब उसके मन में लड़की की मुस्कान का राज जानने की जिज्ञासा पनपने लगी। शनिवार की शाम को वह इसी उलझन में घर लौटा और लड़की मुस्कुराती हुई लौटी, इस बात से अनजान कि आज उसके बस्ते पर लड़के की उंगलियाँ नहीं थिरकी हैं।
लड़की पीठ से बस्ता उतारकर दौड़ी दौड़ी छत पर गई और एक कोने में आराम से बैठकर बस्ता सामने रखा। उसे देखते ही उसका चेहरा उतर गया। उसने घुमा-फिरा कर पूरा बस्ता देखा। चॉक का एक भी नया निशान नहीं था। वह मुँह लटकाए बैठी रही और सोचती रही। वह लड़के जितनी गंभीर हो गई थी।
थोड़ी देर बाद माँ ने आवाज दी -- दूध पी ले।
वह वहीं बैठी रही।
पाँच मिनट बाद फिर से आवाज आई -- आजा, दूध पी ले।
वह नहीं हिली।
अब उसकी माँ ऊपर आई और उसका हाथ पकड़कर नीचे ले गई।
उस रात को लड़की सबसे अंत में सोई। बिस्तर पर अपनी माँ की बगल में लेटी-लेटी जाने क्या-क्या सोचती रही।
लड़का भी अपने घर में सबसे अंत में सोया। वह सोचता रहा कि लड़की की खुशी और चंचलता रोज बढ़ती ही क्यों जा रही थी? स्त्री जाति के लिए जो भाव उसके मन में पहले से थे, वे इसका उत्तर नहीं दे पाए। जब वह सोया तो उसके मन में लड़की के लिए एक मधुर कोना बनने लगा था, जो सुबह तक और बड़ा हो गया था।
लड़का अगले दिन किसी कारण से स्कूल नहीं जा पाया। उदास लड़की की नज़रें पूरा दिन उसे ही खोजती रहीं। आधी छुट्टी में उसका टिफ़िन नहीं खुला और वह सब लड़कियों से दूर एकांत में बैठी रही। शाम को स्कूल से लौटते हुए जब वह अपनी गली में मुड़ी तो उसके चेहरे पर हर दिन वाली मुस्कान नहीं थी।
-- आज खाना क्यों नहीं खाया?
उसकी माँ ने पूछा।
वह उस दिन दौड़कर छत पर भी नहीं गई थी। माँ के प्रश्न का उसने कोई उत्तर नहीं दिया।
-- तेरी तबियत तो ठीक है? माँ ने लाड़ से उसकी कलाई पकड़ते हुए कहा।
वह चुप रही। उसका मन किया कि जोर से रोने लगे, मगर वह रोई नहीं। वह रोई तब, जब माँ के लाख मनाने पर भी उसने रात का खाना नहीं खाया और माँ ने गुस्से में उसे थप्पड़ मारा।
-- शायद मैं रोने का बहाना ढूंढ़ रही थी।
लड़की अपनी माँ की बगल में लेटी-लेटी सोचती रही।
उस एक दिन में लड़के के मन की जिज्ञासा भी बढ़ गई और उस मधुर कोने का आकार भी। वह अगले दिन स्कूल गया तो रास्ते भर लड़की के बारे में ही सोचता रहा। लड़की गुमसुम हुई अपनी सीट पर बैठी थी। लड़के ने पीछे से जाकर उसका कंधा थपथपाया।
-- तू उदास क्यों है?
वह बातें बनाने में वाकई होशियार था। लड़की ने पलटकर उसे अपने पीछे खड़ा देखा तो एकदम से उसकी आँखें मुस्कुराने लगीं। वह बोली नहीं।
-- मैं तेरे बस्ते पर चॉक चलाता था।
उसने लड़की के बस्ते पर बनी हुई सफेद रेखाओं की ओर इशारा करते हुए कहा।
-- क्यों?
लड़की भी वाकई चंचल थी, हालांकि बोलती कम थी। अब उसकी आँखों की मुस्कान चेहरे पर भी आ गई थी।
-- क्योंकि पहले तू चलाती थी।
उसकी बात सुनकर लड़की खिलखिलाकर हँस दी। लड़के को भी उसका हँसना अच्छा लगा। उसके चेहरे पर भी एक गर्वीली मुस्कान आ गई।
--आज आधी छुट्टी में मेरे साथ खाना खाएगी?
लड़की ने तुरंत स्वीकृति में गर्दन हिला दी। खाना खाते हुए लड़की को लगा कि लड़का उतना भी गंभीर नहीं है, जितना दिखता है। लड़की उसकी हर बात पर मुस्कुराती रही।
दस दिन बाद लड़के ने रात में एक सपना देखा। वह एक पेड़ के पास लड़की के साथ बैठा था और बाकी सपना वह समझ नहीं पाया। सुबह उठा तो उसे लगा कि इतना प्यारा सपना उसने पहले कभी नहीं देखा था।
-- कल रात मैंने सपने में तुझे देखा।
अगले दिन वह आधी छुट्टी में लड़की को बता रहा था।
लड़की फिर मुस्कुराने लगी।
-- मेरा मन करता है कि मैं सारा दिन तेरे साथ ही बैठी रहूँ।
-- मेरा भी...
आधी छुट्टी ख़त्म होने से पहले ही वे दोनों स्कूल के पीछे के मैदान में आकर एक पेड़ के पीछे छिप गए। दोनों के चेहरों पर मुस्कान थी।
-- तू फ़िल्म देखती है?
थोड़ी देर बाद लड़के ने पूछा। तब तक कक्षाएँ शुरु हो चुकी थीं।
-- हाँ...
लड़की के चेहरे की मुस्कान बढ़ गई थी।
-- उसमें जैसे होता है ना...
लड़का कुछ सोचकर रुक गया।
-- क्या होता है?
लड़की के स्वर में आत्मीयता और जिज्ञासा थी।
लड़का कुछ क्षण वैसे ही खड़ा रहा, फिर अप्रत्याशित ढंग से उसने लड़की का गाल चूम लिया। बिल्कुल बालसुलभ चुम्बन था वह, जो केवल बच्चों के कोष में ही होता है- बहुत निर्मल और प्यारा।
लड़की इससे घबराकर एकदम से दो कदम पीछे हट गई और स्तब्ध सी होकर लड़के को देखती रही। इस प्रतिक्रिया से लड़के के मन में अपराधबोध सा आ गया और उसके चेहरे की मुस्कान चली गई। लड़की ठिठककर वहीं खड़ी रही और उसे एक अपरिचित की तरह देखती रही।
-- तू बहुत गन्दा है।
लड़का नहीं समझ पाया कि उसके शब्दों में घृणा ही थी या कुछ और था?
लड़की की आँखें भर आई थीं। लड़का कुछ न कह सका, उसे देखता रहा।
-- तू सच में बहुत गन्दा है।
लड़की ने फिर कहा और दौड़ती हुई क्लास की तरफ चली गई। लड़के ने दूर से देखा कि वह दौड़ते-दौड़ते एक हाथ से अपने आँसू भी पोंछ रही थी।
दोपहर भर लड़का उसी पेड़ के नीचे बैठकर अपने आप को अपराधी की तरह कोसता रहा।
रात को अपनी माँ के साथ बिस्तर पर लेटी हुई लड़की ने माँ से पूछा- मम्मी, गन्दे बच्चे अच्छे नहीं होते?
उसकी माँ हँस दी।
-- बेटा, जो गन्दा होता है, वह अच्छा नहीं हो सकता।
-- कोई गन्दा क्यों होता है?
-- तू सो जा अब।
माँ ने करवट बदल ली थी। लड़की फिर देर से सो पाई।
अगले पूरे दिन बरसात होती रही। लड़की स्कूल नहीं गई। लड़का गया, लेकिन वह और दिनों की अपेक्षा अधिक गंभीर था। उसकी आँखें दिनभर लड़की को खोजती रहीं, लेकिन अमावस की रात में चाँद ढूंढ़ना संभव नहीं था।
शाम तक उसका अपराधबोध चरम पर पहुँच गया। उसके बाद का छुट्टियों का एक हफ़्ता उसके लिए एक साल की तरह बीता और उसके बाद का एक-एक साल, जन्मों की तरह.... और लड़की?
लड़की के पिता का तबादला हो गया था। छुट्टियों के दौरान एक सुबह वह उदास लड़की अपने परिवार के साथ उस काले शहर को छोड़कर चली गई।
कोई उम्मीद नहीं छोड़ी गई, कोई संदेश नहीं छोड़ा गया। लेकिन बेशर्म काला शहर उसके बाद भी जल्दी सो जाता था और मुँहअंधेरे जग जाता था। केवल वह एक लड़का देर से सोने और जल्दी जगने लगा था।
-- तू बहुत गन्दा है।
लड़का इस वाक्य को सुनने के लिए और लड़की इस वाक्य को दोहराने के लिए वर्षों तड़पती रही। लड़का काले रंग के शहर में और लड़की सफेद रंग के शहर में... पेड़, स्कूल, बस्ते और गली, सबका रंग खून सा लाल हो गया था।
सात साल गुजर गए।
लड़का काले शहर को छोड़कर होस्टल जा रहा था। ट्रेन के उस डिब्बे में कम ही लोग थे। लड़का चुप बैठा उस ट्रेन से बहुत दूर कुछ सोच रहा था। उसकी आँखें अब धुंधली सी हो गई थीं। ऐसा लगता था, जैसे हर समय आँसू तैरते रहते हों। अचानक उसे कुछ याद आया। अपनी सीट के नीचे रखा अपना बैग उसने बाहर निकाला और उसे खोलकर एक छोटा सा स्कूल बैग बाहर निकाल लिया।
बैग पुराना पड़ चुका था और उस पर सफेद रेखाओं के कुछ फीके से निशान थे। लड़का उसे हाथ में लेकर देखता रहा। कोई भाव उसके गंभीर चेहरे से बाहर नहीं आ पाया। आँखें कुछ ज्यादा धुंधली लगने लगी थीं।
कुछ क्षण बाद जैसे ही वह उस स्कूल बैग को फिर से बैग में रखने लगा, एक मीठी सी आवाज़ कानों में पड़ी।
-- तुम बहुत गन्दे हो।
काले शहर में एकदम से बादल छा गए थे और तेज बारिश शुरु हो गई थी। एक स्कूल के मैदान में खड़ा एक पेड़ तेज हवा में उड़ने को तैयार था। एक गली का मोड़ तेजी से दौड़ने लगा था। रद्दी की दुकान पर पड़ा हुआ एक टिफ़िन बॉक्स लुढ़कता हुआ दूसरे से जा टकराया था। एक मकान की छत अपने आसमान से कुछ कह रही थी।
लड़के ने चेहरा उठाकर देखा। सामने एक लड़की बैठी थी। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें उसके होठों के साथ मुस्कुरा रही थीं।
-- क्या?
-- तुम बहुत गन्दे हो।
उसकी मुस्कान बढ़ गई थी। लड़का कुछ पल चुप रहा। उसे लगा कि यदि वह बोला तो अपनी बात कहने के लिए उसे हज़ारों शब्द एक साथ बोलने पड़ेंगे।
उसका चेहरा अब उतना गंभीर नहीं लग रहा था, न ही आँखें उतनी धुंधली लग रही थीं।
-- तुम अब भी उतना ही कम बोलते हो?
लड़के की आँखों से अश्रुधार बह निकली। लड़की के पास बैठा एक आठ-नौ साल का बच्चा लड़के को घूर-घूरकर देखता रहा। फिर उसने प्रश्नात्मक दृष्टि लड़की पर डाली। लड़की की बड़ी-बड़ी आँखें अपनी जगह पर नहीं थीं। वे अपने चेहरे से छूटकर आसमान में कुछ ढूंढ़ रही थीं।
-- कहाँ थी तुम?
लड़का बहुत कोशिश करके बोल पाया।
लड़की अपने पास बैठे बच्चे को लक्ष्य करके बोली- अभी एक बहुत बड़ा मन्दिर आएगा। तू डिब्बे के दरवाजे पर जाकर खड़ा हो जा। उसके आगे हाथ जोड़कर जो भी माँगो, मिल जाता है।
बच्चा कुछ न समझ पाने की मुद्रा में उसे देखता रहा और फिर धीरे से उठकर चल दिया। जाते-जाते उसने आँसुओं से भीगे चेहरे वाले लड़के की ओर भी देखा।
-- कहाँ थी तुम?
लड़का अब बेचैनी से बोला
-- इसी दुनिया में थी।
वह बाहर देखने लगी थी।
-- कोई ऐसे चला जाता है क्या? बिना कोई आस छोड़े....
-- हाँ...
-- जानती हो.... लड़का कहता-कहता रुक गया।
काले शहर में बारिश थमने लगी थी। पेड़ ने अनिश्चित भविष्य के डर से अपने पंख सिकोड़ लिए थे। गली के मोड़ के कदम पीछे हटने लगे थे। रद्दी की दुकान का शटर अपने आप ही बन्द होने लगा था। आसमान से एक बूँद मकान की छत पर टपकी।
लड़की अपनी खुली हुई हथेली और उसमें खारे आँसू की बूँद को देखती रही और फिर हथेली होठों से लगाकर पी गई। उसकी आँखें उसके चेहरे पर लौट आई थीं और उस दृश्य को कैद कर लेने के लिए बन्द हो गई थीं।
-- जानती हो, मैं कितने महीनों तक शाम को लौटते समय पीछे मुड़कर नहीं देखता था कि तुम आओ और बेफ़िक्र होकर चॉक चला सको...
-- जानते हो, मैंने अपने घर में वैसा ही एक नीम का पेड़ लगाया था। सोचती थी कि किसी दिन जब मैं घर लौटूँगी, तुम उसके नीचे वैसे ही खड़े मिलोगे...
अंत तक आते-आते लड़की ने जोर से आँखें मींच लीं।
-- कहाँ जा रही हो अब?
लड़की ने धीरे से आँखें खोलीं और मुस्कुराने का असफल प्रयास किया।
-- तुम कहाँ जा रहे हो?
-- होस्टल... लड़की चुप होकर बाहर की ओर देखती रही।
-- कहाँ जा रही हो तुम?
इस बार लड़के के स्वर में बेबसी आ गई थी।
-- क्या फ़र्क पड़ता है कि मैं कहीं भी जाऊँ?
लड़की अब उसकी ओर देखती हुई बोली। पेड़ पर बैठी एक चिड़िया बारिश थमने पर उड़ी और गीले पंखों के कारण वहीं गिर पड़ी।
-- उसे फ़र्क पड़ता है, जो सात साल तक इस आग में जलता रहा कि तुम उसकी एक छोटी सी गलती के कारण बिना कुछ कहे चली गई थी।
-- तुम्हें अब तक याद है?
-- भूल जाता तो अब रो रहा होता? आँसुओं भरा चेहरा हँसकर बोला।
-- मैं नादान था तब।
-- मैं भी.... कहकर लड़की उसके पास आकर बैठ गई।
-- वह मेरा छोटा भाई है।
लड़की ने डिब्बे के दरवाजे पर खड़े बच्चे की ओर इशारा करते हुए कहा। बच्चा उस मन्दिर की राह देख रहा था, जो कभी बना ही नहीं था।
-- तुम अब और भी सुन्दर हो गई हो।
-- तुम्हारी आँखें अब और भी उदास लगने लगी हैं। ऐसा लगता है, जैसे सालों से जाग रहे हो।
दो आँखें, दो आँखों से जा मिली थीं।
-- इतना पढ़ने लगे हो क्या?
कहकर खिड़की की तरफ वाली दो आँखें, दूसरी दो आँखों से छूट गईं और उत्तर की प्रतीक्षा में बाहर के भागते मैदानों में भटकने लगीं।
-- नहीं...पढ़ाई में फिर मन नहीं लगा। अब सबने कहा कि किसी और शहर में चला जा। घरवालों ने होस्टल में भेज दिया।
कहते-कहते लड़के को काला शहर याद आ गया।
-- बारिश के दिनों में वहाँ की गलियों में अब भी घुटनों तक पानी भर जाता है?
उस प्रश्न के लिए लड़की की आँखों में वही पुरानी चंचलता लौट आई थी।
-- कई बरसों से बारिश ही नहीं हुई।
-- ऐसा लगता है कि तुम बहुत दिनों से बहुत अकेले हो।
लड़की की आवाज में बेचैनी आ गई थी।
-- मुझे भी लगता है....
-- घर पर सब कैसे हैं?
-- घर पर सब अच्छे हैं.....और मैं अकेला!
.....मैं अकेला क्यों हूँ?
खिड़की से दूर वाली दो आँखों में बच्चों सी मासूम जिज्ञासा थी। लड़की ने कुछ नहीं कहा। उसके हाथ पर अपना एक हाथ धीरे से रख दिया और उसकी बेचैनी को पढ़ने की कोशिश करती रही।
-- कहाँ जा रही हो तुम?
बेचैनी पढ़े जाने की सीमा में नहीं थी।
-- तुम किसी को ढूंढ़ लो, अपना साथ देने के लिए...
-- कहाँ जा रही हो?
-- तुम आओगे?
लड़का कुछ नहीं बोला। लड़की की हथेली थोड़ा दूर होने लगी तो लड़के ने उसे फिर थाम लिया।
-- हमें मिलना होगा तो इसी तरह फिर मिल जाएँगे....और नहीं मिलना होगा तो....
-- मैं उस मन्दिर से कोई उम्मीद नहीं रखता।
लड़के ने दरवाजे की ओर देखते हुए कहा।
-- मेरा विश्वास है भगवान में।
लड़की की हथेली का दबाव विश्वास से बढ़ गया था। ट्रेन रुक गई। बच्चा दौड़ा-दौड़ा आया।
-- चलो दीदी, उतरना है।
लड़की ने हाथ अलग किया, एक गहरी साँस ली और विश्वास की डोर थामकर अपने भाई के साथ उतर गई। ट्रेन चलने को थी। लड़के ने बैग उठाया और सफेद शहर के उस भीड़-भाड़ वाले स्टेशन पर उतर गया। लड़की ने पीछे मुड़कर देखा। पूरा आसमान एक घर की छत पर उतर आया था।
-- तुम फिर इस तरह बैठे हो....
लड़की ने कमरे में घुसते ही उसे देखकर कहा। लड़का उस छोटे से कमरे के एक कोने में दीवार से पीठ टिकाकर जमीन पर बैठा था। लड़की की आवाज सुनकर, उसने सिर उठाकर देखा और हल्का सा मुस्कुरा दिया।
-- मैं बहुत देर से उस मकड़ी को देख रहा हूँ। उसने इतना बड़ा जाल बुन दिया और...और मैं यहाँ खाली बैठा हूँ- उसे देखता हुआ....
वह छत की ओर देखते हुए बोला।
-- मुझे डर लगता है कि तुम पागल न हो जाओ।
लड़की उसके बिल्कुल सामने आकर खड़ी हो गई थी।
-- मुझे भी लगता है...
उसकी आवाज़ में चिंता नहीं थी, केवल खालीपन था। लड़की ने उसे उठाने के लिए अपना हाथ आगे किया। लड़के ने हाथ थाम लिया।
-- कोई देख तो नहीं लेगा?
लड़के ने उसकी आँखों में उसी खालीपन से देखते हुए कहा।
-- सब बाहर गए हैं।
लड़का उसके हाथ का सहारा लेकर खड़ा हो गया।
-- भूख लगी है।
लड़के ने इस तरह से कहा, जैसे बच्चा माँ से कहता है।
-- मैं लाती हूँ कुछ।
लड़के का दर्द, जाती हुई लड़की की आँखों में प्रतिबिम्बित हो रहा था। जब लड़की थाली लेकर लौटी तो लड़का वहीं खड़ा हुआ छत की ओर देख रहा था। उसे देखकर लड़का कुर्सी पर बैठ गया। लड़की ने एक स्टूल सरकाकर थाली उस पर रख दी।
-- जल्दी खा लो...
इससे पहले कि कोई आ जाए। लड़के ने रोटी का एक टुकड़ा तोड़ा था। उसका हाथ कुछ क्षण तक हवा में रहा और फिर उसने टुकड़ा वापस थाली में रख दिया।
-- हम चोरी कर रहे हैं क्या?
उसके स्वर में कुछ था कि छत पर दौड़ती हुई मकड़ी रुक गई।
-- हाँ, छिपकर कोई भी काम करना चोरी ही होता है।
लड़की ने भी उसी तरह कहा, जैसे माँ बच्चे को समझा रही हो।
-- फिर मैं नहीं खाऊँगा।
-- कब तक भूखे रहोगे?
लड़की ने निवेदन के स्वर में कहा। उसकी चंचलता तो वर्षों पहले ही समाप्त हो गई थी।
-- जब बिना चोरी का खाने को मिले।
-- अच्छा, यह चोरी का नहीं है। अब खा लो प्लीज़।
लड़का आज्ञा मानकर खाने लगा। लड़की उसके पास खड़ी होकर उसका चेहरा निहारती रही। एक रोटी खाकर वह रुक गया।
फिर कुछ सोचकर बोला -- कब तक खिलाती रहोगी मुझे? कब तक चोरी करके पैसे लाती रहोगी मेरे लिए?
-- जब तक मैं रहूंगी....
लड़की दूसरी ओर देखने लगी थी।
-- मैंने तो कुछ भी नहीं किया तुम्हारे लिए। बोझ बनकर यहाँ पड़ा रहता हूँ दिनभर...
लड़की ने उसके होठों पर हाथ रख दिया और अगले ही क्षण रोने लगी।
-- प्लीज़, तुम मत रुलाया करो मुझे। कुछ मत बोला करो।
वह रोते हुए बोली। लड़का उसे देखता रहा। उसे देखकर लगता था कि वह कमज़ोर काठ हो गया है।
कुछ पल बाद लड़की अपने आप ही चुप हो गई।
-- अच्छा ये बताओ कि कल कौनसी कविता लिखी?
लड़की दुपट्टे से अपने आँसू पोंछते हुए बोली।
-- कल कुछ नहीं लिखा और....
वह कहता-कहता रुक गया।
-- और क्या?
रोने से लड़की का चेहरा लाल हो गया था। लड़के ने कमरे में ही एक तरफ इशारा किया। राख का एक बड़ा सा ढेर था और कुछ अधजले कागज़ के टुकड़े हवा में इधर-उधर उड़ रहे थे।
लड़की एक गहरी साँस लेकर धम्म से खाट पर बैठ गई और उस ढेर की ओर देखती रही।
-- ये क्यों किया तुमने?
-- माँ की याद आ रही थी। कुछ और तो था नहीं मेरे वश में, केवल ये कविताएँ थीं। अपनी कविताएँ जला देने का दर्द वह माँ ही समझ सकती थी, जिसे अपने बच्चे की हत्या करनी पड़ी हो। बाकी कोई कहता कि वह उस दर्द को महसूस कर सकता है, तो झूठ कहता।
-- तुम घर क्यों नहीं चले जाते? चार साल से घरवालों को कोई ख़बर भी नहीं दी। वह उसके दोनों हाथ, अपने हाथों के बीच में पकड़कर प्यार से बोली।
-- तब जाता तो वे तुमसे दूर किसी होस्टल में भेज देते और तब नहीं गया तो अब कैसे जाऊँ? उन्होंने सोचा होगा कि कहीं मर गया हूँ।
काले शहर ने एक ठण्डी साँस भरी।
-- इतना प्यार क्यों करते हो कि जीना मुश्किल हो जाए?
-- तुम रोज़ खाना क्यों लाती हो कि जीना पड़े?
-- क्योंकि तुम्हें खिलाए बिना नहीं खा सकती।
-- जब मैं नहीं रहूँगा तो क्या करोगी?
लड़के की धुंधली आँखों का रंग मटमैला हो गया था। इस बार ऐसा बोलने पर लड़की ने उसके होठों पर हाथ नहीं रखा।
-- मेरे कारण तुम्हारी ज़िन्दगी बर्बाद हो गई है....
-- बर्बाद कहाँ हुई? अभी तो तुम हो। जब नहीं रहोगी, तब पूछना....
लड़के के चेहरे पर बहुत वेदना से भरी हुई मुस्कुराहट दौड़ गई।
-- तुम घर लौट जाओ प्लीज़।
-- तुम रह पाओगी?
-- न भी रह पाऊँ तो क्या रहूंगी नहीं?
-- मैं तो जी भी नहीं पाऊँगा।
-- हम साथ न रह सकें तो भी मेरे लिए जीते रहना।
लड़की ने उसके हाथों को और कसकर पकड़ लिया था।
-- मैं चलती हूँ अब।
वह हाथ छोड़कर खड़ी हो गई। लड़का कुछ नहीं बोला, सिर झुकाए कुर्सी पर बैठा रहा।
लग रहा था कि कमजोर काठ भीतर से जल रहा है। लड़की चल दी। दरवाजे पर पहुँचकर कुछ क्षण रुकी।
-- पापा मेरे लिए लड़का ढूंढ़ रहे हैं। और चली गई। ...............
कोई जाए, मगर यूँ सारी उम्मीदें साथ लेकर न चला जाए। थाली की दाल-रोटी, कमरे की दीवारों और फ़र्श के गले जा लगीं। अधजले कागज़ के टुकड़े पूरे जला दिए गए। भरी दुपहरी में कमरा अँधेरा हो गया और उम्मीद के आखिरी जुगनू को ‘पापा’ नाम को कोई जीव निगल गया।
......कोई जाए, मगर यूँ किसी का जीवन साथ लेकर न जाए।
कमरे के एक दरवाजे पर खड़ी एक लड़की ने एक बार भीतर झाँका और फिर बाहर धीमे-धीमे टहलने लगी।
- भगवान के लिए कुछ बोलो। तुम्हारी चुप्पी नहीं सही जाती। वह बड़े से आईने के सामने कुर्सी पर बैठी थी। बदन पर भारी-भरकम चमचमाते कपड़ों और गहनों का बोझ था और दिल पर उससे ज्यादा....
वह उसके कदमों के पास चुपचाप बैठा रहा। उसके आँसू लड़की के पैरों पर बार-बार गिरते थे। लड़की के आँसू दुल्हन के कपड़ों में बीच में ही कहीं खो जाते थे, जैसे दुल्हन के सपने...
-- और मत रोओ...सारा मेकअप खराब हो जाएगा।
पास खड़ी छोटे बालों वाली मोटी औरत ने रुमाल से उसका चेहरा हल्के से पोंछ दिया और फिर एक ब्रश उठाकर चेहरे पर रंग पोतने लगी। लड़का बोला नहीं, लड़की के पैरों पर गिरते उसके आँसुओं की गति बढ़ गई। लड़की का मन किया कि आँसुओं से सारा मेकअप धो डाले, ऐसे कि वो फिर कभी न चढ़ पाए और सब कपड़े इस तरह फाड़कर कहीं फेंक दे कि वैसे कपड़े फिर कभी न सिल पाएँ।
लड़के ने झुककर लड़की के पैरों को चूम लिया और उन्हें चूमता हुआ भी रोता रहा। छोटे बालों वाली औरत आश्चर्य से उसे देखने लगी थी। लड़की सामने आईने में अपने आप को देखती रही। आँसुओं से फिर मेकअप बिगड़ने लगा।
तभी लड़के की धुंधली होती आँखों में उसके पैरों पर लगी मेंहदी चुभी और वह चौंककर इस तरह दूर हट गया, जैसे कुछ याद आ गया हो।
मोटी औरत फिर उसी निर्लिप्त भाव से अपने काम में लग गई, जैसे उसे कुछ सुनता न हो, कुछ दिखता न हो।
-- मैं आज कुछ नहीं कहूँगा। मैं अब कभी कुछ नहीं कहूँगा।
बिलखते हुए वह बोला। कमरे में आने के बाद यह उसके मुँह से निकली हुई पहली बात थी।
लड़की अपने आप को रोक नहीं पाई और अपने चेहरे पर से मोटी औरत का हाथ झटककर कुर्सी से उठकर लड़के के सामने बैठ गई और उसके माथे और आँसुओं से भरे चेहरे को बेतहाशा चूमने लगी।
लड़का बिलखता रहा, जैसे आसमान से आग बरसकर उसे चूमती हो।
एक बड़े से हॉल के बीचोंबीच फव्वारा था। मेहमान आने लगे थे। एक सजी-धजी सुन्दर औरत एकटक उस फव्वारे को ही देख रही थी। उसकी आँखों में हल्का सा पानी तैर गया।
-- क्या हुआ?
एक आदमी ने उसके कन्धे पर प्यार से हाथ रखते हुए कहा।
-- कुछ नहीं....
वह उसकी ओर देखकर मुस्कुराई। आँखों में तैरते पानी ने मुस्कुराने से साफ मना कर दिया।
-- हमारी शादी को याद कर रही हो?
-- हाँ....
लेकिन आँखों ने झूठ बोलने से भी मना कर दिया। भीतर कहीं पीड़ा के फव्वारे फूट पड़े थे।
कुछ क्षण बाद लड़की संभल गई और उसके चेहरे से दूर हट गई। फिर उसे देखकर कुछ पल तक रोती रही और रोती-रोती ही अपनी कुर्सी पर आकर बैठ गई।
लड़के का रोना बहुत कम हो गया था। मोटी औरत फिर अपना काम करने लगी।
-- जब आखिरी बार सोया था तो सपने में एक गली दिखी थी, जिसके सब घर जल गए थे। एक नीम का पेड़ दिखा....कह रहा था कि वो मर रहा है....
लड़के की आवाज़ बहुत दूर से आती लग रही थी। अब वह रो नहीं रहा था।
-- मुझे याद मत करना, मेरी कसम है तुम्हें।
लड़की काँपते हुए स्वर में बोली और कसम अगले ही क्षण टूटकर खनखनाती हुई बिखर गई।
हॉल में तेज आवाज़ में संगीत बज रहा था। फव्वारे के पास खड़ी उस औरत ने संगीत और रंग-बिरंगे चेहरों में स्वयं को खोने का प्रयास किया, लेकिन नाकाम रही। उसका पति किसी परिचित को देखकर उससे मिलने चला गया।
उसके दिल में गूँज रहा था -- हमारी शादी को याद कर रही हो? और उसके मन में आया कि ये फव्वारे समन्दर बन जाएँ और वह डूब मरे।
-- रोओ मत, टाइम नहीं है बार-बार मेकअप करने का।
मोटी औरत ने कड़े शब्दों में कहा तो लड़की कुछ धीमी आवाज़ में रोने लगी। हालाँकि आँसुओं की गति कम नहीं हुई।
-- यह भी दिखा कि आकाश से दर्द बरस रहा है और उस शहर की सब गलियाँ घुटनों तक भर गई हैं....
लड़के की आवाज़ भर्रा गई थी। वह बहुत कमज़ोर हो गया था और रोने से और भी कमज़ोर लगने लगा था।
-- मैं उसके साथ रह लूँगी, जी लूँगी, सो भी लूँगी, लेकिन तुम्हारे सिवा कभी किसी से प्यार नहीं करूँगी....
यदि देवियाँ वरदान देती होंगी तो बिल्कुल उसी तरह देती होंगी, जिस तरह लड़की बोल रही थी।
इस कथन पर मोटी औरत ने रुककर उसके चेहरे को ध्यान से देखा, फिर लिपस्टिक उठाई और उसके काँपते हुए होठों पर लगाने लगी।
-- याद है, हमारी शादी में तुम्हारी वज़ह से कितनी देर हो गई थी? तुम्हारे मेकअप के चक्कर में सब फेरों के लिए एक घण्टा इन्तज़ार करते रहे थे।
उसका पति फिर उसके पास आकर खड़ा हो गया था। इस बार वह मुस्कुरा भी नहीं पाई। उसे लगा कि चारों ओर मातम के गीत गाए जा रहे हैं। फव्वारों के गिरने की आवाज़, लहरों की गर्जना बनकर उसके दिमाग से टकरा रही थी। ऐसे में वह क्यों मुस्कुराती और कैसे मुस्कुरा पाती?
-- दीदी, बारात आ गई है। सब कह रहे हैं कि जल्दी करो।
दरवाजे पर खड़ी लड़की चिल्लाकर बोली। छोटे बालों वाली औरत ने उसी क्षण अपना काम ख़त्म किया और संतोष की साँस ली। दरवाजे वाली लड़की भी भीतर आ गई और मंत्रमुग्ध सी होकर दुल्हन को देखती रही।
मोटी औरत और दरवाज़े वाली लड़की ने सहारा देकर उसे कुर्सी से उठाया और लेकर बाहर की और चल दीं।
-- कब मिलोगी? पास बैठी लाश ने जैसे अंतिम शब्द कहे थे। इस पर दोनों ने घूमकर उसे देखा और रुक गईं। लड़की अब रो नहीं रही थी, न ही उसने लड़के की ओर देखा।
-- कभी नहीं।
और चल दी।
फव्वारे के सामने खड़ी औरत को दिखने लगा कि कोई समन्दर की ओर बढ़ा ही जा रहा है। उसका शरीर लहरों से नहीं डरता, बढ़ा ही जा रहा है....और वह धीरे-धीरे डूबता जाता है, बचने के लिए कोई प्रयास नहीं करता।
कमरे की लाश एक ओर को लुढ़क गई। फव्वारे के पास खड़ी औरत गश खाकर गिर पड़ी। संगीत बजता रहा।
-- तुम बहुत गन्दे हो मामा।
मेरा दस साल का भांजा मुझसे कहता है।
-- क्यों?
-- पूरी कहानी क्यों नहीं सुनाते? हमेशा अधूरी छोड़ देते हो।
-- .............
-- और न ही ये बताया है कि लड़के-लड़की का नाम क्या था? कौन थे वे?
मेरे पास कोई उत्तर नहीं होता। मैं मुस्कुराने की कोशिश करता हूँ, शायद नहीं मुस्कुरा पाता। वह जिज्ञासा से मेरी ओर देखता रहता है और मैं डायरी बन्द करके रख देता हूँ।
‘तुम बहुत गन्दे हो...’ बहुत देर तक वातावरण में गूँजता रहता है।