प्रेम का अन्तर्राष्ट्रीय संस्करण / सुशील कुमार फुल्ल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


स बार उसका पत्र लम्बे अन्तराल के बाद आया है। सन्दर्भ वहीं रहते हुये मात्र एक आध-पात्र के बदल जाने से इतना बड़ा परिवर्तन हो सकता है, यह जानकर आश्चर्य हुआ। लगता है कि उसका दृष्टिकोण एवं विचार-धारा एकाएक धुंधला गयी है।

कालेज के दिनों वह मेरा सहपाठी था। सभी उसे ‘किताबी कीड़ा’ करके जानते थे। उसने भी कभी इस जनमत का विशेष विरोध अथवा खंडन नहीं किया था परन्तु मैं भली-भांति जानता था कि वह केवल पुस्तकों में ही नहीं खोया रहता था अपितु राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय समस्याओं एवं घटनाओं के प्रति जागरूक रहता। उसका विश्वास था कि दो-चार वर्ष तक किताबी कीड़ा बन कर यदि अच्छी डिग्रियाँ प्राप्त कर ली जाएं, तो कोई बुराई नहीं। बल्कि ऐसा करने से सारे रास्ते खुल जाते हैं। वह प्रायः कहा करता था- हमें गाँव या राष्ट्र के ऊपर उठ कर अन्तर्राष्ट्रीय-स्तर पर जीना चाहिए। अन्तर्राष्ट्रीय-स्तर पर उसके जीने का अभिप्राय यही था कि मनुष्य को अपने ही देशों में जा कर भी रहना चाहिए। ऐसा करने से दृष्टि-विस्तार होता है। उसके दृष्टि-विस्तार को मैं प्रायः धनाकर्षण का पयार्य मानता था या फिर जब मैं उसे महत्वाकाँक्षी कह कर बुलाता, तो वह मुस्करा कर इस विशेषण को स्वीकारता हुआ जान पड़ता।

हम सभी मित्र डाक्टरी की डिग्रियाँ लेकर यहां वहां फैल गए थे परन्तु कोई भी सन्तुष्ट नहीं जान पड़ता था। किसी को वेतन कम मिलता था, तो कोई गाँव में होने के कारण दुखी था। मि. जैन दिल्ली के कई चक्कर लगा आया था। एक-बार मैंने पूछा कोई विशेष प्रोग्राम लगता है? ‘‘डा. जैन आदमी विशिष्ट है।’’ उसने मुस्कराते हुए बात टाल दी थी।

फिर एक दिन उसी ने बताया था कि वह एक सप्ताह के भीतर ही अमरीका के लिए प्रस्थान कर देगा। मुझे आश्चर्य हुआ था, थोड़ी कुढ़न थी। इतनी मैत्री होने पर भी उसने मुझे इस सन्दर्भ में कुछ भी बताना उचित नहीं समझा था। मैंने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उसे कहा था- मुझे तुम से ऐसी आशा नहीं थी। ‘‘कैसी? मेरे जाने की?’’ वह हंसी दबा कर बोला। ‘‘डालरों के आकर्षण से मित्र जा रहा है, यह प्रसन्नता की बात है। मैं सोचता था तुम मुझ से कुछ नहीं छिपाते। खैर........................।’ ‘‘मैं यहीं ठीक हूं। मुझे डालर खरीद नहीं सकते। और फिर अपने-अपने सिद्धान्त की बात है।’’ डा. जैन चला गया था। वहाँ पहुंचते ही उसने मुझे पत्र लिखा। पत्र संक्ष्पित था परन्तु बोलता बहुत कुछ था। पत्र पाकर मैं बड़ा प्रसन्न था। लिखा था:

न्यूयार्क, 20-9-57 माई डियर बड्डी, नरक से स्वर्ग में, धरती से आकाश पर, पृथ्वी से चन्द्रमा पर, मृत्युलोक से परलोक में पहुंचने पर जो सुख............. जो आनन्द मिलता है उससे भी अधिक सुख एवं आनन्द वहां से यहां आने पर मिला है। प्यारे लाल, शब्द कितना भी ज़ोर लगाएं.............. सुख का सही वर्णन नहीं कर सकते। सच यार जन्म कहीं भी लो परन्तु विश्वभ्रमण परमावश्यक है। काश। तुम भी आज यहाँ होते। मधुर चुम्बन। शेष फिर, आप का जैनेश्वर जैन

मैं उस की प्रसन्नता का अनुमान सहज ही लगा सकता था। घुटन एवं आर्थिक कठिनाइयों के वातावरण से निकल कर अचानक ही वैभव-सम्पन्न परिवेश में पहुंच जाना निश्चय ही किसी के लिये भी अद्भुत आनन्दाभूति प्रदान करने वाला हो सकता है। और फिर जैनेश्वर तो वैसे भी अर्थ को विशेष महत्व देता रहा है। मैंने अभी उसके पत्र का उत्तर नहीं दिया था, कि उसका दूसरा पत्र भी आ गया। लिखा था:


न्यूयार्क 17-10-57

मेरा 20-9 का पत्र मिला होगा। इन दिनों तुम्हारें पत्र की प्रतीक्षा रही है परन्तु तुम तो गाँव-गाँव में जन-सेवार्थ भ्रमण कर रहे होंगे। जानता हूं तुम्हारा आदर्शवाद तुम्हें कही नहीं पहंुचने देगा। स्वयं पीड़ित रह कर पीड़ित जनता की सेवा करना मुझे विरोधाभास के अतिरिक्त और कुछ नहीं लगता खैर, कामेश्वर प्यारे। काम के ईश्वर बने फिरते हो, कभी काम की दुनियाँ देखी भी है। काम-पिपासा का तांडव-नृत्य देखना हो तो यहाँ आओ। कामेश्वर या काम देवता या मदन आदि नाम रखने से भी कोई सचमुच सेक्स की दुनियाँ का प्रतिनिधि नहीं हो जाता। यहां सभी युवक युवतियाँ मुझे कामदेवता एंव कामदेवियां लगते हैं। कोई सामाजिक प्रतिबन्ध नहीं। कोई हिचक नहीं। माँ-बाप की ओर से भी कोई रोक-टोक नहीं। लड़कियां स्वयं अपने वर चुनती हैं। भारत से एकदम अलग परम्पराएं। विवाह के रोचक प्रंसग।

बेटा। डेंटिग सुनी है कभी। वही जिसके विषय में हम कभी होस्टल में बैठ का अनुमान लगाया करते थे। नंग-धडं़ग गोरी-चिट्टी देह वाली परियां जब अपने चेहते युवको के साथ सट कर लौटती है, चुम्बनों का आदान-प्रदान करती हैं... तथा ऐसे दृश्य देखकर हम तो मंत्र मुग्ध से देखते ही रह जाते हैं, पश्चिमी जगत वालों के लिए यह दृश्य सहज-स्वाभाविक है, इन में कुछ भी चौंकाने वाला नहीं। वे संभवतः इस बात में बहुत विश्वास रखते हैं कि शारीरिक भूख की तृप्ति नैसर्गिक प्रवृत्ति है, इस में संकोच की क्या बात है। मैं जानता हूं कि तुम भी इस मत का समर्थन करोगे परन्तु फिर भी भारतीय संस्कार स्वच्छन्द कामतृप्ति के आड़े होते हैं। काम-काम के लिये नहीं, सन्तानोत्पत्ति के धर्म के रूप में लिया जाना चाहिए- ऐसे कितने ही भारतीय संस्कार उभर आते हैं परन्तु सच तो सच ही है। काम जीवन का आधार है, काम के बिना पुरुष एंव नारी अधूरे हैं। काम की महिमा अपरम्पार है। काम की शक्ति असीम है...

यार, एक बात मुझे यहां की बहुत अच्छी लगती है। आप किसी युवती के साथ जा रहे हैं या बैठे हैं। उसका कोई सम्बन्धी अथवा माता-पिता भी मिल जाएं, तो वे हरगिज भी लड़की के काम में दखल नहीं देते। कोई लड़की किसी लड़के के साथ डेंटिग पर जाती हैं, जरा भी नहीं चिढ़ते। हैं न वण्डर-लैंड, स्वर्णपुरी...परलोक। सब अपने में मस्त एवं व्यस्त।

डियर कन्दर्पसेन जी, मैं इन दिनों डेंटिग का आनन्द लेने के चक्कर में हूं। तुम भी आ जाओ तो इकट्ठे चलेंगे। ढेरों सामग्री है लिखने को। क्या लिखूं क्या लिखूं धीरे-धीरे सब लिखूंगा। लिखने से अजीब प्रकार का आनन्द मिलता है। अच्छा, शेष फिर सही। आपका जैनेश्वर जैन


मैंने लगभग एक-डेढ़ महीने के बाद पत्र दे दिया था। फिर थोड़े विलम्ब से उसका पत्र आया था। न्यूयार्क 25-3-59 डियर कामू, तुम्हारा पत्र दिसम्बर के अन्तिम सप्ताह में मिला था। अनेक धन्यवाद। तुम्हारी शैली निश्चय ही बहुत अच्छी लगी। प्रत्युत्तर में मुझे आवश्यकता से अधिक विलम्ब हो गया हैं, क्षमा प्रार्थी हूं।

तुमने अपने पत्र में फिर अपने थोथे आदर्शवाद की दुहाई दी है कि हमें अपने ही देश मे रह कर जनता की सेवा करनी चाहिए। ऐसा करने के लिए चाहे हमें अपने संभावित सुखों का हनन ही क्यों न करना पड़े। भाई, मैं कूप मण्डूक बने रहने में विश्वास नहीं रखता। जनता की सेवा, कामू डियर। तुम्हें मुबारिक। तुम्हारा दृष्टिकोण वास्तव में बहुत ही संकुचित है। तुम तो मानों वैभव को ठुकराने पर तुले हो। किसी दिन मैं भारत आया तो तुम मेरे धन-दौलत को देखते रह जाओगे। तुम तो निरे सिधान्तवादी हो। ऐसा जीना भी क्या जीना है। मनुष्य को महत्वाकांक्षी होना चाहिए। कुछ विशिष्ट कर गुजरना चाहिए। देश नही ंतो कम से कम अपने परिवार की आने वाली पीढ़ियां तो गौरव से हमारा स्मरण करेंगी। मैं फिर यही कहूंगा कि यदि तुम्हारी जरा भी इच्छा यहां आने की हो तो मैं सारा प्रबन्ध कुछ ही दिनों में कर दूंगा। यहाँ के नग्नता में डूबे नाच-गाने देखोगे तो सचमुच ‘कामेश्वर’ शब्द को सार्थक करते हुए जान पड़ेंगे। यथा नाम तथा काम। तुम्हारे लिये खुशखबरी- मैं डेंटिग पर हो आया हूं। यार, क्या नाम है। क्लाइडा की देह की गर्मी............ प्यार में सराबोर चुम्बन........... मुझे उसे गुदगुदाने में ज़रा संकोच हो रहा था परन्तु उसने तो चुम्बनों की बौछार ही कर दी। खैर, इस पक्ष को तो छोड़ो....... तुम स्वयं कल्पना द्वारा इसे समझ सकते हो.......... मेरे वर्णन की आवश्यकता नहीं।

जानते हो क्लाइडा मुझे क्यों चाहतीं है, क्यों पसन्द करती है? तुम हैरान हो जाओगे। वह मुझे इस के लिए नहीं चाहती कि मैं सुन्दर हूं हृष्ट-पुष्ट हूं। न ही इसलिये कि मैं अच्छा वेतन लेता हूं बल्कि इसलिए, उसी के शब्दों में- इण्डियनज आर वल्गर टु दी एक्सटेंट आव लवलीनैस। क्लाइडा की यह बात सुनकर मैं हंस दिया था। उसे वल्गेरिटी पसन्द है........... वाह् क्या चीज है। क्या और........... क्लाइडा का मैं सातवाँ इण्डियन लवर हूं। सातवाँ......... कोई फर्क नहीं पड़ता। कितना उन्मुक्त समाज। कोई अनावश्यक प्रतिबन्ध नहीं। काश। भारत में भी ऐसा ही हो पाता......... बिल्कुल ऐसा ही, तो समाज की सड़न ही निकल जाती। कामेश्वर। मेरी माँ की चिट्ठी आई है। लिखा है- अब अच्छा वेतन लेने लगे हो, शादी करवा लो। उन्होनें मेरे लिए लड़की भी देख रखीं है। यार मैं अभी शादी नहीं करवाना चाहता। नई सोसाइटी मे मैं शादी को कोई आवश्यकता भी नहीं समझता लेकिन माँ-बाप भी मानने वाली मिट्टी के नहीं बने हैं। बताओ क्या करूं। मैं तुम्हारे पत्र की प्रतीक्षा करूंगा। घर में सब को यथायोग्य अभिवादन। आपका जैनश्वर जैन

जैनेश्वर जैन के इस पत्र के बाद घटनाओं ने बड़ी तेजी से मोड़ लिया। वह अभी विवाह करवाना नही चाहता था। माँ-बाप अपनी जिद पर अड़े हुए थे। वे बार-बार लिख रहे थे कि या तो वह जल्दी भारत आकर विवाह करवा जाए या फिर वे कोई और उपाए सोचंेगे। पत्र व्यवहार में कई मास और निकल गए। जैनेश्वर नहीं आया था। उसके माँ-बाप ने और अधिक प्रतीक्षा व्यर्थ समझी थी। घर में अमरीका से कोई जैनेश्वर की रंगीन फोटो थी। उस फोटो को जैनेश्वर के स्थान पर बिठा कर एक लड़की से विवाह करवा दिया गया। मैंने उसके माँ-बाप को समझाना चाहा था परन्तु कोई प्रभाव नहीं हुआ था। मैंने, सीधा सादा तर्क दिया था यदि लड़के को लड़की पसन्द नहीं आई ता बुरा होेगा। जैनेश्वर के पिता ने एक वाक्य में ही सब समाप्त कर दिया था। कहा था- जैनेश्वर का बाप भी ऐसी हिमाकत नहीं कर सकता।

लड़की भी उत्साही एवं साहसिक थी। वह अकेली ही अमरीका पहुंच गई थी। जैनेश्वर की प्रारंभिक प्रतिक्रिया कोई विशेष अनुकूल नहीं थी परन्तु कपिला ने उसे अपने व्यवहार, शक्ल-सूरत के आकर्षण एवं दृढ़ प्रेम के आधार पर जीत लिया था। अधिकाँश भारतीयों की भाँति जैनेश्वर ने भी यह सोच कर संतोष कर लिया था कि परमात्मा जो भी करता है, ठीक ही करता है। और फिर एक न एक दिन तो उसे शादी करनी ही थी। इस सन्दर्भ में उसने मुझे एक पत्र लिखा था, जिससे लगता था कि वह अपनी हार को स्वीकार ने के मूड में कम से कम पत्र लिखने के समय तो नहीं था। उसने लिखा था।


न्यूयार्क 7-8-60 डियर कामेश्वर जी, मेरे विवाह पर प्रेंषित आप की बधाइयां यथा समय मिल गयी थीं। हार्दिक धन्यवाद। विलम्ब से प्रत्युत्तर देना मानों मेरी नियति ही बन गयी है, अतः इस सन्दर्भ में खेद-प्रकाश व्यर्थ ही होगा। तुम तो जानते ही हो कि मैं अभी विवाह करवाने के पक्ष में ही नहीं था परन्तु बिरादरी एंव माता-पिता ने बरबस मुझे झुका ही दिया। उन्होंने वास्तव में, कपिला को मुझ पर थोंप ही दिया है। पहले मैं इस मूड में था कि भले ही यहां भेज दी जाए, मैं उसे अपने साथ नहीं रखूंगा। परन्तु कपिला मुझे भोली लड़की लगी। जरा भी अहम् भाव नहीं। डाँटने पी भी मुस्कराने वाली। ऐसी स्थिति में भला कौन उसे अस्वीकार करता। तुम्हें जान कर प्रसन्नता ही होगी कि हमारे घर कन्या-रत्न ने जन्म लिया है। कपिला ने प्यार से उसका नाम गोल्डी रखा है। गोल्डी बहुत प्यारी लड़की है।............................. जैनेश्वर जैन।

उसने और भी बहुत कुछ लिखा था। इस पत्र के बाद भी कभी-कभार उस का पत्र आता रहता है। अभिप्राय यह है कि इन पन्द्रह बर्षों में हमारा सम्पर्क बराबर बना रहा है। यद्यपि सात समुद्रों के पार रहने वाला व्यक्ति भला कब तक अपने भारतीयों मित्रों की औपचारिकता का निर्वाह कर सकता है, यह कोई भी सोच सकता है। जैनेश्वर अपवाद ही था।

उसे वहाँ गए सोलह-सत्रह वर्ष हो गए हैं। इस बार उस का जो पत्र मुझे मिला है, वह निश्चय चौंका देने वाला है। इतने वर्षों में ऐसा पत्र उसने पहले कभी नहीं देखा बल्कि वह सदा अन्तर्राष्ट्रीयता का ही गुणगान करता रहा है। मानों हर बात को वह अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हीं तोलने लगा है। मैं आप को उसके उक्त पत्र से और अधिक वंचित नहीं रखना चाहता आप स्वयं ही पढ़ कर मत बना लें। न्यूयार्क। 25 अगस्त, 1975 प्रिय श्री कामेश्वर प्रसाद जी, आशा है आप सपरिवार सकुशल एवं सानन्द होंगे। क्षमा-प्रार्थी हूं कि इतने दिनों बाद पत्र दे रहा हंू तीन-चार वर्षों से पत्र नहीं लिख सका परन्तु तुम ने भी तो जैसे सौगन्ध ही खा ली हो।

मैं तुरन्त भारत लौटना चाहता हूं। मेरे लिए जो भी प्रबन्ध कर सको कर दो। मैं एक क्षण भी यहां नहीं रहना चाहता। मेरा क्लिनिक बहुत बड़ा है, बहुत नाम है, पैसा है परन्तु कई बार सब कुछ ठुकराना पड़ जाता है। सिद्धान्त की बात है। पैसा ही सब कुछ नहीं। मैं जब यहां आया था तो सोचता था रोमांस की दुनियां से गया, वैभव की दुनियां में आ गया। बात भी ठीक ही थी। इतने वर्षों में मैंने दो कारें, एक बड़ा भवन, एक पूरा क्लिनिक बना लिया और तुम हो कि अभी तक इन सारी सुविधाओं से वंचित हो और न ही निकट भविष्य में शायद तुम ऐसी आशा कर सको। यहां सब कुछ है यार। बिल्कुल ठीक है। लेकिन आजकल मैं बहुत परेशान हूं। कामेश्वर भाई, आप से मेरा कोई पर्दा नहीं। शायद आप मेरी मनः स्थिति को समझ सकेंगे लेकिन बेटे मज़ाक नहीं उड़ाना। कहीं मुझे ही भाषण देने लगो। इस विषय पर लिखते हुए मेरा दिल बहुत बुरी तरह से धड़क रहा हैं। तुम जानते ही हो कि मेरी बेटी पन्द्रहवें वर्ष में है। गोल्डी सुन्दर है, स्वस्थ है। पाश्चात्य वातावरण एवं सभ्यता में जन्मी पली है। वह एक बार भी भारत नहीं गयी। हमें यहां रहते लगभग सत्रह वर्ष हो गए हैं लेकिन यार, मैं सोचता हूं कि मेरे भारतीय संस्कार वैसे के वैसे हैं या फिर हो सकता है नयी परिस्थितियों के कारण वे पुनः उभर आए हैं।

गत रविवार की बात है। गोल्डी का एक अंग्रेज दोस्त आया। उसका नाम वाल्टरमैन है। लम्बा-चौड़ा युवक। वह हमारे घर पहली बार आया था। बाहर वह एक दूसरे से मिलते रहे होंगे। उसने आते ही गोल्डी को हमारे सामने चूम लिया। हम तो ज़मीन में गड़े जा रहे थे। थोड़ी तो शर्म होनी चाहिए थी। गोल्डी ने भी निस्संकोच उसे चूम लिया था। वे कुछ देर बैठे बातचीत करते रहे। मैंने गोल्डी को संकेत से अपने कमरे में बुलाया और कहा- गोल्डी, यह क्या कर रही हो? तुम्हारी माँ क्या कहेगी? हम भारतीय हैं, हमें यह बातें शोभा नहीं देती। ‘‘फारगेट एबाउट इण्डिया, डैड। वी आर इन अमेरिका, दी लेंड आव रोमाँस एण्ड एडवेंचर।’’ फिर रूक कर बोली- मम्मी क्यों नाराज़ होगी? उन्हें तो खुश होना चाहिए। ‘शट-अप गोल्डी।’’ मैं चिल्लाया।

‘‘डैडी, यू आर एन आरथोडाक्स। आई एम गोइंग फार डेंटिग विद हिम। आई रियली लव हिम, अन्डास्टैंड! मोर ओवर यू हैंव नो राइट टू इन्टरफियर।’’ वाल्टरमैन तथा गोल्डी चले गए थे। मैं ओर मेरी पत्नी अवाक खड़े थे। कामेश्वर, तुम्हीं बताओ ऐसी स्थिति में मैं यहां कैसे रूक सकता हूं। गोल्डी कुछ भी कर सकती है। मैं बहुत परेशान हूं। मैं तुरन्त उसे भारत भेजना चाहता हूं। उस के लिए हम सभी भारत लौट आएंगे। मैं, मैं यह सब नहीं देख सकूंगा। जल्दी से जल्दी कोई घर आदि ढूंढ दो। नौकरी भी तुम्हारे सहारे मिल जाएगी शायद।

कहीं तुम मेरी मनः स्थिति पर हंस ही न देना। मैं, मैं जानता हूं कि जीवन की स्वच्छन्दता सब के लिए समान होनी चाहिए परन्तु मैं इस बात को गले नहीं उतार पाता कि मेरी लड़की वाल्टरमैन या किसी भी युवक के साथ घूमती रहे। लड़कों की बात कुछ और है। वे कुछ कर भी बैठें, तो भी उन का कुछ नहीं बिगड़ता। इस सिलसिले में भारतीय रीति-रिवाज अधिक अच्छे लगते हैं मुझे। तुम फिर मेरा इसे आदर्शवाद कहोगे। हम कभी भी भारत लौट सकते हैं। मेरे घर भी बता देना। बहुत दिन हो गए माँ-बाप से मिले हुए। कहीं पिता जी से गोल्डी की बात न कह देना। सम्भव हो तो अपने लड़के राजेश के लिए गोल्डी को स्वीकार कर लो। मेरा बेड़ा पार हो जाएगा। ठीक है न दोस्त। भाभी जी को नमस्कार। बच्चों को प्यार। तुम्हारें पत्र की ही प्रतीक्षा में, तुम्हारा, जैनेश्वर जैन।

जैनेश्वर का पत्र मैंने कई बार पढ़ा है। मेरे सामने बार-बार जैनेश्वर एवं क्लाइडा तथा गोल्डी और वाल्टामैन दो जोड़े उभर आते हैं। दोनों अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के। दोनों भारत से बहुत हट कर। समझ नहीं आता जैनेश्वर की सहायता किस प्रकार और कैसे करूं।