प्रेम का उदात्त रूप, ‘तुम सर्दी की धूप’ / स्मृति शुक्ला
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' हिन्दी के बड़े रचनाकार इस अर्थ में है कि उन्होंने हिन्दी की अनेक विधाओं में स्तरीय लेखन किया है। वे जितने अच्छे कथाकार हैं उतने ही अच्छे कवि भी हैं। अब तक उनके तीन कविता संग्रह 'अंजुरी भर आशीष' , 'मैं घर लौटा' , " तुम सर्दी की धूप 'शीर्षक से प्रकाशित हो चुके हैं।' तुम सर्दी की धूप' उनकी प्रेम कविताओं का संग्रह है जो 2018 में प्रकाशित हुआ। प्रेम एक ऐसा पवित्र और उदात्त भाव जो मनुष्य के जीवन को बदल देता है उसे कोमल, उदार और अधिक संवेदनशील बनाता है। पवित्र लौकिक प्रेम ही मनुष्य को अलौकिक प्रेम की यात्रा करा सकता है।
प्रेम के पवित्र भाव को समर्पित 'तुम सर्दी की धूप' अयन प्रकाशन नई दिल्ली से 2018 में प्रकाशित काव्य संग्रह है। प्रेम एक बड़ा व्यापक ' शब्द है। हिन्दी काव्यधारा के प्रारंभ से ही प्रेम तत्त्व कविता के केन्द्र में हैं सूफी, संतों और फकीरों ने प्रेम के महत्त्व को समझाया है। कबीर ने प्रेम में हद दर्जे के समर्पण की बात की हैं वे कहते हैं-कबीर यह घर प्रेम का, खाला का घर नाहिं, सीस उतारे भुर्इं धरै, तो पैठे घर माहि॥ लैकिक प्रेम की गहनता को पार कर मनुष्य आध्यात्मिक ऊँचाई तक पहुँचता है। सूफी कवियों के प्रेमाख्यानों में यही इश्क मज़ाजी से इश्क हकीकी तक की यात्रा है।
हिन्दी में घनानंद के कवित्तों में प्रेम का जो रूप है वह निष्कपट और सच्चा है उन्होंने प्रेम के मार्ग को 'अति सूधो सनेह को मारग है, यहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं' कहकर प्रेम की बड़ी गहरी व्याख्या कर दी है।
वर्तमान परिवेश में प्रेम के मायने बदल गए हैं। आज सच्चा और निस्वार्थ प्रेम कही खो-सा गया है। प्रेम आज पैसा, पद और सुविधाओं से तौला जाने लगा है। प्रेम एक तरह से व्यापार-सा बनता जा रहा है। जयशंकर प्रसाद ने लहर के गीत में लिखा है 'पागल रे वह मिलता है कब, उसके तो देते ही हैं सब आँसू के कण-कण से गिनकर यह विश्व लिये है ऋण उधार'। दरअसल प्रतिदान रहित प्रेम की गहरी अनुगूँज इस गीत में ध्वनित हैं।
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' ने 'तुम सर्दी की धूप' संग्रह की भूमिका में लिखा है कि ' कविता मेरी जीवन-रेखा है। मैं बिना खाये काफी देर तक रह सकता हूँ, लेकिन बिना साँस लिये नहीं रह सकता। कविता मेरे लिये यही साँसों का आना-जाना है। " जिस कवि के लिए कविता की अनिवार्यता साँसों की अनिवार्यता जितनी है अर्थात जिसकी प्रत्येक आती-जाती साँस में कविता रची-बसी हो वह कविता से कितना गहन अनुराग रखता है यह हम अंदाजा लगा सकते हैं।
प्रेम को समर्पित 'सर्दी की धूप' में प्रेम को केन्द्र में रखकर दोहे, मुक्तक, क्षणिकाएँ, हाइकुु, आदि के अतिरिक्त कविताएँ लिखी हैं। प्रेम के रसायन से सिक्त दोहों में कवि के प्रेमास्पद की सघन उपस्थिति है। काम्बोज जी प्रेमास्पद के प्रेम को वरदान सदृश मानते हैं। वे लिखते हैं-
मैं तुझमें ऐसे रहूँ, जैसे नीर-तरंग।
आए जो तूफान भी, नहीं छोड़ती संग॥
मिलते हैं संसार में, सबको लाखों लोग।
तुमसे मिल जाएँ जिसे, यह केवल संयोग॥
कौन बड़ा, छोटा वहाँ, जहाँ प्रेम-संचार।
मिलता नीर से नीर तो, उमगे भाव-विचार
प्रेम की गहरी व्यंजना और प्रेम की पीड़ा को समेटे इन तीन सौ चैवन दोहे में भाव प्रवणता है, अर्थ की गहनता और अनुभूति की तीव्रता है।
कवि का प्रेम पवित्र है, उसके मन में कोई खोट नहीं है; इसलिए वह निडर और निशंक हैं। रामेश्वर काम्बोज प्यार को सिर्फ़ प्रतिदान मानते हैं इसलिए कहते हैं-
प्यार सिर्फ़ प्रतिदान है, उजले मन की धूप।
रंग नहीं फीका पड़े, प्यार वही है रूप॥
प्यार के रंग में रंगे हुए 74 मुक्तक संकलित हैं इन मुक्तकों में प्रेम की विभिन्न अनुभूतियाँ हैं कई रंग है, कहीं ये रंग चटक हैं तो कहीं हल्के हैं। कवि अपने प्रेमास्पद को पर्वत के ऊँचे शिखर से उपमित करता है और स्वयं को सागर की गहराई, प्रिय उषा है तो कवि उसकी परछाई प्रेम में भौतिक दूरी कवि को विकल करती है, लेकिन कवि विरह में भी प्रिय के पास है। ईश्वर का स्मरण करते हुए भी वह प्रिय के नेह में ही डूब जाता है। वह प्रेयसी के मानवीय रूप में ईश्वर के ही दर्शन करता है यहाँ कवि का प्रेम उदात्त की उच्च भावभूमि को स्पर्श करने लगता है। प्रेम की अनन्यता में कवि अपने प्रत्येक सर्जन में प्रिय को ही पाता है।
प्राणों की विकल बाँसुरी से उमड़ा संगीत तुम्हीं हो,
वाणी की गंगा से निकला, वह पावन गीत तुम्ही हो।
अभिशप्त अप्सरा स्वर्ग लोक की, धरती पर उतरी हो।
प्राण सदा जिसको तरसे हैं, मेरी वह प्रीत तुम्हीं हों॥
कवि का प्रेम निस्वार्थ है जिसमें वह केवल प्रिय का कल्याण चाहता है उसे देना ही चाहता है, उसके सारे दुख-दर्द अपने ऊपर लेना चाहता है लेकिन कई बार ऐसा नहीं भी हो पाया है। जयशंकर प्रसाद ने आँसू में लिखा है-'छलना थी तो भी था विश्वास घना' इस सघन विश्वास के कारण कवि को कई बार प्रवंचना भी मिली है जिससे कवि का मन दुखी भी हुआ है। प्रसाद के लहर संग्रह में एक गीत है 'मधुप गुनगुनाकर कह जाता कौन कहानी अपनी' यह गीत प्रसाद ने मुंशी प्रेमचंद के आग्रह पर 'हंस' के आत्मकथा विशेषांक के लिये लिखा था इसमें एक पंक्ति है-यह बिडम्बना! अरी सरलते तेरी हँसी उड़ाऊँ मैं, भूले अपनी या प्रवंचना औरों की दिखलाऊँ मैं" कुछ इसी तरह के भाव व्यक्त करते हुए रामेश्वर जी ने लिखा है-
जिन पर हमने किया भरोसा, सारे भेद छुपाकर निकले,
खून-पसीने से जो सींचे, वे सब हमें मिटाकर निकले,
सारी उम्र गुजारी ऐसे, जब भीड़ मिली थी छलियों की
तुमको हमने गागर समझा, पर तुम पूरे सागर निकले।
तमाम विश्वासघात और छलकपट को झेलते हुए कवि आहत हुआ है; लेकिन लगता है कि अब कवि को अपने जीवन में देर से ही सही सच्चा मीत मिल गया है।
'तुम सर्दी की धूप' के कविता खण्ड की कविताओं, भावों की गहराई, संवेदनाओं की तरलता और अनुभूति की तीव्रता है। 'तुम ही तो है' कविता में रामेश्वर काम्बोज ने प्रेमास्पद के आंतरिक और बाह्य सौन्दर्य का बड़ा ही सजीव और हृदयस्पर्शी चित्रण किया है। कवि यहाँ भी प्रेमास्पद के वन-उपवन में खुशबू बनकर प्राणों को सरस करना चाहता है दूर रहकर भी प्रेयसी के द्वारे पर उजाले सजाना चाहता है। कवि इस यथार्थ से भी परिचित हैं कि सपने और अपने बहुत दुःख देते हैं, कवि को लगता कि दया, ममता, मानवीयता, करुणा जैसे भाव ही इस स्वार्थी संसार में दुख देते हैं या तो इन सभी को गहरे गड्ढे में दफ़न कर रोज-रोज भरा जाए या फिर किसी तयशुदा दिन का इंतज़ार किया जाए. कवि रामेश्वर काम्बोज को यह भान है कि भले ही वह कस्तूरी तुरंग की तरह अपने प्रेमास्पद को यहाँ-वहाँ खोजता फिर रहा है लेकिन वह उसके हृदय में ही है, वस्तुतः यहाँ प्रेम उच्चतर भावभूमि पर जा पहुँचा है।
क्षणिकाएँ और हाइकु भी प्रेम के रसायन में डूबे हुए है। प्रेम को बड़ी सुन्दर परिभाषा कवि ने दी है-
प्रेम क्या है
मुझको नहीं पता
तेरे न होने का मतलब
प्राण लापता, इतना जानता हूँ।
दरअसल अनुभूति की सच्चाई इस संग्रह की कविताओं का प्राण तत्त्व है। निजी अनुभवों से जन्मी भावनाओं से सिक्त ये कविताएँ पाठक को व्यष्टिगत प्रेम से समष्टिगत प्रेम तक ले जाती है। कवि की निजता में यदि सामाजिकता का समावेश न हो तो उसकी रचना की कोई मूल्यवत्ता नहीं होती। कवि रामेश्वर काम्बोज ने कवि के रूप में अपने सामाजिक उत्त्तरदायित्व का निर्वहन बखूबी किया है तभी वे कह पाये हैं कि-
मन की खाई को पार करें।
परहित सोचे और प्यार करें।
जब इस जग से जाना हो।
तब न मन में पछताना हो।
निस्संदेह 'तुम सर्दी की धूप' कथ्य और शिल्प दोनों की स्तर पर हिन्दी की एक श्रेष्ठ कृति ठहरती है। इन कविताओं में प्रेम की पीर है, मिलन की आकांक्षा है, प्रेमास्पद का रूप है, लेकिन इसके साथ ही मनुष्य के अनेक चेहरे उसकी कटुता, विरूपता, छल-कपट भी सामने हैं। इस संग्रह के दोहे, मुक्तक कविताएँ, हाइकु, माहिया और ताँका में गहरी भाव-प्रवणता है जो पाठक को भी भावनाओं की सरिता में आकंठ डुबोने का सामर्थ्य रखती है।