प्रेम का मकड़जाल / रेखा राजवंशी
आज सुबह से तबीयत कुछ ढीली थी, सिर में दर्द था, हलकी-सी हरारत भी महसूस हो रही थी। कला को लगा कि छुट्टी लेकर आज आराम किया जाए। इस देश में काम करने का भी कोई अंत है क्या? बिस्तर में लेटी ही थी कि सुबह ही फ़ोन की घंटी घनघना उठी, कला के चचेरे भाई आकाश का फ़ोन था।
"कला, क्या कर रही हो?"
इससे पहले कि वह उत्तर देती आकाश बोला, 'चाचा जी आज शाम तुमसे मिलने आना चाहते हैं, क्या ठीक रहेगा?'
कला की नज़र फैले हुए घर पर पड़ी, बिखरे कपड़े, बेतरतीब किचन और कारपेट पर कचरा। ओह, कैसे होगा? मन में तो आया कि कह दे शनिवार ठीक रहेगा, पर आकाश बोलता जा रहा था, "कला, वह शनिवार को ब्रिस्बेन जा रहे हैं। खाना बनाने की ज़रुरत नहीं है बस मिलना चाहते हैं। तुम चिंता मत करना, सिर्फ़ चाय चलेगी।'
कला आवाज़ में ख़ुशी लाते हुए बोली, ‘अरे तुम क्यों परेशान होते हो, आज मैंने वैसे भी आराम करने के लिए छुट्टी ली हुई है। आ जाओ, तो ये अच्छा ही रहेगा। वैसे भी चाचा जी को खाने पर बुलाना ही था।'
कह तो दिया पर फ़ोन रख कर चिंता में डूब गई। पहली बार घर आ रहे हैं, कुछ तो खिलाना पड़ेगा। अनमने मन से उठी और फ्रिज में नज़र डाली, कुछ पकाने लायक न दिखा। जैसे घर में झाड़ू फिरी हुई हो। वैसे भी वीक के अंत तक सारे सब्ज़ी, फल ख़त्म होने लगते हैं। गन्दा घर साफ़ करने की चिंता अलग सता रही थी। अब कैसे होगा ये सब? ऐसे में इंडिया के रामू और छोटू बहुत याद आते हैं, ये तो मानना पड़ेगा कि नौकरों-चाकरों का कितना सुख है वहाँ। जबसे सिडनी आई है, गरम रोटी मिलनी मुश्किल हो गई है। वीकेंड में अगर किसी रेस्टॉरेंट में गए तो ही गरम खाना मिल पाता है। समझ नहीं आ रहा था अब क्या करे। दूर के रिश्ते के चाचा किसी कांफ्रेंस में ब्रिस्बेन आए थे, तो सोचा सिडनी भी हो लें। अब उनकी खातिरदारी तो करनी ही पड़ेगी।
कला सोचने लगी, पति राघव वैसे भी ऑफिस से सात बजे के पहले घर नहीं आ पाते। हिम्मत जुटाई और दर्द की गोली पानी से सटक कर सोचने लगी कि कहाँ से काम शुरू करे। तभी फ्रिज पर लगे क्लीनिंग एजेंसी के नंबर पर नज़र पड़ी। वीक डे में किसी के मिलने की उम्मीद तो कम थी पर फ़ोन लगाया, "हलो, आशा क्लीनिंग एजेंसी?'
'जी हाँ बताइये, क्या चाहिए?' उधर से आवाज़ आई।
'क्या कोई क्लीनर मिल सकता है?'
'कब चाहिए? सवाल आया।
'आज ही चाहिए, इमरजेंसी है। कुछ मेहमान इंडिया से आ रहे हैं और मेरी तबीयत ठीक नहीं है। क्या किसी को भेज सकती हैं?' कला जैसे एक ही सांस में सब कुछ कह गई।
'जी ज़रूर, अपना पता लिखवा दें। दो घंटे में एक लड़की को भेज रही हूँ। मोबाइल में उसका मेसेज आएगा, जवाब दे दीजियेगा।'
कला ने जैसे चैन की सांस ली। उसे पता था कि पंजाब और गुजरात से आई अनेक विद्यार्थी लड़कियाँ पॉकेट मनी कमाने के लिए सफ़ाई का काम करती हैं। वे प्रति घंटा पंद्रह से पच्चीस डॉलर तक चार्ज करती हैं।
अभी हेल्पर के आने में दो घंटे हैं, तब तक दो तीन सब्ज़ियाँ और फल ले आती हूँ, सोच कर कला ने गाड़ी निकली और पास के शॉपिंग सेंटर में ले ली। गोभी, आलू, प्याज, गाजर बैग्स में डाले, दूध और दही के सेक्शन से कस्टर्ड भी उठा लिया। ट्राली में सामान डाल जल्दी से पेमेंट कर घर पहुँच गई।
दरवाज़ा खोला ही था कि फ़ोन बजा, 'जी मैं मनप्रीत हूँ, आपके घर दस मिनट में पहुँच रही हूँ।'
फोन रख जल्दी से सब्जियाँ और दूध फ्रिज में रखे। इधर-उधर पड़े बर्तन डिश वॉशर में डाले, बैडरूम समेटा कि ठीक दस मिनट में मनप्रीत आ गई।
'पहले दोनों बाथरूम साफ़ कर ले, फिर डस्टिंग, वैक्यूम कर लेना। अगर वक़्त हो तो किचन में हेल्प कर देना।'
उसे काम समझाकर किचन में आई और राघव को फ़ोन लगाया -'राघव थोड़ा जल्दी आ जाना आज, चाचाजी आ रहे हैं शाम को'
राघव को भी आश्चर्य हुआ, 'हफ्ते के बीच में? अच्छा चलो, कोशिश करता हूँ।'
'अच्छा आते-आते इंडियन ग्रोसरी स्टोर से नानक का रसमलाई का डिब्बा भी लेते आना' कहकर कला सब्जी काटने बनाने में लग गई। कुकर में दाल चढ़ा दी और दूसरी गैस में आलू गोभी की सब्जी छोंक, शर्मा पनीर का पैकेट खोला। जब कोई मेहमान आ रहा हो तो दो सब्ज़ियाँ तो चाहिए ही।
थोड़ी देर में मनप्रीत ने आकर कहा, 'चल के देख लीजिये कि बाथरूम ठीक से साफ़ हो गए' मनप्रीत बाथरूम साफ़ कर चुकी थी। कला ने जाकर देखा दोनों बाथरूम चमक रहे थे।
'बहुत अच्छे से साफ़ हो गए, अब चल जल्दी से बाक़ी काम कर ले। चाय पियेगी क्या?' कला ने पूछा।
'जी अगर आप पी रही हैं तो मैं भी पी लूंगी’ मनप्रीत हंस कर बोली।
पहली बार कला को अनुभव हुआ कि यह लड़की कितनी विनम्र है।
'कितने साल की है?'
'जी इक्कीस साल की हूँ। पढ़ रही हूँ यहाँ।'
'क्या कोर्स कर रही है?'
'एम बी ए कर रही हूँ। पर नौकरी मिलते ही छोड़ दूंगी।'
कला ने चाय का कप और नाश्ता पकड़ा उसे अपने पास ही बैठा लिया।
'किस शहर से है?' कला के प्रश्न पर मनप्रीत मुस्कुराने लगी।
बोली, 'मैं तो पंजाब के एक गाँव से हूँ, बड़ी मेहनत करके आइलट्स (अंग्रेजी परीक्षा) पास करी। मैं होशियार थी तो मम्मी पापा की तमन्ना थी कि मैं भी ऑस्ट्रेलिया जाऊँ और अपनी लाइफ बनाऊँ।'
'तेरी शादी हो गई?' कला ने अचानक पूछ ही लिया।
'जी सगाई ही गई, शादी तो अगली बार जब पंजाब जाउंगी तब होगी। वह जो मेरा मेरे पति हैं न, ऑस्ट्रेलिया आना चाहते हैं। तो जब मेरा यहाँ एडमिशन हुआ तो माँ बाप के पास पैसे नहीं थे मुझे यहाँ भेजने के लिए।
तभी ताया जी एक रिश्ता लाए, - 'लड़के का परिवार मनप्रीत की पढ़ाई का पूरा ख़र्चा देने को तैयार है, शर्त ये है कि सगाई अभी करनी होगी। शादी मनप्रीत के पी आर के बाद कर देंगे।'
'ओह तो तूने क्या कहा?'- कला ने उत्सुकता से मनप्रीत की तरफ़ देखकर कहा।
'क्या होता, माँ डैडी तो एकदम खुश हो गए। फटाफट रिश्ता तय हो गया और अब मेरी पढ़ाई का सारा ख़र्चा वही दे रहे हैं।'
कला ने हैरान होकर कहा - 'अच्छा पर अगर तेरा मन बदल गया तो? या तुझे कोई दूसरा लड़का पसंद आ गया तो?'
बड़ी समझदारी से मनप्रीत बोली - 'हमारे यहाँ ऐसा नहीं होता। एक बार जिसका हाथ पकड़ा उसके साथ ज़िन्दगी भर रहना होता है।'
कला उसकी काली गहरी आँखों में छिपे मज़बूत इरादों को देख सोचने लगी कि कितनी मेहनती लड़की है। ज़रूर सफल होगी।
मनप्रीत की मदद से चुटकियों में सब काम हो गया। उसे भेज कला को जो दो घंटे आराम के मिले तो जाने कितने आशीष मनप्रीत के लिए निकले।
कुछ महीने बाद घर में पार्टी थी तो फिर मनप्रीत की याद आई और पहले की तरह ही मनप्रीत ख़ुशी-ख़ुशी सारे काम निबटा गई। इसी तरह जब ज़रुरत होती मनप्रीत को बुला लेती। कुछ महीने बाद एक बार जब मनप्रीत आई तो उसने बताया कि दो महीने बाद वह पंजाब जा रही है और वहाँ उसकी शादी होगी। उसके बाद से मनप्रीत का कुछ पता न चला। कला ने एक दो बार फ़ोन मिलाया पर शायद उसका फ़ोन नंबर बदल गया था। कला ने सोचा शायद शादी के बाद अपनी ज़िन्दगी में व्यस्त हो गई होगी।
मनप्रीत की कहानी शायद यहीं ख़त्म हो जाती अगर कामनवेल्थ बैंक में कला उससे न टकरा जाती। कला अपना चैक डिपॉज़िट करने आई थी, जब उसने मनप्रीत को देखा। काले कोट, पेंट और लाल शर्ट में वह बहुत स्मार्ट लग रही थी।
'हलो मनप्रीत, कैसी हो? ठीक तो हो न?' कला रुक न सकी।
'कला आंटी…' मनप्रीत कला को देख मुस्कुराई।
'तो तुम अब बैंक में काम करती हो?'
'जी, मुझे पिछले साल ही बैंक में नौकरी मिल गई थी' मुस्कुराते हुए उसने जवाब दिया।
'ये तो बहुत अच्छी बात है। कुछ दुबला गई है। तेरी तो शादी हो गई थी न?'
मनप्रीत ने धीरे से पूछा – ‘आप अभी कुछ देर और मॉल में हैं तो आधे घंटे में मेरा ब्रेक हो जाएगा। हम सामने वाले कैफे में कॉफी पर मिल सकते हैं।‘
‘हाँ क्यों नहीं। तीन घंटे की फ्री पार्किंग है। तब तक मैं मायर्स होकर आती हूँ' कला ने कहा।
आधे पौने घंटे में कला जब कैफे पहुँची तो मनप्रीत उसका इंतज़ार कर रही थी।
कॉफी का आर्डर देकर कला ने बातों का सिलसिला आगे बढ़ाया - 'तो तू खुश है न? नौकरी मिल गई, शादी भी हो गई होगी।'
हाँ। तीन साल पहले जब मैं इंडिया गई थी तो मेरी शादी हो गई थी। मैं बहुत खुश थी। कुछ महीनों के बाद मेरे पति सुखविंदर भी यहाँ आ गए थे। मैं उन्हें प्यार से सुख कहती थी और वह मुझे प्यार से गुड़ कहते थे। सभी सुख थे, महत्त्वाकांक्षाएँ थीं। जल्दी ही सुख को पी आर (परमानेंट रेज़ीडेंसी) मिल गया था। सब प्लान के हिसाब से हो रहा था। कुछ दिन बाद ही पति को रेलवे में काम मिल गया था, रात की शिफ्ट थी। वह पूरी रात काम करके सुबह लौटते और मेरा काम सुबह होता था तो मैं अपने काम पर चली जाती थी।
इसी बीच मेरी सहेली जसबीर पंजाब से आई और उसे रहने को जगह चाहिए थी, हमारे गाँव की थी। तो हमने उसे अपने रख लिया। सुन्दर होने के साथ-साथ पढ़ी लिखी और चंचल भी थी। जीजू-जीजू करते वह सुखविंदर के आगे पीछे घूमती रहती। जब मैं घर पर होती तो हम दोनों मिल के घर का काम कर लेते। शाम को खाने के बाद मेरे पति ड्यूटी पर चले जाते। जस के आने से घर में थोड़ी चहल-पहल हो गई थी। उसको ऑस्ट्रेलिया अच्छा लग रहा था, हर चीज़ धीरे समझ में आ रही थी। पढ़ाई के साथ-साथ नौकरी की तलाश कर रही थी।
इधर सुख की माँ पिछले दो साल से पोते की मांग कर रही थी। पहले लगता रहा कि थोड़ा सैटल हो जाएँ, सुख को पी आर मिल जाए, फिर लगा छोटा ही सही पर अपना घर हो। मैं और सुख जी तोड़ मेहनत कर रहे थे। दिन भर सुख सोते और रात को काम पर चले जाते। एक दिन मेरी तबीयत ठीक नहीं थी और मैं दोपहर को ही घर पहुँच गई। सोचा तो था उन्हें सरप्राइज दूँगी पर क्या पता था कि मुझे ही सरप्राइज़ मिल जाएगा। मैंने चाबी से घर का दरवाज़ा खोला और धीरे से अंदर आ गई।
कमरे की लाइट जलाई तो आँखों को विशवास नहीं हुआ। मेरे बिस्तर पर मेरे पति मेरी सहेली, उस कम्बख्त जस के साथ बाँहों में बाँहें डाले सो रहे थे। मैं अविश्वास और गुस्से में पागल-सी हो गई। मैंने रजाई हटाई तो दोनों के नंगे बदन बेहद घिनौने लगे। ऐसा कैसे हो सकता है? इतना बड़ा विश्वासघात? समझ नहीं आ रहा था क्या करूँ। मैं चीख रही थी, चिल्ला रही थी, रो रही थी। दोनों अपराधी की तरह मेरे सामने खड़े कपड़ों में अपने बदसूरत नंगे जिस्म छिपाने की कोशिश कर रहे थे। सुख मेरा हाथ पकड़ कर मुझे समझाने की कोशिश कर रहा था।
मैंने जस के दो तमाचे मारे, 'मेरी भलमनसाहत का ये सिला दिया तूने? डायन भी जिस पेड़ पर रहती है उसके नीचे बैठने वालों को नहीं सताती। तूने तो मेरा घर ही तोड़ डाला। अपना सामन उठा और निकल। अभी की अभी निकल। इस घर में रहने का कोई अधिकार नहीं है तुझे।'
उसका सामान बाहर फेंका और उसी वक़्त उसे घर से निकाल दिया। मुझे याद है कि वह रो रही थी, मेरे पैर पकड़ के माफ़ी मांग रही थी। सुख कायर की तरह कमरे में बंद हो गया था। उस दिन से सुख और मेरा रिश्ता ख़त्म-सा हो गया था। जिस हैंडसम पति को देख मैं फूली नहीं समाती थी, जिसके साथ मैंने प्यार की दुनिया बसाने के कितने हसीन सपने देखे थे, जिसे वह आज मुझे दुनिया का सबसे घिनौना आदमी लगने लगा था।
सुख आख़िर क्या कहता, किस मुंह से माफ़ी मांगता। उसने धोखा दिया था मुझे। मुझसे आँखें चुरा रहा था, एक दो बार चाय, खाना बनाकर मेरे सामने रखा, अप्रत्यक्ष रूप से मांफी मांगी। एक चिट्ठी भी लिखी कि गलती से हो गया माफ़ कर दे, पर मेरा दिल उससे हट चूका था। ऐसे बोझिल माहौल में सुख और मैं कितने दिन साथ रहते? दो हफ्ते बाद जब मैं घर आई तो सुख जा चुका था। अपना सारा सामान बाँध कर वह हमेशा के लिए रिश्ता तोड़ कर वह चला गया था।
मेरे बिस्तर की साइड टेबल पर उसकी चिट्ठी मिली, जिसमें लिखा था, 'गुड़, मुझे पता है कि तुम मेरी ग़ल्ती माफ़ नहीं करोगी। अब जो हो गया उसे रिवर्स नहीं किया जा सकता। मैंने सोचा नहीं था कि ऐसा हो जाएगा, तुम्हारा दिल दुखाने की कोई इच्छा नहीं थी। तुम सुबह काम पर चली जातीं थीं और मैं और जस दिन भर अकेले साथ होते थे, जाने कब और कैसे करीब आ गए। मुझे पहली बार लगा कि प्रेम क्या होता है। जस मुझे चाहने लगी और हम करीब आते गए। अब ऐसा हो ही गया है तो मुझे लगता है तुम्हारे साथ रिश्ता कभी नार्मल हो ही नहीं पाएगा। तुम्हारी चुप्पी से मुझे घुटन होती है। अपराध बोध की इस भारी होती हुई टोकरी को सिर पर रख कर मैं अब तुम्हारे साथ और नहीं चल पाऊँगा। तो मैं जा रहा हूँ, हो सके तो मुझे माफ़ कर देना।'
मैंने पत्र पढ़ा, आँखों में आंसुओं की झड़ी लग गई। अपने सुखद घरौंदे को, अपने और सुख के साथ भविष्य के सुखद सपनों को इस तरह मिट्टी में मिलते देखना मुश्किल ज़रूर था, पर कोई और हल भी नहीं था। विश्वासघात का दंश मुझे हर पल डस रहा था और अंततः हमारा डिवोर्स हो गया।
इंडिया में जिसने सुना उनको दुःख हुआ। पर इतनी मील दूर रहने वाले ससुराल के लोग या घरवाले कर भी क्या सकते थे। माँ ने सुना तो बोली 'अगर जल्दी बच्चा हो जाता तो ऐसा न होता।‘
मैं तो शायद इस धक्के से उबर ही न पाती। माँ से मेरा दुःख देखा न गया और वे सिडनी चली आईं। उनके सहारे, ममता और प्यार ने मुझे हिम्मत दी, अकेलेपन को दूर किया।
कभी-कभी लगता था कि माँ की बात सही है। पर मैं सोचती हूँ कि मात्र शारीरिक प्रेम और अविश्वास की नींव पर बने रिश्ते से पैदा बच्चा कितना सुखी रह पाता? दरअसल हमारी शादी प्रेम नहीं समझौता थी, जो प्रेम और विश्वास के धागों से नहीं बल्कि ऑस्ट्रेलिया के पी आर (परमानेंट रेज़ीडेंसी) के धागों से बुना गया था।'
बताते मनप्रीत की आँखों में हलकी-सी नमी तो आई पर उसके स्वर में आत्मविश्वास का भी अनुभव हुआ।
'तो अब?' कला ने पूछा।
'प्रेम तलाश रही हूँ, मिल जाएगा तो ज़रूर अपनी शादी पर आपको इन्वाइट करूंगी' उसने हंसकर जवाब दिया।
'तो सुख और जस की कोई खबर?' मुझसे रहा न गया, पूछ ही बैठी।
उसने कॉफी का आख़िरी सिप लेते-लेते धीरे से कहा, 'सुना है सुख और जस ने पिछले साल शादी कर ली। शायद मेरी क़िस्मत में ये ही लिखा होगा या शायद किसी-किसी को सच्चा प्रेम मिल ही जाता है।'
गहरी सांस लेते हुए उसने कहा और उठ खड़ी हुई।
चलते समय अपना कार्ड मनप्रीत को देते हुए कला बोली, 'देखो हमने घर बदल लिया है, कभी आना ज़रूर।'
कला शॉपिंग मॉल से निकलकर कार पार्क की तरफ़ जाते हुए सोच रही थी कि क्या सुख और जस का रिश्ता वाकई प्रेम का रिश्ता था? क्या जस का सुख से प्रेम सच्चा था? क्या जैसे सुख ने गुरप्रीत से सिर्फ़ ऑस्ट्रेलिया के पी आर के लिए शादी की थी, जस ने सुख के साथ ठीक वही नहीं किया? क्या सच्चा प्रेम कहीं होता भी है? कई बार स्वार्थ ही रिश्ते बनाने और निभाने का मुख्य कारण हो जाता है और गुरप्रीत का सुख के प्रति प्रेम सच्चा था या सिर्फ़ ऑस्ट्रेलिया में उसकी पढ़ाई लिखाई का ख़र्चा उठाने की ज़रुरत? और सुख ने तो गुरप्रीत को इस्तेमाल किया ही था, पर जस से भी उसका सच्चा प्रेम क्या सिर्फ़ शारीरिक भूख थी, जिसे वह सच्चा प्रेम मान रहा था? और जस का सुख से प्रेम और शादी? वह क्या सिर्फ़ जस का ऑस्ट्रेलिया में बस जाने का एक माध्यम भर नहीं था?
'और मेरी विजय से शादी?'
कला की सोचने की क्षमता चुक चुकी थी। बच्चे स्कूल से आने वाले होंगे। उसने कार का दरवाज़ा खोला ब्रेक हटाया, चाबी इग्नीशन में लगाई और गाड़ी घर की ओर दौड़ा दी।