प्रेम का व्याकरण / एक्वेरियम / ममता व्यास

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बचपन से लिखने में मैंने तमाम गलतियाँ कीं, पढऩे में भी करती थी। भाषागत, व्याकरण गत अशुद्धियों के बावजूद मैंने लिखना और पढऩा नहीं छोड़ा। कभी मात्राएँ ग़लत लगाती, कभी पूर्णविराम नहीं लगाती, तो कभी अल्पविराम ग़लत जगह ले लेती। ज़िन्दगी फिर भी सबक सिखाने से बाज नहीं आई, ज़िन्दगी ने कई दफा समझाया गलती करना बुरा नहीं होता, बस गलती को दोहराना बुरा होता है। (कमाल ये कि मैंने बार-बार गलतियाँ भी कीं और दोहराया भी खूब, यानी बुरे को और बुरा बनाती रही जैसे कोई छोटा बच्चा सफेद झक नोटबुक को काली पेन्सिल से खराब करता रहता है वह उस पेन्सिल को एक ही स्थान पर इतनी बार घिसता है कि एक नहीं दो नहीं पूरे के पूरे तीस पन्ने भीतर तक दहल जाते हैं। वह बड़े खुश होते हुए निर्बाध गति से ये कार्य करता जाता है जब तक पेन्सिल की नोक न टूट जाये और कॉपी फट न जाये।

तुम जानते हो? मुझे व्याकरण की कभी समझ नहीं थी फिर भी मैंने इस आधे-अधूरे प्रेम शब्द को हमेशा सही-सही लिखा और पढ़ा भी हमेशा सही-सही।

तुम्हें न जाने क्यों लगता रहा तुम्हारा नाम ग़लत लिखने वाली प्रेम सही कैसे लिख सकेगी। तुम नहीं जानते थे न प्रेम को कैसे भी लिखा जाये सीधा-उलटा, आड़ा-तिरछा वह प्रेम ही रहता है। कितना भी उलटो-पलटो कहीं भी, किसी भी कोण से देखो प्रेम, प्रेम ही रहता है।

तुम किताबों के घर के बीच में रहकर कितने किताबी और उतने ही हिसाबी भी हो गए हो न। तुम्हें बेजान किताबों के संग जीने की आदत हो गयी है। किताबों के मुर्दा किरदारों को तुम जीते हो और जिन्दा लोग तुम्हारे लिए मर चुके हैं।

सुनो! तुम्हारे कमरे में मेरे जाने के बाद कुछ भी जीवित नहीं रहेगा सिवाय इन दीमकों के.