प्रेम के धागे / इन्द्रचन्द्र शास्त्री

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मन्दिर के एक कोने में मुनि समाधि लगाये बैठे थे। दुनिया की बातों से बेखबर, आत्मचिन्तन में लीन। इतने में बहुत-सी बालिकाएँ खेलती हुई वहाँ आ पहुँचीं। उनकी आँखों में भोलापन था, गति में चंचलता, हृदय में उत्सुकता तथा वाणी में मृदुलता थी। वे सभी यौवनावस्था में पदार्पण कर रही थीं।

बालिकाओं ने दूल्हा-दुलहिन का खेल प्रारम्भ किया। सभी ने मन्दिर के एक-एक स्तम्भ को अपना पति चुन लिया। श्रीमती बच गयी। उसे कोई स्तम्भ न मिला।

सहेलियों ने मुनि की ओर संकेत करके कहा, “तुम्हारे पति वह रहे।” श्रीमती ने मुनि को ही अपना पति मान लिया।

थोड़ी देर खेलकर बालिकाएँ अपने-अपने घर चली गयीं। मुनि भी दूसरे दिन चले गये।

श्रीमती सयानी हुई। उसके पिता वसन्तपुर के बड़े सेठ थे। विवाह की बातें प्रारम्भ हुईं। भला कन्या बिना विवाह के कैसे रह सकती है। हमारी सामाजिक व्यवस्था ही ऐसी है। कन्या को किसी की वधू बनना ही पड़ता है। श्रीमती के लिए भी यह प्रश्न उपस्थित हुआ। माता तथा पिता प्रतिदिन वरों की चर्चा करने लगे।

किन्तु श्रीमती को वह चर्चा अच्छी न लगती थी। वह एक व्यक्ति को अपना आराध्य देव मान चुकी थी। उसे पति के रूप में स्वीकार कर चुकी थी। यह कार्य खेल में हुआ या गम्भीरता के साथ, इस बात को वह महत्त्व नहीं देना चाहती। वह तो एक ही बात जानती थी कि उसने अपने हृदय से एक बार किसी को पति मान लिया है। आखिर पति और पत्नी का सम्बन्ध एक कल्पना ही तो है। संसार के सभी नाते कल्पना मात्र हैं। मानो तो सब कुछ है, न मानो तो कुछ भी नहीं। श्रीमती मान चुकी थी। अब उससे हटना नहीं चाहती थी।

उसने अपने विचार माता के सामने रखे। माता ने कहा, “बेटी! यह तेरा भोलापन है। अज्ञानता है। भला खेल की बातें भी कहीं सच्ची होती हैं? खेल में तो लड़कियाँ प्रतिदिन नया पति चुनती हैं, क्या वही उनका वास्तविक पति हो जाता है!”

“जिसे समाज विवाह कहता है, वह खेल ही तो है।” श्रीमती ने उत्तर दिया। “अन्तर केवल इतना ही है कि हमने वे विधि-विधान नहीं किये जो समाज में प्रचलित हैं। वहाँ न अग्नि साक्षी थी और न कन्यादान हुआ और न उसका पाणिग्रहण हुआ था। किन्तु ये तो बाह्य वस्तुएँ हैं। विवाह का वास्तविक सम्बन्ध तो हृदय से है। जिसे हृदय एक बार चुन लेता है वही पति है।”

मनुष्य ज्यों-ज्यों बड़ा होता है वह सभ्यता, संस्कृति तथा समाज का आविष्कार करता है, उसका जीवन कृत्रिम बनता है। उस समय व्यक्ति और समष्टि, घर और बाहर, खेल और यथार्थ, स्वार्थ और परमार्थ आदि के रूप में उसके सामने प्रत्येक बात के दो पहलू खड़े हो जाते हैं। बालक की दुनिया में वह द्वन्द्व नहीं होता। उसके सामने कल्पना और यथार्थ तथा खेल और वास्तविकता में कोई अन्तर नहीं होता। उसके सामने सब कुछ यथार्थ है। उसके लिए आकाश में उड़ने वाली परियों की कहानी तथा भूत-प्रेत उतने ही यथार्थ हैं जितने माता-पिता तथा दूसरे साथी। श्रीमती की दुनिया में उस खेल और इस खेल में कोई अन्तर न था।

माता ने बहुत कहा। पिता ने बहुतेरा समझाया। सखी-सहेलियाँ हार गयीं। किन्तु वह न टली।

अन्त में मुनि की खोज प्रारम्भ हुई। न नाम, न ठिकाना। भला मुनि कहाँ मिलते? श्रीमती एक ही बात जानती थी कि उनके दायें पैर पर तिल है। किन्तु इतने मात्र से क्या पता लगता है। यह भी तो विचारणीय था कि घर-बार छोड़कर संन्यासी बनने वाला वह महापुरुष विवाह के लिए कैसे तैयार होगा? भला वह इस बन्धन में क्यों फँसने लगा?

सब निराश होकर बैठ गये। सोचा था, कुछ दिनों में लड़की के विचार बदल जाएँगे। किन्तु वह न बदली।

इसी प्रकार कई वर्ष बीत गये। मुनि घूमते-घूमते एक बार फिर बसन्तपुर में आ पहुँचे। और लोगों के साथ श्रीमती भी दर्शनार्थ गयी। उसने पैर देखते ही मुनि को पहचान लिया। श्रीमती को अपने इष्टदेव मिल गये।

आर्द्रक मुनि एक राजकुमार थे। सम्पत्तियाँ तथा भोग-विलास उनके चरणों पर लोटते थे। उन सबको तुच्छ समझकर उन्होंने भिक्षुव्रत अंगीकार किया था। फिर भला वह उस ओर कैसे आकृष्ट होते? सभी प्रलोभन बेकार गये। सभी दबाव व्यर्थ सिद्ध हुए।

किन्तु श्रीमती हताश न हुई। उसने सोचा - ‘त्यागी को त्याग द्वारा जीता जा सकता है, भोग द्वारा नहीं। यदि मैं वास्तव में उनकी पत्नी बनना चाहती हूँ, तो मुझे उनके योग्य बनना चाहिए।’ यह सोचकर उसने कठोर तपस्या प्रारम्भ कर दी।

आर्द्रक कुमार का हृदय भी पिघल गया। श्रीमती की साधना के सामने उन्हें झुकना पड़ा। जिसे अपने सुख-दुख की तनिक भी परवाह न थी, जो प्रफुल्ल हृदय से मृत्यु का आलिंगन करने के लिए तत्पर था, वह भक्ति के सामने झुक गया। उसने बन्धन में फँसना स्वीकार कर लिया। जो व्रत उन्हें जीवन से भी प्यारा था, जिसके सामने समस्त संसार को तुच्छ समझ रखा था, भक्त की भावना से प्रेरित होकर उसे भी त्यागना स्वीकार कर लिया। वह श्रीमती की प्रार्थना को नहीं ठुकरा सके।

मुनि वेश छोड़कर वह गृहस्थ बन गये। विवाह किया, सन्तान हुई। पूर्व निश्चयानुसार उन्होंने दुबारा दीक्षा लेने का विचार प्रकट किया। श्रीमती ने कहा, “अभी बालक छोटा है। जब चलने-फिरने लग जाए तब जैसी आपकी इच्छा हो, कर लीजिएगा।”

समय बीतते देर नहीं लगती। बालक चलने-फिरने लगा, आर्द्रक कुमार ने फिर अपना विचार प्रकट किया। श्रीमती चुप रही।

दूसरे दिन अचानक वह चरखा लेकर कातने लगी। खेलता हुआ बालक आ पहुँचा। पूछा, “माँ! यह क्या कर रही हो?”

“बेटा! तुम्हारे पिताजी घर छोड़कर जाने वाले हैं। उसके बाद में कमानेवाला कोई न रहेगा। अब चरखा कातकर अपना और तुम्हारा पेट भरूँगी।” माता ने दुखी होते हुए उत्तर दिया।

“मैं, पिताजी को बाँध दूँगा। फिर वह कैसे जाएँगे?” बालक ने बालसुलभ भोलेपन के साथ कहा।

उसने उसी समय कते हुए सूत के दो गोले उठा लिये। आर्द्रक कुमार लेटे हुए थे। उसने जाकर चारों ओर सूत लपेट दिया।

पिता ने लेटे-ही-लेटे हँसते हुए पूछा -

“तुमने मुझे क्यों बाँधा है?”

“तुम भागना जो चाहते हो, मैं तुम्हें नहीं भागने दूँगा। देखूँ, अब कैसे जाते हो?” बालक के स्वर में दृढ़ता थी।

पिता प्रेम के उन धागों को नहीं तोड़ सके। वह अपनी हार मान गये। लेटे-ही-लेटे बोले, “अच्छा, नहीं जाऊँगा। अब तो खोल दो।”

“नहीं! तुम चले जाओगे।”

“नहीं जाऊँगा। विश्वास रखो।”

बालक ने धागे खोल दिये। आर्द्रक कुमार ने अपने निश्चय को फिर स्थगित कर दिया। बालक जब तक युवा नहीं हो गया तब तक घर-बार छोड़ने का विचार उनके मन में फिर नहीं आया।