प्रेम के प्रेत / ममता व्यास

Gadya Kosh से
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सतपुड़ा पहाडिय़ों की तलहटी में घने जंगलों के बीच एक बहुत छोटा-सा गाँव बसा था। घने जंगल और उस पर जंगली जानवरों की आवाजाही से उस गाँव में गिने-चुने ही मकान बने हुए थे। उन्हीं मकानों से कोसभर दूरी पर परबतिया अपनी छोटी-सी झोपड़ी में रहती थी। परिवार के नाम पर उसके पास एक अडिय़ल बैल, कुछ गिलहरियाँ, एक गाय, कई तोते थे और दो कुत्ते थे। इनकी देखभाल में ही उसका सारा दिन बीत जाता था। बस्ती से दूर वह अपने जानवरों के साथ यहाँ अकेली ही रहती थी। पूरे दिन में वह बस एक बार ही अपने घर से निकलती थी। सुबह होते ही एक कोस पैदल चलकर पनघट पर पानी भरने जाना होता था। उस समय ही गाँव की स्त्रियों से उसकी थोड़ी बहुत बातचीत होती थी। बाक़ी उसका सारा दिन अपने पशु-पक्षियों के ही संग ही बीतता था। खतरनाक बैल और खूंखार कुत्तों की वज़ह से कभी बस्ती का कोई मर्द उसकी झोपड़ी तक आने की हिम्मत नहीं कर पाया था।

उसी घाटी के ठीक ऊपर एक छोटी पहाड़ी थी, जो जटाशंकरी नाम से प्रसिद्ध थी। वहाँ महादेव की बहुत बड़ी प्रतिमा विराजमान थी। महाशिवरात्रि के दिन ही बस्ती के लोग जटाशंकरी की पहाड़ी पर जाते थे, क्योंकि पहाड़ी तक जाने का रास्ता बड़ा ही दुर्गम था। इतने बरसों में परबतिया का ध्यान कभी पहाड़ी की तरफ़ नहीं गया। उसे फुर्सत ही नहीं मिली कभी अपने रोज़ के कामों से। सुबह पांच बजे नियम से वह उठ जाती और जानवरों के लिए सानी बनाती, जंगल में लकडिय़ां चुनने जाती तो साथ में उनके लिए चारा भी काट लाती। दिनभर जी-तोड़ काम करने के बाद वह बेसुध होकर अपनी गुदड़ी में सिमटकर सो जाती अगली सुबह के इंतज़ार में। उसके जीवन में कोई दुख नहीं था और न सुख जैसी ही कोई चीज उसने अनुभव की थी। कई बरस बीत चुके थे उसे किसी से बात किये हुए या मुस्काए हुए। इन पालतू जानवरों के संग समय तो बीत रहा था, लेकिन मन अनछुआ ही रहा था उसका। अपने पालतू जानवरों को दाना-पानी देना और उन्हें प्रेम करना परबतिया के जीवन लक्ष्य थे और उसकी ख़ुशी भी। दुख, पीड़ा या उदासी जैसी चीज से उसका कभी कोई वास्ता नहीं हुआ था। उसका जीवन यूं ही शांति से चल रहा था लेकिन कहते हैं न जब सबकुछ शांति से चल रहा हो न ऐन उसी वक़्त आसमानों में ग्रह अपनी चाल बदल लेते हैं

कौन है इस जग में ऐसा जिसे जि़न्दगी ने सुख-दुख के फल न चखाए हों। कोई कितना भी सुख-दुख से अनजान हो, अनछुआ हो, कहीं भी जाकर छिप जाये, लेकिन एक दिन जि़न्दगी उसे खोजकर अपने रंग में रंग ही देती है।

परबतिया के साथ भी ऐसा ही हुआ। एक सुबह उसकी नींद बांसुरी की मधुर आवाज़ से खुली। "इतनी सुबह कौन बांसुरी बजा रहा है, यहाँ तो आसपास दूर-दूर तक कोई इनसान है ही नहीं।" मन ही मन बोल पड़ी वो, तभी पहाड़ी के एक टीले पर बैठी कोई पुरुष की आकृति दिखी, जो बांसुरी बजा रही थी। परबतिया मंत्र-मुग्ध-सी उस संगीत में खो गयी।

दूर बजती वह मधुर धुन उसे खींच रही थी। उस सुनसान जंगल में पहली बार मधुर संगीत गूंजा था। परबतिया ने पहली बार इतनी ग़ौर से उस पहाड़ी को देखा और ग़ौर किया था कि उस बांसुरी बजाने वाले की परछाईं उसके आंगन में पड़ रही थी। वह जितनी देर बांसुरी बजाता रहा उसकी परछाई आंगन में पड़ती रही। वह कभी उस परछाईं को तो उस पहाड़ी पर बैठी उस धुंधली आकृति को देखती रही। अब अक्सर वह अजनबी आकृति उसे दिख जाती। कभी पूजा करते हुए, कभी हवन करते हुए तो कभी बांसुरी बजाते हुए या तपस्या करते हुए। परबतिया कि सुबह अब सुहानी हो गयी थी। प्रतिदिन अब उस मधुर संगीत से उसकी नींद खुलती थी। अब ये रोज़ का नियम बन चुका था। परबतिया के परिवार के सदस्यों में अब वह बांसुरीवाला नया मेहमान भी शामिल हो चुका था। अब ये परछाई और वह मधुर संगीत और वह अजनबी आकृति उसके जीवन के हिस्से बन गए थे।

अक्सर वह अपने आंगन में पडऩे वाली उस छाया को देख हैरान होती, उसे छूती, उसे पकड़ती पर उसके हाथों की पकड़ में वह नहीं आती। घने सुनसान जंगल में अकेली, निपट गंवार, अपने में गुम...परबतिया उस छाया संग खेलती, दौड़ती और हंसती थी। उसकी हंसी जंगल में गूंजती और जटाशंकरी से टकराकर लौट आती।

उधर दूसरी तरफ़ परबतिया के अहसासों से अनजान, उसके अस्तित्व से अनभिज्ञ वह अजनबी अपने नित्य कार्य में लगा रहता...लकडिय़ां काटता...भोजन बनाता, पूजन करता या हवन करता तो जंगल की तेज हवाएँ लकडिय़ों का धुआं परबतिया के आंगन तक ले आती थी। उसकी ख़ुशबू से उसकी टूटी-फूटी झोपड़ी महक-महक जाती। जब कभी वह अजनबी सूरज को अघ्र्य देता तो जल के कुछ छींटे परबतिया पर भी पड़ते और वह भीग-भीग जाती। कभी वह पूजा के बासी सूखे हुए फूल पहाड़ी से फेंक देता तो वह उन्हें ही प्रसाद मानकर संभालकर रख लेती। दोनों एक-दूजे से बिलकुल अनजान, अजनबी थे, लेकिन अजब था उनका मेल और अजब था विधाता का खेल।

समय बीत रहा था, परबतिया ने अब उस परछाई से संगत बिठा ली थी। छाया तो छाया ठहरी। उसका आना और जाना कुछ भी निश्चित नहीं था। उसे बुला लेना या रोक लेना ये भी उस के वश में नहीं था, लेकिन उसे निहारना और उसके बारे में सोचना और उसके संग समय बिताना परबतिया के ज़रूरी कार्यों में शामिल हो गया था। जब भी छाया उसे दिखाई नहीं देती, उसका मन विचलित हो जाता। उसके काम में विघ्न पड़ जाता और किसी काम में मन नहीं लगता। वह उस दिन जानवरों को चारा देने में देर कर देती तो कभी पक्षियों को दाना कभी ज़्यादा दे देती तो कभी पानी देना ही भूल जाती। उसे समझ नहीं आ रहा था कि उस छाया ने उसके जीवन को ऐसे असंतुलित क्यों कर दिया है। जब छाया दिख जाती तो उसका मन बहुत प्रसन्न रहता। दिमाग़ हल्का और दिनचर्या संतुलित रहती।

अभी कुछ दिनों से हुए जटाशंकरी पर वह अजनबी आकृति दिखाई नहीं दे रही थी और न आंगन में छाया ही आई। प्रतीक्षा करते-करते जब परबतिया थक गयी थी। एक सुबह, न जाने क्या सोचकर उसने उगते सूरज को मन ही मन प्रणाम किया और फिर अपने कंगन को सूरज की तरफ़ रखकर चमका दिया। सूरज की तेज किरणों से कंगन की चमक टकरा गयी और सीधे जटाशंकरी की पहाड़ी पर जाकर चमकी। चमक पडऩे के ज़रा देर बाद ही सुनसान जंगल में बांसुरी के मधुर सुर बिखर गए। परबतिया कि ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था। वह आँख बंद करके आंगन में धम्म-से बैठ गयी और खो गयी उस मधुर संगीत में। ज़रा होश आया तो आंगन में पडऩे वाली उस आकृति को अपने नर्म हाथों से छुआ, फिर पहाड़ी पर नज़र डाली। वहाँ वह अजनबी बड़े मनोयोग से बांसुरी बजा रहा था पर पहाड़ी पर बहुत दूर बैठी धुंधली आकृति को देखने से बेहतर उसे अपने आंगन में पड़ती छाया को हाथों से छूना भा रहा था। न जाने क्यों परबतिया को मन ही मन यूं लगा जैसे उस दिन वह बांसुरी वाला उसके कंगन की चमक के सन्देश को पाकर ही बंसी बजाने चला आया था। अब तो ये जैसे नियम ही बन गया उनका, जब भी वह बंसी वाला उसे नहीं दिखता, वह अपना कंगन चमका देती और बंसी वाला उस पहाड़ी से एक मधुर धुन छेड़ता और परबतिया खो जाती उस अलौकिक आनंद में। न जाने कौन-सी अदृश्य शक्ति उन दोनों को जोड़ रही थी या सिर्फ़ ये कोई संयोग ही था, जो भी था परबतिया के लिए किसी वरदान से कम नहीं था।

वह संगीत, वह धुंधली आकृति, वह उसके आंगन की छाया, अब परबतिया के पास कितनी दौलत थी। इससे पहले तो कभी वह इतनी धनवान नहीं थी। वह धुन उसके मन के तारों को झंकृत करती थी, उसे सुख देती थी। उसके आंगन में पडऩे वाली वह छाया उसकी सखी थी, जिसके साथ वह घंटों बतियाती थी। अपने बाबा कि बातें, अपनी सौतेली माँ के किस्से, उसके बचपन में हुए विवाह के किस्से। ऐसे हजारों किस्सों को वह छाया चुपचाप सुन लेती थी। उस छाया के अपने पास होने से परबतिया को अपने होने का अहसास होता। उसे लगता कोई है, जो उसके संग-चलता है, कोई उसे तन्मयता से सुनता है (वो बातें जो उसके मन में बरसों से दबी हुई थीं और ज़हर बना रही थी) कोई है जो हर पल उसके साथ रहता है। अजीब-सा आकर्षण महसूस करती थी वह उस अजनबी पुरुष से जिसकी छाया से वह जुडऩे लगी थी। समय गुजर रहा था, परबतिया का जीवन बीत रहा था। ये समय उसके जीवन के सबसे अनमोल और खुशियों वाला समय था। कभी-कभी मनुष्य इतना अकेला होता है कि अपने अकेलेपन को भरने के लिए बेजान वस्तुओं का सहारा लेने लगता है। परबतिया भी अपने जीवन के सूनेपन को उस छाया से भरने लगी थी।

ऋतु बदली, मौसम बदले, चौमासा आ गया। सूरज जल्दी नहीं आता था और उग भी जाता तो बादलों की ओट में छिपा रहता। सूरज नहीं दिखता तो छाया नहीं दिखती।


कई दिन बीत गए उस आकृति ने बंसी नहीं बजाई और न वह पहाड़ी पर चलती-फिरती ही दिखाई दी। इस बात से परबतिया मन ही मन बहुत परेशान थी और ख़ुद पर क्रोधित भी थी। क्रोध इस बात का कि क्यों वह उस अनजान आकृति और उस निर्जीव छाया के लिए इतनी बेचैन हो रही है। उसे तो उस जटाशंकरी की पहाड़ी पर भी क्रोध आ रहा था कि न ये पहाड़ होता न वह आकृति कभी वहाँ आती, न उसे उस मधुर संगीत की आदत लगती और न वह छाया उसके जीवन में हलचल मचाती।

उसे सूरज पर भी क्रोध आ रहा था, जिसकी वज़ह से छाया उसके आंगन में आ धमकती थी।

सारी रात जग-जग कर वह उस छाया में दिखने वाली उस अजनबी आकृति का खयाल करती रही। जितने दिन की गैरहाजिरी छाया करती वह गिनके उतने उपले बनाकर दीवार पर चिपका देती। प्रेम के अपने गणित होते हैं, ये सिर्फ़ प्रेमी ही जानते हैं, संसार को कभी समझ नहीं आते ये समीकरण।

अलसुबह जागने वाली परबतिया आज देर तक सोती रही। पक्षियों की आवाज़ से गिलहरियों के चिल्लाने से और बैल की हुंकार से उसकी नींद टूटी। "ओह आज तो उसने किसी को भी दाना-पानी नहीं दिया, क्या हुआ है मुझे।" ख़ुद से बड़बड़ाती हुई वह सबसे पहले पक्षियों के पास दौड़ी। उन्हें पानी दिया, दाने दिए और फिर गिलहरियों को दाना दिया। भूखे बैल ने उसे देखकर गुस्से से हुंकार भरी। उसने बिजली कीगति से उसे हरी घास का पुआल डाला और फिर जाकर नीम के पेड़ के तने से टिक कर धम्म से बैठ गयी...

"ये क्या हो रहा है उसे।"

एक छाया ने उसके जीवन की गति कैसे बदल दी, उसके मौसम कैसे बदल दिए, एक छाया जो पता भी नहीं कि किसकी है, कहाँ आती है, कहाँ जाती है...उस अनजाने अदृश्य पुरुष की परछाईं से ये कैसा लगाव हुआ है उसे...वह समझ गयी ज़रूर उसे कोई प्रेत बाधा लग गयी है। उसकी दादी हमेशा कहती थी " अमावस की रात तांत्रिकों की रात होती है, सुना है तांत्रिक कच्चा मसान जगाते हैं और फिर उन आत्माओं से मनमाने काम करवाते हैं। ज़रूर ये परछाईं किसी प्रेत की है, जो उसे अब लग चुका है। इसी प्रेत ने उसका जीवन सत्यानाश कर दिया है, लेकिन प्रेत तो अमावस की रात घूमते हैं। ये छाया तो दिन में सूरज के साथ आती है और शाम ढले गायब हो जाती है। नहीं-नहीं ये प्रेत नहीं हो सकती। फिर ये क्या है? शायद मुझे कोई मानसिक रोग हुआ है।

परबतिया का माथा चकराने लगा। अनाज की कोठी से टिककर वह घंटों रोती रही, सोचती रही। इससे पहले उसकी जि़न्दगी कितनी सुन्दर थी। कोई दुख नहीं, कोई बेचैनी नहीं। ये दिल ऐसा भारी तो कभी नहीं होता था और ये आंखें बार-बार क्यों भर जाती हैं। किसके लिए? उस अजनबी के लिए जिसे देखा ही नहीं, जानती ही नहीं कौन है वह मेरा? ऐसे तमाम सवाल उसके मन में आते रहे।

कोई कच्ची उम्र भी नहीं थी परबतिया की। दुनिया देखी थी परबतिया ने, लेकिन अपने मन और देह को ऐसे व्याकुल होते कभी अनुभव नहीं किया था उसने। यही सब सोचते-सोचते भोर हो गयी।

थके मन और बेसुध तन से रीते घड़े लेकर वह धीरे-धीरे कुएँ पर चल दी।

आज कुएँ पर कुछ ज़्यादा ही रौनक थी। गाँव की सभी स्त्रियाँ पानी भरना छोड़कर आपस में कुछ ज़्यादा ही बतियाँ रही थी। परबतिया को देख एक साथ बोली, "अरी...परबतिया क्या हुआ री...तीन दिन से पनघट पर नहीं आई। ताप हुआ क्या तुझे, काहे नहीं दिखी, बीमार है?"

"नहीं तो, ऐसे ही थकावट लग रही थी।" थके स्वर में परबतिया बोली।

"तुम लोग आपस में क्या बातें करती हो।" उसने उत्सुकता से पूछा।

"तू पता नहीं किस दुनिया में रहती है। तुझे पता है बड़वाले (बरगद वाले) महादेव के मंदिर पर कोई परदेसी आया है। कोई रोगी जान पड़ता है। न बोलता है न कुछ समझता है। बस जबसे आया है, पड़ा रहता है। गाँव के कुछ मर्द उसके लिए भोजन लेकर गए थे, लेकिन उसने कुछ नहीं खाया। कौन है, कहाँ से आया है, चोर है, खूनी है, कैदी है या रोगी है, भिखारी है।"

जितनी स्त्रियाँ उस समय पनघट पर थी, सभी की अलग-लग राय थी उस परदेसी के बारे में।

परबतिया को उन स्त्रियों की बातों में कोई रुचि नहीं थी। वह तो ख़ुद से ही परेशान थी। उसने बुझे मन से बाल्टी उठाई, रस्सी से बाँधी और-और कुएँ की घिरनी पर डाल दी और सोचने लगी। रीती बाल्टी जैसा हल्का था उसका मन, इस छाया ने उसका मन कितना भारी कर दिया है। सांसों की रस्सी से, ये मन की भारी बाल्टी उससे अब और खींची नहीं जाती। स्त्रियों की बक-बक अब भी जारी थी। उनकी बातों को सुना-अनसुना करते हुए बेमन से पानी की गागर उठाये वह घर जाने लगी।

तभी बिजली से भी तेज गति से उसके मन में कोई खयाल आया। वह पानी का घड़ा रस्ते पर छोड़ भागते हुए वापस कुएँ पर गयी और हांफते-हांफते पुन्नो काकी से पूछने लगी-"क्यों काकी, वह बीमार परदेसी कब से आया है गाँव में?"

काकी उसे ऊपर से नीचे तक घूरते हुए बोली-"पिछली मावस (अमावस) को आया था, तभी से मंदिर में पड़ा है, आज तो पूनम हो गयी पंद्रह दिन से भूखा-प्यासा है, अब तक मर ही न गया हो बिचारा।"

"मावस के दिन से...!" ये वाक्य परबतिया के दिमाग़ को झन्ना गया, उसका गला रूंध गया...पता नहीं परबतिया को क्या हुआ, जल्दी-जल्दी तेज डग भरते हुए झोपड़ी तक आई। पानी की गागर कोने में पटक के झोपड़ी की दीवार की ओर भागी।

और दीवार पर चिपके गोबर के उपले गिनने लगी। एक-दो-तीन-चार... बारह-पंद्रह मावस यानी पंद्रह दिन से वह छाया आंगन में नहीं आई और आज पूनम... परबतिया न जाने क्या-क्या हिसाब किताब करती रही और मन ही मन बुदबुदाई। "जटाशंकरी से वह आकृति पंद्रह दिन से गायब है और पुन्नो काकी कहती है वह बीमार परदेसी जो मंदिर में आया है उसे भी पंद्रह दिन ही हुए हैं, कहीं ये वही तो नहीं।" परबतिया के मन में उधेड़बुन चल रही थी।


उसने जल्दी से बैल को चारा डाला, पक्षियों को दाना दिया और गठरी में से नयी सूती साड़ी निकालकर पहनी और चल दी बड़वाले मंदिर की तरफ। रास्तेभर उसके मन में अनगिनत विचार आते रहे।

" क्यों जा रही है वह? क्या है वहाँ? कौन है वह अनजान बीमार आदमी? उसका क्या लेना-देना उससे? तो क्या हुआ जब सारी बस्ती उसे देखकर आ सकती है तो मैं क्यों नहीं, लेकिन आज तक तो तूने बस्ती से कोई वास्ता नहीं रखा था, फिर आज क्यों?

लेकिन जटाशंकरी का साधु बस्ती में क्यों आयेगा। मैं तो उसे जानती ही नहीं, कोई और हुआ तो? "

उसने एक बार सोचा भी कि लौट जाती हूँ, वैसे भी उसकी झोपड़ी से बस्ती एक कोस दूर थी और बड़महादेव का मंदिर बस्ती से भी एक कोस की दूरी पर है। आते-आते रात हो गयी तो? अकेली कैसे आएगी ...सौ सवाल, सौ तर्क, लेकिन मन नहीं माना। तेज डग भरते हुए वह बस्ती तक पहुँच गयी और फिर छोटी पहाड़ी पर स्थित मंदिर की पताका लहराती दिखाई पड़ी, जिसने उसका हौसला बढ़ाया।

परबतिया सांझ होने से पहले मंदिर पहुँच गयी थी। मंदिर के प्रांगण में बड़ा-सा बरगद का पेड़ था जिसे बस्ती वाले बड़ कहते थे। परबतिया ने देखा मंदिर की दीवार के बाहर एक व्यक्ति सोया हुआ था। बढ़ी हुई दाढ़ी, दुबली देह, देह पर मात्र एक कम्बल। परबतिया उस बीमार अनजाने व्यक्ति के समीप पहुँची।

परबतिया ने देखा उसकी देह पर कई घाव थे, वह बायीं करवट लेकर सो रहा था। परबतिया ने उसे धीरे से हिलाया।

परदेसी बोला "कौन?"

"मैं..."

"क्यों आई हो यहाँ?"

"बस्ती वालों से सुना था कि कोई... "

"कि कोई भिखारी आया है, है न?" कहकर वह परदेसी व्यंग्य से मुस्काया।

"भिखारी तो नहीं लगते आप, बीमार जान पड़ते हैं।"

"क्या रोग हुआ आपको और यहाँ इस सुनसान पहाड़ी पर क्या करते हैं? यहाँ आपकी देखभाल कौन करेगा।"

"मुझे किसी की देखभाल की ज़रूरत नहीं है, मैं अपनी मुत्यु का इंतज़ार कर रहा हूँ। तुम चली जाओ रात होने वाली है।"

परबतिया को जैसे होश आया "ओ माई... इत्ती देर हो गयी।" वह परदेसी से कई सवाल करना चाहती थी, लेकिन उसकी बीमार देह और खराब हालत देख कुछ कह न सकी। जल्दी-जल्दी उसने अपनी साड़ी के पल्ले में बंधे चने और गुड़ निकाले और उस परदेसी से कहा "ये खा लेना, कल फिर आऊंगी, ज़रूर खा लेना।" जाते-जाते परबतिया आदेश दे गयी।

"अजीब औरत है, पर है बड़ी मोहक।" परदेसी अचम्भे में था।

वो अजनबी उसे देर तक घूरता रहा, "कौन है ये? क्यों आई यहाँ...और ये गुड़-चने क्यों दे गयी? मैं तो जानता नहीं, ये भी नहीं जानती मुझे, लेकिन अपनी-सी क्यों लगती है।"

तभी उस परदेसी की नज़र जाती हुई परबतिया कि कलाई पर पड़ी। उसके हाथ में एक चमकता हुआ कंगन था। कंगन देखकर वह न जाने किस सोच में पड़ गया और उस रात वह परदेसी सो न सका...अभी तक तो उसे अपने घावों की पीड़ा सोने नहीं देती थी, लेकिन आज न जाने क्यों उसके घाव दुखते नहीं थे। पर चमकते कंगन वाली उस अनजान स्त्री का चेहरा, उसका अपनापन उसे सोने नहीं दे रहा था।

अगली शाम परबतिया फिर खिंची चली आई ...आज उसने अजनबी के लिए साग बनाया था और बाजरे की रोटी पर ख़ूब सारा घी भी चुपड़ लिया था। साथ में प्याज और गुड़ रखना भी नहीं भूली थी। खाना पोटली में बाँधते समय परबतिया मुस्काई और तेजी से मंदिर की तरफ़ चल पड़ी। रास्तेभर उसके प्रश्न चलते रहे जिनके उसे कभी कोई उत्तर नहीं मिले। आज परदेसी सोया नहीं था। वह तो आज प्रतीक्षा में था। परबतिया को देख उसकी आंखों में चमक आ गयी। उसकी जि़न्दगी में पहली बार कोई स्त्री इतने प्रेम से भरी हुई आई थी। परबतिया ने उसे भोजन खिलाया और बीच में ही बोल पड़ी "यहाँ क्यों आये हैं आप...?"

परदेसी ने एक ठंडी सांस भरी और कहा "नहीं जानता क्यों चला आया यहाँ बस्ती में। तुम बताओ तुम कौन हो और रोज़ यहाँ क्यों आती हो। क्या कारण है?"

परबतिया भोली, निपट, गंवार, छल-कपट से कोसों दूर...उसने उस परदेसी को अपनी व्यथा-कथा सुना दी। बता दिया कि एक छाया ने उसका जीना दूभर कर दिया है। जब-जब वह उसे दिखती है, उसका मन शांत रहता है, सुबह और शाम सुन्दर लगते हैं, जब वह नहीं दिखती तो उसका जीवन ही बिगड़ जाता है ...उसने बता दिया कि कैसे उस छाया को वह अपने जीवन का हिस्सा मानती है और अब वह उस छाया के बिन नहीं जी सकती। परबतिया ने आगे बताया कि "कई दिनों से मुझे छाया दिखाई नहीं दी और बस्तीवालों से पता चला कोई परदेसी आया है इधर तो मेरा मन बोला कि कहीं वह अजनबी बांसुरी वाला तुम ही तो नहीं हो।"

"मैं? हा-हा हा ...मुझे तो सीटी बजानी भी नहीं आती, बांसुरी तो कभी देखी ही नहीं।" परदेसी बड़ी देर तक हंसता रहा। उसके हंसने से मंदिर का कलश कांपा था, जिसे परबतिया नहीं देख सकी।

"नहीं परबतिया, मैं तुम्हारा बांसुरीवाला नहीं हूँ, मैं तो मुसाफिर हूँ, जिसे बहुत दूर जाना है।"

"हाँ...ठीक है उस बांसुरी वाले के बहाने मुझे तुम्हें जानने का अवसर तो मिला, मुझे एक मित्र तो मिला। मैं तुम्हें हमेशा याद रखूंगी।" कहकर परबतिया थोड़ी उदास हो गयी।

परदेसी मुस्काया बोला "परबतिया एक बात कहूँ?"

"हाँ बोलो।"

"तुझे प्रेम हो गया उस छाया से।"

"छाया से प्रेम?"

"हाँ ...छाया से प्रेम।"

"अब क्या होगा परदेसी?"

"अब तुझे एक दिन प्रेम का प्रेत खा जायेगा।" परदेसी ज़ोर से हंसा।

दोनों देर तक हंसते रहे।


समय बीतता रहा। उस परदेसी से मिलने परबतिया रोज़ जाने लगी। उसके घाव पर नीम का मरहम रखती और उसके लिए रोज़ खाना बनाकर लाती। जब तक परदेसी खाना खाता, परबतिया उससे सिर्फ़ छाया कि बातें करती रहती, परदेसी अचम्भे से उसे तकता रहता और सुनता रहता। कुछ दिनों में वह ठीक हो गया। उसने परबतिया से कहा "अब मेरे जाने का समय हो आया है" परबतिया कि मोटी-मोटी आंखों में आंसू छलके, बोली तो कुछ नहीं पर उदास हो गयी।

"परदेसी तुमसे नाता था कोई, जो आज तक इन बस्ती वालों से नहीं बना, भले आदमी हो तुम। तुमसे मिलकर मेरे मन को चैन आया। मैं तुम्हें हमेशा याद रखूंगी।"

मैं भी तुम्हें नहीं भूल सकूंगा, तुमने मेरी देखभाल की, मैं बहुत ही बीमारी की अवस्था में आया था यहाँ। मैं तो मृत्यु की प्रतीक्षा में ही था, तुमने मेरे भीतर जीवन जीने की लालसा जगाई है। इसके बदले में मैं तुम्हें क्या दूं? बस मैं तुम्हारे लिए ईश्वर से कामना करूंगा कि तुम्हारा बांसुरी वाला जल्दी वापस आये और तुम फिर से खुश हो जाओ। "

"तुम अपने घर के जानवरों से भी उतना ही प्रेम करती हो जितना उस छाया से जितना मुझसे, तुम पर सच में प्रेम के प्रेत का साया है।" इस बात पर दोनों बहुत देर हंसते रहे।

आज शाम उस परदेसी की आखिरी शाम थी। आज न जाने क्यों वह बहुत उदास था। उसके मन में अंतद्र्वंद्व चल रहे थे। वह आज परबतिया से सबकुछ कह देना चाहता था, लेकिन उसे भय था कि ये भोली परबतिया सबकुछ जानकर दुखी न हो जाये। अभी वह मात्र छाया से प्रेम करती है और उस छाया के प्रेम में जीकर वह बहुत खुश है। प्रेम जब तक कल्पना में उड़ता है बहुत सुखद होता है। वास्तविकता कि खुरदुरी भूमि पर उसके पैर छिल जाते हैं। वह परबतिया को हमेशा हंसते-मुस्काते देखना चाहता था। उसने रातभर सोचा और निर्णय लिया कि वह परबतिया से कुछ नहीं कहेगा।

उस आखिरी रात वह सो न सका। परबतिया के मोहपाश से ख़ुद को बचा ले जाना चाहता था और परबतिया को भी इस प्रेम अग्न से सुरक्षित रखना चाहता था। इसीलिए उस परदेसी ने निर्णय लिया वह आज ही ये मंदिर छोड़ देगा।

रात उस पर भारी थी। मन में अंतद्र्वंद्व चल रहे थे। ख़ुद से ही बात कर रहा था वह। उसने बोलना शुरू किया-" सुनो परबतिया, मैंने अपना पूरा जीवन ईश्वर की सेवा में बिताया है, मैंने विश्व की सभी धार्मिक पुस्तकें बांची हैं, वेदों में क्या लिखा है, ये मुझे मुखाग्र याद है। मैंने हर तीर्थ, हर धार्मिक नगरी, हर पवित्र नदी के घाटों पर रहकर धर्म और ईश्वर को समझा है। हर प्रश्न के उत्तर हैं मेरे पास। अपने घुमक्कड़ी के शौक के चलते मैं यूं ही जटाशंकरी की पहाड़ी पर आ गया था। मैं कई बरसों से तुम्हें देखा करता था। अपनी धुन में गुम तुम अपने पशुओं से कितना प्रेम करती थी, ये देख मैं चकित था। तुम्हारा लकडिय़ां काटना, उपले थापना, गाय दोहना और मीठे गीत गाना मुझे बहुत प्रिय था। उस पहाड़ी से मुझे तुम्हारी सूरत कभी भी नहीं दिखी, बस एक अजनबी की धुंधली आकृति मुझे दिखती थी। मैं इस आकृति के आकर्षण में बंध गया था। मैं अक्सर पहाड़ी के कोने पर बैठकर बांसुरी बजाकर तुम्हें बुलाता था। मेरे पास सन्देश भेजने का और कोई ज़रिया नहीं था। जब सन्देश भेज-भेजकर मैं थक गया तो मैंने बांसुरी बजाना बंद कर दिया, लेकिन तुम्हारे कंगन की चमक जब मुझ तक आई तो मुझे आभास हुआ कि तुमने पुकारा है और मैं फिर से बांसुरी बजाने लगा। परबतिया, नहीं जानता कौन-सी शक्ति मुझे तुम तक ले आई। मैंने कभी नहीं सोचा था तुमसे कभी मिल सकूंगा। मैं बस उस बस्ती में तुम्हें खोजता हुआ चला आया था। सोचा था ज़रूर कभी तुम मुझे दिख जाओगी। जानता था बिन देखे तुम्हें खोज पाना असंभव है, फिर भी वेश बदलकर तुम्हें खोजता रहा, लेकिन कई दिनों की प्रतीक्षा के बाद भी मुझे उस बस्ती में वह कंगन वाली स्त्री नहीं दिखी तो मेरी उम्मीद टूट गयी और मैंने अन्न-जल त्याग दिया और मृत्यु की प्रतीक्षा करने लगा। जैसी प्रतीक्षा और बेचैनी तुम महसूस करती हो न उस छाया के प्रति, उससे अधिक मैं तुम्हारे विरह में जलता आया हूँ। तुम मुझ तक ऐसे ख़ुद ही चली आओगी, ये तो सपने में भी नहीं सोचा था। ये मेरे प्रेम की पुकार थी या तुम्हारे प्रेम की शक्ति थी या ये मेरा भ्रम है? अब मैं इन प्रश्नों में उलझना ही नहीं चाहता।

अब विधाता ने तुमसे मिलवा दिया है तो जान गया हूँ कि इस प्रेम के प्रेत ने तो तुम्हें भी जकड़ रखा है। अगर मैं अभी अपनी देह त्याग देता हूँ तो मेरी मृत्यु से सिर्फ़ मेरी ही मुक्ति होगी, तुम्हारी नहीं। तुम्हारा प्रेम मुझसे बड़ा है, क्योंकि तुमने मेरी उस छाया को ही अपना जीवन ही बना लिया है। मैं तो बस तुम्हारे उस कंगन की चमक की खोज में या तुम्हारे आकर्षण में बंधा चला आया था। तुमसे मिलकर ही प्रेम का अनुभव हुआ है परबतिया। मैं तुम्हें इस प्रेम के बदले क्या दूं? ये सोचकर दुखी हूँ।

सुनो...अब मैं मरना नहीं चाहता। मैं वापस जटाशंकरी जा रहा हूँ, तुम्हारा बांसुरी वाला अब से रोज़ बांसुरी बजाएगा तुम्हारे लिए। यही सबसे बड़ा उपहार होगा तुम्हारे लिए। वह छाया, वह तुम्हारी सखी अब जीवनभर तुम्हारे साथ रहेगी। प्रेम का मतलब आज समझ आया परबतिया ...खुशी देने से हम ख़ुद कितनी ख़ुशी से भर जाते हैं न ...प्रेम देने से हम प्रेम से भर जाते हैं। ये प्रेम के प्रेत हैं परबतिया, इनसे मुक्ति कभी नहीं मिलेगी, न मुझे न तुम्हें। हमारे विरह में प्रेम जीवित रहेगा परबतिया तुमसे बिना मिले, तुम्हारे लिए ही जा रहा हूँ। ये रहस्य अपने साथ लिए जा रहा हूँ कि मैं ही तुम्हारी छाया हूँ, मैं ही तुम्हारा बांसुरी वाला हूँ। "