प्रेम के रंग अनेक / अनुकृति उपाध्याय
1
सच कठिन है। जानने, पहचानने और मान लेने, हर तौर कठिन। आँख-आगे घटते के पेट में छुपा गूढ़ सच जानना तो कठिन से भी कठिन। जैसे पिछली रोटी खाने वाले को सब कुछ देर से और धीरे धीरे पल्ले पड़ता है, वैसे ही ये चोर-सच भी बुद्धि में धीरे धँसता है।
लड़ाई हारने वाले नवाब और जीतने वाले सहाब, दोनों को प्लासी की सियासी महत्ता समझ आई हो या न आई हो लेकिन यह सच है कि जिस दिन बैंक-लोन वाले कागज़ आए, उस दिन कोई नहीं समझ पाया कि अंत की शुरुआत हो चुकी है, कि महीनों से गुर-गुर घूमता लट्टू थिरने और दूर दूर उड़ती पतंग गिरने को है – न मलिक, न सेठानी और न सेठानी का लम्बा-चौड़ा कुनबा। भगवान ने जाना हो तो जाना हो, हालाँकि ब्रह्मांड की घाल-मेल में लगे भगवान को किसी एक के मंसूबों, किसी एक की मुश्क़िलों, किसी एक के कुलाबों के बारे में सोचने की कहाँ फ़ुर्सत? किसी एक की क्या बिसात, वो कोई एक कोई भी हो, चक्रवर्ती या चींटी, रसोईघर की दीवार के आले में टिकी फोटो को अगरबत्ती सुँघाता हो या सेठानी के संगमरमर वाले मंदिर में सुबह-शाम दीपक घुमाता हो? अज़ान की पुकार या घंटों की टंकार में हाथ-जोड़ माथ-नवा रो-गा जिसे गुहारते हैं उस ने किस की सुनी, किस की नहीं, ये भी चोर-सच ही है, बीते बाद जान पड़े तो पड़े। मलिक से पूछा जाए तो कहेगा – सेठानी के कुनबे की सुनी, कुनबा कहेगा – मलिक बिल्ले के भाग बड़ा सा छींका टूटा सो टूटा। और सेठानी? सेठानी की सुनी, अनसुनी, अधसुनी, यह तो सेठानी भी नहीं कह पाए।
और मेरी? मेरी सुनने की बात तो तब उठे जब मेरे कहने की परवाह ठहरे। जब मामले में मुब्तिलों की गिनती हो रही थी, तो मैं तो पाँत में भी नहीं थी। मुझसे ज़्यादा परवाह तो खाना पकाने वाले महराज की, काग़ज़ कमाने वाले मैनेजर की और बैंक-लोन वाले दलाल की जिस की क़िस्मत बनते बनते रह गई। लेकिन एक सच ये भी कि सब के अनजाने ही कुछ समय के लिए मैं गिनती में थी, हालाँकि समय भी सच जैसी ही तासीर वाला होता है, तब समझ में आता है जब गुज़र जाता है और कभी कभी तब भी नहीं।
बहती धार में मछली फाँसने वाले मछुआरे धार से ज़्यादा एक दूसरे पर निगाह रखते हैं कि किसने क्या पकड़ा? चारा क्या था? काँटा कितनी गहराई पर? किनारे से कितनी दूर? मेरी स्थित मछुआरे से अधिक, फाँसे में फँसी मछली के निकट, और जो ख़ुद अँसा-फँसा वो क्या और कैसे पकड़ पाए और जो भी जैसे भी पकड़ ही लाए तो अजब-गजब । समंदर किनारे वाली मछुआरिनें जब हँसती-हँसती अपनी भाषा में गाती हैं तो हो सकता है कि मुझ सी किसी फाँसा निगलने वाली मछली के बारे में ही – फाँसा निगल गई मछलिया, फाँसे को काँटे बना कर खोंस लिया, पूँछ हिला, पर हिला, फिसल गई मछलिया। मगर मछुआरिनें क्यों मछली के पक्ष का गाएँगी? शायद मछुए पर व्यंग्य करती हों जिसका जाल-फाँसा-लासा सब झूठा-थोथा, मूरख मछुआ ताड़ी पी कर पड़ा रहा और मछली चारे को गटक गई, फाँसे से छिटक गई, बच के निकल गई। सवाल ये कि जाल से निकल जाना बच जाना होता है या भटक जाना? इस सवाल का जवाब भाग के मच्छ के पेट में है और भाग का मच्छ समय की धार में। इतनी तेज़ धार कि पैर जमे नहीं कि उखड़े, उखड़े नहीं कि दूसरे तो दूसरे, ख़ुद अपना अपनपा भी बह गया। ऐसी धार में भाग को कौन पकड़े और पकड़ कर कौन उसके हलक़ में अँगुली डाल कर जवाब उगलवाए? ना, इतनी किसी की बिसात नहीं।
2
नर्सिंग वाली छोटी मैडम का कहना है मेरा दिमाग नहीं, फुद्दक-चिड़िया है – कबी इदर है, कबी उदर, एक जगा टिकने का नहीं। छोटी मैडम ही मुझे सेठानी की देखभाल के लिए नहीं भेजना चाहती थी – बड़ी उमर, बड़े लोग, बड़े लफड़े। लेकिन बड़ी मैडम जी ने कहा – इसे ही भेजो, इंसुलिन का इंजेक्शन और सुबह शाम गोलियाँ ही तो देनी हैं, ये दे लेगी, वो लोग लुक्स के बारे में थोड़े पर्टिकुलर हैं… छोटी मैडम ने गर्दन हिला दी लेकिन माथा उसका चढ़ गया, जैसे मुझे कंपनी में नौकरी पर रखते समय चढ़ा था और ऐसे ही आनाकानी – नर्सिंग डिप्लोमा बी पूरा नहीं किया, किसी भैया क्लीनिक में ट्रेनिंग किया, यूनिफ़ारम डालने का, थर्मामीटर, कैथेटर बोलने का, बस इतना करने से नर्सिंग नईं होता… तब भी बड़ी मैडम जी ने ही हाथ दिया – सीरियस नर्सिंग जॉब्स के लिए नहीं ले रहे, नर्सिंग असिस्टेंट, मोर लाइक कंपेनियन, प्रेज़ेंटेबल है, होम-केयर, अस्टिटिड लिविंग वालों के लिए प्रेज़ेंटेबल स्टाफ़ चाहिए। छोटी मैडम ने कहा कुछ नहीं लेकिन मुँह बिचका कंधे उचका दिए। छोटी मैडम नर्स है, बड़ा घमंड है, दुबई-बाहरेन में काम किया है – ब्रिटिश डॉक्टर के साथ नर्सिंग किया, अमरीकन डॉक्टर के साथ किया, जारिट्रिक, पीडीट्रिक, सब कुच…
लेकिन चलती बड़ी मैडम की ही है, उसने नर्सिंग नहीं पढ़ी है लेकिन कंपनी की मालकिन वो है, पैसा उसका है, दिमाग़, डिग्री चाहे जिस की हो और पैसा ही सब कुछ है ये छोटी-बड़ी दोनों मैडम जानती हैं। और अब मैं भी जानती हूँ। बड़ी मैडम ने नौकरी पर रखते समय पूछा था – उमर उन्नीस साल? डिप्लोमा पूरा क्यों नहीं किया? मैंने सच-सच बताया – बाप माँ नहीं, चाचा-ताऊ-भाई-पड़ोसी सब की डाँट-मार राज-हुकूमत मुझ पर, किसी ने प्यार से बोला तो उसके साथ भाग आई… बड़ी मैडम जी ने ऐसी दया से देखा जैसे पैर-तले कीड़ी-मूसी कुचली गई हो, छोटी मैडम जी ने हाथ से मक्खी जैसी उड़ाई – डिप्लोमा नई, करेक्टर अच्छा नई… शीज़ ओनली नाइनटीन, बड़ी मैडम जी बोलीं, मिस्टेक्स हैपन… मैं रोनी-मोनी सूरत बनाए रही, जगह नई लेकिन मेरा भाग वही, मैडम जी, घर से भागी, पर भाग से नहीं भाग पाई, घर वालों के धौल-धप्पे, गाली-गुतने से भी बदतर मिला है… आप नौकरी दे तो कुछ निजात मिले, पूरे मन पूरी मेहनत से काम करूँगी, शिकायत का मौक़ा नहीं दूँगी।
और अंत तक मैंने मौक़ा दिया भी नहीं।
वैसे छोटी मैडम के चिढ़ने-कुढ़ने कारण मैं जानती हूँ – वो पक्के रंग की, छोटी-मोटी, कर्कशा , और मैं देखने में अच्छी, साफ रंग, सुथरे नक़्श, सुलफ़ काठी। इस जलन से मेरी पुरानी पहचान है, बचपन से देखी -झेली, और जवाब में मेरा ऊपर ऊपर मिमियाना और भीतर भीतर इतराना भी पुराना। काकी, ताई, दादी, दीदी, सबके ताने- गुस्से में मेरे रंग रूप की ज़िकर-फिकर – चाम पर इतना ध्यान काम में बिल्कुल बेध्यानी, जितना सुघड़ बदन, उतना फूहड़ चलन। ट्रेन में एक औरत ने कहा था – मरद नेमत-तोहमत कहें या शैतानी चाल, असल तो ये कि औरत की खूबसूरती उसके गले में पड़ा सोने का तौक़ है, न पहनते बने, ना उतारते। बुर्के के भीतर वह औरत रो रही थी, सुड़क-सुड़क कर। मैंने मुँह फेर लिया था। मेरे घर छोड़ने का एक कारण यह भी था – घर पर सब औरतें मौक़े-बेमौक़े रोती रहती थीं, सुड़क-सुड़क कर। दादी कहती – औरत का जनम नितप्रति खड़ाऊँ पहनने सा, छाले आँटन पड़ जाएँ, खाल छाल हो जाए तलवे कड़ियाएँ फिर भी ऐसी चीस चले कि नाम पूछ ले। ऐसे में खड़ाऊँ उतार फेंकना ही एक उपाय क्योंकि ट्रेन वाली नाक सुड़कती औरत से तो मुँह फेरा जा सकता है लेकिन घर में रहते घर वालों से नहीं। मेरे लिए रूप तौक़- बोझ भी नहीं, दूसरों के लिए हो तो हो, मैंने इसी रूप के कारण थोड़ी ही सही, आज़ादी जोड़ी-बटोरी है। अगर मैं छोटी मैडम सी काली-कुतरी होती तो अपने धूल-धक्कड़ कीचड़-मट्टी वाले क़स्बे-कुनबे से निकल कर यहाँ आ पाती, समंदर किनारे फिल्मों से घर में फिल्मों सा ही चलन-रहन देख पाती? और जो न देखती तो उसके सपने भी कैसे देख पाती? सपने देखने के लिए सच जानना ज़रूरी है, सच बदलने के लिए सपने देखना। और मेरे जैसे सपने देखने के लिए मेरी जैसी आँखें चाहिए – बड़ी-बड़ी और बिना डरी।
छोटी मैडम की बात काट कर बड़ी मैडम जी ने सेठानी के घर दिखाई के लिए भेज दिया। सेठानी का पूरा कुनबा मौजूद था – दो बेटियाँ, एक भाभी, एक भांजी, दो तीन और औरतें, सब सेठानी को देश-विदेश में साँस-साँस फैलती बीमारी से बचाने के लिए मास्क चढ़ाए चार हाथ दूर बैठीं। सवाल जवाब बेटियों ने किए – कहाँ पढ़ी? काम जानती हो? इंजेक्शन हल्के हाथ से लगाती हो? बीच में छुट्टी तो नहीं माँगोगी? कोविड के सब प्रोटोकॉल करने होंगे – मास्किंग, हैण्ड वॉश, बाहर किधर भी जाने की परमिशन नहीं है, न मिलने-जुलने की। बॉयफ्रेंड है? सवाल ही सवाल। जैसे घर में आधी-नर्स-आधी-नौकर नहीं रख रहे हों, दुल्हिन ला रहे हों। इसी बीच मलिक आ गया। उसके घुसते ही जैसे कमरे में बर्फ़ गिरी, लड़कियों की तेवरियाँ माथे पर जम गईं, आँखों में पाला, सुर सर्द। बस सेठानी मुस्कुराने लगी, मास्क हटा कर – तुम सब ने लगाए हैं, मुझे जरूरत नहीं, मेरा घर है, मेरे रूल्स से चलता है। मलिक कुर्सी खींचकर सेठानी के पास बैठ गया। हाथ से कागज़ लेकर एक नज़र उस पर और एक मुझ पर डाली – नई लगती है, क्वालिफ़ाइड भी नहीं है, नर्सिंग कंपनी के लोग तो बढ़ा चढ़ा कर कहेंगे ही, हमें दूसरे कैंडीडेट्स देखने चाहिए। बड़ी बेटी ने सख्त-करख्त जबड़े खोले, सख़्त-करख्त ही बोली – ममी वी लाइक हर, कुंजन आंटी की कंपनी में 200 से ज्यादा नर्सिंज़ और नर्सिंग एड्स हैं, उन्होंने इसे भेजा है तो कुछ सोच कर ही… वी ट्रस्ट हर जजमेंट… ठंडी-धार आँखों से मलिक की तरफ देखा और बिना कहे ही कह दिया कि कुंजन आँटी पर विश्वास है, इस आदमी पर नहीं। सेठानी मीठे-मीठे मलिक को देख रही थी, हालाँकि ऐसा देखने लायक कुछ नहीं मलिक में। क़द-काठी चेहरा-मोहरा एकदम मामूली, बाल भी माथे-कनपटियों पर हल्के, बग़लों में पसीने के दाग़, जूते पर धूल की झाँई। तुम क्या कहते हो, सेठानी ने गर्दन तिरछी कर ऐसे टिम टिम आँखों निहारा कि बस अभी सिनेमा का गाना गाएगी । सेठानी अड़सठ की, मलिक से दुगुनी उम्र, लेकिन मुँह पर बीस बरस वाली सरस मुस्कान, प्यार खुमार।
बेटी-भाभी-भांजी के सुंदर चेहरे ग़ुस्से की लीक-झुर्रियों से कुरूप, साँसें तेज़-तेज़। कमरे में साँसें सबकी तेज़, चाहे कारण अलग-अलग हों। मलिक ने ही माहौल सँभाला, सेठानी की तरफ़ गहरी आँखों देखा – आपको ठीक लगे तो बिल्कुल और बिलाशक़ ठीक, वैसे भी बीमार तो मैं आपको पड़ने नहीं दूंगा। सेठानी के गालों पर हँसी के गुल-बूटे लाल-लाल और बेटियों भाभियों के तमतमाहट के। घर भर के दाँव-पैंतरों की झलक उस एक मुलाक़ात में मिल गई। अगले ही दिन बैग, ब्लड प्रेशर की मशीन और डॉक्टर-अस्पतालों के नंबरों वाली लिस्ट समेत मैं सेठानी के घर हाज़िर।
3
सेठानी का घर समंदर के ऊपर और आकाश से ज़रा सा ही नीचे।
घर जैसा घर? संगमरमर के फर्श, छत में फानूस झालर, रेशमी कालीन-पर्दे, मेज़-कुर्सी-सोफ़े-तस्वीरें पुतले-मूर्तियाँ – सजावट-बनावट के कितने सामान; ज़ितने जन उससे ज़्यादा कमरे, जितने कमरे उससे ज़्यादा चाकर, जितने चाकर, उसके कई गुना सेठानी के लटपट नखरे। बाहर बीमारी का प्रकोप फैला हुआ, लोग साँस-साँस को बेकल, दवा-अस्पताल जीने-मरने का ठिकाना नहीं लेकिन घर में कोई कमी-कसर नहीं – थैले के थैले सेब-अनार-दूध-मक्खन, डिब्बे के डब्बे बाहरगाँव के मीठे-नमकीन, शराब की बोतलों के झाँवे के झाँवे, रोज़-रोज़ ताज़े फूलों के गुच्छे, द्वार के लिए आम के पत्तों की बंदनवार, पूजा घर के लिए मालाएँ। दिन भर रसोई में ये पकवान वो चखवान, सुबह की चाय से रात के खाने तक टेबल भर भर कर सामान-सरंजाम; एक जन के लिए सौ-सौ तरह के इंतेज़ाम।
मगर असल में घर में एक जन कहाँ था? मलिक का आना-जाना तब भी बहुत था, दफ़्तर वाले कमरे में नाम के लिए सुबह शाम बैठता था, काम के बहाने हमेशा सेठानी के आस-पास इर्द-गिर्द, मौक़ा -बेमौक़ा उससे सटा-सटा कानों में खुसफुस- खुसफुस करता। नौकर-ड्राइवर-महाराज-दाई सब मुँह पर हाथ ओट कर हँसते, बुढ़ापे में माथा फिरा है, हाथ में हाथ मुँह में मुँह डाले बैठे हैं दोनों बरंडे में, घर बैठे सिनेमा देखो अब लैला मजनू की!
सेठानी के साथ मेरी ड्यूटी दिन-रात की थी, सारा वक़्त साथ-साथ बने रहना, सोना भी सेठानी के कमरे से लगे कमरे में, ममी का वॉक-इन है, बड़ी बेटी ने कहा था, तुम्हारा कॉट यहीं लगेगा। कमरा सेठानी के साड़ी, साये, जूते, चप्पल, अस्तर-बस्तर से पटा, काँच के आलमारियों में पर्स-बैग अलान-फलान सँजोए हुए। कमरे भर में ऐसी रेशमी-रेशमी कीमती ख़ुशबू कि सिंगारमेज़ पर सजी बोतलों में बंद खुशबुओं के जिन्न जैसे उस कमरे में आज़ाद। उस ख़ुशबू ने कीच-ग़लीज़ सूँघ कर पनपी मेरी नाक में ऐसा घर किया कि हर जगह उसी के लिए नथुने फड़कें और ना पाने पर छींके-ज़ुकाम। हफ़्ते भर में ही मैं समझ गई कि ये मर्ज़ कोविड से बारीक़ है और लाइलाज न हो जाए इस कारण मैं जब मौक़ा मिले, मैं बालकनी पर निकल कर बाहर की खारी, धुँए-दुर्गन्ध वाली हवा नाक-भर के सूँघती।
सेठानी के घर में मुझ सा कोई नहीं था, मैं न बिल्कुल नौकर, न बिल्कुल ठाकर, घर के चाकरों से ज़रा ऊपर, दफ्तर वाले मैनेजर से नीचे, महाराज चाय-खाना चीनी-मिट्टी वाली प्लेट-कटोरियों में दे लेकिन खाने की मेज़ पर नहीं, रसोई में अलग से। अगर थोड़ी अंग्रेज़ी ठीक-ठाक होती तो मालिश-कसरत वाली हट्टी -कट्टी औरत या संगीत सिखाने आने वाले मास्टर के बराबर होती, जिन्हें चाय नाश्ता ट्रे में लगा कर दिया जाता, चायदानी, दूधदानी के साथ, स्टील के गिलास में बार-बार उबाली-खौलाई बनी-बनाई चाय नहीं।
मेरे घर-क़स्बे का कोई जन मुझे देखता तो फ़िकरा कसता कि जली-ठंडी आख़िरी रोटी, बची-खुची दाल या पानी के साथ निगलने वाली को यहाँ दूध वाली चाय, घी चुपड़ी रोटी मिल रही है लेकिन हौंस-लालच में कमी नहीं। ठीक भी है, सिर्फ़ घी-दूध ही नहीं, अंडे, फल, विटामिन की गोलियाँ भी – जो सब सेठानी खाती-पीती, सो सब बेटियों के हुकुम से मुझे भी दिया जाता कि सिस्टर को ताकत रहनी चाहिए, बीमार ना पड़ जाए इस समय में। फिर भी बीच में कहीं अटकी होने का एहसास रहता ही।
घर में मेरी जगह तय न होने का एक और भी नतीज़ा था। हर कोई अपनी चिंता-फ़िकर, बात-बेबात बेधड़क मुझे कह डालते और अंदर की ख़बर, असली हाल-चाल की तफ़तीश में संकोच नहीं करते – सेठानी का मन, घर के रंग-ढंग सब मुझसे पूछ लेते। बेटियाँ मौक़ा देखकर अलग ले जातीं, सौ-दो सौ हथेली में दबा देतीं और सवालों की झड़ी – कौन-कौन आया, वकील, बैंक का आदमी, भाई की लड़की, ननद, भाभी? मलिक के बारे में भी पूछ-गछ – एंड दैट मैन? हमेशा हिक़ारत से होंठ बिचका, भौंह उचका कर – दैट मैन, वो आदमी, नाम से कभी नहीं, जैसे मलिक का नाम नाली का सुअर हो, छू जाए तो नहाना पड़े। हालाँकि फिर भी मलिक से तो बेहतर ढंग से ही पूछतीं, वो सेठानी के सामने तो उनका ज़िकर आते ही मुँह पर अँगुली धर लेता कि न, न, तुम्हारी बेटियाँ हैं, मेरा कुछ कहना ठीक नहीं, लेकिन पीठ-पीछे कुतिया साली लगाए के बिना उनकी बात नहीं करता – साली कुतियाएँ आई थीं क्या माँ के कान भरने, मन खटाने? साँपन हैं, अपनी माँ को खुश नहीं देख सकतीं, बस प्रॉपर्टी-प्रॉपर्टी पैसा-पैसा… बाप का माल है क्या ये पैसा?
ख़ैर, प्रॉपर्टी-पैसा था तो लड़कियों के बाप का माल ही, लेकिन हाथ में सेठानी के और सेठानी मलिक के, हर बात पर उस का मुँह जोए, हर घड़ी उस पर सौ जान से निछावर होए। उसे सूट- बूट-छड़ी-अंगूठियाँ, अगड़म-बगड़म क्या कुछ नहीं दे डाले। गाड़ी भी खरीदने वाली थी, लेकिन मलिक ने ही टोक दिया – इतना मत करो, जान, तुम्हारी बेटियाँ कहेंगी – मुझे गाड़ी का लालच था, मुझसे सुना नहीं जाएगा। फिर आँख दबाकर होंठ गोल कर चेहरा चेहरे के एकदम पास लाकर मद-मीठा फुसफुसा कर – मुझे तुमसे जो चाहिए वो गाड़ी नहीं, कुछ और ही, अगर तुम देना चाहो…
मैं चुप सब देखती-सुनती। मलिक की बेशर्मी और शातिरपन अचरज के लायक़ न हों लेकिन सेठानी का मुग्ध सुनना, लजाना-ललचना, झुर्रीदार गालों का ललाना इस पर अचरज कैसे न हो? समझ-बूझ का कैसा अंधापन कि वाक़ई मान बैठी ये आदमी उसके बूढ़े ढलके बदन के सपने देख रहा है? इतनी उम्रदराज़, इतनी दुनिया-देखी औरत और इस आदमी का सरासर झूठ उसे सच लगा? या मन के भीतर ही भीतर जानती रही कि सच नहीं है लेकिन फिर भी मानने का मन माना और इसीलिए मन को भुला-मना कर मान लिया? शायद जैसे मैं भीतर भीतर मीठी मीठी बातों का खोटापन जानती हुई भी भाग आई थी। किसी सुहावने झूठ को सच मान लेने की चाहत ऐसी तेज़-तीखी होती है कि पानी को हाँफते हिरण की भी क्या होगी, क्या बीस साल की बिन माँ-बाप की, ठंडे-बासी और फटकारों पर पली लड़की और क्या उमरदार कुनबेदार दौलतदार औरत, दोनों ही अपनी आंखें फोड़, अक़्ल पर पत्थर डाल झूठ को सच मानने को ललकती हैं। सच कह देना और सच सह लेना तो कारु-कठिन हैं ही, सच का सच स्वीकार लेना, भले ज़ाहिर तौर नहीं, सबसे कठिन, जैसे बबूल का काँटा छाती में लेना, उसके तीखेपन से निजात नहीं, उसके लगातार चुभने से बचत नहीं। मलिक ने सेठानी के कंधे-पीठ-बाँह सहला सहला कर जो उस काँटे की तीख-तुर्शी भुलाई और झूठ की चीनी -चाशनी चटाई उसके असर और क़ुव्वत का खुलासा धीरे धीरे हुआ।
4
एक रोज़ सेठानी बालकनी में बैठी थी, मैं उसके बालों में रंग लगा रही थी। महामारी फिर ज़ोर पकड़ रही थी और उसकी मालिश-पालिश वाली एक हफ़्ते से बुखार की चपेट में, लेकिन बालों में जो सफ़ेदी का बुख़ार चढ़ने लगा था उसका निदान ज़रूरी क्योंकि सरेशाम मलिक का आना तय। सेठानी मगन मन गुनगुन मुनमुन कुछ गा रही थी कि फ़ोन की घंटी बजी ।
मीठे मीठे मुसकते फ़ोन उठाया तो उस तरफ़ बड़ी बेटी, ग़ुस्साई भन्नाई, आवाज़ और पारा दोनों ऊँचे – इतने पैसे बैंक से क्यों निकाले जा रहे हैं, मम्मी? एक हफ़्ता पहले ही लाख निकाले थे और आज फिर… हो क्या रहा है?
सेठानी ने कंठ साफ़ किया – ख़र्चे के लिए निकाले हैं… घर है, जन हैं, आना-जाना देना-दिलाना लगा रहता है…
आना-जाना तो कोविड में बंद है, माँ… इस उमर में झूठ तो मत बोलो कम से कम।
पीठ पीछे मेरे होंठ तिरछाए । झूठ बोलने की कोई उमर होती हो जैसे। और सच बोलने की ?
ऐसे पैसे कहाँ लग रहे हैं? मैनेजर कह रहे थे अलीबाग़ वाले फ़ार्म में किसी तरह की ज़रूरत नहीं, तालाब पंचायत ने साफ़ करवा दिया है और पैडर रोड वाली बिल्डिंग का प्रॉपर्टी टैक्स पिछले महीने दिया जा चुका है।
बेटी झल्लाती रही और सेठानी फ़ोन इस कान से उस कान करती रही। आख़िर बोली – बूलू , पैसा मेरा है, तुम्हें हिसाब देने की ज़रूरत नहीं मुझे, तुम्हारे डैडी ने भी ऐसे हिसाब नहीं माँगा मुझसे कभी…
बिफरी बेटी और बिफर गई। डैडी की बात मत करो तुम, डैडी के सामने ऐसा करने की हिम्मत नहीं पड़ती तुम्हारी… सवा लाख की घड़ी ख़रीद कर उस आदमी को देने का सोच सकती थीं तुम डैडी के सामने? दिन में तारे दिखा देते तुम्हें और उसे दोनों को… फ़किंग पैरासाइट… घर में घुसा रहता है ऑल द टाइम … डैडी होते तो…
सेठानी एक क्षण सन्न। फिर झप्प फ़ोन हाथ से गिरा। हाथ-होंठ-देह थर थर जैसे हवा में टहनी । मैं दौड़ कर दिल वाली दवाई ले आई, ज़ुबान के नीचे रखी, हल्के-हल्के हथेलियाँ पगथलियाँ सहलाईं। थोड़ी सुस्थ हुई तो गिलास भर कर पानी दिया। सेठानी घूँट-घूँट पानी पीती, अँगुलियों से कनपटियाँ -भौंहे सहलाती सामने टकटकी लगाए पश्चिम में माँद पड़े सूरज को ताकती रही। फिर धीरे धीरे कहने लगी – जिस डैडी को इतना याद कर रही है, उन ने इसके होने पर एक बार ख़ुशी नहीं जताई, एक बार गोद में नहीं उठाया, हिजड़े आए तो कहा – इनाम- बक़्शीश की बात हुई होती तो देता … बाद में पल बढ़ जाने, बड़े घराने में ब्याहने पर माथे पे चढ़ाया तो क्या चढ़ाया… यही लड़की कहती थी – डैडी की ग़ुलाम नहीं हो कि हर ग़लत-सही पर केवल हाँ हाँ, बी योर ओन पर्सन, डैडी से इतना क्यों डरती हो? और आज हिम्मत की कह रही है … हिम्मत नहीं होती तो… जवान बेटा गया, इन लड़कियों का मुँह देख कर जीवंती रही वरना … सेठानी बोले जा रही थी, आँखों से पानी गिरे जा रहा था, गले में सिसकी बँधी जा रही थी। उधर बालों में रंग लग चुका था, सुगंध वाली क्रीम भी। मैं धीरे धीरे कंघा फिराने लगी। इस बीच उसका फ़ोन लगातार चमके और छनके, कॉल पर कॉल, कभी एक बेटी कभी दूसरी। आख़िर एक लम्बी साँस छाती में भरी, मचले बच्चे सा टिनटिनाता फ़ोन हाथ में लिया, बटन दबाते दबाते बुदबुदाई – सच कह दूँ तो झेल नहीं पाएँगी ये डैडी की बेटियाँ, इनके डैडी की वाइफ़ होने से विडो होना ज़्यादा आसान और सुलझा…
उस तरफ़ छोटी बेटी थी, कोमल चिंतालु सुर, रूठे को बहलाते-मनाते – बूलू कौल्ड मी, शी इज़ सो सॉरी, माँ … बट दैट मैन… ही इज़ ए कॉन आर्टिस्ट, वी आर वरिड फ़ॉर यू, तुम उसके चंगुल में फँसती जा रही हो, माँ, हम तुम्हारी बेटियाँ हैं, दुश्मन नहीं, तुम किसी से भी पूछ देखो, मामी, भुआ, निमी… दैट मैन… पैसे की ख़ातिर… बेटी की आवाज़ में आँसू का झरना।
माँ के आँसू थकान में डूब चुके थे, थके हारे कहा – मुझे किसी से कुछ नहीं पूछना है, कुकू… बाद में बात करते हैं, इस समय थोड़ी साँस चढ़ रही है…
बेटी की आवाज़ की भीगी घबराहट बढ़ी – मैं आऊँ? दुबई से अगली फ़्लाइट लूँ तो आज ही पहुँच जाऊँगी, बच्चे तो दादा-दादी से हिले ही हुए हैं, वो रख लेंगे।
नहीं नहीं, सेठानी ने बरजा, तुम अभी मत आओ, शहर में हर जगह बीमारी फैल रही है, अगल-बगल की बिल्डिगों पर बीएमसी के नोटिस लग गए हैं, थोड़ा माहौल सँभले तब आना… मैं अभी आराम करूँगी… इस समय और बात नहीं। रुआँसी बेटी का फ़ोन रखा, लम्बी साँस, साँस के साथ सरसराती दुःखती शिकायत – इन लड़कियों को क्या पता…
मैंने बाल सुलझा कर सँवार दिए थे। एक-में-एक लटें गूँथते हुए कहा – बेटियाँ हैं, चिंता है उन्हें कि एक बाहर वाले आदमी पर, जिसे कोई न जाने न पहचाने, इतना विश्वास करना, इतना कुछ देना…
सेठानी उठ खड़ी हुई। तुम मलिक को नहीं जानती, उसने किसी दिन मुझसे कुछ नहीं माँगा, जो दिया, मैंने अपनी ख़ुशी से, अपनी ख़ुशी के लिए, उसने हमेशा ना ना कर के लिया है… मेरे लिए क्या क्या किया है उसने… बाज़ार में फ़ुटपाथ पर गिर गई, कोई साथ नहीं, फ़ोन टूट गया, गाड़ी-ड्राइवर दूर चौराहे पर, जाने कहाँ से देखा, दौड़ के टैक्सी लाया, अस्पताल ले गया, एक पल अकेला नहीं छोड़ा, क्या एक्स रे, क्या एम.आर.आए. घर के आएँ उस से पहले सबके पैसे भर दिए, डॉक्टर को जाने न दे – नहीं, डॉक्टर साब, पहले देखो हड्डी तो नहीं टूटी… मुझे क्या जानता था? एक-दो बार मिसिज़ शाह के यहाँ मिला था, बस। मेरे बैंक में कितने पैसे हैं, मेरे कितनी जायदाद है ये उसे कहाँ पता था? बाद में हफ़्तों रोज़ घर देखने आता रहा, मैंने एक बार कह दिया कि सेब अच्छे नहीं, फुसफुसे से हैं तो वाशी की मंडी से ताज़े ले कर आया… किसी ने कभी मेरा कहा इतने ध्यान से सुना ही नहीं, क्या भाता है, क्या नहीं, उसे इतना मान किसी ने कभी नहीं दिया… जो कहती हूँ, जैसा कहती हूँ, वैसा करता है। ये दोनों कहती हैं – इस आदमी को भगाओ, मैनेजर है बैंक, टैक्स, इसका-उसका काम करने को, लेकिन मैनेजर मेरी सुनता है? सेठ ऐसा करता था, सेठ वैसा करता था, अरे, सेठ नहीं है अब, मैं हूँ … सबको सौ वांदे हैं मलिक से, लेकिन मेरा मन कोई नहीं समझता … मेरा जतिन समझता था, बूलू-कुकू के डैडी से ज़्यादा मेरी सुनता-समझता था… उसके जाने के बाद से मैं जो मरण-शोक झेल रही हूँ उसे अकेले मलिक ने समझा, उसने बहुत कुछ खोया है, भाई ने ज़मीन जायदाद दबा ली, प्रेमिका छोड़ गई, झूठे लांछन के कारण नौकरी गई… कहता है – और किसी से नहीं डरता, खो देने से डरता हूँ… मेरा एक दिन भी ब्लडप्रैशर बढ़ जाए तो चिंता के मारे डॉक्टर-हक़ीम के पास दौड़ जाए, कोविड फैलने लगा तो उसी ने कहा कि घर में नर्स रखिए, बाहर से आने वालों का भरोसा नहीं। इन दोनों को क्या पता, ये अपने परिवारों की… पूरा जीवन निकल गया मेरा, किसी ने पूछा नहीं कि क्या मन है, क्या इच्छा है… अब इस उमर में थोड़ा सा सुख मिला है… पहली बार किसी को परवाह है कि तबियत-पानी, खाना-सोना पूछे…
सेठानी बालकनी की रेलिंग से लग गई, साँस फूल गई थी, होंठ उसके अभी भी हिल रहे थे लेकिन आवाज़ समुद्र की हवा पी गई थी। पानी चढ़ा हुआ था, तट की चट्टानें काली छायाओं सी लहरों में ढुलमुल, दूसरे छोर पर कोली मछुआरिनें जाल में फँसी मछलियाँ निकाल रही थीं, सफ़ेद सलेटी चिड़ियों के झुंड क्रें क्रें करते आ जुटे थे और मछलियाँ के लालच में मछुआरिनों पर मँडरा रहे थे। मैं चुपचाप कंघी-क्रीम, पानी का गिलास-ट्रे सहेज कर भीतर आ गई।
रात का आख़िरी काम था सेठानी का ब्लड प्रेशर और शुगर माप कर फ़ाइल में नोट करना और उसे जड़ी-बूटियों वाला काढ़ा देना। उस रात काढ़े का प्याला हाथ में दे कर जाने लगी तो सेठानी ने मेज़ की ओर इशारा किया, बोली – ज़रा वो डिब्बा उठा लाना। राख के रंग का डिब्बा, सीप सा चिकना, मेरी दो हथेलियों से बड़ा। उठा कर लाई तो कहा – खोलो; खोला तो कहा – देखो। देखा – डिब्बे में बड़ी सी चमकती दमकती घड़ी। सेठानी काढ़े का घूँट ले कर बोली – एक मिनट नहीं लगाया, तुरत उतार दी कि बेटियाँ तुम्हें मेरी वजह से कुछ कहें, मुझे बर्दाश्त नहीं, इतनी साफ़ नीयत रखता है, बोला, आपकी ख़ुशी के सिवा कुछ नहीं चाहिए मुझे। सेठानी का चेहरा गर्व से दमक उठा, गर्दन में खम, आँखें दिप् -दिप्।
कोई एक आदमी, वो कोई भी, कैसा भी हो, अगर कहे – तुम्हारी ख़ुशी सब कुछ है तो उसके मद में हर आफ़त भुनगा और दुनिया गेंद लगती है, लगता है पंजों पर उचक कर आसमान छुआ जा सकता है। लेकिन लगना होना नहीं होता, ये मैं जानती हूँ, इसीलिए जब मेरी तरफ़ भरपूर नज़र से देखा तो मैंने आँखें झुका लीं। और क्या करती ? सवा लाख की घड़ी हाथ में ले कर परखी जा सकती है, सच मगर महीन होता है, चावल सा बीनना होता है, नमक के कणों सा चख कर जाँचना होता है।
उस रात सेठानी के क़ीमती कपड़ों- जूतों से घिरे सोते हुए मुझे एक सपना आया। सपने में मेज़ पर वही डिब्बा रखा है – चिकना चमकता। मैं खटका दबा कर डिब्बा खोल देती हूँ। डिब्बे के भीतर मलिक है, मुझे देख कर आँख दबा कर मुस्कुराता है । सपने में मुझे उसके डिब्बे में होने पर कोई अचरज नहीं होता, डिब्बे में घड़ी के ना होने पर उलझन होती है। मलिक पलँग पर आ बैठता है और जेब से निकाल कर पाँसे खेलने लगता है। मैं पूछती हूँ – घड़ी कहाँ गई? वो कंधे हिलाता है और दुहराता है – घड़ी कहाँ गई? इस बीच कहीं से लगातार घड़ी की टिक टिक की आवाज़ आ रही है और मलिक उस टिक टिक से तेज़ ताल पर पाँसे फेंक रहा है, पाँसे उसके हाथों से फिसल रहे हैं, अंगारे से लाल पाँसे, धुँधुआती अँगुलियाँ । मैं जाग पड़ी, देखा मेरी मुठ्ठियाँ भिंची हुई थीं और हथेलियों में नाख़ूनों ने चाँद उभार दिए थे।
5
कोविड का प्रकोप बढ़ता जा रहा था, आने जाने वालों पर एकदम पाबंदी। लेकिन ये पाबंदी मलिक के लिए नहीं। वह सुबह ही आ जाता। सेठानी के साथ बहुत देर तक ऑफ़िस वाले कमरे में बैठा रहता। एक रोज़ मैं नौकरों के बरतने के लिए मँगवाए सामान को फ़ेहरिस्त से मिला रही थी – मोटे चावल और अरहर दाल, शक्कर, सस्ती चाय के थैले, अगरबत्ती और माचिस, दाँत माँजने के लिए कोलगेट, नहाने के लिए लाइफ़बॉय साबुन और नारियल तेल। दरवाज़े पर खड़ा किराने वाले का लड़का सँकरे माथे पर गिरे बाल झटकता मुझे ऊपर से नीचे तक ऐसे घूरे जा रहा जैसे कोई अकाल-दुकाल में धान के मटके को। दफ़्तर वाले कमरे से निकलते मलिक ने एक नज़र में सब देख लिया और मेरे पास आ खड़ा हुआ, एकदम मेरी बग़ल में, उसकी बाईं बाँह मेरी दाहिनी छाती से सट गई, आँखें सिकोड़ खींसे पसार ऐसे लम्पटपन से किराने वाले के लड़के को देखा कि उसकी गर्दन झुक गई और ख़ाली थैला ले कर फट फट सीढ़ियाँ उतर गया। सेठानी बैठक में थी, दरवाज़ा और दरवाज़े में फ़्रेम में मढ़ी तस्वीरों से मलिक और मैं उसकी नज़र की सीध में। मैं चुपचाप वहाँ से टल गई।
फ़ोन वाले झगड़े के कोई हफ़्ता-दस दिन बाद दोनों बेटियाँ आईं, चेहरे फीके, आँखें कसी-कसी, चिंता, दुःख, ग़ुस्से के बीच डोलमडोल। सेठानी सो रही थी। मैंने बताया तो चेहरे और बुझे, साथ लाईं फल-फूल की डलियाएँ और अपने-अपने घर से के ख़ास तौर लाए ऊंधियो, माठ, गोल पापड़ी के कटोरदान मेज़ पर रख दिए और एक दूसरी की ओर दुचित्ती सी देखने लगीं। पकवानों से उठती घी, मसालों की गंध से मुँह में आए पानी को घूँट कर मैंने उनकी तसल्ली के लिए सफ़ाई दी – सचमुच सो रही हैं, दोपहर खाना देर से खाया, लेटने में भी देर हो गई । देर का कारण मलिक का नाश्ते के बाद देर तक बैठे रहना था, न मैंने कहा, न लड़कियों ने पूछा ही, लेकिन बिन कहे-सुने वे कारण जान गईं, और मैं उनका जानना। दोनों बाहर की बैठक में सोफ़े पर बैठ गईं, हताश, आहें भरतीं, अपने ही घर में मेहमान सरीखीं, इस घर में जिसमें सेठानी-सेठ परिवार-दौलत के बीच बड़ी हुईं, जब बाप गया तो माँ के रहने का दिलासा रहा, अब माँ उनसे दूर होती जा रही है, उनके किए निदान-समाधान नहीं, सारी कोशिशें दलदल में गिरे के हाथ -पैर मारने जैसी, उबरने के बजाए और और गहरा धँसान। लेकिन कुछ न भी तो कैसे करें? मुझे उनकी नस-नाड़ी, पीर-अधीर की ऐसे पहचान जैसे पास बिठा कर आदि-अंत सुनाई हो। मैं चुप, आँखें झुकाए, वो दोनों मुझ पर आँखें गड़ाए, जैसे मैं उनकी दोषी होऊँ, जैसे मलिक का आना मेरे कारण हो जबकि था इसका उलट। लेकिन सच में गुँथे झूठ और झूठ में मथे सच को तब का तब अलगाने से भी नतीजा उस से अलग नहीं होता जो कि आख़िर आख़िर हुआ। सच-झूठ की धार सबको अपनी अँगुलियाँ बिंधवा कर परखनी पड़ती है, इस मामले में उधार या उपकार बेकाम। इसी अधर-तौल सन्नाटे में नौकर मौसम्बी के जूस के गिलास रख गया।
नासिक वाले फ़ार्म से आती थीं मौसम्बियाँ, छोटी बेटी बोली, डैड सोल्ड इट आफ़्टर जतिन भाई … बड़ी बेटी की भवें गुँथी, चेहरे पर भाव क्षण क्षण ठहरे-उतरे। गिलास की ठंडी भाप पर छूटी अँगुलियों की छाप पर टकटकी बाँधे रही। आख़िर छोटी बेटी ही दोबारा बोली – हमें मम्मी की बहुत फ़िकर है, सिस्टर, हमारा भाई साल पहले एक्सीडेंट में चला गया, तब से मम्मी इज़ नॉट हरसेल्फ़, हम अपनी फ़ैमिली नहीं छोड़ सकते वरना एक दिन अकेले नहीं रहने देते उन्हें… गला भर्राया, खँखार कर सुधारा – माँ है हमारी, सिस्टर, वी आर हर डॉटर्स…बेटियाँ… उनको छला जाता देख कर कैसा लगेगा हमें तुम समझ सकती हो न?
मुझे आधी बात पल्ले पड़ी, आधी नहीं। मैंने गर्दन हिला दी कि हाँ, हाँ समझती हूँ, हालाँकि न मेरे माँ, न मेरे बेटियाँ. फिर भी छले जाने के बारे में समझती ही हूँ।
दैट मैन, ही’ज़ ए कॉन, हम जानते हैं, प्रूफ़ है हमारे पास, महीनों से बैंक, हॉस्पिटल, शॉपिंग सेंटर के आसपास मँडराता था, बड़ी उमर की अकेली औरतों की मदद को हरदम तैयार, इसी बिल्डिंग में चौथे माले वाली शाह आँटी के पीछे लग गया था, कोविड के शुरू में उनका बेटा आ कर अमेरिका ले गया तो मम्मी को पकड़ा है… डैडी ने किसी बात की कमी नहीं रखी थी मम्मी के लिए, ट्रेडिशनल थे लेकिन उनकी जेनेरेशन में कौन नहीं था वैसा ? ही प्रोवाइडिड फ़ोर द फ़ैमिली, मम्मी को भी घर में बंद नहीं रखा, बुकक्लब, किटी, बाहरगाँव में छुट्टियाँ – सब किया, अब इस आदमी के चक्कर में …शी’ज़ पोल्यूटिंग हिज़ मेमोरी, बड़ी बेटी का गला भिंचा भिंचा।
बूलू, छोटी के सुर में चेतावनी, वी वॉंट हर ऑन आवर साइड…
आए एम फ़ैड अप ऑफ़ दिस फ़किंग डाँस… शी इज़ंट मेकिंग गुड डिसिज़ंस। ये बैंक अकाउंट वाला मामला…
छोटी बेटी ने बड़ी की बाँह पर हाथ रखा, प्लीज़, बूलू…
मैं यहाँ रहती हूँ, कुकू, तुम नहीं… आए हैव टू फ़ेस दैट मैन ऑल द टाइम…
छोटी बेटी बड़ी की बाँह थपथपाती रही, जैसे बच्चे को चुपा रही हो। फिर बोली – आज उन्होंने बूलू का नाम बैंक अकाउंट्स से हटा दिया, हमें पता भी नहीं पड़ता, बैंक मैनेजर डैडी के टाइम का है, उसने फ़ोन किया… उस आदमी के पीछे सब लुटा देंगी… तुम यहाँ हो, कुछ देखो तो हमें बताना, बात सिर्फ़ पैसे की नहीं है, हमें फ़िकर है कि मम्मी के साथ कुछ ग़लत न हो जाए… डैडी ने जाते जाते कहा था – तमारी माँ एका सरल स्त्री…
मैंने गर्दन हिलाई, लेकिन बात के आईने में पड़ा बाल मुझे दीखा – जब कोई कहता है बात उसकी या इसकी नहीं, तो अक़्सर बात इसकी-उसकी ही होती है।
घंटी बजी, सेठानी जाग गई थी। मैं कमरे की तरफ़ चली, बेटियाँ भी बेचैन दुविधा में उठ खड़ी हुईं कि भीतर कमरे में जाएँ कि बाहर ही ठहरें?
जब तक मैंने सेठानी को बेटियों के आने के बारे में बताया, वो दोनों धीरे से कमरे में दाख़िल, अनिश्चित, छाया सी डोलती।
कमरे में सनसन सन्नाटा। आलमारी खोलने, सेठानी की दवाइयाँ, इंजेक्शन, ब्लड प्रेशर की मशीन निकालने रखने की आवाज़ जैसे पानी में पत्थर – छपाक-सड़ाक। मैं सब रख कर चुपचाप कमरे से निकल गई।
ट्रे में सेठानी का काँसे वाला पानी, फूल-चाय, मखाने-मेवे सजा कर लौटी तो कमरे का सन्नाटा खील-खील, नाती-नातिनों के बनाए ‘लव यू नानी माँ, मिस यू नानी माँ’ वाले कार्ड सेठानी के पास ताश के पत्तों से फैले, बेटियाँ कुर्सियों की पीठ पकड़े खड़ीं, सबके मुँह भारी, सबकी आँखें गीली। सेठानी के हाथ में घड़ी और होंठो पर वही पुरानी तान – सवा लाख की घड़ी उतारने में सवा मिनट नहीं लगाए, बिल्कुल लालच नहीं, तुम लोग मलिक को समझती नहीं…
माँ, वी अंडरस्टैंड हिम, यू डोंट। बड़ा गेम खेल रहा है वो… शाह आँटी से क्या क्या काग़ज़ साइन करवा लिए, निशित को यू.एस. से आना पड़ा उन्हें इस आदमी से बचाने… आप निशित से फ़ोन करके पूछ देखो, उसने ख़ुद हमें वॉर्न किया इस आदमी के बारे में…
वाए शुगरकोट, बड़ी बेटी का चेहरा तूफ़ान सा घिरा-घिरा , ये प्रिडेटर है, पैसे वाली बूढ़ी औरतों को ठगता है, हमारे पास पूरी इंवेस्टिगेशन रिपोर्ट है इसकी, और यही नहीं, क्रिमिनल है, जिस इंश्योरेंस कम्पनी में काम करता था, वहाँ से प्रीमियम के पैसे ले कर, बीमार बीवी को मरने छोड़ कर किसी लड़की के साथ भागा…
सेठानी के मुँह पर हठ ढक्कन सी जड़ गई। मुझे सब बता चुका है, पत्नी पागल थी और ग़बन वाला इल्ज़ाम भी एकदम झूठा, जभी न पुलिस ने कारवाई नहीं की…
मार मार कर हड्डी तोड़ दी पुलिस ने, पैसे इसने ग़ायब कर दिए लेकिन इसकी बाइक, इसका प्रॉविडेंट फंड सब ज़ब्त कर लिया, वहाँ से भागना पड़ा और कार्रवाई क्या होती है? और हज़्बेंड टीनएजर लड़की को ले कर घूमे तो कौन पागल नहीं होगा? डैडी की विडो कज़िन घर आने लगी थी तो तुम ने नहीं हंगामा किया था? आए वॉज़ ए किड बट आए रिमेंबर…
बूलू, प्लीज़ बी क्वाइट, छोटी बेटी माँ के पास चली आई, गले में बाँह डाल कर आँसू गिराने लगी – माँ प्लीज़ माँ, फ़ेस द ट्रूथ, ही’ज़ ए क्रुक…हमारे ससुराल वाले क्या क्या कह रहे हैं हमें, आपको क्या बताएँ…
तुम्हें सिरफ़ अपनी पड़ी है, कुकू, मेरी तरफ़ से कभी सोचा? जब तुम्हारे डैडी थे, तब भी मन अकेला ही था, और अब तो घर भी…
तुम ख़ुद को अकेला कर रही हो, बूलू का नाम अकाउंट से हटा दिया, हम सिर्फ़ तुम्हें प्रोटेक्ट करने की कोशिश कर रहे हैं, मम्मी…
बूलू ने मुझे फ़ोन पर क्या क्या कहा पूछो इस से …
आए एम सो सॉरी, माँ, रियली… बड़ी बेटी कुर्सी की पीठ छोड़ कर आगे आई। उस दिन के बाद से… कितना सॉरी फ़ील किया, कितनी बार फ़ोन किया , यहाँ तक आई भी लेकिन ऊपर आने में… गाड़ी में बैठी रही घंटा भर, गार्ड ने कितनी बार कहा ऊपर जाओ, बूलू बाबा….
माँ-बेटियों की आँखें आँसुओं में ग़र्क, मन भीगे-डूबे।
मैं सूखी आँखों साफ़ नज़र सब देख रही थी। आख़िर घंटी बजी और पलक झपकते मलिक कमरे में दाख़िल – अच्छी ख़बर! बस प्रॉपर्टी टैक्स वाला मामला सलटा हुआ ही समझिए, मोटा रिफ़ंड आएगा आपका जल्दी – लड़कियों को देख कर एकदम अचकचाया कि उनके आने की ख़बर ही न हो।
मैंने धीरे से साँस छोड़ी और मेज़ के पास सरक आई, इधर मैंने ब्लड प्रेशर मापने के लिए मशीन सम्भाली, उधर लड़कियों ने त्योरियाँ-तरेरियाँ, उनके आँसुओं से भीगे चेहरे फिर तन गए।
मलिक की आँखें सेठानी पर, उसकी गीली आँखों पर गुड़ पर कीड़ी सी चस्पाँ। ऐसे धड़फड़ा कर बढ़ा जैसे कमरे में क्या, दुनिया में उसके लिए कोई और हो ही नहीं – आप रो रही हैं? क्या हुआ? कोई बात? तबियत…
सेठानी पिघल कर चाशनी। नः नहीं, कोई बात नहीं, इतने दिनों पर कुकू- बूलू आईं तो कहन-सुनन…
मलिक ने दोनों बेटियों पर रूखी-सूखी नज़र डाली – तुम लोगों का ग़ुस्सा मुझ पर है, इन्हें क्यों परेशान करती हो? जो इन्होंने प्यार से दिया, मैंने मान रखने के लिए ले लिया था, तुम्हारे-इनके बीच उसे ले कर मनमुटाव हो रहा है सुनते ही सब लौटा दिया, फिर भी इन्हें सता रही हो, रुला रही हो… इनका दिल इतना नरम है, इतना कोमल… बाहर-अंदर एक सी हैं, इतनी सुन्दर-सरल…
नः न, सेठानी पुलक रही थी, ऐसी कोई बात नहीं, ये बस मिलने आईं हैं…
बड़ी-छोटी बेटियाँ भौंचक्की माँ के चेहरे पर चढ़ते रंग देख रहीं थीं – व्हाट हैज़ हैप्पण्ड टू यू, ममी, छोटी बहन ने सेठानी की बाँह पर हाथ रखा, यू नो एवेरीथिंग एंड स्टिल?
दोनों तरफ़ ग़लतफ़हमियाँ हैं, कुकू, सेठानी ने सँभल सँभल कर कहा, बात करने से सब साफ़… मलिक ने बहुत मेहनत की है, फँसे पैसे निकलवाए हैं…
मैंने कुछ नहीं किया, आपका मामला ही पुख़्ता है, मलिक मुग्ध मुस्कुराया।
दोनों लड़कियों के आँसू अब बिल्कुल सूख गए थे, बड़ी होंठ चबा रही थी, छोटी आँखें फैलाए मलिक को घूर रही थी। ट्रे में सबके लिए पानी, मीठा-नमकीन लिए आया नौकर कमरे के रंग-ढंग देख कर दरवाज़े पर हिचकिचाया रुका तो मलिक ने बढ़ कर पानी का गिलास उठा लिया। सेठानी की ओर पीठ दे कर बड़ी बेटी को बड़े अंदाज़ से पेश किया – मुझे इनका मैनेजर-नौकर जो चाहे समझो, मैं तो बस ख़िदमत करना चाहता हूँ! शातिरपन से आँखों की कनखी मार, होंठ बिरा कर बेआवाज़ हँसा। बड़ी की बर्दाश्त का धागा एकबारगी ही टूटा। बीते महीनों की सब खीझ-कुढ़न बरबस उफन उठी – यू फ़किंग रेसकल … दाँत पीसते मलिक के हाथ से गिलास छीना और उसी की ओर फेंका।
मलिक चाहता तो आसानी से आँके-बाँके फेंके गिलास से बच सकता था लेकिन वह शहीदाना ढंग से छाती ताने खड़ा हो गया। फिर बहुत कुछ एक साथ इस तेज़ी से घटा कि आपस में गड्डमगड्ड, क्या पहले हुआ क्या पीछे कहना मुश्किल – पहले गिलास कंधे से टकरा कर टूटा और मलिक की गर्दन पर ख़ून झलक आया या पहले मलिक ने कॉलर पर हाथ दबाया और फिर कपड़े पर लाल लाल दाग़ उभर आए, अँगुलियों से ख़ून के छींटे झरने लगे । सेठानी चीख पड़ी, लपक कर उठी और मलिक के कंधे से क़िरचें झाड़ने लगी। उसकी अँगुलियों-हथेली में किरचें धँस गईं । छोटी बेटी का हाथ मुँह से जा लगा, बड़ी ग़ुस्से के झोंके से काँपती रही। कोने में खड़ी सब कुछ देखती मैं फ़र्स्ट एड का डिब्बा लेने दौड़ पड़ी।
6
उस दिन काँच के गिलास के साथ और बहुत कुछ टूटा, हल्की ख़राशों के अलावा और बहुत कुछ छिला। पानी सा जो बहा, उसे समेटना सम्भव नहीं।
उस समय कोई जाना हो या नहीं, या शक़-शुबहा नहीं कर पाया हो या नहीं, सच ये है कि पूरा का पूरा खेल मलिक का रचाया हुआ था, जाने अनजाने सब मलिक के चलाए चले थे, उसी ने तय किया कि कब क्या होगा और कौन क्या करेगा, कौन सा पर्दा कितना खुलेगा और कितना ढँका रहेगा। चाहे सेठानी सोचे कि वो अपनी दुष्ट बेटियों को घर से निकाल रही है और बेटियाँ सोचें कि उनकी सठियाई माँ उन्हें बेदख़ल कर रही है, लेकिन सब धागे तो मलिक की अँगुलियों में सधे थे, गरज़ सबकी अपनी अपनी थी लेकिन मर्ज़ी तो मलिक की ही थी।
बेटियों से तोड़ा -टूटन के बाद मलिक का आना-जाना इतना बढ़ा कि आने का पता चलता न जाने का। काग़ज़-पत्तर सिराते निबटाते सेठानी से सारे दिन मीठी मीठी बातें करता- आप यहीं बैठो, बालकनी की खुली हवा में, सारा शहर समंदर देखने जाता है, समंदर यहाँ आपको देखने आता है। सेठानी भी रौ में बही जाती, मुस्कुराती कहती – हाँ, बिला नागा, दिन में दो बार, मलिक हँसता, नौकर चाकर भौंहें चलाते। बेटियाँ, रिश्तेदार, दोस्त, पड़ोसी आपस में क्या कहते-करते इसका अन्दाज़ लगाना मुश्क़िल नहीं।
और मैं? मैं सब ऐसे देखती जैसे आँखों पर अनोखी दूरबीन लगी हो – दूर-पास साफ़-साफ़।
कोविड घटते घटते फिर बढ़ने लगा था। अस्पतालों में मरीज़ों की भीड़ लगने लगी थी और अख़बारों में आँकड़ों की – इतने बीमार पड़े, इतने मरे, इतने टीके लगे। लेकिन शहर की भीड़-भगदड़ जस-की-तस, समंदर में लहरें वैसी ही बढ़ी-चढ़ीं, किनारे पर मछुआरिनों और चिड़ियों की संख्या में न घटत न बढ़त।
नर्सिंग कंपनी वाली मैडम ने मेरे टीके लगवाने का इंतज़ाम किया था। इंतज़ाम तो सेठानी के लिए भी किया था लेकिन मलिक ने कहा – मैं नहीं लगवा रहा,
ये टीके दवाई की कंपनी वालों की साज़िश हैं, कोई माने न माने, मेरा मानना है। और सेठानी का मानना मलिक से अलग कैसे हो सकता था? बस, दोनों ने टीके नहीं लगवाए। मैं टीका लगवा कर लौटी तो सेठानी मलिक के साथ चाय पी रही थी, साथ माने बिल्कुल साथ, अगल-बग़ल बैठ कर, बड़े नखरे से ख़स्ता बिस्कुट के टुकड़े-टुकड़े मलिक के मुँह में रख रही थी, मलिक बिस्कुट के बहाने नर्म नर्म अँगुलियाँ चूम रहा था, चूमी गईं अँगुलियाँ झूठमूठ क़मीज़ पर पोंछने की चुहल हो रही थी। सेठानी चाय का घूँट ले कर कहने लगी – अब इस समंदर को यहीं रह जाना चाहिए, इसी घर में। समंदर नहीं कुआँ है, डूब जाओगी, मलिक ने लाड़ लड़ाया। डूब गई हूँ, सेठानी ने आँखों में देख कर फरमाया। मेरे लौटने का उनकी इश्क़िया नोक-झोंक पर उतना ही फ़र्क पड़ा जितना दीवार पर पड़ी परछाईं का। आकाश में शाम बज रही थी। मैं दवाइयों का डिब्बा लेने भीतर चली गई।
समंदर-कुआँ जो जहाँ थे, वहीं रहे, न कोई डूबा, न उबरा, लेकिन हफ़्ते के भीतर-भीतर मलिक मय सामान सेठानी के घर आ गया। नाम के लिए दफ़्तर वाले कमरे में डेरा जमाया, लेकिन रात को अक़्सर फुसफुस खसखस दबी-दबी हँसी हलचल से मेरी नींद उचटती। सुबह सेठानी नौकरों के कमरे में आने से पहले जल्दी जल्दी पलँग की चादर तकिए बराबर करती, चेहरे पर हँसी की झुर्रियाँ खिली रहतीं, बदन में फ़ुर्ती थिरकती रहती। हर बात मलिक से पूछती – दाल बनवाएँ या कढ़ी? रोटला या थेपला? खिड़कियाँ आज साफ़ करवाएँ कि शनिवार को? मुनि जी को राशन भिजवाएँ या हुंडी? मलिक ध्यान से सुनता, सोच कर जवाब देता जैसे देश-दुनिया के मसले हों। बैंक से पैसे लाने का काम तो पहले ही उसका था, अब सेठानी घर ख़र्च के पैसे भी उसके हवाले करती, साथ में एक लिफ़ाफ़ा भर कर नोट उसके लिए अलग से, ओंठ पर अँगुली लगा कर ‘रखो, रखो’ वाले इसरार के साथ । मलिक हिचकता सा ले लेता, कहता – मैं किसी लायक़ होता तो आप को एक पैसा नहीं ख़र्चने देता लेकिन आप देखती रहिए, कुछ समय की बात है , बिज़नेस के ऐसे ऐसे बढ़िया आइडिया हैं, एक से एक! सेठानी देख रही थी या नहीं, मैं देख रही थी कि बात समंदर में मछलियाँ पकड़ने से बड़ी थी। इरादे समूचा समंदर पी जाने के थे।
7
बेटियों को ख़बर लगनी ही थी। लगी।
दोपहर सेठानी सो रही थी, मैं उसके कमरे के बाहर कुर्सी डाल कर होम-नर्सिंग वाली किताब लिए बैठी थी – हाइपरटेन्शन के मरीज़ों की घर पर देख-रेख वाला चैप्टर, दवा पथ्य वर्ज़िश नींद के नियम। मलिक बाहर गया था। जब से सेठानी के घर में रहने लगा था, सेठानी उसे सुबह-शाम कहीं जाने नहीं देती और दोपहर आराम के समय घर में टिकने नहीं देती। पहले ही दिन बड़े मान-दुलार से कह दिया – सुबह-शाम तुम्हारे बिना सूना लगता है, बिल्कुल मन नहीं लगता अकेले, बाहर के काम दोपहर में निपटाओ, बस। कहा कैसे भी हो लेकिन साफ़ था कि हुकुम है, अर्ज़ नहीं। मलिक ने समझा और चट मान लिया – जो हुकम हजूर का, और उसकी गदबदी ठोड़ी के नीचे हल्की चिकोटी काटी।
अकेलेपन वाली बात सच थी, मलिक न हो तो सेठानी को कल न पड़े, बार-बार फ़ोन, बार बार खिड़की-द्वार, शरीर में ऐसी अधीर की फड़कन कि एक पल उठे, दूसरे पल बैठे । लेकिन ये भी सच था कि किराने वाले के लड़के की घटना के बाद से सेठानी ने मलिक को मेरे पास मँडराने का मौक़ा नहीं दिया था, दोनों में से एक को हमेशा अपनी निगाहों के सामने रखती, अगर मलिक दफ़्तर वाले कमरे या बैठक में, तो मेरी पुकार तुरंत सेठानी के पास। मेरे लिए नए नए नियम – काजल-मेकअप नहीं, नर्सिंग कम्पनी की बिना काट-पैनल वाली ढीली ढीली थैलेनुमा नीली युनिफ़ॉर्म पहनो, नियम-अनुशासन ज़रूरी हैं, यहाँ तो महीने-दो महीने और हो, कोविड क़ाबू में आने तक, कल कहीं और जाओगी, अभी से आदत डालो। सेठानी मूरख नहीं थी, चाक-चौबंद और दुनियादार, ऐसे ही नहीं इतना भरा पूरा कुनबा और नौकर-चाकरों वाला घर चलाया, दो-दो बेटियों को पाला-बढ़ाया, उसकी नासमझी एक ख़ास तरह की थी – उसे लगता था कि मैं जीन्स-टॉप नहीं पहनूँगी तो जवान और रूपवान नहीं रहूँगी और वो मलिक को अगोर कर बैठेगी तो वो उसी का रहेगा।
मैं पढ़ते-पढ़ते ऊँघ गई थी कि फ़ोन बजा। दुबई का नम्बर। ऊँघ-आलस ग़ायब, सजग-सतर्क फ़ोन उठाया, धीरे से कहा – हेलो। वहाँ तो बाँध टूटा, बड़ी-छोटी दोनों बेटियाँ थीं, – सिस्टर, हमें तुमसे ऐसी उम्मीद नहीं थी, तुम को घर का सा मान कर ट्रस्ट किया…
मन ही मन मैं हँसी, जाते जाते पाँच सौ रुपए में कितना विश्वास मोल ले गईं थीं?!
उधर से शिकायतें बरसती रहीं – दैट मैन हैज़ मूव्ड इन और तुमने हमें एक फ़ोन भी नहीं किया… अगर महाराज ने भुआजी के महाराज को नहीं कहा होता तो हमें पता ही नहीं लगता… रियली डिसप्वाइंटेड…
मैंने उन्हें बोलने दिया कि भड़ास निकाल लें, फिर धीरे से गला साफ़ किया – मेरे ऊपर निगरानी है, कोविड का नाम ले कर बाहर आने जाने से रोक दिया है, घर में सारे दिन मुझ पर नज़र रखते हैं। ये सब सच था, सेठानी के सच की तरह ही आधा सही, लेकिन सच। बेटियों का ग़ुस्सा ठंडा हुआ, खोद खोद कर पूछने लगीं – क्या करता है? दफ़्तर वाले कमरे में रहता है? पैसे देतीं हैं उसे? मैंने पूछे गए का जवाब दिया – सारे दिन साथ साथ रहते हैं, नाम के लिए दफ़्तर के कमरे में लेकिन रात को सेठानी के साथ… क्या क्या करते हैं दोनों, कैसी कैसी बेशर्मी … उस तरफ़ से तेज़ साँसों की आवाज़, बेटियाँ धक्क-चुप्प। छोटी ही बोली पहले – स…साथ सोते हैं? माँ-डैडी के बेड में? नौकर वग़ैरह…? आवाज़ उसकी रुआँसी हो गई।
किसी से कुछ छुपा नहीं है, सबको पता है, मैंने कहा, शायद शादी करने की भी बात…
व्हाट? बड़ी बेटी अब तक चुप थी, एकदम भड़क गई, शादी? अपने से आधी एज के क्रिमिनल के साथ…? शी कान्ट बी अलाउड टू डू दिस… शी’ज़ गौन क्रेज़ी इन्सेन…
मैं चुप रही। ये दिमाग़ का मामला नहीं था। सेठानी अपने पूरे होशोहवास में थी। अड़तीस का मलिक, पैंसठ की सेठानी, दोनों बिल्कुल ठीक ठीक जानते थे कि क्या कर रहे हैं।
समथिंग नीड्स टू बी डन, बड़ी कह रही थी, वो आदमी घर में है?
नहीं, मैंने कहा। मलिक उस वक़्त घर में नहीं था। दोपहर भर इधर उधर समय बिताता, रोज़ नए नए क़िस्से – रत्नागिरी हापुस के आदगांव बाग़ान का सट्टा लगा कि इस सीज़न कितने आम उतरेंगे, मैंने बाग़ान का नक़्शा देखा, पेड़ों की गिनती, उनकी उमर और कहा दो लाख। तुम विश्वास करोगी, एक लाख पिच्चासी हज़ार उतरे, जिसने मेरे कहने पर लगाया उस के सब मिला कर साठ लाख से ऊपर बने, मुझे दस हज़ार देने लगा, मैं कह दिया – सेठ, ये चिल्लर है, देने वाले और लेने वाले दोनों की बेइज़्ज़ती, एक दिन बाज़ार में तुमसे दोगुने का खेलूँगा। सेठानी फीका सा हँस देती, जुए में माणुस के पैसे और चरित्र दोनों बरबाद होते हैं। देखती जाओ, मलिक कहता, ऐसे आबाद करूँगा तुम्हें … सेठानी की फीकी हँसी रसीली और मुँह लालम-लाल।
मैं आधे घंटे में आ रही हूँ, उधर से फ़ोन कट गया।
मैं दूरबीन के उस ओर से देखती रही। बड़ी बेटी धड़धड़ाती घर में घुसी। मलिक और सेठानी को बालकनी में चाय पीते देख कर चौंकी, अचकचाई। सेठानी भी। फिर बड़ी के चेहरे पर दुःख की थकान रस्सी सी बँट कर कर्री पड़ गई और सेठानी के चेहरे की चौंकी हुलास दूध सी फट गई। दोनों ओर तनाव- खटास, दोनों ओर गुस्सा-शिकायत।
मम्मी, बड़ी कहने लगी, व्हाट आर यु डूइंग मम्मी?
सेठानी ने भरे भरे कंधे उचकाए- चाय पी रही हूँ, पियोगी?
मलिक बारूद में चिंगारी सा तिरछा मुस्काया।
माँ… बड़ी की आवाज़ में ऐसी गीली ताज़ी चोट कि मैंने मुँह फेर लिया। सेठानी की आँखें कुछ मुलायम हुईं, बेटी का चेहरा देखने लगी लेकिन उन में की सावधान दूरी बनी रही। तुम क्या सोच रही हो, मम्मी, डैडी की इज़्ज़त, फ़ैमिली की प्रेस्टीज… तुम ही हमें कहती थीं बी केयरफ़ुल, बी केयरफ़ुल, अनसूटेबल पुरुसोथी सावधा… अने हवे तमे…
और मैं क्या बूलू, सेठानी ने ठंडे ठंडे पूछा।
तुम… तुम जानती हो तुम क्या कर रही हो? फ़ैमिली में सबसे अलग हो गई हो, गौरव-आयशा पूछते रहते हैं नानी ने बुलाया, नानी ने बुलाया।
गौरव-आयशा को यहाँ आना मना नहीं है, सेठानी ने मलिक के हाथ से कप लिया और केतली से सँभाल कर चाय उड़ेलने लगी। मलिक ने अतिमोहित आँखों से सेठानी को निहारा, और चाय का कप लेते समय अँगुलियाँ दबा दीं।
बेटी ने जलती आँखों से सब देखा। दिस वल्गर कॉनमैन… तुम इस से शादी कर के इतना पछताओगी … अच्छा ही हुआ जतिन भाई उस एक्सीडेंट् में चले गए, तुम्हें डैडी की जगह इस क्रुक को देते देखने से पहले…
सेठानी उठ खड़ी हुई। उसके पैर की ठेस से मेज़ डोल गई और उस पर के कप-पिरच, केतली-चम्मच झनझना उठे। बहार नीकड़ो, हवे घरनी बहार नीकड़ो… उसका मुँह लाल, माथे की नस धकधक, पूरी देह लहरती, काँपती अँगुली दरवाज़े की ओर, हवे…
मैं फ़ुर्ती से आगे बढ़ी और बाँह से पकड़ कर बिठाया, जेब से गोली निकाल कर मुँह में रखी, ब्लड प्रेशर… स्ट्रोक का ख़तरा …
सेठानी के शब्द फूलती साँस से टकरा- टकरा कर टूट रहे थे – मेरा बेटा… मेरा चाँद, मेरा सोना… वो गया तो मैं भी मर गई और ये कहती है अच्छा हुआ… निकल जा… निकल जा…
8
उस रात सारा दिखावा-भरम छोड़ कर मलिक सेठानी को अंक में ले कर सोया, थपकता, पुचकारता, दुलारता – मैं हूँ, मैं हूँ न, मेरे रहते कोई दुःख नहीं आने दूँगा। उसका थका परेशान चेहरा देख कर मैं सोच में पड़ गई। क्या सचमुच?
अगले कुछ दिन मलिक सारा वक़्त सेठानी के पास बना रहा। बेटियों, रिश्तेदारों, दोस्तों, पड़ोसियों के फ़ोन, दस्तक, घंटियों का जवाब वही देता, गंभीर गंभीर आवाज़ में – कल से ठीक हैं, आराम कर रही हैं, अभी मिलना नहीं हो सकेगा, मैं उन्हें बता दूँगा, जब वो मिलना चाहेंगी कहूँगा। सेठानी को कहता – भूलो, भूल जाओ, अब कोई दुःख नहीं आने दूँगा, कोई कष्ट नहीं, यहीं हूँ, यहीं रहूँगा। सेठानी गले में बाँहें डाले, सीने पर सिर रखे कभी सुबकती, कभी हँसती, कभी धीरे धीरे कुछ कहती जो सिर्फ़ मलिक के कान में ही पड़ता।
बड़ी बेटी को घर से निकालने के तीसरे या चौथे दिन सुबह के नाश्ते के बाद मलिक ने घर भर के नौकरों को बैठक में इकट्ठा किया। तुम लोगों ने अपनी मालकिन का, घर-बार का ध्यान रखा है, दुःख-परेशानी में साथ दिया है, तुम्हारी मालकिन अपनी ख़ुशी का ईनाम तुम सब को देना चाहती हैं, और बटुआ खोल कर सबको नोट बाँटने लगा। सेठानी मुस्कुराती देखती रही। सबसे आखिर में मेरा नंबर। बोला – लो, ये तुम्हारे लिए, तुमने इनका सबसे ज़्यादा ध्यान रखा है, नींद-पानी भूल कर, आगे भी सारी ज़िंदगी मेरे साथ इनका ध्यान तुम्हें ही रखना है।
सेठानी के होंठ मुस्कुराते रहे – सारी ज़िंदगी क्यों? क्या सिस्टर भी मुझसे ब्याह कर रही है?
मलिक हँसा, हँसते-हँसते ही दरवाज़े की ओर चला, हँसते हँसते ही बाहर निकला – कोर्ट जा कर आज ही शादी के लिए अर्ज़ी दे आता हूँ।
सेठानी सोफ़े की पीठ से सिर टिकाए उसे जाता देखती रही। मैंने शक्कर मापने की मशीन में अँगुली दाब कर ख़ून की बूँद ली, शक्कर ठीक है, बीपी भी, फिर भी आज-आज और आप आराम कीजिए…
सेठानी ने आँखें मेरी ओर घुमाईं। दिन की रोशनी में उसकी आँखें धँसी-धँसी थीं। सोफ़े का मीठा सा मक्खनी रंग उसके थके चेहरे को और बुझा रहा था। सब रेंज में आ रहा है, मैंने तसल्ली दी, उस दिन स्ट्रेस हुआ तो गड़बड़ा गया था…
हँ, सेठानी का कंठ हिला, उस दिन… जो भी हुआ उस दिन, किसी अच्छे कारण से ही हुआ, बूलू के कहने से पहले शादी की कोई बात नहीं थी, उसने कहा तभी सोचा पहली बार कि शादी ही ठीक है, सब झगड़ा-टंटा कटेगा…
मैं शक्कर की मशीन समेट कर डिब्बे में रखती रही।
मलिक कहता है, शादी हो जाएगी तो लाइन पर आ जाएँगी, समझ जाएँगी कि मलिक कहीं नहीं जा रहा है, फिर मेरी ओर देख कर – तुम्हें भी लगता है कि ग़लत है? जवानी में तो कभी मिला नहीं, अब थोड़ा सुख मिले तो ग़लत है? जतिन समझता मुझे, हमेशा मेरी ओर से बोलता था, लड़कियाँ तो मेरा कम ही समझती थीं… फिर एक झाईं सी चेहरे पर मँडराई – वो भी न समझता तो? अगर वो भी कहता – नाक कटा रही हो, इस उमर में…
जब तक मलिक लौटा सेठानी इतनी बार इस नदी की गहराई में गोता खा चुकी थी, इतनी बार डूब-उतरा चुकी थी, इतनी बार इस तीर से उस तीर हो चुकी थी कि बस थकान से निढाल। मलिक उस की कमर में बाँह डाल कर बैठ गया, कानों में गुनगुनाता। मैंने आँखें फेर लीं। सेठानी डूबे या उबरे इस से मुझे क्या? मादापन के अलावा मुझ में और उसमें क्या समानता? मैं और वो जैसे कीड़ी और मोर, मोर के लिए कीड़ी कण, कीड़ी के लिए मोर पहाड़। मैंने कमरे में इधर-उधर होती सेठानी का ओढ़ना, बिछौना, तकिए दुरुस्त करती रही। उनकी गुनगुन-मुनमुन बंद हुई तो बरुनियों-तले से देखा – मलिक मुझे एकटक देख रहा था, सेठानी मलिक को। मैंने थोड़ी देर की छुट्टी माँगी – बस यहीं नीचे तक जाऊँगी, थोड़ा खुली हवा में चलने फिरने, थकान से जकड़न सी लग रही है।
दोनों एक साथ बोले – जाओ, सेठानी ने कहा; शाम हो रही है, मलिक ने। मलिक ने सेठानी की ओर देखा, दोनों की आँखें मिलीं। पहली बार मलिक की नज़र की नर्मी में जो मिलावट थी वो ऊपर तैर आई। शाम को बाहर कहाँ जाएगी, जवान लड़की है, बम्बई बड़ा शहर और ये बम्बई में नई, उस ने कहा। तो बाँध कर रखोगे, सेठानी की भौंहों में बल आ गए, नर्सिंग कम्पनी कल कहीं और भेज देगी, वहाँ भी जाओगे साथ साथ पहरेदारी में?
घंटे दो घंटे में आ जाऊँगी, मैंने धीरे से कहा, बस यहीं, नीचे, दरिया किनारे तक जाऊँगी।
ठीक है, सेठानी सख़्त सुर में बोली। कहा मुझसे, देखती मलिक की ओर ही रही। मलिक ने आँखें हटा ली और बाँह भी। फ़ोन निकाल कर कुछ देखने लगा। जूते, पर्स लेने भीतर वाले कमरे में थी कि मलिक की तुर्श सी आवाज़ – बात ये नहीं है कि नर्स जाए या न जाए, बात ये है कि मेरा कहा गाजर-मूली सा काट दिया उसके सामने, शादी कर रहा हूँ तुमसे, अपनी मर्ज़ी से, तुम्हारी बेटियों रिश्तेदारों की गालियाँ खा कर और तुम्हें मेरी बात का मान ही नहीं… अगर मेरे पास भी पैसे होते… सेठानी के शब्द साफ़ नहीं थे लेकिन दर्द, आजिज़ी एकदम निर्मल छल छल। मलिक की आवाज़ कसी कसी – तुम्हारे पैसों पर नहीं पलूँगा मैं, तुमसे इसलिए शादी नहीं कर रहा, मेरे पास ऐसे ऐसे आइडिया हैं, बस थोड़ी पूँजी मिल जाए … ख़ैर, कुछ न कुछ करूँगा ही … फिर आवाज़ें नीची हो गईं, उनके धार-वार भोंथराने लगे, सेठानी की लोच वाली मनुहार लहर सी उठने-बहने लगी। जब मैं कमरे से बाहर आई, दोनों फिर घुल-मिल गए थे, एक दूसरे को बादाम-पिश्ता टुंगा रहे थे। मैं सिर नीचा कर निकल गई।
दरिया तक पहुँचने के लिए रास्ता ढूँढने में समय लगा। ऊपर से देखने पर लगता – बस यहीं है, चार क़दम पर। ऊपर से देखने पर अक़्सर ऐसे भरम हो जाते हैं कि सब सहल है, सब हाथ भर दूर लेकिन ज़मीन पर पैर रखते ही फ़ासले। किताबी ज्ञान नहीं है ये, न हवाई बातें, सेठानी के घर से समंदर किनारे तक पहुँचने में सूरज डूबने को था, आकाश में रंग ही रंग, मछली की खाल जैसे बादल छितरे-छिटके, लहरों में चकचौंध दर्पण ही दर्पण। एक तरफ़ बाँस के ढाँचे पर मछुआरों के जाल लटके थे, महीन महीन चाँदी के तार से जाल। मछुआरिनें टोकरियों की उठा-धरी कर रही थीं। उनकी गूँजती आवाज़ें खारी खारी हवा पर मछलियों की बास और गीलेपन की ख़ुशबू के साथ तैरती आतीं, तैरती जातीं। कुछ लोग चल फिर रहे थे या साथ लिपटे-सिपटे थे। मैंने जूते उतारे और गीली-सीली रेती पर बैठ गई। बहुत दिनों बाद अकेले, अपने साथ होने का मौक़ा। मुझे घर, घर के लोग, घर का जीवन याद आया। उन यादों में कोई मिठास नहीं थी, समंदर की हवा से ज़्यादा खारापन था। मैं सोचने लगी।
9
शादी की अर्ज़ी सिविल कोर्ट में दायर करने के बाद, मलिक की अफ़रा-तफ़री बढ़ गई। सुबह नाश्ते के बाद जो निकलता तो शाम को ही वापस। सेठानी चार बार फ़ोन करे तो एक बार उठाता, अनखा अनखा सुर, लौटने पर थका-रूखा। सेठानी हैरान-परेशान, पुराना मोह-प्यार लौटा लाने के लिए तरह तरह के लाड़-दुलार उपहारों की झड़ी – फूल-मिठाई, सोने के कफ़लिंक, चाँदी की क़लम, ये-वो। जब तक घर में टिके, आगे-पीछे लगी रहती, मीठी चिरौरी से पूछती – थके हो? ख़र्चे के लिए पैसे चाहिए? नया फ़ोन देखा है, ऑर्डर किया है तुम्हारे लिए। मलिक जवाब में फीका-सूखा टेढ़ा-तिरछा मुस्कुराता, जो देती लापरवाही से लेता। वो मान-मनुहार करती – नया फ़ोन चालू नहीं किया अब तक? ये बटन लगाओ न जाकेट में… तो ठंडी साँस लेता – इतनी औक़ात नहीं अपनी, मैडम, कि हज़ारों का सामान बरतें।
मलिक के ठंडेपन ने सेठानी को ऐसा हकबकाया कि पहली बार उसकी समझ झूठी पड़ गई। उसे दिखा नहीं कि कितनी ही लापरवाही से ले, मलिक हर चीज़ सँभाल कर अपने बक़्से में रखता है, तले के नीचे लुके खन में, सट्टे की बाते एकदम नहीं करता, फ़ोन की घंटी बंद रखता है और फ़ोन कितनी बार चमके, उठाता नहीं, बाल एकदम अलग ढंग के कटवाए हैं, दाढ़ी रख ली है, घर से निकलते समय गोल काँच वाला चश्मा लगा लेता है और बिल्कुल पहचाना नहीं जाता।
एक रोज़ सुबह का निकला, लौटा ही नहीं। शाम ढल गई, रात हो गई। सेठानी चित-पट छटपट। मैं रात वाले काढ़े के साथ नींद की दवाई लाई तो इशारे से मना कर दिया। मेरी तरफ़ उसका रुख़ अनोखा हो गया था, कभी एकदम चाशनी-चिरौरी और कभी ऐसी कड़ाई जैसे मैंने उसकी दुधार गाय चुराई हो। मेरी तरफ़ कड़ी-कड़ी आँखों देखा – तुम्हें पता है कहाँ गया है। मुझसे पूछा नहीं, कहा, जैसे पक्का जानती हो कि मुझे मलिक का अता-पता रहता है।
मैं चौंकी। मुझे? मुझे कैसे…?
मैं अंधी नहीं हूँ, मुझे दिखता नहीं क्या हो रहा है? तुम्हें कैसे देखता है, दिखता नहीं मुझे? चिढ़ा चिढ़ा रहता है, कुछ कहो तो ऐसे जवाब देता है जैसे बोझ उठा रहा हो। मुझ से कुछ छुपा नहीं है… तुम्हारी जितनी उमर है उससे ज़्यादा साल तो मुझे बच्चे पैदा किए हो गए, मुझे आँधा मूर्ख समझा है? सब से तोड़ कर इस से जोड़ा तो इस से तोड़ भी सकती हूँ। मेरे घर में, मेरे दिए पर रहता है …कल निकाल दूँ तो सड़क पर…
सेठानी आग-बबूला होती रही। फिर अंगारों पर आँसू के छींटे पड़ने लगे। बेकल बिन पानी की मछली, कभी पलंग पर, कभी कुर्सी पर, घड़ी घड़ी समय देखे घड़ी घड़ी फ़ोन।
मैं एक कोने में चुप खड़ी कि आज तो मलिक ने हद पार कर दी, अब तक का जमाया उखाड़ दिया, आते ही निकाला जाएगा।
लेकिन मैं ग़लत थी। हद पार नहीं, नई हद गढ़ी उसने। रात एक बजे बाद लौटा। पहले लौट आता तो नतीजा दूसरा होता और आने वाले दिनों में जो हुआ, शायद सो न होता।
इतनी रात गए घंटी बजी और सेठानी जो थक कर चूर, पलंग पर झपकी ले रही थी, एकदम उठ बैठी। मलिक कमरे में दाख़िल हुआ – बाल बेतरतीब, क़मीज़ फटी, माथे पर चोट ख़ूना-ख़ून। सेठानी का ग़ुस्सा काफ़ूर। ओह भगवान कह कर दौड़ी और मलिक को सहारा दे कर बिठाया। मैं डेटोल, रुई, पट्टी ले आई तो हाथ से ले कर ख़ुद चोट साफ़ करने लगी। मलिक के कपड़ों से शराब की गंध आ रही थी। वह सेठानी पर झुका जा रहा था, आँय-बाँय बक रहा था – मैं एकदम फ़ेल्यर हूँ, किसी काम का नहीं, बस तुम्हारी मुनीमी करूँ, जो दो उस पर पलूँ, बस मलिक को खल्लास समझो, मलिक खल्लास, फुस्स…। सेठानी नः नः च्च च्च पुच पुच करती पानी का गिलास मुँह से लगा घूँट भरने का इसरार कर रही थी। चोट कोई ख़ास नहीं थी, चोट क्या, ख़राश थी लेकिन ख़ून बड़ा ज़ोरदार निकला था, बाईं भौंह पर थक्का, क़मीज़ पर छींटे। सेठानी ने अपने हाथों उसकी मैली क़मीज़, धूल सने जूते उतारे। मैं मदद करने बढ़ी तो हाथ से रोक दिया – तुम सो जाओ सिस्टर, मैं सँभाल लूँगी।
सुबह पूरा माहौल बदला हुआ था। बहुत दिनों बाद सेठानी और मलिक बालकनी में नाश्ते पर बैठे थे। सेठानी निवाला तोड़ कर देती, मलिक लेते हुए कभी अँगुली दबा देता कभी मुँह खोल देता कि खिलाओ, पास झुक कर कान में कुछ कहता, सेठानी झूठमूठ आँखें तरेरती। दोनों एकदम मीठे-मीठे, एक दूसरे का मुँह जोहते, दिलजोइयाँ करते लेकिन शुरू दिनों के प्यार से अब सब कुछ भिन्न, अब अनुनय-चिरौरी सब सेठानी की ओर से, मलिक की ओर से अब सिर्फ़ स्वीकार, ऐसे जैसे देवता पूजा स्वीकारे। सेठानी की आँखों में एक नया सहमा सतर्क भाव आ गया, कुछ भी कहती-करती, मलिक की तरफ़ देख कर, मानभरे अधिकार से नहीं, घबराए अनिश्चय से, जैसे अकारण पाई सज़ा से डरा बच्चा।
मैं जादुई दूर-पास दूरबीन से देख रही थी – नाटक का दूसरा दृश्य शुरू हुआ।
10
बारिश के पहले वाली गर्मी उमस और गर्मी आ धमकी थी। समंदर चट्टानों के रंग का, ठोस ठहरा और चट्टानें सूख कर तड़की तड़की। बहुत सुबह निकले मछुआरे जाल भर कर जल्दी लौट आते, मछुआरिनें पिंडली तक पानी में धँसी किनारे पर नाव खींच लाने में मदद करतीं। उनकी पुकारें पानी की चिड़ियों की झाँव-झाँव से मिल कर भोर की शांति में लहरें उठाती। मैं अब भीतर वाले कमरे में नहीं सोती थी। सेठानी ने मेरा फ़ोल्डिंग कॉट बैठक के एक कोने में, बालकनी के दरवाज़े के पास लगवा दिया, मुझे कहा – बस दो-तीन हफ़्ते की ही बात है, कोविड मंदा पड़ रहा है, कुंजन को बता दिया है कि ये तुम्हारा आख़िरी महीना है। कह कर मलिक की ओर देखा। मलिक ने भौंह-पलक भी नहीं हिलाई, काग़ज़-आगज़ उलटता पलटता रहा। मैंने सिर हिलाया और आले-इंजेक्शन समेटती रही। अच्छा, मलिक उठ पड़ा, बैंक जा कर लोन डॉक्युमेंट तैयार करवाता हूँ, उनको दस अप्रूवल लेने होते हैं लेकिन तुम्हारे श्योरिटी रहने से शायद कुछ जल्दी हो जाए, अगले हफ़्ते तुम्हें ज़मीन भी दिखानी है। सेठानी की आँखें कौड़ियों सी डोलीं – एक बार अपने मैनेजर से भी पूछ लेते, पुराने आदमी हैं, सालों से काम देखते हैं… मलिक ने झुक कर सेठानी का चेहरे में झाँका, एकटक, गहरे गहरे, शुरुआत के दिनों जैसे, ठंडे सुर में कहा, हमने इस पर पूरी बात की है, वो ज़मीन सोना है, आधा पैसा बिल्डर ख़ुद लगा रहा है, इस से अच्छा सौदा नहीं लेकिन तुम्हें फिर भी शुबह हो तो… नः नः सेठानी ने नकार में गर्दन हिलाई, शुबह कैसा… मलिक ने सेठानी का माथा चूमा, लौटते समय मैरिज रेजिस्ट्रार के भी होता आऊँगा, हफ़्ते-पंद्रह दिन में तारीख़, वह मुस्कुराया, थाइलैंड ले कर जाऊँगा, इसी बिल्डर का एक रिसोर्ट है वहाँ कोहसामुई में।
लोन के सिलसिले में मलिक व्यस्त रहता – बैंक के चक्कर, बिल्डर से मीटिंग। एक दिन सेठानी को भी ज़मीन दिखाने ले गया, बिज़नेस पार्टनर से मिलवाया, नक़्शे-अक्शे दिखाए। सेठानी गंभीर मुँह ले कर लौटी। शाम के खाने के बाद मलिक का हाथ पकड़ कर पास बिठाया, बड़ी आजिज़ी बड़ी मुलायमियत से बोली – बिज़नेस के बारे में तुम ज़्यादा जानते हो, लेकिन आदमी की पहचान मुझे कम नहीं है, हिस्सेदारी बाँधने से पहले वो भी हमेशा मुझसे सलाह करते थे, एक बार बिना मुझे कहे-सुने किसी के साथ हीरों का सौदा कर लिया, करोड़ के हीरे डूबत खाते गए, उस दिन घर आ कर बोले – अब से तेरे दिखे बिना कोई सौदा नहीं… तुम्हारा ये बिल्डर मुझे एकदम ठीक नहीं जँचा है, इसकी नीयत में ईमानदारी नहीं, बाज़ार में नाम-साख की पूरी जाँच पड़ताल करके, उस पर भी किसी साखदार की पैरवी के बिना इसे एक पैसा देना जोखिम लेना है। सेठानी बोल रही थी और मलिक के होंठ टेढ़े, आँखें सँकरी-सिकुड़ी। ज़ालिमपन से बोला, तुम्हें लगता है मैंने जाँच-पड़ताल नहीं की होगी, बाज़ार में पूछगछ नहीं की होगी, ये क़िस्मत की बात है, रानी, क़ाबिलियत की नहीं कि तुम्हारे मिस्टर ने दौलत बना ली और मैं अब तक नहीं बना पाया, ये बड़ा धंधा है, पनवेल में नया फ़्लाईओवर आ रहा है, ये डिवेलपमेंट ऐसा चमकेगा कि बस। फिर टेढ़े होंठ और टेढ़े पड़े – तुम्हें चिंता है कि तुम्हारा नुक़सान हो जाएगा, मोटी देनदारी सिर आ जाएगी? सेठानी ने तीखे तीखे गर्दन झटकी – तुम जानते हो ऐसा नहीं है, तुमने धंधा जमाने पैसा कमाने के पीछे जान दे रखी है, मुझे केवल तुम्हारे धंधे में सफल होने की चिंता है, पाँच करोड़ के कर्ज़े की नहीं। मैं सेठानी की फ़ाइल में उस दिन की रीडिंग्स लिख रही थी, मेरा हाथ हिल गया और आँकड़ा बिगड़ गया। पाँच करोड़। मलिक ने अपना हाथ उसके हाथों से निकाला, तुम लोन के लिए अपना नाम दे रही हो, तुम ही जानो तुम्हें किस बात की चिंता है । सिर्फ़ तुम्हारी, सेठानी ने जवाब दिया, लोन के पेपर तैयार करवा लो, कल ही साइन कर दूँगी।
लोन के काग़ज़ अगले दिन तैयार नहीं हुए, उसके अगले दिन भी नहीं। काग़ज़ आएँ उस से पहले मलिक बीमारी की चपेट में आ चुका था। लक्षण दो-एक दिन पहले से नज़र आ रहे थे लेकिन वह सुनने को तैयार न था – न, टेस्ट नहीं, डॉक्टर नहीं, दवा तो बिल्कुल नहीं, बैल-घोड़ों को बीमार होने की ऐय्याशी हासिल नहीं, मैडम, बैंक के लोन और ज़मीन ख़रीद वाला काम परवान पर है, ऐसे में बीमार पड़ने की फ़ुर्सत कहाँ? सेठानी चुपचाप सुनती और कभी नीम-तुलसी का काढ़ा, कभी घी-बादाम पाक पिलाती-खिलाती। मैंने दबी ज़ुबान अलग कमरे में रहना सुझाया तो सेठानी ने ऐसी आँखों देखा कि बच्चे को बेबात सज़ा सुनाई हो। आख़िर जब एकदम शरीर जवाब दे गया और बिस्तर से उठा नहीं गया तब जा कर मलिक डॉक्टर बुलवाने पर राज़ी हुआ। डॉक्टर ने कोविड की आशंका जताई और अलग कमरा, अलग खान-पान का आदेश, सेठानी को चेताया, मुझे कड़ी बाते सुनाईं – ऐसा कैसे? तुमने नर्स का ट्रेनिंग किया है, पूरा रेस्पोंसिब्लिटी तुम्हारा, एकदम स्ट्रिक्ट क्वेरंटाइन।
मलिक सेठानी के कमरे से नहीं निकलना चाहता था। खाँसते-हाँफते होंठ मरोड़ कर बोला – मुझे तुम्हारे लिए किसी मरने से डर नहीं और तुम बीमारी से डर गईं, बस प्यार यहीं तक? कोविड प्यार पर भारी? तानों के बावजूद जब नौकरों की मदद से मलिक को मेहमानों वाले कमरे में ले जाय गया तो सेठानी ने रोका नहीं, कमरे के दरवाज़े पर रुआँसी खड़ी ताकती रही, मलिक ने भी फिर मुड़ कर नहीं देखा। इतने घुलमिल मेल-प्यार के बाद चुपचाप सख़्त-मुँह उस कमरे से उठ आया जहाँ पहुँचने में इतनी मशक़्क़त की थी। उस वक़्त कौन जानता था कि ये सेठानी के साथ उसके आख़िरी क्षण थे और इसके बाद उसे सेठानी से कुछ कहने-सुनने का, उसे देखने का भी मौक़ा नहीं मिलेगा? अगर मलिक जानता तो क्या करता? अगर सेठानी को मालूम होता तो क्या कहती? घटा-अनघटा सब गटके बैठा समय कबूतर सा गुटकता बीतता रहा नहीं हुआ।
जाँच में मलिक को कोविड ही निकला। डॉक्टर ने कहा – फ़िलहाल ऑक्सीजन, ब्रीदिंग सब ठीक है, इस समय घर में क्वेरंटाइन बेहतर, अलग कमरा, खाने-पीने के बर्तन अलग, मास्क लगाओ सब लोग। दिन में एक बार वीडियो पर चेक-इन, सब रीडिंग्स और वाइटल्स रिपोर्ट करो।
मलिक के क्वेरंटाइन के अगले रोज़ सेठानी को भी बुख़ार चढ़ा और वो भी कोविड पोज़िटिव। सुन कर नौकर-चाकरों के हाथ पैर फूल गए, सब काम छोड़ने की कहने लगे। बड़ी मिन्नतों से उन्हें काम पर बने रहने के लिए राज़ी किया। लेकिन बीमारी का नाम बीमारी से भी बुरा, बीमारों के कमरों में जाने को कोई तैयार नहीं – साँस से फैलता है, हमें लग गया तो यहीं मर जाएँगे, घर वाले छाती पर हाथ फिराने भी नहीं आ पाएँगे, उनका जो कुछ करना है आप ही करो-धरो। आप सिस्टर हो, आपको नहीं लगता। मेरे एक की जगह दो मरीज़ हो गए और काम कई गुना – दवा-दारू के अलावा मरीज़ों का पथ्य-पानी भी मेरे ऊपर। छोटी मैडम जी ने फ़ोन पर कहा – नर्सिंग की डिमांड ज़्यादा है अबी, कोई ख़ाली नहीं, तुमी सम्भालो कुछ रोज़, एक्स्ट्रा कोविड अलाउंस मिलेगा तुमे, केस काम्प्लिक्टेड नहीं, डेली डॉक्टर विज़िट होता ही है, बस इतना देखने का कि ऑक्सीजन बराबर रहे, बुख़ार कंट्रोल में रहे, नर्सिंग बुक में सब नोट करने का।
मैं सारा दिन दो-दो मास्क लगाए एक पैर पर इस कमरे से उस कमरे – ऑक्सिजन और बुख़ार मापती, पथ्य देती, कराहें-शिकायतें सुनती। चेहरे पर मास्क के कड़े किनारे छप गए, उनमे अपना ही पसीना काटता, बार बार धोने से हाथों की चमड़ी ख़ुश्क हो गई, अँगुली- दरारें पड़ गईं। रात लेटती तो शरीर की अकड़ी थकान निकलने के बजाए और ऐंठ कर पैंठती। सपने में भी मर्ज़ और मरीज़ – ऑक्सीमीटर में उभरी संख्या देख पाने से पहले ही गीली स्याही सी फैल जाती, जो आलमारी-दराज़ खोलो उनमें से दवाई की गोलियाँ-शीशियाँ उफन उफन गिरतीं लेकिन सही गोली कहीं नहीं, थर्मामीटर-ब्लडप्रेशर का आला टीं टीं की आवाज़ करते, कच्ची नींद से जाग जाती और खाँसी से खदकती छातियाँ और बुखार से बलते माथे सहलाती। फटी चमड़ी वाले हाथों को अल्कोहल स्वाब से दाँत पर दाँत रख साफ़ करते और चेहरे की ख़राशों पर क्रीम लगाते मैं ख़ुद को कहती – पाँच करोड़ का लोन, बिज़नेस की योजनाएँ,
कोर्ट में शादी, तरह तरह के मन के लड्डू, क़िस्म क़िस्म के मंसूबे – सब दूरबीन के उस ओर से देखती रही तो ये बीमारी-हँफनी भी वैसे ही देखनी चाहिए। मलिक की बेचैन उथल-पुथल और सेठानी के चित्त-निढालपन से मेरा क्या? मेरा काम दवा देना, बुख़ार से बमकता माथा सहलाना, पसीनातर कपड़े-बिस्तर बदलना; बाक़ी जैसे उन के हुलास-विलास उनके थे, वैसे ही उनकी पीड़ा भी उनकी। नाटक के मुख्य पात्र वो दोनों, मैं तो बस कहा करने के लिए आसपास। पास होने का मतलब साथ होना नहीं होता और हिस्सा बँटाना बिल्कुल नहीं। अगर मलिक, सेठानी और मैं ग्राफ़ पर आँके बिंदु हों, तो हम रेखा या कोण क्या, किसी भी तरह की आकृति न बनाएँ, हमारा कोई जोड़-मिलाप नहीं, बस संयोग या कुयोग से एक-दूसरे के दरपेश।
इन दलीलों के बावजूद सेठानी के काँच में मेरा मुँह ऐसा पीला-उतरा दिखता जैसे बीमारी उनका नहीं मेरा शिकार कर रही हो।
दिनोंदिन मलिक और सेठानी दोनों की बीमारी उठान पर थी लेकिन ख़तरनाक नहीं। दिन में एक बार डॉक्टर विडियो कॉल पर देख लेता, तसल्ली-बढ़ावा खाने-आराम की सलाहें दे देता। वे कितना क्या सुनते, वे ही जानें लेकिन सांत्वना से दर्द नहीं मिटता। देह दोनों की बीमारी का खिलौना, दिन-रात साँस लेने की जंग। ऐसे में सारा अपनपा सिमट कर देह में घर कर लेता है, कष्ट के अलावा कुछ दीखता-सूझता नहीं, दर्द सच्चा और बाक़ी सब झूठा पड़ जाता है। सहने-सहारने की तीखी-तेज़ धार धारने में अपने-सपने सब कट कर गिर जाते हैं, ध्यान में बस बूँद -बूँद बहता लहू, बस रुक-रुक चलती साँस। कारण जो भी हो, सच यही है कि अपने अपने कमरे में बीमारी के बिस्तर पर झरे पत्तों से गिरे मलिक और सेठानी ने एक बार भी एक-दूसरे के हाल के बारे में नहीं पूछा, न मुझसे, न डॉक्टर से। डॉक्टर पुराना था, अरसे से सेठानी के कुनबे को देखता आया था। चौथे- पाँचवें रोज़ मुझ से अलग से बोला – बेटियों को ख़बर करने के बारे में पूछ लो, मैं पूछूँगा तो घबरा जाएँगी। और मलिक? उस से पूछूँ? डॉक्टर ने मुँह बिचकाया – उसका कौन होगा? कोई होता तो यहाँ पड़ा होता? दूसरे दिन डॉक्टर ने पूछा – सेठानी से पूछा? क्या कहा? मैंने गर्दन हिला दी। और क्या करती? सेठानी के सँभलने, पुराने दिन लौटने की उम्मीद अभी मिटी नहीं थी।
क्वेरंटाइन के सातवें दिन मलिक थोड़ा सँभला, बिस्तर से उठ कर कुर्सी पर बैठा, खिचड़ी-दलिया के कुछ कौर खाए और पहली बात जो पूछी – बैंक से डॉक्युमेंट आए? कहाँ हैं?
बैंक के काग़ज़ आ गए थे लेकिन अब वे बेकार थे। सेठानी की तबीयत पिछली रात इतनी बिगड़ गई थी कि अस्पताल में दाख़िल करना पड़ा। डॉक्टर ने ही फ़ोन किया था और बड़ी बेटी और सेठानी का भाई एम्बुलेंस ले कर आधी रात दौड़े आए थे। अब सब घर वाले उसे घेरे अस्पताल में थे।
सुन कर मलिक के बीमारी से उतरे चेहरे पर राख पुत गई।
11
सेठानी के अस्पताल जाने के बाद घर नौकर-चाकरों का हो गया था, किसी की रोक-टोक नहीं, निगरानी-निगहबानी नहीं। मलिक अभी भी कमरबंद निर्वासित और मैं उम्र और नौकरी दोनों में नई, मेरी जो छोटी-मोटी हैसियत थी वो सेठानी के अस्पताल जाते ही कपूर सी उड़ गई।
शाम सब रसोई के सामने जमावड़ा लगा कर चाय-नाश्ते में मसरूफ़ कि घंटी बजी। मैंने ही दरवाज़ा खोला और छोटी बेटी टक-टक करती घर के भीतर आई। एक नज़र नौकर जमात पर डाली तो सब के सब चाय-बिस्कुट समेत रसोईघर में ग़ायब-गुल। एक क्षण खड़ी चारों तरफ़ देखती रही – खाने की मेज़ पर मुरझाए गुलदस्ते, परदे-खिंची अँधियारी बैठक, सेठानी के कमरे का का मुँदा द्वार, बंद मेहमान-कमरे के भीतर से आती मलिक की फ़ोन पर कहन-सुनन जैसे दूर चक्की चल रही हो फिर बोली – मम्मी अभी हॉस्पिटल में ही रहेंगी, लंग्ज़ पर असर है… ऑल बिकौज़ ऑफ़ दिस मैन, इसी के कहने से उन्होंने टीका नहीं लगवाया, लगावा लेटिन तो इतनी तकलीफ़ से बच जातीं… चलो, उन के कुछ कपडे, कुछ ज़रूरी चीज़ें पैक करनी हैं…
मुझे सेठानी का सामान सधाने पर लगा कर उसने रसोईघर में नौकरों की पाठशाला लगाई – ‘घर-काम ध्यान से करो, मम्मी आने पर ईनाम देंगी’ के लालच के साथ ‘मैनेजर रोज़ चक्कर लगा कर जाएगा; की चेतावनी भी। जाने से पहले सेठानी के कमरे, दफ़्तर, आलमारियों पर ताले जड़े और चाबियाँ अपने पर्स में, बैठक की मेज़ पर रखी डाक और काग़जों समेत। मेज़ पर बैंक वाले काग़ज़ों का ख़रीता भी था, ऊपर नाम सेठानी का, देख कर उलटा-पलटा, भौंहे-माथा कस गए, लेकिन कहा कुछ नहीं। जाते-जाते मेहमानों वाले कमरे की ओर बेपरवाह अँगूठा उछाल कर बोली – ही हैज़ टू बी आउट ऑफ़ दिस हाउस। पहले से सँभला है लेकिन पूरी तरह ठीक नहीं, अपने आप चल फिर नहीं पाता, कोविड नेगेटिव भी नहीं सुन कर कंधे उचकाए जैसे भुनगा उड़ाती हो, आए डोंट केयर, कल घर के बाहर …
घर के बड़े-बूढ़े कहते कि दुःख-तकलीफ़ सबको एक सा व्यापती है, क्या धनवान, क्या कंगाल, अंदर से सब एक से ही हैं, चाँदी के थाल से खाओ तो निवाला, फूटे बासन में खाओ तो भी निवाला, मैं सोचती इन्होने कभी चाँदी के थाल से नहीं खाया, ये क्या जानें चाँदी के थाल से खाने वालों को दुःख-सुख कैसे महसूस होते हैं? उस दिन छोटी बेटी ने कंधे झटक कर साबित कर दिया कि वो निरे अहमक़पन की बात करते थे।
लेकिन मलिक का सेठानी के घर में अभी समय पूरा नहीं हुआ था। बेटियों के हुक़्म के बावजूद वह निकाला नहीं गया। कोविड के कीटाणु जब तक मलिक के ख़ून से न मिटे, उसे घर से नहीं निकाला जा सकता, डॉक्टर ने कहा – क्वारेंटाइन के रूल्ज़ हैं, हैल्थ ऑफिसर चैक करता है, सब कोई फँस जाएगा, इतना दिन रखा, तू-थ्री डेज़ में क्या बिगड़ेगा?
सेठानी का पुराना मैनेजर अब रोज़ घर आता, बैठक में कागज़-आग़ज़ देखता दिन भर बैठा रहता था। बड़ी-छोटी बेटियाँ फ़ोन करतीं – सब कैसा है? नौकर-महाराज? दैट मैन? कीप एन आए, तुम्हारा भरोसा है।
मुझे भी अब अपना ही भरोसा था।
और इस सब के बीच मलिक का हाल-ओ-हवाल क्या?
इस सवाल का जवाब मलिक की असहाय छटपटाहट में था, सेठानी के सब कुछ से अब कुछ नहीं हो गया था। बेटियों ने बैंक को वक़ील की चिट्ठी भिजवाई थी कि उनकी माँ की मानसिक अवस्था ठीक नहीं, उन्हें बरगला कर लोन का ज़मानती बनने पर राज़ी किया गया, काग़ज़ात बिना दस्तख़त के लौटाए जा रहे हैं, इसे उनकी सौदे में शिरकत न होने की इत्तिला समझा जाए। मलिक बीमारी में कमरा-बंद होने के बावजूद बैंक, लोन दलाल, बिज़नेस पार्टनर से फ़ोन पर लगा रहता। एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रहा था कि लोन रद्द न हो, बार बार दोहराता – बस एक बार मैं उस से मिल लूँ, वो डॉक्युमेंट्स तुरंत साइन कर देगी, लोन ऐप्लिकेशन पर एक मिनट में साइन किया था उस ने, मुझे ना कह ही नहीं सकती…
लेकिन मलिक का सेठानी से मिलना न होना था, न हुआ।
चार दिनों बाद बड़ी सुबह मैनेजर एक लैब टेक्नीशियन को लाया जो कोविड जाँच के लिए मलिक का ख़ून ले गया। नौ बजते बजते मैनेजर ने फ़ोन पर आई खून जांच की रिपोर्ट दिखाई – नेगेटिव! उस मवाली को बोलने का कि इधर से निकले। मलिक ने सुना तो बोला — पगार वाला घर वाले को निकलने के लिए कह रहा है? अक्कल घास चरने गई है बहनचो… इसकी हमेशा को छुट्टी करवाता हूँ। बिस्तर से उठा तो पैर अब भी काँप रहे थे लेकिन कपड़े-जूते पहन कर निकल गया अस्पताल को सेठानी से मिलने।
इधर मलिक निकला, उधर मैनेजर ने उसका सामान बाँधने का फ़रमान सुनाया। अस्पताल- बैंक के चक्कर लगा कर और हर जगह ना सुन कर मायूस मलिक लौटा तो उसका बोरा-बकुची घर के बाहर सीढ़ियों पर थे। देख कर एकदम बौखला गया, घर से निकलने की अपनी बेवकूफ़ी पर लानत भेजने लगा। मैनेजर ने दरवाज़े पर आ कर कहा – भलाई इसी में कि चुपचाप पतली गली निकल जा, थाने में चार सौ बीसी की रपट लिखा दी है, उधर सब खर्चा-पानी की तैयारी है।
मलिक ने मैनेजर के पार मेरी ओर देखा – उसे बताना, मेरे साथ कैसा सलूक किया, तुम गवाह रहना… बीमारी में धक्का मार कर निकाल दिया, अस्पताल में मिन्नतें करता रहा, एक बार देखने भी नहीं दिया… सब बताना उसे … पैसे की लालचन लड़कियों को माँ की ख़ुशी की परवाह नहीं, मुझे प्यार करती है, तुमने देखा है कैसे पैरों पड़ कर मुझे जाने से रोका है बार बार … एक बार लौटे…
मैनेजर एकदम कड़ा-करख़्त पड़ कर बोला – तेरे ऊपर लाखों ख़र्चे हैं, शुकर मना वो नहीं उगाह रहे।
मलिक की आवाज़ और ऊँची हो गई – शादी के लिए अर्ज़ी मंज़ूर हो गई है, क़ानूनन हक़ है मेरा, तुम रूपल्ली के नौकर… खड़े खड़े निकलवा दूँगा…
12
पूरा पूरा सच कह पाना असंभव नहीं है लेकिन जोखिम का काम ज़रूर है। आधपन सच और झूठ दोनों में है – झूठ में सच, सच में झूठ, दोनों में कुछ कुछ खोट। खोट के बिना सोना-चाँदी भी टूट-बिखर जाते हैं, इंसान जो इतना नाज़ुक है कि भीतर-बाहर राई-रत्ती तोला-माशा इधर से उधर हुआ नहीं कि भरभरा कर गिरा, उससे या उसके बारे में बेखोट सच की अपेक्षा क्यों? सेठानी, मलिक, बेटियाँ, कुनबा – सब के सच में कितना झूठ यह बताने लगूँ तो उस में भी कितना झूठ ढरक आएगा? फिर भी, इस समय यह सच है कि सेठानी आइ.सी.यू. में है, उसकी साँसें फेफड़ों की जगह मशीन में, बेटियाँ अस्पताल में तीमारदारी में, मैनेजर घर में पहरेदारी में, मलिक जेल की चारदीवारी में।
और मैं?
मैं पीठ पर अपना बैग लिए सड़क पर हूँ, मेरे पैरों में फुरफुरी है, वैसी ही जैसी घर से भागते समय थी। लेकिन तब वाली मैं अब नहीं। घर से भागी तो रूप का गरुर था और बड़े आसमानी सपने। सपने गमेलू परों से झर गए हैं, उनकी जगह जो उगा है वह पुख़्ता है, ख़ुद का, सीखा-कमाया, झूठ से निथारा, पका-तपा सच।
जैसे ये सच कि मलिक का सामान बाँधते समय मैनेजर सेठानी के दिए महँगे उपहार ढूँढ ढूँढ कर पस्त पड़ गया – फ़ोरेन का दाम वाला घड़ी दिया इस मव्वाली चोर को, सेठ का ज्वेलेरी भी… बटन-सेट तो सेठ का हर फ़ोटो में है, थाने में चोरी का रपट लिखाएगा, कहीं बेचने जाएगा तब धर लेंगे हरामी को…
और ये भी सच कि मैंने ही मलिक के बक्से के तले में छुपाई डेढ़ लाख वाली घड़ी और सोने-मूँगे के बटन ही नहीं, सोने के कफलिंक और क़ीमती क़लम भी निकाले और बेझिझक-बेलाग मैनेजर के हवाले।
मैनेजर की सजग हैरानी, मेरी ईमानदारी सराहते हुए भी आँखों में शक़ के डोरे, बक्से में क्या कुछ और छुपा ढूँढने के लिए अँगोल-खँगोल – ये सब भी सच।
अपने सामान में से माल ग़ायब पा मलिक की दहाड़-गुहार, मैनेजर पर रोकड़ा चुराने का आरोप, हाथापाई, गाली-कोसने, थाना-पुलिस, जेल – ये भी सच।
बेटियों के इनाम-इकराम, छोटी मैडम जी की सुरसा के मुँह सी बड़ी ईर्ष्या – लक अच्छा है तुमारा, अब कैरेक्टर इमप्रूव करने का, लाइफ़ बनाने का – ; बड़ी मैडम जी की बड़ी दातारी – पुणे का टिकट, नर्सिंग कॉलेज के लिए सिफ़ारिशी चिठ्ठी और वज़ीफ़े का वादा – ये भी सच और पुणे की ट्रेन लेने बम्बई सेंट्रल जाने के बजाए बस पकड़ कर मेरा यहाँ समंदर के किनारे निकल आना और बैग की टेक लगा पावस के बादलों से काली पड़ी लहरों को अचरज से देखना भी सच – सेठानी के घर में घिरते तूफ़ान के बीच कब वसंत पिघल कर गर्माया और फिर बरसने को उमड़ा, इसका पता ही नहीं चल पाया।
ये सब सच, तो फिर झूठ क्या हुआ?
जोखिम वाला सच छुपा जाना, झूठ नहीं लेकिन मूँड-पैर कटा सच भी सच नहीं। ख़ैर मैंने तो पैदाइश से ही जोखिम उठाए हैं – लड़की हो कर, सुंदर हो कर, अनाथ और हाथ से बेहाथ हो कर। जब मलिक के साथ घर से भागी – हाँ, बिल्कुल सेठानी वाले मलिक के साथ – तब सोचा था कि सारे जोखिमों को प्रेम का चमकदार चमत्कार फूँक मार कर उड़ा देगा। और कुछ दिनों तक लगा कि ऐसा ही हुआ – जब मलिक ने मेरी बाँह पकड़ कर ट्रेन में चढ़ाया और कमर में हाथ डाल कर स्टेशन पर उतारा, स्टेशन के पास एक सस्ते होटल के गंदे कमरे में मेरे कपड़े उतारे, मेरा मुँह चूमने से पहले माथा चूमा, मुझे रानी, जान, चाँद कहा – मुझे लगा अब मैं जोखिमों के पार। लेकिन वास्तव में मलिक ने मुझे जोखिमों की भट्टी में झोंक दिया; नर्सिंग कम्पनी में काम दिलवाने से ले कर सेठानी के घर में लगवाने, अपने इशारों पर चलाने – लड़कियों को ये कहना, सेठानी से त्यों रहना, चुपके फ़ोन करना, कौन आया-गया, कितनी देर, क्या बातें हुईं पूरी रपट देना – सारे जोखिम मेरे सिर और करोड़ों के माल में हिस्सा देना दूर, करोड़ों के मंसूबे में भी मेरा हिस्सा नहीं। अगर मैंने घड़ी-बटन निकालते समय उसका रोकड़ा, और उसका क्यों, सेठानी से मिला रोकड़ा मेरा भी हुआ, चुपके से निकाल कर छाती में उड़स लिया तो उसमें भी जोखिम मेरा ही था, उसने तो सब गँवा ही दिया, रुपया तो उस गँवाए हुए की फ़ेहरिस्त में आख़िरी। ये आख़िरी जोखिम पहला है जो मैंने अपने लिए, अपने आप चुना, यहाँ से जो कुछ भी करूँ-धरूँ, मेरा अपना, उसमें किसी का हिस्सा नहीं।
सबके हिस्से में गंगा-जमुनी सच ही आता है, और सब अलग-अलग अपनी-अपनी नज़रों उसे परखते हैं – सेठानी अस्पताल में, मलिक जेल में, मेरे घर वाले उस छोटे बोसीदा शहर में और मैं आज़ादी में। किस की परख खरी, किसकी खोटी, ये कहने का अभी समय नहीं आया। अभी तो हल्की फुहार शुरू हुई है। तट की रेत पर बूँदों के छोटे छोटे गढ्ढे जैसे गालों में हँसी के ख़ुशदिल भँवर। आकाश में बड़ी रौनक़ है, गदबदाए बादलों को सूरज किरणों-किरणों गुदगुदाए और गड़-गड़ धम धम मौसम मस्त-मलंग हँसी गर्जाए। मच्छीमार नावें तट की रेत पर ऊँची खींच कर मज़बूती से बाँध रहे हैं, नीले तिरपालों से ढाँक रहे हैं। हवा उनमें घुस कर घस-फस घस-फस नीला नीला हँस रही है। मछुआरिनें जाल-टोकनियाँ समेटती रंगीन आँचलों में रंगारंग हँस रही हैं। सागर सीमा में, आकाश निस्सीम और धरती उन दोनों के बीच हँस रही है। हँह हँ ह्हाहा।