प्रेम के संसार में अज्ञेय / ओम निश्चल

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जियो उस प्यार में जो मैंने तुम्हें दिया है
प्रेम के संसार में अज्ञेय

यों तो प्रथमद्रष्ट्या हर कवि प्रेम का कवि है क्योकि उसके भीतर एक ऐसा अजस्र भाव विद्यमान रहता है जो आस पास की गोचर अगोचर सत्ता से लेकर ब्रह्मांड मे फैली नाना किस्म की चीजों से सौहार्द रखता है। फिर भी कुछ कवि अपनी लौकिकता मे प्रेम का ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करते हैं जो सृष्टि को अपनी रागात्मकता से सींचता और संवर्धित करता है। सदियों से कवि होने के पीछे जिस आह की अंतर्ध्वनि सुनायी देती रही है, उसकी विकलता के पीछे कदाचित प्रेम की विफलता या उससे सम्बद्घ कारको का हाथ रहा होगा। वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान कहने वाले कवि ने जिस आह में गान की चिन्गारियाँ खोजी होंगी उसने यह अवश्य महसूस किया होगा कि इसी आह में कहीं न कहीं प्रेम की समुज्ज्वलता विद्यमान है- यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधीःकाममोहितम्‌ । वाल्मीकि जैसे आदि कवि काममोहित क्रौंच का वध देख कर स्थिर न रह सके। सामान्यतः क्रौच के वध से काममोहित क्रौंच का वध कहीं ज्यादा विचलित कर देने वाला प्रसंग था। यह कहीं न कहीं प्रेम की निर्विघ्नता में खलल डालने वाला था। पुराने समय में शिकार के शौकीनों के लिए क्रौंचवध कोई नई बात न रही होगी। वन्य संस्कृति में यह कोई साधारण सा कृत्य माना जाता रहा होगा, किन्तु ऋषि के देखे कोई काममोहित क्रौंच का वध करे, यह उन्हें सह्य न था। प्रेम के विरुद्ध इस राजन्य हिंसा को वे बर्दाश्त न कर सके। लिहाजा इसी वेदना,इसी आह, इसी विकलता और पीड़ा से श्लोक की अजस्र धारा फूटी। कविता से, रस से, निर्झरिणी से मनुष्य जाति को सदियों से सींचने वाली ऋषि की वाणी में सदियों का वही प्रेम संचरित है जिसके कारण वे काममोहित क्रौंच का वध सह न सके। इस तरह स्वयं वाल्मीकि प्रेम के कवि ठहरते हैं। एक बृहत्तर अर्थ मे प्रेम समूची सृष्टि को अपने अँकवार में बाँधता है, वह किसी भी भय और भवबाधा से मुक्त करता है।

अज्ञेय के संदर्भ में हम देखें तो उनके बारे में अनेक अवधारणाएँ प्रचलित है। वे मौन के कवि है, स्वाधीनता के कवि हैं, राही नहीं, राहों के अन्वेषी हैं, वे काल चिंतन के कवि हैं, वे आत्मान्वेषण के कवि है, यायावर हैं, वे नई भाषा संवेदना और शिल्प के चाकचिक्य के कवि हैं, वे अकेलेपन के अनुगायक हैं, उनकी कविता प्रकृति से, आत्म से, अनात्म से संवाद है। अज्ञेय के बारे में अनेक तरह की किंवदन्तियाँ उनके रहते फैलाई गयीं, उनके अभिनिंदन में रुचि लेने वाला समाज पैदा होता रहा और प्रासंगिकता के आईने में उन्हें निरस्त करता रहा है। पिछली सदी, एक तरह से देखें तो यह अज्ञेय की प्रतिष्ठा और निंदन की सदी रही है। अज्ञेय ने अपनी प्रतिष्ठा के लिए किसी की बाँह नहीं गही, अपने सृजन से, अपने कर्तृत्व से, व्यक्तित्व से, गतिविधियों से, सृजन के वाहक नए कवियों को साथ ले चलने से, परम्परा, आधुनिकता, स्वाधीनता, लेखकीय स्वाभिमान, देश,काल, प्रकृति और संप्रेषण को अपनी तरह से परिभाषित करने से वे जानेपहचाने गए। साहित्य में उनकी शख्सियत इतनी बड़ी है कि उसे चुनौती देना मुश्किल है। हर किसी के मुँह न लगने वाले अज्ञेय अपनी लकीर छोटी करने के दुष्प्रयास में लगे लोगों से परिचित थे। पर उसका उत्तर उन्होंने कभी असहज होकर नहीं दिया। उनकी कविताओं में अज्ञेय के भीतरी भावग्राही और सद्‌भावी कवि के दर्शन होते हैं तो उनके गद्य में, निबंधों में, जर्नल्स में व्यक्ति और समाज से जुड़े प्रश्नों पर बहसें हैं। वे समाज से कट कर जीने वाले इंसान नहीं थे। किन्तु समाज में भी व्यक्ति की अपनी सत्ता और अर्थवत्ता के वे पक्षधर थे। लेखक की स्वाधीनता के वे हामी थे। सच कहें तो एक अर्थ में उन्हें कुलीनता के कवि के रूप में जाना जाता रहा है। इसकी वजह यह भी थी कि वे सहज ही लोगों से घुलते मिलते नहीं थे। बाहर से यानी व्यक्तित्व से वे गरिमामय किन्तु रहस्यवादी से लगते। उनके मौन को तोड़ना असंभव होता। उनके व्यक्तित्व में सेंध लगाना संभव न था। इसलिए ऐसे मनगढन्त प्रवादों के लेबल उन पर चस्पा किए गए, जिससे उनका प्रभामंडल चकनाचूर हो जाए। पर अज्ञेय का साहित्य साक्षी है कि वे साहित्य में अपनी शर्तों पर लिखने और जीने वाले लेखक थे। कुलीन और पंडित परिवार में जन्म लेने के कारण और पुरातत्वविद पिता की संतति होने के कारण वैदुष्य का अन्तर्भाव स्वतः ही उनके भीतर विद्यमान था। हिंदी उन्होंने स्वाध्याय से ही सीखी, किन्तु उसका एक सर्वथा नया, निखरा और परिष्कृत रूप अपनी कविताओं, उपन्यासों व कथेतर गद्य में हमें दिया।

अज्ञेय का व्यक्तित्व शुरु से ही गंभीर और अपने में बंद बंद सा रहा है। वे व्यक्तिगत मुलाकातों में बहुत कम खुलते थे। लेकिन वे लेखकों, अध्यापकों और पाठकों की दुनिया में अपने व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में प्रचारित अवधारणाओं से अवगत थे। लेकिन एकांतिक लेखक करार दिये जाने के बावजूद उन्होंने अपने को करेक्ट और मार्जित करने का यत्न नहीं किया। वे आदि से अंत तक अपनी उसी भंगिमा को जीते रहे जो उन्हें औरों से अलग, उदात्त और विरल बनाती रही है। अचरज नहीं कि उनके निबंधों में अपने व्यक्तित्व के बारे में प्रचारित अवधारणाओं और छवियों के बारे झीना झीना सा स्परष्टीकरण भी मिलता है। एक निबंध तो उन्होंने अज्ञेय अपनी निगाह में- शीर्षक से ही लिखा है। मानों उन पर लगाए गए या लगाए जा रहे अथवा उन्हें लेकर बद्धमूल विचारणा का प्रत्यावयान हों। वे लिखते हैं कि अज्ञेय बड़ा संकोची और समाजभीरू है। समाजभीरू तो इतना है कि कभी कभी दूकान में कुछ चीजें खरीदने के लिए घुस कर भी उलटे पाँव लौट आता है क्योंकि खरीदारी के लिए दूकानदार से बातें करनी पड़ेंगी। लेकिन एक दूसरा पक्ष भी है जिसके मूल में निजीपन की तीव्र भावना है, वह जिसे अंग्रेजी में सेंस ऑफ प्राइवेसी कहते हैं। इस सेंस ऑफ प्राइवेसी के चलते न तो वे औरों के निजी जीवन वृत्त में प्रवेश करते थे और न ही बहुतों को उनके निजी और आत्यंतिक जीवन में प्रवेश की सहज अनुमति थी। लोग इससे नाराज भी होते थे, उन्हें अहम्मन्य भी कहते थे, व्यक्तिवादी भी और आभिजात्य के दर्प से मंडित भी। पर अज्ञेय थे ही ऐसे। बचपन से ही एकांत के अभ्यासी। जेल में भी रहे तो काल कोठरी की माँग की और महीनों उसमें रहते रहे। यह एकांतप्रियता उनकी व्यक्तित्व की विशेषता थी, जिसे उनके असामाजिक होने के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है। वे घंटों निश्चल बैठे रह सकते थे। बिना बातें किए। अपने में डूबे। उन्हें चिंता न थी कि कोई उन पर शोध करे, लिखे और उन्हें अमर बनाए। धुर विरोध के दिनों में भी उनका आचरण संयत रहा। अपने निबंधों में अपनी अवधारणाओं की व्याख्या तो की पर विरोधियों को लेकर क्रिटिकल नहीं हुए । वे नए के अभ्यासी थे, कालोह्य निरवधिःविपुला च पृथ्वी के हिमायती। वे तमाम हुनर में पारंगत थे। जूता गाँठने से लेकर दुनिया भर के काम में दक्ष। मोटर चलानी हो या घुड़सवारी, लिखना हो या तैरना, फर्नीचर डिजाइन करनी हो या ड्राइंगरूम की अन्तस्सज्जा सबमें उनकी सुचि बोलती। सदैव कुछ विरल करने को वे हमेशा उद्यत रहे। बुढ़ापे में पेड़ की डालों पर बसेरा बनाया और कहा-सुनो कहीं मैंने हवाओं को बाँध कर एक घर बनाया है। उन्हें कष्ट होता था कि उन्हें हिन्दी के हाथी का दिखाने का दाँत समझा जाता रहा है जबकि हिंदी के अपने डिक्शन में अज्ञेय ने अपने को इस तरह अन्तर्भुक्त किया कि वे हिंदी के पारंपरिक खादपानी पर जिन्दा लेखकों से ज्यादा हिंदी के हिमायती और भारतीयता और भारतीय संस्कृति व साहित्य के समर्थक रहे। वे नियतिवादी न थे किन्तु विरोधों की प्रायोजित आँधी और अनदेखी के चलते उन्हें बचपन में उस ज्योतिषी का कहा याद आता रहा कि जातक के अनेक शत्रु होंगे लेकिन हानि केवल बंधुजन ही पहुँचा सकेंगे। उसने यह भी कहा था कि जातक के पास कभी कुछ जमा-जामा नहीं होगा, पर खर्चे की तंगी भी नहीं होगी। यह असल में तबीयत का बादशाह होगा। अज्ञेय अपनी इसी बादशाहत की सत्ता सँभाले अविजित मुद्रा में हिंदी साहित्य के समर में खड़े रहे हैं। लिखि कागद कोरे के अपने एक अन्य वैयक्तिक निबंध में अपने सपनों पर निगाह डालते हुए वे ऐसी बातें लिखते हैं जैसे वह गप हो सचाई से दूर, पर अज्ञेय ऐसे ही हैं। घुमक्कड़ी के नशे में लाठी और कुछ जरूरी सर सामान की पोटली या डोरी डंडा लेकर कहीं भी चल पड़ने को उद्यत यायावर अज्ञेय के पास लिखने और रचने के अलावा और भला क्या व्यसन हो सकता था, और वही उन्होंने जीवन भर किया।

कदाचित, इस एकांतिकता और अकेलेपन के बीच रमने की प्रवृत्ति और यायावरी ने ही अज्ञेय को भौगोलिक प्रकृति और मानवीय प्रकृति को भी समझने की ताकत दी। जहॉ तक प्रेम कविताओं का संबंध है, एक दृष्टि से देखें तो नदियों, समुद्रों, पहाड़ों और शब्दों के बीच आवाजाही करते अज्ञेय का प्रेम भी इसी एकांतिकता की उपज है। उनके प्रेम में आत्म का वैभव है, देने का दर्प है, अहम्‌ का ज्ञापन है। उनके प्रेम में जितना आवेग है, उतनी ही उच्छलता उनकी कविताओं में तरंगित है। यह उनकी सीमा भले हो, पर वे प्रेम में भी अहम्‌ को न खोने और विसर्जित करने वाले इंसान हैं। जैसे प्रेम में डुबकी लगाकर भी उनका आत्म भीगने से रह जाता हो। उनका मैं उन्हें बार बार डूबने से उबार लेता हो, तभी तो वे कहते हैं-जियो उस प्यार में जो मैने तुम्हें दिया है। प्यार में भी देने का अहम्‌। अज्ञेय इस अहम्‌ को विसर्जित न कर सके, गो कि उनके यहाँ एक से एक अपूर्व प्रेम कविताएँ हैं। अज्ञेय ने लिखा है,

प्रेम का कोई भी स्तर मूल्यवान है एक उन्मेष है, पर एक स्तर वह आता है, जहाँ दिख जाता है कि यह प्रेम तो इस और उस दो मानव इकाइयों के बीच नहीं, यह तो ईश्वर के एक अंश और ईश्वर के एक दूसरे अंश के बीच का आकर्षण है, जिसकी ये दो मानव इकाइयाँ मानो साक्षीभर हैं। पर कितना बड़ा सौभाग्य है यह यों साक्षी होना-ईश्वर के साक्षात्कार से कुछ कम थोड़े ही है उसके दो अंशों के मिलन का साक्षात्कार....... ( कवि मन, पृष्ठ ८९)

अज्ञेय प्रेम को दो मानव इकाइयों के मिलन के रूप में नहीं, बल्कि ईश्वर के दो अंशों के पारस्परिक मिलन के रूप में देखते हैं। अज्ञेय की एक कविता है-नखशिख। उद्दाम आकर्षणों से भरी अंतश्चेतना को अनुराग की उष्मा से आंदोलित करती हुई। कविता यों है

तुम्हारी देह
मुझको कनकचम्पे की कली है
दूर से ही स्मरण में भी गंध देती है
(रूप स्पर्शातीत वह जिसकी लुनाई
कुहासेसी चेतना को मोह ले)

तुम्हारे नैन
पहले भोर की दो ओस बूँदें हैं
अछूती, ज्योतिमय, भीतर द्रवित।
(मानो विधाता के हृदय में
जग गई हो भाप कणा की अपरिमित)

तुम्हारे ओठ
पर उस दहकते दाड़िम पुहप को
मूक तकता रह सकूँ मैं
(सह सकूँ मैं ताप उष्मा को
मुझे जो लील लेती है।)

(--बावरा अहेरी)

यहाँ आँसुओं में ज्योतिमयता की उपस्थिति लक्ष्य है। याद करें तो नागार्जुन जैसे ग्रामगंधी कवि ने यह तुम थी कविता में प्रेयसी को तिमिर का सीना चाक करने वाली जोत की फाँक कहा है तो केदारनाथ अग्रवाल ने जमुन जल के रूप में याद किया है जो रेत को अपनी सरसता से सींचती है। केदार की कविता है-रेत मैं हूँ, जमुन जल तुम/ मुझे तुमने हृदय तल से ढँक लिया है/ और अपना कर लिया है/ अब मुझे क्या रात क्या दिन/क्या प्रलय क्या पुनर्जीवन। ( जमुन जल, पृष्ठ १२१) अज्ञेय का नागर मन प्रेम के अलग-से रूप विधान में सुख पाता है। देह, नैन और ओठों की रंगत को अनुराग की अपनी संवेदना में अनूदित करता है। अज्ञेय की एक अन्य कविता सुनी हैं साँसें में सॉसों, धड़कनों के प्रति एक मुग्ध स्वीकार व्यंजित है।

अज्ञेय के प्रारंभिक रचनाकाल को देखें तो विश्वप्रिया और एकायन जैसे काव्य प्रेम की झीनी झीनी अनुभूति में डूब कर लिखे गए हैं। दिल्ली जेल या मुल्तान जेल में रहते हुए ही विश्वप्रिया की लगभग रचना हुई है। जेल के नीरव एकांत में अज्ञेय ने प्रणय का एक वृहत्तर वितान रचा है और जैसा कि कुछ लोग यह कहते हैं कि अज्ञेय की शुरुवाती रचनाओं में छायावादी प्रवृत्तियाँ नजर आती हैं, वह भी इन रचनाओं में दृष्टिगोचर है। अकारण नहीं कि विश्वप्रिया की पहली कविता छाया, छाया तुम कौन हो की प्रश्नाकुलता से संभव होती है। कवि उसे सहचर मानता है, बधू मानता है, अन्तरतम की भूख के रूप में और कभी स्व्रप्न के रूप मे उस छाया का आह्वान करता है। विश्वप्रिया इसी छायाभास की रोमानी अनुभूतियों से भरा है। पर इस छाया से मिलन का, अभिसार का एक ऐसा उन्माद यहॉ गूँजता है जिसकी व्यग्रता की सही सही पहचान असंभव है। अज्ञेय अपनी अज्ञेयता का भी यहाँ बखान करते हैं अगर मैं सौ वर्ष भी जी सकूँ और तुम मुझे देखती रहो, तो मुझे नहीं समझ पाओगी। वे कहते हैं कि मैं कवि हूँ किन्तु मेरी प्रतिभा अभिशप्त है। संसार का चित्रण करने का सामनर्य रखते हुए भी मैं अपने को व्यक्त नहीं कर सकता। अज्ञेय को चिंता है कि अभिव्यक्ति के हजार प्रयत्नों के बावजूद उनमें उनका 'मैं' नहीं होता। उनके भावों की तत्समता नहीं होती। इस तरह एक अनवरत अभिव्यक्ति की यात्रा में रमे हुए यायावर कवि का प्रेम भी उस तरह मुखर नहीं होता जैसा अन्य समकालीनों में । अज्ञेय के यहॉ बड़े संशय हैं। अपनी शुचिता, अविझिछन्नता को लेकर क्योंकि प्रिय के पास जाते समय, आत्मा स्वझछन्द और अबद्घ होनी चाहिए-यह कवि जानता है। अन्यत्र विश्वप्रिया का नायक कहता हैृ-मैं जन्मजन्मांतर की अपूर्व तृष्णा हूँ-तुम उसकी असंभव मूर्ति। नायक कभी गूजरी के हाथ की वंशी बनता है कभी प्रिया को प्राण बधूटी के स्निग्ध संबोधन से पुकारता है।

अज्ञेय प्रणय के घने कुहरे को भेदते चले जाने की बात कहते हैं। वे प्रेम में जय नहीं, विफलता का अनुभव करते हैं, मनुहार भी करते हैं, तज्जन्य पीड़ा भी महसूस करते हैं। प्रेम उनके लिए एक प्रज्ज्वलित दीप है-प्रेमिका एक दीपशिखा तथा प्रेमी एक छाया भर। नीरवता उनकी कविता ही नहीं, उनकी चेतना का इस तरह अनुगमन करती है कि वे प्रिय के साथ होकर भी नीरव रह कर अपने प्राणों के अविरल रौरव का उसकी नीरवता में विलय चाहते हैं। अज्ञेय का मैं भले ही मुखर हो, प्रेम में वह झुकता भी है। प्रेम मिले तो फिर अमरत्व की क्या चाह ? एकायन में वे लिखते हैं-मैं अमरत्व भला क्यों माँगू ? अज्ञेय पर ' मैं' के आच्छादन का आरोप भले हो, कहीं कहीं उनका सवय भाव भी जागता है। मैं-तुम क्या। बस सखी-सखा। अनेक कविताओं में उन्होंने प्रणयी नारी की अनुभूतियाँ टाँकी हैं और स्त्री होकर जैसे उसके भीतर की भावनाओं का ज्वार महसूस किया है। प्रेम अज्ञेय के लिए दो मानव इकाइयों का प्रेम भर नही है। वह अखिल विश्व की मानवता से प्रेम की ओर ऊर्ध्वयात्रा है। वे लिखते हैं,

एक तीक्ष्ण अपांग से कविता उत्पन्न हो जाती है
एक चुम्बन में प्रणय फलीभूत हो जाता है
पर मैं अखिल विश्व का प्रेम खोजता फिरता हूँ
क्योंकि मैं उसके असंख्य हदृयों का गाथाकार हूँ।

(कवि/ सदानीरा, भाग १, पृष्ठ १४०)

दूरवासी मीत को संबोधित कविता में अज्ञेय कारावास में पिघल उठती हृदय की भावनाओं का निदर्शन करते हैं और स्वीकार करते हैं कि अभिमान के वे दिन बीत गये हैं। अज्ञेय के काव्य जीवन में एक ऐसा दौर आता है जब वे हरी घास पर क्षण भर जैसी प्रणय में भीगी कविता लिखते -हरी घास पर क्षण भर बैठने का आमंत्रण देती यह कविता प्रिय के सान्निध्य में डूबती, विगत सुखद स्मृतियों का आवाहन करती है। यहॉ वे इस बात के लिए प्रतिश्रुत होते हैं कि

क्षण भर लय हों-मैं भी, तुम भी
और न सिमटें सोच कि हमने
अपने से भी बड़ा किसी भी ऊपर को क्यों माना।

हरी घास पर बैठे हुए भले ही घास को यह अहसास हो कि वे प्रेमी हैं, उसके मखमली आँचल में बैठे हैं पर बाकी नागरिकों की चिकनाई-युक्त भाषण सुनने को वे बाध्य नहीं हैं। क्योंकि उस भाषा में कणा कहॉ है? इस तरह अज्ञेय की प्रेमाभिव्यक्तियों में कहीं न कहीं कणासिक्त अनुभूतियाँ भी बिखरी हैं। अज्ञेय के भीतर समाई इस कणा की तसदीक कृष्णा सोबती भी यह कहते हुए करती हैं कि किसी अलौकिक की लौकिक परिकल्पना में अज्ञेय कणा की स्वरलिपिसी प्रस्तुत करते हैं-कुछ ऐसी कि जिसे पाठक अपने संवेदन में उतार तो न सके पर उसकी प्रभावकारी चौखट से अपने को उबार भी न सके ( हम हशमत-२, पृष्ठ ११९) । पहले दौंगरे( प्रथम बरसात) की बारिश और मेघों के साथ प्रिय की स्मृतियाँ भी जैसे घिर आती हैं। मेघ भीतर तक हिय को भिगो जाते हैं। कवि कहता है

भिगो दो, आह !
आओ रे मेघ, क्या तुम जानते हो
तुम्हारे साथ कितने हियों में कितनी असीसें उमड़ आई हैं ?
(हरी घास पर क्षण भर )

इसी तरह कलगी बाजरे की प्रिय से एक घना संवाद है। नायक प्रिय को सफाई-सी पेश करता है। प्रिया को सहलाती हवा में बाजरे की छरहरी कलगी कहते हुए पूछता हैृ-शब्द जादू हैं-मगर क्या यह समर्पण कुछ नहीं है। यही समर्पण-चाँदनी जी लो में सान्निध्य के लिए आमंत्रण की भाषा में बदल उठता है

आओ प्रिय, रहो साथ
भर भर कर अँजुरी पी लो
बरसी शरद चाँदनी
मेरा अन्तःस्पंदन तुम भी क्षण-क्षण जी लो

(सदानीरा,भाग१, पृष्ठ २५८)

यहॉ एक बात जो पुनः लक्ष्य है वह यही कि अज्ञेय का मैं कहीं ओझल नहीं होता। वह समर्पण और आमंत्रण की भाषाभंगिमा में भी कौंध उठता है। जिस तरह यहॉ मेरा अतःस्पंदन जीने की बात कही गयी है, उसी तरह मुझे सब कुछ याद है कविता में फिर दाता के बोध की तरह प्यार देने की बात कही गयी है -

प्यार लो मेरा
उसी में चाँदनी है
उसमें तुम
उसी में बीते हुए सब प्यार भी हैं

(सदानीरा,भाग १, पृष्ठ २३७)

उन्हें विवेचित करती हुई कृष्णा सोबती का कहना भी यही हैः उनकी मुद्रा दाता की मुद्रा है। ऋषि मुद्रा। कुछ ऐसी कि लो तुम्हें कुछ दिया जा रहा है। वरदान समझों कि भोगा जा रहा है तुम्हें। यह परंपरागत भारतीय पुरुषमुद्रा साहित्य के आधे पाठकों को आतंकित नहीं तो परेशान जरूर किए रहेगी। ( हम हशमत-२, पृष्ठ ११९) । सच है कि अज्ञेय की प्रेम कविताओं का संसार पौरुषमय है। उनकी कविताओं का नायक खुल कर कहने में संकोच बरतता है पर सौंदर्य की आँच को महसूस करने की कवि की क्षमता अपार है। उसके यहॉ सौंदर्य के अवलोकन का, चाहे प्रकृति का हो या प्रिय का अनूठा है। सपने में प्रिय की पलकों का कँपना और उसे निहारने का सुख विरल है। अज्ञेय की कविता पलकों के इस कंपन को महसूस करती है। यों दाता के दर्पस्फीत भाव से कवि अनवगत नहीं है। जैसे जब तारा देखा में कविकथन पर गौर करें

जब भी उभरा यह बोध
कि तुम प्रिय हो
सद्यः साक्षात्‌ हुआ
सहसा देने के अहंकार
पाने की ईहा से
होने के अपनेपन (एकाकीपन)
से उबर गया
जब जब यों भूला
धुल कर मँज कर
एकाकी से एक हुआ
जिया। (सदानीरा, भाग २, पृष्ठ १३१)

इसलिए जहॉ प्रेम में अज्ञेय का 'मैं' प्रबल है, वहीं इसका अहसास भी जब कवि को होता है, उसकी अनुभूति कविताओं में प्रतिबिम्बित होती है। गृहस्थ कविता में यह कहना कि तुम मेरा घर हो/ यह मैं उस घर में रहते रहते/ बार बार भूल जाता हूँ/.....कि तुम उस मेरे घर की एक मात्र खिड़की हो/....जिसमें से उलीच कर मैं अपने ही द्रव को अपने में भरता हूँ/....यह मैं कभी नहीं भूलताः क्योंकि.... ( सदानीरा, पृष्ठ १३२)

इस क्योंकि के कारण बताता हुआ कवि कहता है कि क्योंकि उसी खिड़की में से हाथ बढ़ा कर / मैं अपनी अस्मिता को पकड़े हूँ-कैसी कड़ी कौली में जकड़े हूँ/ और तुम-तुम्ही मेरा वह समर्थ हाथ हो/ तुम जो सोते-जागते, जाने-अजाने/ मेरे साथ हो। ( वही, पृष्ठ १३२) प्रेम की अनुभूतियों की एक दुनिया जो निःसंग ममेतर में भी मिलती है। इस लंबी कविता में प्यार को लेकर अज्ञेय कुछ खुलते हैं। पहली बात तो यही कि उनके मन में प्रिया के लिए ममेतर का भाव तो है ही, उससे निस्संगता भी ज्ञापित है। तब भी वह उनकी अभिन्न है। प्रभाकर श्रोत्रिय ममेतर को अपने से इतर नहीं, शेष सृष्टि के अर्थ में नहीं,बल्कि मेरा ही जो दूसरा है-इस दृष्टि से देखते हैं तथा इस अनन्यता की पुष्टि को वे कालिदास के यहाँ यक्षिणी के बारे में यक्ष के कथनजीवितम्‌ में द्वितीयम्‌से करते हैं, यही कारण है कि अनेक ऋतु चक्रों से गुजरती हुई प्रेम की इस अक्लान्त, अविराम और अना्रयायित अनुभूति को जीता हुआ कवि हिम शिखरों, झील की पारदर्शी लहरियों, निस्तल गहराइयों और वनस्पतियों की सिहरती पत्तियों में, घाटियों की गूँजती उच्छल हँसियों में, पंछियों की उड़ानों में-यहाँ तक कि हर स्पन्दन में, साँस में समाई उसे महसूस करता है। उसके होने न होने को महसूस करता है और इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि

जीना सुलगना है
जागना उमगना है
चीह्नना चेतना का
तुम्हारे रंग रंगना है (सदानीरा, भाग २, पृष्ठ १४२)

आँखों में प्रिय की स्मृति बसी है जो अभिभूत कर देने वाली है। वह इस तनय से प्रतिकृत है कि -मैंने तुम्हें छुआ है/ मेरी मुटि्‌ठयों में भरी हुई तुम/ मेरी उँगलियों बीच छन कर बही हो/कण प्रतिकण आप्त, स्पृष्ट, भुक्त/ मैंने तुम्हें चूमा है/ और हर चुम्बन की तप्त, लाल, अयस्कठोर छाप/ मेरा हर रक्त कण धारे है/ आह ! पर मैंने तुम्हें जाना नहीं।

प्रेम के प्रति यह जो अज्ञेय का दृष्टिकोण है-लुकाछिपी का, एक रहस्यसा बुनने-रचने का- वह छायावादियों का सा अजाना है। नासापुटों में प्रिय की गंध से सुवासित ज्ञापित करता हुआ। प्रेमी इस बात पर यही कहता है कि मैंने तुम्हें केवल मात्र जाना है/ देखा नहीं मैने कभी/ सुना नहीं, छुआ नही। पर अज्ञेय प्रेम की लौकिक सत्ता को भी अलौकिक में बदलने के आकांक्षी दिखते हैं। वे इस तल पर आ पहुँचते हैं जब उन्हें इस प्यार में समग्र एक विश्व की अनुभूति होती है। वह प्रिय को सह तितीर्षु, सहपायिनी, सहधर्मा, सहजन्मा, सहजीवा, कल्याणी एवं पुण्यप्रभव जैसी संज्ञाओं से अभिहित करते हैं और चाहते हैं कि यह जो प्यार का मोती है, कोटिकोटि लहरों से मँज कर रचा हुआ, वह इस कृती सीप को अपने में समेट ले और चातक को आत्मलीन कर ले। इस तरह यह कविता लगभग प्रेम के बारे में अज्ञेय के वृहत्तर अवधारण को बड़ी सीमा तक व्यावयायित करता है।

प्यार की यह आँच अज्ञेय की कविताओं में जहाँ तहाँ दिखती है, एक सुलगन, एक तड़पन, एक आवाहन और मिलन का सा आभास देने वाला अनुभव जहाँ तहाँ महसूस होता है और लगता है कि प्रेम एक ऐसी अनुभूति है जो मनुष्य को जिजीविषु बनाए रखती है-कभी उसकी लौ बुझने नहीं देती। अज्ञेय में जहाँ देने के भाव की चर्चा मैंने की है वहीं उनके इस भाव को भी याद रखना चाहिए,जहॉ वे कहते हैं

दिया सो दिया
उसका गर्व क्या
उसे याद भी फिर किया नहीं
(जो रचा नहीं/ सदानीरा भाग२, पृष्ठ १६३)

तमाम हताशा, दुराशा के बावजूद अज्ञेय अततः प्यार की शाश्वतता की उपेक्षा नहीं करते। अंगार में वे कहते हैं-जिसे कुछ भी, कभी कुछ से नहीं सकता मार-वही लो, वही रक्खो साज सँवार/ वह कभी न बुझने वाला/ प्यार का अंगार। पर वे मनुष्य की नियति से अवगत हैं। जानते हैं, प्यासी है, प्यासी है गागर यह/ मानव के प्यार की/ जिसका न पाना पर्याप्त है/ न देना यथेष्ट है/ पर जिसकी दर्द की अतार्किक पहचान/ पाना है, देना है, समाना है.....। अज्ञेय स्मारकों के ढूहों, मीनारों, गुम्बदों को नहीं, उस मिट्‌टी से प्यार करना सिखाते हैं जो प्यार की मिट्‌टी है जिससे पीढ़ी दर पीढ़ी मूल्यों का सृजन होता है (स्मारक)

अज्ञेय के प्रेम का संसार कुछ अलग-सा है। उनका व्यक्तित्व बाहर से जितना अभेद्य और दुर्र्ल्लंघ्य लगता है, प्रेम की उनकी व्यंजनाएँ भी कभी-कभी सहज नहीं लगती हैं। कदाचित यही वजह है कि कृष्णा सोबती को उनकी प्रेम कविताओं का स्वर ठंडा और किसी रासायनिक ठंडक से उपजा हुआ लगता है। यानी उस उष्मा और पैशन का अभाव जिससे कविता के यौवन में बसंत का आगमन होता है। याद आती है, गिरिजा कुमार माथुर की कविता- मेरे युवा आम में नया बौर आया है/ खुशबू बहुत है क्योंकि तुमने लगाया है। अज्ञेय प्रेम की हर स्थिति का खुलासा करते हैं-उस हँसी तक को टाँकते हैं जो घास की पत्ती पर ओस-सी टंकी है, पर जो अनुभव के ताप में उड़ गयी है। प्यार जब तक है-तब तक कुछ और बात होती है पर जब प्यार नहीं रहा तब मन में फाँस की तरह एक याद चुभती है। अज्ञेय के शब्दों में, ज्योनार हो चुकी, मेहमान चले गए, बस पकवानों की गंध सारे घर मे बसी रह गयी (सदानीरा, भाग २, पृष्ठ २५८)

स्मृतियों का एक सघन चंदोवा बुनने वाले अज्ञेय उत्तरोत्तर सहज होते दिखते हैं-खास तौर से अपनी कविताओं में अपनी टीपों और जर्नल्स में भी। अस्सी के दशक की एक शुरुआती कविता में वे लिखते हैं

बहुत दिनों बाद आज ऐसा हुआ है
कि उस एक मेरे जाने हुए
आलोक ने मुझे छुआ है ( आज ऐसा हुआ है, सदानीरा२, पृष्ठ ४०२)
ट्रपे कविता की पंक्तियॉ देखें
अमराई महक उठी
हिय की गहराई में
पहचानें लहक उठीं
तितली के पंख खुले
यादों के देवल के
उढ़के दो द्वार खुले। ( सदानीरा, पृष्ठ ४०६)

प्यार मनुष्य को एक नई दृष्टि देता है। वही नई आँखें, नई अनुभूतियॉ, नए स्पंदन, नए शब्द, नए अर्थ और नए मानी देता है। प्यार की कोई सुनिश्चित पारिभाषिकी नहीं होती-गो हम उसे शब्दों में बाँधने की चेष्टा तो करते ही हैं, किन्तु हर प्यार अपनी खुद की पारिभाषिकी रचता है। उसका अपना डायनामिज्म होता है। प्यार हो तो दुनिया नई सी दिखती है। आज मैंने कविता में अज्ञेय का चिंतन यही तो बताता है

आज मैंने पर्वत को नई आँखों से देखा
आज मैंने नदी को नई आँखों से देखा
आज मैंने पेड़ को नई आँखों से देखा
आज मैंने पर्वत पेड़ नदी निर्झर चिड़िया को
नई आँखों से देखते हुए
देखा कि मैंने उन्हें तुम्हारी आँखों से देखा है
कविता का आखिरी छोर है
आज मैंने तुम्हारा एक आमूल नए प्यार से अभिषेक किया
जिसमें मेरा, तुम्हारा और स्वयं प्यार का
न होना भी है वैसा ही अशेष प्रभामंडित
आज मैंने तुम्हें प्यार किया प्यार किया प्यार किया....

प्यार हो तो हाथ गहने की अनुभूति दूसरी होती है। हाथ गहना कविता इसी अनुभूति का प्रस्फुटन हैः

हाँ, तुम्हारा हाथ मैंने गहा
तुम्हारे हाथ को मेरा हाथ
देर तक लिए रहाः
पर एकाएक मैंने देखा कि उस मेरे हाथ के साथ
मैं ही तो नहीं रहा....... ( सदानीरा, पृष्ठ ४१३)

यह प्यार की ही उमगन है, कसकन है जो कवि से कहलवाती है-चाहता हूँ कि मुझे मैं/ एक दूसरे साँचे में ढालूँ और तब वन तुलसी की गंध,उसकी उमस भी मन को भीतर ही भीतर अंधी मादकता से भर जाती है। मन कह उठता हैः

ओ घटा ! लो !
इधर भी आया उमड़ घन
थोड़ा झुकोः लो चूम ! ( घटा झुक आई/सदानीरा२, पृष्ठ ४२९)

ऐसा कोई घर आपने देखा है संग्रह की घर कविता विलक्षण है। कवि को अंत में आकर एक ऐसे घर की तलाश है जो प्रकाश के घेरे के भीतर हो। ऐसा घर न भी मिले तो कम से कम बेघरों की परस्पर हमदर्दी के घेरे में तो रहा ही जा सकता है। लगता है अज्ञेय को इस घर की तरह ही एक शाश्वत प्रेम के घर की तलाश रही है। तमाम पीड़ा, प्रतीक्षा, वेदना और सुख की कौंध के बीच साँस लेती हुई एक रहस्यमयी-सी प्यार की अनुभूति उनका सतत पीछा करती रही है। पर जो देने का आग्रही हो, जियो मेरी ही याद में कहने का अभ्यासी हो, वह भले ही कभी कभार सोचे कि यह देने का अहंकार छोड़ देना चाहिए, किन्तु प्यार का बींधना भी उसके गहन स्मरण में है। वह भूल नहीं पाता कि प्यार एक यज्ञ का चरण जिसमें मैं वेध्य हूँ / प्यार एक अचूक वरण/ कि किसके द्वारा/ मैं मर्म में वेध्य हूँ ( सदानीरार्‍२, पृष्ठ २२६) किन्तु हम यह न भूलें कि अज्ञेय का कवि सनातन जयी की आकांक्षा से भरा कवि है। ऐसे कवि कभी मरते नहीं, वे बार बार जन्म लेते रहते हैं। अपने अनुभव का एक नया ज्ञान, नया सर्ग, नया महाकाव्य लिखने के लिए और यह कहने के लिए कि

जहाँ भी तुम हो
मेरी स्मृति को फिर गुँजाते कि मैं फिर सुनूँ
और लिखूँ हवाओं पर
तुम्हारा नाम।

अज्ञेय के यहॉ प्यार का स्वीकार है, पर हर उस कष्ट, दुख और क्षोभ का वरण भी है जो उसकी राह को कँटीला और दुर्गम बनाता है।

अज्ञेय और शमशेर की प्रेम कविताओं को अक्सर समानांतर रख कर देखा जाता रहा है। मलयज ने अपनी डायरियों में इस तनय को विशेष रूप से दर्ज किया है। १२ अक्तूबर, १९६८ की डायरी में वे लिखते हैं-हिंदी कविता में, आधुनिक काल की नई हिंदी कविता में, अज्ञेय और शमशेर ही ने वास्तविक अर्थों में प्रेम की कविताएँ लिखी हैं। मूलतः दोनों ही प्रेम के कवि हैं। पर दोनों के प्रेम के अनुभव में काफी अंतर है। मेरे वयाल से अज्ञेय का प्रेम अनुभव उनकी अहंवादिता ( इगोइज्म) के बावजूद ज्यादा पुष्ट और संपूर्ण है। शमशेर का प्रेमानुभव ओंधक उदात्त, सूक्ष्म किन्तु एकतरफा है। यह बात जरूर है कि शमशेर के प्रेमानुभव में भावसंवेगात्मक शक्ति अज्ञेय के मुकाबले कहीं ज्यादा है, दूसरे शब्दों में शमशेर का प्रेम का अनुभव ज्यादा इन्टेन्स और गहरा तथा वेगपूर्ण है, वह है एकांगी ही, असम्पूर्ण और काफी कुछ एब्सट्रैक्ट शिला की तरह। अज्ञेय में सेल्फ निगेशन के स्थान पर आत्मसंयम और अहंगरिमा है। आगे मलयज का निष्कर्ष है कि अज्ञेय के प्रेम में अहं का विसर्जन नहीं है, जबकि शमशेर अहं का विसर्जन कर देते हैं। शमशेर के यहॉ जो गोपन है, अज्ञेय के यहाँ प्रकट है अपने शब्द संयम, भाव संयम और कनय संयम के साथ प्रेम को भी अज्ञेय का कवि जीवन की एक शालीन और उदात्त आवश्यकता मानता है। जबकि शमशेर प्लैटॉनिक और आदर्शवादिता की सीमाओं को छूते हुए अपनी कलात्मक परिपूर्णता में प्रेम की अन्तश्चेतना में उतरते हैं। एक अर्थ में शमशेर एक शर्मीले प्रेमी है, जबकि अज्ञेय अपने मौन की मुनादी के बावजूद प्रेमाभिव्यक्ति में मुखर नज़र आते हैं। अज्ञेय और शमशेर दोनों के यहॉ देह प्रेमाभिव्यक्ति के केंद्र में रेखांकित नही है-वह उजास फैलाती चाँदनी या गुनगुनी धूप की मीठी किरणों का चंदोवा सी बुनती मौजूद दिखती है। किन्तु अज्ञेय में जो बात मलयज ने लक्ष्य की है, वह सटीक है। शमशेर स्वयं अज्ञेय की गहरी सुचि के कायल थे। भावों की सच्ची गंभीरता और अभिव्यक्ति में सादगी-सी जो एक उस्ताद शिल्पी के यहाँ मिलती है-शमशेर कहते हैं। ( एक बिल्कुल पर्सनल एसे/कुछ और गद्य रचनाएँ, पृष्ठ २९) शमशेर अज्ञेय के प्रशंसक होते हुए भी उन्हें लेकर संशयी भी हैं। अज्ञेय की अपनी भावनाओं के प्रति सचेत रहने की प्रवृत्ति उन्हें खटकती है। वे कहते हैं-कभी वह अपने को भूल नहीं सकते, खो नही सकते। और अज्ञेय में यही बात उनके विरुद्घ जाती है-उनका अति चेतन होना। हर समय एक सयानी संवेदना और चौकस समझ के साथ रचना को गढ़ना। इसीलिए शायद शमशेर अज्ञेय की कलात्मक कारीगरी की तारीफ तो करते हैं, पर दृष्टि उन्हें नागार्जुन और त्रिलोचन से ही मिलती है। जबकि अज्ञेय के यहॉ सच्चे कलाकार की शिल्पगत अनुभूति और परिपक्वता मिलती है। इस तरह कविताओं में भी निजता, अपने अस्तित्व को एकात्म न होने देना या इस सीमा तक उसे विलग रखना कि कवि का सचेत होना दिखायी दे-यह अज्ञेय के यहॉ दिखता है। यही कारण है कि प्यार में जो समर्पण चाहिए, अहम और ईगो का विलयन चाहिए, वह अज्ञेय में कम दिखता है। यहॉ प्रेमी का पौरुषपूर्ण वर्चस्व कायम रहता है, भले ही वह प्रेम में काम्य समस्त संवेदनाओं का वाहक हो। अज्ञेय के यहॉ प्रेम धात्विक किस्म का है अपनी चमक दमक के पूरे वैभव के साथ। किन्तु अज्ञेय के इस कथन को भी हम याद रखें

तुम्हें मैं जो प्यार करता हूँ उसे मैं समग्र विश्व को देता हूँ-दे देता हूँ। मेरे कर्म व्यापार तुम्हारे साथ मुझे बाँधते हैं, लेकिन उन्हें समग्र को दे देकर मैं मुक्त होता हूँ। न तुमसे मुक्त, न अपने से मुक्त, न विश्व से मुक्त, तुममें मुक्त, अपने में मुक्त
समग्र में मुक्त। यह मुक्त होना ही एकात्म होना है, नही तो प्यार की सघनतम पीड़ा में भी द्वैतभाव से मुक्ति नहीं मिलती...... ( कवि मन, पृष्ठ ७२)

प्रेम कविता पर विचार करते हुए हमारे सामने सदियों की प्रेम कविता की परंपरा सम्मुख आ खड़ी होती है। एक आधुनिक कवि के लेखे तो वह जैसे स्थायी कवि समय ही रहा है। हिंदी की काव्य परंपरा में श्रृंगार काव्य की विपुल सम्पदा है। स्त्री और पुरुष के बीच मानवीय आकर्षणों के साथ जब एक अतरंगता-सी विकसित होती है-उस अनुभूति को शब्दबद्घ कर पाना सदैव कवियों के लिए चुनौती रहा है। क्योंकि प्रेम एक किया व्यापार है और उसकी अभिव्यक्तिएक कलात्मक कार्रवाई है। चित्त की भाव दशाओं का ज्ञापन है। प्रेम कविता का अधिकांश दैहिक मिलन और उसके बखान में अतिरंजित है। रीति कविता में नख शिख वर्णन एवं कविता कला दोनों के शिखर दीख पड़ते हैं। प्रेम की कोई पाठशाला नहीं होती। प्रकृति में ही इसके बीज छितरे बिखरे होते हैं। प्रकृति प्रेम करना सिखाती है। फिर भी प्रेम असंभवता का दूसरा नाम है। हजारों प्रेम कहानियों के दुखद वृत्तांत यह बताते हैं कि देह से देह का अनुष्ठान सम्पन्न कर लेना या मिलन की परिणति से गुजरना ही प्रेम नहीं है। प्रेम मिलन, विरह, उत्कंठा, प्रतीक्षा, पीड़ा, अनुभूति, विकलता और छटपटाहट का दूसरा नाम है। देह से पार चले जाने की प्रेमानुभूति व्यक्ति को उदात्त बनाती है। देह हमारी समस्या नहीं है, न ही यह वासना की वाहिका है। अनेक उद्दाम वासनाओं और चाहनाओं से गुजरते हुए या उसे भोगते हुए भी हम प्रेम का अनुभव नहीं कर सकते। प्रेम का अनुभव देह होते हुए भी विदेह होने में है, भोगे जाते हुए या भोगते हुए भी अभुक्त होने मे है, उस उदात्तता, प्रांजलता और सात्विकता को बचा लेने में है जो देहाभिभूत होते हुए भी अक्षुण्ण रहती है जैसे मक्खन के गल जाने पर घृत बचा रहता है। हमारे समय की बड़ी प्रेम कविताओं के नेपनय में कणा का आवेग भी कहीं न कहीं दिखता है। कविता प्रेम के नेपनय में रची बसी कणा तक पहुँचती है। प्रेम में कुंठा नहीं, निर्बन्धता होती है। इसलिए अच्छी प्रेम कविता हमें खोलती है, मुक्त करती है, भौतिकता से पार ले जाने में मदद करती है। आगे चल कर यही कविता आपयामिकता की सरहदें भी छूती है। जैसे सूफियों की प्रेम कविताएँ। यह सुखद है कि आधुनिक हिंदी कविता प्रेम कविता की तमाम खूबियों का एक साथ वहन कर रही है। उसमे देह का संगीत भी है, आत्मिक सुख की निर्झरिणी भी। इसमें बहते हुए स्नेह निर्झर को समेटने की शक्ति भी है तथा मनुष्य को प्रेयस्‌ की अक्षुण्ण रासायनिकी से ओतप्रोत करने की उर्जा भी। प्रेम का क्षितिज उदात्त होता है तब कभी कोई कवि कनुप्रिया या गुनाह का गीत(धर्मवीर भारती) लिखता है, कोई ट्राम मे एक याद(ज्ञानेन्द्रपति), कोई हरा जंगल(कुँवर नारायण), कोई टूटी हुई बिखरी हुई(शमशेर), कोई देह का संगीत(सर्वेश्वर), कोई नख शिख( अज्ञेय), वह शतरूपा(लीलाधर जगूड़ी), हे मेरी तुम(केदारनाथ अग्रवाल), कोई उसके लिए शब्द( अशोक वाजपेयी) इत्यादि इत्यादि। अज्ञेय का काव्य विपुल भाव और विचार संपदा का काव्य है। पर उनके काव्य में एक खास तरह की सौंदर्याभिचि सॉस लेती है। उनका अभिजात स्वभाव उन्हें खुलने से, मुखर होने से रोकता है। उनकी भाषा संस्कारबद्घ है। उसमें आरोह अवरोह और गतियॉ प्रायः कम हैं -एक झीलसा ठहराव है। सुघर प्रतीकों और पदावलियों से उनकी कविता सज्जित है। अज्ञेय के व्यक्तित्व में वर्चस्व के गुणसूत्र दिखाई देते हैं। उनके प्रतीकों में समुद्र प्रायः आता है। पर वे जिस सागरमुद्रा की बात कविता में करते हैं-लगता है, यह सागर मुद्रा अज्ञेय के प्रभा मंडल का ही पर्याय है। सागर भी कुछ लेता नहीं, बाहर उलीचता है। अज्ञेय की कविता में भी तो उलीचने और देने का भाव ही प्रबल है।

जो भी पाया, दिया :
देखा, दिया :
आशाएँ, प्यार, अहंकार, विनतियाँ, बड़बोलियाँ
ईर्ष्याएँ, दर्प, भूलें, अकुलाहटें
जो भोगा, दिया : जो नहीं भोगा वह भी दिया,
जो सँजोया,दिया
जो खोया, दिया (सागरमुद्रा ६)

यह वही अज्ञेय हैं जिन्होंने लिखा है, अच्छी कुंठा रहित इकाई/ साँचे ढले समाज से/ अच्छा, अपना ठाठ फकीरी/ मँगनी के सुख साज से ( अरी ओ करुणा प्रभामय, पृष्ठ १६१७) और यह भी कि मैं मरूँगा सुखी/ मैंने जीवन की धज्जियाँ उड़ाई हैं ( जन्म दिवस, इत्यलम्‌) । अज्ञेय प्रेम कविता की लंबी परम्परा को आगे बढ़ाने वाले कवियों में हैं। उनकी कविता में भाषा, कनय और भाव का जैसा क्लासिकी संयम और अनुशासन है, वैसा ही उनकी प्रेम कविताओं में लक्षित होता है। कदाचित उन्हें देना श्रेयस्कर लगता है इसलिए प्रेम में लेना जैसे तुच्छ समझते हैं। उनके लेखे प्रेम लेने का नहीं, देने का नाम है। देकर ही मानो पाने का अहसास गहरा होता है। इसे दाता का दर्प कहें या अपने अहम्‌ को ऊपर रखने की जिद, पर अज्ञेय के प्यार में देने का भाव है, आशीषों का स्वस्तिवाचन है, पथ बुहारने- सँवारने का उद्यम है और प्रिय को दुख की गलियों मे नहीं, स्नेहसिक्त वीथियों, सरणियों में देखने की कामना निहित है। सो वे कहते हैं

जियो उस प्यार में जो मैंने तुम्हें दिया है
उस दुख में नही जिसे बेझिझक मैने पिया है।
उस गान में जियो जो मैंने तुम्हें सुनाया है,
उस आह में नही जिसे मैंने तुमसे छिपाया है।

उस द्वार से गुजरो जो मैंने तुम्हारे लिए खोला है
उस अंधकार से नहीं जिसकी गहराई को
बार बार मैंने तुम्हारी रक्षा की भावना से टटोला है।

वह छादन तुम्हारा घर हो
जिसे मैं असीसों से बुनता हूँ, बुनूँगा,
वे काँटेगोखतो मेरे हैं
जिन्हें मैं राह से चुनता हूँ, चुनूँगा।

वह पथ तुम्हारा हो
जिसे मैं तुम्हारे हित बनाता हूँ, बनाता रहूँगा,
मैं जो रोड़ा हूँ, उसे हथौड़े से तोड़तोड़
मैं जो कारीगर हूँ, करीने से
सँवारता सजाता हूँ, सजाता रहूँगा।

सागर के किनारे तक
तुम्हें पहुँचाने का
उदार उद्यम मेरा होः
फिर वहॉ जो लहर हो, तारा हो,
सोनतरी हो, अरुण सवेरा हो,
वह सब, ओ मेरे वर्ग !
तुम्हारा हो, तुम्हारा हो, तुम्हारा हो।

(अरी ओ करुणा प्रभामय/सदानीरा१,पृष्ठ ३२६)