प्रेम जनमेजय से बातचीत / लालित्य ललित
प्रख्यात व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय से युवा कवि लालित्य ललित की बातचीत
लालित्य ललित: आप इस समय सर्वाधिक व्यस्त और चर्चित व्यंग्यकारों की पंक्ति में शुमार हो चुके हैं।आप हमारे समय की महत्वपूर्ण पत्रिका-‘व्यंग्य यात्रा’ संपादन कर रहे हैं? ऐसे में आप अपने लेखन को कितना समय दे पाते हैं।
प्रेम जनमेजयः ललित तुमने मेरी आजकल की दुखती रग पर हाथ रख दिया है। तुम्हारा यह सवाल कि कितना समय लेखन को दे रहे हैं, मेरे लेखकीय हिस्से को लज्जित कर देने के लिए पर्याप्त है। तुम्हारा कहना सही है कि मैं ‘व्यंग्य यात्रा’ जैसी समय की बेहद मांग करने वाली पत्रिका के संपादन में व्यस्त और त्रस्त हूं। मैं तो कहता हूं कि आजकल मैं स्व लेखन और ‘व्यंग्य यात्रा’ जैसी दो नावों में संवार हूं।‘व्यंग्य यात्रा’ की नाव को मैंने स्वयं ही चुना है और अनेक बार चाहा है कि इस नाव से उतर जाउं पर ...। मेरे मित्र ज्ञान चतुर्वेदी ने एक बार कहा भी कि प्रेम जनमेजय के लेखन की नांव रेत में फंस गई है। मैंनें अपनी इस विवशता का जिक्र ‘व्यंग्य यात्रा’, 23-24 अंक के संपादकीय में भी किया है- अंक निकालने में अत्यधिक संपादकीय व्यस्तता के चलते अपने लेखकीय पक्ष की हानि देख अंदर बैठा कोई कृष्ण कहता है कि प्यारे इस संपादक ने तेरे लेखकीय रूप की बहुत ग्लानि कर दी है, अब तो लेखक के रूप में अवतरित हो। जैसा गालिब के साथ हुआ था, और अक्सर हर रसरंजन प्रिय व्यक्ति के साथ होता है, वैसा ही मेरे साथ भी होता है। गालिब सुबह अपनी खाट पर बैठे होते और उनके हितचिंतक समझाते कि गालिब अब तो शराब से तौबा कर लो। गालिब भी अपने हितचिंतकों की बात मानते और दोनों कानो को हाथ लगकर कहते- तौबा, तौबा शराब से तौबा।’ यह तौबा सुबह की होती और शाम होते ही सुबह का भूला वापस आ जाता। गालिब शाम को अपने रंग में आ जाते। उनके हितचिंतक देखते और कहते- गालिब आपने सुबह ही तो तौबा की थी और कहा था, तौबा, तौबा शराब से तौबा। गालिब सहज भाव से शराब को गिलास में उड़ेलते और बिना कानों को हाथ लगाए आश्चर्य मिश्रित स्वर में कहते- तौबा, तौबा और शराब से तौबा!’ हितचिंतक कहते कि ये नहीं सुधारेगा और गालिब अपने से कहते है कि तुम सुधरने के लिए नहीं बने हो।
मेरे साथ भी ‘व्यंग्य यात्रा’ को लेकर ऐसा ही गालिबाना प्रसंग होता है। हर अंक निकालने के बाद सोचता हूं कि अब ‘व्यंग्य यात्रा’ से तौबा करूंगा परंतु जब श्रीलाल शुक्ल, नामवर सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी, नित्यांनद तिवारी, निर्मला जैन, रामशरण जोशी, ज्ञानरंजन, गौतम सान्याल जैसे अनेक महानुभाव अंक मिलने के बाद रक्तवर्द्धक फोन करते हैं तो मन कह उठता है- ‘तौबा तौबा और व्यंग्य यात्रा से तौबा!’
ललित ‘व्यंग्य यात्रा’ सहयात्रिओं के सहयोग से एक मिशन बन चुका है और हर मिशन के लिए त्याग तो करना ही पड़ता है। तुमने सही कहा कि इस सबके होते हुए मेरे लेखकीय प़क्ष की हानि हो रही है।
लालित्य ललित: सीता अपहरण केस’नाटक इन दिनों फिर चर्चा में है। आप इसे कैसे लेते हैं?
प्रेम जनमेजयः ‘सीता अपहरण केस’ धीरे-धीरे अपनी गति पकड़ रहा है। सबसे पहले इसका लघु रूप मेरे कॉलेज मे ंमेरे सहयोगी अध्यापकों ने मंचित किया। कॉलेज के युवा दर्शकों के बीच बहुत ही हिट गया। इसके बाद सुरेश कांत ने कानपुर में इसका मंचन किया। पिछले दिनों हैदराबाद की संस्था ‘सूत्रधार’ ने विनय वर्मा के निर्देशन में इसका व्यावसायिक शो किया, जो बहुत ही सफल रहा। उससे प्रेरित होकर अगस्त में दो और शो किए। इस समय तक इसकी 15 प्रस्तुतियां हो चुकी हैं। इसके अतिरिक्त भोपाल के भारत भवन में ‘मुकदमा’ नाम से तरुण ने इसे मंच पर प्रस्तुत किया।
लेखक अपने पात्रों को जब कागजों से निकलकर मंचपर जीवित होते देखता है तो उसे अच्छा ही लगता है। नाट्य लेखन मेरी रुचि है और इसी से वशीभूत मैंने अनेक रेडियो नाटक भी लिखे।
लालित्य ललितः आपने कौन कौन से रेडियो नाटक लिखे हैं?
प्रेम जनमेजयः मेरे युवा लेखकीय व्यक्तित्व का आंरभिक निर्माण करने में रेडियो नाटकों का महत्वपूर्ण योगदान है। बात संभवतः 1969 की है, उन दिनों भारत सरकार ने युवाओं के लिए ‘युववाणी’ कार्यक्रम आंरभ किया था। इस कार्यक्रम की प्रोड्यूसर कमला सांघी थी। उन्हीं दिनो कुमुद नागर ने दिल्ली आकाशवाणी में पदभार संभाला। वो युवाओं से नए रेडियो नाटक लिखवाना चाहते थे। सौभाग्य से मेरा भी उनसे परिचय हुआ। मेंनें पहला रेडियो नाटक ‘दीवारें’ लिखा जिसका निर्देशन कुमुद नागर ने किया और जिसमें मनोज भाटनागर ने नायक की भूमिका निभाई थी। इसके बाद ‘हिंदुस्तानी होने का दुख’, ‘पेन’ आदि रेडियो नाटक लिखे। इसके बाद ‘धर्मयुग’ में निरंतर प्रकाशित होती मेरी व्यंग्य रचनाओं ने मुझे व्यंग्य लेखन पर केंद्रित कर दिया। बरसों बाद सोमदत्त शर्मा नेशनल चैनल में प्रोड्यूसर के रूप में आए। वे मेरे रेडियो नाटक लेखक के रूप से परिचित थे। उनके कहने पर मैंनें ‘मृगनयनी’,‘किरचें’,‘पिकचर आफ डोरियन ग्रे’ ‘रोम की नगरवधू‘ ‘पत्थरों का सौदागर ’ ‘साकेत’ आदि रचनाओं का रेडियो नाट्य रूपांतर किया। अब इस आधार पर तुम कह सकते हो कि नाटक के जीवाणु मेरे लेखकीय रक्त में हैं।
लालित्य ललित: आपको अनेक पुरस्कार/सम्मान मिल चुके हैं। कुछ पुरस्कार समितियों के निर्णय में भी आपका योगदान रहता है। ऐसे में क्या सिफारिशें आती हैं?निर्णय लेते समय आप उनको ध्यान में रखते हैं क्या? वर्तमान स्थिति के बारे में आपको क्या कहना है।
प्रेम जनमेजयः साहित्यिक पुरस्कार या सम्मान का सवाल अनेक विसंगतियों से युक्त है। जैसा कि मैंने कमला गोइंका सम्मान ग्रहण करते हुए कहा था कि यह एक प्रकार का लाक्षाग्रह है जिसमें से किसी लेखक को कोई और कृष्ण नहीं निकाल सकता है, लेखक को अपना कृष्ण स्वयं बनना पड़ता है।सम्मान या पुरस्कार आजकल सम्मान की कम जुगाड़ की वस्तु अधिक बन गए हैं। इनमें नीति कम रणनीति अधिक चलती है। इस विषय पर मैंनें एक व्यंग्य भी लिखा है,पुरस्कारम् देहि। उसमें मैंनें पुरस्कारों की व्याख्या इस प्रकार की है-सम्मान तीन प्रकार के होते हैं, तयशुदा सम्मान, व्ययशुदा, वाणिज्यशुदा सम्मान। समिति में जब - जब आपका तयशुदा आदमी तय करने की स्थिति में होगा तो वह तय आदमियों के लिये ही पुरस्कार तय करेगा। व्ययशुदा में सम्मान - समिति के सम्मान में व्यय करना होता है। ऐसे में अक्सर व्यय राशि सम्मान राशि से अधिक ही होती है। वाण्जियशुदा सम्मान में जब आप समिति में होते हैं तो सम्मान / पुरस्कार देकर गौरवान्वित हैं और जब स्वयं लेना हो तो समिति से बाहर होकर सम्मान/ पुरस्कार ग्रहण कर गौरवान्वित होते हैें। इस प्रकार के सम्मान में आप अपनी संस्था से सम्मान दिलावाते हैं और दूसरे की संस्था से सम्मान ग्रहण करते हैं। यह लिफाफेबाज जैसे कवि के नीति वाक्य- सा है -- तूं मुझे बुला, मैं तुझे बुलाउं। लिफाफा तूं कमा, लिफाफा मैं कमाउं।
’पुरस्कार या सम्मान वही शुद्ध है जिसकी विश्वसनीयता है। वैसे, पुरस्कार आपको मिल जाए तो योग्यता के आधार पर मिलता और दूसरे को मिले तो जुगाड़ होता है।
लालित्य ललित: व्यंग्य लेखन मे महिलाएं क्यों नहीं आना चाहती हैं?
प्रेम जनमेजयःव्ंयग्य में महिलाओं का प्रवेश निषेध नहीं है ओर न ही यहां कोई आरक्षण की व्यवस्था है। हो सकता है व्यंग्य की प्रकृति को अधिकांश अपने अनुकूल नहीं पाती हों। पर सूर्यबाला,मृदुला गर्ग, अलका पाठक और इससे पूर्व शांति मेहरोत्रा जैसे अच्छे नाम तो हैं ही।
लालित्य ललित: व्यंग्य की वर्तमान स्थिति और उसके भविष्य के बारे में आप क्या कहना चाहोगे?
प्रेम जनमेजयःव्यंग्य एक अराजक स्थिति में है। व्यंग्य की बढती लोकप्रियता ने इसे बहुत हानि पहुंचाई, विशेषकर अखबारों में प्रकाशित होने वाले स्तम्भों नें नई पीढी को बहुत दिगभ्रमित किया है। आज सात आठ सौ शब्दों की सीमा में लिखी जानी वाली अखबारी टिप्पणियों को ही व्यंग्य रचना मानने का आग्रह किया जाता है। क्षेत्रीय अखबारों में स्तम्भ लिखने वाले नए रचनाकार अपनी कमीज का कालर उठाए, व्यंग्यकार का तमगा लगाए घूमते हैं तथा आग्रह करतें हैं कि उनकी अखबारी टिप्पणियों के कारण उन्हें व्यंग्यकारों की जमात में शामिल कर ही लिया जाए। स्वयं को व्यंग्यकारों की जमात में जल्द से जल्द शामिल करवाने की लालसा तथा एक आध अखबारी कॉलम हथियाने का जुगाड़, दिशाहीन व्यंग्य को जन्म दे रहा है।
आजकल व्यंग्य लेखन फैशन में है और जो वस्तु फैशन में होती है उसको चलने दिया जाता है। ऐसे में संत लोग सार- सार गहि के थोथा उड़ाते रहते हैं। आजकल लोग बहुत चतुर और सयाने हो चुके हैं, वे उपभोक्तावादी समाज में पल- बढ़ रहे हैं, अतः लुभावने विज्ञापनों का आनंद तो उठाते हैं पर उनके बहकावे में कम आते हैं, ये दीगर बात है कि बच्चे आ जातें हैं, पर बच्चे तो बच्चे ही कहलातें हैं। जब किसी वस्तु की मात्रा में वृद्धि होती है तो उसकी गुणवत्ता में गिरावट आना स्वाभाविक है और उपभोक्तवादी समाज में वही टिकता है जो गुणवत्ता का ध्यान रखता है। इस दृष्टि किसी भी ‘ब्रै्रंड’ के प्रोमोशन में चाहे कितने ही विज्ञापननुमा दावे कर लिए जाएं, चाहे कितने ही शुभकामना संदेश प्रसारित कर दिए जाएं, अधिक देर टिकेगा वही जिसमें गुणवत्ता होगी।
साहित्य के मार्ग में शार्ट कट नहीं होते हैं और जो शार्ट कट तलाशते हैं वे मात्र आड़ी तिरछी पगडंडियों पर भटकते हुए राजमार्ग पर चलने का भ्रम पालते हैं। साहित्य का मार्ग पत्थरीला, कंटीला एवं लम्बे संघर्ष से युक्त है। इस मार्ग पर अनेक पड़ाव आते हैं और उन पड़ावों को पार करने के पश्चात् भी रचनाकार निश्चित तौर पर नहीं कह सकता कि उसने लक्ष्य को पा लिया है।
मैं कोई साहित्यिक ज्योतिषि नहीं हो जो आपको ज्योतिष लगाकर व्यंग्य के भविष्य का पता लगा दे। मैं तो इतना जानता हूं कि इसका अतीत बहुत ही सशक्त रहा है और वर्तमान प्रगतिशील है। हर युग का कूडा़ छनता है। परसाई,जोशी,त्यागी और शुक्ल के समय और भी व्यंग्यकार लिख रहे थे पर उनकी चर्चा अधिक नहीं होती है। कुछ लोगों को समय छांटता है और कुछ को साम्प्रदायिक आलोचक भी छांटते हैं। अब आप जानते ही हैं कि एक साहित्यिक सम्प्रदाय के लोग मुक्त कंठ से परसाई की प्रशंसा करते हैं,चलते-चलते श्रीलाल जी का नाम लेते हैं पर रवीन्द्रनाथ त्यागी या शरद जोशी चर्चा करते हुए उन्हें कब्ज हो जाती है। परसाई के अतिरिक्त और किसी का नाम लेने में उन्हें ‘संकोच’, जैसा संकोच एक पतिव्रता नारी को होता है, वैसा कुछ होता है। व्यंग्य का वर्तमान बताता है कि व्यंग्य का भविष्य अच्छा है। मेरा लक्ष्य केवल वर्तमान को अपनी अल्पबुद्धि को प्रयोग कर सुंदर भविष्य की ओर भेजने का प्रयत्न करना है।
लालित्य ललित: लेखन में आपकी पत्नी का क्या सक्रिय सहयोग रहता है?
प्रेम जनमेजयः बहुत सक्रिय सहयोग रहता है। लिखने और न लिखने में पत्नियों का अमूल्य योगदान है। पत्नी का सहयोग दोनो तरह से मिलता है लेखक को। वह सहयोग न दे तब भी लेखक असहयोग आंदोलन की प्रक्रिया में लार्भािन्वत होता है और उसे बाहर से ‘प्रेरणाएं ’मिल जाती हैं। अब लेखक को अपने पीछेे नारी तो चाहिए ही नं क्योंकि संतो ने कहा है कि हर कामयाब व्यक्ति के पीछे एक औरत होती है।
खैर मुझे संतोष है कि मुझे आशा सहयोगिनी के रूप में मिली। उसका हर पल पर सहयोग मिलता है। मुझे साहित्यिक मित्रों को घर पर बुलाना, छोटी-छोटी मिलन गोष्ठी करना अच्छा लगता है। मुझे अच्छा लगता है और आशा मेरे उस अच्छे का सम्मान करती है, पूरा सहयोग देती है।
लालित्य ललित: कुछ लेखक भारत में ही प्रतिष्ठा हासिल कर चुके थे। उस समय वे भारतीय लेखक कहलाते थे। विदेशों में जाकर बसते ही वे प्रवासी कहे जाने लगे। ऐसा क्यों?
प्रेम जनमेजयः हिंदी साहित्य में आलोचकों ने अपनी सुविधा और अपनी विशिष्ट ‘खोज’ स्थापित करने के लिए अनेक खाने बना दिए हैं। किसी खाने में नारी विमर्श फिट है, किसी में दलित साहित्य और किसी में प्रवासी साहित्य। आपने सही कहा है कि भारत में रहने वाला लेखक विदेश में जाते ही प्रवासी रचनाकार कैसे हो जाता है। ललित जी, विसंगति तो यह है कि जो रचनाएं उसने भारत में रची होती हैं उनपर भी प्रवासी साहित्य का बिल्ला लग जाता है। रचनाकार के द्वारा रचित साहित्य तो वही है, विदेश जाते ही क्या उसका धर्म परिवर्तन हो जाता है? जैसा कि मैंनें पहले भी कहा कि मेरे लिए बेहतर रचना बेहतर है। अब वो प्रवासी ने लिखी हो या फिर अप्रवासी ने। साहित्य तात्कालिक मूल्यांकन की वस्तु नहीं है, बरसों बाद हम कबीर की रचनात्मकता की ही प्रशंसा करते है। कुछ लोग हर जगह आरक्षण की चाह में दिखाई देते हैं, ऐसे ही कुछ रचनाकार है जो अच्छा साहित्य तो न लिख सके पर अच्छा साहित्यकार कहलवाये जाने के लिए आरक्षण की मांग करते हैं। इस विषय पर मैंनें एक व्यंग्य लिखा था, ‘प्रवासी से प्रेम’ जिसमें मैंनें एक स्थान पर लिखा-
‘‘एक समय था जब विदेशी विद्वानों के मुँह से हिन्दी सुनकर हम भक्ति भाव से भर जाते थे। विदेशी विद्वान क्या बोल रहे हैं और क्यों बोल रहें हैं, इस ओर हिन्दी के भक्तों का ध्यान नहीं जाता था, बस उनके मुखारबिंद से हिन्दी सुनकर ही मन गुदगदाए जाता था। जैसे माँ अपने बच्चे का तुतलाना सुनकर ही मरी जाती है वैसे ही गोरी हिन्दी के उस युग में हिन्दी की अनेक माएँ न्योछावर हो गईं। उन माओं का बलिदान भी व्यर्थ नहीं गया, सात समुंदर पार तक हिंदी की सेवा का सुनहरा अवसर मिला। गोरी हिन्दी को देखकर लगता था कि हमारी भाषा कितनी समृद्ध है। ये दीगर बात है कि इस प्रक्रिया में गोरी हिन्दी के भक्त तो समृद्ध हो गए पर भाषा विपन्न ही रही। इस विपन्न भाषा का उत्थान करने वाले कहॉं के कहॉं पहुंच गए और भाषा वहीं की वहीं कदमताल करती कहॉं की कहॉं रह गई।
आज समय बदल रहा है। अनेक मामलों में हम आत्मनिर्भर हो गए हैं। जबसे हमारे प्रवासी भारतीय भाई समृद्ध हुए हैं तथा इस कारण उनका साहित्य भी समृद्ध हुआ है तबसे हमने विदेशी विद्वानों की ओर ताकना काफी कम कर दिया है। प्रवासी साहित्यकारों के आने से हिन्दी भाषा और साहित्य में वसंत छा गया है। विदेश भ्रमण की कोयल कूकने लगी है तथा अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों तथा सम्मेलनों कें भंवरे गुनगुनाने लगे हैं। हिंदी की गूंज पूरे विश्व में सुनाई देने लगी है। यह दीगर बात है कि उस गूंज की प्रतिध्वनि भारत में अंग्रेजी के रूप में सुनाई देती है।
अपने सामने प्रवासी साहित्यकार को पाकर मैंनें वंदना आरम्भ की --- हे चतुर्भुजी प्रवासी साहित्यकार, तुझे बार -बार प्रणाम है ! एक बार प्रणाम करने से किसी के सर में कितनी भी जूं हो वह कान के पास तक नहीं रेंगती है। हे चतुरंगी तेरे एक हाथ में सेवार्थ डॉलर / पाउंड है, दूसरे हाथ में विदेश बुलाने का लुभावना मृगतृष्णामय निमंत्राण है, तीसरे में प्रकाशकों के लिए पंाडुलिपियॉं तथा चौथा हाथ यह बताने के लिये खाली है, कि हे मूर्ख तूं मुझसे क्या ले जायेगा !तेरे इस चतुर्भुज रूप का ध्यान कर ही तेरे भक्त तेरी पूजा अर्चना के लिए नित नए नए स्वांग रचते हैं। तेरी एक मनमोहक मुस्कान पाने को हिंदी साहित्य के देवता तरसते हैं और जब तूं वो मुस्कान बिखेर देता है तो तेरे लेखन पर फूलों की वर्षा करते हैं। तूं कुछ भी लिख दे प्रकाशक के लिए वह अमूल्य है क्योंकि उसका मूल्य उसे डॉलरो और पाउंड में मिलता है। तूं इतना त्यागमय है कि प्रकाशकों से रॉयल्टी तक नहीं लेता है अपितु हिंदी साहित्य की दशा सुधारने के लिए तूं प्रकाशकों को रॅायल्टी तक देने की क्षमता रखता है। ’’
लालित्य ललित: लेखन आपकी पहचान है या जरूरत?
प्रेम जनमेजयः लेखन आत्मअभिव्यक्ति की मेरी विवशता है। लेखक भौतिक दृष्टि से बहुत ही कमजोर इंसान होता है। बहुत कम लेखक होगें जो व्यवस्था का विरोध करते हों और व्यवस्था उनपर अत्याचार करे तो वे अपना विरोध अपनी कलम की ही तरह सशरीर तीव्र रख सकें। दंात किटकिटाते हुए, आंखें लाल किए, दुश्मन के दांत खट्टे करने वाले रचनाकार के, हो सकता है उसी ताकतवर दुश्मन को सामने देख समस्त अंग कांपने लगें। पर उसकी कलम में विरोध का स्वर अनेक सशक्त लोगों को विरोध का संस्कार दे सकता है, लड़ने को प्रेरित कर सकता है।
लेखन मेरी दिनचर्या का हिस्सा हो गया है। जैसे बिन खाए मन भटका-भटका रहता है, बिन सोए तबीयत गड़बड़ा जाती है, बिन नहाए शरीर बेचैन हो जाता है और बिना पानी के सब सून लगने लगता है वैसे ही बिना लिखे अपना जीवन निरर्थक लगने लगता है। स्वस्थ एवं लम्बे जीवन के लिए जैसे आपकी दैनिक आवश्यक्ताएं आवश्यक हैं वैसे ही मेरे लिए लेखन भी आवश्यक है। बिन सोए मेरा काम चल सकता है पर यदि रचना दिमाग में अपना खाका बना रही है तो उसे लिखे बिना नींद नहीं आएगी।
आज का समय विसंगतियों से भरा हुआ है और चकाचौंध में सामाजिक सरोकार तथा मानवीय मूल्य धुंधलाते जा रहे हैं। अस्मिता पर लुके छिपे हमले हो रहे हैं। ये सब ईमानदार मस्तिष्क पर निरंतर अपने प्रभाव छोड़ते रहते हैं। आपका अवचेतन कभी भी नहीं सोता है, ये दीगर बात है कि कुछ महानुभाव उसके जागरण को महत्व ही नहीं देते हैं। पर लेखक - कर्म अपनाते ही आप अपने अवचेतन की सक्रियता को उपेक्षित नहीं कर सकते। लेखन-कर्म को ईमानदारी से अपनाते ही आप अति - संवेदनशीलता के ‘रोगी’ हो जाते हैं। वैसे हसे इस प्रकार कहना अधिक उचित होगा कि अधिक संवेदनशील होने के कारण आपको लेखन का रोग लगता है। जिस बात को लोग हवा में उड़ा देते हैं आप उसे हवा में उछल-उछल कर पकड़ते हैं। आम आदमी अपने चैन का मार्ग ढूंढता है और ये लेखक नामक ‘अव्यवहारिक’ जीव स्वयं तो बेचैन होता है दूसरों को भी करता है। कुछ जब पायजामा पहने टी वी के चेनल बदलने में संलग्न होते हैं या फिर अच्छी दावत में डूबे होते हैं, लेखक नामका जीव अपने को चिंतित किए रहता है। मैं भी ऐसा ही ‘अव्यवहारिक’ जीव हूं। पत्नी अनेक बार कांतासम्मित उपदेश चुकी है कि संसार तो ऐसे ही चलेगा, तुम क्यों अपने जान हलकान करते हो। पर यहां आलम ये है कि समाज में घटित किसी विसंगति को देख-पढ़ सुनकर ‘नींद क्यों रात भर आती नहीं’ के सवाल पत्नी को घेरने लगते हैं। कोई विचार जब कौंधता है तो जब तक वो आकार नहीं ले लेता मन बेचैन रहता है और उसकी बेचैनी देख पत्नी बेचैन रहती है।
लालित्य ललित: व्यंग्य-लेखन पर उसकी दशा पर क्या कहेंगे ?
प्रेम जनमेजय: व्यंग्य की क्या कहें, पूरे हिंदी साहित्य की दिशा ही सही नहीं है। मूल्यांकन का आधार कृति कम कृतिकार अधिक है। एक सांप्रदायिकता व्याप्त हो गई है आलोचना के क्षेत्र में। अपने-अपने गढ़ और मठ बन गए हैं।एक समय था हिंदी साहित्य की राजधानी इलाहबाद हुआ करता था। जबसे संतों को सीकरी में इंटरेस्ट आने लगा और उन्हें वहां से पर्याप्त ‘इंटरेस्ट’ मिलने लगा सारी मक्खियां इसी गुड़ के इर्द-गिर्द मंडराने लगीं। बहुत पहले मैंने ‘व्यंग्य यात्रा’ का एक अंक निकाला था- ‘साहित्यकार की नैतिकता’ पर केंद्रित। इस अंक के संपादकीय में मैंने लिखा था- आधुनिक संत कहीं कीचड़ में कमल की तरह हैं, कहीं इंद्रधनुष में सफेद खद्दर हैं और कहीं लाली मेरे लाल की की तरह हर दिखने वाले स्थान में लाल हैं और ये दीगर बात है कि खून सफेद है। अनेक कलाओं में पारंगत ये संत जानते हैं कि काजर कोठरी में रहते हुए भी श्वेत रहने का कैसे अभिनय किया जा सकता है। ये जानते हैं कि श्वेत बगुला होते हुए भी कैसे हंसध्वनि की जा सकती है।’ तुम तो जानते हो कि भाईगिरी क्या होती है। साहित्य में भी भाईगिरी चल निकली है। किसी की सुपारी लेना या किसी को मुख्यधारा का प्रोटेक्शन देने का धंधा भी चल रहा है। दिल्ली में मेरे एक मित्र हैं जो रंगमंच से जुड़े हैं और उन्होंने बताया कि हिंदी साहित्य में अकादमिक कॉल गर्ल्स का रैकेट चलता है।
सार्थक व्यंग्य का राजमार्ग परसाई जोशी, शुक्ल और त्यागी ने स्वतंत्र मार्ग, स्वतंत्र भारत मेें तैयार किया और जिसमें नागार्जुन,भारती, नामवर सिंह, कमलेश्वर, महीप सिंह, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, अज्ञेय आदि उत्प्रेरक की भमिका निभाई एवं जिसे शंकर पुणतांबेकर, लतीफ घोंघी,लक्ष्मीकांत वैष्णव, हरि जोशी नरेंद्र कोहली, विनोद शंकर शुक्ल, श्यामसुंदर घोष आदि ने सहयोग दिया। जो रास्ता परसाई और जोशी ने तैयार किया था, उस रास्ते पर कई लोग जा रहे हैं और बढ़े जा रहे हें। व्यंग्य पहले से बहुत ज्यादा पढ़ा जा रहा है। शिल्प की दृष्टि से इसका विकास हुआ है पर उसे संतोषजनक नहीं कहा जा सकता।
लालित्य ललित: लेखन में भ्रमण-यात्राएं कहीं बाधा तो नहीं करतीं ?
प्रेम जनमेजय: भ्रमण मेरी रुचि है। साहित्यिक गोष्ठियों में जाता हूं। वहां अनेक सहयात्रियों से मिलने का सुख उठाता हूं। अब, आने-जाने मूल्य तो चुकाना ही पड़ता है।
लालित्य ललित: आप कॉलेज में पढ़ाते हैं,पत्रिका का संपादन कर रहे हैं, अपने परिवार को पूरा समय देते हैं, विशेषकर अपने पोतों को और आपके साहित्यिक असाहित्यिक दोस्तों की एकलंबी सूची है जिनके साथ आप अक्सर शाम को ही मिलते हैं।आपकी दिनचर्या क्या रहती है और इस सबमंे लेखन ?
प्रेम जनमेजय: तुम भी कम व्यस्त नहीं हो और युवा उर्जा के चलते मुझसे अधिक व्यस्त हो। तुम भी तो परिवार, सगे संबंधियों, साहित्यिक यात्राओं के लिए समय निकालते हो ! ये बात सही है कि मेरी एक नहीं अनेक प्राथमिकताएं है। व्याकरण की दृष्टि से यह गलत है क्योंकि प्राथमिकतातो एक ही होगी। ये कबीर की तरह की उलटबांसी है। मेरी प्राथमिकताएं समायनुसार अपना रूप बदलती रहती हैं। निर्भर करता है कि किसका दबाव अधिक है। यह बात सही है कि मेरे जितने साहित्यिक मित्र हैं उतने ही, या उससे ज्यादा, गैर साहित्यिक मित्र हैं। ये भी सही है कि मैं परिवार के साथ जब दिल्ली से बाहर जाता हूं तो किसी साहित्यिक को इसकी सूचना इस भय से नहीं देता हूं कि कहीं गोष्ठी न तय हो जाए और परिवार इसका दंड भुगते। मैं एक बार सपरिवार उदयपुर गया था और स्थानीय वाहन की व्यवस्था के लिए मैंने अपने एक साहित्यिक मित्र से संपर्क किया। उसने अवसर का लाभ उठाते हुए गोष्ठी आयोजित कर ली। जिस समय वो लेने आए उस समय मैं अपने पोते रुचिर ओर हिमांक के साथ खेल में व्यस्त था। दोनो खेल में मुझसे जीत रहे थे। उनके आने पर जब मैं गोष्ठी के लिए जाने लगा तो मेरे पोते रुचिर ने कहा - दादू, ये क्या बात है, आ जहां भी जाते हैं गोष्ठी हो जाती हैं। तब से मैं कुछ सावधान हो गया और अपनी प्राथमिकता बदली।
लालित्य ललित: आपका लक्ष्य क्या है ?
प्रेम जनमेजय: एक अच्छा व्यक्ति बने रहना और दूसरों को प्रेरित करना साहित्य का बहुत शुक्रगुजार हूं। इसने अनेक संबंध दिए। एक बहुत बड़ा परिवार दिया।
लालित्य ललित: व्यंग्य को एक विधा के रूप में कब से मान्यता मिली है ? क्या इससे यह वास्तव में एक अलग विधा के रूप में सशक्त है ?
प्रेम जनमेजय: मैंनें एक स्थान पर अभी लिखा है कि व्यंग्य विधा का प्रश्न भारत और पाकिस्तान के बीच काश्मीर मुद्दे जैसा हो गया है। पाकिस्तान सबकुछ स्वीकार कर लेगा पर उसे भारत का हिस्सा नहीं मानेगा। हमारे कुछ मित्र स्वयं को व्यंग्यकार कहलवा लेंगें, व्यंग्य रचनाओं के शीर्षक से अपना संकलन भी प्रकाशित करवा लेंगें, व्यंग्य के बारे में अपने विचार भी व्यक्त करेंगें पर उसके स्वतंत्र अस्तित्व का सवाल आते ही बिदक जाते हैं। हरिशंकर परसाई ने अपने समय की साहित्यिक परिस्थितियों तथा व्यंग्य के तत्कालीन हिंदी व्यंग्य की सीमाओं को देखते हुए उसे विधा नहीं स्पिरिट कह दिया तो आज तक वही ‘राग स्पिरिट’ गाया जा रहा है। जब इस विषय पर दो समांतर चलने वाले तय हो चुके हैं और एक छोर तो अंधविश्वास की हद तक रोगग्रस्त हैं, ऐसे में इस विषय पर बात करना बेमानी हो जाता है। जैसे आप पुलिस वाले को कितने ही सबूत दिखा दें पर यदि उसने मॉं लक्ष्मी की कृपास्वरूप कोई मामला तय कर लिया है तो उसमें कोई बदलाव आने वाला नहीं है। सुप्रीम कोर्ट तक वही ‘सच’ जाएगा। व्यंग्य विधा जैसा प्रश्न बहुत घिस चुका है और अपनी चमक ही नहीं पहचान भी खोने लगा है। अब यह सवाल ऐसा लगता है जैसे आपके पास व्यंग्य आलोचना में बहस के लिए और कोई मुद्दे नहीं हैं, सो आप इसे ही घिसे जा रहे हैं। इसे बंद कर दिया जाना चाहिए। आपने प्रश्न किया है- क्या विधा के लिए जिस शास्त्र और ढांचे की आवश्यकता होती है वह व्यंग्य लेखन के पास है? इस पर बहस की आवश्यक्ता है। व्यंग्य के औजारों की पहचान की आवश्यक्ता है। व्यंग्य लेखन अलग पहचान लिए कैसे है इसपर चर्चा की आवश्यक्ता है। इन्हीं सब सवालों पर बहस के लिए ही तो ‘व्यंग्य यात्रा’ का जन्म हुआ है। ंऔर यह सब व्यंग्य आलोचना के विभिन्न मुद्दों पर बात करने से होगा। श्रीलाल शुक्ल पर केंद्रित अंक में मैंनें बातचीत के आधार पर नित्यानंद तिवारी जी से एक आलेख लिखवाया। उसमें उन्होंने कहा- मैं व्यंग्य या अतिरंजना को यथार्थ उभारने का एक ‘टूल’ नहीं मानता हँू बल्कि ये एक ऐसा मॉडल है जो पूरे इस दौर को परिभाषित कर सकता है।’ आपको याद होगा कि नित्यानंद जी ने ‘राग दरबारी’ के प्रकाशन पर अपने आलोचनात्मक लेख में इसे घटनाओं का जंजाल कहकर इसकी कटु आलोचना की थी। वही प्रो0 नित्यानंद तिवारी अनेक वर्षों बाद जब पुनः इस कृति की आलोचना करते हैं तो उसे ‘मैला आंचल’ से भी श्रेष्ठ कृति मानते हैं। यह सिद्ध करता है कि व्यंग्य रचना को यदि आप उसके टूल पर नहीं कसेंगें तो उससे न्याय नहीं कर सकेंगें। आज आवश्यक्ता है, ऐसे ही टूल के खोज की। नित्यांनंद तिवारी जी ने एक स्वागतयोग्य शुरुआत की है, आवश्यक्ता है इसे आगे बढ़ाने की।
ऐसा नहीं है कि केवल हिंदी में ही व्यंग्य को अपने स्वतंत्र अस्तित्व को मान्यता के लिए संघर्ष करना पड़ा हो। पाश्चात्य साहित्य में भी व्यंग्य को बीसवीं शताब्दी में अलग पहचान मिल सकी, इससे पूर्व व्यंग्य की व्युत्पति, उद्देश्य ओर सामाजिकता पर चर्चाएं हुईं और ये चर्चाए स्वयं लेखकों ने कीं परंतु व्यंग्य को अपेक्षा कायदी की चर्चा पर ही अधिक ध्यान दिया गया। व्यंग्य को कामदी के व्यापक अर्थ में मिला दिया गया।
व्यंग्य शैली नहीं है और न ही लेखन पद्धति है अपितु एक साहित्यिक प्रक्रिया है तथा लेखन की एक व्यवस्था है।
व्यंग्य के अपने अलग प्रतिमान हैं, आवश्यकता है सही दृष्टिकोण से उसे परखने की। जो दृष्टि व्यंग्य में एकसूत्रता तलाशती है वह उसे व्यंग्य-कथा के चश्मे से देखने पर मिलती है और जो दृष्टि उसमें आदि, मध्य और अंत को तलाशती है वह निबंध को संज्ञा में डालती है। परंतु व्यंग्य केवल व्यंग्य है, वह कहानी या निबंध का हिस्सेदार नहीं।
लालित्य ललित: क्या आपने अपने लेखन की शुरुआत व्यंग्य से ही की था ? व्यंग्य में लिखना साधारण लिखने से किस रूप में अलग है ? व्यंग्य के तहत कैसी रचनात्मक अनुभूति होती है ?
प्रेम जनमेजय: मैंने अपने लेखन की शुरुआत व्यंग्य से ही की, ऐसा कहना ही उचित होगा। वैसे तो प्रत्येक रचनाकार आरंभिक अवस्था में ही कवि ही होता है। प्रेमप्रकाश निर्मल के नाम से आरंभ में मेरी कुछ कविताएं प्रकाशित हुई शताब्दी, खिलते फूल, कहानीकार में कुछ कहानियां छपीं। प्रेम जनमेजय के नाम से मेरे व्यंग्य पहले ‘माधुरी’ में और फिर ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित होने आरंभ हुए।
किसी विधा में लिखना किसी अन्य विधा की अपेक्षा भिन्न नहीं हो सकता। मेरे विचार से विषय की मांग और रचनाकार का व्यक्तित्व विधा को तय करते हैं। रचना की सृजन प्रक्रिया एक है, उसकी सृजनात्मक पीड़ा जो सुख में परिणत होती हैं, एक ही है। हां, व्यंग्य-लेखन के लिए एक भिन्न दृष्टिकोण की आवश्यकता है। रचनाकार समाज में व्याप्त विसंगतियों पर ही अपनी नजर रखता है। उसका लक्ष्य प्रहार होता है। व्यंग्यकार समाज में व्याप्त विसंगतियों को देखकर क्षुब्ध होता है तथा अपने आक्रोश को पाठक तक संप्रेषित कर उसे प्रहार के लिए उत्तेजित करता है। व्यंग्यकार प्रेम गीत नहीं लिखता है।
लालित्य ललित: अक्सर लोग मानते हैं कि साहित्य की दूसरी विधाओं के साथ व्यंग्य बहुचर्चित नहीं होता, क्यों इसमें लिखने वालों की कमी है या लिखना नहीं बन पाता ?
प्रेम जनमेजय: मैं तुम्हारी इस बात से सहमत नहीं हूं। स्वतंत्रता के पश्चात व्यंग्य अत्याधिक लोकप्रिय एवं पठनीय विधा है। विधा की बढ़ती लोकप्रियता ने उसे लुभावना बना दिया है, उसमें प्रदूषण के खतरे बढ़ गये हैं। प्रत्येक दुर्घटना को व्यंग्य के चश्मे से देखने की प्रवृत्ति बन गयी है। आज व्यंग्य लिखने वालों की कमी नहीं है। हां अच्छा और सार्थक व्यंग्य लिखने वालों की कमी अवश्य दिखाई दे रही है। विषयों में नवीनता नहीं है, अधिकांश व्यंग्यकार अपने पूर्ववर्ती रचनाकारों की नकल कर रहे हैं।
व्यंग्य लिखना बहुत दुष्कर कार्य है। इसमें नितांत सावधानी की आवश्यकता है। व्यंग्य की अपनी अनिवार्य आवश्यकताएं हैं। केवल सतह पर बैठकर कुछ व्यंग्यात्मक फिकरे कस देने से स्तरीय व्यंग्य नहीं लिखा जा सकता है, उसके लिए सही सोच दिशायुक्त चिंतन की आवश्यकता है।
लालित्य ललित: एक व्यंग्यकार के रूप मंे आपकी अपनी निजी मान्यताएं क्या है ?
प्रेम जनमेजय: अब तक मैंने जो कहा, उसे मेरे विचार ही मान सकते हैं। मैं व्यंग्य को एक गंभीर विधा मानक हास्य को उसकी बैसाखी बनाने का पक्षधर नहीं हूं। मेरे विचार से व्यंग्य आलोचना पक्ष पर गंभीर चिंतन नहीं किया गया है, आवश्यकता है व्यंग्य के सही स्वरूप-निर्धारण की। व्यंग्य की प्रवृत्ति और चरित्र का सूक्ष्मता एवं गंभीरता से अध्ययन किया जाए तथा उस पर चलताऊ सतही फिकरेबाजी से बचा जाए।
लालित्य ललित: परसाई तथा शरद जोशी ने अपने व्यंग्य स्तंभों के माध्यम से व्यंग्य को लोकप्रियता दी, उससे क्या आपको नहीं लगता है कि खतरे बड़े हैं ? क्या व्यंग्य अखबारी कॉलमों में सिमटकर रह गया है।
प्रेम जनमेजय: व्यंग्य की बढ़ती लोकप्रियता ने उसे बहुत हानि पहुंचाई है, विशेषकर अखबारों में प्रकाशित होने वाले स्तंभों ने नई पीढ़ी को बहुत दिग्भ्रमित किया है। आज सात-आठ सौ शब्दों की सीमा में लिखी जाने वाली अखबारी टिप्पणियों को ही व्यंग्य रचना मानने का आग्रह किया जाता है। क्षेत्रीय अखबारों में स्तंभ लिखने वाले नए रचनाकार, अपनी कमीज का कॉलर उठाए, व्यंग्यकार का तमगा लगाए घूमते हैं तथा आग्रह करते हैं कि उनकी अखबारी टिप्पणियों के कारण उन्हें व्यंग्यकारों की जमात में शामिल कर लिया जाए। पनपती हुई शार्टकट संस्कृति के कारण जैसे-तैसे व्यंग्यकार को मोहर लगवाने की एक बहुत बड़ी लालसा पलती रहती है। यहां लेखन में श्रम के स्थान पर उसके छपने पर अधिक श्रम किया जाता है, और इसके बार पुरस्कारों के जुगाड़ पर और अधिक श्रम किया जाता है। व्यंग्य जहां एक ओर लोकप्रिय हुआ है वहीं उसके खतरे भी बढ़े हैं। अखबारों के इन स्तंभों के कारण विषय भी सीमित हो गए हैं। ले-देकर सामयिक राजनीति ही व्यंग्य का लक्ष्य रह गयी है। सामयिक विषयों पर आधारित होने के कारण इन रचनाओं का प्रभाव भी क्षणिक होता हे। ऐसी रचनाएं लगभग उसी दिन के अखबार के साथ मर जाती हैं। अखबारी कॉलम में छपने वाली अधिकांश रचनाएं व्यंग्यात्मक टिप्पणियां होती हैं। इसमें गहन चिंतन कम है। व्यंग्य मूलतः एक सुशिखित मस्तिष्क के प्रयोजन की विधा है। इसके प्रयोग में बहुत ही सावधानी की आवश्यकता है। इसका लक्ष्य मात्र विसंगतियों का उद्घाटन करना ही नहीं है, अपितु उस पर प्रहार करना है। यहां सवाल उठता है कि इस प्रहार की प्रकृति क्या हो व्यंग्य अगर हथियार है तो इसके प्रयोग में सावधानी की आवश्यकता भी है। तलवार को लक्ष्यहीन हाथ में पकड़कर घुमाने से किसी का भी गला काटकर अराजक स्थिति पैदा कर सकता है तथा स्वयं की हत्या का कारण भी बन सकता है। आज हिंदी व्यंग्य में इस तरह का अराजक माहौल पनप रहा है। इससे व्यंग्य अपने लक्ष्य से भटक रहा है। जिस व्यंग्य को भौतिक तथा सामाजिक यथार्थ की गहराई से जुड़कर, पाठक की सही सामाजिक परिवर्तन की ओर अग्रसर करना चाहिए वही सस्ती लोकप्रियता के चक्कर में सतह पर ही घूम रहा है।
लालित्य ललित: प्रेम जनमेजय नाम कब पड़ा ? आपकी पहली रचना कब छपी और कब लिखी गई ?
प्रेम जनमेजय: नाम का किस्सा ऐसा रहा। रचनाओं के साथ उपनाम लगाकर बदलते रहे। ग्यारहवीं कक्षा में कहानी लिखी जो गाजियाबाद से प्रकाशित ‘खिलते फूल’ नामक पत्रिका छपी थी। ‘कल, आज और कल’ शीर्षक से अेर मेरा उपनाम था प्रेम प्रकाश ‘शैल ’। दिल्ली के मोतीलाल नेहरू कॉलेज में मैंने अपनी पढ़ाई की। वहां डॉ. नरेन्द्र कोहली से मुलाकात हुई। साहित्य-लेखन की ओर प्रेरित करने में नरेन्द्र कोहली की विशेष भूमिका है और उनका मैं आज भी सम्मान करता हूं। वहीं डॉ. महेन्द्र कुमार थे। उनसे मैं बड़ा प्रभावित हुआ। मैंने गणित ऑनर्स लिया था। उन्होंने मेरी कहानी देखकर कहा - तुम हिंदी ऑनर्स क्यों नहीं लेते ? मैंने कहा - मैंने तो हिंदी आठवीं तक ही पढ़ी है। उन्होंने कहा - मैंने बी.एस.-सी. के बाद एम.ए. हिंदी किया है। मुझे उनसे प्रेरणा मिली औरउसी समय मैंने प्रण किया कि मुझे गणित ऑनर्स नहीं पढ़ना। हिंदी ऑनर्स पढ़ना है। विशेष रूप से उस समय डॉ. नरेन्द्र कोहली से काफी सहयोग मिला और लेखन चल पड़ा। उस समय ‘माधुरी’ पत्रिका में संपादक, अरविन्द्र कुमार ने बहुत छापा। जनमेजय नाम रखने से पहले प्रेमप्रकाश निर्मल, प्रेम प्रकाश शैल रखा। मन में बहुत कुछ चल रहा था। तब मैंने परिक्षित कंुदरा भी रखने की सोची। प्रसाद मेरे प्रिय लेखक थे। उनका एक नाटक है, ‘जनमेजय का नागयज्ञ’ इसमे से जनमेजय नाम मुझे पसंद आया। और मैंने प्रेम जनमेजय नाम रख लिया।
लालित्य ललित: आप अपने पाठकों की प्रतिक्रियाओं को कैसे लेते हैं। उनकी चिट्ठियों का जवाब देते हैं।
प्रेम जनमेजय: अपने पाठकों से सवंाद लेखक की प्रथमिकता होनी चाहिए।मुझे अपने पाठक अच्छे लगते हैं। सबसे सही प्रतिक्रिया देने वाला आपका पाठक होता है। जिसका साहित्य और उसकी धाराओं से कुछ लेना-देना नहीं होता, वह आपकी रचना पढ़ेगा और बता देगा कि इसमें क्या है। इसलिए मेरे बहुत सारे मित्र असाहित्यिक किस्म के हैं। जब भी लिखता हूं उनसे चर्चा जरूर करता हूं। पाठकों की प्रतिक्रियाएं मुझे अच्छी लगती हैं। उनसे मैं बराबर पत्र-व्यवहार किया करता हूं। और कभी-कभी ‘व्यंग्य यात्रा’ समय अधिक लेती हो तो अनेक पत्र अनुत्तरित भी रह जाते हैं।
लालित्य ललित: क्या व्यंग्य का भविष्य सुरक्षित है, उसके बारे में क्या कहेंगे ?
प्रेम जनमेजय: बहुत सारे लोग लिख रहे हैं। अब तो बहुत लंबी फौज है। ‘बीसवीं शताब्दी का व्यंग्य’ संकलन की भूमिका में मैंने जिक्र भी किया है। नई कतार में व्यंग्यकारों की बाढ़ आयी हुई है। युवा सेाच वाले जिस विधा में अधिक आते हैं उसका भविष्य निश्चित ही उर्जावान एवं सुरक्षित होता है।
लालित्य ललित: अगर प्रेम जनमेजय, प्रेम न होते तो क्या होते ?
प्रेम जनमेजय: यह तो तुम्हारे जैसा कोई पंडित ही बता सकता है हाथ आदि देखकर। वो एक शेर है न कुछ ऐसा कि डुबेया मुझको होने ने... अभी मैं डूबने के मूड में नहीं हूं।
लालित्य ललित: अपने लगभग चार वर्ष तक त्रिनीडाड में वेस्ट इंडीज विश्वविद्यालय में अतिथि आचार्य के रूप में कार्य किया है। निश्चित ही आप जैसा सजग साहित्यकार वहां के व्यापक अनुभवों का खजाना लेकर आया होगा। संक्षेप में कैरेबियाई देशों में हिंदी के स्वरूप के बारे में कुछ कहें।
प्रेम जनमेजय: ललित, संतों का कहना है कि पहला प्यार, पहला भ्रष्टाचार पहली रचना, पहला पति-पत्नी, अर्थात तो भी पहला हो वह सदा याद रहता है। सन् 1999 से के आंरभ में मेरे जीवन में बहुत कुछ पहला-पहला घट गया। यह पहला अवसर था कि मैंने हजारों किलोमीटर की हवाई यात्रा की और पहली बार त्रिनीडाड पहुंच गया। यह पहला अवसर था कि मैं स्वदेश, स्वजन, स्वपत्नी, स्वमित्रों आदि ‘स्वों’ से दूर एक लंबे अंतराल के लिए भीड़ में भी अकेला रहने को विवश हुआ। ऐसी ‘पहली’ उर्वर-भूमि उपस्थित हो तो त्रिनीडाड क्या किसी भी देश से पहली नजर में प्यार होना स्वाभाविक ही है। प्रथम-प्रेम दृष्टि में ऐसी धुंध उत्पन्न करता है कि दूर दृष्टि धुंधला जाती है और सावन के अंधे सा व्यक्ति सब कुछ हरा ही देखता है।
त्रिनिदाद में हिंदी मात्र एक भाषा ही नहीं है अपितु अपनी अस्मिता की पहचान है, अपनी जड़ों से जुड़ने की लालसा है। हिंदी भाषा के प्रति अनन्य भूख है। ऐसे वहां ही केवल नहीं है। ऐसा लगभग फिजी, गुयाना, मॉरिशस, सुरीनाम आदि सब जगह है।