प्रेम त्रिकोण : गैर को चाहोगी तो मुश्किल होगी! / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :28 अप्रैल 2015
कथा फिल्में अपनी दूसरी सदी में हैं और गुजश्ता सदी में इसने कई संकट देखे हैं, विश्वयुद्ध झेले हैं, आतंकवाद निरंतर भुगत रही हैं और आर्थिक मंदी के दौर भी यह सहन कर गई हैं। विज्ञान एवं टेक्नोलॉजी के नित नए परिवर्तनों के अंधड़ों के दौर से भी सिनेमा बच निकला है, वरन् हर परिवर्तन का लाभ इसने लिया है। यह कितनी अजीब बात है कि शराब, सिनेमा व्यवसाय व इंसानी गाेश्त की मंडी पर किसी आपदा का खास असर नहीं होता, वरन् संकट काल में मनुष्य इनकी ओर अधिक अाकर्षित होता है। कुछ वर्ष पूर्व पश्चिम के सिनेमा विशेषज्ञों ने इसकी मृत्यु की आशंका जताई थी। उनका विचार था कि कम्प्यूटर जनित छवियों के कारण सितारे की आवश्यकता नहीं रहेगी, परंतु इस परिवर्तन ने सितारा छवि को मजबूत कर दिया है। अब कम्प्यूटर जनित छवियों का इस्तेमाल खतरनाक एक्शन दृश्यों में किया जाता है, परंतु सितारे के क्लोजअप आज भी चाहिए। अब सितारे की मांसपेशियों का गहरा अध्ययन करके उसके एक्शन दृश्यों को और रोमांचक बनाया जाता है। सभी सितारों को इस टेक्नोलॉजी का लाभ पहुंच रहा है।
कथा फिल्म इन तूफानों में बची रही, क्योंकि दर्शक का स्नेह उसे लगातार मिलता रहा। जब टेलीविजन पर फिल्म प्रसारण प्रारंभ हुआ तो सिनेमा उद्योग के लिए खतरा माना गया, परंतु सैटेलाइट अधिकार से प्राप्त धन से सिनेमा को लाभ हुआ। यह रकम इतनी बढ़ गई थी कि फिल्मकार को दर्शक की चिंता नहीं थी, परंतु सैटेलाइट अधिकार खरीदने वालों की एकता ने कीमतें घटा दी हैं और अब फिल्मकार को फिर दर्शक आधारित फिल्में रचना पड़ रही हैं। मसाला फिल्मों का सिनेमा के अर्थतंत्र पर गहरा असर है। एक मसाला फिल्म बनाकर आपको दो सार्थक फिल्में रचने के साधन मिल जाते हैं। भारत की अनेकता में एकता का भाव मसाला मनोरंजन ही मजबूत करता है कि एक ही दृश्य या गीत पर काश्मीर से कन्याकुमारी तक तालियां बजती हैं। सामूहिक अवचेतन को समझने में फिल्में बहुत सहायक हैं क्योंकि उसके आंकड़े उपलब्ध हैं। अच्छी कविता को सराहने वालों के आंकड़े कभी प्राप्त नहीं होते। राजनीतिक चुनाव से भी सामूहिक अवचेतन का ज्ञान प्राप्त होता है, परंतु चुनाव प्रक्रिया में हेराफेरी संभव है, जबकि आप फिल्म की आय के आंकड़ों से अधिक छेड़छाड़ नहीं कर सकते। दरअसल सरकारों और शोध संस्थानों ने सिनेमाघर में अभिव्यक्त प्रतिक्रिया के अध्ययन का प्रयास ही नहीं किया। भारतीय समाज और सिनेमा में बहुत विरोधाभास हैं, परंतु कबीर की उलटबांसियों की तरह इसे समझने से भारत को कुछ हद तक समझा जा सकता है।
बहरहाल, वर्तमान का भयावह संकट यह है कि सिनेमा के मेरूदंड दर्शक ने उससे मुंह फेर लिया है, जिसे हम प्रेमियों की तुनकमिजाजी मात्र कहकर टाल नहीं सकते। युवा वर्ग को हॉलीवुड रास आ गया है। ज्ञातव्य है कि हॉलीवुड ने यूरोप के छविग्रहों पर अधिकार करके वहां के सिनेमा को लगभग मार दिया है। हाॅलीवुड के अश्वमेघ के घोड़े को भारत के दर्शक ने रोक लिया था, परंतु वर्तमान में वह उसे पुष्पमाला डाल रहा है। भारत में मात्र 9 हजार एकल सिनेमा ने उसकी आय सीमित कर दी है और 30 हजार एकल सिनेमाघर की आवश्यकता के दौर में सैटेलाइट द्वारा ट्रांसमिशन के दाम एकल सिनेमा चुका नहीं पा रहा है, इसलिए उनकी संख्या घट रही है। मध्यप्रदेश, राजस्थान में विगत कुछ महीनों में दर्जनों एकल सिनेमाघर बंद हो चुके हैं।
कुछ दशक पूर्व ऐसा ही खतरा चीन के सामने आया था और उन्होंने 65 हजार सिनेमाघर बनाकर अपनी आय बढ़ा ली है। वे वर्ष में केवल 12 हॉलीवुड फिल्में और दो भारतीय फिल्मों के प्रदर्शन की आज्ञा देते हैं। भारतीय कथा फिल्मों को इस संकट से बचाने के लिए फिल्मकारों को अधिक सजग और मौलिक होना होगा तथा दर्शक का प्रेम पुन: प्राप्त करना होगा। दर्शक सिनेमा की प्रेम-कथा 102 वर्षों से जारी है और अब हॉलीवुड के कारण यह प्रेम तिकोन हो गया है। दर्शक ने देशी फूहड़ता को तज कर विदेशी फूहड़ता को सराहा है। बर्गर और कोला अकेले नहीं आते, उनके साथ जीवनशैली आती है। याद आती हैं साहिर की पंक्तियां "तुम अगर मुझको न चाहो तो कोई बात नहीं, तुम किसी गैर को चाहोगी तो मुश्किल होगी।'