प्रेम न बारी उपजे / तुषार कान्त उपाध्याय

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प्रेम न बारी उपजे प्रेम न हाट बिकाय, राजा परजा जिस रुचे, सर दे सो ले जाये।

प्रेम तो सृष्टि को बांधे रखने वाली अदृश्य सत्ता है। माँ, पिता, भाई, बंधू, समाज, देश, पशु पंक्षी, ये प्रेम ही तो जोड़ता है सबको। जीव तो जीव प्रेम तो निर्जीव से भी हो जाता है। और फिर सब उसपर न्योछावर।

परन्तु आज हम जिस प्रेम की बात कर रहे वह है स्त्री-पुरुष का सहज बंधन। उम्र, जाति, धर्म, काल सबसे निरपेक्ष है यह अनुभूति। किस उम्र में और किससे हो जाये यह तो नियंता ही जनता है और हो जाये तो कहा कोई बंधन रोक पाई है। सत्ता सर्वोच्च शिखर छोड़ आम आदमी की तरह जीवन जीना स्वीकार्य परन्तु उसके बिना नहीं जिससे नेह लगी। फिर कहा रोक पाती है कोई नदी, तूफ़ान, पहाड़, परिवार या समुदाय। कोई मोल नही। बस उत्सर्ग कर दो अपने को—सिर दे सो ले जाये।

और भोजपुरी भाषी समाज-मूलतः गांवो में बसता, घोर प्ररिश्रम के दम पर जीता अपने में मस्त रहने वाला। हाँ, रोजी रोटी की तलाश के बहरा (कलकत्ता, कुल्टी आसनसोल, धनबाद) की और रुख करता परन्तु जड़े वही गांव में ही। साल में लौटे या कई साल बाद। औपनिवेशिक सत्ता ने दूर देशों में भी स्थापित किया, पर मोह अभी छोटा नही।

विस्थापन जारी है पूरब के बहरा के बदले पश्चिम के समृद्ध प्रदेश में रोटी की तलाश।

भोजपुरी भाषी प्रदेश में प्रेम और उसकी अभिव्यक्ति हमेश मर्यादित रही है। यहाँ विवाह पूर्व प्रेम के आख्यान नहीं के बराबर मिलते हैं। प्रेम है पर वह पति-पत्नी का। । बहरा गए पति की विरह वेदना है।

मचिया बइठल गोरी रहिया निहारशु,
भुइया लोटेला लम्बी केश रे विदेशिया।

--भिखारी यह विदेशी हो गए पति के लिए विरह है। सौंदर्य प्रतिमान भी लम्बे केशो वाली पूरब की नायिका की तरह।

आधी आधी रतिया के बोले कोइलरिया
चिहुंकी उठे गोरिया, सेजरिया पर खाड़। ।

यह देवर-भौजाई और अन्य स्निग्ध रिश्तो में चुहल है पर मर्यादा के भीतर ।

एक बानगी देखिये-

महुआ बिनन नहीं जइबे हो रामा देवरा के संगिया। ।
एक हत्थे देवरा खाचिया उठावे, एक हाथे धरे ला जोबनवा हो रामा ।

लोक गीत हों या शादी विवाह के संस्कार, गीत, फाग हो या चैता, हर जगह प्रेम मतलब-राधा-कृष्णा, शिव-पारवती, राम-सीता का प्रेम ही मुखरित है।

अगर कबीर का अलौकिक प्रेम है तो आधुनिक कवियों में महेंदर मिश्र, भिखारी ठाकुर, रामेश्वर सिंह 'कश्यप' , गणेश दत्ता 'किरण' ,अशोक द्विवेदी, इंद्रा नारायण सिंह ' आसिफ रोहतास्वी" जैसे ह्रदय की के गुनगुनाहट को स्वर देने-देने वाले चितेरे।

भोजपुरी में प्रेम की अभिव्यक्ति का एक और रूप है—भोजपुरी फ़िल्मों और सस्ती तथा लोकप्रिय गीतों वाले गायको की दुनिया। । सिनेमा में जहा बिदेशिया, लागि नाही छोटे राम, गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो की दुनिया है तो वही समाज से कटी और स्खलित समसामयिक फ़िल्मो को दुनिया। कट्टा तनल दुपट्ठा पर और निरहुआ सीरीज की फ़िल्मे हो या 'बगल वाली जान मारेली' जैसे गीत। ये कही भी भोजपुरी समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करते हाँ, प्रदूषित अवश्य कर रहे है।

ऐसा नहीं विवाहेत्तर प्रेम की कथा भिखारी ने-गबरघिचोर-के माध्यम से नहीं कही। । या फिर गावों और कस्बाई शहरों में ये देखने को नहीं मिलता। ।यहाँ तो सगोत्रीय रिश्ते भी गावों की वीथियों में उपजते है और स्वतं: काल-कवलित होते है। वो अभिव्यक्ति नहीं पाते।

आज कथाओ, कहानियो और कविताओ में उत्कृष्ट सर्जन हो रहा है। और वह स्त्री-पुरुष के देह और मन को गए भी रहा है और उसका पाठक वर्ग भी है। परन्तु अंग्रेज़ी की तरह स्टेटस-सिम्बल नहीं होने के कारण न तो उसके लिए बाज़ार है और न ही उचित सम्मान। क्या आपने पढ़ा है कोई नव सृजित भोजपुरी रचना।