प्रेम पत्र के अवसान पर आंसू / जयप्रकाश चौकसे

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प्रेम पत्र के अवसान पर आंसू
प्रकाशन तिथि : 26 जुलाई 2013


मुंबई में हजारों लोगों को खाने का डिब्बा पहुंचाने वाली संस्था की कार्यप्रणाली पर विदेशी लोगों ने आकर शोध किया है, परंतु आतंकवाद के दरिंदे खाने के किसी डिब्बे में बम रख दें, इस भय से इस सुचारू रूप से गठित व्यवसाय का पतन हो गया है। आतंकवाद का अनेक परंपराओं पर असर पड़ा है। अब फिल्म उद्योग में सामूहिक होली नहीं खेली जाती, क्योंकि रंग से पुते चेहरों में कोई एक आतंकवादी भी हो सकता है। बहरहाल, आज लगभग एक दर्जन फिल्मों का प्रदर्शन होने जा रहा है, जिनमें एक 'टिफिन बॉक्स' भी है। कहते हैं कि यह एक प्रेम-कथा है, जिसका जन्म खाने के डिब्बे में रखा पे्रम-पत्र है और डिब्बे बदल जाने के कारण दो अजनबियों में प्रेम हो जाता है।

गुलजार की एक कथा में पति-पत्नी के बीच अलगाव होता है और वर्षों बाद उन्हें एक ही सरनेम के कारण एक ही दो सीट वाले कूपे में सफर करने का अवसर आता है। रेलगाड़ी के गंतव्य पर पहुंचते-पहुंचते उन दोनों के बीच की गलतफहमी दूर हो जाती है। पति-पत्नी के बीच के विवाद प्राय: कम बोलने या गलत समय पर सच बोलने के कारण हो जाते हैं। जिन बच्चों को माता-पिता दोनों की आवश्यकता है, उन्हें प्राय: इस अबोले दिनों में बड़ी हानि होती है। अधीरता और अकारण आक्रोश रिश्तों में दरार पैदा करता है और प्रेम ही इन दरारों को भर सकता है।

साहित्य और सिनेमा में प्रेम-पत्र के कारण ही नाटकीय परिस्थितियां बनती हैं और गुमे हुए प्रेम-पत्र भी कहर ढाते हैं, जैसे थॉमस हार्डी के 'मेयर ऑफ कास्टरब्रिज' में और राजीव कपूर की 'प्रेम ग्रंथ' में। राज कपूर की चार घंटे की 'संगम' का आधार ही यह है कि राज कपूर वैजयंती माला का प्रेम-पत्र राजेंद्र कुमार को पढऩे को देता है, क्योंकि उसे हिन्दी नहीं आती। राजेंद्र कुमार जानते हैं कि यह प्रेम-पत्र उन्हें लिखा गया है, परंतु अपने मित्र के प्रेम की तीव्रता देखकर उसकी पसंद की बात पढ़ देते हैं। फिल्म में हसरत जयपुरी का गीत भी है कि 'ये मेरा प्रेम-पत्र पढ़कर कि तुम नाराज ना होना...।' फिल्मकारों में वैष्णव संत समान फिल्मकार बिमल रॉय ने भी 'प्रेम पत्र' नामक फिल्म बनाई थी।

आज टेक्नोलॉजी के कारण प्रेम-पत्र की अकाल मृत्यु हो गई है, अब एसएमएस, ई-मेल, फेसबुक इत्यादि नए माध्यमों से प्रेम अभिव्यक्त किया जाता है, परंतु हाथ में कागज का स्पर्श और उस कागज पर लिखी इबारत वाले भाव इन मशीनी माध्यमों में नहीं आ पाते। प्रेम में अब भावना की तीव्रता भी नहीं रही। एक ही मोबाइल संदेश अनेक व्यक्तियों को भेजा जा सकता है। प्रेम-पत्र लिखना कविता करने की तरह हुआ करता था। जब तार का आविष्कार हुआ तो संदेश से क्रिया हटा दी गई और अब टेक्नोलॉजी ने ग्रामर का ही लोप कर दिया है। टेक्नोलॉजी ने भाषा में भयावह परिवर्तन कर दिया है, परंतु उसके अनसोचे ही भावना में भी अंतर आ गया है, क्योंकि प्रेम की अभिव्यक्ति में प्रयुक्त भाषा लिखने वाले के भावना संसार को भी बदलता है। ई.बुक पढऩे में वह आनंद नहीं, जो कागज पर छपी पुस्तक के पढऩे में है। जिन अंगुलियों से पृष्ठ बदलते हैं, उन अंगुलियों के पोरों से भी अर्थ आत्मसात किया जाता है - स्पर्श कभी निरर्थक नहीं हो सकता। स्पर्श की भाषा हम भूल चुके हैं। दरअसल, आलिंगन भी महज शारीरिक मिलन नहीं है, वह भावनाओं का सेतु भी होता है। अब लोकल ट्रेन या भीड़ भरी बस में अनजानों की धक्का-मुक्की खाकर घर लौटी पत्नी के आलिंगन में आप अपने लिए प्रेम कहां से पाओगे? रस्मी तौर पर किया गया आलिंगन अपने झूठ को छिपा नहीं पाता। दरअसल, शरीर स्वयं एक भाषा है, जिसका कोई ग्रामर नहीं है।

श्याम बेनेगल की एक फिल्म में व्यावसायिक पत्र लिखने वाला भी पति-पत्नी के बीच की बाधाओं को हटाने के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगा देता है। फिल्म 'तीसरी कसम' में शैलेंद्र लिखते हैं 'चिठिया हो तो हर कोई बांचे, भाग ना बांचे कोय'। फिल्म 'कन्यादान' में एक और गीत था 'लिखे जो खत तुझे वो तेरी याद में, हजारों रंग के नजारे बन गए...'। हमारे छात्र जीवन के समय दूसरों के लिए प्रेम-पत्र लिखकर भी फीस जुटाई जाती थी।