प्रेम पत्र : विलुप्त होती जा रही कला / जयप्रकाश चौकसे

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प्रेम पत्र : विलुप्त होती जा रही कला
प्रकाशन तिथि :06 जुलाई 2016


परिवर्तन के चक्र से नई बातें सामने आती हैं, अंधकार का वृत्त छोटा होता जाता है परंतु इस चक्र के नीचे थोड़ा-बहुत कुचला भी जाता है। कुछ चीजें कालांतर में विस्मृत भी हो जाती हैं। आज ई-मेल और एसएमएस के युग में प्रेम पत्र लिखना विलुप्त होता जा रहा है। एक दौर में अनेक फिल्में ऐसी बनी हैं कि उनका सारा घटनाक्रम एक पत्र के नहीं पहुंच पाने या गुम जाने के कारण होता है। कुछ फिल्मों में प्रेम-पत्र सरकाए जाने पर कालीन के नीचे चला जाता है और प्रेम प्रसंग गलतफहमी का शिकार हो जाता है। कुछ समय बाद कालीन की सफाई के समय वह पत्र मिल जाता है। मिट्‌टी के कण कालीन के लिए दीमक की तरह उसे नष्ट करने का काम करते हैं। कालीन की दुकान पर बाहर लटके कालीन की बार-बार सफाई करनी पड़ती है। राज कपूर की 'संगम' में पत्र हिंदी में लिखा है और नायक को उर्दू तथा अंग्रेजी भाषाएं ही आती हैं। एक दौर में पंजाब में ये दोनों भाषाएं लोकप्रिय थीं। कुछ पंजाबी लोग अपने सिख भाई लेखक राजिंदर सिंह बेदी से खफा रहे, क्योंकि उन्होंने उर्दू में लिखा था।

राजिंदर सिंह बेदी की 'एक चादर मैली सी' पर शम्मी कपूर की पत्नी गीता बाली ने स्वयं ही धीर साहब के निर्देशन में इस फिल्म का निर्माण प्रारंभ किया था। इसमें नायक धर्मेंद्र थे। कथा में नायिका को विधवा हो जाने के बाद आर्थिक कारणों से पिंड के लोग अधेड़ अवस्था में उसके युवा देवर से विवाह करने पर बाध्य करते हैं, जो उसके विवाह के समय बमुश्किल पांच वर्ष का बच्चा था और भाभी ही उसे नहलाती, कपड़े बदलती व स्कूल भेजती थी। बेदी साहब की थीम ही यह थी कि आर्थिक मजबूरियां समाज की रीतियों को तोड़ देती हैं। सारे नैतिक व सामाजिक मूल्य पैसे के सामने हार जाते हैं। कथा में मजबूरी यह थी कि उनकी आय में एक ही परिवार दो जून रोटी खा सकता था और देवर का विवाह अन्यत्र होने पर अतिरिक्त आर्थिक दायित्व आता। गीता बाली के असमय निधन होने के अवसाद से सन्न पड़े शम्मी कपूर ने आवेश में फिल्म का निगेटिव ही नष्ट कर दिया। उस अधूरी फिल्म को देखने वालों का कहना है कि वह भारतीय फिल्म जगत की धरोहर सिद्ध होती। कुछ वर्ष बाद ब्लेड बनाने का व्यवसाय करने वाली कंपनी ने इस फिल्म का निर्माण किया, जिसमें हेमा मालिनी, ऋषि कपूर, पूनम ढिल्लो और कुलभूषण खरबंदा ने अभिनय किया। यह संस्करण भी बहुत ही अच्छा बना था। स्वयं राजिंदर सिंह बेदी ने रेहाना सुल्तान के साथ 'दस्तक' नामक सार्थक फिल्म बनाई थी। निम्न मध्यम वर्ग के परिवार के मकान के निकट ही तवायफों का मोहल्ला है और सद्‌ग्रहस्थ रेहाना सुल्तान भी सितार बजाती और गीत गाती है। अत: तवायफों के यहां आने वाले कुछ लोग उसके द्वार पर भी दस्तक देते हैं। इस फिल्म में संजीव कुमार ने पति की भूमिका की थी। महिलाओं को आर्थिक व सामाजिक हालात शरीर बेचने के धंधे में उलझा देते हैं। इस समस्या का बीज कारण तो पुरुष मन की लंपटता है, जिसे हम अलग किस्म का 'तवायफाना' भी कह सकते हैं। पाकिस्तान की सारा शगुफ्ता की नज्म याद आती है, 'औरत का बदन ही उसका वतन नहीं होता, वह कुछ और भी है।' ये दूसरी पंक्ति मूल रचना में नहीं है परंतु मूल भावना को ही मैंने आगे बढ़ाया है। ज्ञातव्य है कि सारा शगुफ्ता रेलवे ट्रैक पर मरी हुई मिलीं। यह आत्महत्या नहीं थी वरन समाज के स्वयंभू ठेकेदारों ने उनकी हत्या कर दी थी, क्योंकि उनके काव्य से वे भयभीत हो गए थे। नए विचारों से भयभीत होने वालों ने तो अरस्तू को जहर पीने पर मजबूर किया, मीरा को भी असमय मृत्यु की गोद में जाना पड़ा। समाज में कई कत्ल ऐसे होते हैं कि खंजर पर हाथ के निशान नहीं मिलते। प्रेम पत्र लिखना एक तरह से कविता करने की तरह ही रहा है। यह सबके बस की बात नहीं। छात्र जीवन में अपने साथियों के प्रेम पत्र लिखने से मुझे अच्छी खासी आय हो जाती थी। एक फ्रेंच कथा में कुबड़ा नायक के प्रेम पत्र लिखता है और विवाह के बाद नायिका समझ जाती है कि वे खत उसके पति ने किसी अन्य से लिखवाए हैं और पत्र लेखक की खोज में जब वह उसे पाती है तो वह कुबड़ा मरणासन्न है। नायिका कहती है कि उसने एक बार प्रेम किया और दो बार खोया- 'आई लव्हड वन्स, लॉस्ट ट्वाइस। प्रेम में पाने से खोना अधिक गरिमामय है।