प्रेम में 'स्पेस' का भूत / जयप्रकाश चौकसे

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प्रेम में 'स्पेस' का भूत
प्रकाशन तिथि : 29 मार्च 2014


'जब हम होंगे साठ साल के और तुम होगी पचपन की, बोले क्या प्रीत निभाओगी बचपन की' इस पुराने गीत का इस्तेमाल आजकल एक विज्ञापन फिल्म में हो रहा है। यह गीत रणधीर कपूर और बबीता पर फिल्माया गया था फिल्म 'कल आज और कल' में जो 1971 में प्रदर्शित हुई थी और उन दोनों ने शादी भी कर ली थी। आज रणधीर कपूर साठ पार हैं और बबीता भी पचपन पार कर चुकी हैं। उन्होंने बचपन की प्रीत को अपने अलग अंदाज में निभाया है। दोनों की पहचान उनकी पुत्रियों करीना कपूर और करिश्मा कपूर के कारण है। विवाह के बाद अठारह वर्ष तक दोनों एक छत के नीचे रहे और पिछले दो दशक से अलग रहकर भी संपर्क में हैं। दोनों एक पहाड़ पर दो ज्वालामुखियों की तरह हैं जो आग उगलते रहते हैं परंतु पहाड़ की किसी निचली सहत पर उनका उद्गम एक ही जगह से हुआ है और यह प्यार की दिखाई नहीं देने वाली जगह है। आज इस अनोखे रिश्ते पर लिखने का कारण यह है कि अनेक प्रेम विवाह करने वाले जोड़े कुछ समय बाद टूटते से नजर आते है और उनका हाल उन कस्तूरी मृग की तरह है जो अपने पेट में छुपी सुगंध के स्रोत की खोज में बाहर भटकते रहते हैं।

आज के दौर में महानगरीय जोड़े व्यक्तिगत 'स्पेस' की बात करते हैं, अपनी निजता के निर्वाह के लिए अलग होना चाहते हैं और यह स्पेस अर्थात जगह क्या है। एक कमरे के मकान में रहने वालों को भी उपलब्ध है 50 बेडरूम के भव्य भवन में कोई कोना, अपने रोने के लिए नहीं मिलता। क्या यह 'स्पेस' भीतर का कोई सूनापन है या दार्शनिक रोमी के कथन की तरह 'मुझसे वहां मिलना जहां कोई पाप और पुण्य नहीं है' क्या यह दो पड़ोसी मुल्कों की सरहदों के निकट विवादास्पद जगह है जिसके लिए सदियों सेना की टुकड़ी तैनात रहती है और कुछ सैनिक ऊब के कारण भी मर जाते हैं और कभी दोनों पक्ष बोरडम मिटाने के लिए एक दूसरे को घंटों गालियां देते रहते है।

कुछ विवाहित लोग उन दुश्मन पड़ोसी मुल्कों की तरह रहते है जो शांति की बात करते हुए जंग की तैयारी करते रहते है। यह प्रचलित 'स्पेस' मेरे लिए रहस्य ही बना है क्योंकि मैं शैलेन्द्र पर यकीन करता हूं 'यहां तीसरा तो क्या अपने तक के साये नहीं आने पाते है'। न जाने कैसे विवाह गुरिल्ला युद्ध की तरह हो जाता है कि आक्रमण करके अपनी जन्मना कमजोरियों के पहाड़ों के पीछे छुप जाते हैं। यह रिश्ता छापामार युद्ध हो जाता है।

रणधीर कपूर महान एवं सफल राजकपूर के ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते आर.के. साम्राज्य के युवराज की तरह थे और बबीता के पिता हरि शिवदासानी किसी जमाने में स्टूडियो मालिक थे। बाद में चरित्र अभिनय से गुजारा होता था और वे एक तरह उस दरबार के साधारण सदस्य थे, जिसके युवराज को उनकी बेटी से प्यार हो गया। कुछ घरेलू तनाव के बाद बड़े धूमधाम से विवाह हो गया। रणधीर मनमौजी थे और बबीता व्यावहारिक। रणधीर अपने हास्य के माद्दे के कारण महफिल लूट लेते थे और उनके लतीफों पर तालियां पड़ती थी। शायद यह त्वरित प्रशंसा के आदी होने के कारण वे लंबे करिअर में मात्र तीन फिल्में ही डायरेक्ट कर पाए- 'कल, आज और कल', 'धरम-करम' तथा 'हिना'। उनके पास अनेक फिल्में रचने की प्रतिभा थी परंतु सिनेमा में त्वरित प्रशंसा नहीं मिलती और दूर बसे जिन सिनेमाघरों में तालियां पड़ती है, वहां आप मौजूद नहीं होते। ये त्वरित पडऩे वाली तालियों की आदत नेताओं को भी मुगालते देती है और स्वयं को लार्जर दैन लाइफ समझ बैठते हैं।

संभव है कि दोनों की अपेक्षाएं पूरी नहीं हुई परंतु असल मुद्दा स्वभाव की प्रखटता और एडजस्ट नहीं करने की जिद रहा। दोनों के बीच अलग-अलग मकानों में रहने के बावजूद प्रेम था, इसलिए उन्होंने इस दूरी को भी गरिमा से निभाया। आजकल के बाजार और प्रतिद्वन्दता शासित जीवन के अपने बहुत से तनाव है और सुविधाओं की मशीनों का कुछ स्पात उपयोग करने वालों के दिलों तक पहुंच जाता है। भीतरी तनाव विस्फोटक स्थितियां गढ़ते हैं और पहले से बारूद से बन गए लोग चिंगारी के मुंतजिर नजर आते हैं। 'स्पेस' की बात करने वाले नहीं जानते कि अलगाव से जन्मी तन्हाई क्या जुल्म ढा सकती है। आप जिस व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए तड़पते हैं, वही मिलने के बाद काटने को दौड़त है। द्वंद्व के क्षण को हम विराट बना देते है और बाद में कभी शांत चित से सोचें तो लगता है कि छोटी बात थी। द्वंद्व के समय प्रेम के क्षण की स्मृति मस्तिष्क में कौंध जाए तो वह समाप्त हो सकता है गोयाकि प्रेम की स्मृतियां सजाए रखना और झगड़े को विराट बनने से रोकना चाहिए। हमें अच्छाई को विराट और बुराई को छोटा करने का प्रयास करना चाहिए। रिश्तों को दुलारना पड़ता है, शिशु बुराइयां नजर नहीं आई थी तो शादी को ही लंबी कोर्टशिप में बदलना चाहिए। कल्पनाशीलता और हास्य का माद्दा जटिलतम हालात को सरल बना सकता है।