प्रेम में विश्वासघात की फिल्में / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :12 जुलाई 2016
लगभग आधी सदी पूर्व भारतीय नौसेना के आला अफसर नानावटी ने प्रेम आहूजा नामक व्यक्ति का कत्ल कर दिया था, क्योंकि उनकी पत्नी का प्रेम प्रकरण चल रहा था आहूजा से। आहूजा ने ही कहा था कि वह अपने साथ हमबिस्तर होने वाली हर महिला के साथ विवाह नहीं कर सकता। आरके नय्यर ने उसी दौर में इस घटना सेे प्रेरित फिल्म बनाई थी 'ये रास्ते हैं प्यार के।' फिल्म में सुनील दत्त और लीला नायडू ने काम किया था। शीघ्र ही प्रदर्शित होने वाली नीरज पांडे की 'रुस्तम' भी इसी नानावटी-कांड पर बनाई गई काल्पनिक फिल्म है। सच्ची घटनाओं पर जस की तस फिल्में हमारे यहां नहीं बनाई जातीं। इसमें नानावटी की भूमिका अक्षय कुमार ने अभिनीत की है। प्रेम में विश्वास की भावना से अधिक संख्या में फिल्में प्रेम में विश्वासघात पर बनी हैं। इस तरह की फिल्मों में रहस्य, अपराध व सेक्स दिखाने के बहुत अवसर होते हैं गोयाकि फिल्म के लिए पीसे हुए तीखे मसाले उपलब्ध रहते हैं। ये फिल्में सनसनीखेज होती हैं और रक्त तथा पसीने से लथपथ होती हैं।
उस दौर के सभी अखबारों में यह प्रकरण सुर्खियों में रहा परंतु करंजिया के साप्ताहिक 'ब्लिट्ज' ने इसे अधिक लंबे समय तक गरम रखा। ख्वाजा अहमद अब्बास इसमें अपना 'अंतिम पृष्ठ' नामक कॉलम अनेक वर्षों तक लिखते रहे। अब्बास साहब अत्यंत समर्पित वामपंथी लेखक व पत्रकार थे। राइट विंग ने कभी लेखक व दार्शनिक नहीं दिए। उन दिनों कभी किसी अखबार ने नानावटी व सिल्विया के बच्चों का जिक्र नहीं किया। बच्चों पर ऐसी घटना का प्रभाव ताउम्र रहता है। इसी तरह युद्ध के समाप्त होने के बाद भी उसके प्रभाव हर दरवाजे पर वर्षों तक दस्तक देते रहते हैं। धरती के भीतर उसकी आहत आत्मा कराहती रहती है। प्रेम में विश्वास, विश्वासघात और विश्वासघात के भ्रम पर अनेक फिल्में बनी हैं। मेहबूब खान की 'अंदाज' में पति की भूमिका में राजकपूर, पत्नी की भूमिका में नरगिस और एक तरफा प्रेम में डूबे दिलीप कुमार प्रस्तुत हुए थे। इस फिल्म के अंतिम हिस्से में मेहबूब खान से यह चूक हो गई कि पढ़ी-लिखी आधुनिक नरगिस के खुलेपन के कारण दिलीप को प्रेम का भ्रम होता है और इस खुलेपन की आलोचना फिल्मकार कर बैठा, जबकि मेहबूब खान ने अपनी पहले बनाई 'नज़मा' में पढ़-लिखकर आधुनिक दृष्टिकोण अपनाने की प्रशंसा की थी। 'नज़मा' की डॉक्टर नायिका परदा नहीं करती और परम्परावादी श्वसुर को इस बात का गिला है। क्लाईमैक्स में परदा नहीं करने वाली डॉक्टर बहू अपने श्वसुर को हुए हृदयरोग को समय पर देखकर उनके प्राणों की रक्षा करती है।
ऋषिकेश मुखर्जी भी 'नज़मा' का अपना संस्करण बना चुके हैं। बलदेवराज चोपड़ा ने अपनी फिल्म 'गुमराह' में एक पत्नी को अपने विवाह के पूर्व के प्रेमी की ओर आकृष्ट होते दिखाया था। इसमें साहिर लुधियानवी का गीत था 'चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों, ताल्लुक बोझ बन जाए तो उसे तोड़ना अच्छा, वह अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन, उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा।'
इसी 'गुमराह' को बोनी कपूर ने अपने भाई अनिल कपूर के साथ बनाया था, परंतु फिल्म असफल हो गई। साहिर लुधियानवी ने कई फिल्मों को बचाया है और गुरुदत्त की 'प्यासा' के तो वे मेरुदंड ही सिद्ध हुए। एक लंबे दौर में प्रेम-तिकोन फिल्में बहुत बनाई गई हैं। प्रेम कई बार आर्थिक अभाव के कारण टूट जाते हैं। अभावों से बड़ा कोई खलनायक नहीं और व्यवस्थाएं अभाव रचती हैं। इस तरह व्यवस्था भी खलनायक हो जाती हैं। व्यवस्था और खाप पंचायतें भी प्रेम के विरुद्ध खड़ी हो जाती हैं। दरअसल प्रेम मनुष्य की विचार प्रक्रिया में उजास भर देता है और इसी उजास से व्यवस्था खौफ खाती है।