प्रेम / अन्तरा करवड़े

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वह प्रेम दिवस का आयोजन था। लाल रंग के गुलाबों¸ दिल के आकारों की विभिन्न वस्तुएँ। रंग बिरंगे और अपेक्षाकृत स्मार्ट परिधानों में युवक युवतियाँ अपने तईं इकरार–इजहार आदि कर रहे थे। कोई झगड़ रहा था तो किसी का दिल टूट रहा था। कोई बदले की भावना से गुस्सा हुआ जा रहा था, तो किसी के कदम जमीन पर नहीं पड़ रहे थे।

मोनिका भी एक प्लांड़ इवेंट प्लेस पर अपने परफॉर्मंस की बारी का इंतजार कर रही थी। उन्हीं के फ्रेंड्‌स क्लब ने ये आयोजन किया था। इसमें थी मौज मस्ती और नाच गाना। फूल¸ कार्ड¸ गिफ्ट्‌स¸ चॉकलेट सभी कुछ उपलब्ध थे। उसे इंतजार था देव का। जिसने पिछले वैलेंटाइन पर ही उससे अपने प्रेम का इजहार किया था। उसके बाद से साल भर दोनों यूँ ही मिलते आ रहे थे। उसे विश्वास था कि उसकी परफॉर्मंस तक देव जरूर आ जाएगा।

अचानक बाहर कुछ शोर सुनाई दिया। सभी ने बाहर जाकर देखा। दो गुटों में झगड़ा हो रहा था। कारण जो भी कुछ रहा हो लेकिन पुलिस पहुँच चुकी थी। आतंक और तनाव का माहौल था। समझदार लड़कियों ने घर की राह पकड़ने में ही खैर समझी। लेकिन मोनिका वहाँ पहुँचती, तब तक देर हो चुकी थी। वह रास्ता बंद कर दिया गया था। सारा यातायात दूसरी ओर मोड़ दिया गया था।

मोनिका जहाँ देव का इंतजार कर रही थी, वहीं एक पकी उम्र की माँजी भी खड़ी थी। उसे देखते ही हठात्‌ बोल पड़ी-"इतनी गड़बड़ में क्यों रात गए घर से निकली हो बेटी?" मोनिका ने उपेक्षापूर्ण दृष्टि से उन्हें देखा। उसे लगा कि इन माँजी को वह क्या समझाए कि आज प्रेम दिवस है। आज नहीं तो कब बाहर निकलना चाहिए। आपके जमाने में नहीं थे ये वैलेंटाइन डे वगैरह। आप तो अपने पति की चाकरी करते हुए ही जिंदगी गुजारिए। उसे वैसे भी इस दादी टाइप की औरत की बातों में कोई रुचि नहीं थी।

लेकिन वह स्वयं इस हादसे के कारण घबराई हुई-सी सब दूर बस देव को ही ढूँढ रही थी। उसे विश्वास था कि वह उसे इस मुसीबत से निकालने के लिये जरूर आएगा। सारे वाहन वहाँ से हटवा दिए गए थे। काफी देर तक जोर-जोर से आवाजें आती रही। लाठी चार्ज होने लगा था।

पुलिस किसी को भी उस घेरे के अंदर से जाने देने को तैयार नहीं थी। तभी मोनिका ने देखा¸ देव किसी पुलिसकर्मी से उलझ पड़ा था। वह उसे अंदर नहीं आने दे रहा था। "ओह देव प्लीज मुझे निकालो यहाँ से।" मोनिका चीख पड़ी थी, लेकिन देव कुछ भी नहीं कर पा रहा था। बार-बार अपने मोबाइल से किसी को फोन करता जा रहा था। शायद उसने मोनिका के भाई को फोन कर सारी स्थिति बता दी थी और स्वयं वहाँ से निकल गया था। मोनिका अविश्वास से उसे जाते हुए देखती रही। क्या यही उसका विश्वास था?

तभी पास खड़ी माँजी खुशी से बोल पड़ी¸ "आ गये आप!" मोनिका ने उनकी दृष्टि का पीछा किया। एक बूढ़े से सत्तर के लगभग के बुजुर्ग¸ काफी ऊँची रेलिंग को बड़ी मुश्किल से पार करते हुए माँजी तक पहुँचे।

दोनों घबराए हुए-से पहले तो एक दूसरे का हाथ पकड़े हाल चाल पूछते रहे।

"मुझे तो सामने के वर्माजी ने खबर की। उन्होंने कहा कि जल्दी से तुम्हें घर ले आऊँ। यहाँ कोई फसाद हो गया है। तुम्हें अकेले नहीं आने देंगे।" वे काफी घबराए हुए थे।

"लेकिन अब घबराने की जरूरत नहीं है। मैं आ गया हूँ ना। वह पुलिसवाले को देखा¸ किसी को भी अंदर आने नहीं दे रहा था। सबसे झगड़ने पर ही तुला हुआ है। इसीलिए मैं उस रेलिंग को पार कर आ गया। यहाँ से बाहर जाने के लिए कोई पाबंदी नहीं है। चलो अब जल्दी से निकालते है।" उनकी साँस फूलने लगी थी।

मोनिका कुछ कहती इससे पहले ही माँजी ने उसे भी अपने साथ लिया और बाहर निकलकर उसके भाई के हाथों में सुरक्षित सौंप दिया। मोनिका को लगा कि देव खुद भी तो यही कर सकता था!

वह सोचती रही। उन दोनों का वैलेंटाइन डे के बगैर का¸ पका हुआ प्रेम विश्वास और आपसी समझ। ये सब उन थके चेहरों की आँखों में चमक रहा थी जिसके आगे सारे युवा जोड़े फीके नजर आ रहे थे।

उसे समझ आ गया था। यही सच्चा प्रेम था।

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