प्रेरक प्रसंग-3 / बुद्ध
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प्रेरक प्रसंग
जिस रात को बुद्ध का परिनिर्वाझ हुआ, आधी रात के समय सुभद्र नाम का एक परिव्राजक आया। उसके मन में कुछ शंकाएं थीं। आनंद ने उसे यह कहकर रोक दिया,
“उन्हें हैरान मत करो। वह थके हुए हैं।“
भगवान ने आनंद की बात सुन ली। उन्होंने आनंद से कहा, “नहीं आनंद, सुभद्र को मना मत करो। मेरे पास आने दो। वह परमज्ञान की इच्छा से पूछना चाहता है, हैरान करने की उसकी इच्छा नहीं है। पूछने पर जो मैं उसे कहूंगा, वह उसे जल्दी ही समझ लेगा।”
मध्यरात्रि में, उस अवस्था में, सुभद्र की तथागत से उपदेश सुनने का सौभाग्य मिल गया।
एक बड़ी दुखियारी स्त्री थी। पति, पुत्र परिवार सब उसका नष्ट हो गया था। मारे दु:ख के वह पागल हुई फिरती थी। कपड़े पहनने का भी उसे होश न था। उसका नाम पटाचारा था। एक दिन घूमते हुए वह बुद्ध के पास, जैतवन आराम में, आ गई। उस नंगी स्त्री को देखकर लोगों ने कहा, यह पागल है। इसे इधर मत आने दो।”
बुद्ध ने कहा, “ इसे मत रोको।”
जैसे ही वह पास आई, बुद्ध ने कहा, “भगिनि, स्मृति लाभ कर ।”
स्त्री को कुछ होश आया। लोगों ने उस पर कपड़े डाल दिये, जिन्हें उसने ओढ़ लिया। स्त्री फूट-फूट कर रोने लगी। बुद्ध् ने अपने उपदेशामृत से उसके शोक को दूर कर दिया।
बुद्ध का एक भिक्षु शिष्य था वक्कलि। वह एक बार बीमार पड़ गया। उसने अपने एक साथी भिक्षु के द्वारा भगवान का दर्शन करने की अपनी इच्छा उन तक पहुंचवाई। भगवान उसकी इच्छा पूरी करने उसके पास गये। दूर से भगवान को आता देखकर वक्कलि उनका सम्मान करने और उनको आसन देने के लिए चारपाई से उठने की चेष्टा करने लगा। भगवान ने उसे यह कहकर रोक दिया कि अलग आसन तैयार है। उसके हिलने-डुलने की आवश्यकता नहीं है, और वह बिछे आसन पर बैठ गये। वक्कलि ने उसकी वंदना करते हुए कहा, “आपके दर्शन की मेरी बड़ी इच्छा थी। आपने कृपा करके उसे पूरा कर दिया।”
बुद्ध ने कोमल स्वर में कहा,
“वक्कलि शांत हो जा। तेरी जैसी गंदी काया है, वैसी ही मेरी है। वक्कलि, इस गंदी काया को देखने से क्या लाभ? जो धर्म को देखता है।, वह मुझे देखता है। जो मुझे देखता है, वह धर्म को देखता है।”
भगवान बुद्ध गृहस्थों के प्रति बड़ी सहानुभूति रखते थे। एक बार सुप्रवासा नामक स्त्री के बच्चा होने वाला था और वह असहा वेदना से पीड़ित थी। उसने अपने पति के द्वारा बुद्ध के चरणों में प्रणाम अर्पित करवाया। भगवान ने उसे आशीर्वाद देते हुए कहा, “कोलिय पुत्री सुप्रवास, सुखी हो जाय, चंगी हो जाय। सुखी और चंगी होकर बिना किसी कष्ट के वह पुत्र प्रसव करे।”
इसी प्रकार ब्राहाणों के साथ भी, जैसे कि विश्व के सभी प्राणियों के साथ, उनकी पूरी सहानुभूति थी। बावरि
नामक ब्राहाण के एक शिष्य ने जब अपने गुरु की ओर से भगवान के चरणों में प्रणाम निवेदन किया तो भगवान ने आशीर्वाद देते हुए कहा, शिष्यों सहित बावरि ब्राहाण सुखी हो। माणवक, तुम भी सुखी हो, चिरजीवी हो।”
बुद्ध के पास छोटा-बड़ा, जो भी जाता था, वह उससे कहते थे, “आओ, तुम्हारा स्वागत है।”
भगवान अपनी अंतिम यात्रा में पावां और कुसीनारा के बीच जा रहे थे। रास्ते में उन्हें पुक्कुस मल्लपुत्र नामक व्यापारी मिला। उसने उन्हें एक दुशाला भेंट किया। परन्तु भगवान उसे अकेले कैसे आढ़ते? वह अपने शिष्य आनन्द को समनित करना चाहते थे। उन्होंने कहा, “पुक्कुस, दुशाले के एक भाग को मुझे ओढ़ा, दे, दूसरे को आनंद को।” पुक्कुस ने ऐसा ही किया।
भूल करने वालों के प्रति भी बुद्ध की अनुकम्पा का पार न था। एक बार एक ब्राहाण ने भगवन को वेरंजा में वर्षावास करने का निमंत्रण दिया। भगवान वहॉँ गये, लेकिन वह ब्राहाण बहुधंधी था। उसने उनकी कुछ भी सुध-बुध नहीं ली। बुद्ध को बड्रा कष्ट हुआ उन्हें तीन महीने तक कुटा हुआ जौ रोज खाना पड्रा, क्योंकि उस समय वेरंजा में अकाल पड़ रहा था और वह भी उनको और उनके शिष्यों को घोड़ों के व्यापारियों से मिलता था। इतना होने पर भी वर्षावास की समाप्ति पर भगवान बुद्ध अन्यत्र जाने से पूर्व वेरंजा जाकर ब्राहाण को आशीर्वाद देना नहीं भूले।
भगवान बुद्ध के जीवन में ऐसी अनंत घटना मिलती है। उनमें हमें उनकी मानवता के दर्शन होते है। उनके जीवन में कोमलता की पराकाष्ठा थी और उनकी वाणी में अपर्वू माधुर्य था, जो सबको अपनी ओर खींचता था। उनके मुंह से क्रोधभरा शब्द कभी नहीं निकलता था। वह मनुष्य थे, परन्तु मनुष्य की दुर्बलताओं से ऊपर उठ चुके थे। उनके व्यक्तित्व में मानवता की शुभ ज्योत्स्ना धर्म की स्थति बनकर चमकी।