प्रेरक / जगदीश कश्यप
उसने चिट अंदर भिजवा दी थी । संपादक ने तुरंत ही बुलवा लिया— 'आओ गुरु, इतने दिन कहाँ रहे ? तुम्हारी कहानी मुझे मिल गई थी । बाद में पोस्ट भेजने की क्या ज़रूरत थी । अब तुम मुझे इस तरह शर्मिंदा करोगे ?' ऐसा करते ही उसने घंटी बजाई और पियन से कॉफ़ी लाने को कहा ।
'देखो मित्र! दोस्ती अपनी जगह है और साहित्य अपनी जगह । अब तुम एक व्यावसायिक-पत्रिका के संपादक हो । कोई हल्की चीज़ न जाने पाए ।'
ऐसा कहते ही रवि ने अपनी बढ़ी हुई दाढ़ी में हाथ फेरा । उसे वे दिन याद आ गए, जब दोनों बेरोज़गार थे और सस्ती दुकान पर उधार चाय पीते थे । दरअसल रवि ही उसे कहानी-क्षेत्र में लाया था ।
'तुम ठीक कहते हो, गुरु ! जब तक मैं इस पद पर हूँ, पत्रिका में कोई हल्की चीज़ न जाने दूँगा । रवि, माइंड मत करना। कोई और अच्छी कहानी दो, ये नहीं चलेगी । इसे कहीं और भेज दो ।'
कॉफ़ी पीने के बाद दोनों चुप रहे । फिर रवि बोला— 'फिलहाल तो मेरे पास कोई और अच्छी कहानी नहीं है । ट्राई करूँगा ।' और वह अपमानित अंदाज़ में उठ लिया ।