प्रेरणा / उत्तर प्रियदर्शी / अज्ञेय
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कलिंग के महाप्रतापी विजेता प्रियदर्शी अशोक को सम्राट बनने के बाद वैराग्य हुआ और उसने बौद्ध-धर्म की दीक्षा ले ली, ऐसा इतिहासकार बताते हैं। क्यों? कैसे? इसका कोई उत्तर इतिहासकार नहीं देते।
पाँचवी शती के चीनी यात्री फाह्यान ने बताया है कि पाटलिपुत्र की नगर-सीमा के बाहर उसने एक दीवार देखी थी जो अशोक के बनवाये हुए नरक की प्राचीर बतायी जाती थी।
अशोक पहले प्रचंड स्वभाव का और क्रूर शासक था। उसने एक परम नृशंस व्यक्ति को खोज कर एक नरक बनवाया; इस नरकाधिपति को उसने आश्वासन दिया कि नरक-सीमा में उसकी सत्ता सर्वोपरि होगी-यहाँ तक कि स्वयं राजा भी उसके भीतर आ जाए तो उसके नियम से अनुशासित होगा।
घटना-चक्र में राजा को 'राज-मर्यादा' की रक्षा के लिए वहाँ आना पड़ा।
सातवीं शती के दूसरे चीनी यात्री ह्युएन् त्साङ् ने नरक सम्बन्धी इस कथा की पुष्टि की है।
उन्नीसवीं शती के अन्तिम दिनों में अँग्रेज सैनिक पुरातत्त्व प्रेमी वैडेल ने पाटलिपुत्र में जो खुदाई करायी थी, उसमें उसे ऐसे स्थलीय अवशेष मिले थे जो फाह्यान और ह्युएन् त्साङ् के वर्णन से मेल खाते थे।
क्या नरक के निर्माण, कलिंग-विजय, राजा के दर्प और उस के मोह-भंग में कोई सम्बन्ध रहा? इतिहासकार जिन प्रश्नों का उत्तर नहीं देते, उन्हें क्या कवि-नाटककार पूछ भी नहीं सकता? विजय-लाभ पर पहले अहंकार-फिर अहंकार के ध्वस्त होने पर नये मूल्य का बोध, नयी दृष्टि का उन्मेष-क्या यही सही तर्क-संगति और सहज मनोवैज्ञानिक क्रम नहीं है।
मृत्यु से साक्षात्कार के बिना अमरत्व नहीं मिलता, नरक की पहचान के बिना नरक-मुक्ति का कोई अर्थ नहीं-कठोपनिषद् के नचिकेता से लेकर डिवाइना कामेडिया के दान्ते तक इसके अनेक साक्षी हैं।
[उत्तर प्रियदर्शी का पहला आरंगण नयी दिल्ली में त्रिवेदी कला संगम के खुले रंगमंच पर 6 मई 1967 को निष्पन्न हुआ।]
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