प्रोजेक्ट – पीड़ा / प्रमोद यादव

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कुछ दृश्य इन दिनों लगभग अदृश्य हो गए हैं – मंदिर के पास, सूखी इमली पेड़ के ठूंठ पर उड़-उड़कर उठता-बैठता चील...घर के मुंडेर पर दिन-भर काँव – काँव का कर्कश धमाल-ध्वनि करता कौआ...घर के भीतर दीवाल पर टंगे फोटो-फ्रेम के पीछे अवैध कब्ज़ा जमाता गौरैया.. बीच सड़क पर हौले-हौले चलता गधा..और गधे के पीठ पर मन भर का सील-बट्टा. इनमे से कुछ दृश्य अब पुनः लौटने लगे हैं, लेकिन एक दूसरे ही फार्म मे. दस किलो के बच्चे की पीठ पर बीस किलो का बस्ता देख बरबस ही गधे का स्मरण हो आता है. के. जी. के बच्चों पर इतने के. जी. का भार? बड़ी पीड़ा होती है. भगवान जाने इतना सब ये कैसे पढते हैं? और इनके टीचर इतना सब पढ़ाते कब हैं?जहाँ तक मेरी जानकारी है, आजकल के टीचर्स की टीचिंग, टचिंग नहीं होती.

हमारे ज़माने मे तो एक या दो ही पुस्तक हुआ करते इसलिए उनके नाम भी आज तक याद है – बड़ी पहली और छोटी पहली. और तो और, हमें बड़ी पहली का पहला पाठ भी आज तक जुबानी याद है – “ अमर घर चल, चल घर अमर, घर चल अमर, चल अमर घर “ ये और बात है कि उस जमाने में, उस समय इस लाइन का अर्थ हम नहीं समझ पाए पर आज समझ में आता है कि स्कूल से बढ़िया घर होता है. पहले पाठ से ही सचेत करते लेखक घर चलने कहता है – ‘ चल घर चल...स्कूल में भला क्या रखा है? ‘

आज के दौर में बच्चे क्या-कुछ पढते हैं, मुझे नहीं मालूम पर इतना मालूम है- अधिकांश बच्चे इंग्लिश मीडियम में पढते हैं. बस से जाते हैं, बस से आते हैं...बस के बिना बेबस हो जाते हैं. पहले के दौर में ‘ ट्यूशन ‘ गधे बच्चों की थाती हुआ करती. केवल उन्हें ही ‘ फिट ‘ माना जाता. आज केवल होशियार बच्चे ही ट्यूशन पढते हैं. पहले केवल दो प्रतिशत ही पढ़ा करते, आज अठानवे प्रतिशत पढते हैं. पहले हाईस्कूल जाने के बाद ही टीचर गधे बच्चों के लिये ट्यूशन की सिफारिश करते, आज बिना किसी सिफारिश के नर्सरी के बच्चे तक ट्यूशन में बैठ जाते हैं. अजीब दौर आया है शिक्षा-जगत में. सब कुछ उल्टा-पुल्टा हो गया है

उल्टे-पुल्टे के इस दौर में इन दिनों स्कूली बच्चों में अंग्रेजी का एक शब्द काफी पापुलर है – ‘ प्रोजेक्ट ‘ जिस देखो वही प्रोजेक्ट बनाने में मशगूल दिखता है. के.जी.-1 से क्लास-12 तक के स्टूडेंट इस प्रोजेक्ट-रूपी पहाड पर ट्रेकिंग करते, पसीने से तर-बतर होते दिखते हैं. केवल दो प्रतिशत स्टूडेंट ही अपने मन से कोई प्रोजेक्ट तैयार करते होंगे, बाकी सब मम्मी-पापा, चाचा-चाची, भैया-भाभी, मामा-मामी ‘ हेल्प-लाईन ‘ से बनाते हैं. प्रोजेक्ट का विषय भी इतना रुखा और विकट होता है कि मम्मी-पापा के भी पसीने छूट जाये. वो तो भला हो ‘ गूगल ‘ इंटरनेट का कि माँ-बाप को बेइज्जत होने से बचा लेते हैं. आज के बच्चे खुद तो कम काम करते हैं, पैरेंट्स से ज्यादा मशक्कत करवाते हैं. आज का पापा (या मम्मी) आफिस में, आफिस या कंपनी का काम कम करते हैं, बच्चों के प्रोजेक्ट का काम ज्यादा करते हैं. शायद इसी कारण अच्छी- अच्छी कपनियां इन दिनों डूब रही है. बीच- बीच में काम करते- करते कभी- कभी कुढते भी है उस दैत्यरूपी टीचर से जो यह सब बच्चों को परोसता है.

कई महीनों से मेरे छोटे भाई की बेटी प्राची जो नवीं पढ़ती है, मुझे ‘ प्रोजेक्ट ‘ परोसती आ रही है. आफिस निकलने के पहले ही आर्डर देगी कि अमुक विषय पर प्रोजेक्ट तैयार करना है... इंटरनेट से डाउनलोड कर शाम तक ले आयें. कभी अंग्रेजी में मांगती तो कभी हिंदी में. शुरू-शुरू में तो दो-चार बार आफिस के मित्रों से निकलवा लिया पर यह तो रोज का कार्यक्रम हो गया था. प्रोजेक्ट के चक्कर में आखिरकार मुझे नेट चलाना, डाउनलोड करना आ गया.

काफी दिनों से ये काम करते - करते महसूस किया कि बहुत ही कष्टप्रद काम है- प्रोजेक्ट बनाना. इसके विषय भी तरह-तरह के होते हैं. कभी ‘ जानवरों पर जुल्म ‘ विषय पर ढूंढने कहती है तो कभी ' प्रोजेक्ट टाइगर ’ पर लेख निकालने, कभी विलियम शेक्सपियर की जीवनी मांगती है, तो कभी जार्ज बनार्डशा के बारे में पूछती है, कभी किरण बेदी पर शार्ट नोट्स मांगती है तो कभी पी.टी.उषा पर. आश्चर्य कि कभी गाँधी, नेहरु, सुभाष पर आज तक नहीं मांगी. कभी रानी लक्षमीबाई या रानी दुर्गावती पर नहीं मांगी मैंने पूछा भी कि क्या इन विषयों पर प्रोजेक्ट तैयार करने नहीं कहते, तो कहती है- ‘ आउटडेटेड लोग हैं ये... प्रोजेक्ट में इनका कोई काम नहीं. ‘

कई बार मैंने समझाया कि कभी-कभार कुछ अपने मन से भी कर लिया करो तो कहती है – अपने मन से तो टीचर्स भी कुछ नहीं करते तो हम क्यूँ करें?एक दिन उसे एक बहुत ही साधारण विषय पर एक प्रोजेक्ट अपने मन से बनाने को कहा. विषय था – ‘ टीचर ‘. उसने जो कुछ लिखा, आप भी पढ़ें –

‘ टीचर ‘

-.स्टुडेंट्स को रोज-रोज जो टार्चर करे, उसे टीचर कहते हैं. हिंदी भाषा में इन्हें ‘ शिक्षक ‘, ‘ गुरूजी ‘ तथा गांवों में इन्हें ‘ मास्टरजी ‘ भी कहते हैं. हमारे राज्य में इन दिनों इन्हें एक नए नाम से विभूषित किया गया है – ‘ शिक्षाकर्मी ‘ ठीक वैसे ही जैसे सफाईकर्मी, रेलकर्मी’, रंगकर्मी आदि-आदि. बेचारों का हमेशा बुरा हाल रहता है. अखबारों में अक्सर पढ़ती हूँ कि इन्हें छः-छः, आठ-आठ महीने तक सैलरी नहीं मिलती...फिर भी डटे रहते हैं...हड़ताल पर हड़ताल करते रहते हैं. मेरे पड़ोस की नीलू दीदी भी शिक्षाकर्मी है. हर रोज पच्चीस किलोमीटर दूर नदी पार कर एक गांव के प्रायमरी स्कूल में पढाने जाती है.शाम रात तक लौटती है. अक्सर बताती है कि पूरी सैलरी तो गांव आने-जाने में ही खर्च हो जाती है. केवल मध्यान भोजन ही हाथ आता है (मतलब कि पेट में जाता है) इस साल बड़ी दीदी की शादी की बात चल रही है. कई लड़के आये पर अधिकाँश शिक्षाकर्मी वर्ग-२ और ३ वाले थे. बड़े पापा कहते हैं- शिक्षाकर्मी को छोड़ किसी को भी दे दूंगा. इस बात से तो लगता है कि शिक्षाकर्मीयों का या तो इम्प्रेशन ठीक नहीं है या फिर सैलरी अच्छी नहीं है. मेरे पड़ोस में एक गुरूजी हैं-चन्द्रिका प्रसाद, अक्सर घर आकर लेक्चर देते रहते हैं कि टीचरशिप एक सम्माननीय कार्य है. टीचर ही बच्चों के भविष्य गढता है..टीचर ही तम दूर कर दिलो-दिमाग में रौशनी भरता है.एक साधारण - सा टीचर देश का राष्ट्रपति भी बन सकता है, यह सिध्द किया है डाक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने. उसी के सम्मान में पूरे देश मे पांच सितम्बर को शिक्षक दिवस मनाया जाता है. तब मैंने पूछा था कि क्या कभी कोई कुली राष्ट्रपति बन जाये तो उसी तरह ‘ कुली दिवस ‘ मनाएंगे? उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया था. अंत में इतना कहूँगी कि टीचर्स डे के दिन काफी खुश रहती हूँ इसलिए कि उस दिन इन्हें काम करते देखती हूँ और हमारी छुट्टी रहती है. कम से कम एक दिन तो प्रोजेक्ट के काम से हम बच जाते हैं.

निबंध के अंत में प्राची ने आखिर ‘ प्रोजेक्ट-पीड़ा ‘ उजागर कर ही दी. पढकर मैं मुस्कुराये बिना नहीं रह सका. हौसला आफजाई करते कहा कि इसे कहते हैं- मौलिक रचना....तुमने जो सुना-देखा लिख दिया..इससे ज्यादा अच्छा तो ‘ गूगल ‘ भी नहीं दे सकता. अब नेट का पीछा छोडो...अपने मन की सोचो लिखो.. एक बार कोशिश करके देखो, अच्छे मार्क्स मिलेंगे.. सफलता जरुर मिलेगी. उसने कोशिश कि और सफल रही. अब प्राची ‘ प्रोजेक्ट-पीड़ा ‘ से मुक्त हो गयी है और मैं भी ‘ डाउनलोड ‘ के लोड से बच गया हूँ.