प्लाजा / दयानंद पाण्डेय

Gadya Kosh से
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प्लाजा वह पहले भी सैकड़ों दफा आया था। कभी कनॉटिंग करते टहलते हुए, कभी सिनेमा देखने, कभी किसी लड़की के साथ तो कभी फिल्म फेस्टिवल के दौरान लगातार आता। पर जैसे वह आज आया था ऐसे तो कभी नहीं आया था प्लाजा!

बल्कि एक बार तो जब वह थोड़े से तनाव में प्लाजा आया था तो वह तनाव यहां से छांट कर गया था। बल्कि तनाव ख़ुद ब ख़ुद छंट गया था, फिल्म देख कर। और जिंदगी का एक अहं फैसला वह फिल्म तय कर देगी, यह तब वह नहीं जानता था। फिल्म थी महेश भट्ट की ‘अर्थ’। और कुलभूषण खरबंदा का इंदर वाला जो चरित्र दो औरतों के बीच जिस तरह नरक जी रहा था उसी नरक के अंकुर राकेश की जिंदगी में भी अंकुआ रहे थे। वह तय नहीं कर पा रहा था कि अनचाहे ब्याह वाली पत्नी के साथ आगे की जिंदगी बसर करे या दूसरी शादी कर ले! दूसरी शादी के लिए उस ने गुपचुप लड़की भी देख ली थी। और लड़की ही नहीं उस के मां-बाप भी शादी के लिए न सिर्फ राजी थे बल्कि शादी फटाफट हो जाए इस के लिए उस से ज्यादा वह लोग परेशान थे। यह जानते हुए भी कि राकेश शादीशुदा है! शायद उन की विवशता यह थी कि राकेश से उन की लड़की की शादी बिना दहेज और बिना तामझाम के होने वाली थी। यह बात जब राकेश ने बार-बार महसूस की तब उस ने एक बार लड़की से पूछा भी था कि, ‘शालू सच-सच बताओ कहीं तुम किसी दबाव में मुझ से शादी करने को तो नहीं तैयार हो गई हो?’

‘नहीं जी!’ वह बड़ी संजीदगी से बोली, ‘बिलकुल नहीं!’

‘तुम जानती हो कि मैं पहले से शादीशुदा हूं?’ राकेश ने पूछा, ‘और मेरा तलाक भी नहीं हुआ है।’

‘हां जी!’ वह बोली, ‘ये भी जानती हूं और यह भी कि आप की उस से पटती नहीं। आप उस को पसंद भी नहीं करते!’ उस ने जोड़ा, ‘आप की मजबूरी जानती हूं।’

‘कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम भी मजबूर हो मुझ से शादी करने के लिए?’ राकेश ने पूछा।

‘नहीं जी। मैं क्यों मजबूरी में करूंगी आप से शादी?’

‘दहेज की मजबूरी?’

‘ना जी!’ कह कर वह दुपट्टे की कोर मुंह में दबा कर सकुचाई थी। बावजूद उस सकुचाने के मजबूरी उस के चेहरे पर चस्पा हो गई थी। जिस को वह अपनी पंजाबी बोली के लहजे में ठूंस कर चबाती हुई बोली, ‘आप के लिए नाश्ता लाती हूं जी!’

राकेश समझ गया था कि वह नाश्ता लाने के बहाने अपनी मजबूरी को भगाने गई थी अपने चेहरे से। सचाई तो यह थी कि शालू की एक सगाई दहेज के चक्कर में ही टूट गई थी। और इसी लिए उस के मां-बाप जल्दी से जल्दी राकेश से उस की शादी कर देने पर आमादा थे। इस के लिए वह किसी भी हद तक गिरने को तैयार थे। इशारा यहां तक था कि राकेश शालू के साथ अकेले घूमे-फिरे और जो चाहे तो हमबिस्तर भी हो ले। पर जैसे भी हो शादी कर ले। लेकिन राकेश ने ऐसा कुछ चाह कर भी नहीं किया। उस की अंतरात्मा ने रोक लिया और रही-सही कसर प्लाजा में ‘अर्थ’ फिल्म देख कर निकल गई।

उस ने दूसरी शादी का इरादा छोड़ दिया।

क्यों कि दो औरतों के बीच वह अपनी जिंदगी नरक करने को तैयार नहीं था। जो जहन्नुम उस के हिस्से का था, एक औरत के साथ ही भुगतने के लिए वह तैयार हो गया। प्लाजा की बालकनी से सीढ़ियां उतरते-उतरते ही उस ने फैसला कर लिया था।

कोई 16 बरस पहले की यह घटना राकेश को एक झटके से याद आ गई।

पर आज प्लाजा की सड़क पर बनी रेलिंग पर वह घंटे भर से बैठा था और कोई फैसला नहीं कर पा रहा था। उस के साथ हालांकि महेश जी भी बैठे थे और उसे रह-रह ढाढस बंधा रहे थे, ‘घबराओ नहीं राकेश फैसला तुम्हारे ही पक्ष में होगा!’

फैसला जो सामने की एक बिल्डिंग में होना था। यूनियन के लोग जहां मैनेजमेंट से बात चीत करने गए थे! वहां जाने बातचीत हो भी रही थी कि नहीं। या हो भी रही थी तो बात-चीत क्या रूख़ अख़्तियार कर रही थी यह न तो राकेश जानता था न ही महेश जी। राकेश की तो धड़कन लगातार बढ़ती जा रही थी और दूसरी तरफ महेश जी लगातार उसे ढाढस बंधाते जा रहे थे! सुबह 9 बजे से बैठे-बैठे राकेश ऊबने के बजाय धड़क रहा था। कभी-कभी तो उसे लगता कि उस का दिल बैठ जाएगा। दिन के साढ़े ग्यारह बज गए थे और राकेश ने नाश्ता तक नहीं किया था। खाने-पीने के नाम पर सिर्फ दो गिलास पानी पिया था। बस।

पर उसे भूख भी तो नहीं लग रही थी! उलटे बेरोजगारी की दस्तक का दंश उसे रह-रह डंस रहा था। तिस पर मार्च की धूप भी अब उसे डाह रही थी। कभी प्लाजा की इस रेलिंग पर खिली धूप में अधबैठे वह आती-जाती बेपरवाह लड़कियों और औरतों की ‘लो कट’ ब्लाउजों या समीजों से झांकती छातियों की धड़कन और ‘उभरती’ हिप के ‘मूवमेंट्स’ दर्ज करते नहीं अघाता था। पर आज यह सब कुछ उसे बेमानी जान पड़ रहा था। बेपरवाह लड़कियों और औरतों की आवाजाही आज भी पहले ही की तरह थी पर उन की छातियों की धड़कन या हिप की मूवमेंट दर्ज करना तो दूर उन के आने-जाने की नोटिस भी वह नहीं ले पा रहा था। सेंट में गमकती सारी औरतें उसे कठपुतली की तरह बेजान और मद्धिम जान पड़ रही थीं। तिस पर आते-जाते ‘फटफट’ या कारों का शोर भी उसे लगातार डिस्टर्ब कर रहा था।

चढ़ती हुई धूप को सड़क पर छोड़ कर अब राकेश और महेश जी दुकानों के बरामदे में आ गए थे। रेलिंग यहां भी थी। वह रेलिंग पर बैठा सड़क उस पार की बिल्डिंग में क्या हो रहा है उस के बारे में सोच ही रहा था कि महेश जी ने पूछा, ‘कुछ खाओगे?’

‘नहीं।’ वह संक्षिप्त सा बोल कर चुप हो गया।

‘चलो कुछ खा आते हैं।’ थोड़ी देर बाद महेश जी फिर बोले।

‘मुझे भूख नहीं है।’ राकेश ने महेश जी से बड़े इसरार से कहा।

‘पर मुझे तो भूख लग रही है।’ महेश जी बोले, ‘पास के किसी रेस्टोरेंट में कुछ हलका-फुलका खा लेते हैं। चलो चलें।’ रेलिंग छोड़ कर खड़े हो कर अपना बैग संभालते हुए वह बोले।

‘पर मुझे सचमुच भूख नहीं लगी है।’ राकेश बोला, ‘आप जाइए कुछ खा पी आइए। मैं यहीं हूं।’

‘अच्छा चलो तुम थोड़ा बहुत कोई स्नैक्स ही ले लेना।’ वह उस का हाथ पकड़ते हुए बोले।

‘आप का साथ देने के लिए चलने में कोई हर्ज तो नहीं। पर अगर सामने से मेरा बुलावा आ गया तो?’ राकेश संकोच बरतते हुए बोला।

‘कहीं कोई बुलावा नहीं आएगा।’ महेश जी खीझ कर बोले, ‘मुझे तो लगता है तुम्हारी यूनियन वाले बस फार्मेलिटी में आए हैं।’

‘नहीं, ऐसा तो लगता नहीं।’ राकेश ने विनम्रता से कहा।

‘तो फिर ससुरे चार घंटे से वहां कर क्या रहे हैं?’ सवाल जड़ते हुए वह बोले, ‘मुझे तो लगता है कि तुम्हारा मैनेजिंग डायरेक्टर उन से मिला ही नहीं और यह ससुरे वहां बैठे-बैठे उस से मिलने के लिए ही घिघिया रहे होंगे। या वहीं विजिटर्स सोफे पर बैठे सो रहे होंगे!’

‘क्या पता?’ डिप्रेस होते हुए राकेश बोला, ‘समझ नहीं आता कि क्या करें?’

‘करना क्या है,यह तो तुम्हारी यूनियन नहीं तय करेगी।’

‘क्यों?’

‘क्यों कि तुम्हारी यूनियन बेदम है!’ वह बोले, ‘अगर तुम्हारी यूनियन में जरा भी दम होता तो वह बात-चीत में तुम्हें भी साथ ले गई होती।’ वह थोड़ा और खीझे, ‘तुम्हारे बारे में बात-चीत। और तुम्हें सड़क इस पार छोड़ गए हैं। इस के क्या मायने हैं?’

‘हो सकता है मैनेजमेंट मुझे देख कर भड़क जाता। इस लिए नहीं ले गए हों?’

‘गलत! अगर मैनेजमेंट तुम्हें बात-चीत के लिए देख कर ही भड़क जाने वाला है तो तुम दो चीजें नोट कर लो। एक तो तुम्हारी यूनियन मैनेजमेंट की पिट्ठू है। दूसरे, अगर यह तुम्हें वापस भी किसी सूरत में ले लेते हैं तो भी तुम्हें अब कोई दूसरी नौकरी ढूंढ़नी चाहिए!’

‘नौकरी ढूंढ़ने वाली बात तो अलग है। पर यूनियन हमारी मैनेजमेंट की पिट्ठू नहीं है!’ राकेश ने जोड़ा,’ आफ्टर आल मैं भी यूनियन का इक्जीक्यूटिव मेंबर हूं। इलेक्टेड मेंबर!’

‘भूल जाओ!’ महेश जी बुदबुदाए, ‘जब तुम अब नौकरी में नहीं हो तो मानो यूनियन में भी नहीं। और तुम अपने को यूनियन में मानो तो मानो तुम्हारा मैनेजमेंट और तुम्हारी यूनियन दोनों ही तुम्हें यूनियन में नहीं मानते। जो मानते होते तो तुम्हें भी बात-चीत में ले गए होते!’

‘हां, यह बात तो ठीक कह रहे हैं आप।’ राकेश बुझे मन से बोला।

‘और जो बात चीत में न रखते साथ तो कम से कम बात-चीत से बाहर ही सही रिसेप्शन पर ही तुम्हें बैठने देते। कोई नारेबाजी तो यहां होती नहीं। कोई यूनिट तो है नहीं यहां जो लेबर इकट्ठे हो जाते!’ वह खीझे, ‘पर कहां? तुम्हें तो वह उस बिल्डिंग में छोड़ो उस सड़क पर भी ये नहीं देखना चाहते। वह लोग जो तुम्हारी यूनियन के लोग हैं, मैनेजमेंट के नहीं!’

‘अब क्या करूं?’

‘अब आज तो जो कर रहे हो वह कर लो। पर दुबारा यह जलालत मत उठाना!’

‘सवाल ही नहीं उठता!’

‘एक मिनट में जरा आता हूं।’ कह कर महेश जी रेलिंग पर से उठने लगे।

‘क्यों क्या हुआ?’

‘नहीं, कुछ नहीं। बस एक मिनट में आता हूं।’ कह कर वह गए तो पास के ठेले से कुछ केले लिए हुए लौटे। बोले, ‘लो, खा लो!’

‘हां।,’ बेमन से वह केले ले कर छीलने लगा।

‘अच्छा यह बताओ कि तुम्हारे एम॰डी॰ ने तुम्हारी यूनियन को कोई एप्वाइंटमेंट भी दिया है कि ससुरे यों ही भिखारियों की तरह ‘दे दाता के नाम’ करते हुए चले गए हैं?’

‘नहीं, एप्वाइंटमेंट तो दिया था दिन के साढ़े दस से ग्यारह के बीच का।’ राकेश बोला।

‘तो फिर अपनी यूनियन की औकात समझ लो! चलो बात नहीं हो रही तो कम से कम कोई यहां आ कर बता ही देता कि क्या हो रहा है? कोई यूं ही शकल दिखा देता!’

‘अब क्या बताऊं महेश जी!’ केला खाते हुए वह बोला, ‘कुछ तो दिक्कत होगी ही!’ कहते हुए वह दूसरा केला छीलने लगा। अब उसे लग रहा था कि ख़ूब ढेर सारा केला खा ले। बेहिसाब!

‘और केले लाऊं?’ महेश जी पूछ भी रहे थे।

तो क्या यह ढेर सारे केले राकेश डिप्रेशन में खा लेना चाह रहा था? शायद हां! और जब महेश जी ने दुबारा पूछा कि, ‘और केले लाऊं?’ तो वह बुदबुदाया, ‘हां।’ और महेश जी केले के ठेले की तरफ लपक गए थे।

महेश जी!

जो पहले उस के बॉस थे। उस के पसंदीदा बॉस। इसी कंपनी में। बात बे बात अकड़ जाने वाले महेश जी बेहद भावुक भी हैं यह वह आज महसूस कर रहा था। एक बार तो उन की अकड़ और राकेश के स्वाभिमान के बीच जंग हो गई। बात इतनी बढ़ी कि राकेश ने महेश जी से बात-चीत बंद कर दी। पर इस की इंतिहा यहीं नहीं थी। एक दिन महेश जी ने राकेश को बुलवाया अपनी केबिन में। कहा कि, ‘आप किसी दूसरी नौकरी का बंदोबस्त कर लीजिए राकेश जी!’ राकेश को ‘तुम’ से संबोधित करने वाले महेश जी उस रोज उसे ‘आप’ से नवाज रहे थे तो राकेश इस खाई की गहराई नापते हुए बोला, ‘मेरी कोई गलती ढूंढ़ पाइए तो ढूंढ़ कर निकाल दीजिए। मैं यों ही नौकरी नहीं ढूंढने वाला!’

‘मुझे जो कहना था कह दिया। अब आप जा सकते हैं।’ कह कर महेश जी ने खाई जो गहरी तो थी ही उसे और चौड़ी कर दी थी।

राकेश फिर भी नहीं झुका था।

फिर बाद की स्थितियों ने ही राकेश को महेश जी का करीबी बना दिया। वह उस के स्वाभिमानी होने को मान देने लगे। और आज वह महेश जी के करीबी होने की ही कीमत चुका रहा था कि प्लाजा की रेलिंग पर आज का दिन उदासी और खीझ में गुजार रहा था। क्यों कि एक रोज महेश जी की अकड़ उन के लिए भारी पड़ गई पर वह झुके नहीं। इस्तीफा दे कर बाहर हो गए। सेकेंड भर भी नहीं लगा उन्हें इस्तीफा देने का फैसला लेने में।

फिर उन्होंने कोई नौकरी नहीं की। कंसलटेंसी शुरू कर दी थी। कंसलटेंसी अब उन्हें रास आ गई थी।

जैसे महेश जी की नौकरी अकड़ में गई थी वैसे ही राकेश की नौकरी स्वाभिमान की आन में गई। महेश जी जैसे लोग तो स्वाभिमानी को मान देते थे पर सभी लोग तो ऐसा नहीं करते? कुछ लोग ईगो की एक नई शब्दावली ही हेर बैठे हैं, ‘फाल्स ईगो!’

‘लो केले खाओ!’ महेश जी बोले, ‘और डिप्रेशन को केले के छिलके की तरह कूड़ेदान में फेंक दो ऐसे कि कोई दूसरा भी न फिसले!’

‘चार बज रहे हैं। पर यूनियन के साथियों का कोई अता-पता नहीं है।’ महेश जी की बात को टालते हुए घड़ी देखता हुआ राकेश बुदबुदाया।

‘कैसे अता-पता मिलेगा?’ महेश जी बोले, ‘तुम्हारा एम॰डी॰ बड़ा मक्कार है। मैं बहुत बेहतर जानता हूं उसे। कुत्तों की तरह तुम्हारी यूनियन वालों को अभी रिसेप्शन पर ही बिठाए होगा। मीटिंग का बहाना कर के।’ वह तिड़कते हुए बोले, ‘या यह भी हो सकता है कि अभी तक इस वाले आफिस में आया ही न हो! किसी और आफिस में चला गया हो!’

‘ऐसा तो नहीं होना चाहिए!’ राकेश बुझा-बुझा बोला।

‘इस मक्कार मैनेजमेंट और तुम्हारी कुत्ता यूनियन दोनों ही से मेरा वास्ता पड़ता रहा है। सो मैं जानता हूं।’

‘हां, आप भी तो मैनेजमेंट में रहे हैं?’ राकेश ने धीमे से तंज किया।

‘कायदे से कंपनी का हर इक्जीक्यूटिव मैनेजमेंट का हिस्सा है। तो इस हिसाब से तुम भी मैनेजमेंट में हुए कि नहीं?’

‘मेरा मतलब हायर मैनेजमेंट से है!’

‘कहीं कोई हायर, लोअर मैनेजमेंट नहीं होता!’ महेश जी बोले, ‘सचाई यह है कि पूंजीपति जो चाहते हैं वही होता है। हायर-लोअर मैनेजमेंट तो कर्मचारियों लेबरों की गाली सुनने के लिए यह साले कवच की तरह इस्तेमाल कर गटर में बहा देते हैं।’ वह बोले, ‘अब मुझे ही देखो! क्या मुफ्त में इस्तीफा दे आया था? और क्या तुम यों ही यहां खड़े हो?’

‘खड़े तो आप भी हैं?’

‘यह तो तुम्हारे लिए राकेश!’ वह भावुक होते हुए राकेश के सिर पर हाथ फेरने लगे।

फिर बड़ी देर तक दोनों चुप रहे। बिलकुल चुप!

शाम के कोई साढ़े छ बज रहे थे कि यूनियन के लोग उस पार की सड़क पर दिखे। राकेश बुदबुदाया, ‘निकले तो सब बाहर!’ और उठ कर खड़ा हो गया। महेश जी ने उसे रोक कर फिर से रेलिंग पर बिठा लिया। बोले, ‘उधर जाने की जरूरत नहीं। उन्हीं सब को इधर आने दो!’

‘लेकिन,!’

‘कोई लेकिन वेकिन नहीं। चुपचाप बैठो!’ महेश जी उस की बात काटते हुए बोले।

थोड़ी देर में यूनियन के सभी लोग प्लाजा पर आ गए। तो महेश जी बोले, ‘सब ढूंढ़ नहीं पाएंगे चलो हम लोग मिल लेते हैं!’

मिलते ही यूनियन का जनरल सेक्रेटरी उछला, ‘महेश जी आप?’ वह चहका, ‘आप को कैसे पता पड़ा कि हम लोग यहां हैं?’

‘यह सब छोड़ो तुम यह बताओ कि राकेश के बारे में तय क्या हुआ?’

‘तय तो अभी पूरी तरह नहीं हुआ।’ जनरल सेक्रेटरी उदास होता हुआ बोला, ‘लेकिन यह जरूर तय हुआ कि राकेश जी की सेवाएं बहाल रहेंगी लेकिन....!’

‘लेकिन क्या?’

‘हो सकता है इन को ट्रांसफर कर दिया जाए!’

‘कहां?’ राकेश परेशान हो कर बोला।

‘शायद चंडीगढ़।’

‘यह तो कोई बात नहीं हुई?’ राकेश चिढ़ा।

‘घबराने की बात नहीं। यह ट्रांसफर शायद साल-छ महीने का ही होगा।’

‘क्यों?’

‘वह शायद आबजर्वेशन पर रखेंगे। फिर रिपोर्ट ठीक मिली तो वापस बुला लेंगे।’

‘यह तो मेरा ह्यूमीलिएशन है!’ राकेश बिदका।

‘ये तो है। पर तुम यह बताओ कि यह आर्डर राकेश को कब तक मिल जाएगा।’ महेश जी जनरल सेक्रेटरी से पूछने लगे।

‘शायद इस महीने के भीतर ही।’ यूनियन का प्रेसीडेंट बोला।

‘लेकिन मैं चडीगढ़ जाऊं ही क्यों?’ राकेश तुनका।

‘अभी तो जाना पड़ेगा राकेश जी।’ प्रेसीडेंट बोला, ‘यहां अभी एम॰डी॰ मान नहीं रहे।’

‘पर आप सोचिए कि चंडीगढ़ जाने का मतलब डबल इस्टेबिलिशमेंट। फेमिली वहां ले जा नहीं सकता!’ राकेश बोला, ‘वाइफ को सर्विस छोड़ने को कहना बेवकूफी होगी। बच्चे पढ़ रहे हैं। सो अलग। और अभी-अभी हमने डी॰ डी॰ ए॰ का फ्लैट ख़रीदा है वो अलग। कैसे छोड़ सकता हूं मैं दिल्ली? भला आप लोग ही सोचिए!’

‘कौन तुम्हें दिल्ली छोड़ने को बोल रहा है?’ महेश जी बोले, ‘अभी यह आर्डर मिलने में तुम्हें दस-पंद्रह रोज लगेंगे। तब तक तुम यहां किसी दूसरी कंपनी में ट्राई करो! आर्डर मिलता है तो चंडीगढ़ ज्वाइन कर इस्तीफा दे दो। तुम्हारा फंड वंड नहीं रुकेगा इस से। और इज्जत भी बनी रह जाएगी!’

‘और जो पंद्रह रोज में कहीं कुछ नहीं हुआ तो?’ राकेश बोला।

‘तो भी कोई बात नहीं।’ महेश जी बोले, ‘चंडीगढ़ ज्वाइन कर के छुट्टी मार देना। फिर किसी जगह ट्राई करना।’ वह मुसकुराए, ‘फिर भी बात नहीं बने तो बोलना। मैं कुछ करूंगा। नहीं कुछ बना तो कंसलटेंसी तो मैं तुझे सिखा ही दूंगा।’ वह बोले, ‘अभी यहां से चलो। अच्छी सी ख़बर मिली है तो तुम लोगों को अच्छा सा ‘ट्रीट’ करवा दूं।’ कह कर वह सभी को लिए दिए प्लाजा से चल कर ‘होस्ट’ रेस्टोरेंट आ गए। यहां आ कर भी राकेश को गुमसुम देख कर महेश जी बोले, ‘इतनी सुंदर-सुंदर औरतें बैठी हैं और तू देवदास की तरह उदास बैठा है? चल खुश हो जा।’ वह मजाक करते हुए बोले, ‘बोल जिस औरत से कह तेरी हेलो करा दूं?’

‘नहीं, महेश जी प्लीज!’ राकेश बुदबुदाया। तो महेश जी भी मजाक छोड़ मैनेजमेंट की तुगलकी बारीकियों के ब्यौरों में चले गए। कहने लगे, ‘आख़िर एक आदमी का ईगो सेटिसफाई करने के लिए, एक आदमी की जिद पूरी करने के लिए कंपनी कितनों की बलि चढ़ाएगी? समझ नहीं आता!’

यूनियन के जनरल सेक्रेटरी, प्रेसीडेंट सभी चुप थे। सिर्फ महेश जी ही गर्दन घुमा-घुमा कर बोल रहे थे। अचानक वह जनरल सेक्रेटरी से पूछ बैठे, ‘लेकिन तुम लोगों को इतनी सी बात करने के लिए पूरा दिन क्यों लग गया?’

‘पूरा दिन कहां?’ प्रेसीडेंट बोला, ‘एम॰डी॰ तो जैसे पूरी बात पहले ही से ड्राफ्ट किए बैठा था। जाते ही दो मिनट में उस ने अपना यह प्रपोजल बता दिया।’

‘तो तुम लोग दिन भर वहां क्या कर रहे थे?’ महेश जी ने पूछा।

‘इंतजार! और क्या?’ जनरल सेक्रेटरी बोला, ‘साढ़े दस-ग्यारह बजे की एप्वाइंटमेंट थी पर एम॰ डी॰ आए शाम के साढ़े चार बजे। आते ही एक मीटिंग में लग गए। हम लोग तो शाम सवा छ बजे मिल पाए!’

‘बैठे-बैठे बोर हो गए!’ प्रेसीडेंट ने जोड़ा।

‘हां, एक बात तो बताना भूल गए!’ जनरल सेक्रेटरी बोला, ‘एम॰ डी॰ ने राकेश जी को एक स्टेप डिमोट करने की भी बात कही है!’ कह कर वह उदास हो गया। लेकिन राकेश फूट पड़ा, ‘यह क्या बात हुई?’ वह बोला, ‘आप लोग वहां एम॰डी॰ से समझौता वार्ता करने गए थे या डिक्टेशन लेने?’ वह बोला, ‘हद है कि मेरी गलती भी नहीं फिर भी एक सनकी की जिद पूरी करने के लिए मेरा ही ट्रांसफर, मेरा ही डिमोशन!’ राकेश इतना तेज बोला कि रेस्टोरेंट में बैठे लोग उसी को घूरते हुए बिदकने लगे। रेस्टोरेंट का मैनेजर उस की सीट के पास आ कर खड़ा हो गया उस के साथ ही सिक्योरिटी वाले भी।

महेश जी समझ गए कि बात ज्यादा बिगड़ गई है। उन्हों ने राकेश का हाथ पकड़ कर दबाया और आंखों ही आंखों में चुप रहने का इशारा किया और वेटर को बुला कर कहा कि, ‘बिल लाओ! जल्दी!’

हालांकि बिल उस ने देखा काफी ज्यादा था। पर बिल दे कर महेश जी राकेश को पकड़े बाहर आए। उसे समझाने लगे, ‘हैव पेसेंस!’ राकेश का हाथ पकड़े-पकड़े वह भावुक होने लगे। बोले, ‘आओ तुम्हें मैं घर छोड़ देता हूं।’ कह कर वह कनॉट सर्कस से पालिका बाजार की कार पार्किंग की ओर बढ़ने लगे। पर राकेश बोला, ‘नहीं आज मैं बस से जाऊंगा।’ बोला, ‘प्लीज महेश जी!’

‘अच्छा चलो टैक्सी ले लो।’

‘नहीं आज तो डी॰टी॰सी॰ की बस से जाऊंगा।’ उस ने जोड़ा, ‘बेरोजगार हो गया हूं न।’ कहते हुए वह पस्त हो गया और जैसे ख़ुद से गुपचुप पूछने लगा, ‘बेरोजगारी कहीं भावुक और नपुंसक तो नहीं बना देती?’ पर उस ने महेश जी से कुछ नहीं कहा।

‘किसने कहा कि तुम बेरोजगार हो गए हो!’ उधर महेश जी भावुक होते हुए बोले, ‘अभी मैं हूं तेरे लिए!’ वह उस का हाथ पकड़ कर बोले, ‘चल तुझे बस स्टैंड छोड़ दूं।’ फिर वह यूनियन वालों की तरफ पलटे, ‘मैं इसे छोड़ देता हूं।’

जनपथ बस स्टैंड पर आ कर राकेश महेश जी के साथ खड़ा हो गया। महेश जी ने बैग से कुछ रुपए निकाले। राकेश को देते हुए बोले, ‘इसे रखो। तुम्हारे काम आएगा!’

‘और तो सब ठीक है। पर यह नहीं। महेश जी प्लीज!’ उस ने बड़ी लाचारी से जोड़ा, ‘बेराजगार हुआ हूं, भिखारी नहीं बना हूं। नहीं, महेश जी प्लीज!’

‘ठीक! कोई बात नहीं।’ वह बोले, ‘पर कोई ऐसी वैसी बात हो तो मुझ से बोलना। संकोच नहीं करना।’ वह बोले, ‘बाकी मैं भी कहीं देखता हूं।’

‘हां यह ठीक है!’ राकेश बोला। तब तक उस की बस आ गई थी। वह बस में चढ़ने लगा तो महेश जी बुदबुदाए, ‘आई एम प्राउड आफ यू!’

वह लपक कर उन से लिपट गया। यह पहली बार हुआ कि वह उन से लिपट रहा था।

दोनों ही भावुक हो गए थे!