प्लेटफार्म नम्बर १० / तुषार कान्त उपाध्याय
'ये गाड़ियों इन दिनों कितनी लेट हो जायेंगी कहा ही नहीं जा सकता। अब तो कुहासे का समय भी ख़त्म हो गया! और वह भी सात घंटे लेट। क्या मतलब है।' झुंझलाता जोसेफ बगल में खड़े अंजन सहयात्री से बोल रहा था।
जब वह होटल से निकला तो गाडी के समय पर होने की सुचना थी। प्लेटफार्म आकर पता चला गाड़ी अचानक विलम्ब से जायेगी। सुदूर दक्षिण अपने शहर लौटने के-के लिए उसे चालीस से भी ज़्यादा घंटे की यात्रा करनी थी और शुरुवात ही इतनी देर। इधर उधर टहलता वह प्लेटफार्म नंबर 10 पर आ गया। स्टेशन के कोलाहल और रेलमपेल से थोडा दूर। उसकी गाडी इसी प्लेटफार्म से जाती है और शायद एक दो और भी। दिन भर प्लेटफार्म खाली ही रहता है। देखने से लगता है जैसे वह एकलौता कीओस्क किसी गाड़ी के आने पर ही खुलता हो। अभी एक बिना इंजन लगे, ढेर सारे डब्बों वाली गाड़ी है। लोकल पैसेंजर के ढेरों डब्बे लिए.
जोसेफ पत्थर के बेंच पर बैठता, कंधे पर टंगे बैग से कई किताबों में से एक निकलता है। मर्क़ुएज़। ये ठीक है। 'वन हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सोलित्युड'। ... किताब के बीच से बुक मार्क निकाल, ऊपर वाले पाकेट में रखता उसे याद आता है क्रिसमस की छुट्टियों में आधा पढ़ पाया था। जिन्दा रहने के जद्दो-जहद में हम अपने लिए जी कहाँ पाते हैं। वह धीरे-धीरे किताब में मगन हो जाता है।
सामने कुछ आवाज़ सुन किताब से नज़र उठाता है। सात आठ बच्चे, यही कोई बारह से सोलह-सतरह के. एक बड़ा वाला बच्चा बांह पकड एक 12-13 साल गोरे-चिट्टे, लेकिन सभी की तरह थोड़े फटे और थोड़े मैले कपड़े पहने, बच्चे को डब्बे के भीतर खीचने की कोशिश कर रहा है। बच्चे के चेहरे पर किसी जिबह होने जा रहे किसी मेमने की कातर विवशता है। वह डब्बे के सीखचों के पकड़े पूरी ताकत से-से अन्दर नहीं जाने की कोशिश करता है। साथ वाले बच्चे धक्का देकर डब्बे के भीतर ले जाते हैं।
'चल न, चल न ... बहुत दरद थोड़े होता है ... तोरो मज़ा आएगा ...' और उसे अंदर खीच ले जाते हैं। खाली पड़ी रेलगाड़ी के भीतर ही भीतर कई डब्बे आगे।
पहले तो जोसेफ कुछ समझ नहीं पाता। पर जब उसे अह्सास होता है तो अंडर तक सिहर उठता है। क्या करे। मन उद्विग्न। कुछ न कर पाने का मलाल। ... सारी दुनिया से अलग इन गाड़ियों की एक दुनिया है। पता नहीं कितने इन्ही प्लेटफार्मो पर ज़िन्दगी गुज़ार जाते हैं। कुछ दिनो तक तो माँ का पता होता है। पर पिता? वह तो यकीन से जन्म देने वाली माँ भी नहीं बता पायेगी। पिछले साल हैदराबाद से दिल्ली की यात्रा याद आती है। जोसेफ की आँखों के आगे भीख मांगती वह पन्द्रह सोलह से भी कम की-की बच्ची कौंधती है। अर्ध विक्षिप्त-सी. फटे कपड़ों में हाथ फैलाये और बड़ा-सा पेट फुलाए वह लडकी। शायद सात आठ महीने का गर्भ ढो रही थी। उसे याद है पूरी यात्रा वह बेचैन रहा था। बहुत देर बाद ... वापस किताब में रमने की कोशिश करता है ...
प्लेटफार्म पर चहल पहल शुरू हो गयी है। उसकी गाडी जो यही से खुलती है, कभी भी प्लेटफार्म पर आकर लग सकती है। वह वापस बुकमार्क किताब में लगा, उसे वापस बैग के उपरी पाकेट में रखता है। मुंह-हाथ धो वह खुल चुके कीओस्क की और चाय के लिए बढ़ता ही है कि ट्रेन सरकती हुई प्लेटफार्म में आ लगती है। ए-सी 2 का कोच सामने लग जाता है। पहले अपना सामान डब्बे के भीतर जमा कर बैठता है, फिर एक सहयात्री से बोलकर प्लेटफार्म पर उतर आता है। उसकी चाय की तलब से ज़्यादा उन बच्चो को फिर से देख पाने की उत्सुकता उद्विग्न करती है। हाथ में चाय का पेपर-कप लिए हलकी चहलकदमी करता है। यात्रियों की भीड़ से भर चुके प्लेटफार्म पर उसकी नजरे बच्चो के उस झुण्ड की निरर्थक तलाश करती है।
और तभी एक बच्चा बदहवास, तेजी से भागता, इसी की तरफ आता दीखता है। पीछे-पीछे एक युवा सिपाही। हाथ में लिए डंडे से जोर से मारता हुआ दौड़ता आता है। बच्चा जब आगे निकल जाता है तो खीझता सिपाही उसके माँ बहन की क्लासिक गालियाँ बकता, फिर से मिल जाने पर हाथ पाव तोड़ने की धमकी देता वापस लौटने लगता है। अपने-अपने अर्थ में, इन गालियों का मतलब किसी के लिए नहीं। भागते बच्चे के लिए ये रिश्ते ही कोई मतलब नहीं रखते, सिपाही तकियाकलाम की इस्तेमाल करता है और यात्री। वह निस्पृह है। उन्हें इससे के लेना-देना। उनके साथ कुछ थोड़े ही हुआ है।
गाड़ी चल रही होती है। घन्टों बाद रुकेगी अगली स्टेशन पर। अपने आप को सहज कर, जोसेफ फिर से किताब खोल फिर से कहानी के भीतर रमने की कोष करने लगता है। कहानी के भीतर का संघर्ष और बाहर की दुनिया में जिन्दा रहने का-का संघर्ष। वह एक द्वंद्व से गुजरता है। तभी बच्चो अ एक झुण्ड घुस आता है। ये वही लड़के है या दुसरे, कहना मुश्किल है। सामने किनारे वाली सीट के बुजुर्ग सज्जन किसी बात को लेकर झुझला जाते है। झुण्ड के किसी बच्चे को डांटते है तो वह जोर से हंसने लगता है।
बुजुर्ग सभ्य और संभ्रांत भाषा में गलियाँ देते हैं–ब्लडी, रास्कल और कुछ इसी तरह की। बच्चे समझते नहीं। न उनकी गलियों को और न उनकी ऊँची हैसियत को। एक बड़ा वाल बच्चा उलझने लगता है तो-तो जोसेफ बीच बचाव करने उठ जाता।
'तुम थोड़े आदर से नहीं बात कर सकते? देखते नहीं बुजुर्ग आदमी हैं' ...
'आदर से ... ऊ का होता है सर।'
जोसेफ चुप ...
सामने वाली बर्थ पर अधलेटी-सी महिला हलकी आवाज़ में गाने बजा रहीं है।
' हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद ...
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है ... '