फंदा / सुशील कुमार फुल्ल
वनबिलाव की चीख से जंगल रिरिया उठा।
रिड़कू आगे-आगे और चेला पीछे-पीछे। रिड़कू बार-बार ऊपर देखता, उसे लगा, उसकी आँखें फट गई हैं। उसकी नजर कहीं टिकती नहीं। आह! आँखों का फट जाना कितना कष्टदायक होता है, उसने सोचा। उसका शरीर सिर से पाँव तक झनझना उठा।
गर्मियों के दिनों में स्कूल से एक-डेढ़ बजे छुट्टी हो जाती थी । फिर डार की डार हुड़दंग मचाती चल पड़ती। रास्ते में बिनवा खड्ड पड़ती थी। बस, पहला पड़ाव वहीं होता। पहले सब लड़के ठंडे-ठंडे पानी में डुबकियाँ लगाते, फिर पत्थरों पर लेट जाते। फिर थोड़ी तपन महसूस होती, फिर डुबकी लगाते, तभी चलो पकड़ो की टेर लग जाती। रिड़कू तथा फुलमां ढलानों पर उगे आक के पौधों से दूध इकठ्ठा करते, छोटी-छोटी गोलियाँ बनाते, फिर किसी बड़े पत्थर के पास खड्ड में ठहरे हुए पानी में उन गोलियों को छोड़ देते। आक का विष पानी में घुल जाता तथा छोटी-बड़ी मछलियां ऊपर तैर आतीं। सभी लड़के चिल्ला उठते, आँखें फूट गईं, चलो बनाएँ, फिर सब लड़के हो-हो करते मछलियों को पकड़कर खड्ड के किनारे उन्हें पकाने खाने में लग जाते।
रिड़कू आक की गोलियाँ तो बड़े शौक से बनाता था, परंतु जब मछलियों के तले जाने का समय हो जाता तो उसे उबकाई आने लगती। एक बार तो उसे उल्टियाँ होनी शुरू हो गई थीं। फिर उसके साथियों ने उसे पीटा था। सारा मजा किरकिरा कर दिया।
रिड़कू चिल्लाता रहा था, फूटी आँखें मैं न खाऊँ। फुलमां ने उसके घावों को सहलाया था। फुलमां, अभी कैसी सुंदर लग रही थीं ये मछलियाँ, उछलती-कूदती-और अब ये निष्प्राण हो गई हैं। चेतन से जड़। फुलमां, मुझे लगता है मैं भी एक मछली हूँ तथा आक के दूध से मेरी आँखें फूट गई हैं और मैं भँवर में फँस गया हूँ।
बेवकूफ। फुलमां कहती, गद्दियों के घर जन्म लिया है और जीव हत्या से डरता है।
फुलमां, आँख फोड़ कर मारने से कहीं अच्छा है डायनामाइट लगाया जाए।
मछलियों को तो मरना ही है। भले ही कोई भी ढंग अपनाओ, कोई फर्क नहीं पड़ता।
रिड़कू चुप हो गया था। उसके पास कोई तर्क नहीं था। किसी साथी ने कहा था, मछलियाँ, बकरे-बकरियाँ, मुर्गियाँ तो फसल की भांति होती हैं। जो फसल उगाई जाती है, उसे काटना तो बनता है। कल्पना ही कल्पना में वह मछलियाँ उगा लेता, कभी बकरे उगा लेता। फिर जब काटने की बारी आती तो वह बिलख उठता और उल्टियाँ करने लगता।
वनबिलाव की रिरियाहट ने जंगल में दहशत पैदा कर दी।
रिड़कू के कंधे पर रस्सा लटका हुआ था। पीछे-पीछे चेला जा रहा था। रिड़कू को लगा, उसकी आँखें फूट गई हैं तथा वह अनुमान से पानी के भँवर में ऊपर तैरने लगा है।
रिड़कू, इस चाल से चलोगे तो शाम तक भी वहाँ नहीं पहुँच पाएँगे। मुझे और भी बहुत काम है। सिर्फ तुम्हारे बाप की ही नहीं। अचानक चेला गुर्राया।
वह बहुत तेज-तेज चलने लगा फिर भी उसे महसूस हो रहा था किसी अजगर ने गीदड़ को लपेट लिया था। वह बार-बार जालग जोत की ऊँचाई को अपनी आँखों से नापने का प्रयत्न करता परंतु उसे लगता आँखें फूट जाने के कारण वह किसी बालक के फंदे में फँस गई मछली जैसा हो गया था। उसे लगा उसके मार्ग पर काँटे-ही-काँटे उग आए थे तथा आस-पास के वृक्ष दहकने लगे थे। वह सँभल-सँभल कर चलने लगा।
बहुत से मोड़ पीछे छूट गए थे। चेले ने कई बार बातचीत का सिलसिला शुरू करना चाहा, परंतु रिड़कू तो कहीं खो गया था। बातचीत में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। वह तो मन ही मन बतियाता चला जा रहा था।
अरे ऊँट की तरह मुँह उठाए चले जा रहे हो। जालग जोत तो अभी आ गई, चेले ने चेताया।
रिड़कू ठहर गया। सारी घाटी ठहर गई थी। वनबिलाव की चिंघाड़ उसे बेंध गई।
अब सोचते ही रहोगे या वह स्थान भी दिखाओगे? चेले ने डाँटा।
हाँ हाँ। रिड़कू की आँखें भीग गईं। उसकी इच्छा हुई कि वह चेले को धकिया कर खड्ड में नीचे पहुँचा दे तथा वह स्थान दिखला दे परंतु उसका धर्मभीरू मन चौकस हो गया था।
वह चेले को लेकर उस स्थान पर पहुँचा जहाँ से उसका पिता चुटकू अचानक लड़खड़ाते हुए नीचे खड्ड से लुढ़क गया था। पर्वत की ढलान से लुढकता हुआ चुटकू गड़र-गड़र करता कहीं नीचे पाताल में खो गया था।
गड़र.....गड़र.....गड़रिया.....जालग जोत की ऊँचाई से एकदम नीचे खड्ड में।
रिड़कू खड्ड की गहराई को नापता हुआ चिल्लाया था, नहीं.....नहीं.....उसकी आवाज पत्थरों से टकरा-टकरा कर खन्न......खन्न की आवाज पैदा कर रही थी। ढलान के पत्थरों पर खून के बने चित्र उभर आए थे।
जब उसे होश आया तो उसकी भेड़-बकरियाँ बहुत आगे निकल चुकी थी। यह बेतहाशा भागा था, साले जानवर.....निर्मम....मदमस्त पागल जानवर....मिचमिचाते रिरियाते। रिरियाहट का ध्यान आते ही उसकी धमनियों में बनबिलाव की चिंघाड़ उतर गई। उसे बिल्ले बिल्लियों का रोना कभी अच्छा नहीं लगा।
रिड़कू ने भेड़ बकरियों को एक गुफा में खदेड़ दिया था तथा वह हाँफता-हाँफता-सा चेले की ओर दौड़ आया था।
चेले ने सुना तो अचानक उसके चेहरे पर मुस्कान दौड़ गई थी।
रिड़कू की इच्छा हुई थी कि उसकी आँखों में आक का दूध डाल दे या कुछ और डाल दे। चेला भी मनोवैज्ञानिक था, व्यवहारकुशल था तभी उसने गंभीरता का लबादा ओढ़ते हुए कहा, मुझे बड़ा सदमा लगा है। तुम्हारा पिता कितना नेक था। जालग जोत से नीचे गिरना....आह! उसका शव निकाला नहीं जा सकता। रिड्कू, तुम! चिंता मत करो मैं तुम्हारे साथ चलूँगा। मैं। चुटकू की आत्मा को निकाल लाऊँगा। आत्मा की शांति के लिए लगभग एक वर्ष लगेगा...जप-तप करना होगा। ऐसा न करें तो आत्मा भटकती रहती है। तुम घबराओ नहीं बच्चे , तुम्हारी सहायता करना मेरा परम धर्म है। रिड़कू, तुम अपने आप को अनाथ मत समझो, मैं जो हूँ।
रिड़कू सुनता रहा था, उदास-सा, उपकृत-सा। चेले ने देवता का रूप धारण कर लिया था।
वे दोनों जालग जोत पर खड़े थे।
बनबिलाव फिर रिरियाने लगे। रिड़कू को लगा सारा जंगल वनबिलावों से भर गया है तथा वह अचानक उनमें घिर गया है-खरगोश-सा।
कहीं पास ही गीदड़ हुआं-हुआं करते हुए निकल गए। रिड़कू को थोड़ी सांत्वना मिली।
रस्सा लाओ, रस्सा। चेला चिल्लाया।
रिड़कू ने उसे रस्सा पकड़ दिया। चेले ने रस्से के सिरे से फंदा बनाया। इसे खड्ड में लटकाकर चुटकू की आत्मा को बाहर खींचा जाना था। फिर इसी रस्से को चुटकू समझ कर इसका विधिवत दाह-संस्कार किया जाना था।
चेले ने अभी मंत्र पढ़ना शुरू नहीं किया।
रिड़कू चाहता था कि चेला तुरंत अपनी कार्यवाही शुरू कर दे, परंतु चेला तो पत्थर हो गया था।
मेमनों की मिमियाहट ने एकाएक चेले में हलचल पैदा कर दी। कुछ सोचकर बोला, मेमने की मिमियाहट में चुटकू की आत्मा भटक गई है। अतः तुम्हारे पिता की आत्मा खींचने से पहले मेमने की बलि आवश्यक हो गई है।
रिड़कू हैरान-परेशान। उसे लगा उसके पिता की आत्मा खींचने वाला फंदा उसकी गर्दन के इर्द-गिर्द लिपटता चला जा रहा था। जैसे मछली की आँखें फोड़ दी हों, फिर अपने आप ऊपर तैर आएँगी। रिड़कू को लगा वह एक बार मछली बन गया है। चेला भी क्या चीज है, वह सोचने लगा।
उसे याद है। एक बार मेमने की बलि दी जा रही थी। गर्दन काटी गई। रक्त की फुहार निकल पड़ी। चेला चिल्लाया-हटो, हटो, मुझे खून पीना है और उसने फुहार के मुहाने पर अपना मुँह लगा लिया था। मुँह-सिर खून से लथपथ हो गया था परंतु चेला खून पीए जा रहा था। रिड़कू को घिन हो गई थी और वह वहाँ से चला गया था।
रिड़कू ने कहा, आप पहले आत्मा तो निकाल लें, फिर मैं आपको मेमना भी दे दूँगा।
अकड़दंग....अकड़दंग पकड़ भुजंग....मैं ना जाऊँ उसके संग, पकड़, भुजंग.....पकड़ भुजंग, चिल्लाते-चिल्लाते चेला बोला, मेमना लाओ.....मेमना....मेमने में आत्मा.....आत्मा में मेमना.....आता है या करूँ कपाल प्रसंग.....अकड़दंग.....पकड़ भुजंग.....अकड़दंग।
रिड़कू डर गया, फिर भी उसकी इच्छा हुई कि वह सारे परंपरागत संस्कारों को झटककर अपने आप को चेले के फंदे से मुक्त करवा ले।
तभी वनबिलावों ने रिरियाना शुरू कर दिया।
कहीं पिता की आत्मा भटकती ही न रहे, रिड़कू ने सोचा। पितृ ऋण से उऋण होने की लालसा.....रिड़कू ने कहा, अच्छा, मैं मेमना लाता हूँ।
नहीं मैं अपनी इच्छा से चुनूँगा? चेले ने आदेश दिया।
रिड़कू काँप गया। कहीं वह कमलू....को ही न चुन ले। कमलू से उसे विशेष नेह है। उसके पिता की भेंट कमलू.....दो चमकती नन्हीं आँखें.....ऐसा हुआ तो.......नहीं.....नहीं.....नहीं, ऐसा नहीं होगा।
उसे लगा खड्ड की मछलियों की आँखें फूट गई हैं। काश! चेला भी उसी खड्ड की मछली होता। चेले ने आँखों ही आँखों में टोह ली, फिर वह एक मेमने की ओर बढ़ गया।
रिड़कू चिल्लाया-नहीं, यह नहीं।
नहीं-नहीं......यही जो मैंने चुना है।
नहीं.....इसे हाथ मत लगाना।
मेमने के लिए छीना-झपटी होने लगी। कमलू मिमियाने लगा। रिड़कू बोला-अच्छा बात सुनो, मत निकालो आत्मा। तुम दफा हो जाओ यहाँ से।
रिड़कू, तुम गद्दियों की मर्यादा को भंग कर रहे हो, चेले की अपमान कह रहे हो। चेले ने वस्तुस्थिति को भाँपते हुए पैंतरा बदला। अच्छा, पहले आत्मा ही निकाल लेते है, मेमना बाद में ले लूँगा। ऐसा कहकर चेले ने भेड़ बकरियों के समूह की ओर हसरत भरी नजर से देखा-हूँ साला....कमलू का सगा।
रिड़कू कगार पर खड़ा था, रस्सा पकड़े कुछ मंत्र पढ़कर चेले ने कहा, रस्सा लटकाओ। फंदा लटका दिया गया।
चेले के चेहरे पर मुस्कराहट थी। रिड़कू आँखें बंद किए खड़ा था। चेला बोला-बस, अभी आत्मा खींचता हूँ.....बस अभी.....उसने फिर एक बार रिड़कू को देखा। फिर खड्ड को.......उसकी गहराई को......उसकी आँखें फट गई हैं।
चेला अट्हास कर रहा था, परंतु वनबिलाव जोर-जोर से रिरियाने लगे थे।