फल / हेमन्त शेष

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डाली पर लटके देखते ही जिसे तोड़ लेने को जी चाहे वह चीज़ है फल ईमान बिगाड़ देने की हद तक कुदरत का नायाब सा तोहफा, जो मंडी में आते आते इतना महँगा हो चुकता है कि बस! हर दो तीन दिन में सब्जी मंडी जाता हूँ- पालक-मेथी की खोज में, और कनखियों से इम्पोर्टेड फलों की दुकान पर हसरत भरी निगाह डालता रहता हूँ- रघुवीर सहाय जी की फल संबंधी एक कविता याद करते.

सोच कर खुश होता हूँ- विदेशी फलों के बहाने ही से सही, कविता तो याद आई- ये क्या कम बात है!