फ़रिश्ता / लिअनीद अन्द्रयेइफ़ / प्रगति टिपणीस
1. साश्का का अक्सर यह मन करता कि वह वो सब करना बन्द कर दे, जिसे लोग ज़िन्दगी कहते हैं। वह सुबह उठते ही ऐसे ठण्डे पानी से मुँह नहीं धोना चाहता था जिसमें बर्फ़ के टुकड़े तैरते हों । वह स्कूल नहीं जाना चाहता था ताकि उसको किसी की डाँट न सुननी पड़े । वह सारी शाम मुर्ग़ा बनकर बैठने की माँ की सज़ा की नाफ़रमानी करना चाहता था ताकि उसकी पीठ और सारे बदन में दर्द न हो । लेकिन चूँकि अभी वह सिर्फ़ तेरह साल का ही था और उन तौर-तरीक़ो से नावाक़िफ़ था, जो लोग आमतौर पर ज़िन्दगी जीना बंद करने के लिए अपनाते हैं। इसलिए उसने स्कूल जाना, मुर्ग़ा बनना वग़ैरह जारी रखा, और उसे लगने लगा कि ज़िन्दगी तो कभी ख़त्म ही नहीं होगी। एक के बाद दूसरा साल बीतेगा, फिर तीसरा; लेकिन वह स्कूल जाता रहेगा, मुर्ग़ा बनता रहेगा। साश्का का मन चूँकि विद्रोही और साहसी था, इसलिए वह इन ज़्यादतियों को लेकर बे-मुरव्वत न रह सका और ज़िन्दगी से बदला लेने लगा। उसने अपने साथियों को मारना-पीटना, अपने से बड़ों के साथ बद-सलूकी करना, अपनी कॉपी-किताबें फाड़ना, और हर बार शिक्षकों और माँ से झूठ बोलना शुरू कर दिया, सिर्फ़ अपने पापा से वह कभी झूठ नहीं बोलता था।
जब कभी लड़ाई-झगड़े में कोई उसकी नकसीर फोड़ देता तो वह नकसीर को कुरेद कर और बिगाड़ लेता और फिर इतनी ज़ोर-ज़ोर से चीख़ने-बिलखने लगता कि उसकी चीख़ें लोगों के बर्दाश्त करने की सभी हदें पार कर जातीं और सभी नाक-भौंह सिकोड़ने लगते, कान बंद करने लगते। थोड़े समय बाद जब उसे लगता कि अब चिल्लाना काफ़ी हुआ, तब वह अपनी जीभ निकालकर सबको चिढ़ाता और फिर अपनी फटी-पुरानी कार्टून की कॉपी निकालकर कार्टून बनाने लगता। उस कार्टून में वह ख़ुद को चीख़ता हुआ, लोगों को भौंहें सिकोड़ते और कान बन्द करते हुए तथा उस बच्चे को डर से थरथराते हुए चित्रित करता जो लड़ाई में उससे जीत गया होता था। उसकी पूरी कॉपी ऐसे ही कार्टूनों से भरी हुई थी। कॉपी के हर दूसरे-तीसरे पन्ने पर एक कार्टून बार-बार दिखाई देता था, जिसमें एक नाटी-मोटी औरत सींक जैसे दुबले-पतले लड़के को बेलन से पीट रही होती। उसके नीचे, बड़े और भद्दे लफ़्ज़ों में दर्ज होता :
— माफ़ी माँग, पिल्ले !
और जवाब लिखा होता :
— नहीं माँगूँगा, चाहे तू मेरी जान ले ले !
क्रिसमस के ठीक पहले साश्का को स्कूल से निकाल दिया गया और इसपर जब उसकी माँ ने उसे पीटना शुरू किया तो उसने अपने दाँतों से माँ की उँगली काट ली। उसकी इस करतूत ने उसे सारे डरों से आज़ाद कर दिया और अब वह अपनी मर्ज़ी का मालिक हो गया। उसने सुबह उठकर ठण्डे पानी से मुँह धोना बन्द कर दिया। अब वह पूरा-पूरा दिन लड़कों के साथ आवारागर्दी करने या लड़ने-झगड़ने में बिताने लगा। इसलिए उसकी माँ ने उसे खाना देना बन्द कर दिया। अब भूख ही एक ऐसी चीज़ थी जिससे वह डरता था। उसके पापा चुपके से उसके लिए रोटी और उबले आलू वग़ैरह बचाकर रख लेते थे। साश्का को इन हालात में ज़िन्दगी बसर करना मंज़ूर था।
क्रिसमस से पहले वाले शुक्रवार को साश्का लड़कों के साथ तब तक खेलता रहा, जब तक सब घर नहीं लौट गए और आख़िरी साथी के जाने के बाद मैदान का छोटा गेट ज़ंग और सर्दी के चलते एक बार फिर खड़खड़ा कर बंद न हो गया। अँधेरा तेज़ी से छाने लगा था और अंधी-गली के उस छोर से जो मैदान की ओर था, धूसर बर्फ़ीली धुंध बढ़ी आ रही थी। सड़क के दूसरे छोर पर खड़ी निचली अँधेरी इमारत में लाल रोशनी जल उठी थी। पाला बढ़ता जा रहा था और साश्का जब उस रोशनी के घेरे से गुज़र रहा था तो उसे हवा में तैरते बर्फ़ के फ़ाहे भी दिखाई दिए। वह समझ गया कि अब घर लौटना ही पड़ेगा ।
— आधी रात बिताकर कहाँ से आ रहा है, पिल्ले ?
माँ उस पर चिल्लाई और मारने के लिए हाथ भी उठाया, लेकिन मारा नहीं। उसकी आस्तीनें ऊपर की ओर मुड़ी हुई थीं, जिसके चलते उसकी सफ़ेद और मोटी बाहें दिख रही थीं। बिन भौंहों वाले उसके सपाट चेहरे पर पसीने की बून्दें चमक रही थीं। साश्का जैसे ही उसके पास से गुज़रा, उसे वोदका की जानी-पहचानी भभक महसूस हुई। उसकी माँ गंदे नाख़ूनों वाली अपनी मोटी तर्जनी से अपना सिर खुजलाती रही और चूँकि वह उसे डाँटने-फटकारने की हालत में नहीं थी, इसलिए बस थूकती और बड़बड़ाती रही :
— निक्कमा कहीं का !
साश्का ने हिक़ारत से अपनी नाक सिकोड़ी और कमरे के उस तरफ़ चला गया, जहाँ से उसके पापा की भारी साँसें सुनाई दे रही थीं। उन्हें हमेशा ठण्ड लगती रहती थी और गर्म होने की कोशिश में वे अपनी चारपाई पर अपने हाथ अपनी जाँघों के नीचे दबाए बैठे रहते थे ।
उन्होंने फुसफुसाते हुए साश्का से कहा :
— साश्का ! स्वेचनिकफ़ की नौकरानी आई थी। वहाँ तुम्हें क्रिसमस के जश्न पर बुलाया गया है।
साश्का ने हैरानी से पूछा :
— तुम झूठ बोल रहे हो, न?
— हे भगवान ! यह चुड़ैल जानबूझकर तुम्हें कुछ नहीं बता रही है, लेकिन इसने तुम्हें उनके यहाँ भेजने के लिए जैकेट तक सिल ली है।
साश्का ने और भी ज़्यादा हैरानी से फिर पूछा, — तुम झूठ बोल रहे हो न ?
अमीर स्वेचनिकफ़ परिवार की कोशिशों से ही साश्का को इलाक़े के अच्छे स्कूल में दाख़िला मिला था और स्कूल से उसे निकाले जाने के बाद से उन्होंने उसे अपने यहाँ बुलाना बंद कर दिया था।
उसके पापा ने भगवान की क़सम खाते हुए अपनी बात दोहराई। साश्का सोच में पड़ गया। फिर पापा की चारपाई पर चढ़ते हुए वह उनसे बोला :
— ज़रा थोड़ा अन्दर की ओर खिसको !
फिर बोला, — लेकिन मैं उन बेकार लोगों के यहाँ नहीं जाऊँगा। अगर मुझ जैसा ‘बिगड़ैल लड़का’ उनके घर पहुँच जाएगा तो वे कुछ ज़्यादा ही फूल जाएँगे। मानो ख़ुद बहुत अच्छे हों। ख़ुद तो भगवान के दुश्मन हैं और मुझे बिगड़ैल कहते हैं ।
ठण्ड से काँपते हुए पापा बोले, — ओह, साश्का, साश्का, इतना ग़ुरूर अच्छा नहीं होता !
साश्का ने बेरुख़ी से जवाब दिया, — लेकिन तुमने तो किया था न? तुम तो चुप ही रहो : औरतों तक से डरते हो। डरपोक कहीं के !
पापा चुपचाप बैठे ठण्ड से काँपते रहे। वह कमरा दो हिस्सों में बँटा हुआ था और कमरे को बाँटने वाली दीवार ऊपर तक नहीं बनी हुई थी, इसलिए कमरे के दूसरी तरफ़ जल रही लालटेन की रोशनी इस तरफ़ भी पहुँच रही थी, जो साश्का के पापा के चौड़े माथे पर एक सफ़ेद धब्बे की तरह लग रही थी। इस रोशनी में पापा की धँसी हुईं आँखें और ज़्यादा काली लग रही थीं। एक दौर था, जब उसके पापा बहुत ज़्यादा वोदका पिया करते थे, तब उसकी माँ उनसे डरती थी और नफ़रत करती थी। लेकिन जब पापा को ख़ून की कै होने लगीं तो उन्हें शराब पीना बंद करना पड़ा। तब से पता नहीं क्यों, माँ ने पीनी शुरू कर दी और धीरे-धीरे उसे वोदका की लत लग गई। और अब वह अपने आदमी से उन सब बातों का बदला लेने लगी, जिन्होंने उसकी ज़िन्दगी को जहन्नुम बना रखा था। उसका शौहर अपनी पियक्कड़ी के दिनों में उससे अबूझ-सी बातें किया करता था। वह काम के बाद सीधे घर न लौटकर दूसरे पियक्कड़ों के साथ शराब पीने जाया करता था और देर रात को अपने ही जैसे गंदे, बदसूरत और उजड्ड लोगों के साथ घर लौटता था।
आश्चर्य की बात तो यह है कि शराब पीना शुरू करते ही साश्का की माँ का बदन फूलने लगा था, उसके हाथ मोटे और भारी होते जा रहे थे। अब वह पहले से ज़्यादा निडर हो गई थी और धड़ल्ले से अपने मन में आने वाली हर बात कहने लगी थी। वो जिसे चाहती, उसे घर लाने लगी थी और देर रात तक उन लोगों के साथ ऊँची आवाज़ में भद्दे और अश्लील गीत गाती थी। उसका आदमी कमरे में दीवार के दूसरी तरफ़ ठण्ड से काँपता हुआ चुपचाप लेटा रहता और इनसानी ज़िन्दगी की ना-इनसाफ़ी और दहशत के बारे में सोचता रहता, जबकि उसकी बीवी जिस किसी से भी बातें करती, यह शिकायत ज़रूर करती कि सारी दुनिया में उसके आदमी और बेटे से बढ़कर उसका कोई दुश्मन नहीं है। दोनों नाहक़ ही घमण्डी और निकम्मे हैं।
एक घण्टे बाद साश्का की माँ उससे बोली, — मैं कहती हूँ कि तुम्हें वहाँ जाना ही पड़ेगा।
हर शब्द के बाद वह मेज़ पर घूँसा मार रही थी, जिससे मेज़ पर धुले रखे गिलास आपस में टकराने लगते थे।
साश्का ने शांत भाव से उत्तर दिया, — और मैं कहता हूँ कि मैं नहीं जाऊँगा।
यह कहकर वह खीसें निपोरने लगा।
— अभी तुझे कूटती हूँ, ऐसा कूटूँगी कि याद करेगा ! — माँ चिल्लाई।
— ठीक है, कूटो !
वो जानती थी कि अब वह अपने बेटे को मार नहीं सकती है, क्योंकि उसने उसे अपने दाँतों से काटना शुरू कर दिया था। न ही वह उसे घर से निकाल सकती थी क्योंकि वह आवारागर्दी करने निकल जाएगा और इतनी ठण्ड में स्वेचनिकफ़ के यहाँ जाने के बजाय कहीं अड्डा जमाकर बैठ जाएगा। समर्थन पाने के लिए अब वह अपने शौहर की ओर मुख़ातिब हुई और बोली — तुम भी तो कुछ बोलो इससे, यह नालायक़ मेरे मुँह लग रहा है।
अपनी चारपाई पर बैठे-बैठे ही पापा बोले :
— सचमुच साश्का, चले जाओ न उनके यहाँ। क्यों इतना भाव खा रहे हो? वे भले लोग हैं, हो सकता है तुम्हारा दाख़िला फिर से कहीं करा दें।
साश्का उपहास करता हुआ मुस्काया। उसके पापा उसके जन्म से पहले स्वेचनिकफ़ के यहाँ ट्यूशन पढ़ाया करते थे और तभी से उन्हें लगता है कि वे लोग बहुत अच्छे हैं। उस वक़्त उसके पापा नगर-पालिका में भी काम किया करते थे और पियक्कड़ नहीं थे। स्वेचनिकफ़ की बेटी के साथ उनके सम्बन्ध हो गए थे और उसके पैर भारी हो गए थे। लेकिन उसकी शादी किसी और आदमी से कर दी गई, जिसके बाद स्वेचनिकफ़ के घर उसके पापा का आना-जाना बन्द हो गया। वे रोज़ शराब पीने लगे और इस हद तक नशे में चूर रहा करते थे कि बाज़ दफ़ा पुलिस उन्हें सड़क पर से उठाकर ले जाती थी। स्वेचनिकफ़ इसके बाद भी समय-समय पर उन्हें पैसे भेजते रहते थे। उसकी माँ को अपने आदमी के माज़ी से जुड़ी हर बात से नफ़रत थी...। लेकिन स्वेचनिकफ़ से जान-पहचान की बात उसके लिए भी बहुत मायने रखती थी और उनसे ताल्लुक़ात के बारे में वह दूसरों के सामने डींगें भी हाँकती रहती थी।
पापा ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा, — हो सकता है कि तुम मेरे लिए भी कोई तोहफ़ा वहाँ से ले आओ।
साश्का यह समझ गया कि पापा चालाकी का सहारा ले रहे हैं। अपने पापा की कमज़ोरी देखकर और उनका यह झूठ सुनकर उसके मन में उनके लिए इज़्ज़त थोड़ी कम हो गई। लेकिन फ़ौरन ही उसका मन पलट गया और मन में अपने लाचार और बीमार पापा के लिए कुछ करने की इच्छा पैदा हो गई। उसे याद आया कि पापा को अच्छी सिगरेट पिए लम्बा अरसा हो गया है।
साश्का बड़बड़ाया, — ठीक है ! चलो, जैकेट दो। तुमने बटन तो टाँक दिए हैं न ? इसलिए पूछ रहा हूँ क्योंकि तुमको ख़ूब जानता हूँ !
II. बच्चे एक कमरे में बैठकर बातें कर रहे थे क्योंकि अभी उन्हें उस हॉल में जाने की इजाज़त नहीं थी जहाँ पर ख़ूबसूरत क्रिसमस-ट्री लगा हुआ था। वहाँ इकट्ठे हुए बच्चों की भोली-भाली बातें साश्का अपनी नाक ऊँची करके और उनके लिए मन में हिक़ारत रख के सुन रहा था। वह बार-बार पतलून की जेब में रखी उन सिगरेटों को टटोलकर देख लेता, जो उसने स्वेचनिकफ़ के कमरे से चुरा ली थीं और जो अब उसकी जेब में टूट रही थीं। तभी स्वेचनिकफ़ का सबसे छोटा बेटा कोल्या वहाँ आया और चेहरे पर हैरानी लिए उसकी बग़ल में खड़ा हो गया। उसके पाँव थोड़े टेढ़े थे और उसके दाएँ हाथ की एक उँगली उसके मोटे-से होंठों के एक कोने पर थी। लगभग छह महीने पहले ही घरवालों के बहुत समझाने पर उसकी मुँह में उँगली डालकर चूसने की आदत छूटी थी। लेकिन वह पूरी तरह से छूट नहीं पाई थी और जाने-अनजाने उँगली अभी भी उसके होंठों तक पहुँच ही जाती थी। उसके बाल हलके-सुनहरे थे, जो माथे पर एक लाइन में कटे हुए थे, लेकिन कन्धों पर घुंघराली लटों में झूल रहे थे। उसकी नीली आँखें हैरानी से भरी थीं। उसकी शक़्ल-सूरत और पहनावा ऐसा था, जिससे यह साफ़ हो जाता था कि साश्का और उसके रहन-सहन में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ है।
साश्का से उसने पूछा :
— तुम ख़लाब ललके हो न? ऐछा - मिस ने मुझे बताया है। लेकिन मैं अत्च्छा हूँ।
— अब इससे अच्छा और क्या हो सकता है ! — वेलवेट की उसकी पैंट और बड़े कॉलर वाले कोट को देखते हुए साश्का ने जवाब दिया।
— मैं तुम्हें कुछ अत्च्छा दूँ? लो !
कोल्या ने एक खिलौना बन्दूक साश्का को दी, उसमें धागे से कॉर्क बँधा हुआ था।
साश्का ने बेफ़िक्र खड़े कोल्या की नाक पर निशाना साधकर बन्दूक का घोड़ा दबा दिया। कॉर्क ज़ोर से कोल्या की नाक से टकराया और फिर धागे पर लटक गया। कोल्या की नीली आँखें और भी चौड़ी हो गईं, और उनमें आँसू उमड़ आए। कोल्या ने होंठों पर से उठाकर अपनी उँगली लाल हो गई नाक पर रख ली और वह अपनी लंबी पलकें झपकाता हुआ बुदबुदाया, — तुम ख़लाब हो ... ख़लाब ललके हो !
तभी एक जवान और ख़ूबसूरत औरत उस कमरे में दाख़िल हुई। उसके बाल क़रीने से कढ़े हुए थे और उनसे उसके कानों का कुछ हिस्सा भी ढका हुआ था। उसका नाम सफ़ीया था। यह वही सफ़ीया थी, जिसे साश्का के पापा कभी पढ़ाया करते थे और दोनों में प्रेम हो गया था। सफ़ीया के मन में भी यह खटका था कि शायद
साश्का को यह मालूम है कि उसके पापा पहले उसी से प्यार करते थे। लेकिन उसने उसके पापा से शादी करने के बजाय कहीं और शादी कर ली थी, इसलिए साश्का उसे बेवफ़ा समझता है।
साश्का की तरफ़ इशारा करके वह कमरे में अपने साथ दाख़िल हुए गंजी खोपड़ी वाले शख़्स से बोली, — यही है वह लड़का। फिर साश्का से बोली, — इनका अभिवादन करो, साश्का। इतनी बदतमीज़ी अच्छी नहीं होती।
लेकिन साश्का ने दोनों में से किसी का भी अभिवादन नहीं किया।
वह ठंडी आह भरते हुए बोली, — बहुत बददिमाग़ है !
और फिर अपने साथ आए शख़्स से बोली, — प्लतोन मिख़अईलअविच ! क्या आप इसे किसी स्कूल में दाख़िला दिला सकते हैं? हालाँकि मेरे शौहर का मानना है कि इसके लिए किताबी पढ़ाई से अच्छा रहेगा कोई हुनर सीखना।
— साश्का, क्या तुम कोई काम सीखना चाहोगे?
— नहीं, बिलकुल नहीं।
साश्का ने इतना रूखा जवाब ‘शौहर’ लफ़्ज़ सुनने की वजह से दिया था।
— सुनो, तुम चरवाहा बनना चाहते हो? — उस शख़्स ने पूछा।
— नहीं, चरवाहा क्यों? बिलकुल नहीं। — साश्का ने नाराज़ होते हुए कहा।
— फिर क्या बनना चाहते हो?
साश्का को पता नहीं था कि वह क्या करना चाहता है।
कुछ देर सोचने के बाद वह बोला, — वैसे मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। चाहे चरवाहा ही बन जाऊँ।
वह गंजा आदमी हैरानी से उस अजीबोग़रीब लड़के को देखने लगा। अपनी नज़रें उसने जैसे ही साश्का के पैबंद लगे जूतों से हटाकर उसके चेहरे की ओर घुमाईं, साश्का ने उसे जीभ दिखा दी और उसी तेज़ी से फ़ौरन अंदर भी कर ली। सफ़ीया को इस बात की भनक भी न लगी लेकिन वह बुज़ुर्ग शख़्स सकते में आ गया और चिड़चिड़ा गया।
— कोई काम मैं ज़रूर सीखना चाहूँगा। — साश्का ने अब बड़े अदब के साथ कहा।
यह सुनकर सफ़ीया ख़ुश हो गई और ठण्डी आहें भरते हुए सोचने लगी कि भूले-बिसरे प्यार में वाक़ई असर होता है !
— लेकिन शायद ही उस स्कूल में कोई जगह बची है, फिर भी हम कोशिश करेंगे। — साश्का की तरफ़ न देखते हुए उस गंजे आदमी ने उखड़े-से अंदाज़ में कहा।
बच्चों में हलचल और बेचैनी बढ़ती जा रही थी, वे क्रिसमस-ट्री को देखने के लिए बहुत उतावले हो रहे थे। बन्दूक़ के वाक़ये के बाद बच्चों की नज़र में साश्का की जगह ऊँची हो गई थी और उनके बीच उसकी नक़ल करने की होड़ लग गई थी। तमाम बच्चों की नाक इस बीच लाल हो चुकी थी। लड़कियाँ अपने दोस्तों की यह बहादुरी देखकर कि वे अपनी नाक पर बन्दूक़ की चोट झेलने के लिए तैयार हैं, खिलखिला रही थीं और ख़ुश हो रही थीं। तभी अचानक कमरे के कपाट खुले और एक आवाज़ आई :
— बच्चो ! अंदर आ जाओ। धीरे-धीरे, शांति से आना, बिना भाग-दौड़ किए !
बच्चे अपनी साँस रोककर और आँखें फैलाकर एक दूसरे का हाथ पकड़े जोड़ी बनाकर उस जगमग बड़े कमरे में दाख़िल होने लगे। वे सब चमक-दमक रहे क्रिसमस-ट्री के पास पहुँचकर उसके चारों तरफ़ चुपचाप खड़े हो गए। उनके चेहरों पर तेज़ रोशनी पड़ रही थी। बच्चे मनमोहक क्रिसमस-ट्री को एकटक देखने लगे, जिसकी वजह से कमरे में कुछ देर तक चुप्पी छाई रही। अचानक बच्चे ख़ुशी से चीख़ने लगे। एक बच्ची तो इतनी
ज़्यादा ख़ुश हुई कि अपनी जगह पर फुदकने लगी। नीले रिबन से गुँथी उसकी चोटी लगातार ऊपर उछल रही थी।
लेकिन इस हँसी-ख़ुशी के माहौल में भी साश्का बेहद उदास और दुखी था। कोई बात उसके दिल को कचोट रही थी। क्रिसमस-ट्री की ख़ूबसूरती और उस पर जल रहीं अनगिनत मोमबत्तियों की तेज़ चमक देखकर उसकी आँखें चौंधिया गई थीं। त्यौहार का यह माहौल और इतने सारे ख़ुश और खिलखिला रहे बच्चों की भीड़ उसे परायी लग रही थी। उसका मन हुआ कि वह क्रिसमस-ट्री को धक्का देकर गिरा दे। वह उदास होकर उस कमरे में रखे पियानो के पीछे छुपकर बैठ गया और अनजाने में जेब में पड़ी सिगरेटें तोड़ने लगा। वह सोच रहा था — इस सबके बावजूद कि उसके भी माँ और पापा हैं, अपना एक घर है, उसे ऐसा क्यों लगता है कि मानो उसके पास कुछ नहीं है, अपनी कोई जगह नहीं है। उसने फ़ौरन ही उस नन्हे-चाक़ू की कल्पना करने की कोशिश की, जिसे अपनी किसी चीज़ के बदले उसने एक लड़के से लिया था। वह चाक़ू उसे बहुत पसंद था, लेकिन चाक़ू अब ख़राब हो गया था। उसकी धार भोथरी हो चुकी थी और हत्था भी टूट गया था। अगर कल उसका यह चाक़ू टूट गया, तब तो उसके पास कुछ भी नहीं बचेगा, कुछ भी नहीं…।
लेकिन अचानक साश्का की आँखें आश्चर्य से चमक उठीं। चेहरे पर फ़ौरन ही ख़ुशी और आत्मविश्वास झलकने लगे। वह क्रिसमस-ट्री के पीछे पहुँच गया था। अब पिछला हिस्सा उसके सामने था, उसमें बत्तियाँ कम लगी थीं। उस हिस्से के निचले किनारे पर उसे वह खिलौना दिखाई दे गया, जिस पर उसका मन आ
गया। उसे लगा कि इसके न होने से ही उसका जीवन सूना-सूना है। वह खिलौना था - मोम का बना एक फ़रिश्ता। क्रिसमस-ट्री पर लटका वह फ़रिश्ता ऐसा लग रहा था मानो अभी-अभी ज़मीं पर उतरा हो और कभी भी अपने पंख फड़फड़ाकर उड़ सकता है। फ़रिश्ते के दोनों हाथ ऊपर की ओर उठे हुए थे और हथेलियाँ खुली हुई थीं, वह ऊपर की तरफ़ देख रहा था। उसके चेहरे पर अबूझे-से भाव थे। उस खिलौने को देखकर साश्का को ऐसा लगा कि वह उसे अच्छी तरह जानता है, छुटपन से ही वह उसके सपनों में आता रहा है। उसे यह खिलौना दुनिया की हर चीज़ से ज़्यादा प्यारा है। खिलौने को देखकर वह इतना जज़्बाती हो गया कि उसने अपने दोनों हाथ छाती के सामने नमन की मुद्रा में जोड़ लिए और बुदबुदाया, — प्यारे फ़रिश्ते… नमस्ते प्यारे फ़रिश्ते, बहुत देर से मिले तुम !
वह जैसे-जैसे फ़रिश्ते को देखता, फ़रिश्ता उसे उतना ही ज़्यादा पसंद आता। उसे लग रहा था कि दूसरे खिलौने बेकार ही इस बात पर इतरा रहे हैं कि वे क्रिसमस ट्री पर लटके हुए हैं। लेकिन उसका फ़रिश्ता तो बेहद मासूम है और मानो लोगों की नज़रों और तेज़ रोशनी से बचने के लिए ही वह पेड़ की घनी हरियाली के घुप्प अँधेरे में छुपा हुआ है। साश्का को लगा कि इस फ़रिश्ते को हाथों से नहीं छूना चाहिए, कहीं उसके पंख टूट गए तो !
— वाह प्यारे फ़रिश्ते ! आज तो तुमसे मुलाक़ात हो ही गई…! — साश्का फिर बुदबुदाया।
साश्का का सिर चकराने लगा था। अब उसे किसी भी क़ीमत पर उस फ़रिश्ते को पाना था। वह फ़रिश्ते की ओर चोर-निगाहों से देख रहा था। उसे यह डर था कि कहीं किसी दूसरे बच्चे की नज़र उस पर न पड़ जाए। और साश्का से पहले वह उसे न माँग ले।
तभी घर की मालकिन मरीया वहाँ पर आ गई। यह हँसमुख थी, लम्बी थी और उसका चेहरा खिला हुआ था। बच्चे आंटी-आंटी पुकारते हुए और ख़ुशी से दौड़ते हुए उसके पास गए। और फुदकने वाली छोटी लड़की उसकी बाँहों में लटक गई। साश्का भी उसके पास पहुँचा और उसने भी कुछ कहना चाहा। लेकिन उसके मुँह से दबी आवाज़ में सिर्फ़ दो ही शब्द निकले, — आंटी…, आंटी…।
आंटी बच्चों से इस तरह घिरी हुई थीं कि उन्होंने साश्का की बात पर ध्यान न दिया। तब साश्का ने बेचैनी से उनका दामन पकड़कर खींचा।
— अरे ! तुम यह क्या कर रहे हो? तुम्हें क्या चाहिए? — उन्होंने हैरानी से पूछा।
— आंटी, मुझे क्रिसमस-ट्री पर से वो खिलौना दे दीजिए, वो फ़रिश्ते वाला खिलौना।
— नहीं, वो तो अभी नहीं मिल सकता। — आंटी ने थोड़े रूखेपन से कहा, — हाँ, त्यौहार ख़त्म होने के बाद, जब हम यह पेड़ हटाएँगे, तब तुम उसे ले लेना।
साश्का ने मिन्नत करते हुए फिर कहा :
— आंटी, अब से मैं मन लगाकर पढ़ा करूँगा और मुझे कभी स्कूल से नहीं निकाला जाएगा।
उसकी आंटी पर उसकी इन बातों का कोई असर नहीं हुआ और वे उदासीनता से बोलीं, — यह तो बड़ी अच्छी बात है।
साश्का ने एक बार फिर मिन्नत की, — आंटी, मुझे वो फ़रिश्ता दे दीजिए।
— मैंने कहा न कि अभी नहीं दे सकती। तुम समझते क्यों नहीं? — आंटी बोलीं।
लेकिन साश्का कुछ समझ पाने की हालत में नहीं था। जैसे ही आंटी कमरे से बाहर निकलने के लिए दरवाज़े की ओर मुड़ीं, साश्का भी उनके पीछे हो लिया। उसके तेज़ी से दौड़ रहे दिमाग़ में यकायक एक याद कौंधी कि कैसे जब वह फ़ेल हो गया था, उसने अपने टीचर के सामने झुककर गिड़गिड़ाते हुए उनसे कहा था कि मुझे पास कर दीजिए। यह सुनकर उसके टीचर नाराज़ तो हुए थे, लेकिन उन्होंने तरस खाकर उसे पास कर दिया था। बाद में साश्का ने इस घटना को अपनी कार्टून बनाने की कॉपी में उकेर दिया था। इस वक़्त भी उसे यही
लगा कि उसके पास कोई चारा नहीं है। उसने फिर से आंटी का दामन पकड़कर खींचा और जैसे ही उन्होंने पीछे मुड़कर देखा, वह धड़ाम से उनके पैरों पर गिर पड़ा।
— तुम पागल हो गए हो ! हुआ क्या है तुमको? — आंटी ने झुँझलाकर कहा।
यह तो अच्छा हुआ कि उस वक़्त वहाँ पर कोई नहीं था।
साश्का ने एक बार फिर उनसे वही माँग की, — मुझे फ़रिश्ता दे दीजिए, मुझे वो अभी चाहिए।
उसकी बात सुनकर आंटी हड़बड़ा के बोलीं :
— अरे बच्चे, मैं वह खिलौना तुम्हें ही दूँगी। तुम घबराओ नहीं। लेकिन पाँच-छह दिन में जब त्यौहार ख़त्म हो जाता, तब ले लेते। चलो, उठो, अभी दे देती हूँ ! और हाँ, आइंदा किसी के सामने ज़िद नहीं करना। ज़िद इनसान को शोभा नहीं देती। किसी के पैरों पर भी मत गिरना, हम सिर्फ़ भगवान के आगे झुकते हैं।
साश्का ने मन ही मन सोचा, — अब दे भी दो।
जैसे ही उसकी आंटी ने पेड़ पर से वह खिलौना उतारा, साश्का ने जी भरकर उस खिलौने को निहारा। ख़ुशी से उसकी आँखों में आँसू आ गए, उसने जल्दी से अपनी हथेलियाँ उनके सामने फैला दीं। वह डर रहा था कि कहीं आंटी के हाथ से वह नाज़ुक फ़रिश्ता ज़मीन पर न गिर जाए।
आंटी ने खिलौने को ग़ौर से देखकर कहा , — अरे ! यह तो बहुत ख़ूबसूरत है।
खिलौने को हाथ में लेते ही वे यह समझ गई थीं कि यह खिलौना बहुत नफ़ीस और क़ीमती है। अब वे उसे देना नहीं चाहती थीं। इसलिए बोलीं :
— इसे यहाँ किसने लटका दिया? यह बताओ, तुम्हें यह खिलौना क्यों चाहिए? तुम तो अब बड़े हो गए हो न ! तुम इसका क्या करोगे?.. देखो, वहाँ दूसरी चीज़ें भी हैं, किताबें भी हैं। तस्वीरों वाली किताबें भी हैं, वो तुम्हें पसंद आएँगी।
झूठ का सहारा लेते हुए वे आगे बोलीं, — वैसे यह खिलौना मैं कोल्या को देने का वादा कर चुकी हूँ।
फ़रिश्ते से दूर रहना अब साश्का ज़रा भी बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। नाराज़ होकर उसने मुँह बना लिया और दाँत पीसने लगा। आंटी को ऐसी हालत में पड़ना बेहद नापसंद था, इसलिए धीरे से उन्होंने फ़रिश्ता साश्का की ओर बढ़ा दिया और बेमन से बोलीं, — ठीक है, ले लो। लेकिन कितने ज़िद्दी हो तुम !
साश्का ने बड़ी सावधानी से फ़रिश्ता अपने हाथों में पकड़ लिया। और उसे पकड़ते ही उसकी हथेलियाँ जैसे बहुत ही नरम हो गईं और बहुत सावधान भी।
“आह !” — ख़ुशी से साश्का ने एक लंबी आह भरी और उसकी आँखों की कोरों पर दो छोटे आँसू छलक उठे, लेकिन कोशिश करके उसने उन्हें वहीं रोक लिया। साश्का बहुत आहिस्ता-आहिस्ता फ़रिश्ते को अपने होंठों के पास लाया और उसे चूमने लगा। अब उसके होंठों पर एक सौम्य मुस्कान झलक रही थी। साश्का को लगने लगा कि फ़रिश्ते के नाज़ुक पंख जैसे ही उसके दिल को छुएँगे, कोई करिश्मा हो जाएगा।
आह ! — फ़रिश्ते को दिल के क़रीब लाकर उसके मुँह से एक कराह-सी निकली। साश्का का चेहरा चमकने लगा था। उसकी चमक के सामने असंख्य मोमबत्तियों से जगमगाते क्रिसमस-ट्री की चमक भी फीकी लगने लगी थी। साश्का को उस पल लगा कि उसकी दुनिया बदल गई है। उसने जब अपने आसपास के लोगों को देखा तो उन्हें भी बदला हुआ पाया। फ़रिश्ता देने वाली आंटी उसे देखकर मुस्कुरा रही थीं और दूसरे बच्चे भी मानो बिलकुल बदल गए थे। हालाँकि वे पहले की तरह ही हँस-खेल और उछल-कूद रहे थे।
लेकिन तभी अचानक उसके मन में एक डर पैदा हो गया कि कहीं कोई उससे इस फ़रिश्ते को छीन न ले। साश्का फ़ौरन बच्चों के बीच से रास्ता बनाता हुआ दरवाज़े की तरफ़ बढ़ा और धीमी आवाज़ में बोला :
— मैं घर जा रहा हूँ।
III घर पहुँचकर उसने देखा कि उसकी माँ दिन भर के काम से थककर वोदका के नशे में चूर सो रही है। रसोईघर की रोशनी दरवाज़े के गंदे काँच से छनकर वहाँ तक पहुँच रही थी, जहाँ साश्का और उसके पापा बैठे थे। साश्का ने इठलाते हुए अपने पापा को वह फ़रिश्ता दिखाया और पूछा :
— क्यों, अच्छा है न?
खिलौने को ध्यान से देखते हुए पापा बुदबुदाए, — हाँ, इसमें कुछ तो ख़ास है।
यह कहकर पापा ने उस फ़रिश्ते को पकड़ना चाहा, पर साश्का ने अपना हाथ खींच लिया। वह यह नहीं चाहता था कि फ़रिश्ते को कोई भी छुए।
फ़रिश्ते को देखकर पापा के चेहरे पर भी आश्चर्य और प्रसन्नता के मिलेजुले वही भाव आ गए थे, जो साश्का के चेहरे पर थे। उन्होंने कहा, — देखो, लगता है कि यह अभी उड़ने लगेगा।
— हाँ, हाँ, मैं यह देख चुका हूँ। तुम्हें क्या लगता है कि मैं अंधा हूँ। ज़रा इसके पंख तो देखो ! पर इन्हें छूने की कोशिश मत करना !
पापा ने अपने हाथ पीछे कर लिए और कमरे में आ रही नीम-रोशनी में उस फ़रिश्ते को ठीक से देखने की कोशिश करने लगे। साश्का पापा को सीख देता हुआ बुदबुदाया :
— पापा, हर चीज़ को पकड़ने की फ़िराक़ में रहना अच्छी आदत नहीं होती !
फ़रिश्ते के ऊपर झुके उन दोनों के सिरों की बेडौल परछाइयाँ दीवार पर हिल-डुल रही थीं। एक सिर बड़ा और झबरा था, दूसरा छोटा और गोल। दोनों अपनी-अपनी दुनिया में खोए हुए थे। बड़े सिर वाले के दिल का हाल अजीब-सा था, उसमें दर्द भी था और आनंद भी। वह एकटक फ़रिश्ते को देख रहा था। उसकी टकटकी का स्पर्श पाकर मानो फ़रिश्ता और भी भव्य और दीप्त होता जा रहा था, उसके पंख बड़ी सौम्यता से हिल रहे थे। और उस बड़े सिरवाले को लग रहा था कि उसके आसपास जो कुछ भी है, जैसे कालिख़ से ढकी लकड़ी की दीवार, गंदी मेज़ और साश्का, वह सब एक ऐसे ढेर में बदलता जा रहा है, जिस पर न ही कोई रोशनी है और न ही परछाइयाँ। ज़िन्दगी से हताश उस शख़्स को यकायक यों लगा कि उसे उस अद्भुत दुनिया से एक मुलायम और मीठी आवाज़ ने पुकारा है, जिसमें वह कभी रहा करता था और जहाँ से उसे हमेशा-हमेशा के लिए बेदख़ल कर दिया गया है। उस दुनिया के लोग बहुत भले हैं। वे अपने मतलब के लिए दूसरों को न ही तक़लीफ़ पहुँचाते हैं और न ही गाली-गलौज करते हैं। वहाँ के लोग उस दर्द को भी नहीं जानते हैं, जो हर उस आदमी को झेलना पड़ता है, जिसे परवरिश के नाम पर लोगों की चुभती बातें सुननी पड़ती हैं। उस दुनिया की
हर बात और चीज़ निर्मल, मनोहर और पावन थी। और वही निर्मलता और पवित्रता उस इनसान में घर कर गई थी जिसमें साश्का के पापा की जान बसती थी। लेकिन ज़िन्दगी के झूठ के आगे उन्हें अपने उस प्यार को गँवाना पड़ा था। उस खिलौने से आने वाली मोम की गंध में एक तिलिस्मी ख़ुशबू घुली हुई थी। ज़िन्दगी से हताश उस इनसान को यकायक यह लगा कि उसकी जानेजानाँ की प्यारी लंबी उँगलियाँ उस फ़रिश्ते को सहला रही हैं, वही उँगलियाँ जिन्हें वह एक-एक करके तब तक चूमते रहना चाहता था, जब तक मौत उसके होंठ हमेशा के लिए सी न दे। इसीलिए यह खिलौना उसके लिए इतना सुंदर, इतना ख़ास था, इसीलिए उसके बारे में अपने जज़्बात वह लफ़्ज़ों में बयान नहीं कर सकता था, इसीलिए खिलौने ने फ़ौरन उसे अपने मोहपाश में बाँध लिया था, क्योंकि वह फ़रिश्ता सीधे उस दुनिया से आया था, जहाँ उसकी रूह बसती थी। वह फ़रिश्ता उसकी धूमिल आत्मा, ठण्डे और कालिख़ पुते कमरे और हताश ज़िन्दगी में रोशनी की किरण बनकर आया था। वह उसके लिए मुहब्बत, ख़ुशी और ज़िन्दगी का नुमाइंदा था।
ज़िन्दगी के एक कगार पर पहुँच चुके साश्का के पापा की आँखों के साथ-साथ उस कमरे में नई ज़िन्दगी की शुरुआत करने वाले साश्का की आँखें भी चमक रही थीं और बड़े नेह से फ़रिश्ते को सहला रही थीं। साश्का की आँखों के लिए अब वर्तमान और भविष्य के कोई मा’नी नहीं रह गए थे। फ़रिश्ते के मिलते ही मानो उसके और उसके पापा के सारे दुख-दर्द क़ाफ़ूर हो गए थे। अभी तक साश्का के सपने बहुत ही धुँधले हुआ करते थे, लेकिन फ़रिश्ते ने उसकी बेचैन रूह को बहुत गहराई से झकझोरा था। दुनिया को रोशन रखने वाली सारी अच्छाई को और सभी आशाओं को उस छोटे-से फ़रिश्ते ने ख़ुद में जज़्ब कर लिया था। और यही वजह थी
कि फ़रिश्ते से आने वाली हलकी रोशनी उसे जादुई लग रही थी और उसके पंख बड़ी सौम्यता से हिलते हुए महसूस हो रहे थे।
पापा और साश्का एक-दूसरे की तरफ़ नहीं देख रहे थे और उनके ना-उम्मीद दिलों में अपनी-अपनी बेचैनी, अपने ग़म और अपनी ख़ुशी थी। उनके चेहरों पर ऐसे भाव उभर आए थे जो दिलों को आपस में जोड़ते हैं। पापा का हाथ अनायास ही बेटे का सिर सहलाने लगा और बेटे ने लाड़ में आकर अपना सिर अपने पापा की छाती में घुसा दिया।
फ़रिश्ते पर से नज़रें हटाए बिना पापा ने सरगोशी से पूछा :
— यह तुम्हें उसी ने दिया है न? कोई और मौक़ा होता तो साश्का बेरुख़ी से इनकार कर देता, लेकिन आज जवाब उसके मन में ख़ुद-ब-ख़ुद उतर आया, और उसने अपने मन का झूठ बड़ी विनम्रता से पापा के सामने दोहरा दिया।
— और कौन देगा? बेशक़ उन्हीं ने दिया है।
पापा चुप थे। साश्का भी चुप हो गया। बग़ल के कमरे में कुछ घरघराया, कुछ चटका और पल भर बाद सब शांत हो गया। लेकिन दीवार घड़ी बिना रुके, बिना थके चलती रही : टिक…टिक…टिक…टिक…टिक…।
— साश्का, क्या तुम कभी सपने देखते हो ? कैसे सपने देखते हो तुम? — अपने ख़यालों में डूबे पापा ने पूछा।
— हाँ, पप्पा। कभी-कभी, — साश्का बोला। फिर उसने आगे कहा, — मैंने पिछले दिनों सपने में देखा कि हम कबूतर पकड़ने के लिए छत पर चढ़े और मैं गिर गया।
जवाब में पापा ने कहा :
— पर मैं अक्सर देखता हूँ। कमाल के होते हैं सपने। उनमें सब दिखाई देता है… क्या हुआ, कैसे हुआ। उनमें तुम वैसे ही प्यार करते हो और दुखी होते हो, जैसे हक़ीक़त में अपनी ज़िन्दगी में।
पापा अचानक चुप हो गए। लेकिन साश्का ने अपने सिर पर रखे उनके हाथ में एक थरथराहट महसूस की। उनके हाथ का कम्पन बढ़ता जा रहा था। अचानक उनके मुँह से एक हलकी कराह निकली साश्का घबरा गया, फिर बड़ी सावधानी से अपने पापा का थरथराता हुआ हाथ उसने अपने सिर पर से हटाया और पापा की आँखों में झाँका। पापा रो रहे थे। साश्का दंग रह गया, उसने अपने पापा को कभी रोते हुए नहीं देखा था। तब तक पापा सिसकने लगे थे :
— ओह, साश्का, साश्का ! आख़िर यह क्या हो रहा है?
— अरे पापा ! तुम रो क्यों रहे हो? तुम कभी-कभी बिलकुल मेरे जैसे बन जाते हो। — साश्का थोड़ी सख़्ती से बोला। — नहीं, बेटा अब मैं नहीं रोऊँगा, बिलकुल नहीं रोऊँगा। — पापा ने ज़बरदस्ती मुस्कुराते हुए कहा, — हाँ, इससे फ़ायदा भी क्या?
तभी साश्का की माँ ने अपने बिस्तर पर करवट बदली और एक गहरी आह भरकर नींद में बड़बड़ाई :
— लो, पकड़ लो, ज़रा पकड़ लो कम्बल।
सोने का वक़्त हो गया था। लेकिन सोने से पहले कमरे में फ़रिश्ते के लिए जगह भी बनानी थी। उसे कहीं ज़मीन पर रखने का तो सवाल ही नहीं उठता था, इसलिए उसे आतिशदान के ऊपर लगी एक कील से धागे में बाँधकर लटका दिया गया। सफ़ेद आतिशदान के ऊपर टंगा हुआ फ़रिश्ता बहुत ख़ूबसूरत लग रहा था।
साश्का और पापा दोनों लगातार उसकी तरफ़ देख रहे थे। पापा अपने कपड़े बदलकर पलंग पर लेट गए और फ़रिश्ते को निहारने लगे। फिर अचानक उन्होंने साश्का से पूछा :
— तुम सोने के लिए कपड़े क्यों नहीं बदलते? — और फटा कम्बल अपने चारों तरफ़ लपेट लिया, उसके ऊपर उन्होंने अपना ओवरकोट भी डाल लिया था। साश्का ने उनकी बात के जवाब में कहा :
— नहीं, इसकी ज़रूरत नहीं है। मैं कोई ज़्यादा देर तो सोऊँगा नहीं।
हालाँकि साश्का कहना चाहता था कि उसका सोने का बिलकुल मन नहीं है। लेकिन दो मिनट बाद ही वह गहरी नींद में सो रहा था। जल्द ही पापा को भी नींद आ गई। दोनों के चेहरों पर सौम्य शान्ति पसर गई थी। इनमें एक चेहरा था थके हुए इनसान का जो एक लम्बा जीवन जी चुका था और दूसरा चेहरा एक ऐसे बच्चे का था, जिसका जीवन शुरू ही हुआ था।
कील के ऊपर लटका फ़रिश्ता आतिशदान की गरमी से धीरे-धीरे पिघलने लगा। साश्का ने लालटेन जलती हुई छोड़ दी थी, इस वजह से जल्दी ही कमरे में मिटटी के तेल की गन्ध भर गई।
ऊपर से पिघले मोम की मोटी-मोटी बून्दें बिस्तर पर टपकने लगीं। फ़रिश्ते ने आतिशदान की गरमी से बचने के लिए पंख फड़फड़ाए, लेकिन वह कील से बँधा हुआ था। फ़रिश्ता थोड़ी देर बेचैनी से तड़पा, पर आख़िरकार वह पिघल ही गया।
पौ फटने लगी थी। सूरज की पहली किरणें खिड़की पर पड़े झीने परदे को पार करके कमरे में पहुँचने लगी थीं और घर के अहाते में पानी की गाड़ी के आने की ख़बर देनेवाला घण्टा बजने लगा था।
मूल रूसी भाषा से अनुवाद : प्रगति टिपणीस
भाषा एवं पाठ सम्पादन : अनिल जनविजय
मूल रूसी भाषा में इस कहानी का नाम है — अंगिलोचिक (Леонид Андреев — Ангелочек)