फ़िनिक्स / दीप्ति गुप्ता
जून की कड़कती गर्मी, बोर्ड परीक्षाओं के परिणामों की प्रतीक्षा की तपन से और अधिक तपता महीना, 14 वर्ष की प्रीति के जीवन की पहली बोर्ड परीक्षा और हर दिन, हर पल बेताबी से रिज़ल्ट की बाट जोहता प्रीति का नन्हा, धड़कता दिल। वह तरह-तरह की आशंकाओं, यहाँ तक कि फ़ेल हो जाने के काल्पनिक भय से ग्रस्त रहती। उस छोटी उम्र में लाख मेहनत करने पर भी, अपनी योग्यता, अपनी क्षमता पर विश्वास न होना एक सहज किशोर भाव था। शायद हर परीक्षार्थी, पहली बोर्ड परीक्षा का रिज़ल्ट आने से पहले, इस भावनात्मक डाँवाडोल मन:स्थिति से गुज़रता है। आख़िर राम-राम करके परिणाम घोषित होने का दिन भी आ ही गया। किस मुश्किल से प्रीति की वह रात करवटें बदलती बीती और सुब्ह होते-होते जागने के बजाय, वह गहरी नींद की आगोश में खो गई। सवेरे-सवेरे सड़क पर रिज़ल्ट आउट होने की गहमा गहमी थी। अख़बारवालों की चाँदी ही चाँदी थी, लोग उन्हें मुँह माँगे दाम देकर अख़बार ख़रीद रहे थे। तभी प्रीति के मामा उछलते, शोर मचाते घर में दाखिल हुए और ख़ुशी से चीख़ते हुए बोले-
"अरे कहाँ है यह सिलबिली लड़की, देख, प्रीति तू फ़र्स्ट डिवीज़न में पास हुई है। दो दिन से तेरे गले में एक भी कौर नहीं उतरा, अब तू जम के मिठाई खा बस।"
यह खुशख़बरी सुनते ही माँ-पिता जी, सभी दौड़ पड़े। उनकी ख़ुशी तो सातवें आसमान पर थी। पर रात भर की जगी प्रीति गहरी नींद में बेख़बर सोई पड़ी थी। तभी माँ ने सिर पर हाथ फेर कर, प्यार से थपथपाते हुए प्रीति को जगाया-
“उठ-उठ बेटा, देख, तेरा रिज़ल्ट आ गया.........,”
प्रीति ने आँखें खोली तो उसे लगा वह बेहोशी में माँ को कुछ कहते सुन रही है, लेकिन तभी मामा और पिताजी के गुरु गम्भीर स्वर ने उसकी तन्द्रा तोड़कर, उसे परीक्षाफल सुनाया तो जैसे एक पल को उसे दिल की धड़कन रुकती सी लगी। फिर एकाएक मुँह से निकला-"सच !" और किस-किस की फ़र्स्ट डिवीज़न आई है?"
पिता जी बोले-"बस, एक तेरी ही बेटा।"
"नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है। कुछ साइंस की लड़कियों की भी फ़र्स्ट डिवीज़न होगी......." प्रीति को विश्वास ही नहीं हुआ।
दूसरे ही पल उसे अपनी प्रथम श्रेणी गड़बड़ नज़र आने लगी। उसे शक़ हुआ कि ग़लती से उसका रोल नम्बर प्रथम श्रेणी में तो नहीं छप गया। वह आर्ट साइड की छात्रा-अकेली फ़र्स्ट डिवीज़न में ! ख़ुश होते-होते वह मुरझाने लगी। और तब तक उसे विश्वास नहीं हुआ, जब तक कुछ दिनों बाद कॉलिज से उसकी मार्कशीट नहीं आ गई। तब उसे लगा कि वाकई जीवन की पहली बोर्ड परीक्षा ईश्वर ने प्रथम श्रेणी में पास कराके, उसे अपनी प्रतिभा और क्षमता को पहचानने का मौका दिया और सबको इस बात का प्रमाण भी दिया कि वह शिक्षा के श्रेत्र में ऊँचाईयों तक पहुँचने की खासी क्षमता रखती है। उसका किशोर मन कभी आई.ए.एस बनने के तो कभी प्रोफैसर बनने के सपने देखता। शहर के सर्वोत्तम स्कूल में वह अब इंटरफ़र्स्ट ईयर की छात्रा थी। वह माँ-पिता जी, मामा, प्रिन्सिपल, समूचे स्कूल का गर्व थी।
अनूठी लगन से पढ़ते लिखते, हँसते खेलते, नोट्स बनाते, रेडियो पे गाने, नाटक सुनते सहेलियों के साथ ऊँचे ख्वाब बाँटतें प्रीति के दिन बड़े प्यार से गुज़र रहे थे। देखते ही देखते समय बीतता गया और वह 11वीं कक्षा में भी अधिकतम अंक प्राप्त करके बारहवीं कक्षा में आ गई। इसी वर्ष एक लम्बे अन्तराल के बाद बेटे की चाह में, उसकी माँ ने एक और बेटी को जन्म दिया। प्रीति अपनी नन्ही सी, गुड़िया जैसी बहन को पाकर बेहद खुश थी। उसके लिए तो वह पढ़ाई के बाद खाली समय में खेलने के लिए सच में प्यारी, हँसती, किलकती गुड़िया थी। अब उसे जमकर इंटर की बोर्ड परीक्षा की तैयारी करनी थी। पूरे वर्ष प्रीति ने जी तोड़ मेहनत करके इंटर भी प्रथम श्रेणी में पास करके अपनी अद्भुत योग्यता को एक बार फिर सिध्द कर दिखाया।
मख़मली उम्र, मख़मली ख़्वाब, मख़मली ख़्याल, मख़मली दिन, सुनहरी आभा से भरा प्रीति का जीवन बड़े सुख-चैन से गुज़र रहा था। तभी एक दिन जैसे बम विस्फोट सा हुआ। पड़ौस के एक नामी गिरामी, धनी परिवार के लड़के प्रकाश ने प्रीति को लेकर अपने घर में हंगामा खड़ा कर दिया कि या तो प्रीति से उसकी शादी कर दो, वरना वह जान दे देगा। न जाने कब कहाँ उसने प्रीति की एक झलक देखी और वह उसकी सुन्दरता, उसके भोलेपन पर मर मिटा। प्रीति उसके दिल में ऐसी समा गई कि भुलाए नहीं भूलती। अन्जाने ही प्रीति उसकी बेचैनी का सबब बन गई। सरल,मासूम प्रीति इस सबसे एकदम अन्जान अपनी पढ़ाई-लिखाई की एक अलग ही दुनिया में खोई रहती थी। उधर प्रकाश पढ़ाई-लिखाई को तिलांजलि देकर, उस कच्ची उम्र में प्रीति से शादी करने के लिए हंगामा मचाए था। माँ-बाप के समझाने और बाद में थोड़ा सख़्ती से डाँटने पर हताश होकर, उसने दो बार आत्महत्या का असफल प्रयास भी किया। कॉपी, किताब पर हर जगह प्रीति का नाम लिखता रहता, न खाता, न पीता। प्रकाश की माँ का तो रो-रो कर बुरा हाल कि क्या होगा? प्रकाश के माता पिता, रिश्तेदारों ने उसे काफ़ी समझाने का प्रयास किया लेकिन सबकी कोशिशें नाक़ाम रहीं। हार कर, प्रकाश के घरवालों को प्रीति के घर जाना पड़ा। प्रकाश के पिता डा. स्वरूप ने झिझकते हुए अपने बेटे से प्रीति के विवाह का प्रस्ताव रखते हुए योगेन्द्र जी और कुसुम जी से कहा –
‘’भाईसाहब हमने प्रकाश को हर तरह से समझाया, डाट-फटकार भी की, तो जैसा आपने शहर में चर्चा सुना होगा, वह आत्महत्या करने पे उतारू हो गया. अब आप ही लोग बताएं कि बेटे की जान पे बन आए-ऐसा कौन से माँ बाप चाहेंगे...? हम चाहते है कि आप अपनी बेटी के साथ हमारे बेटे की शादी के दें। हम यह एहसान कभी नहीं भूलेंगे।’’
प्रीति के माता-पिता इस प्रस्ताव को सुनकर स्तब्ध से रह गए। फिर भी योगेन्द्र जी बात को सम्हालते हुए, सहानुभूति से भरे बोले –
‘’नहीं नहीं....अपने बच्चे किसे प्यारे नहीं होते। प्रकाश यदि नासमझी में कुछ कर बैठे तो, आपको क्या, हमें भी दुःख होगा, कष्ट होगा।’’
डा. स्वरूप दुखी होते बोले –
‘’बेटे की वैरागी की सी दशा देखी नहीं जाती। कहते हुए शर्म भी आती है, पर क्या करें....जिस मानसिक स्थिति से आजकल प्रकाश गुजर रहा है,यदि वह लगातार ऐसे ही तनावग्रस्त रहा तो मानसिक रोगी भी बन सकता है।’’
कुसुम भावुक होती बोली –
‘’ईश्वर न करे कि कभी ऐसा हो भाईसाहब ! हमें भी अपनी बेटी बड़ी प्यारी है। इस पर वह पढाकू भी अति की है। न वो,न हम अभी तो शादी के बारे में झूठे को भी हम में से किसी ने नहीं सोचा। फिर भी हमें आपके साथ पूरी सहानुभूती है।
फिर अपने पति योगेन्द्र जी की ओर देख कर बोली –
‘’आप ही कुछ समस्या का हल निकालिए न....!!’’
इतने में प्रीति स्कूल से आई और जैसे ही उसने ड्राइंगरूम में कदम रखा, तो कुछ अजनबी मेहमानों को देखकर, शरमाई सी, नमस्ते करके झटपट अंदर चली गई। उसकी यह शर्मीली सी ख़ूबसूरत झलक देखकर डा. स्वरूप और उनकी पत्नी लीला जी मुग्ध से रह गए।
प्रीति की पढ़ाई लिखाई और गुणों की चर्चा अक्सर पड़ोसियों से सुनकर वे पहले ही काफी प्रभावित थे। आज उसे देख कर उन्हें लगा कि लड़की वाकई बहुत अच्छी है। पर प्रीति और प्रीति के माता-पिता अभी शादी के लिए तनिक भी तैयार न थे। एक पल को भी उन्होने अभी तक प्रीति के विवाह के बारे में नहीं सोचा था। उनकी प्रतिभाशाली बेटी के ख़्वाब ही कुछ और थे। दोनों परिवारों में अन्तर भी बहुत था। प्रकाश का परिवार धन धान्य और भौतिक सुख सुविधाओं से भरपूर, तो प्रीति का परिवार उदात्त मूल्यों और संस्कारो से सम्पन्न मध्यम वर्गीय था, जहाँ सब मेहनत और कर्मठता के बलबूते पर मानवीय और सामाजिक सीमाओं के दायरे में एक दूसरे के सुख-दुख का ख़्याल रखते हुए रहते थे। संवेदनशीलता के कारण ही, प्रीति के घरवालों ने अपने पड़ौसी परिवार की समस्या पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करते हुए और अपना पक्ष भी ध्यान में रखते हुए बहुत ही सधा हुआ जवाब दिया कि वे प्रकाश से कहे कि वह पढ़ लिखकर, नौकरी कर ले, तब तक प्रीति का भी ग्रेजुएशन पूरा हो जाएगा, तो फिर शादी कर दी जाएगी। दोनों परिवारों ने परस्पर यह भी तय किया कि यदि नौकरी हासिल करने तक प्रकाश का प्यार इसी तरह बरकरार रहा तो दोनों बच्चों की शादी कर दी जायेगी, वरना यह बात वहीं पर समाप्त हो जायेगी। प्रकाश को सम्हालने का यह निदान कामयाब रहा, पर प्रकाश का प्रीति के लिए प्यार समय के साथ मरा नहीं, वरन् ज्यों का त्यों कायम रहा। लेकिन जिसे सब प्रकाश का प्रेम समझ रहे थे, वह प्रेम नहीं बल्कि किशोरावस्था में अक्सर हावी हो जाने वाला इनफ़ेचुएशन था।
अक्सर प्रीति यह सोच-सोच कर हैरान थी कि किसी लड़के को कैसे उससे एकाएक इस तरह एक तरफ़ा इतना प्यार हो सकता है कि वह अपनी जान भी उसके लिए देने से पीछे न हटे? १४-१५ साल की नाज़ुक सी उम्र, अपरिपक्व सोच, रुमानी ख़्वाब वाली प्रीति इस घटना से जैसे एकाएक ‘समझदार’ हो गई थी। प्रकाश की जान देने की बात प्रीति के मन में कहीं गहरा असर कर गई थी। इस बीच प्रकाश की सगी फुफेरी बहन अनिता प्रीति के पास कभी-कभी मिलने आ जाती थी। प्रीति की हमउम्र थी, सो दोनों अच्छी दोस्त भी बन गई थी। उसके माध्यम से प्रीति प्रकाश से भावनात्मक रूप से गहराई से जुड़ गई थी। अनिता से भोली प्रीति जब तब अपने मन की बातें भी बाँट लेती थी। प्रीति के आदर्शों से भरपूर सच्चे-अच्छे मन को जीतने के लिए प्रकाश का जुनून में आकर जान देने का कदम उठाना, उसके दिल पर प्यार की मानो अमिट छाप छोड़ चुका था। उसने मन ही मन निश्चय कर लिया था कि अगर उसकी शादी होगी तो सिर्फ़ प्रकाश से। क्योंकि उस छोटी उम्र में कहानी क़िस्सों, आस पास के रिश्तेदारों आदि के माध्यम से प्रीति ने इतना तो जान लिया था कि लड़की को धनी,सम्पन्न, ऊँचे ओहदे वाला पति तो मिल सकता है पर समर्पित और जान कुर्बान करने वाला एकनिष्ठ जीवन साथी दिया लेकर खोजने से भी नहीं मिलता। प्रीति के लिए एकनिष्ठता, वफ़ादारी किसी भी रिश्ते की पहली शर्त थी। बीतते समय के साथ प्रकाश ने किसी तरह एम. ए. करके अपने पिता के रुतबे के बल पर स्थानीय कॉलिज में प्रवक्ता की नौकरी हासिल कर ली। अब तक सब रिश्तेदारों के समझाने पर कि अच्छा ऊँचा ख़ानदान है और फिर जब इतने प्यार और सम्मान से प्रीति को माँग रहे हैं तो उन्हें वहाँ प्रीति की शादी ख़ुशी-ख़ुशी कर देनी चाहिए, प्रीति के घरवाले भी शादी के लिए तैयार हो चुके थे। नौकरी लगते ही प्रकाश के घर से बिना किसी देरी के फिर से शादी का प्रस्ताव आने लगा। ससुराल के नाम से डरने वाली प्रीति ने हिचकते हुए एक इच्छा सबके सामने रखते हुए एक दिन माँ से कहा –
‘’माँ ! वे लोग शादी के बाद मेरी पढ़ाई बन्द न करे. मैं खूब पढना चाहती हूँ ’’
कुसुम ने अपनी बेटी यह इच्छा जब डा.स्वरूप के घर तक पहुंचाई कि क्या वे उसका उच्च शिक्षा का ख़्वाब पूरा होने देगें....तो यह सुनकर तो प्रकाश के घरवालों को उल्टे प्रीति पर नाज़ हुआ और उन्होनें आश्वासन दिया कि वह जब तक चाहे, जितना चाहे पढ़ सकती है, उस पर किसी तरह की पाबन्दी नहीं होगी। पाँच महीने बाद ही, बड़े धूमधाम से प्रकाश, प्रीति को दुल्हन बनाकर अपने घर ले आया।
प्रीति और प्रकाश के जीवन में मानों खुशियाँ बेतहाशा बरस पड़ी थीं। प्रीति वफ़ादार पति पाकर बेहद ख़ुश थी। उसने जो सबसे बड़ा गुण प्रकाश में देखा था-वह था वफ़ादारी। वह पति की अयोग्यता, निर्धन हालात, साधारण व्यक्तित्व-सब कुछ सिर आँखों स्वीकार कर सकती थी, पर वफ़ादारी से शून्य इंसान के साथ वह समझौता नहीं कर सकती थी। अपने जीवन साथी द्वारा सँस्कारों और मूल्यों के साथ तोड़ मरोड़ उसकी बर्दाश्त से बाहर था। इसलिए भले ही प्रकाश ने एक इन्टर कॉलिज में साधारण सी प्रवक्ता की नौकरी कर ली थी, या उसका व्यक्तित्व साधारण था, इससे प्रीति को कोई फ़र्क नहीं पड़ता था-उसके लिए तो प्रकाश की एकनिष्ठता और ढेर प्यार काफ़ी था। प्रीति को मूल्य व सँस्कारविहीन व्यक्ति के साथ जीना गंवारा न था। जब वह प्रकाश की नज़र में उसकी जीवन साथी होने के मानदंड पर खरी उतरी थी और प्रकाश अपने बारे में उसकी राय जाने बिना उससे विवाह के लिए मचल पड़ा था, तो इतना हक़ तो प्रीति का भी बनता था कि अधिक कुछ नहीं तो, अपने मनचाहे कम से कम एक गुण की तो वह भी प्रकाश से अपेक्षा कर सकती थी। सो प्रकाश में अपने प्रति इतनी एकनिष्ठता –वफ़ादारी को पाकर वह ईश्वर की हृदय से शुक्रग़ुज़ार थी।
जल्द ही प्रीति ने अपनी कर्मठता और आज्ञाकारिता से ससुरालवालों का दिल और अधिक जीत लिया। सारे घर को उसने इतनी सुघड़ता से सम्हाल लिया था कि वे उस पर छोटी-छोटी बात के लिए निर्भर करते थे। सबकी लाडली, सबकी चहेती प्रीति की ख़ुशी का पारावार न था। इतना कुछ पाने के बाद भी वह अपने पढ़ाई के लक्ष्य से तनिक भी न भटकी थी। कुछ वर्ष बाद उसने पी.एच-डी. करके डॉक्टरेट की उपाधि भी प्राप्त कर ली। इतना ही नही, प्रकाश की इजाज़त पाकर स्थानीय डिग्री कॉलिज के हिन्दी विभाग में प्रवक्ता के पद पर भी नियुक्त हो गई थी। प्रीति की हर काम को लेकर लगन, समर्पण, कर्मठता पर सबको गर्व था। प्रकाश भी प्रीति जैसी सुघड़, सलोनी पत्नी पाकर अपने को कम भाग्यशाली न समझता था। पर न जाने दोनों के प्यारे से वैवाहिक जीवन को किसकी बुरी नज़र लग गई कि एक अनहोनी घटना के कारण उनका सुख-चैन से भरा नीड़ तिनके-तिनके हो गया।
अक्सर ज़रूरत से ज़्यादा खाली समय इंसान को ख़ुराफ़ात की ओर ले जाता है। उसकी बुध्दि भ्रष्ट कर देता है। कुछ ऐसा ही प्रकाश के साथ हुआ। अदूरदर्शी आरामतलब, विचारहीन प्रकाश, प्रीति को पाकर बेहद सन्तुष्ट, भरपूर सम्पन्नता में आकण्ठ डूबा हुआ न जाने किन कमज़ोर क्षणों में अपनी सगी फुफेरी बहन अनिता से शारीरिक संबंध बना बैठा। प्रीति ने भाई-बहन की निकटता को कभी शक़ की नज़र इसलिए भी नहीं देखा, क्योंकि उसके मूल्य और सँस्कार कभी भी इस पवित्र रिश्ते पर किसी भी तरह के सन्देह की गर्द डाल ही नहीं सकते थे। वैसे भी वह अपने प्रकाश पर अटूट विश्वास करती थी। दूसरे अनिता विवाहित थी, अत: दोनों के बीच किसी भी तरह के अवैध संबंध की कल्पना वह सपने में भी नहीं कर सकती थी। ऐसे संबंध की गुंजाइश कम से कम प्रीति की नज़रों में नहीं थी। पर यह सोच तो प्रीति का था। एकबार ग़लती करके, प्रकाश पश्चाताप करने के बजाय, बार-बार उस घिनौनी ग़लती को दोहराता रहा। बहन ने भी शायद अपने संस्कारों को उठाकर ताक पे रख दिया था। दोनों में से किसी की भी आत्मा ने एकबारगी उन्हें नहीं फटकारा। लेकिन कुकर्म एक न एक दिन अपना खुलासा अपने आप ही कर देता है और कुकर्मियों को कहीं का नहीं छोड़ता। एक दिन प्रकाश और अनिता का देह संबंध सबके सामने उजागर हो गया। घरवाले तो आगबबूला हो ही उठे थे, पर प्रीति तो एक पल में जैसे हज़ार मौत मर गई थी। जीवन में मूल्य और संस्कारों को सबसे ऊँचा स्थान देने वाली प्रीति के लिए, प्रकाश की यह घटिया हरकत, एक कभी न भुलाया जा सकने वाला आघात थी। उसका दिल, आत्मा, रोम-रोम सभी कराह उठा था। वह लम्बे समय तक विक्षिप्त सी अवस्था में रही। प्रकाश के जिस एक गुण के कारण, वह उसकी दुल्हन बनकर इस घर में आई थी, उसकी ही प्रकाश ने बेदर्दी से बलि चढ़ा दी थी। वह मर जाना चाहती थी। इतना बड़ा छल उसके साथ? ! उसके प्यार, समर्पण, वफ़ादारी का यह पुरस्कार दिया था उस पर मर मिटने वाले प्रकाश ने ! वह कुछ भी समझ पाने में असमर्थ थी कि आख़िर प्रकाश जैसा बेहद चाहने वाला पति अनिता जैसी ख़्याल करनेवाली सहेली सी ननद-दोनों ने मिलकर उसे यूं किस बात की सज़ा दी? प्रकाश के माता-पिता प्रीति की बिखरी मानसिक व भावनात्मक स्थिति को लेकर बड़े चिन्तित रहते और उसका विशेष ध्यान रखते। बेटे ने उन्हें कहीं का न छोड़ा था। जो प्रीति पे जान छिड़कता था, जिस प्रीति के बिना जिसका पलभर साँस लेना मुश्किल था, उसी प्रकाश ने प्रीति को ऐसा गहरा घाव दिया था जिसके नासूर बन जाने का डर घरवालों को सताने लगा था। प्रीति जो रिश्तों की गरिमा, चरित्र की उच्चता में दृढ़ विश्वास करती थी,उसके लिए तो प्रकाश की यह हरकत किसी पाप से कम न थी। सुना था और उसने किताबों में भी पढ़ा था कि पुरुष ‘पर नारी’ देह का लोभी होता है। अपनी पत्नी कैसी भी उर्वशी, मेनका जैसी रूपवती क्यों न हो, पर पराई औरत उसे बड़ी भाती है। एकाएक प्रीति के ज़हन में प्रसिध्द एन्थ्रोपॉलोजिस्ट ‘डॉ हेलेन फ़िशर’ की किताब “व्हाय वी लव’’(why we Love ) की मनोवैज्ञानिक बातें घूमने लगी कि इंसान के अन्त:करण में प्रेम के तीन धरातल मौजूद होते हैं-भावनात्मक, वासनात्मक और रागात्मक। जिसमें ये तीनों धरातल सक्रिय होते हैं, वह एक समय में एक से अधिक लोगों से संबंध बनाता हैं।ऐसा करे बिना वह रह ही नहीं सकता। ऐसा व्यक्ति तीनों स्तर पर अलग-अलग लोगों से रिश्ते क़ायम करता रहता है। व्यक्ति का मस्तिष्क इन तीनों मनोभावों के पीछे दौड़ता है। ये तीनों वांछाएँ, “टेन्डम” यानी एक के बाद एक के क्रम में संचालित नहीं होती, अपितु उनकी पूर्ति व्यक्ति अलग-अलग व्यक्ति में खोजता है। इस तरह एक ही समय में उसके एक से अधिक लोगों से प्रेम संबंध कायम रहते हैं। किसी से भावनात्मक, तो किसी से सिर्फ़ शारीरिक और कुछ से सामान्य रागात्मक लगाव।
घर में मनचाही पत्नी होते हुए भी पुरुष का घर से बाहर इधर-उधर देह सुख बटोरना क्या पुरुषत्व है !? एक तो परनारी से देह संबंध ही प्रीति की नज़र में ग़लत था, उस पर प्रकाश की ‘परनारी’-उसकी अपनी सगी फुफेरी बहन होना-यह और भी घृणित और निंदनीय बात थी। प्रीति को अनिता में इतालवी उपन्यासकार ‘एलबर्टो मोराविया’ के उपन्यास “द एम्पटी कैनवास” की “निम्फ़ोमैनियक” नायिका ‘सिसिलिया’ नज़र आई, जो अपनी ऊब और बोरडम को दूर करने के लिए यन्त्रवत शारीरिक संबंध बनाती है, यन्त्रवत अपने को संवारती है, कपड़े पहनती है, मतलब कि किसी भी क्रिया से उसका लेशमात्र भी भावनात्मक लगाव नहीं है। मशीन की तरह वह सारे काम शरीर के तल पर अपने मनोरंजन के लिए करती नहीं अघाती। इसलिए ही ‘एलबर्टो’ कामक्षुधा को विकृति न मानकर, एक स्वभाविक इच्छा की संज्ञा देता है। एक से अधिक लोगों के साथ देह संबंध बनाकर “निम्फ़ोमैनियक” स्त्री को मानो दूसरे के होने से, ज़िन्दगी अर्थपूर्ण लगती है और बोरडम दूर होती लगती है। यद्यपि यह एहसास क्षणिक होता और ऐसे इंसानों की ऊब का स्थायी निदान नहीं होता, इसलिए ही उनके बार-बार यंत्रवत देह संबंध बनते रहते हैं। प्रीति ने ‘एलबर्टो’ द्वारा स्थापित धारणा को अनिता में मानो साकार रूप में देख लिया था। वह बुरी तरह घबरा उठी। एक अजीब सी लिजलिजी गिलगिलाहट उसे वितृष्णा से भर गई। प्रीति को सारी दुनिया “एम्पटी कैनवास” की तरह एम्पटी-खाली खाली लगी। हर नारी “निम्फ़ोमैनियक” और घर उजाड़ने पे उतारु दिखाई दी। उसने घबराकार तकिए से अपना मुँह ढक लिया। इस धारणा को सोचने मात्र से उसका दम घुटने लगा। जो स्त्रियाँ इस पे अमल करती हैं उनका दम भला क्योंकर नहीं घुटता, उन्हें ये सब एम्यूज़मैन्ट कैसे लगता है? ऐसा सोचते-सोचते न जाने वह कब नीम बेहोशी की गिरफ़्त में आ गई। जब वह पुन: सचेतन हुई तो देखा घड़ी में 6 बजे थे।
उधर घरवालों का अब एक ही बात पर ध्यान केन्द्रित था कि घर उजड़ने से बच जाए। अनेक बार मौत को गले लगाने का ख़्याल प्रीति को बडे जादुई ढंग से अपनी ओर खींचता। इतना आहत होने पर भी प्रीति ने अपने माँ बाप से इस घटना का ज़िक्र तक भी नहीं किया था क्योंकि प्रकाश के उस घटिया कुकर्म का ज़िक्र करने में प्रीति के आत्मसम्मान पे चोट लगती थी। प्रकाश की बेइज़्ज़ती जैसे मानो उसकी अपनी बेइज़्ज़ती थी। इसलिए उसने उस गरल को ख़ामोशी से धीरे-धीरे ख़ुद पी लिया।
प्रकाश के माता-पिता उससे इतने नाराज़ रहने लगे थे कि एक दिन दोनों ने प्रकाश को अपना अन्तिम फैसला सुनाया –
‘’हमारे इस बुढापे में तुमने जो चोट हमें दी है, उसके लिए तुम्हें जितनी भी सज़ा दी जाए कम है। तुम्हारे लिए हमने क्या नहीं किया। प्रीति और उसके माँ बाप ने, न चाहते हुए भी तुम्हारे असमय शादी के प्रस्ताव को स्वीकार किया और तुमने क्या इनाम दिया उस बेचारी लड़की को?? तुम हमारी नज़रों से दूर रहो तो बेहतर है। प्रीति उनके साथ रहेगी। वह घर छोड़ जहाँ चाहे रहे, चाहे तो शहर भी छोड़ दे।‘’
यह सुनकर प्रकाश बड़ा तिलमिताया, लेकिन उसका विरोध करने का हक़ और हिम्मत सब खत्म हो चुकी थी। अपनी दुर्बुध्दि और विचारशून्यता से वह अपने ही घर में अजनबी बन गया था। सब उसे तिरस्कार भरी नज़रो से देखते। उसे भी इस तरह घर में रहना एक-एक पल भारी पड़ रहा था। सो एक दिन वह अपना सामान लेकर दिल्ली चला गया हमेशा के लिए। कुछ दिनें तक तो उसकी कमी अखरी घरवालों को, लेकिन शीघ्र ही सब उस मन:स्थिति से उबर गए। अब प्रीति उनकी बेटी, बेटा सब कुछ थी। प्रीति के लिए भी माँ और पापा सिर्फ़ माँ और पापा ही नहीं थे अपितु उसका मनोबल थे, ऐसा भावनात्मक सहारा थे जिसके बल पर वह जीवन की अंधी खाई से बाहर निकल आई थी। उनके सहारे ने प्रीति को स्वस्थ दृष्टि और सही दिशा दी थी।
प्रीति सम्भलने पर मन ही मन तर्क करती कि मरने से अधिक चुनौती, जीवित रह कर आघातों का सामना करने में है, अपनी अच्छाईयों, पॉज़िटिव एटीट्यूड को बनाए रख कर, जीवट से जीने में है। बेवफा जीवन साथी को झेलने से कई गुना बेहतर है इज़्ज़त और हिम्मत से अकेले जीना। उसने समझदारी से सोचा कि वह ईश्वर के वरदान इस 'जीवन' को प्रकाश जैसे बेवफ़ा, सँस्कारहीन, मूल्यविहीन व्यक्ति के लिए क्यों नष्ट करे? क्रिएटिव होकर उसे जीना चाहिए और जीवन में ऊँचाईयों को छूना चाहिए। उस आदमी के पाप की सज़ा ख़ुद को क्यों दे वह? वह क्योंकर कमज़ोर बने, दर्द और क्रोध के आवेश में आकर आत्महनन जैसा काम करके क्या सिध्द करना चाहती थी-अपनी बुध्दिहीनता और मूर्खता? इस मंथन से उसे लगा कि उसके अन्तस में एक जीवन्त चिन्गारी फूट रही है। वह एक अजीब सी ऊर्जा से भर रही है। धीरे-धीरे वह ऊर्जा जैसे उसके समूचे वजूद में छा गई। एकाएक प्रकाश की बेवफ़ाई की आग में जलकर राख हुई प्रीति हिम्मत करके अपनी ही राख के ढेर से फ़िनिक्स की तरह फिर से जी उठी-बहादुरी से जीवन के झंझावातों का सामना करने के लिए, उन्हें धराशाही करने के लिए...।