फ़िनी महाकाव्य कालेवाला / प्रमोद कौंसवाल
विष्णु खरे अनूदित फ़िनी महाकाव्य कालेवाला- लोकगाथाओं की फ़ंतासी का एक विराट काव्य। हमारी कल्पना से परे लेकिन यथार्थ के धरातल पर एकदम खरा और सच्चा। यह है 'कालेवाला'…। दुनिया में उसकी साख छिपी नहीं है। यही है फ़िनलैंड का राष्ट्रीय महाकाव्य। शुक्रिया विष्णु खरे जी का। हम हिंदी वाले 'दरिद्र' पाठकों को ये किताब हासिल हो सकी है- उनके उम्दा अनुवाद से। शायद तमाम दुनिया के साहित्य की लय एक जैसी न हो, लोकजीवन की लय काफी मिलती है। थोड़ा सुजान पाठक इससे वाक़िफ़ होंगे ही। याद आता है इस किताब पर एक बार नामवर लेखक ने कुछ इस तरह की टिप्पणी की भी थी। जो हो है तो यह एक महाकाव्य ही। और इस महाकाव्य में एक महानता वाणी प्रकाशन की भी है जिसने ये छापा भी। बहरहाल पुस्तक पर फोकस रखें तो बेहतर होगा। खलिहान, गठरी, चौपाल, झाड़ियां, फूल, मधुमक्खियां, नदी, आदमी, आसमान, किसान, लोहार ....। इन सबके रंग और आवाजें कितने अपने जैसे लगते है लेकिन सच यही है कि इन्हें हम बहुत दूर से कालेवाले के मार्फत जान सके हैं। अपने अनेक रचनाकारों की ग़ैर-संजीदगी पर अगर कभी इसी ने यह कहा कि रूस के स्वर्णयुग -गोल्डन पीरियड- लेखन के लेव तोलस्तोय या मैक्सिम गोर्की को पढ़कर ही हमें अपनी धरती और लोगों की सचाई से रूबरू होने का मौक़ा मिला तो शायद ग़लत नहीं कहा। कालेवाला महाकाव्य का महानायक भी किसी भी मुल्क़ की गली में जल रही भट्ठी की आग से पैदा हुआ सबको अपना रक्तकण लग सकता है। पर कालेवाला का हिंदी में क्या काम है? क्या उसका अनुवाद संभव है ? और क्या समाज की जातीय अस्मिता और राष्ट्रीयता की पहचान महाकाव्य के ज़रिए हुई है।
लेकिन इन सब पर आने से पहले देखना होगा कि असल में कालेवाला है क्या- पुस्तक की अनुवादकीय टिप्पणी इसका एक परिचय देती है- कालेवाला फ़िनलैंड और मुख्यत: कारेलिया (जो अब रूस में है) के पारंपरिक लोकगायकों की गाई गई वीरगाथाओं से संकलित महाकाव्य है। यह आज कमोबेश आधुनिक फ़िनी भाषा में उपलब्ध है लेकिन उसकी कथाओं को पिछले पांच-सात सौ सालों से गाया जा रहा है तो कल्पना की जा सकती है कि उसकी मूल भाषा आज की फ़िनी भाषा से कितनी अलग रही होगी...।' वेइनेमोइनेन (महाकाव्य का नायक) अपनी संस्कृति का पहला किसान भी है और उसका भाई इल्मारिनेन पहला लोहार....। लोकमानस और लोक कविता में मिथक और वास्तविक जीवन का जैसा सरस और आत्मविरोधविहीन घालमेल मिलता है, वह कालेवाला में देखा जा सकता है- जब मैंने समुद्र को जीता/ समुद्र की गहराइयों को खोखला कर दिया...। और गाता गया समाना वेइनेयोइनेन-झीलें उफन आई, धरती हिलने लगी, तांबई पर्वत कांपने लगे, विशाल चट्टानें गूंजनें लगीं और पर्वत फट गए। उसके घोड़ों को पौधों में बदल दिया और सूमों को चीड़ में बदल दिया। उसकी लगाम को मिदुर में बदल दिया। कालेवाला की पंक्ति-दर-पंक्ति आगे बढ़ते जाते हुए लगता है, कई-कई ऐसे रहस्यों का उद्घाटन हो रहा है। लेकिन सबसे बढ़कर समाज और लोगों के सतत् विकास को यह महाकाव्य इस तरह भी समेटता है कि जैसे हम इतिहास का संदर्भ ग्रंथ पढ़ रहे हों। वह समाज इतिहास और यह तमाम फ़िनलैंड का विगत हमें बताता है कि वह कितने विराट धरातल पर जीते थे। चीख़ और चीत्कारों की आज की दुनिया से वह दुनिया कितनी अलहदा थी, भले ही मानव सभ्यता की भीड़भाड़ वाली दुनिया और विज्ञान के चमत्कारों से दूर थी। एलियास ने अपनी भाषा में बिल्कुल जिस लय और भाषा-कथाशैली के साथ इस काव्य का संकलन किया, उसमें पहले वाले लय में टूट-फूट रही होगी लेकिन आदमी की दाढ़ी की तरह अगर समाज की परंपराएं भी बार-बार उग आती हैं तो फिर समझ लेना चाहिए कि हमारी सफलता इसी काव्य दौर के मुकाम में पहुंच जाएगी। कालेवाला की कहानी में यही सभ्यता है। किताब में करीब पचास अध्याय हैं जो वेइनेमोइनेन के जन्म से शुरू होकर कुमारी मार्माता के गर्भाधान पर ख़त्म होते हैं। पवनकन्या हवा और लहरों से गर्भवती होती है और जलमात्र का बन जाती है। इसी से वेइनेमोइनेन का जन्म होता है। वेइनेमोइनेन के बड़े होने पर उसका द्वंद्व युद्ध से सामना होता है। फिर वेइनेमोइनेन अपनी शक़्ल की चुनौती देने वाले के गीतों के बहाव में ले डूबता है। इसके बाद कहानी छिटक-सी जाती है और जिस आइनो नाम की कुमारी से जंगल में भेंट होती है, वह किसी झील में डूबकर मर जाती है। आइनो उसी याउकाहानेन की बहन है जो एक द्वंद्व युद्ध करता है। याउकाहानेन हमले पर उतारू होता है और वाइने के घोड़े को मार देता है। इसी दौरान जिस तरह से लहरों से गर्भ टिकता है, उसी तरह मायावी अश्व पानी में चलता है और इसी तरह की फ़तासी में वेइनेमोइनेन को एक चील उड़ा ले जाता है। यह चील नायक को लोउही के क़िले में ले जाती है। यहां उसकी एक बूढ़े समेत लोउही की बेटी से भेंट होती है। बूढ़ा उसे कई तरह का ज्ञान देता है। बहरहाल, इससे भी संक्षिप्त इस महाकाव्य की कथा यह है कि यह वेइनेमोइनेन आख़िरकार धरती पर रोशनी बिखेरकर ऐसे मुल्क़ में चला जाता है जो कहीं हवा में ही अस्तित्व रखता होगा। बस. उसके महान गीत ही वास्तविक धरती पर बचे हैं। यह महाकाव्य पढ़ना एक हज़ार साल तक लगातार सोते-सोते देखे गए एक महान और विराट स्वप्न की मानिंद हैं।
हिंदी में कालेवाला के आने से कई बहस तलब सबक मिले हैं। एक महाकाव्य में इस लय में लिखा या संकलित किया जा सकता है जो आदमी कविता की गद्य और विचार की लय से मिलता है। दूसरा जिसका ध्यान एक जानकार आलोचक ने दिलाया है कि हम अपने महाकाव्यों या लोकजीवन के काव्य को सहेजतन समेटना भूल गए हैं, लेकिन इनसे बढ़कर है वह अनुवाद जो विष्णु खरे ने संभव बनाया है। बाहरी तौर पर इस महाकाव्य के आकार को देखकर ही डर और सिहरन पैदा होती है। हिंदी और शायद किसी भी भारतीय भाषा के लिए विष्णु खरे का यह काम सालों-साल तक प्रेरणा का काम कर सकता है। उनके अनुवाद में लोहार के एक खांचे जैसा ही सबकुछ नहीं है बल्कि वह सब जगह खिलंदड़ी करते हैं। और यह शायद तभी संभव है जब कोई भी अनुवादक खुद कल्पनाशील कवि हो। विष्णु खरे की इस विलक्षणता के बारे में कौन नहीं जानता।
इस महाकाव्य के माध्यम से अनुवाद या अनुवादक जो पहचाने जाएं सो पहचाने जाएं, पर इस असाधारणता ने फ़िनलैंड जैसे मुल्क़ को भी पहचानने में मदद की है। और इसमें भारत ही नहीं, कोई भी मुल्क़ अपने अतीत, अपने लोकजीवन, अपने मिथकों और अपने बिल्कुल आसपास की दुनिया का अक़्स देख सकता है। और वह इसलिए कि बूढ़ा वेइनेमोइनेन गहरा विलाप करते हुए दिखता है, उसकी मूर्खता दुखदायी है, वह मानवीय ज्ञान में कच्चा है, उसे बुद्धि चाहिए, अंतर्दृष्टि चाहिए- और इस सबके बावजूद चाहिए कि उसका हृदय काफी विशाल है। इस मानवीय कमज़ोरी या विलाप को हम आज भी अपने भीतर झांककर समझ सकते हैं। इसके अलावा ग़ौर करें इन पंक्तियों पर भी- ( और कल्पना करें जो सन् 1829 के आसपास लोकजीवन में थी- ये वेइनेमोइनेन का विलाप भी है)
-इस समय जो दिन गुज़र रहे हैं
मुझ पर ये बुरे दिन हैं
उम्र के साथ मेरी ताक़त भी घट रही है
मेरी समझ कमज़ोर पड़ रही है
भ्रष्ट हो गया है मेरा विवेक...
इसे किसी भी समय-समाज की मौजूदा सचाई मानने से इनकार करना काफी मुश्किल है। यह तो रही एक बात। दूसरी बात, उस ज़माने के इथोस (जनमानस) में हम इस दौर की आज भी दूसरी प्रासांगिक चीज़ों पर नज़र दौड़ा सकते हैं, उस विवरण को आसानी से समझ भी सकते हैं- मसलन वहां एक ठंडे गांव में एक कुमारी रहती है जिसे कोई वर स्वीकार नहीं करता, वहां महानतम ठिठौलियां होती हैं, अप्रितम सौंदर्य के गुण पाए जाते हैं, कनपटियों से चांदनी चमकती है, वक्ष से सूर्य दमकता है। जी हां, वहां नक्षत्र हैं, आधा देश कुछ और आधा देश कुछ और ही तरह का है। लोहार हैं, पुरातन शिल्पी हैं, मनहूस देश को वचन देती फ़रेबी आवाज़ें हैं- रंगबिरंगे आवरणों में। इन सबमें जैसे तमाम कुछ फ़िनलैंड की नहीं, अपनी ज़मीन की हक़ीक़त है। महाकाव्य का पात्र कुछ तरह भी कहता है कि वहां एक चमत्कार के बाद दूसरा चमत्कार है, फूलों की चोटी वाला एक पेड़ चीड़ का है। फूलों की फुनगियां हैं, पत्तियां सारी सुनहरी हैं, मैदान की एक सीमा है, चोटी पर चंद्रमा चमक रहा है। तो फ़रेब से लेकर फुनगियां तक काफी कुछ हम अपने आसपास ज़रूर देखें।
एक और ख़ास बात देखें कि वाच्य परंपरा भारत में हर जगह अपनी हर तरह की शक़्ल में दिखती है। और इस ओर ध्यान दिलाया है इस महाकाव्य के संकलनकर्ता सहयोगियों में एक लाउरी होन्को ने। इससे इसकी प्रामाणिकता और पुख़्ता हो जाती है। वह अपने सहयोगी से एक दिलचस्प सवाल पूछते हैं कि क्या मक़सद रहे होंगे कि इतनी इकठ्ठी हुई सामग्री का इस्तेमाल किस तरह किया जा सकता है। (कुछ समय के लिए आप ध्यान में रखें कि हमारी वाच्य परंपरा की कितनी चीज़ें जमा करने की किसी ने क्या कभी इतनी बड़ी जहमत उठाई ...!) मुश्किल कुछ नहीं, असल में एक ही पात्र के बारे में चली आतीं कई कविताओं को जोड़ने की लोकगायकों की कोशिशों ने कई लघु महाकाव्यों की रचना कर डाली थी जिन्हें फ़िनलैंड में लोक-महाकाव्य कहा जा सकता है। इन लघु-महाकाव्यों में से कोई भी एक हज़ार पंक्तियों से लंबा न था। ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है कि पिछली सदियों की स्थिति कुछ अलग रही होगी। बखान के क्रम पर, काव्य पंक्तियों के पुनर्गठन या पुनर्लेखन पर सवाल उठाते हुए कल्पना के स्थानापन्न को यहां हम देख सकते हैं। ऐसा माना जाता है कि कालेवाला के आधे हिस्से में विन्यास, भाषा और छंद में परिवर्तन किए, बोलियों के शब्द और मुहावरे जैसी असंगतियां अस्वीकार्य थीं- यह कृति संपूर्ण राष्ट्र के लिए थी- यानी मुठ्ठीभर चुने हुए विद्वान शोध करने वालों के लिए नहीं थी...। वास्तविक जीवन में रीछ का शिकार हमेशा अग्नि हथियारों से होता था लेकिन कविताओं में रीछ हमेशा तीर और भालों से मारे गए हैं। साफ़ है कि ये कविताएं किसी पूर्ववर्ती यथार्थ के बारे में बताती थीं, और यही एक एहसास था जब प्राचीन फ़िनी जीवन शैली की अपनी काल्पनिक कथा गढ़ी जाने लगी। मिथक को देते और लेते हुए प्रस्तोता और श्रोता दोनों अपनी व्याख्या, अपना पाठांतर रचते हैं। कालेवाल सृजनात्मक पाठांतरों की उस परंपरा का वास्तविक अनुयायी है जिससे मिथक अपना जीवन प्राप्त करता है।
अपने देश की स्थितियों के बारे में इस हालत को देखा जाना चाहिए। कोलकाता में रूपा गांगुली ने, पंजाब में गुरशरण सिंह या नीलम मानसिंह ने और भोपाल में रंगमंडल ने अपने रंगमंच में काफी मिथक और लोककाव्य उठाए हैं। उनके कोरस इसी से तैयार हुए हैं। ऐसा ही मालगुडी डेज़ में भी हुआ और बहुत थोड़ा गढ़वाल में राजू मजूला की कथा गायिकी में दिखा है। हिंदी कवि मंगलेश डबराल ने पहाड़ के कुछ लोक और वाच्य काव्य का एक ज़माने में पुनर्लेखन किया- लेकिन यह व्यापक रूप से पढ़ा या इस्तेमाल नहीं किया गया। देवेंद्र सत्यार्थी और राहुल सांकृत्यायन ने घूम-घूमकर लोक-काव्य या वाच्य पंरपरा से मिथक उठाए, उनके कुछ विवरण भी दिए, लेकिन ये ज़्यादातर मूल लेखन के भीतर छिपकर रह गए। कुछ छुटपुट उदाहरण और भी होंगे, लेकिन यह सब नाकाफी है। कम से कम राष्ट्र के नाम पर कोई एक बड़ी मिसाल ऐसी नहीं है जो मोटे तौर पर ही सही, देश के एक कोने से दूसरे कोने तक फैले तरह-तरह के लोककाव्य के विवरण को हमारे सामने परोस सका हो। और यह हालत तब है जब हमारा मुल़्क कहीं विराट, बहु-संस्कृति और बहुभाषा वाला है। इसे कालेवाले की सीख के तौर पर देखना न्यायसंगत होगा क्योंकि आख़िर इससे ही हमारे युग का पता ढूंढा जा सकता है कि वह कितना नैतिक और चारित्रिक मूल्यों पर खड़ा हुआ है। यह बड़ा काम है और आसान नहीं है। 'Kalevala' (मूल फ़िनी में) लिखने के लिए मनोवल चाहिए। राष्ट्रीय अभिव्यक्ति का यह काम कोई मामूली संग्रहकर्ता नहीं कर सकता है। और वह व्यक्ति भी नहीं कर सकता जो रूमानीवाद की खिड़की से बाहर का यथार्थ देखने या बयान करने की क्षमता न रख सकता हो। यह याद रखना ज़रूरी होगा कि कालेवाला को देखते समय अगर हमें लगे कि इसने समय और सीमाओं तक की दूरी तक को पाट दिया है तो जानना चाहिए कि यह काम काव्य-महाकाव्य ही कर सकता है। और कालेवाला ने इसे बखूबी अंज़ाम दिया है। क्योंन हम, जहां-जहां से भी आए हैं या अपनी धरती के किसी भी हिस्से की सांस्कृतिक विरासत को जानते हैं, टुकड़ों में ही सही, अपनी लोक कविताओं को संजोने का काम करें । ख़्याल कैसा है ?