फ़ील गुड, मूरख! / हेमन्त जोशी
फ़ील गुड, मूरख!
चुनाव के दिन आ रहे हैं। गठबंधन की कोशिशें हो रही हैं। लोग बता रहे हैं कि देश भर में फील गुड का माहौल है। हर कोई फील गुडिया रहा है सत्तारूढ़ राजनेता, व्यापारी, पत्रकार सभी इस खुशनुमा अहसास का दोहन कर रहे हैं। पिछले चुनावों का विश्लेषण करते हुए लोग बता रहे हैं कि दिल्ली में शीला दीक्षित की सरकार इस लिए बच गई कि लोग अच्छा महसूस कर रहे थे। आने वाले दिनों में भी लोग अच्छा ही महसूस करते रहेंगे और लोग फिर चुनाव जीत जाएँगे। जिस किसी को भी बुरा लग रहा हो वह निश्चय ही पागल है। इसीलिए जब भी मैं घर से निकलता हूँ तो अपने बाबा कबीर का मंत्र याद कर लेता हूँ। बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलया कोय, जो दिल खोजा आपनो मुझ से बुरा न कोय। घर से निकलते ही चौराहे पर पहुँचता हूँ तो देखता हूँ कि मेरे देश के बच्चे दिसम्बर की ठिठुरती सर्दी में नंगे बदन घूम रहे हैं। सोचता हूँ कि भारत 2020 तक महाशक्ति बनने वाला है इसीलिए तो हमें ऐसे बच्चे चाहिए (मेरे और आपके बच्चों को छोड़कर सभी अन्य) जो सर्दी-गर्मी-बरसात प्रूफ़ हों। फ़ील गुड वाले अंदाज़ में एक ऐसे ही बच्चे से पूछता हूँ ‘क्यों बालक अच्छा लग रहा है न इस शीत लहर में?’
घर के पास ही एक मंदिर के सामने कोई धर्मात्मा लोगों को कंबल बाँट कर ग़रीबों की आदत ख़राब कर रहे हैं। कुहासे की इतनी मोटी चादर होते हुए भी लोग कंबल पाने के लिए एथलेटिक्स और कुश्ती की प्रेक्टिस कर रहे हैं। 100 करोड़ के देश में 10 कंबल बाँट कर लौटते हुए मैंने उनके चेहरे पर फ़ील गुड फैक्टर की चमक देखी। जिन्हें कंबल मिल गया था वह गद्दे और तकिए तलाशने किसी और मंदिर की ओर निकल पड़े और जिन्हें नहीं मिला वह यह सोच कर खुश थे कि चलो आदत बिगड़ने से बच गई।
एक साहब ने तो रट ही लगा रखी थी महँगाई बढ़ गई है, भ्रष्टाचार छलाँगे मार रहा है और देश में भीषण बेरोज़गारी है। ऐसे में गुड कौन फ़ील कर सकता है? मैंने उन्हें बहुत समझाया। भाई साहब आपको पता है सेंसेक्स 6000 का ऑंकड़ा पार कर गया है और अब बुद्धु की भाँति घर लौटने लगा है। अब तो हमारा विदेशी पूँजी का भंडार भी 100 अरब से ज़्यादा हो गया है। फिर लोग गुड-गुड फ़ील कर रहे हैं तभी तो हर काम के लिए पैसा दे रहे हैं। यह भ्रष्टाचार थोड़े ही है। इसीलिए अब लोग परदे के पीछे, टेबल के नीचे से नहीं बल्कि टेलीविज़न के कैमरे के सामने पैसा ले-दे रहे हैं। कहने लगे अच्छा उसकी छोड़ो यह मुई बेरोज़गारी कहाँ ले जाएगी हमें।
‘भाई साहब आप भी यूँही बात का बतंगड़ बनाते है। देखिए हमने पता लगाया है कि सरकारी नौकरियों में लोग काम नहीं करते इसलिए हमने धीरे-धीरे सभी सरकारी कर्मचारियों को निकालना शुरू कर दिया है, फिर मानवीयता के आधार पर हम उन्हीं को उनके काम पर ठेके पर रख रहे हैं। तो रोज़गार तो नए पैदा हो रहे हैं न?’हमने कहा।
यह बात अलग है कि अभी तो हमें जिनके पास काम था उन्हीं को फिर से काम पर लगाने का काम करना है। जितने नेता लोग चुनाव जीत नहीं पाए हैं वही यह दुष्प्रचार कर रहे हैं क्योंकि वह लोग बेरोज़गार हो गए हैं ना!! और देखिए, पहले एक घूस लेने वाला होता था और एक देने वाला होता था। हमें भी खयाल है भाई साहब रोज़गार बढ़ाने का इसीलिए तो हमने इनके साथ कैमरामैन, टेलीफोन टैप करने वाले, ओडियो और विडियो का संपादन करने वाले, घूस देने के लिए एक एजेंट और घूस लेने के लिए दूसरे एजेंट जैसे पदों का सृजन किया है। इसकी जाँच भी सी.बी.आई. कहाँ तक करेगी, इसलिए भविष्य में हम एक बड़ा दफ्तर बनाएँगे जहाँ भ्रष्टाचारीजी को ऑंच न आए ऐसी जाँच करने वाले बहुत से लोगों को रोज़गार देंगे। हमने यह भी सुझाया है कि घूस लेने वाले और देने वाले दोनों की तरफ़ से ही ऑडियो और विडियो टेप तैयार किए जाएँ ताकि हम ज़्यादा कैमरामैन और ‘ध्वन्यांकनकर्मियों’ को रोज़गार दे पाएँ। फिर भाई साहब सौ बात की एक बात तो यो सैं कि लोग हमन से पूछ के बच्चे पैदा तो करें ना, तो यह हमार ज़िम्मेदारी है का?
इधर प्रवासी भारतीयों को हमने बुलाया और बताया कि आजकल हम लोग गुड फील कर रहे हैं। कल ही तो पाकिस्तान को भी इसका एहसास करवा के आए हैं। भला प्रवासियों को यह बात कहाँ गुड लगने वाली थी बोले जी वह तो रहने दो कुछ काम-शाम करो ये गुड दी फीलिंग तो हमारे लिए रहने दो।
कुछ भी हो पिछले कई दिनों की शीत लहर के बाद जब पहली बार धूप निकली तो मैं इतना अच्छा महसूस कर रहा था कि यदि उस दिन मतदान हो रहा होता तो मैं हर किसी को वोट डाल आता। फिर अब तो बसंत भी आ गया है हल्का-हल्का मौसम, हर कहीं फूल हैं खिल उठे। तो मैं क्या जानूँ अर्थशास्त्र, राजनीति मैं तो करूँ सूँ भाया फील गुडो-गुड।
(2004)