फ़ुरसत / प्रेम कुमार मणि
लॉक-डाउन का तीसवाँ रोज था. ठीक तीस रोज पहले लोकतान्त्रिक मुल्क के सब से बड़े ओहदेदार ने महामारी से बचाव के लिए जिस लॉक-डाउन की घोषणा की थी, उसे दूसरी दफा बढ़ाया जा चुका था. लोग ऊब और घुटन से बेदम अपने घरों में सिमटे हुए थे. वक़्त ठहर-सा गया था. बीस साल की उम्र के रोहित को पहले दौर में तो कॉलेज बंद हो जाने के कारण, यह अच्छा लगा था, लेकिन दूसरी दफा जब तारीख बढ़ाई गयी, तब वह खीझ और कौंच से भर गया. आनन-फानन, उसने 'वक़्त कैसे गुजारा जाय' के मुद्दे पर गहन चिंतन किया. सोने के घंटे उसने बढ़ा दिए. इस बीच फालतू जैसा एक उपन्यास भी पढ़ गया. दो-तीन रोज तो यह सब ठीक लगा, लेकिन फिर से उसकी बोरियत गाढ़ी होने लगी. आलस इंसान का दुश्मन है, वह उसे बर्बाद कर देता है, जैसी उक्ति उसने कहीं पढ़ी थी और उसे संकल्प की तरह बाँध लिया था. इसलिए यह अधिक सोना, उसे अनैतिक और पाप की तरह महसूस होता था. लेकिन दूसरा कोई चारा भी तो नहीं था. सुबह आठ बजे उठ कर भी वह अपनी आदत के अनुसार फुर्ती से तैयार हो जाता था. और फिर उसे महसूस होता, वह भीड़ से भरे रेलवे के रिटायरिंग रूम में बैठा, किसी अनिश्चितकालीन गाड़ी का इंतज़ार कर रहा है, जिसका उसे एक बार का ही सही, लेकिन बड़ा ख़राब अनुभव था. बारह फुट चौड़े और चालीस फुट लम्बे मकान, जिस में तीन कमरे और एक-एक गुसल और रसोई भी बने हुए थे, में रोहित का ग्यारह प्राणियों का परिवार फ़िलहाल सिमटा हुआ था. रोहित के पिता दर्ज़ी थे और माँ घरेलु औरत, जो घर में पड़ी पुराने
ज़माने की उषा सिलाई मशीन पर पड़ोसिनों की कुर्तियां और बच्चो के कपडे सिल कर कुछ कमा भी लेती थीं. रोहित पढाई करता था और अच्छा कर रहा था. उसका बड़ा भाई सिकंदर हाई स्कूल का मास्टर था, जिसकी पांच साल पहले शादी हुई थी और जिस के दो नर बच्चे थे. भाभी,जिसका नाम सोनी था, भी घरेलु औरत थी. लेकिन उसके शौक बड़े अजब-गजब थे. पहला शौक तो जी भर कर सोने का था और फिर कई -कई दफा चाय पीने का. कोई तीन प्यालियाँ चाय पीने के बाद उसका मूड दैनिक कामों को अंजाम देने लायक होता था. हर हप्ते मजमुआ सेंट की एक शीशी उसे चाहिए होती थी. पढाई से उसे उबकाई आती थी, लेकिन सिनेमा का बहुत शौक था . बादलों को देख वह पागल-सी हो जाती थी और अपने जानते दबे सुर में ,लेकिन सास के मुताबिक जोर- जोर से फ़िल्मी गीत गाने -गुनगुनाने लगती थी. जैसा कि कहा, गीत की लड़ियाँ कहीं से उठती, उसका मन बेकाबू हो जाता. उसका कहना था, उसे जो अवसर मिला होता, वह कायदे की सिंगर बनी होती और जमाना उसके कदमों पर होता. रोहित को उसके इस वक्तव्य पर भरोसा होता था. लेकिन उसकी माँ को इस पर सख्त एतराज था. वह भुनभुनाती- 'सोने से फुर्सत मिले तब तो गीत-गवनई हो..."गानों के उस घर में केवल दो कद्रदान थे. दूसरा खुद रोहित था.
शादी-विवाह और उत्सवों के अलावे ऐसा आज तक कभी नहीं हुआ था कि घर के सब लोग इतने लम्बे समय तक इस तरह एक साथ रहें . पिता तो अक्सर अपनी दुकान पर ही सो जाते थे, क्योंकि उन्हें देर रात तक काम करना होता था और बहुत रात गए दुकान से लौटना खतरे से खाली नहीं होता था. भाई अपने परिवार के साथ पदस्थापन की जगह
रहते थे. बहिन अपने ससुराल में थीं. लेकिन इस बार माँ-पिता की इच्छा हुई कि होली के त्यौहार में सब यहीं जुटें. सब लोग आ भी गए. अपने तरीके से होली का ढंग से इंतजाम हुआ. पिता ने सब के लिए नए कपड़े बनवाये, जो कभी -कभार ही संभव होता था. पिछले साल से पिता की आमदनी बढ़ी थी और भाई की तनख्वाह भी. इस ख़ुशी को ही सेलेब्रेट करने की इच्छा सब की थी. लगता था जीवन अच्छाई की ओर करवट ले रहा है. कई तरह के सपने थे, जो अंगड़ाई लेते अनुभव हो रहे थे. होली के तीन रोज पहले जब सब लोग जुट गए थे और घर की सुस्त रसोई से छनर -मनर की आवाज और स्वाद की मोहक गंध उठ रही थी, तभी रोहित ने अपने लैप टॉप पर एक खबर देखी की किस तरह चीन के वुहान शहर में अफरा-तफरी मची है और कि यूरोप के कई देशों में एक विचित्र सी बीमारी तेजी से फ़ैल रही है. इसे वैश्विक महामारी घोषित किया गया है. उसने गूगल ढूंढा. वहाँ कुछ अधिक जानकारी मिली . हिदायतों के बारे में जाना. ओह! यह क्या! यह तो स्पर्श या नजदीक आने मात्र से किसी को हो सकता है. हाथ हमेशा साबुन और सैनिटाइज़र से साफ करते रहने हैं. मास्क पहनना है. लोगों से दूरी बना कर रखनी है.
- 'यह रोहित हरदम बातें बनांते रहता है. झूट बोल रहा है. सब गढ़ंत बातें हैं.' माँ ने उसे बिलकुल ख़ारिज कर दिया. लेकिन जब टीवी ने भी ऐसी ही जानकारी देनी शुरू की, तो घर के लोग थोड़े गंभीर हुए. लेकिन सब को सरकार पर भरोसा था. बहुत चालाक-होशियार सरकार है. क्या वह इतना भी नहीं समझती. सिकंदर ने अपनी समझ सब पर लाद दी. लेकिन खबरों के असर दिखने लगे थे . होली के दिन लोग एक दूसरे के यहाँ जाने और मिलने-जुलने से बचते दिखे. दो रोज बाद सिकंदर को लौट जाना था और अगले हप्ते बहिन-जीजा को. लेकिन टीवी पर खबर आई कि सूबे के सभी स्कूल महीने की आखिरी तारीख तक के लिए बंद कर दिए गए हैं. उसके अगले रोज खबर आई कि सभी दफ्तर बंद कर दिए गए हैं. उसके कुछ रोज बाद पूरे देश में लॉक डाउन की घोषणा कर दी गयी. अमुक तारीख तक लोग अपने घरों से बाहर नहीं निकलेंगे. रोहित की माँ को अचम्भा हुआ. यह कैसी बीमारी है! ऐसा तो माता-माई में भी नहीं होता था. ठीक -ठीक किस विधि से इस नयी माता की पूजा हो उसे समझ में नहीं आया, लेकिन कुछ तो विवेक से भी करना था. देवी कितनी बहनें हैं. सब की सब कुमारियाँ हैं. अनब्याही. इसीलिए समय-समय पर कोई-कोई छड़िया उठती हैं. यदि कायदे से क्रुद्ध हो उठीं तो दुनिया का नाश भी कर सकती हैं. उसने कुछ पूजा पाठ कर लेना जरुरी समझा. हवन करके उसने पूरे घर को पवित्र करने की कोशिश की. सब लोगों ने बैठ कर हवन की वैज्ञानिकता पर सिकंदर भाई के प्रवचन सुने. भारत में कुछ नहीं होगा. पूरे देश में हवन हो रहे हैं. कुछ नहीं होगा इस देश को. बस कुछ नहीं. मांस -अंडे खाने बंद कर देने हैं. मास्टर मोशाय को डॉक्टर ने पिछले ही साल मांसाहार की मनाही की थी. तब से उसने मांसाहार के खिलाफ इतने साहित्य पढ़े थे कि उसके भाषण से भय के गुबार उठते थे. हाई स्कूल के छात्रों को पढ़ाते-पढ़ाते उसने उपदेशकों की तरह बोलने की कला विकसित कर ली थी और हर जगह हमेशा उसे एक श्रोता मंडल की तलाश होती थी. उसने अपने वाल पर महामारी से सम्बंधित कुछ टिप्पणियाँ पोस्ट भी किए थे . बारह गुना चालीस फुट के घर में रोहित, सिकंदर, उनके माता-पिता, बहन -जीजा, बहू सोनी और चार बच्चे थे. दो भाई के और दो बहिन के. आकस्मिक व्यवस्था में एक-एक कमरा भाई और बहिन को मिला हुआ था. शेष बचे एक कमरे में शेष सात प्राणी दिन -रात जमे होते थे. दरअसल यह इस घर का कॉमन रूम था, इसलिए इस में दो आलमीरे और टीवी सेट भी थे. रोहित का कमरा बहिन और माता-पिता का कमरा भाई-भाभी को आवंटित होने के बाद यह कॉमन रूम अस्थायी बसेरा बना था; लेकिन किसी को क्या पता था कि यह थाने का लॉक रूम बनने वाला है! दिन-रात टीवी देखने के लिए भी सब लोग इसी में पड़े रहते थे. घर के आगे कोई सहन नहीं था. बाहरी कमरे का दरवाजा सीधे मुख्य सड़क पर खुलता था, जिस पर पुलिस की गाड़ियां दौड़ती रहती थीं. अजीब-अजीब घोषणाएं होती रहतीं . सब का लब्बो-लुबाब यही होता था कि घर से बाहर निकलना खतरे से खाली नहीं है. शहर के कई इलाके हॉट -स्पॉट घोषित हो चुके थे. व्याधि सुरसा की तरह दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती जा रही थी. शहर की खबरें भी टीवी से ही मिल रही थी. रोज-रोज मनहूस खबरें मिलती. भाई और जीजा को खबर मिली कि उनकी तनख्वाह से पीएम और सीएम के ख़ज़ाने में एक अच्छी खासी रकम काट कर रख ली गयी है. पिता को खबर मिली कि उनको काम का मिला आर्डर ख़त्म कर दिया गया है. दुकान बंद है और खर्च बढ़ता ही जा रहा है. कैसे क्या किया जाय कुछ समझ में नहीं आता. लेकिन सब से बढ़ कर तो थी यह चूहे की तरह की ज़िंदगी! आखिर कितने दिन ऐसे कट सकती है ज़िंदगी! एक ही गुसल. पानी की छोटी टंकी. खाना बनाने और कपडे धोने-नहाने के अलावे दिन में बीसों दफा सबको साबुन से हाथ धोने. ओह! आदमी अब और नहीं बर्दास्त कर सकता. महामारी से अधिक त्रासद तो यह चूहे जैसी ज़िंदगी हो गई है. गनीमत थी कि मौसम कुल मिला कर सुहाना था. अप्रैल के आखिरी सप्ताह तक लू-लपट नहीं थी. आकाश में बादलों की घुड़-दौड़ और धरती पर पुरवाई चल रही थी. लेकिन पुरवाई में उमस की घुटन भयानक होती है. कहा न, चूहों वाली स्थिति. पूरा परिवार लॉक-डाउन को झेल रहा था. पूरे घर का बस एक ही दरवाजा था. बच्चे दरवाजे से झांकते. उन्हें रोकना भी एक काम ही बन गया था. कभी चारों बच्चे समवेत अंदाज़ में इस तरह चिल्लाते कि लगता उनकी आवाज से छत फट जाएगी. एक दिन तो कभी नहीं गुस्सा करने वाले पिता अपनी रिकॉर्ड आवाज में बोले-'बंद करो ये टीवी. फालतू बकवास...' सब चौंक-से गए. यह क्या हुआ पापा को. रोहित दौड़ कर ग्लास भर पानी लाया. सब लोग घबरा उठे . पापा को कुछ हुआ तो जायेंगे किस अस्पताल में. कोई भी समझ सकता है, ऐसे में सोनी की क्या स्थिति होगी. महीने भर से उसकी रागिनी उसके भीतर घुमड़ रही थी. उसे गाने-गुनगुनाने का कोई अवसर ही नहीं मिल रहा था. सेंट की गंध लिए पखवारे भर से ऊपर हो गए थे. ठीक से नहाना -धोना मुश्किल था. पूरे कुनबे के लिए फरमाइशी रसोई पकाना एक अलग बला थी. कोई नमक कम खाता है, तो कोई ज्यादा. किसी को मिर्ची थोड़ी अधिक चाहिए तो किसी को बिलकुल नहीं. चाय के ही जितने प्राणी उतनी फरमाइशें थीं. किसी को बिना दूध की, तो किसी को केवल दूध की. किसी को कड़क तो किसी को बहुत हलकी. किसी को सादी तवा रोटी चाहिए, तो किसी को मुगल पराठे. सोनी, इधर सुनो, सोनी उधर देखो. बच्चों की जिम्मेदारी अलग. उसने तो सोचा था होली के चौथे रोज वह अपने प्यारे घरौंदे में लौट जाएगी, जहाँ जी भर सोने की उसे आज़ादी होती है . यहां आकर ऐसी फँसी कि कुछ कहते ही नहीं बनता. आफत का ऐसा पहाड़ टूटता है भला! और इस हाल का, करते-करते यह तीसवां रोज था.
सुबह से तो दिन के गरम होने के आसार थे, क्योंकि पुरबा कई रोज पहले ही थम गयी थी और आज का सूरज भी खूब खिला-खिला था .लेकिन तीसरे पहर में मौसम ने अचानक करवट ली. आँधी के आसार दिखने लगे. घर के ऊपर जो छत थी उस पर जाने के लिए पक्की सीढियाँ नहीं, बांस की बनी एक पुरानी लचर-पचर सीढ़ी थी. दिन के तीसरे पहर जब काले -काले बादल कई दिशाओं से एकबारगी आकाश को घेरने लगे, तब सोनी के दिमाग में आया, छत पर डाले गए कपड़ों को समेट लाया जाय. वह उन्ही लचर-पचर सीढ़ियों से ऊपर चढ़ी. आकाश में बादलों की घुड़ दौड़ मची थी. चारों दिशाओं करियारे बादल पूरे उमंग से बढे आ रहे थे. आकाश का रंग बदलता जा रहा था. बादलों को देखते ही उस पर नशा छाने लगा . वह सचमुच बौरा -सी गयी. उसके दिमाग में पाकीजा फिल्म के एक गाने की एक सतर जाने कैसे उभरी और जैसे तेजी से आकाश में बादल भरे थे, वह गीत भी उसके भेजे के कोने-कोने में पसर गया. गीत का नाम नहीं बताऊंगा. इसलिए कि इसकी कोई जरुरत नहीं है. आप पर सही अनुमान करने का पूरा भरोसा है. कुछ ही पल में सोनी, बादल और गीत ऐसे एकमेव हुए कि जाने कितने कपड़ों को हवा उड़ा ले गयी. फिर भी बहुत से कपड़ों को उसने अपने काबू में लिया और नीचे उतरने के लिए सीढ़ी की ओर बढ़ी, तब देखती है, सीढ़ी दूर जा कर गिरी-पड़ी है. हाय राम! यह क्या हुआ. अब नीचे कैसे उतरूंगी?
भाड़ में जाए नीचे उतरना. महीने रोज बाद उसे खुली-साफ हवा मिली थी और बादलों की ऐसी जमघट. गुनगुनाने के अवसर भी. उसे इतना अच्छा महसूस हो रहा था कि उसे लगा उसका कायांतरण हो रहा है और वह कोई परी बनती जा रही है. काश! उसकी गुनगुनाहट कोई सुनता! यह खूसट बुढ़भस बकलोल मास्टर. उसे तो भाषण से ही फुर्सत नहीं मिलती.
पूरा आसमान काले बादलों से भर गया था. हवा का जोर बढ़ता ही जा रहा था. और तभी बारिस की जोरदार छींटें शुरू हो गयी. नहीं, नहीं, वह धरती पर नहीं है. स्वर्ग में है. उसे कुछ नहीं चाहिए. ऐसे मौसम में वह मर भी जाय, तो कोई बात नहीं. उसने कोई आवाज नहीं लगाई कि कोई निकले और सीढ़ी खड़ी करे. वह उस दरबे में नहीं लौटना चाहती थी, जिस में महीने भर से घुट रही थी. उसने कपडे छत की फर्श पर डाल दिए और उन्ही भीगे कपड़ों पर लेट गयी. कब बेसुध हुई वह क्या जाने.
घर आंधी-थपेड़ों को लेकर बंद था. लोगों ने खिड़की से झांक कर बारिश की फुहारों को भी देखा. फिर खिड़कियां दरवाजे भिड़ा लिए. किसी को कोई जानकारी नहीं थी कि सोनी छत पर गयी है. जब रात थोड़ी गहरा गयी और किसी काम के वास्ते सोनी की खोज हुई, तब वह नहीं मिली. गुसल भी खाली था. तीनों कमरे रेल के डब्बों की तरह सरल अनुक्रम में थे. छुपने-छुपाने की तो कोई जगह ही नहीं थी. घंटे भर की खोज-ढूँढ के बाद भी जब वह नहीं मिली तो मस्टर मोशाय को कुछ सूझी और उसने पुलिस कण्ट्रोल रूम को फोन लगाया. बीवी के गुम होने की खबर सनहा की. आधे घंटे में पुलिस पूरे लश्कर के साथ आ धमकी. पूरा ब्यौरा लिया. सभी पुलिस चौकियों को चौकस किया गया. मोहल्ले में कानाफूसी अचानक से बढ़ गयी. घर के लोगों की चिंता अपनी जगह थी. सोनी चुपचाप बेसाख्ता नींद में डूबी कोई सपने देख रही थी. फुर्सत और इत्मीनान की ऐसी नींद इंसान को कम ही मयस्सर होते हैं. आकाश में अब भी झिलमिल बादल डोल रहे थे और उनके बीच से कभी-कभार उझक-उझक कर चाँद पुलिस की परेशानियां निहार रहा था. लचर-पचर सीढ़ी पर किसी की नजर नहीं थी.