फ़ूड चेन / आइंस्टाइन के कान / सुशोभित
सुशोभित
जंगल में शेर जैसे शिकार करता है, क्या मांसभक्षी मनुष्य भी उसी तरह से पशुओं को घात लगाकर मारता है?
निहत्था मनुष्य, आमने-सामने की लड़ाई में, पशु के उसके स्वाभाविक आवास में कितने पशुओं को मारकर खा सकता है? गाय को तो वह खरोंच भी नहीं लगा सकता। बकरी को भी नहीं। भैंसे की तो बात ही रहने दें। शक्तिबल के आधार पर वह मुर्ग़ों, बटेरों, तीतरों को अवश्य अपने हाथ से मार सकता है, किंतु पहले पकड़कर तो दिखाए। नदी में मछलियां पकड़कर दिखाए। शेर के पास नाख़ून होते हैं, पंजे होते हैं, गति होती है, आखेट की प्राकृतिक मेधा होती है। शेर के पास बंदूक़ या छुरी नहीं होती। फ़ूड-चेन तो वही वैध कहलाएगी, जिसमें एक जीव दूसरे को अपनी शक्ति के बल पर मारकर खा सके।
आज मनुष्य जिस फ़ूड चेन के शीर्ष पर मौजूद है, वह मनुष्य द्वारा रचे गए तमाम व्यतिक्रमों की तरह अनैतिक और अस्वाभाविक है। मनुष्य कोई 25 लाख साल से इस धरती पर है। इनमें से केवल पिछले 1 लाख सालों में ही वह फ़ूड चेन के शीर्ष पर काबिज़ हुआ है, और वह भी वैसे, जैसे तख़्तापलट करके सेनापति सिंहासनों पर काबिज़ होते हैं। जो प्राकृतिक फ़ूड चेन थी, उसमें तो मनुष्य की हैसियत गीदड़ों और लकड़बग्घों से भी गई-बीती थी। मनुष्य चूहों का शिकार करता था और किसी बड़े पशु को किसी अन्य शिकारी प्राणी द्वारा मार गिराए जाने और उसका भक्षण करने के बाद जो कुछ बचा रह जाता था, उसी पर गुज़ारा करता था। युवाल नोआ हरारी ने अपनी किताब 'सेपियन्स' में बतलाया है कि पुरा-मानव के जो हथियार पाए गए हैं, उनमें बड़ी संख्या अस्थि छेदने वाले हथियारों की है। वह इसलिए ताकि मनुष्य मृत पशुओं की हड्डियों से मज्जा ('बोन मैरो') निकालकर उनका सेवन कर सके और जीवित रह सके! यह थी मनुष्य की तथाकथित फ़ूड हैबिट, जिस पर वह इतना गर्व करता है- रेस्तराँ में ऑर्डर देते समय, जिसमें उसकी थाली में मशीनों से मारा गया पशु पेश किया जाएगा।
कोई 4 लाख साल पहले मनुष्यों ने झुंड बनाकर हमला करना सीखा और कोई 3 लाख साल पहले उन्होंने आग पर क़ाबू पाया। उसके हथियार और परिष्कृत हुए। इनकी मदद से कोई 1 लाख साल पहले मनुष्य फ़ूड चेन में शीर्ष पर आया। यह एक नितांत अस्वाभाविक परिघटना थी, जिसके पीछे पारिस्थितिकी तंत्र के अनुकूलन की कोई योजना ना थी। मसलन, जो प्राणी फ़ूड चेन में शीर्ष पर थे, वे कोई एक-दो दिन में वहां पर नहीं पहुंचे थे। लाखों सालों की प्रक्रिया के बाद शेर या शार्क जैसे प्रिडेटर्स पिरैमिड के शिखर पर पहुंचे थे। इसी दौरान अन्य प्राणियों का भी अनुकूलन हुआ। पारिस्थितिकी तंत्र में कभी भी तमाम सूत्र किसी एक सत्ता के अधीन नहीं होते हैं, भले ही फ़ूड चेन जैसी एक हायरेर्की आपको ऊपर से नज़र आए। मनुष्य अकसर कहते हैं कि अगर पशुओं का संहार करके उनका भक्षण ना किया जाए तो इको सिस्टम में असंतुलन की स्थिति निर्मित हो जाएगी। लेकिन इको सिस्टम की दीर्घकालीन शर्तों को गच्चा देकर शीर्ष पर पहुंचे मनुष्य का अपने स्वयं के बारे में क्या विचार है?
हरारी ने अपनी किताब में एक बहुत कमाल की बात कही है। उन्होंने कहा है कि जो प्राणी स्वाभाविक रूप से फ़ूड चेन के शीर्ष पर पहुंचे हैं, उनके भीतर लाखों सालों की श्रेष्ठता ने एक आत्मविश्वास भर दिया है। यही कारण है कि एक सिंह ज़ंजीरों में बांध दिए जाने के बावजूद शानदार प्राणी होता है। दूसरी तरफ़, येन-केन-प्रकारेण शीर्ष पर पहुंचा मनुष्य किसी 'बनाना रिपब्लिक' के 'डिक्टेटर' की तरह है, जो हमेशा इसी अंदेशे से ग्रस्त रहता है कि कहीं उसका तख़्तापलट ना हो जाए। मनुष्य के व्यक्तित्व में कोई गरिमा नहीं है, उल्टे उसके भीतर बहुत गहरे आदिम भय, अंदेशे और अविश्वास भरे हुए हैं। एक सामूहिक अवचेतन मनुष्य को कहीं ना कहीं याद दिलाता रहता है कि आज से महज़ एक लाख साल पहले तक वह सिंहों और लकड़बग्घों का जूठा भोजन करके जीवित रहता था और आज छलपूर्वक शीर्ष पर आया है। इसी हीनभावना ने मनुष्य को इतना क्रूर बना दिया है।
आप माँसाहार की तुलना जंगल में बाघ द्वारा किए जाने वाले शिकार से नहीं कर सकते। एक बाघ जंगल में होने की तमाम क़ीमत चुकाता है और स्वयं भी ज़ख़्मी या शिकार होने के लिए तैयार रहता है। वह घात लगाकर शिकार करता है और इसमें उसकी बुद्धि, शक्ति, समय का निवेश रहता है। वह श्रमपूर्वक अपना भोजन अर्जित करता है। और सर्वभक्षी तो वह भी नहीं होता। हर पशु को पता है कि क्या खाना है, क्या नहीं। लेकिन मनुष्य अपने ड्राइंग रूम में बैठकर राक्षसों की तरह उन प्राणियों का भक्षण करता है, जिन्हें ज़ंजीरों से जकड़कर, भयावह मशीनों द्वारा निर्ममता से मारा गया है। आमने-सामने की निहत्था लड़ाई में मनुष्य उन्हें छू भी नहीं सकता।
हर वह माँसभक्षण अप्राकृतिक, अनैतिक और हराम है, जिसे खाद्य शृंखला की शर्तों को पूरा करके प्राप्त नहीं किया गया है और इसका उल्लंघन करने वाला मनुष्य महामारियों का सुपात्र तो है ही, नैतिक रूप से भी भर्त्सना के योग्य है।