फ़ेसबुक में फंसे चेहरे / दयानंद पाण्डेय
राम सिंगार भाई इन दिनों फ़ेसबुक पर हैं। उन्हों ने जब एक दोस्त के कहने पर अपना एकाउंट फ़ेसबुक पर खोला था तब वह यह हरगिज नहीं जानते थे कि वह फ़ेसबुक पर नहीं अपने अकेलेपन की, लोगों के अकेलेपन की आंधी में समाने का एकाउंट खोल रहे हैं। फ़ेसबुक खोल कर कई बार राम सिंगार भाई सोचते हैं तो सोचते ही रह जाते हैं।
'आदमी के आत्म विज्ञापन की यह राह क्या उसे अकेलेपन की आह और आंधी से बचा पाएगी?' वह पत्नी से बुदबुदा कर पूछते हैं। पत्नी उन का सवाल समझ ही नहीं पाती। बगल के स्टूल पर चाय-बिस्किट रख कर वापस किचेन में चली जाती है। वह फिर से लोगों की पोस्ट देखने लग जाते हैं। एक गिरीश जी हैं। हिमाचल की वादियों से लौटे हैं। नहाते-धोते, खाते-पीते सारी तस्वीरें पोस्ट कर बैठे हैं। फ़ोटो में पत्नी-बच्चे सभी हैं। पर यह देखिए कमेंट भी इस फ़ोटो पर यही लोग कर रहे हैं। 'गज़ब पापा, नाइस पापा।' पत्नी का भी कमेंट है, 'ब्यूटीफुल।' गिरीश जी खुद भी 'वेरी नाइस' का कमेंट ठोंके बैठे हैं। अद्भुत।
मिसेज सिन्हा ने तो अपनी ही फ़ोटो पोस्ट की है। देवर लोग कमेंट लिख रहे हैं, 'ब्यूटीफुल, भाभी जी।' ननदोई लिख रहे हैं, 'मैं तो फ़िदा हो गया!' मिसेज सिन्हा पलट कर जवाब देती हैं : 'जीजा जी आप का दिल दीदी जी के पास पहले ही से फंसा है मैं जानती हूं।' एक किसी और का कमेंट भी है जो लगता है मिसेज सिन्हा का कुलीग है। लिखा है, 'क्या बात है, बहुत जम रही हैं।' मिसेज सिन्हा ने पलट कर जवाब दिया है, 'आफिस की ही है। रीतेश ने क्लिक की है।' राम सिंगार भाई किसी मित्र से फ़ोन पर बता रहे हैं मन की तकलीफ और फ़ेसबुक को बहाना बनाए हैं। बता रहे हैं, 'बताइए आदमी इतना अकेला हो गया है कि अपनी ही फ़ोटो पर अपने ही घर में चर्चा नहीं कर पा रहा है। फ़ेसबुक पर चर्चा कर रहा है। आफिस के लोग भी फ़ेसबुक या ट्विट पर बात कर रहे हैं आरकुट से हालचाल ले रहे हैं? और तो और सदी के सो काल्ड महानायक भी ट्विट पर अपना खांसी-जुकाम परोसते ही रहते है जब-तब। हर सेकेंड जाने कितनी स्त्रियां गर्भवती होती हैं, मां बनती हैं। पर इन महानायक की बहू जब विवाह के चार बरस बाद मां बनती है तो वह ट्विट कर दुनिया को बताते हैं। हद है। और तो और इन्हीं के एक पूर्व मित्र हैं। महाभ्रष्ट हैं। खुद को दलाल, सप्लायर सब बताते हैं। राजनीतिक गलियारे से खारिज हैं इन दिनों। वह भी ब्लाग पर जाने क्या-क्या बो रहे हैं।'
'फैशन है राम सिंगार भाई! फ़ैशन!!' मित्र जैसे जोड़ता है, 'और पैशन भी!'
'भाड़ में जाए ऐसा फ़ैशन और पैशन!' राम सिंगार भाई किचकिचाते हैं।
'आप फिर भी देख तो रहे हैं राम सिंगार भाई!' मित्र चहकते हुए कहता है।
'सो तो है।' कह कर राम सिंगार भाई फ़ोन रख देते हैं।
फिर फ़ेसबुक पर लग जाते हैं। किसी अरशद की नई पोस्ट देख रहे हैं। अरशद का शग़ल कहिए, पागलपन कहिए या कोई महत्वाकांक्षाएं, अकसर किसी राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय पत्रिका के कवर पर अपनी बड़ी सी फ़ोटो पेस्ट कर पोस्ट लगा देते हैं। बड़ी मासूमियत के साथ यह लिखते हुए कि, 'क्या करें अब की फलां मैगजीन ने मुझ पर कवर स्टोरी की है।' अरशद की पोस्ट देख कर लगता है जैसे दिन रात वह फ़ेसबुक पर ही बैठे रहते हैं। अपना खाना, सोना, घूमना, काम-धाम, कहां जाना है, कहां से आए हैं सब कुछ का ब्यौरा परोसते रहते हैं। पल-प्रतिपल। कभी अपनी पुरानी फ़ोटो के साथ तो कभी नई फ़ोटो के साथ। इन फ़ोटुओं का बखान भी ऐसे गोया गांधी जी किसी गोलमेज कांफ्रेंस से लौटे हों। बिलकुल बहस तलब बनाते हुए। और एक से एक बुद्धिहीन इस पर दिमाग ताक पर रख कर कि घोड़े पर बैठा कर बे सिर पैर का कमेंट करते हुए जमे बैठे हैं।
'यह कौन सी दुनिया बना रहे हैं हम?' राम सिंगार भाई बुदबुदाते हैं।
'क्या है?' पत्नी अचानक चाय का कप उठाते हुए थोड़ा कर्कश आवाज़ में पूछती है।
'कुछ नहीं।' वह बहुत धीरे से बोलते हैं।
'पता नहीं क्या-क्या अपने ही से बतियाते रहते हैं।' कहती पत्नी फिर चली जाती है।
अगली पोस्ट एक कवि की है। फ़ोटो में एक प्रख्यात आलोचक के पीछे कंधे पर हाथ रखे ऐसे खड़े हैं गोया महबूबा के पीछे खड़े हों। एक ख़ूबसूरत अपार्टमेंट के सामने खड़े दोनों मुसकुरा रहे हैं। राम सिंगार भाई फ़ोटो पर क्लिक करते हैं। बड़ी कर के देखने के लिए। फ़ोटो बड़ी हो जाती है। मौखिक ही मौलिक है के प्रवर्तक रहे आलोचक की यह मासूम मुस्कान देखने लायक है। इतने करीब से भला उन्हें कोई छू भी सकता है और वह फिर भी मुसकुरा सकते हैं, देख कर अच्छा लगता है आंखों को। राम सिंगार भाई फ़ोटो के नेक्स्ट पर क्लिक करते हैं। करते ही जाते हैं नेक्स्ट-नेक्स्ट-नेक्स्ट। कवि की पत्नी की फोटुएं हैं। साज-सिंगार करती हुई स्टेप बाई स्टेप। आगे से, पीछे से। ड्रेसिंग टेबिल के सामने जूड़ा बांधते भी, स्टेप पर स्टेप। कुछ कमेंट भी हैं। प्रशंसात्मक कमेंट। लगभग चाकलेट की तरह चुभलाते हुए कमेंट। कवि की विवाह की फ़ोटो भी हैं और उन के लाल और लाली की भी। मतलब बेटे और बेटी की। कुछ किताबों के कवर और उनकी समीक्षाएं भी। माता-पिता नहीं हैं, भाई, बहन, नाते रिश्तेदार नहीं हैं। लोग-बाग नहीं हैं। पत्नी है, बेटा है, बेटी है और आलोचक है। क्या एक कवि को सिर्फ़ इतना ही चाहिए? तो क्या यह कवि भी अकेला हो गया है?
वह सोचते हैं जिस समाज में कवि भी अकेला हो जाए वह समाज कितने दिन तक सड़ने से बचा रह पाएगा? राम सिंगार भाई फ़ेसबुक लॉग-ऑफ कर कंप्यूटर टर्न ऑफ कर देते हैं। बिस्तर पर आ कर लेट जाते हैं। पर मन फ़ेसुबक में फंसे तमाम चेहरों में ही लगा पड़ा है। वह सोचते हैं कि क्या यह वही फ़ेसबुक है जिसने उत्तरी अफ्रीका और कि अरब जगत में तानाशाहों के खि़लाफ चल रहे जन विद्रोह में शानदार भूमिका निभाई है। इतना कि चीन जैसे देश के तानाशाहों ने मारे डर के चीन में फ़ेसबुक पर बैन लगा दिया। क्या वह यही फ़ेसबुक है जिस के सदस्यों की संख्या 75 करोड़ को पार कर एक अरब होने की ओर अग्रसर है? क्या यह वही फ़ेसबुक है जिस पर तमाम राष्ट्राध्यक्ष अपनी बात कहने के लिए प्लेटफ़ार्म की तरह इस्तेमाल करते हैं। जनता से संवाद करते हैं। फे़सबुक हो ट्विटर या आरकुट! अपने प्रधानमंत्री तो खै़र संसद या प्रेस से भी नहीं बोलते। मौन साध जाते हैं। पर गूगल बोलता है कि अब वह भी फ़ेसबुक की तरह गूगल प्लस लाएगा। लाएगा क्या ला भी दिया। पर वह नशा नहीं घोल पाया जो फ़ेसबुक ने लोगों के जेहन में घोल रखा है। क्या यह वही फे़सबुक है? जो सब को हिलाए हुए है?
फिर वह बुदबुदाते हैं कि, 'है तो वही फ़ेसबुक!' राम सिंगार भाई के दफ़्तर में एक सहयोगी के जन्म दिन की सूचना उन्हें फ़ेसबुक पर ही मिली। उन्हों ने फ़ेसबुक पर उन्हें जन्म दिन की बधाई लिखी। और उन के नाम पर क्लिक कर उन के प्रोफ़ाइल पर बस यूं ही नज़र डाली। उन्हों ने देखा कि तमाम सूचनाओं के साथ उन की पढ़ाई एक नामी गर्ल्स डिग्री कॉलेज में हुई दर्ज थी। दूसरे दिन उन्हों ने आफिस में जन्म दिन की बधाई देते हुए लगभग चुहुल करते हुए तमाम सहयोगियों को यह सूचना परोसी कि 'देखिए भाई यह फला गर्ल्स डिग्री कालेज के पढ़े हुए हैं।' उन सहयोगी को यह बात चुभ गई। तो राम सिंगार भाई ने बताया कि, 'भाई, सपना देख कर तो बता नहीं रहा हूं। आप ने अपने फ़ेसबुक प्रोफ़ाइल पर खुद दर्ज कर रखा है।' तो यह कहना भी उन को नागवार गुज़रा। बोले, 'फिर आप ने ही लिख दिया होगा।'
'मैं कैसे आप की प्रोफ़ाइल में कुछ लिख सकता हूं?'
'आप कुछ भी कर सकते हैं।'
'ओह आप का जन्म दिन है आज। कम से कम आज तो कड़वाहट मत घोलिए। और मस्ती कीजिए।'
'आप ही तो सब कुछ कर रहे हैं।'
बात बढ़ती देख राम सिंगार भाई ने क्षमा मांगी और चुपचाप अपनी सीट पर आ कर बैठ गए थे। फिर भी उन्होंने फ़ेसबुक पर लगातार उन की प्रोफ़ाइल चेक की पर गर्ल्स कालेज में उनके पढ़ने का डिटेल हटा नहीं था। दो महीने बाद तब हटा जब उन्होंने समय निकाल कर एक सहयोगी की मदद ली। और अपनी बर्थ डे की फ़ोटो पोस्ट की। पता चला कि वह खुद कुछ पोस्ट नहीं कर पाते। किसी न किसी सहयोगी की मदद ले कर पोस्ट कर पाते हैं। पिछली दफ़ा भी दफ़्तर में नई आई एक लड़की से एकाउंट खुलवाया था। तो उस ने अपने कालेज का नाम रूटीन में लिख दिया। जिसे यह चेक कर नहीं पाए। पर फ़ेसबुक पर बने रहने का जो शौक़ था, जो रोमांच था, जो अकेलेपन की आंच और सब से जुड़े रहने का चाव था, उन्हें फ़ेसबुक से बांधे रहा। राम सिंगार भाई के साथ भी यही कुछ ऐसे-ऐसे ही तो नहीं है पर है कुछ-कुछ ऐसा-वैसा ही। आख़िर पचास-पचपन के फेंटे में आने के बाद टेकनीक से दोस्ती बहुधा कम ही लोग कर पाते हैं। ज़्यादातर नहीं कर पाते। राम सिंगार भाई भी नहीं कर पाते। मेल एकाउंट खोलना हो, फ़ेसबुक एकाउंट खोलना हो, कुछ पोस्ट करना हो, अटैच, कापी, पेस्ट वह सब कुछ बच्चों के भरोसे करते-कराते हैं। छोटा बेटा इसमें ज़्यादा मददगार साबित होता है। पर जो भी कुछ होता है वह उसे री-चेक ज़रूर कर लेते हैं। कहीं कुछ ग़लत होता है या कई बार सही भी होता है और उन्हें शक हो जाता है तो फ़ौरन रिमूव करवा देते हैं। न सिर्फ़ फ़ेसबुक या इंटरनेट पर बल्कि असल ज़िंदगी में भी वह इसी अदा के आदी हैं।
फ़ेसबुक पर राम सिंगार भाई चैटिंग भी करते हैं। इसमें रोमन में टाइप कर के काम चलाते हैं। क्यों कि अंगरेजी बहुत आती नहीं और हिंदी में टाइप करने आता नहीं। सो रोमन बहुत मुफ़ीद पड़ती है। याहू मैसेंजर पर भी कभी-कभी राम सिंगार भाई चैटिंग करने पहुंच जाते हैं। फर्जी मेल आई-डी बना कर। यह फर्जी मेल आई-डी भी उन्होंने बेटे से बनवाई है। पर पासवर्ड खुद डाला। बेटा यह देख कर हौले से मुस्कगराया। पर जाहिर नहीं होने दिया। टीनएज बेटा समझ गया कि बाप कुछ खुराफात करने की फ़िराक़ में है। याहू मैसेंजर पर फर्जी नाम से चैटिंग में राम सिंगार भाई अपनी सारी यौन वर्जनाएं धो-पोंछ डालते हैं। वह भी खुल्लमखुल्ला। औरतें भी एक से एक मिल जाती हैं कभी असली, कभी नकली। कभी देशी-कभी विदेशी। मर्दों से ज़्यादा दिलफेंक, ज्यादा आक्रामक मूड। फुल सेक्सी अवतार में। वात्स्यायन के सारे सूत्रों को धकियाती, नए-नए सूत्र गढ़ती-मिटाती, एक नई ही दुनिया रचती-बसाती। एक दिन तो हैरत में पड़ गए राम सिंगार भाई। एक देसी कन्या बार-बार गैंगरेप की गुहार लगाने लगी। कहने लगी, 'हमें गंदी-गंदी गालियां दो। अच्छी लगती हैं।' राम सिंगार भाई टालते रहे। अंततः उस ने लिखा, 'कैसे मर्द हो जो गाली भी नहीं दे सकते? गैंगरेप भी नहीं कर सकते?' वगैरह-वगैरह मर्दानियत को चुनौती सी देती। तमाम अभद्र और अश्लील बातें। गालियों की संपुट के साथ। ऐसे तमाम वाकये उन के साथ मैसेंजर की चैटिंग में हुए। कभी इस तरह, तो कभी उस तरह।
पर फ़ेसबुक की चैटिंग में यह सब चीज़ें नहीं मिलीं राम सिंगार भाई को। चूंकि पूरी पहचान के साथ ज़्यादातर लोग होते हैं, सब के संवाद का नया पुराना रिकार्ड भी होता है तो लोग-बाग शालीनता की खोल में समाए रहते हैं। थोड़ा-बहुत इधर-उधर की फ़्लर्ट के बावजूद शालीनता का शाल वन उन के पर्यावरण को फिट बनाए रखता है। पर जो अकेलेपन और संत्रास का तनाव तंबू पाते हैं फ़ेसबुक पर राम सिंगार भाई तो हिल जाते हैं। जो दिखावा कहिए, आत्म विज्ञापन कहिए, आत्म मुग्धता या चाहे जो कहिए वह उन्हें फ़ेसबुक से तो जोड़ता है, पर भीतर-भीतर कहीं गहरे तोड़ता है। बताइए भाई लोग कोई गाना सुनते हैं, अच्छा लगता है तो उस का वीडियो अपलोड कर देते हैं कि लीजिए आप भी सुनिए। गाना जाना पहचाना है, हर कहीं सुलभ है। फिर भी लोग यहां देख-सुन कर बाग-बाग हो जाते हैं। कमेंट पर कमेंट, खोखले ही सही, भर देते हैं। नाइस, ब्यूटीफुल, वाह, वाव, गज़ब! अब इस सड़न को, इस मूर्छा को, इस झुलसन को राम सिंगार भाई किस हरसिंगार की छांह में ले जा कर पुलकाएं कि लोगों का अकेलापन टूटे, संत्रास और तनाव छंटे। राम सिंगार भाई क्या करें?
ऐसे ही जब एफ़ एम टाइप रेडियो चैनलों पर कुछ लोग एनाउंसरों के झांसे में आ कर अपने घर की पूरी कुंडली बांच डालते हैं, ख़ास कर महिलाएं तो राम सिंगार भाई को बहुत कोफ़्त होती है। बहुएं अपनी सास की शिकायत, लड़कियां अपने ब्वाय फ्रेंड के ब्यौरे और लड़के अपनी गर्ल फ्रेंड की बेवकूफियां झोंकते रहते हैं तो कुछ लड़के भी अपनी मम्मी की अंधविश्वास टाइप शिकायतें छांटते मिलते हैं। कार ड्राइव करते यह सब सुनते राम सिंगार भाई हंस पड़ते हैं। तो कभी खीझ पड़ते हैं। अब देखिए राम सिंगार भाई फिर फ़ेसबुक पर है। एक जोशी जी हैं जो किसी रेडियो पर ब्राडकास्टर हैं। रेडियो पर हिंदी बोलते हैं पर फ़ेसबुक पर अंग्रेजी बूकते हैं और अपने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़े होने का दम भी भरते रहते हैं जब-तब। पूरे दंभ के साथ। अंगरेजी बूकते हुए। कभी किसी कामेडियन की क्लिप पोस्ट करते, कभी अपने ब्राडकास्टर की क्लिप पोस्ट करते जो होती हिंदी में ही हैं, पर वह उन का नैरेशन अंगरेजी में ही छौंकते-बघारते मिलते हैं। किसी ने उन की इस अंगरेजी टेंडेंसी पर तल्ख़ कमेंट लिखा तो उन्हों ने सफाई भी दी कि वह हिंदी में टाइप नहीं कर पाते और कि रोमन में हिंदी लिखना उन्हें बेवकूफी लगती है। हालांकि यह बात उन्हों ने रोमन में ही लिखी।
अपने इन जोशी जी की एक और अदा है कि अगर कोई महापुरुष टाइप व्यक्ति दिवंगत होता है तो वह फट उस से अपने ब्राडकास्टर का रिश्ता जोड़ते हैं और अपना रूप सुरसा की तरह बढ़ा लेते हैं और संबंधित व्यक्ति की एक फ़ोटो अपलोड करते हुए अंगरेजी में बता देते हैं कि कैसे उन्हों ने फलां का इंटरव्यू लिया था। जैसे कि अभी-अभी जब हुसैन का निधन लंदन में हुआ तब उन्हों ने हुसैन की एक फ़ोटो अपलोड की और बताया कि उन दिनों वह अपनी शादी की तैयारियों में थे। पर जब उन्हें फोन पर बताया गया कि हुसैन शहर में हैं तो वह छुट्टी रद्द कर उन का इंटरव्यू कर आए। अब इंटरव्यू में हुसैन ने उन से क्या कहा यह उन्हों ने बताने की ज़रूरत नहीं समझी। बताना भी उन को सिर्फ़ यही था कि वह हुसैन से मिले थे। ऐसे गोया हुसैन से नहीं, वह फ़िराक़ से मिले थे। बरक्स आने वाली नस्लें तुम पर फख्र करेंगी हमअसरो कि तुमने फ़िराक़ को देखा था। आत्म विज्ञापन की इस बीमारी को अपने मनोवैज्ञानिक लोग किस कैटेगिरी में रखते होंगे राम सिंगार भाई नहीं जानते। नहीं कमेंट में लिखते ज़रूर। अब देखिए एक पत्रकार भी हैं फ़ेसबुक पर। उन की एक पोस्ट जोशी जी पर भी भारी है। उन की एक पोस्ट बताती है कि वह ओबामा से मिलने वाशिंगटन गए। कि उन्हें ख़ास तौर पर बुलाया गया। गो कि वह हिंदी अखबार में थे। इस बारे में उन्हों ने विस्तार से कहीं इंटरव्यू भी दिया है और उस का लिंक भी पोस्ट किया है। पर पूरे इंटरव्यू में ओबामा के साथ उन की फ़ोटो तो है पर अपने इंटरव्यू में ओबामा ने उन से क्या कहा, या ओबामा से इन्हों ने क्या पूछा, इसका कहीं ज़िक्र नहीं है।
एक हिंदी के लेखक हैं। उन्हें अंतरराष्ट्रीय टाइप का लेखक होने का गुमान है। उन के इस गुमान के ट्यूब मैं कुछ संपादक-आलोचक लोग हवा भी भरते रहते हैं। वह भी अक्सुर अंगरेजी में सांस लेते फ़ेसबुक पर उपस्थित रहते हैं। जैसे कुछ अभिनेता अभिनेत्री काम हिंदी फ़िल्म में करते हैं पर उसके बारे में बात अंगरेजी में करते हैं। एक आलोचक हैं, समाजशास्त्री भी हैं। कबीर के लिए जाने जाते हैं। वह फ़ेसबुक पर भी कबीर को नहीं छोड़ते। कबीर ही भाखते हैं पर अंगरेजी में ही। एक और पोस्ट है। एक महिला हैं जो अपनी कंपनी के चेयरमैन से लिपट कर खड़ी है। यह बताती हुई कि आज ही उन का भी बर्थ डे है और कंपनी के चेयरमैन का भी। कमेंट्स भी नाइस, ब्यूटीफुल वाले हैं। यह कौन सा अकेलापन है? इस की कोई तफ़सील जाने किसी समाजशास्त्री, किसी मनोवैज्ञानिक या किसी और जानकार के पास है क्या? जो आदमी अपनी पहचान किसी अंगरेजी या किसी बड़े से जुड़ कर ही ढूंढना चाहता है? भले ही वह कोई अपराधी, माफिया या धूर्त या ठग ही क्यों न हो? क्या पृथ्वी आकाश से मिल कर बड़ी होती है? या कि फिर कोई नदी किसी सागर से मिलने के बाद नदी रह जाती है क्या? राम सिंगार भाई के मन में उठा यह सवाल जैसे सुलग सा जाता है।
ऐसे लगता है जैसे लोग अपना विज्ञापन खुद तैयार कर रहे हों? तो क्या यह सारे लोग विज्ञापनी उपभोक्ता संस्कृति के शिकार हो चले हैं। लोग यह बात आख़िर क्यों नहीं समझना चाहते कि इस विज्ञापनी संस्कृति ने लोगों के जीवन में फूल नहीं, कांटे बिछाए हैं। यह विज्ञापनी संस्कृति जैसे आप के सोचने के लिए कुछ छोड़ती ही नहीं। वह जताना चाहती है कि आप कुछ मत सोचिए, आप के लिए सारा कुछ हम ने सोच लिया है। आप कहां रहेंगे, क्या खाएंगे, क्या पहनेंगे, कहां सोएंगे, क्या सोचेंगे, क्या बतियाएंगे और कि क्या सपने देखेंगे, यह भी हम बताएंगे। यह सब आप हम पर छोड़िए। आदमी के सपनों के दुःस्वप्न में बदलते जाने की यह कौन सी यातना है भला? जो विज्ञापनी उपभोक्ता संस्कृति हमारे लिए किसी दुर्निवार रेशमी धागे से हमारे यातना शिविर बुन कर तैयार कर रही है? कि आदमी या तो फ़ेसबुक पर फूट पड़ता है या रिरियाता हुआ अपना विज्ञापन रच कर किसी कुम्हार की तरह अपने ही को रूंध देता है? किसी कबीर की तरह अपनी यातना की चदरिया बुन लेता है?
'तह के ऊपर हाल वही जो तह के नीचे हाल / मछली बच कर जाए कहां जब जल ही सारा जाल' की तर्ज पर ही यही हाल बहुतेरे ब्लागधारियों का है। क्या विवेकानंद, क्या गांधी, लोहिया, टालस्टाय, टैगोर, अरस्तु, प्लेटो, मैक्समूलर सब के जनक जैसे यही लोग हैं। लगता है इन्हीं ब्लागों को पढ़ कर ही यह लोग पैदा हुए थे। कालिदास, भवभूति, बाणभट्ट, शेक्सपीयर, बायरन, कीट्स, काफ्का इन के ही चरण पखार कर खड़े हुए थे। अद्भुत घालमेल है। दो ब्लागिए भिड़े हुए हैं कुत्तों के मानिंद कि यह कविता मेरी है। तीसरा ब्लागर बताता है कि दोनों की ही नहीं अज्ञेय की है। एक मार्कसिस्टि घोषणा कर रहे हैं अज्ञेय की भी नहीं यह तो फलां जापानी की है। फ़ेसबुक पर भी यह मार काट जब तब मच जाती है। एक शायरा हैं; उन्होंने अपनी जो फ़ोटो लगा रखी है, हूबहू अभिनेत्री रेखा से मिलती है। राम सिंगार भाई उन की सुंदरता का बखान करते हुए उन्हें एक दिन संदेश लिख बैठे और धीरे से यह भी दर्ज कर दिया कि आप की फ़ोटो रेखा से बहुत मिलती है। उन का ताव भरा जवाब आ गया कि मैं फ़ोटो और शेर किसी और के नहीं अपने ही इस्तेमाल करती हूं। अब क्या करें राम सिंगार भाई तब, जब बहुतेरी महिलाओं ने अपनी फ़ोटो की जगह अभिनेत्रियों या माडलों की फ़ोटो पेस्ट कर रखी है। सुंदर दिखने का यह एक नया कौशल है कि आंख में धूल झोंकने की कोई फुस्स तरक़ीब? राम सिंगार भाई समझ नहीं पाते और बुदबुदाते हैं कि कल को मां की फीगर ठीक नहीं रहेगी तो लोग मां भी बदल लेंगे?
राम सिंगार भाई के आफ़िस में एक शुक्ला जी हैं। वह फ़ेसबुक से अतिशय प्रसन्न हैं कि उन की बेटी की ज़िंदगी नष्ट होने से बच गई। हुआ यह कि वह अपनी एक बेटी की शादी एक एन.आर.आई. लड़के से तय करने के लिए बात चला रहे थे। बात फ़ाइनल स्टेज में थी कि तभी किसी की सलाह पर वह एन.आर.आई. लड़के का फ़ेसबुक पर फ़ाइल उस की प्रोफ़ाइल देख बैठे। प्रोफ़ाइल में पार्टी में ड्रिंक, लड़कियों से लिपटने-चिपटने के कई फ़ोटो पोस्ट कर रखे थे उस के दोस्तों ने। शुक्ला जी का मोहभंग हो गया। एन.आर.आई. लड़के से भी इस बारे में पूछा। वह कोई साफ जवाब नहीं दे सका। बात ख़त्म हो गई। फ़ेसबुक पर वैसे हजारे, स्वामी की चर्चा भी है और उन के प्रशंसक भी खूब हैं। पर सतही और भेड़िया धसान में लिप्त। अब देखिए कि किसी ने जूते-चप्पलों के एक ढेर की फ़ोटो पोस्ट कर दी है। शायद किसी मंदिर के बाहर का दृश्य है। और जूते भी कूड़े के ढेर की शक्ल में हैं। अब हर कोई अपने कमेंट्स में इन जूतों को नेताओं पर दे मारने की तजबीज देने में लग गया है। कोई पत्रकारों के हवाले इन जूतों को करने के भी पक्ष में है। तो कोई अपने फटे पुराने जूते भी देने की पेशकश कर रहा है।
कमेंट्स की जैसे बरसात है। बताइए जूते के ढेर पर ढेर सारे कमेंट्स। राम सिंगार भाई एक मित्र से इस की निरर्थकता पर चर्चा करते हैं तो मित्र उन्हें ही डपट बैठता है, 'तो काहें फ़ेसबुक-वेसबुक पर जा कर अपना समय नष्ट करते हो मेरे भाई!' वह चुप रह जाते हैं। ऐसे ही एक दफ़ा जब वह न्यूज चैनलों पर भूत-प्रेत, सास-बहू, लाफ्टर चैलेंज जैसे कार्यक्रमों की तफ़सील में जा कर एक मित्र से कहने लगे, 'बताइए ये भला न्यूज चैनल हैं? खबर के नाम पर चार ठो खबर में दिन रात पार कर देते हैं और न्यूज के नाम पर अंधविश्वास परोसते हैं, मनोरंजन परोसते हैं। वह भी घटिया।' तो उस मित्र ने भी जैसे बिच्छू की तरह डंक मारते हुए कहा, 'देखते ही क्यों हैं आप यह न्यूज चैनल? क्यों अपना टाइम नष्ट करते हैं?' राम सिंगार भाई ने तब से उन न्यूज चैनलों को देखना बिलकुल तो नहीं बंद कर दिया पर कम बहुत कर दिया। उन का समय बचने लगा। वह यह बचा समय बच्चों के साथ शेयर करने लगे, माता-पिता के साथ बैठने लगे। पड़ोसियों से फिर मिलने-जुलने लगे। कि तभी यह इंटरनेट पर सर्फिंग की बीमारी ने उन्हें घेर लिया। वह सर्फिंग करने लगे। फिर समय उन का नष्ट होने लगा। तो क्या वह यह सर्फिंग भी बंद कर दें? छोड़ दें फ़ेसबुक-वेसबुक?
राम सिंगार भाई सचमुच सब कुछ छोड़-छाड़ कर अपने गांव आ गए हैं। यहां इंटरनेट नहीं है। टी.वी. तो है, टाटा स्काई भी है कि सभी चैनल देख सकें। पर बिजली नहीं है। बिजली तो शहरों से भी ग़ायब होती है पर इनवर्टर थोड़ा साथ दे जाता है। लेकिन गांव में तो इनवर्टर बेचारा चार्ज़ भी नहीं हो पाता। हां लेकिन गांव में सड़क हो गई है। डामर वाली। सड़क के किनारे पाकड़ के पेड़ के नीचे कुछ सीनियर सिटीज़न की दुपहरिया-संझवरिया कटती है। राम सिंगार भाई भी पहुंच जाते हैं वहीं दुपहरिया शेयर करने। तरह-तरह की बतकही है। आरोप-प्रत्यारोप है। चुहुल है, चंठई है। ताश का खेल है। खैनी का गदोरी पर मलना, ठोंकना, फूंकना, खाना-थूकना है। और दुनिया भर की बातें हैं। नाली, मेड़ का झगड़ा, शादी, ब्याह, गौना, तीज, चौथ का ब्योरा है। किस का लड़का, किस का नाती कहां तक पहुंचा इस सब की तफ़सील है, कौन किस से फंसा, कौन किस से फंसी के बारीक़ ब्यौरे भी। मंहगाई डायन को लानतें हैं। और इस सब पर भी भारी है कुछ रिटायर्ड लोगों की पेंशन में डी.ए. की बढ़ोत्तरी।
एक रेलवे के बड़े बाबू हैं जिन को रिटायर हुए भी बीस बरस से ज़्यादा हो गए हैं। वह दो बार अपनी आधी पेंशन बेच चुके हैं। एक बार तब जब रिटायर हुए थे। बड़े बेटे को घर बनवाना था तो उस ने 'कुछ मदद' कर दीजिए के नाम पर पी.एफ. ग्रेच्युटी सहित पेंशन भी उन की आधी बिकवा दी। दस साल बाद छोटे बेटे का नंबर आ गया। बेटा तो नहीं पर छोटी बहू उन की आधी पेंशन भी खींचती रही और रिटायर होने के दस साल बाद फिर उनकी आधी पेंशन बिकवा दी कि आख़िर मेरा भी कुछ हक़ होता है। और अब बीस बरस बाद वह फिर फुल पेंशन के हक़दार हो गए हैं। अब और पेंशन बिक नहीं सकती। सो गांव के सीनियर सिटीज़ंस में सर्वाधिक पेंशन बड़े बाबू की ही हो चली है। यह जान कर सेना से रिटायर एक कंपाउंडर हैं, बड़े बाबू की खिंचाई करते हुए चुहुल करते हुए कहते हैं, 'तो बड़े बाबू अब आप रेलवे पर फुल बोझ हैं।' और चुहुल वश जोड़ते हैं, ' अब तो आप को मर जाना चाहिए!' 'क्या?' बड़े बाबू चौंके।
'अरे बारी-बारी पेंशन दो बार बेंचने के बाद भी पूरी पेंशन ले रहे हैं आप। रेलवे का ए.सी. पास भी भोग रहे हैं और अस्पताल का मजा भी मुफ़्त में। तो और क्या हैं रेलवे पर जो आप बोझ नहीं हैं तो?' वह बोलते ऐसे हैं जैसे बड़े बाबू यह सब रेलवे खर्च पर नहीं उन के खर्च पर भोग रहे हैं। और वह जैसे फिर जोड़ते हैं, 'अब तो आप को फुल एंड फ़ाइनल मर जाना चाहिए।' 'भगवान कहां पूछ रहे हैं।' बड़े बाबू की आंखों की कोरें भींग जाती हैं, 'कोई पाप किया था जो इतने साल जी गया हूं।' वह धोती की कोर से आंखें पोंछते हुए बोलते हैं, ' मर तो मैं गया ही हूं। बस देह बाक़ी है।' दरअसल बड़े बाबू के बेटे उन्हें सिर्फ पेंशन दुहने की मशीन माने बैठे हैं। और जब-तब आपस में रार ठाने रहते हैं। सो बड़े बाबू दुखी हैं। पेंशन वैसे भी उन के हाथ आती कहां है? छह-छह महीने की पेंशन दोनों बेटों में बंट जाती है। उन के हाथ आती है तो सिर्फ तकरार। सो जो बड़े बाबू अभी डी.ए. जोड़ कर बताते हुए छलक रहे थे कि, 'मेरी पेंशन तो इतनी!' वही बड़े बाबू रुआंसे हो कर उदास हो गए हैं।
भरी दुपहरिया एक सन्नाटा सा पसर गया है इस पाकड़ के पेड़ के नीचे कि तभी एक नौजवान अपनी जगह से उठ कर बड़े बाबू के पास आता है। उन के पांव छूते हुए कहता है, 'बड़े बाबू बाबा बुरा मत मानिएगा कंपाउंडर बाबा का! उन की बात का!' वह जैसे जोड़ता है, 'रेलवे पर आप जो होंगे, होंगे मैं नहीं जानता। मैं तो बस इतना जानता हूं कि इस गांव के लिए आप भगवान हैं! नहीं जो आप न होते तो इस गांव में यह सड़क न होती, स्कूल न होता, बिजली न आई होती? तो आप का जीवन इस गांव के लिए बहुत ज़रूरी है। आप और लंबा जीएं! शत-शत जिएं!' नौजवान की यह बात सुन कर सब लोग बड़े बाबू को हौंसला देते हैं। कंपाउंडर भी आ कर उन के पैर छूते हुए उन से माफी मांगते हुए कहता है, 'भइया माफ कीजिए! मज़ाक-मज़ाक में आप से हम थोड़ा कड़ा बोल गए! अप्रिय बोल गए!'
'अरे कोई बात नहीं।' बड़े बाबू सहज होते हुए बोले, 'यह तो मैं भी समझता हूं। हमारे आपस की बात है।' पाकड़ के पेड़ के नीचे बैठी सभा अब सहज हो चली है। पर राम सिंगार भाई सहज नहीं हो पाते। उन के मन में सवाल सुलगता है कि बड़े बाबू आख़िर कैसे गांव के भगवान बन गए। आखिर किस जादू की छड़ी से बड़े बाबू ने गांव में सड़क, स्कूल और बिजली की व्यवस्था करवा दी? राम सिंगार भाई के मन में उठा यह सवाल जैसे उनके चेहरे पर भी चस्पा हो जाता है। वह नौजवान राम सिंगार भाई की शंका को समझ गया। बोला, 'चाचा आप तो रहते हैं, शहर में। गांव-गाड़ा के बारे में कुछ जानते तो हैं नहीं।' वह ज़रा रुका और बोला, 'असल में कुछ साल पहले हमारा गांव अंबेडकर गांव घोषित हुआ। अलक्टर, कलक्टर, सी.डी.ओ. फी.डी.ओ., ई.डी.ओ. बी.डी.ओ. सब अफसरान आने लगे। गांव को विकसित करने के लिए। विकास करने के लिए। यहां-वहां नाप जोख करते, मीटिंग करते चले जाते। हरदम आपस में इंगलिश में बतियाते। हम लोग कुछ समझ ही नहीं पाते थे। मीटिंग होती, इंगलिश होती पर विकास नहीं होता गांव का और अफसर चले जाते।'
'फिर?' राम सिंगार भाई ने जिज्ञासा में मुंह बाया। 'फिर क्या था एक बार अफसरान अंगरेजी में गिट-पिट कर रहे थे इसी पाकड़ के पेड़ के नीचे। कुर्सी पर बैठ कर। ई हमारे बड़े बाबू बाबा भी यहीं खड़े धोती खुंटियाए उन की गिट-पिट सुनते-सुनते अचानक भड़क गए। बोले, ' तो सारा काम आप लोग कागज पर ही करेंगे।' 'क्या कागज पर करेंगे?' एक अफसर ने बड़े बाबू को डपटते हुए पूछा। 'इस अंबेडकर गांव का निर्माण। इस गांव का विकास! इस गांव की सड़क, स्कूल और बिजली। और क्या!' बड़े बाबू ने उस अफसर की उसी को टोन में डपटा। 'तुम को कैसे मालूम! कि यह सब कागज पर होगा?' 'आप लोग इंगलिश में यही तो तब से बतिया रहे हैं।' यह बात थोड़ा अदब से लेकिन इंगलिश में बड़े बाबू ने कही। तो अफसरों की इस पूरी टीम के माथे पर पसीना आ गया। एक अफसर कंधे उचकाते हुए, बुदबुदाते हुए बोला, 'ओह यू देहाती भुच्च! डू यू नो इंगलिश?'
'वेरी वेल सर!' बड़े बाबू ने मुस्क रा कर कहा। तो अफसरों की टीम आनन-फानन सिर पर पांव रख कर भाग गई।' 'अच्छा!' राम सिंगार भाई ने मुसकुरा कर पूछा। 'इतना ही नहीं चाचा जी!' वह नौजवान बोला, 'बड़े बाबू ने फिर जन सूचना अधिकार के तहत गांव के विकास के बारे में पूरी सूचना मांगी। योजना, बजट, समय सीमा वग़ैरह। फिर तो वही अफसर बड़े बाबू बाबा के आगे पीछे घूम कर सारे काम करवाने लगे और देखिए न! बड़े बाबू के एक इंगलिश जानने भर से समूचा गांव विकास में नहा गया। कहीं कोई घपला नहीं हो पाया!' नौजवान बोला, 'आज भले देश अन्ना हजारे को जानता हो पर हमारे गांव में तो बड़े बाबू पहले ही उन का काम अपने गांव में कर बैठे हैं।' 'अरे तो वइसे ही थोड़े न!' कंपाउंडर बोला, 'बड़े बाबू अंगरेजों के जमाने के मैट्रिक पास हैं। फुल इंगलिश जानते हैं। इन के इंगलिश के आगे बड़े-बड़े हाकिम-अफसर पानी भरें!'
राम सिंगार भाई यह सब सुन कर मुदित हुए। फिर दूसरे ही क्षण वह सोचने लगे कि, वह अब इस बड़े बाबू के फ़ेस का, इस गांव के फ़ेस का, इस गांव के लोगों के फ़ेस का क्या करें? और खुद से ही बुदबुदा बैठे, 'हां लेकिन यह फ़ेस फ़ेसबुक पर नहीं हैं!' 'कुछ कहा चाचा जी आप ने?' नौजवान ने भी बुदबुदा कर ही पूछा। 'अरे नहीं, कुछ नहीं।' शहर वापस आ कर कुछ दिन अनमने रहे राम सिंगार भाई। नहीं बैठे नेट पर सर्फिंग करने। नहीं खोला अपना फ़ेसबुक एकाउंट! पर एक दिन अचानक वह फ़ेसबुक एकाउंट खोल बैठे। अपने गांव का यह पूरा क़िस्सा संक्षेप में बयान किया। टुकड़े-टुकड़े में बयान किया। और पूछा कि हमारे फ़ेसबुक के साथियों में यह सरोकार, यह जन सरोकार क्यों नहीं दीखता? बड़े बाबू वाले फ़ेस या गांव वाले फ़ेस हमारे फ़ेसबुक से नदारद क्यों हैं? साथ में उन्हों ने अपने गांव की कुछ फ़ोटो भी पोस्ट की। राम सिंगार भाई की इस पोस्ट पर फ़ेसबुक में कोई खास हलचल नहीं हुई। कोई कमेंट नहीं आया। जब कि उन्हों ने दूसरे दिन देखा कि एक जनाब ने एक माडल की फ़ोटो पोस्ट की थी। उस माडल की नंगी पीठ पर कुछ लिखा था। अंगरेजी में लिखा था। उस नंगी पीठ के बहाने साइड से उस का नंगा वक्ष भी दिख रहा था। देखते ही देखते सौ से अधिक कमेंट एक घंटे के भीतर ही आ गए थे। एक से एक मोहक, छिछले, मारक और कामुक कमेंट्स!
हां, तीसरे दिन राम सिंगार भाई ने देखा कि उन के गांव वाली पोस्ट पर भी एक-एक कर दो कमेंट आए थे। एक ने लिखा था इतनी कठिन हिंदी मत लिखा कीजिए कि डिक्शनरी देखनी पड़े। दूसरे ने लिखा था कि देहाती बात लिख कर बोर मत किया करो! राम सिंगार भाई ने अपना कमेंट लिख कर पूछा दोनों फ़ेसबुक मित्रों से कि आख़िर कौन सी बात समझ में नहीं आई और कि किस बात ने बोर किया? जवाब के नाम पर फिर एक सवाल उसी दिन आ गया था एक कमेंट में। सवाल अंगरेजी में ही था कि यह सरोकार क्या होता है? हां, यह भी बताएं कि जन सरोकार भी क्या होता है? आखिर यह है क्या? हां, कमेंट में सरोकार और जन सरोकार रोमन में लिखा था। यह पढ़ कर राम सिंगार भाई ने माथा पीट लिया। और तय किया कि अब वह फिर कभी फ़ेसबुक पर नहीं बैठेंगे। फ़ेसबुक में फंसे इन चेहरों से बात करना दीवार में सिर मारना है, कुछ और नहीं। यह बात भी उन्हों ने अपने पोस्ट में लिखी और फ़ेसबुक एकाउंट लॉग-ऑफ़ कर दिया। कुछ दिनों तक फ़ेसबुक से अनुपस्थित रहने के बाद राम सिंगार भाई फ़ेसबुक पर अब फिर से उपस्थित रहने लगे हैं। यह सोच कर कि एक सिर्फ़ उन के अनुपस्थित रहने से तो फ़ेसबुक बदलेगा नहीं, उपस्थित रहने से शायद कोई फ़र्क़ पड़े।
तो क्या राम सिंगार भाई फ़ेसबुक के नशे के आदी हो गए हैं ?