फ़ैज़-अज़-फ़ैज़ / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अपने बारे में बातें करने में मुझे डर लगता है। इसलिए कि सभी बोर लोगों का मनपसंद शग़ल यही है। इस अंग्रेज़ी लफ़्ज़ के लिए माज़रत चाहता हूं, लेकिन अब तो हमारे यहां इसके रूप बोरियत वग़ैरा भी इस्तेमाल में आने लगे हैं। इसलिए अब इसे उर्दू रोज़मर्रा में शामिल समझना चाहिए। तो मैं यह कह रहा था कि मुझे अपने बारे में क़ीलो-क़ाल बुरी लगती है, बल्कि मैं तो शेर में भी भरसक एकवचन उत्तमपुरुष का इस्तेमाल नहीं करता और ‘मैं’ के बजाय हमेशा से ‘हम’ लिखता आया हूं। चुनांचे जब अदबी सुराग़साने हज़रात मुझ से ये पूछने बैठते हैं कि तुम शेर क्यों कहते हो तो बात को टालने के लिए जो दिल में आये कह देता हूं। मसलन ये कि भई, मैं जैसे भी कहता हूं, जिस लिए भी कहता हूं, तुम शेर में से ख़ुद ढूंढ़ लो, मेरा सर खाने की क्या ज़रूरत है। लेकिन उनमें से ढीठ क़िस्म के लोग तब भी नहीं मानते। चुनांचे आज की गुफ़्तगू की सब ज़िम्मेदारी उन हज़रात के सर है, मुझ पर नहीं।

शेरगोई का वाहिद उज्ऱे गुनाह तो मुझे नहीं मालूम। इसमें बचपन की फ़ज़ाए- गर्दो-पेश में शेर का चर्चा, दोस्त-अहबाब की तरग़ीब और दिल की लगी सभी कुछ शामिल है। ये नक़्शे-फ़रियादी के पहले हिस्से की बात है जिसमें 28-29 से 34-35 ई. तक की तहरीरें शामिल हैं जो हमारी तालिब इल्मी के दिन थे, यूं तो इन सब अशआर का क़रीब-क़रीब एक ही ज़हनी और जज़्बाती वारदात से ताल्लुक़ है। और इस वारदात का ज़ाहरी मुहरिक तो वही एक हादसा है जो उस उम्र में अक्सर नौजवान दिलों पर गुज़र जाया करता है, लेकिन अब जो देखता हूं तो ये दौर भी एक दौर नहीं था, बल्कि उसके भी दो अलग-अलग हिस्से थे जिनकी दाखि़ली और ख़ारजी कैफ़ियत काफ़ी मुख़्तलिफ़ थी। वो यूं है कि 20 ई०. से 30 ई० तक का ज़माना हमारे यहां मआशी और समाजी तौर से कुछ अजीब तरह की बेफ़िक्री, आसूदगी का ज़माना था जिसमें अहम क़ौमी और सियासी तहरीकों के साथ-साथ नस्रो-नज़्म में बेश्तर संजीदा फ़िक्रो-मुशाहिदा के बजाय कुछ रंगरलियां मनाने का-सा अंदाज़ था। शेर में अव्वलन हसरत मोहानी और उनके बाद ‘जोश’, हफ़ीज़ जालंधरी और अख़्तर शीरानी की रियासत क़ायम थी, अफ़सानें में यलदरम और तनक़ीद में हुस्न बराए हुस्न और अदब बराए अदब का चर्चा था। नक़्शे-फ़रियादी की इब्तदाई नज़्में, ‘ख़ुदा वो वक़्त न लाये कि सोगवार हो तू’, ‘मेरी जां अब भी अपना हुस्न वापस फेर दे मुझको’, ‘तहे नजूम कहीं चांदनी के दामन में’ वग़ैरा वग़ैरा, इसी माहौल के ज़ेरे असर मुरत्तब हुईं और इस फ़िज़ा में इब्तदाए इश्क़ का तहय्युर भी शामिल था। लेकिन हम लोग इस दौर की एक झलक भी ठीक से न देख पाये थे कि सुहबते यार आखि़र शुद। फिर देस पर आलमी कसाद-बाज़ारी के साये ढलने शुरू हुए। कॉलेज के बड़े-बड़े बांके तीसमार ख़ां तलाशे-मआश में गलियों की ख़ाक फांकने लगे। ये वो दिन थे जब यकायक बच्चों की हंसी बुझ गयी। उजड़े हुए किसान खेत खलिहान छोड़ कर शहरों में मज़दूरी करने लगे और अच्छी ख़ासी शरीफ़ बहू बेटियां बाज़ार में जा बैठीं। घर के बाहर ये हाल था और घर के अंदर मर्गे-सोज़े-मुहब्बत का कुहराम मचा था। यकायक यूं महसूस होने लगा कि दिलोदिमाग़ पर सभी रास्ते बंद हो गये हैं और अब यहां कोई नहीं आयेगा। इस कैफ़ियत का इख़्तमाम जो नक़्शे-फ़रियादी के पहले हिस्से की आख़री नज़्मों की कैफ़ियत है, एक निस्बतन ग़ैर मारूफ़ नज़्म पर होता है, जिसे मैंने ‘यास’ का नाम दिया था। वो यूं है:

यास1

बरबते-दिल2 के तार टूट गये हैं ज़मीं-बोस3 राहतों के महल मिट गये क़िस्सःहा-ए-फ़िक्ऱो-अमल बज़्मे-हस्ती के जाम फूट गये छिन गया कैफ़े-कौसरो-तस्नीम4 ज़हमते-गिरियाः-ओ-बुका5 बे-सूद शिकवः-ए-बख़्ते-नारसा6 बे-सूद हो चुका ख़त्म रहमतों का नुज़ूल7 बंद है मुद्दतों से बाबे-क़बूल8 बे-नियाजे़-दुआ है रब्बे-करीम बुझ गयी शम्ए-आरज़्ाू-ए-जमील9 याद बाक़ी है बेकसी की दलील इंतज़ारे-फ़ज़्ाूल रहने दे राज़-उल्फ़त निबाहने वाले बारे-ग़म से कराहने वाले काविशे-बे-हुसूल10 रहने दे

शदार्थ : 1. निराश, 2. हृदय-तंत्राी, 3. धराशायी, 4. जन्नत की नहरों का मज़ा, 5. क्रंदन और रुदन का कष्ट, 6. अभागेपन का दुखड़ा, 7. अवतरण, 8. स्वीकृति का द्वार, 9. सुंदर कामना का दीपक, 10. निष्फल खोज

34 ई० में हम लोग कॉलेज से फ़ारिग़ हुए और 35 ई० में मैंने एम०ए०ओ० कॉलेज अमृतसर में मुलाज़मत कर ली। यहां से मेरी और मेरे बहुत से हमअस्र लिखने वालों की ज़हनी और जज़्बाती जिं़दगी का नया दौर शुरू होता है। उस दौरान कॉलेज में अपने रफ़क़ा साहबज़ादा महमूदुज्ज़फ़र (मरहूम) और उनकी बेगम रशीद जहां से मुलाक़ात हुई। फिर तरक़्क़ीपसंद तहरीक की दाग़ बेल पड़ी, मज़दूर तहरीकों का सिलसिला शुरू हुआ और यूं लगा कि जैसे गुलशन में एक नहीं कई दबिस्तान खुल गये हैं। उस दबिस्तान में सबसे पहला सबक़ जो हमने सीखा था कि अपनी ज़ात को बाक़ी दुनिया से अलग करके सोचना अव्वल तो मुमकिन ही नहीं, इसलिए कि इसमें बहरहाल गर्दो-पेश के सभी तजुर्बात शामिल होते हैं और अगर ऐसा मुमकिन हो भी तो इंतहाई ग़ैर सूदमंद फेल है कि एक इनसानी फ़र्द की ज़ात अपनी सब मुहब्बतों और क़ुदरतों, मुसर्रतों और रंजिशों के बावजूद, बोहत ही छोटी सी, बोहत ही महदूद अैर हक़ीर शै है। इसकी वुसअत और पहनाई का पैमाना तो बाक़ी आलमे मौजूदात से उसके ज़हनी और जज़्बाती रिश्ते हैं, ख़ास तौर से इनसानी बिरादरी के मुश्तरका दुख-दर्द के रिश्ते। चुनांचे ग़मे जानां और ग़मे दौरां तो एक ही तजुर्बे के दो पहलू हैं। इस नये एहसास की इब्तदा नक़्शे-फ़रियादी के दूसरे हिस्से की पहली नज़्म से होती है। इस नज़्म का उन्वान है, ‘मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब न मांग’ और अगर आप ख़ातून हैं तो ‘मेरे महबूम न मांग’।

इसके बाद तेरह-चौदह बरस ‘क्यों न जहां का ग़म अपना लें’ में गुज़रे और फिर फ़ौज, सहाफ़त, ट्रेड यूनियन वग़ैरा में गुज़ारने के बाद हम चार बरस के लिए जेलख़ाने चले गये। नक़्शे-फ़रियादी के बाद की दो किताबें दस्ते-सबा और ज़िंदांनामा उसी जेलख़ाने की यादगार हैं। बुनियादी तौर से तो ये तहरीरें उन्हीं ज़हनी मेहसूसात और मामूलात से मुसलिक हैं जिनका सिलसिला ‘मुझसे पहली सी मुहब्बत’ से शुरू हुआ था लेकिन जेलख़ाना आशिक़ी की तरह ख़ुद एक बुनियादी तर्जुबा है जिसमें फ़िक्रो-नज़र का एक-आध नया दरीचा ख़ुद-ब-ख़ुद खुल जाता है। चुनांचे अव्वल तो ये है कि इब्तदाए-शबाब की तरह तमाम हय्यात यानी ैमदेंजपवदे फिर तेज़ हो जाती हैं और सुबह की ‘पौ’ शाम के धुंधलके, आसमान की नीलाहट, हवा के गुदाज़, के बारे में वही पहला सा तहय्युर लौट आता है। दूसरे यूं होता है कि बाहर की दुनिया का वक़्त और फ़ासले दोनों बातिल हो जाते हैं। ‘नज़दीक की चीज़ें भी बोहत दूर हो जाती हैं और दूर की नज़दीक और फ़रवादरी का तिफ़रक़ा कुछ इस तौर से मिट जाता है कि कभी एक लम्हा क़यामत मालूम होता है और कभी एक सदी कल की बात’। तीसरी बात यह है कि फ़राग़ते-हिज्रां में फ़िक्रो मुतालआ के साथ उरूसे सुख़न के ज़ाहरी बनाव सिंगार पर तवज्जो देने की ज़्यादा मुहलत मिलती है। जेलख़ाने के भी दो दौर थे, एक हैदराबाद जेल का जो इस तर्जुेबे के इनकशाफ़ के तहय्युर का ज़माना था। एक मंटगोमरी जेल का जो इस तजुर्बे से उक्ताहट और थकन का ज़माना था। इन दो क़ैफियतों की नुमाइंदा ये दो नज़्में हैं, ‘पहली दस्ते-सबा में से दूसरी ज़िंदांनामा में है।

ज़िंदां की एक शाम

शाम के पेचो-ख़म1 सितारों से ज़ीना-ज़ीना उतर रही है रात यूं सबा पास से गुज़रती है जैसे कह दी किसी ने प्यार की बात सहने-ज़िंदां2 के बे-वतन अशजार3 सरनिगूं4 मह्व5 है बनाने में दामने-आसमां पे नक़्शो-निगार शानए-बाम6 पर दमकता है मेह्रबां चांदनी का दस्ते-जमील7 ख़ाक में घुल गयी है आबे-नजूम नूर में घुल गया है अर्श8 का नील सब्ज़ गोशों में नीलगूं साये लहलहाते हैं जिस तरह दिल में मौजे-दर्दे-फ़िराके़-यार9 आये दिल से पैहम ख़याल कहता है इतनी शीरीं है जिं़दगी इस पल ज़्ाुल्म का ज़हर घोलने वाले कामरां10 हो सकेंगे आज न कल जल्वागाहे-विसाल11 की शम्एं वो बुझा भी चुके अगर तो क्या चांद को गुल करें, तो हम जानें

शब्दार्थ : 1. टेढ़े-मेढ़े, 2. जेल का आंगन, 3. पेड़, 4. नतमस्तक, 5. व्यस्त,6. बारजे पर, 7. सुंदर हाथ, 8. आसमान, 9. प्रेमिका के विरह की पीड़ा की लहर, 10. सफल, 11. जहां प्रणय की लीला होती है।

ऐ रौशनियों के शहर

सब्ज़ा-सब्ज़ा सूख रही है फीकी, ज़र्द दुपहर दीवारों को चाट रहा है तनहाई का ज़हर दूर उफ़क़ तक घटती, बढ़ती, उठती, गिरती रहती है कुह्र की सूरत बे-रौऩक़ दर्दों की गदली लहर बसता है उस कुह्र के पीछे रौशनियों का शहर ऐ रौशनियों के शहर कौन कहे किस सिम्त है तेरी रौशनियों की राह हर जानिब बे-नूर खड़ी है हिज्र की शहरपनाह थक कर हर सू बैठ रही है शौक़ की मांद सिपाह आज मेरा दिल फ़िक्र में है ऐ रौशनियों के शहर शब ख़ूं से मुँह फेर न जाये अरमानों की रौ ख़ैर हो तेरी लैलाओं की, उन सबसे कह दो आज की शब जब दिये जलायें, ऊंची रक्खें लौ

ज़िंदांनामा के बाद का ज़माना कुछ ज़ेहनी अफ़रा-तफ़री का ज़माना है जिसमें अपना अख़बारी पेशा छूटा, एक बार फिर जेलख़ाने गये। मार्शल लॉ का दौर आया, और ज़ेहनी और गिर्दो-पेश की फ़ज़ा में फिर से कुछ इंसदादे राह और कुछ नयी राहों की तलब का एहसास पैदा हुआ। इस सकूत और इंतज़ार की आईनादार एक नज़्म है ‘शाम’ और एक ना मुकम्मल ग़ज़ल के चंद अश्आर: ‘कब ठहरेगा दर्द ऐ कब रात बसर होगी?’

लाहौर जेल / मंटगोमरी जेल, 28 मार्च 15 अप्रै्ल, 1954 अनुवाद: मोहम्मद अंजुम